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धर्मशिक्षा
वाह जी वाह ! ईश्वरकी कैसी दीर्घदर्शिता । धन्य है ऐसे ईश्वरको जिसका मनोरथ कुछ था और परिणाम कुछ निकला कि जिस वेदका पुच्छ पकड कर सैंकडों धर्म वर्तमानकाळमें चले जा रहे हैं । बन्धुओ ! समझिये, ईश्वरको यदि सत्य धर्म चलाना था तो सब ऋषि लोगोंको एक ही सत्य धर्मकी श्रुतियां देनी थी जिससे भिन्न भिन्न दर्शनोंकी धारा निकलकर प्रजाको क्लेशित नहीं बनाती । खैर! इस वख्तभी ईश्वरको क्या निद्रा भाई है, इस वख्तभी ईश्वर खडा होकर पाखंडी लोगोंको शिक्षा देकर वेदका परमार्थ प्रकाश क्यों नहीं करता है? । अगर कहा जाय कि इस वख्त कलियुग होनेसे ईश्वर खडा नहीं हो सकता है तो क्या कलियुग ईश्वरकी क्रियाको भी रोक सकता है ? यदि ईश्वरकी क्रिया को भी कलियुग रोकेगा तो ईश्वर शक्तिहीन ही कहा जायगा। यदि कलियुग ईश्वरके ऊपर कुछ नहीं कर सकता है, तो फिर ईश्वर क्यों सत्य धर्मका प्रकाश करनेमें विलंब करता है। दयालु ईश्वर यदि सर्व शक्तिमान् है तो जब चाहे तब प्रजाके ऊपर दया कर सकता है। सुयुगमें तो प्रायः बुद्धिमती सुशीला मजा होती है उस समयमें प्रजाके ऊपर दया करनेका परिश्रम उठाना इश्वरको अत्यावश्यक नहीं है। किन्तु दया करनेकी अत्यावश्यकता इस कलियुगमें ही है । ऐसे समयमें दयालु देवको दया प्रजाके ऊपर यदि न बने तो फिर वह दयालु कैसे कहा जायगा ?। क्षुधा के समय पर भोजन दाता दाता कहलाता है, परिपूर्ण पेट होने पर अमृत दाताभी सत्कार पात्र नहीं होता है । तात्विक दृष्टिसे मी. मांसा करने पर वेद न तो ईश्वर रचित मालूम पड़ते हैं और न प्राज्ञ मुनीश्वर रचित मालूम पड़ते हैं क्योंकि वेद श्रुतियों में बहुत विरोध दृष्टिगोचर होते हैं । अत एव समज्ञना चाहिये कि मूल ( वेद ) जब अशुद्ध है तो वेदोंके आधारसे निकले हुए गौतम
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