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________________ धर्मशिक्षा. चोरोंको राजा लोग शिक्षा देते हैं। चोरीके वक्तहीमें अगर चौर, राजा वा उसके अनुचरोंकी नजरमें पड जाय तो, उसी वक्त उसे पकडेगा । मगर बडा ताज्जुब है, कि ईश्वरको तो जब त्रिलोकीकी त्रिकालकी सभी बातें मालूम हैं, और अनन्त शक्तिमान् है, तो फिर पापकर्म करनेके पहले ही पाप करने वाले को पापसे क्यों नहीं रोकता? यह तो वही बात हुई कि कुएँमें गिरनेकी तय्यारीमें प. हुँचे हुए अंधे शख्सको, उधरही खडा हुआ देखता आदमी न बचावे, तो जैसा यह आदमी अधम कहाता है, वैसा ही ईश्वर भी क्यों अधम न कहावेगा? इस लिये कर्म-राजासे फिरते हुए संसारचक्रमें, ईश्वर, अपना हाथ, जरा भी नहीं डाल सकता, यह बात आगे दूर जाके विशेष खोल देंगे । इस लिये धर्म ही से सुख ही पैदा होता है, यह निःसन्देह सिद्धान्त अपनी आत्मामें पक्का जचा कर अव्वल धर्म, अहिंसा-दया पालनी चाहिये। दुनियाकी विचित्र लीला देख बडा अचम्भा पैदा होता है कि सुखको चाहते हुए भी लोग, सुखके कारणभूत धर्मका सत्कार नहीं करते, अगर सुख पाना, हमें पूर्ण मंजूर है, तो विना ही सुखसाधनकी सेवाके, सुख मिल जायगा? कभी नहीं, कारण विना कार्य कभी नहीं हो सकता, कार्यको साधनेमें कारणको पहले अवश्य रहना पडता है, जब कारणके पेट ही में कार्य गुंज रहा है, तो विना कस्तूरी मृगके, कस्तूरीकी तरह विना कारण, कार्यकी प्राप्ति नहीं हो सकती। पेट भरनेके लिये कितनी तकलीफ उठाके बाटा पाक बनाना पडता है, मगर यह तकलीफ दुःख रूप मालूम नहीं पडती, नहीं पडनेका कारण यही है कि आखिरमें पेटकी, दे दनादन पूजा करनी है, शरीरके साढे तीन करोड रोम पर आनंदकी ज्योति जगा देनी है । संसारके विषयानन्दकी प्राप्तिके लिये कुछ कष्ट उठाने पर भी वह कष्ट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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