SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशिक्षा. स्वतएव छोडके परमहंस-परम योगी बनते हैं । तीर्थंकरोंके उपदेश देनेकी भूमिका नाम है-समवसरण । वह समवसरण,इन्द्रोंकी आज्ञासे देवतालोग बड़ी अद्भुत रीतिसे एक योजन भूमिमें बना देते हैं, और उतनी जमीनमें कोडाकोडो प्राणी बडे मजेसे बैठकर ईश्वरकी अमृतसी वाणीका पान करते हैं । ईश्वरकी व्याख्यान परिषद् इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र वगैरह, तमाम जगत्के नायक आते हैं । जन्मसे शत्रुता रखनेवाले जानवरभी जस समय परस्पर प्रेमी बनके सावधानतासे प्रभुका उपदेश सुनते हैं । पांतीस गुणोंसे विभूषित तीर्थकर देवकी देशनाको जानवर तकभी भलीभांती समझ जाते हैं। हाथमें चवर उलारते इन्द्रोंसे सेवाते हुए तीर्थकर भगवानकी मेघकी तरह गंभीर-ध्वनिको बारह पर्षदाएँ मयूरकी भांती बडे आनंदसे पीती हैं। ___ इन्हीं (तीर्थकरों)के चरणोंकी सेवासे अनंत महात्मा-लोग कर्मोंसे मुक्त हो गये-सर्वज्ञ बन गये, और मुक्तिमें जा पहुँचे । ये ही ईश्वर, धर्मके मूल-बीज हैं, धर्मके नायक हैं, धर्मके दाता हैं। इन्हींके उपदेशानुसार, महाप्राज्ञ, विशिष्ट लब्धिसंपन्न, गणधरमहाराज, द्वादशांगीकी रचना करते हैं । और उन्हीं शास्त्रोंके आधारसे उत्तरोत्तर पैदा हुए गीतार्थ-महर्षि, नये नये ग्रंथ बनाते हैं । कहिए ! सज्जनो! धर्मका मूल कैसा मजबूत-प्रामाणिक है ?। कैसी सडकसे जैनधर्मका इस जमानेमें आना हुआ ?। ऐसी ही निर्मल सीधी सडकसे आया हुआ धर्म, सत्यधर्म कहलाता है। उक्त द्वादशांगी (बारह अंगों) मेंसे वर्तमानकालमें ग्यारहही मूल अंग बाकी हैं, बारहवां दृष्टिवाद नामका अंग विच्छिन्न हो गया है। मुनिये ! ग्यारह अंगोंके नाम --: 2 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy