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________________ धर्मशिक्षा. जीवोंको कतल करना, यह किसी हालतमें धर्म नहीं हो सकता, अन्यथा सब लोग, आपस आपसमें लडाई कर, एक दुसरेको मारकर, धर्मात्मा कहे जायँगे । धर्म तो क्या? कुछ भी चाहना, कुछ भी मनोरथ, हिंसा से सिद्ध नहीं हो सकता, उलटा दुःख ही दुःख उठाना पडता है। देवी, कोई मानुषी नहीं है, कि मनुष्योंकी तरह कवल भोजन करेगी । जब, देवी हमारी तरह कुछ भी खाती-पीती नहीं, तो हम नहीं समझते कि किस विचारसे, किस मनसे, किस उद्देशसे, उसको पशुके शिरका भोग दिया जाता होगा। हमतो वहाँतक कहते हैं कि कैसी भी आपदा, कैसा भी कष्ट, कल आता हो, तो आज ही क्यों न आवे ?, मगर धर्मको छोड अधर्मकी बगलमें क्यों घुसना चाहिये । सर्पके मुँहसे जब कुछ निकलेगा, तब विष ही, वैसे ही हिंसा-अधर्मसे कभी अच्छी बात, सुखका नाम नहीं निकल सकता, जो चीज हमारी दी हुई है, अथवा जिस चीजमें हमारा अधिकार है, उसीको हम कथंचित् उठा सकते हैं, मगर पशुओंके प्राण, हमारे दिये हुए नहीं, उनपर हमारा कुछ भी अधिकार नहीं, तो फिर प्रकृतिके ताल्लुक उनपर, हमारा आक्रमण कैसे हो सकता है ? उनको हटा देना, पशुओंकी आत्मासे जुदा करना, यह काम हमसे कैसे हो सकता है ?। दूसरेकी की हुई घटनाको तोडदेनेका शासन, हमें जब मिला ही नहीं, तो फिर हम पशुओंको मारते हुए इरादा पूर्वक बडे गुनहगार ठहरते हैं, और इस अपराधकी सजा प्रकृतिक राज्यमें अवश्य मिले बिदुन नहीं रहेगी, इसलिये, परम पवित्र, अनादि-प्रधान, दया धर्म अवश्य पालना चाहिये, वह, अगर हमसे रक्षित होगा, तब ही हमारी रक्षा करेगा, और दीर्घ आयु, खूबसूरत रूप, आरोग्य, और इज्जत, वगैरह सम्पदाओंसे भेट करावेगा। ज्यादह क्या कहें ?, पर्वतोंमें मेरु, देवता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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