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________________ १७. धर्मशिक्षा उसका प्रतिदिन तो काम नहीं पडता, इसलिये दिन दिन-प्रतिदिन उसका संक्षेप करे, इसी प्रकार अणुव्रतादि में समझ लेना चाहिए । यह व्रत चार मास एक मास पन्द्रह दिन पांच दिन एक अहोरात्र एक दिन एक रात एक मुहून तक भी हो सकता है। दशवाँ वन पूरा भया । ग्यारहवाँ पोषधव्रत अष्टमी चतुर्दशी पूर्णिमा अमावास्या इन पर्व तिथियों में पोषधवत का आदर अवश्य करना चाहिए । उपवास आंबिल और एकाशन करके भी पोषधत्रत हो सकता है । एकदिन एकरात अहोरात्र अथवा अमुक दिनों तक पोषध में बैठा हुआ मनुष्य अपने कठिन कर्मों को चूर्ण कर डालता है। पोषधत्रत क्या है मानो! अमुक दिनकी मर्यादा का साधुत्व है। पोषध शब्दका अर्थ हैपोषं यानी पोषण, अर्थात् धर्मका पोषण धत्ते इतिधः यानी करे अर्थात पुण्यका-धर्मका पोषण करनेवाला पोषध है। जिसके दिन खुश किस्मत के हों, वही पोषध करनेको भाग्यशाली हो सकता है। भवरोगको मिटानेका परम ओषध रूप पोषध श्रावक लोग अवश्य करें । पुण्यप्रकर्ष का उदय होता है तब ही पोषध व्रत की प्राप्ति होती है। दीक्षा लेना यदि न बन सके तोपोषध करके तो साधुपन की थोडी बहुत खुशबू लेनी चाहिए, ताकि भवभ्रमण का कष्ट दूर हो जाय । संयम पर जिसका प्रेम नहीं-दीक्षा लेनेकी जिसको रुचि नहीं, वह कम किस्मत का मनुष्य श्रावक धर्म का भी अधिकारी बराबर नहीं कहा जाता । कहा भी है" यतिधर्मानुरक्तानां देशतः स्यादगारिणाम् " . अर्थात् मुनिधर्मके अनुरागी-गृहस्थों (श्रावकों को देशतः चारित्रधर्म है। यही बात स्पष्ट रूपमें बताई है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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