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बलिया
૧૮૨ हिंसा का सत्कार करनेवाले परिग्रह आरम्भमें मशगूल बने हुए कामासक्त असंतोषी मृषावादी धूर्त क्रोधी मांसभक्षी और कुशास्त्रीयविद्यामात्रसे पंडितमानी-गुरुमानी लोग अपात्र हैं पात्रके शुभारमें नहीं है । पूर्वोक्त मिथ्यादर्शनी बावालोग तो बुरे पात्र हैं-निन्दनीय पात्र हैं, मगर ये बुरे भी पात्र नहीं हैं, इसलिये अपात्र माने गये । इस प्रकार अपात्र कुपात्र का परिहार कर के विवेकी शाणे लोग पात्रदानमें प्रवर्तते हैं । दान मात्र सफलफलवान् है । पात्रमें दिया दान धर्म फल को पैदा करता है और अपात्र कुपात्रमें दिया दान तरतमभावसे अधर्म का जन्मदाता है। सांप को दूध पिलाना जैसे विष की वृद्धि के लिये होता है, वैसे अपात्र कुपात्र को दान देना, संसार वृद्धिके लिये होता है। जैसे कडुवी तुम्बोमें डाला हुआ स्वादिष्ट दूध खराब होजाता है, वैसे शुद्ध भी दान अपात्र कुपात्रमें पडनेसे दूषित होता है। अपात्र कुपात्रको दी हुई पृथ्वी भी फलके लिये नहीं होती, किंतु पात्रमें दिया हुआ ग्रास (लुकमा) भी बड़े फल के लिये होता है।
पात्रापात्रका विचार मोक्ष संबंधी दानके विषयमें किया जाता है, मगर अनुकम्पादान-दयादान तो कहीं निषिद्ध नहीं है । पात्र हो या कुपात्र हो सबकी क्लेशदशा-दुःखावस्था पर दयालु होना चाहिए । दुःखके प्रतीकारार्थ यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए । पापी हो या धर्मी हो दुश्मन हो या मित्र हो सबपर दयादान करना । दुःख सबको प्रतिकूल है, इसलिये दुःखसे छुडवाना, पिपासु (प्यासे) को पानी पाना मरते हुए को रोटी देना ऐसा दयादान धर्ममें शामिल है। जिन्हें दुःखी को देख दया न आई उसको बेधडक पत्थर जैसे कठिन दिलका कहना चाहिए । वह धमकी हद्द पर अभी नहीं पहुँचा, जो दुःखी के दु:
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