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धर्ममिक्षा.
२४९ चौतरे पर नंगा हो के सो जाता है, और अपना गूढ अभिप्राय भी फौरन प्रकाश कर देता है । शराबके पीनेसे कान्ति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी वगैरह नष्ट हो जाती हैं । मद्यका पान किया हुआ मनुष्य भूताविष्ट जन की तरह नाचने लग जाता है, और शोकार्त आदमी की तरह रटने लगता है, तथा दाहज्वरात पुरुष की भांति जमीनपर लोटने लग जाता है। शराब, शरीरकी नसों को ढीली कर देती है, और इन्दियों में ग्लानि पहुँचाती है, तथा मूर्छा को जन्म देती है, इसीलिये तो मदिरा को हालाहल (जहर) की उपमा देनेमें आई है। आग के कणसे घास के ढेर की तरह विवेक संयम ज्ञान सत्य शौच दया क्षमा वगैरह गुण शराबसे दग्ध हो जाते हैं । दोषोंका कारण और आपदाओंकी जन्मभूमी-मद्य, रोगातुरके लिये अपथ्य की तरह धर्मात्मा के लिये वर्जने योग्य है । अब
मांस के दोष बताते हैंजो शख्स मांस खाना चाहता है, वह धर्म वृक्षके खास मूल -दयाके उखाड डालने को कमर कसता है, क्योंकि मांसचीज ही ऐसी है कि जीवोंके मारने बिना पैदा नहीं होती, और जीवोंके मारनेसे हिंसा राक्षसीका पांव मजबूत होता है, तथा दया नष्ट होजाती है । दया नष्ट हुई तो धर्मका मूल रहा ही कहां ?, और धर्मका मल नहीं रहनेसे धर्मकी सत्ता किस कदर रहेगी यह कहनेकी कोई जरूरत नहीं। मांस खाता हुआ जो मनुष्य दयाका पालन करना चाहता है, वह सचमुच जलती आगमें वेलको रोपना चाहता है । जो आदमी मांस भक्षण करनेवाला है, वह भी बराबर घातक ही है, इस विषयमें मनु की भी देख लीजिये ! राय" अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रय। संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः" ॥१॥
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