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________________ जैन दर्शनभी उक्त पांच दर्शनोंसे अलग ही वस्तुका स्वरूप बता रहा है। अब कहां रही धर्म पद्धति ? । क्योंकर अल्प मति लोगोंका चित्त धर्ममें सन्देहाकुल न होवे ?। . ___अहो ! मल्लप्रतिमल्ल न्यायेन कैसा दर्शनोंका गभीर झगडा ? । न जाने एक ही वेद पर भक्ति रखनेवाले विद्वानोंकी इतनी विप्रतिपत्ति क्यों चली? । गौतम-कापिल-कणाद-जैमिनी आदि ऋषियों के अभिप्राय परस्पर विरोधी क्यों हुए ? । मालूम तो यही होता है कि वे सब ऋषिलोग पूर्णज्ञानी नहीं थे। जैसे जैसे विचार पैदा होते थे वैसे वैसे विचारों को वे लोग लिख देते थे। बात भी ठीक ही है। विना सम्यज्ञान ऋषियोंको भी भ्रम रहा ही करता है। पाठकवृन्द ! सूक्ष्म दृष्टिसे अगर गौर कियाजाय तो गौतमादि मुनि प्रणीत एक एक दर्शनमें भी आचार्योंके परस्पर मन्तव्यविरोध दिखाई देंगे। देखिये ! नैयायिकोंका सिद्धांत, वात्सायनादि ऋषियों के अभिप्रायसे झानसुखादि रहितही मोक्ष है, और श्रीभासर्वज्ञने मोक्षमें नित्य सुखको स्वीकारा है।इसीरीतिसे प्रमाणचर्चा में भी परस्पर बहुत विरोध दिखाई देते हैं। परंतु लेख गौरवका भय रहनेसे इस बातको यहाँ विस्तरतः कहना उचित नहीं समझता हूं । इसी प्र. कार सांख्यादि दर्शनोमें भी परस्पर विरोध सुलभ ही हैं। वाचकगण! ध्यान दीजिये कि गोतमादि मुनियों को न्यायादि सूत्र कहाँसे मिले ?। यदि उन्होंने स्वमनसे सूत्र बनाकर प्रकाशित किये, तबतो उनमें विश्वास कैसे होगा?। प्रामाणिक लोग उनको प्रमाणरूपसे कैसे ग्रहण करेंगे? क्योंकि अपूर्णज्ञानी को सहज भ्रम अवश्य रहा करता है। अगर कहा जाय कि पहिले के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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