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________________ धर्मशिक्षा. नियोंको शास्त्रका पता नहीं मालूम पडता है। और सच्चे ज्ञानि लोग तो धर्म नायक पनेके अनुचित घमंडसे हमेशा बहारही रहते हैं । वास्तवमें तो जबतक विप्रलंभक गुरुके वचनों के ऊपर हृदय विश्वासी रहेगा, और असंबद्ध प्रलापोंसे गुरु वचनोंको सत्य सिध करनेका हठ दूर न होगा, तबतक यही : दृष्टिरागरूप मलयवायु तत्त्वज्ञानरूप अमृत दृष्टिका जन्म न होने देगा । अतः दृष्टिरागको जलांजलि देकर शास्त्रोंकी परीक्षा माध्यस्थ्यसे करनी चाहिये। और न्यायनरेशकी आज्ञाको हमेशा उठानेवाले सिद्धान्तोंको अपना उपादेय समक्तना चाहिये । जिज्ञासु-- " षण्णां विरोधोऽपि च दर्शनानां तथैव तेषां शतशश्च भेदाः। नानापथे सर्वजनः प्रवृत्तः को लोकमारा धयितुं समर्थः? " ॥१॥ बौद्ध-नैयायिक-सांख्य-जैन-वैशेषिक-जैमिनीय ये छ दर्शन हैं। और वे परस्पर विरोध रखते हैं। और प्रत्येक दर्शनमें से सैंकडों फांटे निकले हुवे दिखाई देते हैं। समस्त प्रजा भिन्न भिन्न मार्ग में प्रवृत्त हो रही है । अव जनसमाजको कौन उपदेशघारा आराधित करसकता है । बस इस कारण से लोगों का चित्त धर्म के विषयमें विव्हल रहा करता है, किं कर्त्तव्यतामूह बना रहता है । तो क्या परमार्थ से कोइ सत्य धर्म होगा ही नहीं कि जिससे संसारका क्लेश नष्ट होसके ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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