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________________ धर्मशिंशा. __ महानुभावो ! धर्म एक दुनियाँमें आलादर्जेकी चीज है। धर्मके बराबर और कोई अमृत नहीं, और अधर्मके समान कोई विष नहीं है, अब समझिये ! कि अगर अमृतकी जगहपर भ्रमसे विषका सेवन किया जाय, तो कितनी दुर्दशा होगी?। अतः पुख्ता रीतिसे अमृत और विषका फरक समझकर पीछे अमृतका ग्रहण करो, ! और विषको छोडो ! । अपने बाप दादे यदि विष खाके मरते आये हों, एतावता अपने को भी विष भक्षण करना चाहिये, यह इन्साफ नहीं कहाता है । इस लिये अक्ल मं. दोंको चाहिये कि पहले अपना मन, मध्यस्थ-उदार बनावें, और सरल रीतिसे, धर्म-रत्नकी खोज करें । जिज्ञासु बात तो सही है । हिंसा वगैरह दोषोंसे भरा हुआ शास्त्र, कैसे सुशास्त्र कहा जा सकता ?। अब तो एक बौद्ध दर्शनके ऊपर कुछ २ विश्वास रहता है, क्योंकि अब बौद्धदर्शनसे अतिरिक्त कोई दर्शन, सत्य रूपसे मालूम नहीं पडता । निदान जैन दर्शन भी बौद्ध दर्शनकी एक शाखा रूप ही सुना जाता है । वह बौद्ध दर्शन भी यदि अप्रामाणिक होगा, तब तो धर्मका नाम ही कैसे रहेगा ? । हा ! बडा कष्ट, क्या धर्म रहिल ही जगत् होगा। हा दैव ! सत्य धर्मका. यदि बिलकुल अभाव होगा, तो इस संसारका शरण कौन होगा ?, मोक्षकी व्यवस्था कैसे बनेगी ?, परलोककी विचित्रता भी कैसे सिद्ध होगी ?, ज्यादह क्या कहें, पहले जीव ही पदार्थको ठहराना कठिन होगा, बस ! पहुँच गयी नास्तिकोंकी कीर्ति आवाज । ज्ञानी चार्वाक ( नास्तिक ) का नाम भी मत लो !, वह तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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