Book Title: Arambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Author(s): Udayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उदयप्रनदेव सूरि विरचित आरंसिदि. श्री हेमहंस गणि विरचित टीका सहित श्री दरिना सूरि विरचित लग्नशुदि. श्री रत्नशेखर सूरि विरचित दिनशुदि. PeapSNA ए त्रणे ग्रंथो सर्वोपयोगी जाणी गुर्जर नापानुवाद बपावी प्रसिद्ध करनार भावक जीमसिंह माणेक. पुस्तको प्रसिद्ध करनार तथा वेचनार. मांमवी, मुंबश्. संवत् १९७४. वीर संवत् २४. सने १५१७. PRECPEVACES Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ criated by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya-Sagar Press, 28, Kolbhat Lane, Bombay. Pablished by Bhanji Maya for Bhimsi Maneck, 225-231 Mandvi, Sackgalli, Bombay. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. था चपार संसारसागरमा मन थयेला प्रालीगणो चोराशी दक्ष योनिरूप तरंगोमां मश कर्या करे . तेमां दैवयोगे मानुष्यादिक सामग्रीरूप फनकादिकानुं अवलंदन ळ्या उतां पण केटलाएक अलव्यत्वादिक पुर्जाग्यने योगे असत्कर्मरूप विपरीत वायुना कर्षणथी पुनः पुनः थरघट्टघटीना न्याये तेज योनितरंगोमां अनंत काळ सुधी भ्रमण र्या करे , अने केटलाएक जव्यो सद्लाग्यने योगे संयमादिक सत्कर्मरूपी अनुकूळ युनी प्रेरणाथी मुक्तिरूपी तीरे पहोंची निर्जय परमानंदने पामे . आ मुक्तिज सर्व पण दर्शनने इष्टतम , कारण के अन्य गतित्रय (देव, नारक अने तिर्यंच) सिवाय क मनुष्यगतिमांज अने तेमां पण कर्मचूमिना मनुष्योने माटेज धर्म, अर्थ, काम श्रने कि ए चार पुरुषार्थ साधवानी फरज शास्त्रमा कहेली ने अर्थात् ते मनुष्योज चारे रुषार्थो साधी शके . तेमां मोक्ष पुरुषार्थने इष्टतम गणेलो ने एटले के मोद साध्या बीबीजं कांश पण साधवानुं श्रवशेष रहेतं नथी. ते मोक्षने साधवानं एकांत स मजबे, एटखे के धर्मनुं मुख्य फळ मोदज , अने अर्थ तथा काम ए आनुषंगिक ळ . श्रा उपरथी सिद्ध थाय डे के मनुष्य अने तिर्यंचना प्राणित्व जाति अने श्राहादिक धर्मो (संज्ञा) समान उतां पण मात्र एक धर्म पुरुषार्थने याश्रीनेज मनुष्यनव ए गएयो ने. कडुंबे के "श्राहारनिघालयमैथुनं च, समानमेतत्पशुचिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको नराणां, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥१॥" . "थाहार, निजा, जय अने मैथुन था चार पशुठनी साये मनुष्योने समान बे. तेमां नुष्योने एक धर्मज अधिक बे, ते धर्म वमे रहित होय तो ते पशु समानज ." आ धर्म निन्न निन्न दर्शनोमां अन्यान्य प्रकारे वर्णन कर्यो . तेमां सर्वथा प्रकारे भनी शुद्धता जैन दर्शनना जेवी कोइ पण दर्शनमां नयी एम घणी रीते सिद्ध थाय , रंतु ते पत्र प्रस्तुत होवाथी कहेवामां श्रावतुं नथी. अहीं धर्म शब्दनो सामान्य अर्थ फरज-कर्तव्य थ शके बे. ते लौकिक अने लोकोर दे करीने बे प्रकारनो वे. तेमां पित्रादिक पुत्रादिकनुं पोषण करे, जन्मोत्सवादिक स्कार करे, विद्याध्ययन करावे, लग्न करे तथा व्यापारादिकमां योजना करे, ए तेमनी रज-धर्म जे. तेज रीते पुत्रादिक पित्रादिकनी सेवा-लक्ति करे, तथा अंते श्रौर्ध्वदेहिकादेक क्रिया करे,ते तेमनी फरज-धर्म ले. एजरीते पति-पत्यादिक अन्योन्यना हितकार्यमां वर्ते तथा निर्वाहादिकने कारणे कृषि, व्यापार अने राजसेवादिक कार्यमा प्रवर्ते, ए वगेरे धर्म-फरज कहेवाय जे. श्रा सर्वनो लौकिक धर्ममा समावेश आय ने अने केवळ १ उपरनी युक्तिथी अर्थ, काम भने मोक्षनो भर्ममांज समावेश थाय छे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श् प्रस्तावना. माना मोक्षपर्यन्तना पारलौकिक हितने माटेज नित्यकर्म, देवपूजा, गुरुशुश्रूष दान, शीळ, तप, जाव, संयम ( देशविरति ने सर्वविरति ) विगेरे सत्क्रियामांज ते सर्व लोकोत्तर धर्म कहेवाय छे. या बन्ने प्रकारना धर्ममां जेम वाह्य सामः एटले पुरुषसंपद्, धन, नीरोगता, आत्मवीर्य, सद्बुद्धि ने चित्तोत्साह विगेरेनी श्राव श्यकता बे तेज रीते सन्मुहूर्त्तरूप याज्यंतर- दैवी सामग्रीनी पण अत्यंत आवश्यकत d. लौकिक अथवा लोकोत्तर कोइ पण शुभ कार्य करती वखते कुतूहळी क्षुद्र देवोनं अनेक प्रकारे उपद्रव संजवे बे. कह्युं बे के "श्रेयांसि बहुविघ्नानि, जवन्ति महतामपि । श्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ॥ १ ॥ " " महापुरुषाने पण कट्ट्याणकारी कार्यो घणां वित्रवाळां थाय बे, अने अशुभ कार्यमा प्रवर्तेला पुरुषोनां विनो कोइ पण ठेकाणे चाल्यां जाय बे." योग्य काळे करेला विवाहादिक तथा दीक्षा-प्रतिष्ठादिक कार्यो उत्तर काळे उलटा अशुभ फळने यापनारां दृष्टिपथमां आवे छे. अयोग्य काळे करेला प्रयाण, वेपार विगे नां विपरीत परिणामो नीपजे बे. ए विगेरेने दूर करवा माटे दैवी सामग्री सिवाय बीजी कोइ पण सामग्री समर्थ नथी एटलुंज नहीं, परंतु परवशताने सीधे थयेलां जन्म व्याधि ने मरणादिक पण अयोग्य काळे थयां होय तो ते पण शांति-पुष्टि श्र दैवी सामग्रीथी निर्दोष थाय बे. आवा अनेक हेतुने लइने दरेक शुभ कार्यमा शु मुहूर्त्तनी जरुर बे ने तेने प्रतिपादन करनार ज्योतिष शास्त्र . बे. अन्य शास्त्रोनी जेम या ज्योतिष शास्त्रनो विषय पण अत्यंत सूक्ष्म ने उत्सर्गअपवादादिक व अति गहन तथा सुविस्तृत बे. जेम अध्यात्मादिकनुं रहस्य समजं प्रति कठिन बे तेम या ज्योतिपनुं तत्त्व पण अति गहन बे. अन्य शास्त्रोनी जेम का ज्योतिषनुं तत्त्व पण अति गहन बे. अन्य शास्त्रोनी जेम था ज्योतिष शास्त्र पण अनेक दर्शनide जिन जिन्न प्रकारे स्वस्वशास्त्रीय जापामां रचेतुं वे. जो के दर्शननी जिन्नताने लइने प्राये श्र शास्त्रना विषयमा निन्नता नथी, तोपण गणित सिवायना सर्व विष योमा एक दर्शनना ग्रंथकार आचार्योंना पण मतांतरो बे. ते सर्व विषयोनुं सूक्ष्म ज्ञान जो होय तो ते अमुक अपेक्षाए केवळी जेटलुं ज्ञान धरावे बे तेम सामान्य मनुष्यने प्रतीत थाय छे, कारण के अष्टांग निमित्तने जाणनार गोशाळक श्रीमहावीर स्वामीनी समान बनी पोताना सेवकोमां तीर्थंकर जेटलो पूज्य थयो हतो. वराहमिहिर के जेणे १ आ शास्त्र केवळ काळने प्रतिपादन करनार होवाथी सर्व कार्यमां काळनेज हेतुरूप गणे छे, तेथी करीने द्रव्य, क्षेत्रादिकनो निषेध थइ शकतो नथी. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ३ जैमी दीक्षा अंगीकार करीने अनेक शास्त्रमां प्रवीणता मेळवी हत्ती से पोताना 15 जवाने गुरु श्राचार्यपद पेलुं जोइने ईर्ष्याने सीधे चारित्रनो त्याग करी तिष्ठानपुरना जितशत्रु राजानो पूज्य पुरोहित थयो हतो. एकदा वराहमिहिरे अमुक काणे कुंमाळु करीने राजाने कर्तुं के या कुंकाळामां आकाशमांथी कामुक वखते बावन कनो मोटो मत्स्य परुशे. ते वखते जत्रबाहु स्वामीए कुंमाळानी बहार पवानुं क ने तोलमां तेथी जंबो परुवानुं करूं. तेज प्रमाणे कुंमाळा बहारज ने बा तोलवाळो ज्यो. त्यारपवी एकदा राजानी राणीए पुत्र प्रसव्यो. तेनी जन्मकुंकळी करीने वराहहिरे कुंवरनुं सो वर्षनुं आयुष्य कह्युं, जज्बाहु स्वामीए बिलामी थकी सातमे दिवसे रण अशे एम कं. ते सांजळी राजाए गाममांथी सर्वे बिलामी उने बहार कढावी छाने चोकसीथी मक्षिकानो पण प्रवेश न थइ शके तेवा एकांत महेलमां ते पुत्रने राख्यो. योगे सातमे दिवसे बारणाना उंबरामां बेठेली धात्रीना उत्संगमां रहेला पुत्रना माथा र धारनी अर्गला पमी, तेथी तेनुं मरण नीपज्युं. ते जाणी राजाने अत्यंत शोक थयो. बीते गुरु पासे जइने पूच्छं के अपना कहेवा प्रमाणे पुत्रनुं सातमे दिवसे मरण युं, परंतु ते मरण बिलामीथी थयुं नहीं, तेनुं शुं कारण ? गुरुए कहां के धारनी गला उपर बिलामीनुं चित्र बे तेमज अर्गलाने बिलामी कहे बे, तेथी ते बिलामीथीज रथयुं बे. ते सांजळी राजाए ते वातनी खात्री करीने गुरुना ज्ञाननी प्रशंसा करी. श्रा माणे जैन ज्योतिषमा रहेला अपूर्व ज्ञाननी यथार्थता शास्त्रप्रसिद्ध बे. वा विस्तार ज्ञानवाळा ज्योतिष शास्त्रमां आखी खगोळ विद्यानो पण समावेश बे. श्रीसूर्यप्रति ने चंद्रप्रज्ञप्ति विगेरे गणित शास्त्रने आधारे वर्ष, कायन, तु, स, पक्ष, रात्रि दिवस विगेरे काळचक्रनो विजाग नियमित रीते जाणी शकाय बे. तेज तिथि तथा मासनी वृद्धि अने क्षय, ग्रहो, नक्षत्रो, ताराज विगेरेनो उदय, क्र गति ने जुगति, तथा उटकापातादिक उत्पातो आगळथी जाणी शकाय बे, फळप्रतिपादक ग्रंथोने आधारे पृथ्वी पर थता सुकाळ, दुष्काळ विगेरे शुभाशुभ पण जाणी शकाय बे. एक मनुष्यना जन्मादिक काळने या श्रीने तेनी श्राखी जींदगी १ वराहमिहिरे ज्योतिषना विषय उपर वाराहीसंहिता रची छे, ते लोकमां प्रसिद्ध छे. आ भद्रबाहु स्वामी चौद पूर्वधर होवाथी श्रुतकेवळी हता अने तेथी करीने केवळीना जेटली थन करवानी शक्ति हती. तेमणे आचारांग निर्युक्ति, सूत्रकृतांग निर्युक्ति, बृहत्कल्प मूळ तथा तेनी युक्ति, व्यवहार मूळ, आवश्यक निर्युक्ति, दशवैकालिक नियुक्ति, उत्तराध्ययन निर्युक्ति, पिंड युक्ति, ओघ निर्युक्ति, दशाश्रुतस्कंध मूल तथा तेनी निर्युक्ति, संसक्त निर्युक्ति, उपसर्गहर स्तोत्र तथा योतिषमां भद्रबाहु संहिता अने द्वादश भाव जन्मप्रदीप विगेरे ग्रंथो रच्या छे. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. धीरेक शुनाशुन फळ जाणी शकाय ने एटलुंज नहीं, परंतु तेना थान्यंतर गु दोषो अने मनमां करेला गुप्त विचारो तथा पूर्व अने पश्चात् नवर्नु पण ज्ञान अशा वे. अमुक मनुष्यने श्राश्रीने अमुक मास, तिथि, वार, नदत्र विगेरेना संयोगे का करवाथी अमुक शुनाशुन फळ प्राप्त थवानुं जाणी शकाय . विगेरे विगेरे आ ज्योति शास्त्रमा अत्यंत सूदम ज्ञान समायेलु ने, परंतु आवा पमता काळमां तेवा ज्ञानना संपूर्ण झाता अत्यंत मुखेन बे, तोपण तेना बावत्ता ज्ञानवाळा तरतमताए करीने सांप काळे पण जोवामां श्रावे . ज्योतिष शास्त्रने आधारे कोइ पण निमित्त कहेलुं होय करतां जो ते विपरीतपणे परिणाम पामेलु जोवामां आवे तो तेमां शास्त्रनो के अध्या पक गुरुनो दोष होतो नथी, परंतु ज्ञाताने तेनुं रहस्य यथार्थ समजवामां आव्युन होवाथी तेनी विपरीत बुद्धिनोज दोष होय . जेमके-कोश् गुरुना बे शिष्यो समान शानवाळा हता, ते कार्यप्रसंगे ग्रामांतर गया. ग्राम बहार नदीतीरे ते विश्रांतिने माटे बेठा. ते वखते गामनी एक वृया स्त्री नदीमांथी पाणी नरी पाणीनो घमो माथे लइ चाली. तेणीए था बन्ने ब्राह्मणोने विधान् जाणीने पूज्युं के 'हे पंमितो ! मारो पुत्र परदेश गयो बे. तेना कांइ पण खबर नथी. तो ते क्यारे श्रावशे ?' श्रावो प्रश्न पूलती वेळाएज ते वृक्षाना मस्तक परथी पाणीनो घमो पमी गयो भने तेना ककमा थर गया तथा तेमांनुं पाणी नदीमा मळी गयु. ते जोश्ने एके कह्यु के 'हे वृक्षा ! तमारो पुत्र मृत्यु पाम्यो बे.' ते सांजळीने बीजाए कह्यु के-'हे बंधु ! एम न बोल. तेनो पुत्र श्रत्यारे घेर श्राव्यो बे. हे वृक्षा! तमे शोक करशो नहीं. घेर जा. तमारो पुत्र घेर थाव्यो . ते सांजळीने वृक्षा उतावळी उतावळी घेर गइ अने पुत्रने जोयो. या बन्ने विद्यार्थी एकज गुरु पासे सरखा ग्रंथो नण्या हता बतां पहेलाए विनयहीन दोबाथी तेर्नु रहस्य जाण्यु नहोतुं अने बीजाए विनयवंत होवाथी जाएयुं हतुं, तेथी तेनुं ज्ञान यमार्थ हां. अहीं विरुष फळ कहेवानो हेतु ए जे जे पहेलाए घनो फुटी जवाथी पुत्रनुं पण मरण कटप्यु अने बीजाए घमो पोतानी उत्पत्ति (माटी)मां मळी जवाथी तथा पाणी साथे पाणी मळी जवाथी पुत्रने पोतानी उत्पत्तिस्थाने श्रावेलो कट्प्यो. श्रा उपरथी एम सिद्ध थाय ने के शास्त्र तो मात्र दिग्दर्शनज करावे , अने पी ग्राहकनी बुधिना परिणाम प्रमाणेज ते परिणमे बे, तेथी करीनेज श्रागममां कडं डे के-सम्यक् शास्त्र पण मिथ्यादृष्टिने विपरीत परिणमे ने, अने मिथ्या शास्त्र पण सम्यक्दृष्टिने सम्यक् परिणमे बे. तेज रीते श्रा ज्योतिष शास्त्रना विषयमां पण समजq. जैन ज्योतिषना ग्रंथो जेवा के अर्थकांम, अष्टांगहृदय संहिता, आयज्ञानतिलक वृत्ति, श्राय प्रश्न, श्राय सद्लाव, गणिततिलक वृत्ति, चंजरा, चकविवरण, जन्मकुंमळी विचार, जन्मपत्री विचार, जन्मपत्री पत्ति, जन्मांनोधि, जातकानिधान, जातक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. पिका, ज्योतिश्चक्र विचार, ज्योतिसार संग्रह, ताजिकसार वृत्ति, तियादि सारणी, पदश जाव जन्म प्रदीप, नरपति जयचर्या विगेरे विगेरे एटला बधाबे के मात्र प्रसिद्ध थोनां पण नामो अत्रे लखतां अति विस्तार थर जाय. आ विषयना ग्रंथो बीजा वेषयोना ग्रंथोनी अपेक्षाए बहु उंग पाया एम कहीएतो ते कांश अतिशयोक्ति नरेलु 'थी, माटे तेवा ग्रंथोनी खास जरुर जणायाथी हालमां श्रा आरंभसिद्धि, लग्नशुद्धि पने दिनशुद्धि नामना त्रण ग्रंथो जाषांतर सहित पावीने प्रसिद्ध कर्या बे. आ श्रारंसिजि नामना मूळ ग्रंथना कर्ता नागें गबना श्रीउदयप्रभदेव सूरि ने. रेक शुनाशुल प्रारंजोनी सिद्धि करनार होवाथी या ग्रंथy "आरंलसिद्धि" ए अन्वर्थ Tम ले. श्रा नाम उपरथीज तेनो विषय समजी शकाय के आ ग्रंथ केवळ मुहूर्त्तनाज वषयवाळो बे. कोइ पण कार्यना मुहूर्त्तनो निश्चय करवा माटे अनेक ग्रंथोनी अपेक्षा मती होवाथी तेना विधानोने अति प्रयास थतो जोश पूज्यपाद श्रीउदयप्रनदेव सूरिए हूर्त्त अने तेने लगता योग, करण, गणित, फळ विगेरे सर्व आपेक्षिक विषयोनो संग्रह प्रा ग्रंथमां करेलो ने, एम टीकाकारे पण प्रारंले पीलिकामा स्पष्ट जाणाव्यु ने, तेथी था 'धनी पहेलां मुहूर्त संबंधी श्रावो को पण ग्रंथ हतो नहीं एम सिद्ध थाय बे. ग्रंथकार श्रीउदयप्रजदेव सूरिए ग्रंथमा पोतानो सत्तासमय, जन्मनूमि, मातापिता, क्षागरु विगेरे कांड पण हकीकत जणावी नथी. तेमज पोते बीजा कया कया ग्रंथो च्या ले १ ए विगेरे कां पण सख्यु नथी, परंतु ग्रंथना प्रारंजमा टीकाकारे पीविकामां णाव्युं ले के “(श्रीवस्तुपाळ नामना) मंत्रीश्वरे श्रीनागें गबना गुरु सत्ज्ञान सत्च्या अने सद्गुणोए करीने शोजता एवा श्रीमान् उदयप्रनदेव सूरिने आचार्यपद पर पन कर्या हता." आ लेखने अनुसारे शोध करतां आ सूरीश्वर संबंधी केटतीक कीकत अन्यान्य ग्रंथोमांथी मळी श्रावी . तेमां श्रीवस्तुपाळचरित्र प्रस्ताव सातमामां ततोऽनेकपुरग्राम-वास्तव्याहतसन्ततिम् । पाहूय बहुमानेन, श्रीधवलक्कपत्तने ॥३६० ॥ श्रीनागेन्गणाधीशै-पिंधा मंत्री मानृताम् । प्रत्यहं कारयामास, सविशेषमहोत्सवम् ॥ ३६१ ॥ उदयप्रनसूरीणां, पूरिताङ्गिमनोरथम् ।। श्रीश्राचार्यपदारोप-प्रतिष्ठां विष्टपाछुताम् ॥ ३६॥ त्रिनिर्विशेषकम् ॥ शतानि त्रीणि सूरीणां, तमुत्सवदिदृदया। समं स्वकीयसंघेन, तदापुमैत्रिवेश्मनि ॥ ३६३ ॥ तेषां सपरिवाराणां, संघपूजामहोत्सवम् । विधिवविदधे मंत्री, विशुचसिचयादितिः ॥ ३६४ ॥ इत्यादि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. "त्यारपरी वस्तुपाळ मंत्रीए अनेक पुर अने ग्रामना रहेवाशी श्रावकोना समूह घाला मानपूर्वक श्रीधवलक पत्तनमां वोखावीने श्रीनागें गबना सूरीश्वर पासे कि · प्रकारना महोत्सवपूर्वक बन्ने प्रकारे क्षमाने धारण करनार श्रीउदयप्रन सूरिनी जगत अद्लुत एवी श्राचार्यपदनी प्रतिष्ठा करावी. ते वखते ( दान वमे) सर्व प्राणी मनोरथ तेणे (मंत्रीए) पूर्ण कर्या. ते महोत्सव जोवानी श्वाथी त्रणसो आचार्यो पो पोताना गल अने संघ सहित मंत्रीना आमंत्रणथी त्यां पधार्या हता. परिवार सहित सर्व श्राचार्योना समूहनी पूजानो महोत्सव मंत्रीए शुद्ध वस्त्रादिक वझे विधिपूर्व को हतो.” इत्यादि. श्रा उदयप्रन सूरिए धर्माभ्युदय नामनुं महाकाव्य, सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी त' उपदेशमाळा उपर कर्णिका नामनी वृत्ति ( टीका) रची जे. ते विषे कर्णिका वृत्ति प्रशस्तिमां था प्रमाणे लख्यु जे. "श्रीमधिजयसेनस्य, सौमनस्यं न मन्यते । - यघासिता धृताः कैर्न, गुणाः शिष्याश्च मूधसु ॥ १२॥ शिष्यस्तस्य च लक्षणक्षणचणः साहित्य सौहित्यवानुद्यत्तार्किकतर्ककर्कशमतिः सिद्धान्तशुशान्तरः । श्रीधर्माज्युदये कविः प्रविलसदुर्वादिगोत्रे पविस्तामेतामुदयप्रनोऽस्य गणनृवृत्तिं व्यधात्कर्णिकाम् ॥ १३ ॥ सेयं पुरे धवलके तिलके धरियां, मंत्रीशपुण्यवशतो वसतौ वसनिः। वर्षे निध्यङ्कनयनेन्मुमिते (१२एए) वितेने, श्लोकैः शिवोदधिशिवैः प्रमितेऽद्भुतश्रीः ॥२१॥" "श्रीमान् विजयसेन गुरुना चिसनी प्रसन्नताने कोण नथी मानता? ते गुरुथी वासि श्रयेखा तेना गुणो अने शिष्यो कोणे मस्तक पर धारण नथी कर्या ? ते गुरुना शिष सक्षण शास्त्रमा निपुण, साहित्यना विषयमा विधान् , विकास पामता तार्किक लोको तर्कनो पराजय करवामां कर्कश मतिवाळा, सिघांतना ज्ञानथी शुछ हृदयवाळा, श्रीधम. ज्युदय काव्यना कवि (रचनार ) अने विकास पामता पुष्ट वादी रूपी पर्वतने नेद वामां वन समान श्रीउदयप्रन सूरिए था उपदेशमाळानी कर्णिका नामनी वृत्ति करीने १ मा काव्यमा वस्तुपाळ मंत्रीज चरित्र आवे छे. २ कर्णिका वृत्तिनी प्रत मळी शकी नट परंतु आ उदयप्रभ सूरिना शिष्य श्रीमल्लिषेण सूरिए रचेली स्याद्वादमंजरी (टीका )नी प्रस्तावनामा आ श्लोको मळी आव्या छे. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. वीप स्त्रीना तिलक समान धवलकपुरमां मंत्रीश ( वस्तुपाळ )ना पुण्यवशायी तेना 'पाश्रयमां वसता या सूरिए संवत् १२एए ना वर्षे ११४११ श्लोक प्रमित ना कर्णिका मिनी वृत्ति रची रे." श्रा उपरथी या ग्रंथकार सूरि श्रीविजयसेन सूरिना शिष्य हता तथा तेमनो सत्तासमय संवत् १२एए मां हतो एम सिद्ध थाय बे. श्रीविजयसेन सूरिना गुरु कलिकाळ गौतम श्रीहरिना सूरि, तेमना गुरु श्रीआनंद सूरि अने अमरचंड सूरि हता, तेमना गुरु श्रीशांति सूरि अने तेमना गुरु श्रीमहेंजप्रत्न सूरि हता. श्रा ग्रंथमां पांच विमर्शो पामेला ने अने तेनुं सर्व मळीने एकंदर अनुष्टुप्नी गणत्रीए ४६० श्लोक पूरतुं प्रमाण बे. श्लोको नाना मोटा बंद तथा वृत्तमा घणा रसिक प्रने उच्च संस्कृत नाषामा बनावेला होवाथी विधानोना हृदयने रंजन करे तेवा . आ चे विमर्शमां थश्ने अगीयार पार पामेला जे. तेमा पहेला विमर्शमां तिथिवार १,वारबार २, नक्षत्रधार ३ अने योगधार ४, ए चार बार बे. बीजा विमर्शमां राशिफार ५ अने गोचरफार ६, ए बेकार कहेलां के. श्रीजा विमर्शमां कार्यघार ७ एकज कहेलु जे. वोया विमर्शमां गमधार तथा वास्तुधार ए ए बे घार कहेलां , श्रने पांचमा विम, मां विलग्नघार १० तथा मिश्रधार ११ ए बे घार कहेलां बे. ते ते दारोमां ते ते . १ जैन धर्मना प्राचीन इतिहासमां पृष्ठ २१ मां उदयप्रभ सूरिनो सत्तासमय १२२० थी १२८७ लख्यो छे, परंतु कर्णिकानी प्रशस्तिमां लखेलो संवत् १२९९ छे. ते वधारे मानवा योग्य छे. मज जैन ग्रंथावळीमां पण पृष्ठ १७१ मां कर्णिका रचवानो काळ संवत् १२९९ ज लख्नेलो छे. १ आ हरिभद्र सूरि सिवाय वीजा त्रण एज नामना सूरि थइ गया छे. तेमां एक याकिनीमहत्तरानुना नामथी महान् प्रसिद्ध छे, तथा बीजा बे बृद्गच्छमां थयेला छे. आ हकीकत हरिभद्र पूरि चरित्र (छापेल )ना पहेला पृष्ठमां फुटनोटमां सविस्तर आपेली छे. ३ आ वंशावळी जैन पर्मना प्राचीन इतिहासमां आपेली छे (पृष्ठ २१) तेमज उपर्युक्त हरिभद्र सूरि चरित्र उपरथी पण बात्री थइ शके तेम छे. ४ आ सर्व उपर लखेली हकीकत तथा फुटनोटो उपरथी आ ग्रंथकारनो सर्व हेवाल सिद्ध थाय छे, परंतु जैन ग्रंथावळीमां हकीकत संगत थती नथी. तेमां पृष्ठ ७६ मां फुटगोटमां उदयप्रभ सूरि नामना बे आचार्य थयानुं लखे छे. तेमां आ ग्रंथकारने पहेला कह्या हे, ते संबंधी लखेली हकीकत मळती आवे छे, परंतु बीजा उदयप्रभ सूरि रविप्रभ सूरिना शिष्य अने मल्लिण सूरि के जे स्याद्वादमंजरीना टीकाकार हता तेना गुरु हता एम जे लख्युं छे ते संगत नथी. मज उदयप्रभ सूरिना रचेला घणा ग्रंथो जैन ग्रंथावळीमां लख्या छे, परंतु बेमांथी कया उदयप्रभ रिए कया कया ग्रंथो रच्या ? तथा बीजा उदयप्रभ सूरिनो सत्ताकाळ कयो हतो ? ए विगेरे कांड ण चोकस थइ शकतुं नथी. भा०२ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. विपयोने विस्तारथी संपूर्ण रीते वर्णव्या बे. या बाबत अनुक्रमणिकामां सविस्तर पे होवाथी अत्रे ती उचित धारी नयी. G ग्रंथनी प्रांते टीकाकारे पोतानी प्रशस्तिने पनवामे "ग्रंथकारनो अभिप्राय" ए नामथी मोटा वृत्तमां तेर श्लोको श्राप्या बे. ते सर्व श्लोको श्रा ग्रंथना जिज्ञासु स मनुष्ये प्रथम अवश्य वांचीने ग्रंथकारना अभिप्रायने आज्ञारूपे मानवो एम श्रमो खास लामण करीए बीए, कारण के वृत्तिकारे वृत्तिरूप ग्रंथ बनाव्या पबी अत्यंत सावध कार्यथी जीरुपणाने सीधे आ ग्रंथने जळशरण करवो उचित धार्यो हतो, परंतु जिन्न जिन्न ग्रंथोमांथी जंब वृत्तिए एकत्र करेला दुष्प्राप्य विषयोनो नाश करवो ते पण योग्य नहीं लगवाथी मात्र पोताना गछमां गुप्त रीते राखवाना हेतुथी ग्रंथने जाळवी वामां श्राव्यो बे, परंतु सर्वविरतिने धारण करनार साधुए कोइ पण जातन (चैत्यादिकनां) मुहूर्त्तो थापवाथी तेना व्रतनी हानि थाय बे, तेथी मुहूर्त्त कना साधु ने ग्रंथकारने महा पापना जागी कह्या बे. हीं शंका करी बे के - ज्यारे चैत्या दिकनां मुहूर्तो साधु श्रापवां न जोइए तो जिन जिन्न ग्रामोमां वसता श्रावकोने पुण्यनी वृद्धिशी रीते याय ने साधुने पण पुण्यनो लाज शी रीते थाय ? या शंकान जवाबni ग्रंथकारे कनुं बे के - चैत्यादिक कराववामां यतिउने अनुमोदना करवाथी पुण्य याय बे, परंतु गृहस्थीने विवाहादिकनी जेम चैत्यादिकनां मुहूर्त्तो पण जोशी आपे बे, तथा ज्योतिषना ज्ञानवाळा मुनि तो मात्र जोशी ने समग्र संवाद बतावे a. अर्थात् मुहूर्त्तेमां दोष होय तो ते सूचना आपे बे. या रीते सर्व सुस्थ थइ शके बे. तेम बतां कोई मूढ जारे कर्मी या शास्त्रने आधारे मुहूर्त्त श्रापशे तो आरंजना समूहथी उत्पन्न धतुं पाप तेनेज हो, घने मने ग्रंथकारने ते पापनो देश पए व हो. एन शु अंतःकरणना उद्गारो ग्रंथकारे प्रगट कर्या छे. आ उपरथी ग्रंथकार व कार्य लावा जीरु a ते स्पष्ट जलाइ आवे छे, माटे ग्रंथकारना अभिप्रायने श्राज्ञा रूप मानवा दरेकने श्रमो प्रार्थना करीए बीए. आ ग्रंथ उपर श्रीहेमहंस गणिए सुधीशृंगार नामनी वृत्ति ( टीका ) संवत् १५१४ वर्षे रची बे. तेनुं अनुष्टुपूनी गणत्रीए २००९३ श्लोकनुं प्रमाण बे. या टीकाकार महाराजनो स्थितिकाळ तथा गुर्वावळी प्रशस्तिना अंतमां लखेल बे त्यांथीज जाणी लेवा. प्रस्तावना विस्तृत थवाना कारणथी अहीं सखेल नथी. आ टीकाकारे संवत् १५१५ वर्षे व्याकरणना विषयवाळो न्यायसंग्रह नामनो ग्रंथ, तेना पर न्यायार्थमंजूषा नामनी मोटी वृत्ति (टीका ) तथा तेना पर न्यास पण रच्यो बे. ते विषे तेनी प्रशस्तिना बेला श्लोक या प्रमाणे बे. . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. चिन्मयानां मयाऽमीषां, रूपीणां सुप्रसादतः । महंसा निधानेन, वाचनाचार्यताजुषा ॥ १३ ॥ श्रीमविक्रमवत्सरे तिथितिथौ ( १५१५ ) शुक्ल द्वितीया तिथौ, पूर्वा मृगलाने मृगशिरः शृङ्गायशृङ्गारिणि । शुक्रस्यानि शुक्रमास नगरे श्री सागरेऽहम्मदावादे निर्मितपूर्तिरेष जयताम्रन्यः सुधीवलः ॥ १४ ॥ " ज्ञानवंत या ( चारित्ररल गणि नामना विद्यागुरु ) ना सुप्रसादथी वाचनाचार्यनी 'दवीने पामेला में हेमहंस गणिए विक्रम संवत् १५१५ ना जेठ सुदि द्वितीया शुक्रवारने देव पूर्वाह्न काळे मृगशिर नक्षत्रना श्रृंगना श्रग्र जागने चंद्र शोभावतो हतो त्यारे मृगशिर नक्षत्रमां चंद्र हतो त्यारे ) लक्ष्मीना सागर समान अमदाबाद नगरमां पंडितोने प्रिय एवो या ग्रंथ समाप्तिने पाम्यो, ते जयवंत वर्तो." तेमज या टीकाकारे संवत् १५१० वर्षे षमावश्यकनो बाळावबोध पण कर्यो बे. ते गळावबोधने ते या प्रमाणे लख्युं बे. - " इति श्रीतपागल नायकस कल सुविहितपुरन्दर श्री सोमसुन्दरसूरि - श्री मुनिसुन्दरसूरि'जयचन्द्रसूरिपदकमलसेविना शिष्यपरिमतहेमहंसगणिना श्राद्धवराज्यर्थनया कृतोऽयं नावश्यक बालावबोध चन्द्रार्क नन्द्यात् । संवत् १५१० वर्षे” ॥ सिवाय वीजा ग्रंथो या पूज्य गणिए रच्या बे के नहीं ? ते कही शका नथी. heatreat बाळावबोध जोतां तेमनुं श्रागमज्ञान, न्यायसंग्रह जोतां तेमनुं व्याकरणन तेनी न्यायार्थमंजूषा टीका जोतां न्यायशास्त्रनुं ज्ञान अने आ आरंभसिद्धिनी का जोतां तेमनुं ज्योतिषनुं ज्ञान द्वितीयज मालम पके के. टीकामां टीकाकार महाराजाए प्राये मूळ श्लोकना दरेक पदनो सविस्तर छाने रळ अर्थ करेलो बे. ते उपरांत मूळ कारना वचनने सुदृढ करवा माटे ख- पर दर्शनना थो तथा ग्रंथकारोनां वचनोनी सादी आपी बे. केटलेक स्थळे ग्रन्थांतरोनां गूढ वचनोनी सविस्तर टीका करी बे. केटलेक स्थळे मूळ कारे नहीं कहेला मतांतर तथा अपवादो वर्णव्या बे. केटलेक ठेकाणे मूळ कारना विषयने लगता विषयांतरो पण विस्तारर्वक वर्णव्या बे. तथा केटलेक स्थाने प्रसंगानुप्रसंगने लड्ने नवीन विषयोनां मुहूर्त्तो प सर्वानां मुहूतनी साधे प्राये तेनां शुभाशुभ फळो पण बताव्यां वे. मज केलेक स्थळे मूळना ने ग्रंथांतरना विषयो स्पष्ट समजाववा माटे यंत्रो प लांबे. सर्व हकीकत ग्रंथांतरोनां वचनो श्रापीनेज सिद्ध करी बे. एकंदर खा थमां लगभग सीतेर ग्रंथो अने ग्रंथकारोनां वचनो श्राप्यां बे. तेनां नाम नीचे प्रमाणे. - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. गगे श्रीपति लनशुद्धि बंडप्रति वृत्ति लस होरामकरंद वास्तुविद्या रलमाळा नुवनदीपक स्वरोदयवित् यतिवसन्न त्रैलोक्यप्रकाश नास्करव्यवहार नारचंड मुहूर्तसार योगयात्रा ग्रंथ पूर्णन सप्तर्षि वास्तुशास्त्र दैवज्ञवसन वाराहसंहिता ब्रह्मशंन्नु टीका दिनशुद्धि ज्योतिषसार विद्याधरी विलास व्यवहारप्रकाश रत्नमालानाष्य काळनिर्णय नरपतिजयचर्या नत्रसमुच्चय ब्रह्मसिद्धांत हर्षप्रकाश रुज्यामल काठगृह्य पा(लो)कश्रीग्रंथ प्रश्नप्रकाश (कर) खंमखाद्य नाष्य व्यवहारसार शौनक सारंग गदाधर विवाहपटल केशवार्क महादेव जीमपराक्रम ग्रंथ विवाहवृंदावन लोज करणकुतूहल-जास्कर सिद्धांत लघुजातक मुर्गसिंह सत्यसूरि बृहज्जातक कटपाख्य बेद ग्रंथ वृत्ति बृहस्पति ताजिक गौतम लक्ष्मीधर अनशतक वृत्ति यवन देवलमुनि यवनेश्वर स्थानांग वृत्ति अध्यात्मशास्त्र श्रा उपरथी वाचकवृंदने स्पष्ट समजाशे के टीकाकारने ज्योतिषना विषयमा केटल ग्रंथर्नु अने केQ असाधारण ज्ञान हतुं ? था एकज ग्रंथ साद्यंत उपस्थित होय तो है वर्तमान समयमा उच्च विद्याननी पंक्तिमा गणाय ए निर्विवाद . टीकाना पण दरे विषयो अनुक्रमणिकामां सविस्तर आप्या , तेथी आ स्थळे विस्तारना जयश्री लखतः नयी. या ग्रंथ दरेकने उपयोगी थाय एवा हेतुथी जाषांतर करावीने उपाव्यो बे. तेमा प्रथम मूळ श्लोक अने तेनी नीचे मूळ श्लोकनो अर्थ लखेलो बे. तेनी नीचे श्लोकन टीकार्नु मात्र लाषांतरज वख्यु ने, परंतु टीकामां ग्रंथांतरोनां जेटलां वचनो टीकाकारे आप्यां ने तेनुं मूळ पण लाषांतर सहित आप्यु के. मूळ तथा ग्रंथांतरोनां वचनोने श्राश्रीने जेटली समजुती तथा उदाहरणो विगेरे टीकाकारे आप्यां ने तेनुं अक्षरश त्रिविक्रम Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. जापांतरज सरळ रीते लख्यु के. मात्र कोक स्थळेज टीकाकारना संक्षिप्त अने प्रदर्शन करेखा विषयने स्पष्ट समजाववा माटे योमोक विस्तार नापांतरमां कर्यो के. श्रा ग्रंथनुं तेमज नीचे लखेला लग्नशुद्धि तथा दिनशुद्धि नामना ग्रंथोनुं नाषांतर वनगरनिवासी शेठ कुंवरजी आणंदजी मारफत शास्त्री जेठालाल हरिभाइ से कराव्यु बे. तेमा प्रवर्तक महाराज श्रीकांतिविजयजीना शिष्य मुनिराज श्रीभक्तिजयजी महाराजे सारी मदद थापी . तथा था नाषांतरचें मेटर अने उपातां रमो साद्यंत तपासी आपनार पन्यासजी महाराज श्रीदानविजयजी महाराजाए घणी । करी बे. तेमज या ग्रंथनी परम शुद्ध एक प्रति पूज्यपाद श्रीविजयानंद सूरीश्वर प्रात्मारामजी महाराज)नी तथा बीजी तेमनाज प्रशिष्य उपयुक्त मुनिवर श्रीलक्तिजयजी महाराजनी मळी हती, जेथी था स्थळे ते सर्व पूज्योनो अमो अंतःकरणक आजार मानीए बीए. या ग्रंथ पूर्ण श्रया बाद पाबळ लग्नशुद्धि तथा दिनशुद्धि के जे मात्र मूळज उपध थया ने ते पण नाषांतर सहित पाव्या . जो के श्रा बन्ने ग्रंथो अति लघु वाथी श्रारंसिद्धि करतां वधारे उपयोगी नथी, तोपण तेमांथी केटलांक चालतां ? सहेलाथी टप प्रयासे मळी शके तेम , तथा को कोई नवीन विषयो पण ', तेथी था बे ग्रंथो कायमने माटे वधारे उपयोगी होवाथी तेमनुं प्राकट्य उरस्त र्यु जे. ते बन्ने ग्रंथोमां कया कया विषयो बे, ते माटे जिज्ञासुए अनुक्रमणिका वांचीनेज ज्ञासा पूर्ण करवी. थामांनो लग्नशुद्धि नामनो ग्रंथ १४४४ ग्रंथना कर्ता श्रीहरिभद्र सूरि के जेओ केनीमहत्तरासूनुना नामथी प्रसिद्ध ने तेमणे रचेलो . तेमां मात्र १३३ गाथा कत नाषामांज , तोपण अटप शब्दोमां प्रजूत अर्थनो समावेश होवाथी सूत्ररूपे ग्रंय . था ग्रंथमा मात्र लग्ननीज शुद्धि, तेमां पण दीदा, उपस्थापना अने प्रतिसांज खग्न विषे बे. या ग्रंथ पर नानी मोटी टीका के नहीं? ते विषे का निश्चय थयो . था ग्रंथकार पूज्यपादनो संपूर्ण इतिहास तथा तेमनुं माहात्म्य सुप्रसिद्ध होवाश्री कवर्गना समयनो व्यर्थ व्यय करवा श्चता नथी. देनशुद्धि ग्रंथना कर्ता श्रीहेमतिलक सूरिना शिष्य श्रीरत्नशेखर सूरि जे. एम ग्रंथनी । गाथामा स्पष्ट खखेलुं बे. तेनो सत्तासमय संवत् १४२० मां हतो. तेमने दिटहीना १ आ नामना बीजा श्रीरत्नशेखर सूरि आ सूरिनी पछी एटले संवत् १४५७ मां जन्म, त् १४६३ मां दीक्षा, संवत् १५०२ मां सूरिपद अने १५१७ मां पोष वदि छठने दिवस स्वर्ग। विगेरे जैन धर्मना प्राचीन इतिहास उपरथी थयेला जणाय छे. ते सूरीश्वरे श्राद्धप्रतिक्रमण Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. रामाफिरोजशाह तुघलके घणुं मान छाप्पु हतुं. प्रा सूरीश्वरे श्रीपाळचरित्र, गुणस्थ समारोह अने लघुक्षेत्रसमास विगेरे अनेक ग्रंथो रचेला . एम जैन धर्मना प्राचीन हासमां यापेखें . तेमज जैन ग्रंथावळीमां पृष्ठ १३२ मां गुणस्थानकमारोहना क रत्नशेखर सूरि लखेला अने रच्यानो संवत् १४४ नो डे तथा पृष्ठ २३४ मां श्रीप चरित्रना कर्ता पण तेज लख्या . तेनो संवत् १४२० लख्यो . ते सिवाय बीजा ग्रं पण था सूरिना रचेता हशे के नहीं तेनो निश्चय यश् शकतो नथी, कारण के गुरुगु पत्रिंशिका वृत्तिना रचनार रत्नशेखर सूरि ग्रंथावळीना पृष्ठ १४० मां सख्या बे, । तेनो संवत् विगेरे कां पण नहीं होवाथी बेमांथी कया सूरि आना कर्ताले ते । थइ शकतुं नथी. तथा पृष्ठ १७ मां गुरुगुणपत्रिंशिका कुलक उपर दीपिका नाम टीकाना कर्ता रत्नशेखर सूरि खख्या बे, तेमां पण संवत् लखेलो नथी, परंतु ते फटनोटमां नागपरीय शाखाना हेमतिलक सरिना शिष्य अने वज्रसेन सरिना प्र तथा श्रीपाळचरित्रना कर्ता खखेला होवायी था प्रकृत सूरि मालम पमे .विगेरे. विरे श्रा दिनशुद्धि ग्रंथ पण संक्षिप्तज ने एटले के तेमां १४४ गाथा . श्रा ग्रंथ पण नानी मोटी टीका बे के नहीं ते उपलब्ध थयुं न होवाथी मात्र मूळ ग्रंथज नाषां सहित प्रगट कर्यो बे, तोपण केटलेक स्थळे स्पष्ट समजुतीने माटे प्रतिमां नहीं है यंत्रो दाखल कर्या . आ ग्रंथमां वार, तिथि, करण, नक्षत्र, ताराबळ, योगो, प्रय चैत्य करणादिक, मृतक्रिया, दीक्षा, प्रतिष्ठा विगेरेनां मुहूर्तों तथा खोच, विद्यारंज वि विषयो सीधा . एकंदर था लघु ग्रंथ उतां पण अति उपयोगी जे. आ ग्रंथना विस्त विषयो पण अनुक्रमणिकामां दाखल करेला होवाथी अत्रे विस्तारता नथी. बेवट था ग्रंथोना जिज्ञासु जनोने या ग्रंथना सऽपयोगमा प्रवृत्ति अने दुरुपयोग निवृत्ति करवानी सूचना प्रापी आ प्रस्तावना समाप्त करयामां आवे छे भने याशी आपीए बीए के आ ग्रंथोमां बतावेलां शुज कार्योनां शुल मुहूर्तोंने सीधे शुन्न फळ प्र करी सजानो श्रानंद पामो. इति शम् । तथाऽस्तु ॥ वृत्ति, श्राद्धविधि वृत्ति तथा आचारप्रदीप विगेरे ग्रंथो रच्या छे. आ सूरिना गुरु श्रीमुनिसुंदर र हता. आ उपरथी आ बन्ने सूरि भिन्न छे एम सिद्ध थाय छे, अने उपर लखेला ग्रंथावळीना आ पण जूदा सिद्ध थाय छे, केमके ग्रंथावळीना पृष्ठ ९६ मां लक्षणसंग्रहना कर्ता रत्नशेखर लख्या छ, मीचे फुटनोटमां संवत् १५०२ थी १५१७ नो सत्तासमय लख्यो छे. (आ सूरिपदनो सत्तासम आणवो.) तोपण ग्रंथावळीमां रत्नशेखर नामना एकज सूरि थया होय एम धारीने लखेलु जणाय : परंतु बन्ने भिन्न मानवा योग्य छे. संवत् १७४ आषाढ पूर्णिमा. { ली. प्रकाशक. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक. अनुक्रमणिका. 23MGN प्रथम विमर्श. १ तिथिधार. १ पृष्ठ. टीकाकारे करेलुं मंगळ. १ ग्रंथ करवानो हेतु तथा तेनो सडुपयोग करवा शिक्षा. ४ ग्रंथकारनुं मंगळ. निधेय, संबंधाने प्रयोजनपूर्वक ग्रंथां श्रीयार धारोनां नाम. नंदादिक तिथिनां नाम, तेमां करवानां कार्यो तथा तेना स्वामीजं... - ६ वर्ण्य तिथि. 9 पक्ष (अशुभ) तिथि. त्रिदिनस्पर्शिनी ( वृद्धि ) तथा वम (क्षय) तिथि छाने तेनुं फळ. दग्धा तिथि जाणवानी रीत, दादर सहित ७ ... २ वारनो धारंज क्यारे थाय? १६ दिनमान लाववानो ... 6 उपाय.... १७ दिनमाननी स्थापना. १० वारना प्रारंभ विषे विशेष हकीकत. ... मूळ श्लोक. 9 १० G ए १० ११ १२ वारद्वार. २. १६ १७ १३ १४ १० दग्धा तिथिनी स्पष्टता. चंद्रदग्धा तिथि. दग्धा तिथिनुं फळ. क्रूर तिथि. तिथिने श्री शकुनि विगेरे चार करो. बाकीनां बव विगेरे सात करणो. गीयारे करणोना स्वामी.... पृष्ठ. . ... ८ 爬 ... ११ यारे करणोनुं फळ तथा विष्टि (जा) नो विशेष. ११ जानो स्पष्ट समय तथा सर्व करोनो उपयोग. १२ विष्टिनां मुखादिक अंगो तथा तेनुं फळ. विष्टि क्यारे कइ दिशामां होय ? अने तेनुं फळ. १५ ... १० १० ... वारनां नामो तथा तेनुं फळ. १७ वार श्रीने काळहोरा तथा तेनुं फळ. वार श्रीने कुवेळा तथा तेनुं फळ. १३ २० २१ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. मूळ 'लोक. पृष्ठ. | मूळ श्लोक. १ए कंटक तथा उपकुलिक अने २१ वारने श्राश्री सुवेळा. ... ५ तेनुं फळ. ... ... १२ २२ वारने विषे गया लग्न २० कुलिक तथा तेनुं फळ.... २३ तथा तेनुं फळ. .... नत्रधार.३. २३-२ए श्रठ्यावीश नक्षत्रोनां नाम संज्ञा, तेनुं प्रयोजन तथा ते दरेकना पादा तथा फळ. ... श्रित अक्षरो. ... २६ । ३० .. चंड संक्रांतिने आश्री सत्यानक्षत्रोना पादाश्रित वीश नवोनी मुहूर्त अत्ररोनी स्थापना संख्या तथा फळ. ... तथा तेनो विशेष ... २७ कयां कयां नत्रोचंजनी अन्निजित् नक्षत्रनुं स्वरूप. २७ श्रागळ, पाउळ तथा अश्यावीश नक्षत्रोना स्वामी, तेनी स्थापना तथा सम साथे होय? तेनी रीत जुती... ... ... २ए तथा फळ. ३२ श्रठ्यावीश नक्षत्रोना तारा नक्षत्रोनी श्राकृति. ... उनी संख्या तथा तेनुं कर कर दिशामां कयां प्रयोजन. ... ... ३० कयां नदत्रो चाले ? ३३-३६ नक्षत्रोनी चर, ध्रुव विगेरे । चंतश्री कर कर दिशामां संझा तथा तेमनां फळ. ३० नक्षत्रो रहेला ? ३७ चर विगेरे नक्षत्रोमां कर तिथि तथा नक्षत्रनुं वानां कार्यो. ... ३१ संपूर्ण बळ कये वखते पारने श्राश्री चरादिक होय ? ... ... योगधार.. ३५-४० रविवारे तिथि तथा नक्ष- | ४५-४६ बुधवारे शुक्ल तथा अशुन अने श्राश्री शुन योग योग. ... .... ___ तथा अशुन्न योग. ... ३५ us-10 गुरुवारे शुल तथा अशुन ४१-४२ सोमवारे शुल योग तथा श्रशुल योग. ... ३६ योग. ... ... ३ ५३-१४ मंगळवारे शुन तथा पशुज ४ए-५० शुक्रवारे शुल तथा अशुल योग. ... ... ३६ योग. ... ...: Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ - पृष्ठ. ... ... अनुक्रमणिका. सोश. पृष्ठ. । मूळ श्लोक. -५२ शनिबारे शुल्न तथा अशुल्न गंमांतफळ. ... । योग. ...३७ संधिदोप. अमृतसिद्धि योग तथा वज्रपात. तेनुं फळ. ... ३ए काळमुखी. ... ४७ उत्पात, मृत्यु, काण। मृत्यु योग (तिथि अने सिद्धि योग. ... ३ए नक्षत्र आश्री). ... ४७ उत्पात विगेरे योगोनी अवला योग. ... ४० स्थापना तथा तेनां ऋतु आश्री शुन्नाशुल . बीजां नामो. ... ४० योग. ..... ... ४७ यमघंट योग. ... ४० ६२ रवि योग. ... ... पए वज्रमुशळ योग. ... ४० रवि योग फळ. ... ५० शत्रु योग. ... ४० सयावीश रवि योगने मध्ये । अस्थिर (चर) योग. ४१ . उपग्रह संज्ञा. ... ५० क्रकच ( कर्क ) योग. ४१ उपग्रहोनी बीजी . संवर्तक योग. ... ४१ संज्ञा तथा तेनुं फळ. ५१ विरुष्ट योग, सामान्य · श्रामल योग. ... ५१ योग, सुयोग, सिद्धि ६५ श्रानंदादिक उपयोगोनी योग तथा अमृतसिद्धि रीत. ... ... ५२ योग अने तेनुं फळ. ४१ ६५-६७ आनंदादिक अठ्यावीश कुमार योग.... ... ४२ उपयोगोनां नाम. ... ५५ राज योग. ... ... ४५ यानंदादिक उपयोगनी स्थिर (स्थविर ) योग.... ४३ स्थापना. ... ५२ यमल तथा त्रिपुष्कर योग. ४३ | ६ कुयोगोनो अपवाद. ... ५३ पंचक. ... ... ४३ ६ए शुनाशुन्न योगना संकरमां पंचक विषे मतांतर. ... ५४ शुन योगनी प्रवळता.... ५४ यमल, त्रिपुष्कर श्रने पंच- ७०-७१ दररोजना विष्कलादिक कनी अन्वर्थता. ... ५४ सत्यावीश योगो. ... ५३ खग्न गंमांत, तिथि गंमांत | ७३ विष्कंनादिक योगो मांहेला । अने नक्षत्र गंमांत. ... ४४ | मुष्ट योगोनी उष्ट घमी. ५५ आ०३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & aw w w w w DDDD अनुक्रमणिका. मू लोक. पृष्ठ. मूल श्लोक. प्रकारांतरे योगोनी वl सात शलाकाना वेधनो घमीन. ... ... ५५ यंत्र. ... ... ७५ एकार्गलवेध योग. ... ५५ जए विवाहमां जोवानो पांच ७६-७७ एकार्गलवेधनी स्थापनानो शलाका वेध. ... ५ पंच शलाका वेध चक्र.६ विधि. ... ... ५६ 60 लत्ता योग. ... ... एकार्गलवेध तथा एका बीजे प्रकारे लत्ता योग. ... ६ र्गल पादवेध यंत्र.... ५७ २. लत्ता विषे मतांतर. ... ६ ७० सात शलाकाना चक्रवके ८३ पात योग. ... ... थतो वेध. ... ... ५७ । ०४ बीजे प्रकारे पात योग. ... विमर्श. २. राशिफार. ए. १-६ बार राशि तथा तेमां । १३ बार राशिऊना बार आवता नक्षत्रोना पाद. ६४ नावोनां नाम तथा तेर्नु । बार राशिना वर्ण. ... ६५ फळ. राशिऊनां स्वरूप(आकार). ६५ १४-१८ बार जावोनां बीजां नामो. ७ राशिऊनी चेष्टा, स्थान १ए बार राशि (गृह)ना विगेरे. ... ...६६ स्वामीठ. ... ... . राशिनु दिक्स्वामित्व २० राशिनी होरा तथा तथा स्वनाव. ... ६७ जेष्काण. ... ... ७ राशिउनुं बळ तथा उदय. ६७ राशिऊना नवांशो, तेनुं । राशिनां उच्च स्थान.... ६७ राशिनुं नीच तथा त्रिकोण । फळ तथा वर्गोत्तम. ... ७६ स्थान. ... ... ६ए २२ वादशांश तथा त्रिंशांशनुं राशिनु परमनीचपणुं तथा परम उच्चपणुं. ७० गृहना स्वामी, होरा ग्रहोना उच्च नीचपणानुं विगेरे ब वर्गनी फळ. ... ... ७१ स्थापना. ... ७८ जन्मने विषे उच्च ग्रहनु २३ वर्गनुं लिप्ता मान. ... ७ फळ. ... ... ७१ । नवांशोनुं बळवानपणुं. ७॥ स्वरूप. .. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व अनुक्रमणिका. श्लोक. पृष्ठ. मूळ श्लोक. स्ववर्गमां अथवा परवर्गमां वर्ष, मास, दिवस अने रहेला ग्रहनुं स्वरूप. ... ८० __ काळहोराना स्वामी. ४ सौम्य ग्रहोगें फळ. ... 00 ३१ चोथु चेष्टावळ. ... दिशाना स्वामी तथा पांच ग्रहोनी गति. ... ५ ग्रहोनी सौम्यता अने ३२ पांच, दृष्टिबळ, तथा बहुं करता. ... ... स्वाजाविक बळ. ... ग्रहोनो वर्ण तथा तेनुं ३३-३४ दृष्टिबळेने विषे दृष्टिनो फळ. ... ... ०१ प्रकार. ... ... केतुना स्थाननो निर्णय तथा ३५-३० ग्रहोर्नु शत्रुपएं, मित्रपणुं अने समपणुं, तथा तेनुं ग्रहोनी जाति. यंत्र. ब्राह्मणादिकवर्णोना स्वामी. ७२ ३ए तात्कालिक मैत्रीचें फळ. ए ग्रहोना प्रकारनां बळ राशिमा रहेला ग्रहोनो मध्ये प्रथम स्थानबळ. ३ ।। परस्पर वेध. बीजुं दिग्बळ. ... ३ ४१-४३ वेधनो प्रकार. .... ए१ त्रीजु काळबळ. ग्रहवेध यंत्र. ... ए गोचरफार. ६. ग्रहगोचर तथा तेनुं फळ. ए तेनी स्थापना. ... १०५ चंगोचर फळ. वं नरनी तथा मंगळ चंजनुं बळावळ. नरनी स्थापना. ... १०३ तारावट. ए७ बुध तथा गुरु नरनी तारानुं स्वरूप. स्थापना. ... १०४ • ताराउनी स्थापना.... शुक्र तथा राहु नरनी तारानो विशेष. ... स्थापना. ... १०५ चंनी अवस्था. ... १०० केतु नरनी स्थापना.... १०६ राशिना बादशांश काढ अशुन ग्रहगोचरने व्यर्थ वानी रीत. ... १०० करवा माटे अष्टकवर्ग.... १०६ शनि- सुष्टपणुं होवाथी ५२-५३ सूर्याष्टकवर्ग. ... १०७ तेनुं नक्षत्र गोचर. ... १०१ ५४-५५ चंडाष्टकवर्ग. शनिनो पुरुषाकार तथा ५६-५७ नौमाष्टकवर्ग. ... १०० ४ ना ... काळबळ. एए एए Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... १०० ... १०० ... १00 ... ११० अनुक्रमणिका. मूळ श्लोक. पृष्ठ. | मूळ श्लोक. ५७-एए बुधाष्टकवर्ग. | ६६ कार्यने श्राश्री ग्रहोर्नु बळ६०-६१ गुर्वष्टकवर्ग. वानपणुं. ... १ ६२-६३ शुक्राष्टकवर्ग. ६७ राशिमां आवेलो कयो ग्रह । ६४-६५ शन्यष्टकवर्ग. क्यारे फळदायक होय?... १ अष्टकवर्गनी रेखाउनी ६७-६ए अशुल ग्रहोनी शांति. ... १ समजण तथा तेनुं ७०-७३ ग्रहोनी शांति माटे स्नान. १ फळ. ... ... ११० ग्रहोनी बीजे प्रकारे राहु अष्टकवर्गनी रेखा. ११२ शांति. ... ... . विमर्श. ३. कार्यधार. ७. दीक्षा अने विवाह सिवा मूळ विगेरे नक्षत्रोमां यना कार्यमां पुष्य नक्ष जन्मेला बाळकनुं फळ. १ त्रनुं बळवानपणुं. ... ११७ । ए मूळ नक्षत्रनुं पुरुषरूप कार्यना नेदने लीधे नद तथा तेनी स्थापना अने त्रोना अधोमुख विगेरे फळ. ... ... १ नेदो तथा तेमां करवानां मूळचें वृक्षरूप तथा कार्यो. ... ... ११ए तेनी स्थापना भने फळ.१. तिळ मुखवाळां नक्षत्रो अश्लेषा पुरुष तथा तथा तेमां करवानां कार्यो. ११५ तेनी स्थापना अने ४ . ऊर्ध्व मुखवाळां नक्षत्रो फळ. ... ... १ तथा तेमांकरवानां कार्यो.११ए अश्लेषा वृदनी स्थापना पुत्रनी श्वावाळा पुरुषोने अने फळ. ... १ स्त्री सेवनमा वर्ण्य दिवसो.१२० मूळ तथा अश्लेषानां गर्जाधानमां वर्ण्य नक्षत्रो त्रीश मुहूर्तांना तथा ते वर्जवानुं स्वामी तथा तेनुं कारण. ... ... १२० फळ. ... ...१ स्त्रीना सीमंतनुं मुहूर्त.... ११ । १० मूळ तथा अश्लेषा नक्षविष बाळकनी उत्पत्ति तथा त्रमा जन्मेला बाळक तेनुं फळ. ... ... १२१ माटे शांति. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. पृष्ठ. | मूळ श्लोक. पृष्ठ. विष्कंजादिक कुयोग पझटकनी स्थापना. १३४ विगेरेमा जन्मेला बाळ विधादश (बया वारमा) कनी शांति. ... १२७ नी स्थापना. ... १३५ जन्मादिकमां उपयोगी नव पंचम तथा तेनी कुष्य नक्षत्रो. ... १२७ स्थापना. ... ... १३६ उपकुष्य नक्षत्रो. ... १२७ एकज नक्षत्रमा जन्मेला कुट्य तथा उपकुट्यमां दंपती होय तो मूळ जन्मेलानुं फळ. ... वेध. ... ... १३७ कुट्योपकुट्य नक्षत्रो तथा दंपतीनो नामीवेध. १३७ तेनुं फळ. ... ... १२० तृतीयैकादश, सप्तम वारोना कुट्यादिक लेदो सप्तम तथादशम चतुतथा तेनुं फळ. ... १२७ र्थनी स्थापना. ... १३७ तिथि, वार, राशि अने नवा गाममां वसवाथी समयना योगथी तो ते गामनुं लेणुं जोवा कुट्य योग. ... १२७ विषे. ... ... १३ए रवि पुरुष, तेनुं फल तथा | २४ गुरु शिष्यादिक माटे तेनी स्थापना. ... १२ए त्रिनामीवेध. ... १३ए जातकर्म, षष्ठीजागरण तथा त्रिनामीवेधनी सर्पानाम करणनुं मुहूर्त. ... १३० कारे स्थापना तथा श्वट्यावीश नहात्रोनी योनि. १३१ तेनुं फळ. ... १४० योनिवैर. ... ... १३१ तारा मैत्री. ... ... १४१ जन्मनक्षत्र करतां नाम- २६ वर्ग मैत्री (श्रवर्ग, कवर्ग नक्षत्रनुं प्रमाणपणुं.... १३१ विगेरे उपरथी जोवाती -२१ सत्यावीश नक्षत्रोना देवा मैत्री). ... ... १४२ दिक गणो. ते परथी प्रीति वर्गना स्वामी. ... १४२ विगेरेनुं ज्ञान. ... १३२ परस्पर लेणादेणी जाणराशिकूट तथा राशिउनु वानी रीत. ... १४२ परस्पर वैर अने मित्रा. १३३ दंपतीमां ब्राह्मणादिक शत्रुषमष्टक तथा प्रीति वर्ण जोवानी रीत.... १४३ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ अनुक्रमणिका. मूळ श्लोक. पृष्ठ. | मूळ श्लोक. जिनबिंबमां योनि सना तथा रात्रिना विगेरे प्रकारनुं बळ क्षणोनां नामो तथा जोवानी रीत. ... १४४ तेनुं फळ. ... १ शिष्यनुं तथा पुत्रनु प्रथमना अने पीना पण नाम पामवानी रीत. १४५ दौरने आश्रीने वर्ण्य कर्णवेधनुं मुहूर्त. ... १४५ वखत. ... ... १ बाळकने प्रथम चलाववाचं गृह प्रवेशादिकमां पण तथा प्रथम जोजन नवमा दिवसने निषेध. तथा शिष्यने प्रथम वर्ण्य दिवसे कौर करागोचरीनुं मुहूर्त. ... १५६ । व्यानुं श्रशुल फळ. ... ३० नवां पात्रोवापरवानुं मुहूर्त. १४६ । ३४ राजाने श्राश्री क्षौर कर्म. प्रथम दौरनुं मुहूर्त ... १५६ । ३५ विद्यारंजन मुहूर्त. ... . कौरमां तारा तथा नंदी (नांद) मांमवार्नु चंना बळनी श्राव मुहूत्ते. ... श्यकता, दिवस तथा शांतिक पौष्टिक कार्योर्नु रात्रिना दाणोना मुहूर्त. ... ... १ स्वामी तथा दिव ३७-४५ मौंजीबंध (उपनयन )नुं सना क्षणोनां नामो. १४७ । मुहूर्त तथा चौल विगेरेर्नु प्रयाणादिक कार्यमां मुहूतं. ... ... १ अनिजित् (विजय) ४६-५१ अग्निस्थापन (अग्निहोत्र ) मुहूर्त्तनी बळवत्ता. १५७ नुं मुहूर्त. ... ... १ सायंकाळनो विजय | ५२ नवां वस्त्र पहेरवान मुहूर्त. १ योग तथा तेनुं फळ. १४ए । ५३ स्त्रीने नवां वस्त्र तथा प्रातःकाळनो उपा अलंकार विगेरे पहेरवानुं अथवा त्रितार योग मुहूर्त. ... ... ? अने तेनुं फळ. ... १४ए | ५४ विवाहादिकमां मळेलुं वस्त्र रात्रिना पंदर क्षणोनां तथा राजादिके आपेलु नामो तथा तेनुं फळ. १४ए वस्त्र मुहूर्त विना पण पुराणमां कहेला दिव पहेर. ... ... १ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. श्लोक. पृष्ठ. मूळ श्लोक. पृष्ठ. -५७ फाटेलांतथा वळेला वस्त्रा हळचकनी स्थापना. १६ दिक विषे. ... ... १५८ ७७ वीज वाववान मुहूर्त. ते गयेला व्यनी पुनःप्राप्ति विषे त्रिनामी सर्पनी तथा आपण विगेरे माटे स्थापना. ... ... १७० मुहूर्त. ... ... १६० ए कृषि विषे नक्षत्र श्राश्री गयेली वस्तु पानी मळवा शुनाशुन फळ. कृषि विषे. ... ... १६० नरनी स्थापना. ... १७१ आंधळां, काणां विगेरे जळाशय नवु कराववानुं नक्षत्रनी संज्ञा तथा मुहूर्त. ... ... १७२ स्थापना. ... ... १६१ १ वृक्ष वाववान मुहूर्त. ... १७५ ६५ प्रेत कर्म- मुहूर्त. (अशुन नृत्य करवु तथा शीखवार्नु योगमां मरेखानो विधि). १६१ अने मदिरा पान- मुहूर्त. १७२ सर्पशवाळो जीवे के नहीं? १६५ अन्य शुनाशुल कार्य६७ मांदोमाणस जीवे के नहीं ? मुहूत्ते. ... ... १७२ तेनी स्थापना विगेरे.... १६३ गर्जाधानमुहूर्त. ... १७३ औषध खावानुं मुहूर्त.... १६६ पुंसवन (पुत्रजन्म )नो रोगीने माथे पाणी रेमवार्नु योग. ... ... मुहूर्त. ... ... सीमंतनुं गुहूर्त. ... अन्यंग स्नान- मुहूर्त.... १६६ जातकर्म तथा नाम नबुं अनाज खावानुं मुहूर्त. १६७ राजादिक स्वामीना दर्श करण- मुहूर्त. ... ननुं मुहूर्त.... ... १६७ कर्णवेधनुं मुहूर्त. ... १७४ हस्ती तथा अश्वना कर्म अन्नप्राशन- मुहूर्त.... १७४ विषे. हौर कर्मनु मुहूर्त. ... १७५ ... गायो विगेरेनां बंधन चौल कर्मनुं मुहूर्त. ... १७५ स्थानादिकनुं मुहूर्त. ... १६७ विद्या तथा शिट्पना गायो विगेरेने खरीदवानुं आरंजन मुहूर्त. ... १७५ तथा वेचवानुं मुहूर्त.... १६७ नाटक तथा काव्यना ७७ हळ जोमवार्नु मुहूर्त. ... १६७ आरंजनुं मुहूर्त. ... १७६ Cata ... १६७ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. मूळ श्लोक. पृष्ठ.. | मूळ श्लोक. मंत्रादिक ग्रहण करवानुं पशुकर्मन मुहूर्त. .... मुहूर्त. .... ... १७६ खेतीकर्म, वीज वाववेताल मंत्रादिकना वानुं तथा वृक्ष रोपसाधवानुं मुहूर्त. ... १७६ वानुं मुहूर्त. .... धर्मना आरंजनुं तथा जळाशयोनां कार्यन नंदी मांझवानुं मुहूर्त. १७६ मुहूर्त. ... ... दीक्षानुं मुहूर्त. ... १७७ फुकान मांझवानुं मुहूर्त. आयुष्यनां कार्योर्नु धनने निधानमा मूक मुहूर्त. ... ... १७७ अथवा कोइने देवू, वस्त्र ग्रहण करवानुं ए विगेरेनुं मुहूर्त.... मुहूर्त. ... ... करीयाणानां क्रय विक्रऔषध आरंज करवानुं यनुं मुहूर्त. ... मुहूर्त. ... . ... १७७ रसनो संग्रह तथा चोरी रोगथी मुक्त श्रयेलाने करवानुं मुहूर्त. ...: स्नान करवानुं मुहूर्त. १७७ सामान्य शुन्न कार्य, नृपादिकनी सेवा कर मुहूर्त. ... . .... वानुं मुहूर्त. क्रूर कार्यनुं मुहूर्त. ... : विमर्श. ४. गमबार. . १-२ प्रस्थान विधि. ... ११ । ० परिघनो अपवाद तथा प्रयाणना समयनी शुद्धि. १८३ नत्र शूळ. .... दिनशुद्धि. ... १०३ नक्षत्र दिक्शूळ. ... ! प्रयाणमां मध्य अने निंद्य नक्षत्र कील. ... १ नक्षत्रो. ... ... १०५ ए-१० वारने आश्रीने दिक्शूळ । नक्षत्रने आश्री यात्रामा तथा विदिक्शूळ. ...: दिनांशनो नियम. ... १०५ दिक्शूळ तथा विदक्यात्रामा दिशानी शुद्धि शूळनी स्थापना. ... १ माटे परिघ.... ... १८६ ११ दिक्शूळ तथा विदिक्परिधनी स्थापना. ... १०७ । शूळनो अपवाद. ... ! ... १७० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. लोक. पृष्ठ. मूळ श्लोक. पृष्ठ. योगिनीविचार. ... १०२६-३३ यात्राने योग्य लग्न. ... १० योगिनीनु कोष्टक. ... १९१ ३४-३५ यात्राने योग्य होरादिक पाश तथा काळy स्वरूप. १७२ पांच वर्गमांथी होरानुं पाश तथा काळनी स्वरूप. ... ... २१५ स्थापना. ... १९३ | ३६ जेष्काणन स्वरूप. ... १५ राहुचार तथा तेनी ३७ नवांश, वादशांश अने। स्थापना. ... ... १ए। त्रिंशांशनुं स्वरूप. ... १७ चंप्रचार तथा तेनी ३० यात्राने विष बार नावो. २१ए स्थापना. ... ... १एए ३ए-१२ यात्रामां बार लावोने रविचार. ... ... १७ थाश्री ग्रहोनो विचार. २१ रविचारनुं स्वरोदयनीरीते दशा तथा दशापतिनो निरूपण. ... ... १ए विचार... ... ११ प्रयाणनी जेम प्रवेश ४३-४ तान तथा कारक संज्ञा बने करवानो विधि. ... २०० तेनुं फळ. (स्थापना शुक्रचार. ... ... २०१ सहित ). ... ... २२५ शुक्र अंध. ... २०१४ यात्रामां वक्री गहनुं फळ. १२४ शुक्रचारना फळ विषे । ग्रहोनी वक्र गति तथा मतांतर. ... ... मार्गगतिना दिवसनी वत्सचार तथा तेनी संख्या .... ... १२५ स्थापना. ... ... २०४ अतिचारी ग्रहोर्नु वत्सचारनुं फळ. ... १०५ स्वरूप. ... ... २२५ रवि, राहु, चंज, मंगळ, ग्रहोनां जन्मनक्षत्रो. २२५ बुध, गुरु, शुक्र अने ४६ उत्तरचर तथा अंतश्चर शनिचारनुं चक्र. ... २०६ ग्रहो, तेनुं पळ, यात्रा शिवचार तथा तेनी सग्नमां ब वर्ग तथा वारनो स्थापना अने तेनुं फळ. २०६ नियम. ... ... २६ .४ यात्रामां चेष्टा निमित्त ७ यात्रामां केंजादिक स्थाननु विगेरेनी शुद्धि. ... २०७ फळ. ... ... २२० यात्रामां दुष्ट निमित्तोनो ग्रहोर्नु श्रढार प्रकारे परिहार. ... ... १० बळहीनपणुं. ... ए भा. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मूळ श्लोक. ४ ४९ ६५ ६६ ६७ ६० राहुना मुख तथा पुछनुं स्वरूप. मुथुशिल छाने मुशरिफ योगोनी उत्पत्ति.. प्रदोनी नव प्रकारे निर्बळता. यात्रामा केन्द्र स्थाननो विशेष. दिक्पतिने सन्मुख राखवानो प्रकार तथा तेनी स्थापना. सन्मुख रहेला ग्रहनुं फळ. यात्रानी कुंरुळीमां केवा छाने कया ग्रहोए प्रयाण वास्तुमां लेवानां व प्रकारनां बळबार राशिनां ... ... ... अनुक्रमणिका. पृष्ठ. १२ ... २३० २३० १३० २३१ २३१ २५० गो. २५१ ध्वजादिक श्राव आयो तथा तेनी स्थापना. ... iv कार्य परत्वे आयोनो उपयोग. एक आयने स्थाने (बदले ) अन्य चाय लेवानो विधि. फळ, आय, नक्षत्र अने व्यय साववानी रीत. ... ६३ ६४ वास्तुधार. ए. २५२ २५३ मूळ लोक. २५३ ५० शत्रुथी पहेलां के पी प्रयाण करवा विषे. चोर, ब्राह्मण, अन्य वा तथा राजाने आश्री यात्रानो नियम. ५२ - ६१ राजाने प्रयाण करवाना ग्रहयोगो. सर्व योगोनो सार. ६२ बृहजातकमां कहेल राजयोगो तथा तेमां जन्मेलानुं फळ. यात्रादिकमां चित्तोत्साहन ५१ ६९‍ करनारने कयो उपाय जयकारक बे ? प्रबळता. यात्रामां दिशानो विभाग. कया वास्तुमां कोन हाथथी मान करवुं । तथा जींतो ने गणवी में नहीं ? ते विषे. वास्तुतुं जन्मनक्षत्र विगेरे. व्ययना पिशाचादिक त्रण प्रकार तथा शांतादक आव प्रकार. इंद्र, यम काने झाप नामन शो लाववानी रीत .. ७०-७१ ध्रुव विगेरे सोळ प्रकारन वास्तु तथा तेनुं फळ. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. पृष्ठ. मूळ श्लोक. पृष्ठ. प्रस्तारनो प्रकार तथा तेना घरनी राशि जाणवा माटे सोळ नंगनी स्थापना. २५६ नवना पाद लावध्रुवादिक घरो उत्पन्न कर वानी रीत. ... २६४ वानीरीत. ... ... २५७ | ए ब्राह्मणादिकने श्राश्री घरना घरनी दिशानो निर्णय. २५७ श्राय तथा हारनी ध्रुवादिक घरोनी व्यवस्था. ... ... २६५ स्थापना. ... २५० श्रआयादिकनो अपवाद. २६५ वास्तुमां चंपनुं बळ तथा सूत्रपात विगेरेनुं मुहूर्त. २६५ राशिबळ,तारावळ विगेरे. २५ए । २-७३ घरना थारं नमां लग्नवळ. २६६ वास्तु प्रारंन करवाना | लग्नने विषे दोष. ... २६० महीना तथा तेनुं फळ. २६१ । ०५ यात्राथी पाग आवेता घरना आरंजमां संक्रांतिए राजादिकनो घरप्रवेश करीने युक्त एवा सूर्य अथवा नवा घरमांप्रवेश. १६ए मासो. ... ... २६१ । ०६-०७ घरप्रवेशमा वार तथा कर दिशामा प्रथम खोद नक्षत्रनो नियम. ... २६ए वानो श्रारंन करवो? घरप्रवेशमा लग्नबळ. ... १७१ (वास्तुना मस्तकादिक गृहस्थापन अने गृहअवयवो). ... २६३ प्रवेशमां ग्रहोनी विदिशामां खोदवानो व्यवस्था. ... २७२ नियम ( शेषनागना वधूप्रवेश तथा सूतिकाअवयवो). ... २६२ । गृह निर्माण अने आयादिक कहेवानुतात्पर्य. २६३ । प्रवेश. ... ... २७३ विमर्श. ५. विलग्नघार. १०. विवाह, दीक्षा अने प्रति जे वर्ष, मास विगेरेमा खग्न ठामां लग्ननी आवश्य खेवातुं नथी ते विषे.... २७५ कता तथा सौर मास आश्रीने तेनुं मुहूर्त.... २७३ सिंहस्थमां लग्ननो दोष चांड मासनो नियम. ... २७४ तथा अदोष. ... २७६ नत Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ រម मूळ श्लोक. ५ धनार्क तथा मीनार्कमां लग्ननो दोष तथा दोष.... विष्णुना शयनकाळे लग्ननो निषेध. अधिक मासमां लग्ननो निषेध तथा अधिक मास लाववानो प्रकार. २७० क्ष्य मास जाणवानी रीत. लग्ननो तथा श्रंशनो स्वामी नीच होय के अस्त पाम्यो होय तो लग्ननो निषेध. लग्नां बुधनास्तोदयनुं समान फळ. ग्रहोना उदय अने स्तना दिवसनी संख्या.... ग्रहोनो उदयास्त थवानो २७ प्रकार. लग्न तथा अंशनो स्वामी ... ... अनुक्रमणिका. पृष्ठ. ... २७७ २७० २७ २०० २०० लग्न ग्रहण करवामां ग्रहगोचरनी शुद्धि. चंद्रनां पंदर प्रकारनां वळ विषे. दीक्षादिकमां चंपादिकना बळनी आवश्यकता. २०० मिश्रधार. ११. २०४ २०४ मूळ श्लोक. २०४ ४ क्रूर होय त्यारे लग्ननो निषेध.... गुरु शुक्रना अस्तमां लग्ननो निषेध. लोपगत गुरुमां लग्ननो निषेध. नक्षत्रने नामे महीनानां नामो. बुधना उदयमां लग्न शुनपएं. शुक्रनास्तमां दीक्षान) निषेध. गुरु नीच स्थानमां होट त्यारे लग्ननो निषेध लग्नमां नीचांशोनो त्याग. विवाहादिकमां समयन शुद्धि. विवाहादिकना लग्नमां श तथा गुरुनी त्याज्य स्थाई. ... ... ग्रहोना वळनी तर मता. चंदना बळ विषे. ग्रहगोचर करतां अष्ट वर्गनुं वळवानपएं. दश वर्ष उपरांत वय वाळी कन्या म Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. সুৰক্ষযিয়, १५ लोक. पृष्ठ. | मूळ श्लोक. मात्र लग्ननीज आव नानी रीत तथा तेनी श्यकता. ...२०६ स्थापना. ... श्ए लग्नमां मासशुद्धि, दिन- १५ नत्रना दोषनो प्रकार. २ए शुद्धि तथा नक्षत्रशुद्धि राहुना नदत्रनुं तथा विषे. ... ... २०६ विड्वर नत्रनुं त्याज्यलग्नमां दिनशुद्धि विषे.... २०० पणुं. ... ... एए लग्नमां नक्षत्रशुद्धि. ... २५१ ग्रहजिन्न (वेध) नदप्रतिष्ठाने आश्री विशेष. २५१ त्रनो त्याग तथा तेनी सप्तर्षिजनो नत्रचार. २ए स्थापना. ... श्एए युधिष्ठिर अने शालि १६ अशुद्ध नक्षत्रनी शुद्धि.... ३०१ वाहननाशकनो काळ.श्ए केतुना उदयतुं नक्षत्र सप्तर्षिउना उदयनी . जाणवानी रीत. ... ३०२ व्यवस्था... ... श्ए। वेध अने एकार्गलादिके विवाहादिकमां शुन्न नक्षत्रो दूषित श्रयेखा नक्षत्रनो तथा तेनी स्थापना. ... श्ए३ त्याग. ... ... ३०४ विवाहनां नक्षत्रोमां विशेष. २९३ | १० समयनी शुद्धि (क्रांति१३ विवाहमा वर्णक, कुसुंज, साम्य दोष ). ... ३०४ मंझपारोपण, वेदिका, क्रांतिसाम्य काढवानी जुवारा अने वेसवाळ रीत. ... ... ३०५ विगेरेनुं मुहूर्त. ... २ए। विवाहमा तजवा योग्य प्रतिष्ठा आश्री नक्षत्रनो अढार दोषो तथा - नियम. ... ... २५५ तेमनो नंग. ... ३०ए नक्षत्रोनी ब्राह्मणादिक १५-२० प्रतिष्ठामा लग्नना अंशनो जाति. ... ... ए५ नियम. ... ... ३१४ नव प्रकारनां नक्षत्रोनी विस्वनावादिक त्रण अशुनता. ... श्ए६ प्रकारनां लग्मनी अनिषेक नक्षत्र तथा स्थापना. ... ३१५ देश नक्षत्र. ... २७ । २१ दीक्षामां लग्नना अंशोनो पद्म नक्षत्रनी स्थाप नियम. ... ... ३१७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनुक्रमणिका. मूळ श्लोफ. पृष्ठ. मूळ श्लोक. २२ विवाहमां लग्न तथा ३५ दीक्षालग्नमां असाधारण अंशोनो नियम. ... ३१७ ग्रहोनी संस्था. . .. २३ प्रतिष्ठा, दीक्षा अने विवा- ३६-३७ विवाहलग्नमां रेखा आपहनां लग्न विषे साधारण नारी ग्रहोनी संस्था. ... नियम. ... ... ३१ए ३०-४१ विवाहलग्नमां विशेष. ... क्रूर कर्तरीनी उत्पत्ति ५२-५० सर्व कार्यमा साधारण ग्रहतथा तेनी स्थापना. ३१ए संस्थारूप शुन योगो.... जामित्र दोषनी उत्पत्ति.३२१ ५१ प्रतिष्ठालग्नमां रेखा श्रापचंथी केन्प्रस्थानमा नारी ग्रहसंस्था. .... रहेला क्रूर ग्रहना दोष ५२-५३ प्रतिष्ठालग्नमां विशेष. ...: विषे. ... ... ३२५ । ५४ सर्व कार्यमां शुन्न ग्रहोनी चंथी सातमा स्थाने रहेला शक्ति तथा तेनुं फळ. ... क्रूर ग्रहथी उत्पन्न थता ग्रहोने विषे वीश प्रकाजामित्र दोषनो नंग. ... ३२२ रचं बळ. दीक्षासमये चंनी साथे ग्रहोना हर्षस्थानना चार रहेला बीजाग्रहोनुं फळ. ३२३ प्रकार. ... ... विवाह तथा दीक्षानो ‘रिष्ट योग श्रवानी रीत. साधारण नियम. ... ३२३ (वुध पंचक दोष). युति दोष तथा तेनुं फळ. ३२४ ५५-५६ वुध, गुरु श्रने शुक्रना जामित्र दोषनो नंग. ... ३२४ उच्चपणाने विषे शक्तिनुं २० प्रतिष्ठाने आश्री ग्रहोनी फळ. ... ... युति तथा दृष्टिनुं फळ. ३२५ दोषो वझे लग्ननी अशुशए-३४ सर्व शुन कार्यनां घटिका छता. ... ... . खग्नोमां साधारण रीते साध्य तथा असाध्य वर्ण्य समय. ... ३२६ दोषो. ... ... प्रतिष्ठादिकमां घटिका साध्य दोषनो प्रतीकार. ...: खग्नमां साधारण नंग शुभ ग्रहोनी दृष्टिनी शक्ति. थापनारी ग्रहोनी शुन ग्रहोनी संस्था. ...३ संस्था. ... ... ३३३ । ६०-६१ ग्रहोना उदयास्तनी शुछि.. .. ... Ե एए M 1. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोक. सेपादिक लग्ननुं मान. साव गुरु अहरोनी एक पळ, ते विषे श्लोक. ३६३ लंका नगरीना लग्ननुं तथा तेनी मान स्थापना. मध्य देशमां लग्ननुं तथा तेनी मान अनुक्रमणिका. ... ... पृष्ठ. ३६२ स्थापना. ... दिलपुर पाटणना लग्ननुं मान तथा तेनी स्थापना. ३६६ लग्नोनुं उदय संबंधी घमीनुं मान अने होरादिकनुं पळमान. ३६६ नक्षत्रोना उदयनुं मान, ३६७ तेनी स्थापना. राशिनी विशेष संज्ञा तथा तेनुं प्रमाण. सूर्यने स्पष्ट करवा माटे वारे संक्रांतिनी अंतराळ घमी. ... ३६३ ३६४ ३६८ संक्रांतिना अंतरनी मुक्तिनो यंत्र. ३६ सूर्य स्पष्ट करवानी रीत. ३६५ स्पष्ट करेला सूर्यथी यनांश सहित सूर्यनुं जोग्य मान लाववानी रीत. ... अयनांश लाववानी ३७१ रीत. ३६० ३७२ मूळ श्लोक. ६८ ७३ ६०-७० लग्ननो नवांशक स्पष्ट करवा माटे बीजों प्रकार. ७१-७२ समयने श्रश्रीने लग्न लाववानी रीत. इष्ट लग्ननुं नुक्त लाववा वने करीने इष्ट समयने स्पष्ट करवानी रीत. ३७३ दिवसे काळ लग्न ... श्रीने ने अंश लाव वानी रीत. श्रीने रात्र काळने लग्न छाने अंश लाववानी रीत. शंकु बायामां उपयोगी दिनमान लाववानी त. मध्याह्ननी बाया लाववानी रीत. १५ पृष्ठ. ३७५ ३७७ ३७० ३०० ३८० ३०२ मध्याह्न बायाथी इष्ट काळनी बाया लाववानी रीत. ग्रहोनुं तथा तेनी गतिनुं स्पष्टीकरण. ग्रहोने स्पष्ट करवानुं फळ. वक्री तथा मार्गी थयेला होनी स्पष्टता करवानी रीत. ३० विवाहमां गोधूलिक लग्न. ३ए६ ३८२ ३८४ ३८ए Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनशुधिनी अनुक्रमणिका. मूळ श्लोक. पृष्ठ. | मूळ श्लोक. ७४ गोधूलिक लग्नमां केटली अप दोषवाळा लग्नना शुद्धि होवी जोइए ? .... ३९६ स्वीकार विषे.. .... ७५ ध्रुव लग्न विषे. .... ३एए शकुननी बळवत्ता. .... ७६-७५ राजादिकना अनिषेकनुं चंड सूर्य नामी. .... मुहूत्ते. .... .... ४०० ७३-०५ अनिषेकमां मोटा दोषो. ४.३ पृथ्वी, जळ विगेरे पांच आचार्यादिक पद तत्त्वो विषे. .... स्थापना विषे. .... ४०३ टीकाकारनी प्रशस्ति. समग्र ग्रंथना अर्थनुं सम ग्रंथकार ( टीकाकार) र्थन नो अभिप्राय. .... .... ४.५ लग्नशुद्धिनी अनुक्रमणिका. मंगळ. .... .... ४२३ । लग्न कहेवार्नु ? ... २-३ लग्न शब्दनो अर्थ तथा श्रा ग्रंथनां गोचरशुद्धि आ ग्रंथमां कया विषयर्नु विगेरे त्रण घारनां नाम गोचरशुद्धि. १. ५-१२ चंड, गुरु, रवि अने तारा उनी शुद्धि दिनशुधि.. १३ दिनशुधिमा मास विगेरे ३५-३५ कुमार योग. .... .... दशहारनां नाम. .... ४२५३६ शन्न कार्यमा योगती १४-१५ मासनी शुद्धि ४२५ व्यवस्था. .... १६ वारनी शुद्धि. ४२५ ३७ रजश्वन्नादिक चार धारोन १७-२० तिथिनी शुद्धि. .... ४१६ २१-२३ नदत्रनी शुद्धि नाम. .... .... ....४५६ २४-२६ योगनी शुद्धि .... ४२७ ३० रजन दिवसर्नु स्वरूप. २७ करणनी शुधि. .... ४२७ ३५-४५ संक्रांति दग्ध तथा ग्रहण २०-२ए सिद्धि योगनुं स्वरूप. .... ४२७ ___ दग्ध तिथि. ३०-३३ बीजा सिद्धि योगो. .... ४२० । ४३ कर्क योग. .... .... Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ि वार नक्षत्रने आश्री अशुभ योग. ग्रह जन्मनक्षत्र योग. ३ प्रदर, कुलिक, उपकुलिक विगेरे कुयोगो. ५ संध्यागत विगेरे व २ त्रिंशांशने .... लग्न शुचिना प्रकार. ब वर्गनी शुद्धिनां नामो तथा पांच वर्गनी शुद्धिनी प्रमाणता..... मेषादिक लग्नना पळोनी संख्या. अशुभ .... आ० ५ नक्षत्रो तथा तेमनां फळ. ४३२ धूमित, लिंगित अने वर्गनी शुद्धि. नवांशने आश्री लग्ननी .... .... .... श्री ब .... .... अनुक्रमणिका. .... पृष्ठ. शुद्धि. ४३० " लग्ननां स्थानो तथा होरा. ४३० ४३० प्रेष्काण. २ नवांशा. .... ४३० ---- ४३१ ४३१ ४३ ४३७ द्वादशांशा...... त्रिंशांशा. सौम्य तथा क्रूर ग्रहो . ४४० ४३७ लग्न शु. ३. ४३७ ४३७ ४३७ ४३८ मूळ श्लोक. दग्ध नक्षत्र विषे. ६१-६४ विष ग्रह विषे. ६५ उपग्रह नक्षत्र. ६६-६७ लत्ता. ६०-६० पात. ७०-७१ एकार्गल. ७२ - १६ एकार्गलनी रीत. सगुण नक्षत्र. 66 १२७ .... १३२ १३३ .... વીની .... शुभ शकुन विषे. ग्रंथ फलितार्थ. www. ६ - ० उदयास्तशुद्धि. - १०१ ग्रहोनी दृष्टि. १०२-११३ दीक्षाने आश्री महोनुं बळवानपएं. ( दीक्षाकुंकळी ). ११४- १२६ प्रतिष्ठाने श्राश्री शुजा शुभ ग्रहो ( प्रतिष्ठाकुंकळी ). सूरिपद, राज्याभिषेक, विवाह विगेरे माटे जलामण. .... १२८ - १३१ शीघ्रताथी कार्य करवा माटे ध्रुव लग्न तथा बाया लग्न. .... .... .... www. १ ए पृछ. ४३३ ४३३ ४३४ ४३४ ४३५ ४३५ ४३६ ४३७ ୫୫. ४४० ४४१ ४४३ ४४५ ४४५ ४४६ ४४६ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मूळ श्लोक. १ ‍ ३ ४ Ա ६ 6 G ए - १० ११ १२-१३ १४-१५ १६ १७ १८-१९ दिनशुचिनी अनुक्रम लिया. दिनशु किनी अनुक्रम ऐका. मंगळ. वारना स्वामी तथा तेनी सौम्य विगेरे संज्ञा. ४४९‍ वारने विषे होरा. ୫୫୯ वारनी प्रवृत्तिनो निर्णय. ४५० श्री सुवेळा .... वारने ( चोघमीयां ). कुलिक, कंटक, उपकुलिक छाने काळवेळा, यंत्र सहित. वर्ण्य अर्धप्रहर तथा गमनादिकमां वर्ण्य ४५१ .... दिशा, यंत्र सहित. ४५१ तिथिनां नंदादिक नामो. शुभ कार्यमां वर्ज्य तिथिd. सूर्यदग्धा तिथि. स्थिर तथा चर करणो. ४५२ ४५१ ४५२ ..... पृष्ठ. ४४ .... . ४५० ४५० विष्टिनुं स्वरूप, यंत्र सहित. जा (विष्टि) नां अंगो ४५३ .... तथा तेनुं फळ. ४५४ करानी अवस्था.... ४५४ नक्षत्रोनां नाम तथा तेनी ताराजे, यंत्र सहित... ४५४ मूळ श्लोक. १० २१ २२-२४ २५-२७ १८ २‍ ३० ३१ ३२ ३३ mm ३४ ३५-३६ ३७-३८ ३९-४२ अभिजित् नक्षत्रन समजए. नक्षत्रोना अक्षरोनं. यंत्र. कर राशिमां केटला नक्षत्रो आवे ते, यंत्र सहित. .... चंद्रन अवस्था, अं तेनुं बळ. ताराबळ, यंत्र सहित. रवि योग. कुमार योग. राज योग. स्थविर योग. .... www. 801 ... .... .. यमल तथा त्रिपुष्कर योग. पंचक योग. विष्कंजादिक सत्यावीश योगोनो यंत्र .. वर्ण्य योगो. आनंदादिक श्रठ्यावीः योगोनी उत्पत्ति तथा तेनुं फळ, सयंत्र वारने आश्री शुभ तिथिन. .... .... वारने आश्री शुभ नक्षत्रो 0.06 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ७६ DB Mor दिनशुधिनी अनुक्रमणिका. पृष्ठ. | मूळ श्लोक. अमृतसिद्धि योग. .... ४६५ ७१ प्रयाणमां नत्रने श्राश्री उत्पात, मृत्यु, काण अशुल्न समय. .... ४६७ श्रने सिद्धि योगो, परिधनुं स्वरूप, यंत्र यंत्र सहित. .... ४६२ सहित..... .... ४६७ यमघंट तथा ग्रह जन्म- ७३-७४ दिक्शूळ तथा विदिक्नत्र. .... .... ४६५ शूळ. .... ....४६७ कर्क योग. .... ४६३ ७५ शूळना दोषनो अपवाद. ४६ए । वारने श्राश्री अशुन नक्षत्रशूळ. .... ४६ए तिथि. .... ४६३ वत्सर्नु स्वरूप. .... ४६ए ० त्रण प्रकारनुं गंमांत 3-पुए योगिनी, यंत्र सहित. ४७० तथा तेनुं फळ, सयंत्र.४६३ राहुविचार. .... वज्रपात योग. .... ४६४ शिवविचार, यंत्र सहित.४७० मृतक अवस्थावाळां रविविचार. .... ४७१ नक्षत्रो..... ....४६४ चंडविचार. .... ४७२ नक्षत्रोनी तीदण, उग्र शुक्रविचार. .... ४७२ विगेरे संज्ञा तथा तेनुं पाश तथा काळ. .... ४७२ फळ. .... .... ४६५ न्६ हंस (नामी) विचार. ४७२ प्रस्थान करवा विषे..... ४६५ चैत्यनुं खात तथा शिक्षाप्रयाणमां शुक्न लग्नादि स्थापन मुहूर्त. .... ४७३ कनुं फळ..... .... ४६६ प्रतिमानो गृहप्रवेश. ४७३ प्रयाणमां शुक्ल तिथि ए-ए. अधोमुख विगेरे नक्षत्रो तथा तेनुं फळ. .... ४६६ अने तेनुं फळ. .... ४७३ प्रयाणमा वर्ण्य तिथि. ४६६ प्रतिमानुं नाम पामवानी तिथि नक्षत्रने योगे रीत. .... .... ४७३ प्रयाणमां शुन वार. ४६६ ए-ए३ पमाष्टक. .... .... ४७४ प्रयाणमां सामान्य शुन्न एच-ए६ नक्षत्रयोनि वेर. .... ४७४ दिवस. .... .... ४६६ एप वर्गाष्टक. .... ....४७५ प्रयाणमांअशुन दिवस. ४६७ नामीमांरहेलांनत्रना प्रयाणमां शुन, मध्यम नाव, नामीयंत्र. .... ४७५ श्रने अशुल नतो. ४६७ । एए विंशोपक. .... ४७५ D GG ३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनशुधिनी अनुक्रमणिका. मूळ श्लोक. पृष्ठ. | मूळ श्लोक. १००-१०१ देवगणादिक. .... ४७६ ११-१२७ दीदा तथा प्रतिष्ठान १०३-१०३ विद्यारंन विषे. .... ७६ मुहूर्त. .... .... १०४-१०५ सोच विषे. .... १७७ १२-१३२ संध्यागत विगेरे वर्ण्य कर्णवेध तथा राजाना नत्रो तथा तेनुं दर्शननां नक्षत्रो. .... ४७७ स्वरूप..... १०७ वस्त्रधारण. १३३ उपग्रह. .... १०७ नवां पात्र वापरवा विषे. ४७७ १३४ एकार्गल यंत्र १०५-११० गयेली वस्तु पानी सहित. .... ... श्राववा विषे, यंत्र पात दोष. सहित..... ....४७० लत्ता दोष. सर्पदंश विषे. .... ए वेध दोष..... ११२-११३ रोगनी शांति जोवा सप्त शलाका यंत्र. विषे. ... .... ४७ए १३० पंच शलाका यंत्र वमे ११४ औषध शरु करवानां ग्रहवेध. .. नक्षत्रो. रोगथी मुक्त १३ए गया लग्न. .. श्रयेलाने स्नान. .... ७ए १४० ध्रुव चक्रनुं फळ. .. ११५-११६ मृत्यु जोवा विषे. त्रिनामी यंत्र. .... ४०० १४१ शंकु गया लग्न विषे. ११३-११७ मृत कार्यमां वर्दी १४२ प्रथम गोचरी, नंदी नदत्रो अने तेनो विगेरे. .... ... विधि. .... .... ४०० १४३ उपसंहार. ११५-१२० संयोगी नक्षत्रो. .... ४०१ १४४ ग्रंथकारनुं नाम. + १३६ १३७ %3 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीउदयप्रभदेवसूरिविरचित ॥ ॥ आरंभसिद्धि ॥ ॥ भाषान्तर ॥ ॥ अथ प्रथमो विमर्शः॥ ॥ ॐ नमः श्रीसर्वज्ञाय ॥ श्रीधर्मन्यायसम्यग्व्यवहृतियुक्तेर्जीवलोकेन जा, श्रेष्ठे तादृमुहूर्ते परिणयनमिहाचीकरद्यो युगादौ । खीखायेते ययैतौ सततमवियुतौ सत्फखान्यौ स दत्ता, वस्तुं नः सिद्धिसौधे सुसमयमृषजस्वामिदैवज्ञराजः॥ र्थ-जे शपलदेव स्वामीए युगना प्रारंजमां तेवा को श्रेष्ठ मुहूर्ते श्रीधर्म अने वक सम्यक् प्रकारनी व्यवहृति (व्यवहार )रूप युवति (स्त्री)नो जीवलोकर्ता साथे विवाह कराव्यो , ते श्रीशषनस्वामीरूपी श्रेष्ठ दैवज्ञ (नैमित्तिक) जे मा बन्ने दंपती सत फळे करीने व्याप्त एवा श्रश्ने निरंतर वियोग रहित क्रीमा नकारे सिद्धिरूपी सौधमां निवास करवा माटे अमने सारं मुहूर्त श्रापो. श्रादर्शेषु पुरापि सन्ति कतिचियाख्यालवाः केऽपि च, प्राप्ताः श्रीवरसोमसुन्दरगुरोः पादप्रसादानवाः । उक्तानुक्तरुक्कमर्थमथ तैरारंसिधेरहं, व्याकर्तुं स्वपरोपकारविधये तकार्तिकं प्रस्तुवे ॥ :-श्रा श्रारंसिधिनामना ग्रंथनी व्याख्याना केटखाक लवो (नानी व्याख्या) पण केटखांक पुस्तकोमा बे, अने केटलाक नवा खवो मने उत्तम एवा श्रीसोमगुरुना चरणकमळना प्रसादथी प्राप्त थया , माटे ते सर्व लवोए करीने पोताना रना उपकारने माटे उक्क, अनुक्त अने पुरुक्त अर्थने स्पष्ट करवा माटे हुं श्रा सधिनी व्याख्या करूं जरतक्षेत्रमा समग्र त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ श्रने काम )नुं वा प्रमाणे उर्पाजन करगर्जना करतो गुर्जर (गुजरात)नामे देश ने. तेना स्वामी श्रीवीरधवल नामना राजाए ते (संघवी ) श्रीवस्तुपाळने सर्व राज्यना व्यापारनो अधिकार प्राप्यो हतो. ते रे श्रीशचुंजय, नजायंत (गिरनार) अने शूर्बुद (बाबु) विगेरे मोटां तीर्थोमां Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंलसिद्धि। पोताना अर्बुद, अंबुज थने सर्व विगेरे संख्यावाळा अव्यनो व्यय करीने क अहंकार नाश पमाड्यो हतो. निन्न भिन्न देशमां निवास करनारा कविजनोए स्तुतिना समूहने सहन करनार अने तेवा प्रकारना धीर, उदात्त अने मनोहर श्रेणिए करीने उपार्जन करेखा तथा जगतने व्यापीने रहेला यशरूपी शरीरनी करीने कदापि नाश नहीं पामनार ते मंत्रीश्वरे श्रीनागें गबना गुरु, सत् ज्ञा क्रिया अने सझुणोए करीने शोजता एवा श्रीमान् उदयप्रनदेव सूरिने श्राचाये स्थापन कर्या हता. तेमणे अन्य अन्य (जिन्न जिन्न) ग्रंथोमां बुटक बुटक रहेला अने लोकोत्तर कर्मना विषयवाळा ज्योतिषनां मुहूर्तादिक होवाथी जोशी लोकोने प्रयास अतो जोश्ने तेमना उपकारने माटे निरंतर उपयोगी, सत् अर्थनी प्रा. देवहट्टी समान था ग्रंथ रच्यो बे. "श्रा ग्रंथने लणनाराश्रोनुं खंम पांमित्य । ज्ञान ) न थाउँ” एवा हेतुथी पोतानी कृतिनुं सर्व ज्योतिषना विषयमा समर्थपणुं ववा माटे था पूज्य आचार्य महाराजे केटलांएक सावद्य कर्मो पण संपूर्ण रीते का तथा केवळ धर्मनां कार्योमांज एकांतपणे श्रन्युदयने श्चता अमोए पण ते (धर्म नां मुहूर्तो श्रने खग्नोना विषयमा घणा जोशीऊना विवादने पामेला गुण दोषना । स्पष्ट करवा माटे घणा घणा ज्योतिषना अभिप्रायो देखामवापूर्वक था टीका के तोपण पूर्वे कहेला हेतुथी ज ते सावद्य कर्मोना विषयमां पण व्याख्या करी सत् थने असत्ना विवेकमां (विवेचन करवामां) चतुर एवा माह्या पुरुषोए क्रियानां मुहर्तादिको मात्र जाणवा योग्य जजे, पण सावध कर्ममा प्रवर्तेखा कहेवा सायक नथी. ते विषे कह्यु बे के “यदेव साधकं धर्मे तवक्तव्यं वचस्विना । न त्वीपदपि बाधाकृदेषैव हि वचस्विता ॥" "धर्मनुज जे साधक होय, तेज माह्या पुरुषे बोलवू जोश्ए, परंतु धर्मने वाधा देश पण बोलवू नहीं. एज माह्या पुरुषतुं महापण बे." । श्रहीं को शंका करे के-"ज्यारे सावद्य कर्मोनां मुहूर्तादिक जाणवा योग्य जर पण कहेवा योग्य नथी, त्यारे तेवां कर्मोने या ग्रंथमां लखवानुं शुं फळ बे ? तेवां कर्मो ग्रंथमां खखवां ज नहोता". आनो जवाब ए ने जे-"तेवां कर्मोनुं अहीं लखवानुं फळ .” फरीथी शंका करे ने के-"ज्ञान क्रियाए करीनेज फळ ( एटले ज्ञान- फळ क्रिया ज .) क्रिया रहित ज्ञान तो वंध्या गायनी जेम प्राप्त लायक नथी." श्रानो जवाब ए के-"मात्र क्रिया करवाथी ज ज्ञान फळवालु एवो कांश नियम नथी, परंतु अकृत्योमा (न करवा योग्य क्रियाउंमां) जे न ते पण ज्ञान- फळ . नहीं तो चोरी अने परस्त्रीसेवनादिक पापने जाणनारा । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ विवेकीने पोतानुं ज्ञान सफळ करवा माटे ते चौर्यादिक कर्ममां प्रवृत्ति करवानुं ते, तेथी करीने अहीं पण सावध कर्ममा प्रवर्तनना निवर्तन घमे ज सावद्य कर्मना सफळपणुं कटपq योग्य बे. आज कारणने लश्ने कयुं के "ये सुविहिताः पदस्थाः प्रौढाः सावधवचनतो विरताः। __ तेषामेव ग्रन्थः सदायमुपयोगितां खलताम् ॥" प्रो सत्कार्यने करनारा, प्रौढतावाळा श्रने सावध वचनथी निवृत्ति पामेला (श्राचार्यादिक पदने धारण करनारा) , तेउने जा ग्रंथ सदा उपयोगी था." श्रीजिनशासननी प्रजावनादिक विशेष फळना खानने जोश्ने कोश्वार अपवाद प्राश्रीने सावध कर्मनी प्ररूपणा करवानुं पण आगममां कहेढुं होवाश्री अमुक गवद्य कर्मनां मुहूर्तादिकनुं ज्ञान पण उपयोगी जे. अत्यंत विस्तारथी सर्यु. प्रस्तुकहीए जीए._ “तत्त्वार्थमेव वक्ष्ये वचन विशेषं च सोपयोगमिह । तत्तदनुसारतोऽक्षरघटना सूत्रे स्वयं कार्या ॥" श्रा ग्रंथनी टीकामां तात्त्विक अर्थने ज कहीश, अने को स्थळे उपयोगी एवा पण कहीश, माटे ते ते तात्त्विक अने विशेष अर्थने अनुसारे सत्रमा (मळ लोकमां) श्रदरघटना (अक्षरार्थ) पोतानी मेळे करी.खेवी." शास्त्रना आरंजमां मंगल, अनिधेय, संबंध अने प्रयोजन कहेवां जोशए एवं वाथी प्रथम मंगळने माटे उचित एवा देवताना नमस्कारने ग्रंथकार कहे . ॐ नमः सकलारंजसिफिनिर्विघ्नवेधसे । अहेंणामहेते सादामुपस्रनाय शंजवे ॥१॥ -समग्र शुज कर्मना आरंजनी सिधिमा निर्विघ्नता करनार, पूजा करवा योग्य, मानवाळा तथा सुखने उत्पन्न करनारा जिनेश्वरने मारो नमस्कार था. लोकमां “शं" एटले सुखने माटे "नवति" एटले श्रवाना स्वन्नाववाळा ए अर्थने स्वयं विप्रानुवो मुः" श्रा व्याकरणना सूत्रवमे मु प्रत्यय लागवाथी शंनु शब्द वे ए चतर्थी विनक्तिना एकवचननं रूप थयं जे. श्रावा शंखने एटलेजिनेश्वरने : था. या ग्रंथ सर्व दर्शनीने उपयोगी होवाथी शंनु एवो श्लेषवाळो शब्द . ते शंन्नु केवा ? तो तेनुं विशेषण "3" बे, ते "अ" एटले रक्षण करवं उपरथी उणादिनुं सूत्र लागी "म" प्रत्यय तथा “ऊट्" आगम श्रावी गुण क ज शब्दने जूदा जूदा अर्थमां लइ शकाय ते श्लेष कहेवाय छे, तेथी शंभु एटले महादेव नेश्वर एम बन्ने अर्थ लइ शकाय छे, माटे ए श्लेष कहेवायो. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारजसिधि॥ धवाथी जे शब्द सिख श्रयो . ते श्रव्ययना प्रकरणमां गणावेतो होवायी थ ने तेनो अर्थ “परमब्रह्मरूप" थाय . आ श्लोकमां मातृकावर्णनी जेम “हैं ए सिद्धमंत्र सख्यो ने तेनुं प्रयोजन विघ्न रहित इष्ट अर्थनी सिद्धि थाय ते समग्र शुन्न आरंजो ( कार्यो)नी सिधिमां विघ्नरहितपणाना उत्पन्न करनार था षणव युक्तिए करीने "श्रारंसिद्धि" एव॒ आ ग्रंथर्नु नाम पण सूचव्यु जे. तथ करवाने योग्य ए पण शंभुर्नु विशेषण बे. त्यां को ठेकाणे "अर्हाणामर्हते" एवं होय तो "पूज्यना पण पूज्य" एवो अर्थ करवो. तथा प्रत्यक्ष ज्ञानवाळा ए: प्रत्यक्ष ज्ञान ने अने जेनाथी अन्यने प्रत्यक्ष ज्ञान थाय बे एवा शंनुने नमस्कार हवे बीजा सूत्र (श्लोक) मां श्रन्निधेय, संबंध अने प्रयोजन कहे - दैवज्ञदीपकलिका व्यवहारचर्या मारम्नसिफिमुदयप्रनदेव एताम् । शास्ति क्रमेण तिथि १ वार न ३ योग ४ राशि ५ गोचर्य ६ कार्य ७ गम वास्तु ए विलग्न १० मिः ॥॥ अर्थ-श्रीनदयप्रल श्राचार्य जोशीउने दीपकनी ज्योत जेवी अने शुल व्य कार्योने आचरण करनारी श्रा आरंजसिद्धिने अनुक्रमे तिथि १, वार , योग ४, राशि ५, गोचर ६, विद्यारंजादिक कार्य ७, गम (प्रयाण) , ६ लग्न १० अने मिश्र ११ श्रा अग्यार धारवमे कहे . ___ स्पष्ट श्रर्थने प्रकाश करवाश्री श्रा श्रारंजसिद्धि जोशीने दीपकनी ज्योत सर व्यवहार एटले शिष्ट ( सारा) जननो शुज तिथि, शुल वार श्रने शुन नक्षत्रा शुन कार्य करवारूप सदाचार. आवा सदाचारनी चर्या एटले श्रमक रीते कर ते चर्या अनिधेयपणाए करीने जेमा रहेली बे. श्रा प्रमाणे "व्यवहारचर्या” एम क था ग्रंथर्नु अनिधेय जणाव्यु बे; अने थाम कहेवाथी आ ग्रंथ वाचक थयो अ हारचर्या वाच्य थर, तेथी वाच्य वाचक जाव नामनो संबंध पण सूचव्यो एम तेमज "व्यवहारचयों" एqया ग्रंथर्नु बीजु नाम पण जे एम जाए. अहीं प्रयोजन रनुं -एक श्रनंतर श्रने बीजुं परंपर. तेमां श्रोताउने व्यवहारनी कुशळतानी थाय ए था श्रारंसिधिनुं धनंतर प्रयोजन , तथा यथार्थ रीते व्यवहारनी । करीने धर्म, अर्थ अने काम ए त्रण पुरुषार्थनी सिद्धि थाय, तथा अनुक्रमे म पुरुषार्थनी पण सिद्धि थाय ए परंपर प्रयोजन के. हवे पूर्वोक्त व्यवहारचर्या : अनिधेयने श्रग्यार धारवमे विनाग पामीने बतावे .-प्रतिपद् विगेरे तिथि Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ ॥३, अश्विनी श्रादि नक्षत्रो ३, सिद्धियोगादिक योगो ४, मेप विगेरे मी जेम चरई ते गोचर कहेवाय जे. “चरेरामस्त्वगुरौ" ए सूत्रथी य पर्य शब्द सिद्ध थयो के. एनो अर्थ “पूर्व पूर्वनी राशिथी उत्तर उत्तर r" एवो थाय ने ६, विद्यारंजादिक कार्यो ७, गम एटले यात्रा , , हाट, प्रासाद विगेरे अने तेना संबंधथी तेमा प्रवेश करवो ते पण मअने वास्तु नामनां बन्ने धारोनो कार्यधारमा समावेश अश् शके जे, रोमां वधारे कहेवार्नु होवाथी जूदां जूदां पार कर्या . विलग्न एटखे १०, तथा मिश्र एटले कहेलां अने नहीं कहेलां एवां घणां चारोए पकनो एक घारमा संग्रह करवो ते ११, था अग्यार पारोवमे व्यव प्रथम तिथिधारने कहे . ना जया रिक्ता पूर्णा चेति निरन्विता । मध्योत्तमा शुक्ला कृष्णा तु व्यत्यया तिथिः ॥३॥ बीश्रारंजीने नंदा, ना, जया, रिक्ता अने पूर्ण ए प्रमाणे अनुक्रमे वी. ए रीते त्रण वार गणवाथी पंदर तिथि पूरी थाय बे. एटखे के विटने नंदा जाणवी, २-७-१२ ए तिथि ना जाणवी, ३-०-१३ रिका भने ५-१०-१५ ए तिथिउने पूर्णा जाणवी. श्रा नंदा विगेरे एटखे के पोतानां नाम प्रमाणे फळ आपनारी बे. ते विषे श्रीपतिए कडं खब, वास्तु, क्षेत्र अने नृत्यादिक आनंदवाळां कार्यो नंदा तिथिए विवाह, अलंकार, वाहन, प्रयाण तथा शांतिपौष्टिकादिक नक कर्मोने मामां थावे जे. युध तथा सैन्य उपर हुमलो करवो विगेरे विजयवाळां ए करवामां आवे . वध, बंध,घात, विष, अग्नि अने शस्त्रादिक संबंधी ए करवामां आवे बे. तथा विवाह, दीक्षा, यात्रा विगेरे मांगलिक कार्यो हामा श्रावे . सामान्य रीते तो अमावास्या अने रिक्ता तिथिने वर्जीने पुज कार्य करवामां आवे बे. तथा अमावास्याने दिवसे ते ज तिथिए ज्य कार्य सिवाय बीजां कार्य करवानो निषेध के. लक्ष कहे जे केमंत्ररक्षादीक्षालुओषु कर्मसु स्नाने । रिक्तादर्शाष्टम्यः शस्ताः॥" श, दीक्षा, कुष कार्य श्रने स्नान एटलां कार्यमां रिक्ता तिथि तथा अहमी ए पांच तिथि शुन्न ." Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥आरंजसिद्धि। शुख पहानी पहेली पांच तिभिहीन कहेयाय , उच्यी दशम सुधीनीची तिथि मध्यम बे, अने श्रग्यारशथी पूर्णिमा सुधीनी त्रीजी पांच तिथि र परंतु कृष्ण पक्षमा एथी उलटुं जाणवू. एटखे के कृष्ण पदमा पहेली पांच तिथि बीजी पांच मध्यम अने त्रीजी पांच तिथि हीन जाणवी. रत्नमाळामां तिथिना स्वामी श्रा प्रमाणे कह्या ."तिथिपाश्चतुर्मुख १ विधातृ विष्णवो ३, यम । शीतदीधिति ५ विशाख ६वा वसुन्नाग एधर्म १०शिव ११ तिग्मरश्मयो११,मदनः १३कलि १५स्तदनु विश्व१५३ "चतुर्मुख (ब्रह्मा) १, विधाता २, विष्णु ३, यमराज , चंड ५, विशाख ( स्वामी) ६, इंक ७, वसु ७, नाग ए, धर्म १०, शिव ११, सूर्य १२, कामदे कखि १४ अने विश्व १५ श्रा पंदर स्वामी प्रतिपद्यी पंदर तिथिना अनुक्रमे ज __"तिथौ हि दर्शसंज्ञके पितनुशन्त्यधीश्वरान् । त्रयोदशीतृतीययोः स्मृतस्तु चित्तपोऽपरैः॥" श्रमावास्यानी तिथिने विषे पितृदेवने स्वामी कहेला ले. एने बीजा आचार्य भने त्रयोदशीनो चित्तप एटले कामदेव स्वामी ने एम कडं वे." "वहि १ विरश्चो गिरिजा ३ गणेशः ४, फणी ५ विशाखो ६ दिनकृन्महे अर्गा एन्तको १० विश्व ११ हरि १२ स्मराश्च १३, शर्वः १४ शशी १५ चेति पु __ "अग्नि १, ब्रह्मा २, पार्वती ३, गणपति , शेषनाग ५, कार्तिकस्वामी महेश , उर्गा ए, यमराज १०, विश्व ११, हरि १२, कामदेव १३, शर्व १४ १५, या प्रमाणे पण अनुक्रमे तिथिना स्वामी पुराणने विषे जोयेला बे.” श्रा प्रतिष्ठा विगेरे कार्यमांते ते तिथिनो उपयोग के. एटले के जे देवनी जेतिथि होय ते ते देवनी प्रतिष्ठा विगेरे करवामां आवे जे. एज प्रमाणे आगळ नत्र, करण अ र्सना स्वामीयो कहेवामां आवशे त्यां पण ते ते देवनी प्रतिष्ठादिकमा पोत नक्षत्रादिकनो उपयोग करवामां आवे ने एम रत्नमाळाना नाष्यमां कडं . जिन प्रतिष्ठा विगेरेमां तो सर्व शुष तिथि, नक्षत्र, करण अने मुहूर्त उपयोगी , क जिनेश्वर सर्व देवोना पण अधिदेव बे. __ हवे खराब एटले वर्ण्य तिथि कहे जे.रिकाः ४-ए-१४ षष्ठ्यष्टमीछादश्यमावास्याः शुन्ने त्यजेत् । खीकुर्यान्नवमी कापि न प्रवेशप्रवासयोः ॥४॥ अर्थ-शुल कार्यमां रिक्ता (1-ए-१४), उ, श्राम, बारश श्रने श्रमावार तिथि त्याग करवा खायक . कोश्क शुन कार्यमा नवमीने पण खेवामां ऋ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः ॥ एटले चियामा प्रवेशमां बिलकुल सेषी नहीं. श्रा व्यवस्था मांगी, अन कार्यमां तो अशुभ तिथि ज विशेष सिद्धिकारक गाय परनी सर्व तिथि पवित्र नामे होवाची अशुभ वे कहां वे के"पष्ठ्यष्टमी चतुर्थीचतुर्दशी धादशी कुहूनवमीः । पाण्याद्दुर्लते नेतैषु संसिद्धिम् ॥” श्राम, चोथ, चौदश, बारश, अमास श्रने नोम आटली तिथि पक्ष वाय बे. श्रतिथिए करेला कार्यनी सिद्धि यती नथी. तेमां पण अने बेतिथि यात्रामा विशेष अशुभ बे; परंतु ध्रुव कार्यमां ते बे तिथि शुभ कहे बे. "चौदश पण यात्रामां विशेष छाशुन बे” एम श्रीपति कहे बे. त्रीन् वारान्· स्पृशती त्याज्या त्रिदिनस्पर्शिनी तिथिः । वारे तिथित्रयस्पर्शिन्यवमं मध्यमा च या ॥ ५ ॥ - जे तिथि वृद्धि होवाने सीधे ऋण वारने स्पर्श करती होय ते त्रिदिनस्पर्शिनी atra. हर्षप्रकाश ग्रंथमां ने फल्गु नामे तिथि कही बे, तथा तिथिना हयने वामां ण तिथिनो स्पर्श थतो होय तो ते त्रण तिथिमांनी वाचली तिथि रे (क्षय) कहेवाय बे. या त्रिदिनस्पर्शिनी तथा श्रवम ए बन्ने तिथि शुन र्जवी. कांबे के - “दिनदये जवेत्कार्यदक्ष्यस्तेन शुद्धं न तत् । प्रकृत्यन्यत्वमुत्पातत्र्यहस्पृक् तदतोऽशुनम् ॥” 6 स ( तिथि) नोय होय तो कार्यनो क्ष्य थाय बे, माटे हय तिथि शुज नथी; तिनुं श्रन्यपणं एटले विकार होय तो ते उत्पात कहेवाय बे, तेथी त्रण दिवसने नारी तिथि शुन बे. हवे दग्धा तिथि कहे . दग्धामर्केण संक्रान्तौ राश्योरोजयुजोस्त्यजेत् । नूत ५ हगू २ युक्तयोः शेषां शोधिते जगणे १२ तिथिम् ॥ ६॥ - सूर्यनी संक्रांतिमां जे राशि चालती होय ते जो विषम ( एकी) होय तो मेवा, ने जो सम ( बेकी ) होय तो तेमां वे उमेरवा. पढी तेनो बारे जेक शेष रहे ते तिथिने दग्धा तिथि जाणवी बारे नाग लेतां जो शून्य तो बारशने दग्धा जाणवी, अने बारे नाग लइ न शकाय तो ते ज तिथि दग्धा आ दग्धा तिथि शुभ कार्यमां वर्जवानी बे. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंसिलि॥ पटके केमेष १, मिथुन ३, सिंह ५, तुला , धन ए अने कुंज १ ए वे. आमांनी कोइ पण राशिमां सूर्यसंक्रांति होय तो ते राशिना अंकमां . बारे लाग लेता जे शेष रहे ते अंकवाळी तिथि ते संक्रांतिमां सूर्यदग्धा जा वृष २, कर्क ४, कन्या ६, वृश्चिक ७, मकर १० अने मीन १२ ए सम राशि ने कोइ पण राशिमां सूर्यसंक्रांति होय तो ते राशिना अंकमां बे उमेरी बारे ना शेष रहे ते तिथि ते संक्रांतिमां सूर्यदग्धा जाणवी. उदाहरण-मेष राशि पहेली ने, तेथी एकमां पांच उमेरतां श्राय. तेनो नहीं चालवाथीब ज बाकी रह्या, तेथी मेष राशिनो सूर्य होय त्यारे बन्ने दग्ध तुला राशि सातमी, तेथी सातमां पांच नाखवाथी बार थाय. तेनो बारे शून्य वधे जे, तेथी तुलाराशिनो सूर्य होय त्यारे बारशने दग्धा जाणवी. धन रा बे, तेथी नवमां पांच नाखवाथी चौद थाय. तेनो बारे नाग लेतां बे शेष रहे धन राशिनो सूर्य होय त्यारे बीजने दग्धा जाणवी. ए रीते बीजी पण विषम जाणवू. वृष राशि बीजी बे, तेथी तेमां बे उमेरी बारे नाग लेतां नाग चा तेथी चारना चार बाकी रह्या; माटे वृष राशिनो सूर्य होय त्यारे चोथने दर मकर राशि दशमी , तेमां बे उमेरवाथी बार थाय. तेनो बारे जाग खेतांश तेथी मकर राशिनो सूर्य होय त्यारे बारश दग्धा जाणवी. मीन राशि बारमी उमेरतां चौद थाय तेनो बारे लाग लेतां बाकी बे रहे , माटे मीन राशिन त्यारे बीजने दग्धा जाणवी. ए जरीते बीजीसम राशिउंमां पण जाणवू. ते दर ते संक्रांतिना श्राखा मासमां तजवी योग्य वे. दग्धा तिथिने ज स्पष्टताथी कहे .दग्धाऽर्केण धनुर्मीने २ वृषकुंन्ने ४ ऽजकर्किणि ६। । छन्छकन्ये ७ मृगेन्डालौ १० तुलैणे १२ व्यादियुतिथिः श्रर्थ-धनुष अने मीननी संक्रांतिमां बीजने दग्धा तिथि जाणवी. वृष अ संक्रांतिमां चोथ,मेष अने कर्कनी संक्रांतिमां बस, मिथुन अने कन्यानी संक्रांतिर सिंह ने वृश्चिकनी संक्रांतिमां दशम तथा तुला बने मकर राशिनी संक्रांति दग्धा तिथि कहेवाय जे. आ रीते सूर्यदग्धा तिथि जाणवी. प्रसंगोपात्त चंषदग्धा तिथिने कहे ने (हर्षप्रकाश )"कुलधणे २ अजमिहुणे ४ तुलसीहे ६ मयरमीण विसकके । विलियकन्नासु १५ कमा बीयाई समतिही उ ससिदहा ॥" "कुंज श्रने धनना चंच होय त्यारे बीजने दग्धा तिमि जाणवी, मेष श्रने Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ विमर्शः।। चंड होय पारे चोथ दग्धा तिथिजाणवी, तुला अने सिंहना चंद्र होय त्यारे उघ, मकर अने मीना चंड होय त्यारे आठम, कृपन अने कर्कना चंज होय त्यारे दशम तथा वृश्चिक थाने कन्याना चंज होय त्यारे बारशने दग्धा तिथि जाणवी.” दग्धा तिथिमां जन्मेलुं बाळक प्राये अटप आयुष्यवाळु होय बे. 'दग्धा तिथिy फळ यतिवबल नामना ग्रंथमां या प्रमाणे कडं . "कुष्टं क्षौरेऽम्बरे दौःस्थ्यं गृहवेशे तु शून्यता। श्रायुधे मरणं यात्राकृष्युबाहा निरर्थकाः॥" दग्धा तिथिने दिवसे दौर कराववाथी कुष्ट रोगथाय ने, नवं वस्त्र पहेरवाथी दुःस्थिति थाय ने, नर्कर घरमा प्रवेश करवाथी शून्यता थाय ने, नर्बु शस्त्र धारण करवाथी मरण थाय बे, श्रने यात्रा, खेती तथा विवाह करवाथी ते निष्फळ थाय . हवे क्रूर तिथि कहे बे.त्रिशश्चतुर्णामपि मेषसिंहधन्वादिकानां क्रमतश्चतस्रः। पूर्णाश्चतुष्कत्रितयस्य तिस्रस्त्याज्या तिथिः क्रूरयुतस्य राशेः॥७॥ अर्थ मेषथी, सिंहथी अने धनथी आरंजीने राशिनां त्रण चतुष्क करवा. तेमां प्रतिपशी प्रारंजीने अनुक्रमे चार तिथिङ तथा पहेली पूर्ण एटले पांचम ए तिथिळने पहेला चतुएकमां क्रूर तिथि जाणवी. ए रीते वीजा चतुष्कमां उन्धी आरंजी नोम सुधी तथा बीजी पूर्णा एटले दशम क्रूर तिथि जाणवी. तथा त्रीजा चतुष्कमा अग्यारशथी आरंजीने चोदश सुधी तथा त्रीजी पूर्ण एटले पूर्णिमा ए तिथिने क्रूर तिथि जाणवी. (श्रा क्रूर तिथि सर्व शुन्न कार्यमां तजवानी . ) एटले के मेष राशिमा ( रवि, मंगळ, शनि के र दु एमांथी ) को पण क्रूर ग्रह होय तो एकम अने पांचम, वृष राशिमां को पण क्रूर ग्रोह होय तो बीज अने पांचम, मिथुनमां क्रूर ग्रह होय तो त्रीज अने पांचम, तथा कर्कमां क्रूर ग्रह होय तो चोथ अने पांचम आ तिथि क्रूर जाणवी. एवी रीते सिंह राशिमां बम अने दशम, कन्यामां सातम अने दशम तथा वृश्चिकमां नोम अने दशम ए तिथि क्रूर जाणवी. ए रीतेधनमा अग्यारश अने पूर्णिमा, मकरमां वारश अने पूर्णिमा, कुंजमां तेरश अने पूर्णिमा तथा मीनमां चौदश अने पूर्णिमा ए तिथिर्ड क्रू: जाणवी. या राशि केवळ क्रूर ग्रह सहित होय तो ज ते तिथि क्रूर थाय बे, पण .. म्य ग्रहनी साये होय तो ते तिथि शुन ज जाणवी. “जे माणसनी नामराशि क्रूर ग्रहे छाक्रांत होय ते माणसे शुन कार्यमांते राशि संबंधी तिथि वर्जवी" एम केटलाक कहे जे. वठी बीजा कोश् श्राचार्य कहे जे के-मेष राशि क्रूर ग्रह सहित होय त्यारे एकम श्रने पांचमनी पहेली पंदर धमीनो त्याग करवो, वृष राशि क्रूर ग्रह सहित होय त्यारे आ. २ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ॥ रंजसिद्धि ॥ बीज ने पांचमनी बीजी पंदर घमीनो त्याग करवो, मिथुन राशि क्रूर ग्रह हित होय तो त्रीज तथा पांचमनी त्रीजी पंदर घमीनो त्याग करवो, तथा कर्क राशि क्रूर ग्रह सहित होय तो चोथ ने पांचमनी चोथी एटले बेली पंदर घमीनो त्याग करवो. ए रीते सिंहादिक चतुष्कमा तथा धनादिक चतुष्कमां पण ते ज प्रमाणे जाएं. हवे तिथिने श्रीने करणो कहे बे. - - करणान्यथ शकुनि १ चतुष्पद २ नागानि ३ क्रमाच्च किंस्तुघ्नम् ४ । असितचतुर्दश्यर्धातिथ्यर्धेषु ध्रुवाणि चत्वारि ॥ ए ॥ अर्थ-ज्यारे जेटला प्रमाणवाळी तिथि होय त्यारे तेना अर्ध प्रमाणवाळा सर्व करणो stra, केमके “तिथिनो अर्ध जाग करण कहेवाय बे, " एवं वचन बे. ते श्री प्रमाणेकृष्णपक्षनी चतुर्दशीना अर्धा जागथी एटले रात्रिथी आरंजीने अर्धी अर्धी तिथिमां अनुक्रमे शकुनि १, चतुष्पद २, नाग ३, छाने किंस्तुघ्न ४, ए चार करणो धुव जाणवां. ( कारण के ते करणो नियमित स्थाने रहेलां होवाथी ध्रुव कहेवाय बे. ) अर्थात् कृष्णपनी चतुर्दशीनी रात्रिए शकुनि करण होय बे. अमावास्याएं दिवसे चतुष्पद अने रात्रि नाग, तथा शुक्ल प्रतिपना दिवसे किंस्तुघ्न करणं होय . वाकीनां करणो कहे बे. - tr व १ बालव २ कौलव ३ तैतिल ४ गर ५ वणिज ६ विष्ट यः ७ सप्त । मासेऽष्टशश्चराणि स्युरुज्ज्वलप्रतिपदन्त्यार्धात् ॥ १० ॥ अर्थ - १, बालव २, कौलव ३, तैतिल ४, गर, ए, वणिज ६, ने विष्टि 9, श्रसात करण े; छाने ते शुक्ल प्रतिपद्नी रात्रिथी आरंजीने एक मासमां था वार यावृत्ति करवायी चर कहेवाय बे. अर्थात् शुक्ल प्रतिपद्मी रात्रिए वव करा होय बे, दिवसे बालव ने रात्रिए कौलव होय वे, त्रीजने दिवसे तैतिल ने रात्रिए गर होय बे ( तैतिलनुं बीजुं नाम स्त्रीविलोचन पण बे ). चोथने दिवसे व ऐज श्रने रात्रि विष्टि (ना) होय ते. या एक आवृत्ति थइ. ए प्रमाणे पांचमने से बव, रात्रि बालव, बने दिवसे कौलव श्रने रात्रिए तैतिल, सातमने दिवसे गर भने रात्रिए वणिज, तथा श्रमने दिवसे विष्टि, या बीजी आवृत्ति यइ. ए प्रमाणे श्रवमनी रात्रि बव, ते बेट शुक्ल एकादशीनी रात्रिए विष्टि आवे. या त्रीजी वृत्ति थइ. पी बारशने दिवसे बव ते यावत् पुनमने दिवसे विष्टि श्र चोथी आवृत्ति पुनमनी रात्रे बव, कृष्णपनी प्रतिपद्ने दिवसे बालव, यावत् कृष्णपक्षनी = विष्टि ए पांचमी आवृत्ति थइ. पठी चोथने दिवसे बव यावत् सात विष्टि ए बी श्रवृत्ति थइ पढी सातमनी रात्रिए बव यावत् दशमी इ. पी |जनी रात्रे . रने दिवसे नी रात्रिए Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ विष्टि श्रावे ते सातमी आवृत्ति अश्. पठी अग्यारशने दिवसे बव यावत् कृष्ण चतुर्दशीए दिवसे विष्टि थावे ते थामी श्रावृत्ति अश्. या आठ श्रावृत्ति तथा पळीनां चार ध्रुव करणोए करीने आखो मास पूर्ण श्राय बे. अहीं जे दिवस तथा रात्रिना विनाग कह्या बे, तेमां तिथि ज्यारथी शरु थाय त्यारथी त्रीश घमी सुधी दिवस ( पूर्वदळ) जा एवो, अने बीजी त्रीश घमी रात्रि (पश्चिमदळ ) जाणवी. एटले के तिथिनी जेटली घनी होय तेना बे लाग करी पहेला नागने दिवस अने बीजा नागने रात्रि समजवी. प्रसंगने लीधे था करणोना स्वामी कहे बे.“सो १ विधि २ मित्रा ३ र्यम धनू ५ श्री ६ शमना ७ श्चलेषु करणेषु । काले १ वृष ५ फणि ३ मरुतः । पुनरीशाः क्रमशः स्थिरेषु स्युः ॥" इंश १, ब्रह्मा २, मित्र ३, सूर्य ४, पृथ्वी ५, लक्ष्मी ६ अने यम ७ श्रा अनुक्रमे बव विगेरे चळ करणोना स्वामी जे. तथा कलि १, वृषन २, सर्प ३ अने वायु ४ श्रा शकुनि विगेरे चार ध्रुव करणोना अनुक्रमे स्वामी जाणवा." करणोनुं फळ कहे जे., दशामूनि विविष्टीनि दिष्टान्यखिलकर्मसु । ...रात्र्यहर्व्यत्ययान्नाऽप्यपुष्टैवेति तछिदः ॥ ११ ॥ अर्थ-विष्टि विनानां बाकीनां दशे करणो सर्व कार्यमां शुल ले. अर्थात् एक विष्टि (जत्रा) करण ज श्रशुल बे. तथा ना पण रात्रि अने दिवसना विपर्यासथी श्रदूषित ने एट.ले शुन्न ने एम तेना विधानो कहे वे. अर्थात् रात्रिनी (तिथिना पश्चिमदळनी )ना जो दिवसे श्रावे अथवा दिवसनी (तिथिना पूर्वदळनी) नजा जो रात्रिए थावे तो ते अशुल्न नथी. नाना अशुजपणा माटे ग्रंथांतरमां कडुं ने के. "यदि जाकृतं कार्य प्रमादेनापि सिध्यति । _ प्राप्ते तु पोमशे मासे समूलं तबिनश्यति ॥" "जो कदाच नामां करेलु कार्य नूलथी पण सिद्ध अश् गयुं होय तोपण सोळमो मास प्राप्त थये ते कार्य मूळ सहित नाश पामे .” . कोश् व खत नजाने प्रशस्य पण कही बे. ते विपे नारचंजना टिप्पनकमां कह्यु डे के ___ “दाने चानशने चैव घातपातादिकर्मणि । __ खराश्वप्रसवे श्रेष्ठा जमान्यत्र न शस्यते ॥" "दानमा, अनशनमां, घात अने पात विगेरे कर्ममां, तथा गधेमा अने घोमानी प्रसूतिमां ना श्रेष्ठ ने, अन्य कार्यमां श्रेष्ठ नथी." Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारं सिद्धि ॥ रात्रि दिवसना विपर्यासथी दूषित वे ते विषे कयुं वे के" रात्रिमा यदाऽह्नि स्याददर्जा यदा निशि । न तत्र नादोषः स्यात् सर्वकार्याणि साधयेत् ॥” " रात्रिनी जत्रा जो दिवसे होय अने दिवसनी जा जो रात्रे होय तो ते वखते नानो दोष नथी. ते सर्व कार्योने साधे बे." २ वळ "या विष्टिरक्रमप्राप्ता स्यात् " " अन्य दिवसनी जया अन्य दिवसे एटले तेथी बीजे दिवसे श्रावी होय अथवा अन्य रात्रिनी जत्रा अन्य रात्रिए आवी होय तो ते दूषित (शुन बे). "आम पण कोइक कहे बे. या बन्ने वचनोनो अभिप्राय एबे जे पोताना स्थानथी ऋष्ट थवाने लीधे ते जया निर्बळ बे, परंतु या बन्ने वचनो बहु संमत नथी, केमके अन्य स्थाने गयेला ( रहेला ) विषादिकनुं पण मारणस्वरूप नाश पामतुं नथी. एम त्रिविक्रम कहे बे. अहीं या प्रमाणे विशेष जावो. " सुरजे वत्स या ना सोमे सौम्ये सिते गुरौ । कहाणी नाम सा प्रोक्ता सर्वकार्याणि साधयेत् ॥” " हे वत्स ( शिष्य ) ! देवगणना नक्षत्रमां सोम, बुध, शुक्र के गुरुवारे ना आवे तो ते कल्याणी नामनी नया कदेली बे, ते सर्व कार्योंने साधनारी बे.” वळी"स्वर्गेऽजो दैणकर्केष्वधः स्त्री युग्मधनुस्तुले । कुंजमीना सिसिंदेषु विष्टिर्मर्त्येषु खेलति ॥” "मेष, वृष, मकर ने कर्कना चंद्र होय त्यारे विष्टि ( जा ) स्वर्गमां क्रीमा करे बे, कन्या, मिथुन, धनाने तुलाना चंद्र होय त्यारे विष्टि पातालमां क्रीमा करे बे, तथा कुंज, मीन, वृश्चिक ने सिंहना चंद्र होय त्यारे विष्टि मनुष्यलोकमां क्रीमा करे बे.” जानो काळ ( समय ) स्पष्ट रीते बतावे बे. - चतुर्थ्येकादश्योरष्टमीराकयोर्दिवा । --- रात्रौ ना शुक्ले तिथौ कृष्णे त्वेकैकोने यथाक्रमात् ॥ १२ ॥ श्रर्थ- शुक्लपक्ष्मां चतुर्थी तथा एकादशीनी रात्रिए ( पश्चिमदळमां ) अष्टमी तथा पूर्णिमा दिवसे ( पूर्वदळमां ) जत्रा होय बे, अने कृष्णपक्ष्मां अनुक्रमे एक एक चोटी तिथिए होय बे. एटले के कृष्णपक्ष्मां तृतीया अने दशमीनी रात्रिए ( पश्चिमदळमां ने सप्तमी तथा चतुर्दशीए दिवसे ( पूर्वदळमां ) ना होय बे. अहीं कोने शंका याय के – “विष्टि अशुभ होवाथी तेने वर्जवा माटे विष्टि नामनुं एक ज करण कहेवुं योग्य बे, परंतु बीजां बव विगेरे करणोनुं वर्णन कर्यु तेनो क्यां उपयोग थशे ?” आनो जवाब ए बे जे – “संक्रांति विगेरेमां श्र सर्व करणोनो उपयोग बे." कह्युं वे के - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । यो विमर्शः॥ "शकुनिचतुष्पदनागे किंस्तुघ्ने कोलवे वणिज्ये च । ऊर्ध्वं संक्रमणं गरतैतिलविष्टिषु पुनः सुप्तम् ॥ बवबालवे निविष्टं सुन्निदं चोर्ध्वसङ्गमे ।। उपविष्टो रोगकरः सुप्तो मुर्लिदकारकः ॥" " शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंस्तुघ्न, कोखव अने वणिज्य एटखां करणमा जो संक्रांति बेठी होय तो ते ऊर्ध्व (उन्नेलु ) संक्रमण कहेवाय . गर, तैतिल अने विष्टिमां सीक्रांति बेठी होय तो ते सुप्त (सुतेली) कहेवाय अने बव तथा बालवमां संक्रांति बेवी होय तो ते बेठेली संक्रांति कहेवाय बे. तेमां जो ऊर्ध्व (उजेली ) संक्रांति होय तो सुकाळ थाय, बेठेली होय तोरोगने उत्पन्न करे भने सुतेली होय तो काळ थाय." तथा-"शीतोष्णवर्षर्तुषु सूर्यसंक्रमाः, क्रमेण सुप्तोर्ध्वनिवेशिनः शुजाः।" "शीत ऋतुमां, उष्ण तुमा अने वर्षा ऋतुमां अनुक्रमे करी सुतेली, ऊर्ध्व अने बेठेली संक्रांति होय तो ते शुन्नने, एटले शीत ऋतुमां सूर्यसंक्रांति सुप्त होय तो ते शन्नने, उष्ण शतमा सर्यसंक्रांति ऊर्ध्व होय तो ते शुक्ल ने अने वर्षा ऋतुमां सूर्यसंक्रांति बेठेली होय तो ते शुज बे." तथा "पूर्व अने उत्तर एवां बे करणनी संधिमां (एक करणनी समाप्तिमां अने बीजा करणना प्रारंजमा रहेली संक्रांति सुप्तोत्थिता (सुश्ने उठेली ) नामे कहेवाय , ते सर्वदा अशुल ज जे." एम पूर्णना कहे . विष्टिनां मुखादिक अंगो अने तेना फळने कहे जे.बाण ५ हिदिग् १० जलधि ४ षट् ६ त्रिक ३ नामिकासु, अक्त्रं १ गलो २ हृदय ३ नानि ४ कटा५श्च पुलम् ६। विष्टेर्विदध्युरिह कार्य १ वपुः २ ख ३ बुद्धि ४ प्रेम ५ हिषां क्षय ६ मिमेऽवयवाः क्रमेण ॥१३॥ अर्थ-विष्टिनी पहेली पांच नामिका (घमी)ने विष्टिर्नु मुख जाणवू, त्यारपीनी वे धमीने कंठ जाणवो, त्यारपतीनी दश धमीने हृदय जाणवू, त्यारपनीनी चार घमीने नानि जाणवी, त्यारपीनी बघमीने कटि जाणवी अने त्यारपतीनी त्रण घमीने पुल जाणवू. तेमां जो विष्टिने मुखे कार्य कर्यु होय तो ते कार्यनो नाश थाय ने, कंठे कर्यु होय तो शरीरनो नाश ( मरण ) थाय ने, हृदये कर्यु होय तो व्यनो नाश थाय ने, नानिए बुद्धिनो नाश पाय , कटिए प्रीतिनो नाश श्राय , अने पुग्मे अवश्य जयनी प्राप्ति थाय . आ विषे लम्ब कहे के "शुनाशुलानि कार्याणि यान्यसाध्यानि जूतले । नामीत्रयमिते पुछे नत्रायास्तानि साधयेत् ॥" Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥आरंसिधि॥ “श्रा पृथ्वी पर शुज अथवा अशुन जे कोई कार्य असाध्य होय ते त्रण घमीना प्रमाणवाळा विष्टिना पुछे करवाश्री सिद्ध थाय ने.” तेनुं पुन्न प्रमाणे कडं . "दशम्यामष्टम्यां प्रथमघटिकापञ्चकपरं,, हरिद्यौ ११ सप्तम्यां त्रिदश १३ घटिकान्ते विघटिकम् । । तृतीयायां राकासु च गतसविंशैक २१ घटिके, ध्रुवं विष्टेः पुचं शिवतिथि १५ चतुर्योश्च विगलत् ॥" ____“दशम अने आपमे प्रथमनी पांच घमी पठी विप्टिनुं पुन्च श्रावे , एटले के ते तिथिए विष्टिनो कटिनी बीजी घमीश्री प्रारंल थाय ने, तेथी पांच घमी पनी पुत्र श्रावे श्रने त्यारपली मुख विगेरे कटि पर्यंत अंगो आवे बे. अग्यारश आने सप्तमीने दिवसे हृदयनी ही त्रण घमीथी विष्टिनो प्रारंज थाय , तेथी विष्टिनी तेर घमी गया पी तेर्नु त्रण घमी प्रमाण पुत्र थावे . त्रीज अने पुनमने दिवसे विष्टिनो कंपनी बीजी घमीथी प्रारंन श्राय , तेथी विष्टिनी एकवीश घमी गया पठी तेनुं पुत्र आवे , तथा चोथ अने चौदशने रोज विष्टिनो मुखथी प्रारंज थाय बे, तेथी विष्टि उतरतां बेही त्रण घमी पुछ आवे बे." नत्रा (विष्टि)नो आकार था प्रमाणे कह्यो . "सर्पिणी वृश्चिकी लषा दिवाराज्योः स्मृता क्रमात् । सर्पिण्या वदनं त्याज्यं वृश्चिक्याः पुचमेव च ॥" "दिवसनी जत्रा सर्पिणी कही बे, अने रात्रिनी जत्रा वृश्चिकी (वींबण) कही . तेमां सर्पिणीनु मुख अने वृश्चिकीन पुत्र तजवा योग्य .” था प्रमाणे केटलाक कहे जे. वळी बीजा कोश् एम कहे जे के-“शुक्लपदनी नत्रा सर्पिणी ने अने कृष्णपक्षनी जत्रा वृश्चिकी बे." अहीं विष्टिनां मुख विगेरे अंगो पांच विगेरे घमीवाळां कह्यांचे ते मात्र व्यवहारथी एटले सामान्य रीते साठ घमीनी तिथि होय तो त्रीश घमीनी थी तिथि श्राय अने ते वखतेज आ कहेखी घमीनी व्यवस्था घटी शके , परंतु तिथि साठ घमीश्री न्यून के अधिक होय त्यारे अर्धा तिथि पण न्यूनाधिक होय. ते वखते मुखादिकनी पांच विगेरे घमी पण न्यूनाधिक थाय बे. दाखला तरीके को तिथि जघन्यथी ५४ घमी होय त्यारे अर्धी तिथि २७ घमीनी होय; माटे विष्टि पण २७ घमीनी होय; तथा कोई तिथि उत्कृष्ट ६६ घमीनी होय त्यारे ३३ घमीनी अर्धी तिथि होय, माटे विष्टि पण ३३ घमीनी होय, ए रीते तिथिर्नु मान मध्यम होय त्यारे विष्टि पण मध्यम प्रमाणवाळी होय . तेथी करीने एक घमीना साठ पळ होवाथी तेने विष्टिनी घमी ३० होवाथी त्रीशे जाग खेतां बे पळ आवे ने, माटे विष्टि त्रीश घमीथी जेटली घमी न्यून के अधिक होर तेटली Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ घमीथी मणा पळ दरेक अंगनी घमीमांची न्यून के अधिक करवा. जेमके को तिथिए विष्टि श्ए धमीनी होय त्यारे नाना मुखनी पांच घमीमांथी दश पळ न्यून करवा, तेटलुं विष्टिनुं मुख समजवु. ए जरीते विष्टिनुं गळं वे घमीन तेथी वे घमीमांथी चार पळ न्यून करवा, तेटलुं विष्टिनुं गळं जाणवू. ए ज प्रमाणे विष्टिनुं हृदय दश घमीनू ने तेथी तेमांथी वीश पळ न्यून करवा, तथा नानि चार घमीनी माटे चार घमीमांथी आठ पळ न्यून करवा, तथा कटि घमीनी ने माटे तेमाथी बार पळ न्यून करवा, अने पुन्छ त्रए घमीन ने तेथी तेमांथी पळ न्यून करवा. या मान त्रीश घमीमांथी एक घमी न्यून एटले २ए घमीनी विष्टि होय त्यारे संमजवं, पण ज्यारे विष्टि त्रीश धमीमांथी बे घमी न्यून होय एटले के २७ घमीनी होय, त्यारे उपर कहेलु हानिनुं प्रमाण वमणुं करीने न्यून करवू. जेमके विष्टि एक घमी उगी हती त्यारे पांच घमीना प्रमाणवाळा मुखमांथी दश पळ न्यून कर्या हता, तेथी ज्यारे कि वे घमी ओगी त्यारे तेथी बमणा एटले वीश पळ न्यून करवा, अने ज्यारे कि... श्रीश धमीमांधी त्रण पमी न्यून होय एटले के सत्यावीश घमी होय त्यारे ते ज हानिनुं प्रमाण त्रण गणुं श्रोतुं करवू. जेम एक धमी न्यून हती त्यारे विष्टिना मुखमां दश पळ न्यून कर्या हता तेम त्रण घमी न्यून होवाथी त्रीश पळ न्यून करवा जोश्ए. एज प्रमाणे विष्टि त्रीश धमी उपर एक, बे के त्रण घमी विगेरेनी वृद्धि होय त्यारे पण ते ज प्रमाणे विष्टिना ते ते आंगनी घमीथी बमणा करेला पळो ते ते अंगनी घमीमां वधारवा. जेमके विष्टि एकत्रीश घमी होय तो तेना मुखनी पांच घमी ने, तेथी तेमां दश पळ वधारे समजवा विगेरे. विप्टिन मुख एकांतपणे तजवा योग्य , माटे यात्रादिक समयमां ते विष्टि जे प्रकारे सन्मुख श्राय डे ते कहे . नजेन्डा १४ टा जश्व तिथ्य १५ ब्धि४ दशे १० शा ११नि३मिते तिथौ। - दिग् यामाष्टकयोर्नेष्टा संमुखी पृष्ठतः शुना ॥ १४ ॥ . अर्थ--चतुर्दशीने दिवसे पहेले पहोरे विष्टि पूर्व दिशामां होय , अष्टमीना बीजा प्रहरे अग्नि खूणामां होय , सप्तमीना बीजे प्रहरे दक्षिणमां होय , पूर्णिमाना चोथा प्रहरे नैर्ऋत्य खूणामां होय बे, चतुर्थीना पांचमे प्रहरे पश्चिममां होय , दशमीने ठे प्रहरे वायव्यमां होय बे, एकादशीने सातमे प्रहरे उत्तर दिशामां होय जे अने तृतीयाना शावमा प्रहरे ईशान खूणामां होय . आ विष्टि प्रयाणादिक कार्यमा सन्मुख होय तो ते अशुन जाणवी, अने पारळ होय तो ते शुन जाणवी. या विष्टिनी दिशा विगेरे जोवानी बीजी रीत Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ॥ श्रारंसिद्धि ॥ "घुजादृणी सिते पक्ष गनिजूढ सितेतरे। व्यञ्जनैस्तिथयो ज्ञेयाः स्वरैश्च प्रहरा दिशः॥" शुक्लपक्षमा घु, जा, दृ अने णी तथा कृष्णपदमां गृ, लि, जू अने ढ ए अदरोमां व्यंजने करीने तिथि जाणवी भने स्वरे करीने प्रहर तथा दिशा जाणवी. एटोले के घु ए चोथो व्यंजन अने पांचमो स्वर ने तेथी चोथने दिवसे पांचमी दिशा (पश्चिम)मां पांचमा प्रहरे प्रयाण करनारने विष्टि सन्मुख आवे बे, एज प्रमाणे जा ए श्रावणी व्यंजन अने बीजो स्वर होवाथी आउमने दिवसे बीजी दिशामां एटले अग्नि खूणामां बीजे प्रहरे प्रयाण करनारने ना सन्मुख थाय बे. दृ एमां ट ए अग्यारमो व्यंजन बने ऋ ए सातमो स्वर होवाथी अग्यारशने दिवसे सातमे प्रहरे सातमी दिशा ( उत्तर ) मां प्रयाण करनारने विष्टि सन्मुख श्रावे . जी एमां ण ए पंदरमो व्यंजन अने ई ए चोथो स्वर होवायी पूर्णिमाने दिवसे चोथा प्रहरे चोथी दिशा (नैऋत्य ) मां प्रयाण करनारने विष्टि सन्मुख होय . ए ज प्रमाणे गृ, बि, शू अने ढ ए अक्रोमां पण जाणी लेवू. ॥ इति तिथिधारम् ॥१॥ ॥अथ वारकारम् ॥३॥ हवे बीजुं वारघार कहे , तेमां वारनो श्रारंज क्यारे थाय बे ? ते कहे - वारादिरुदयावं पलैर्मेषादिगे रवौ। तुलादिगे त्वधस्त्रिंशत्तद्दयुमानान्तरार्धजैः॥ १५॥ अर्थ-मेषादिक ब राशिमां सूर्य रह्यो होय त्यारे सूर्योदयनी पड़ी ते दिव ना दिनमान अने त्रीशनी वञ्चना अांतराना अर्ध पळवमे वारनो थारंन थाय ने, अने तुलादिक उ राशिमां सूर्य रह्यो होय त्यारे सूर्योदयनी पहेला तेटला पळे वारनी प्रवृत्ति थाय जे. जेमके गुर्जर देशमां कर्क संक्रांतिए उत्कृष्ट दिनमान घमी ३३ पळ ४ होय , तेमांथी त्रीश बाद करतां बाकी घमी ३ पळ रह्या. तेनो अर्ध नाग करतां घमी १ पळ ५४ रह्या. एटले के कुल ११४ पळ रह्या, माटे ते दिवसे सूर्योदय पजी ११४ पळे वारनो श्रारंज जाणवो. ते ज प्रमाणे मकर संक्रांतिमां जघन्य दिनमान घमी २६ पळ १५ नुं होय . तेने त्रीशमांथी बाद करतां वाकी धमी ३ पळ ध रह्या. तेने प्रथमनी जेम अधुं करतां ११४ पळ रह्या, माटे ते दिवसे सूर्योदय पहेलां ११४ पळे वारनी प्रवृत्ति जाणवी. ए ज प्रमाणे मध्यम दिनमान होय त्यारे पण था रीते ज जाणवू. श्रा वारना श्रारंजनो समय कहेवानुं प्रयोजन ए जे जे आगळ जे काळहोरा तथा अर्ध प्रहर विगेरे कहेवामां श्रावशे तेनी गणतरी वारना आरंजश्री करवानी . दिनमान खाववानो स्थूळ उपाय-सामान्य उपाय या प्रमाणे कह्यो . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ "रस के २६ नाड्योऽर्कपला १५ मृगे स्युः, सचापकुंनेऽष्टकृतैः पलैस्ताः २६-७ । असौ च मीनेऽष्टयमाः सशक्रा २-१४, मेषे तुलायामपि त्रिंशदेव ३० ॥ कन्यावृषे जूशिखिनो ३१ऽङ्गवेदैः ४६, सार्कास्त्रिरामा मिथुने च सिंहे ३३-१५ । कर्के त्रिरामा वसुवेदयुक्ता ३३-४७, एषा मितिः संक्रमवासराणाम् ॥" "मकर संक्रांतिने पहेले दिवसे घमी २६ पळ १२ नुं दिनमान होय बे, धन अने कुंज संक्रांतिए घमी २६ पळ ४० नुं दिनमान होय बे, वृश्चिक श्रने मीन संक्रांतिए घमी २ पळ १६ नुं दिनमान होय , मेष श्रने तुला संक्रांतिए ३० घमीन दिनमान होय बे, कन्या भने वृष संक्रांतिए घमी ३१ पळ ४६ नुं दिनमान होय , मिथुन श्रने सिंह संक्रांतिए धर्म ३३ पळ १२ नुं दिनमान होय , तथा कर्क संक्रांतिना पहेले दिवसे धमी ३३ पळ ४० दिनमान होय . या प्रमाणे ते ते संक्रांतिने पहेले दिवसे दिनमान होय , श्रने त्यारपी "एकार्क १-१३ पक्षशिरा २-५३ स्त्रिदन्ता ३-३२स्त्रिदन्त ३-३५ पक्षशिराः ५-५५ कुसूर्याः १-१२ । मृगादिषट्वेऽहनि वृधिरेवं, कर्कादिषट्वेऽपचितिः पलाद्या ॥" "मकर संक्रांतिमा दरेक दिवसे पळ १ विपळ १२ एटलुं दिनमान वृद्धि पामे , कुंज संक्रांतिमां पळ विपळ ५५ दरेक दिवसे वृद्धि पामे , मीन संक्रांतिमां पळ ३ विपळ ३२ वृद्धि पामे, मेष संक्रांतिमां पळ ३ विपळ ३२, वृष संक्रांतिमां पळ २ विपळ ५२ तथा मिथुन संत्र तिमां पळ १ विपळ १२ एटलुं दिनमान दरेक दिवसे वृद्धि पामे जे. ए ज रीते कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक श्रने धन संक्रांतिमां अनुक्रमे उपर प्रमाणे तेटलुं तेटलुं दिनमान हानिने पामे . दिनमान जेटलुं वृद्धि पामतुं होय तेटली रात्रिना माननी हानि जाणवी अने दिनमाननी जेटली हानि होय तटेली रात्रिना माननी वृद्धि जाणी खेवी. ए प्रमाणे वृद्धि हानि करवाथी कुल पळनी संख्या था प्रमाणे श्रावे - “वर बसु मयराश्सु पलाण बत्तीस ३६ बलसि ७६ बहिलसयं १०६। ... कमलक्कम हाय तहेव कक्काशासीसु ॥” • "मकर वगेरे उ संक्रांतिमा ३६, ७६ अने १०६ पळ क्रमे तथा उत्क्रमे वृद्धि पामे ने. एटले के मकर संक्रांतिमा ३६, कुंजमा ७६, मीनमा १०६, मेषमा १०६, वृषमा ७६ भने मिथुन संक्रांतिमा ३६ पळनी दिनमानमा वृद्धि पाय . ते ज प्रमाणे कर्क विगेरे संक्रांतिमा ३६, ०६ श्रने १०६ पळ क्रमे तथा उत्क्रमे हानि पामे के. आ०३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ संक्रांतिना प्रथम दिवसनुं मान घमी पळ १६ १२ २६ ४० २० १४ ३० 0 ३१ ४६ ३३ १२ ३३ ३३ ३१ ३० २० २६ ४ मकर कुंज मीन मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चिक धन ধ १२ ४६ १२ ५२ ३२ ३.२ ५२ १ १२ १ १२ २ ५२ ३ ३२ ३ ३२ २ ५२ १ १२ दिनशुद्धि ग्रंथमा प्रमाणे विशेष कह्यो बे. - “विविकुंजाइतिए निसि मुहि विस धणुहकक्कतु लिम | मि मिन्नी निसि ते संकम वारो ॥" ם ॥ श्रसिद्धि ॥ दिनमाननुं यंत्र - मासावधि प्रतिदिन मान पळ विपळ १४ वृद्धि वृद्धि हानि हानि हानि हानि हानि हानि १ 2 ३ ३ खामासमा वृद्धि हानिना कुल पळ. ३६ ८६ १०६ १०६ ६ ३६ ३६ ८६ १०६ १०६ " वृश्चिक, कुंज, मीन ने मेप चार संक्रातिमां रात्रिना प्रारंभ वखते वारनो प्रारंभ थाय बे, वृषन, धन, कर्क थाने तुला संक्रांतिमां अर्ध रात्रिए वारनो पारंज थाय बे, मकर, मिथुन, कन्या छाने सिंह संक्रातिमां रात्रिना अंतमां वारनो प्रारंभ थाय बे." " राम ३० रस ६० नन्द ए० बाणा ५० वेदा ४० ष्टौ ८० सप्त १० दशहताः कार्याः । मन्दादीनां दिनतः क्रमेण जोगस्य नाड्यः स्युः ॥” ८६ ३६ "शनिवारनी जोगघमी दिवसना प्रारंजयी ३० घमी सुधी बे, त्यारपबीनी ६० घमी रविनी जोगनामी (घमी) बे, त्यारपबीनी ए० घमी सोमनी, पबी ५० घकी मंगळनी, पबीनी ४० घमी बुधनी, पबीनी ८० घमी गुरुनी ने त्यारपबीनी ७० घमी शुक्रधरनी जोगनामी बे. (शनिवारनी सवारथी आरंजीने आवता शनिवारनी सवारे या सर्व घकी पूर्ण थाय बे.) माटे ज शनिवार सुतो होय तो तेने शुभ कह्यो बे, केमके शनिवा रे दिवसनी श्रीश घमी पूरी अये रात्रे रविनी जोगघमी होवाथी शनि सुतेलो कहेवाय बे, माटे : ते शुज बे. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न सो विमर्शः॥ १ए हवे वारनां नामो तथा तेमनुं फल कहे जेरविचन्ऽमंगलयुधा गुरुशुक्रशनैश्चराश्च दिनबाराः। रविकुजशनयः क्रूराः सौम्याश्चान्ये पदोनफलाः ॥ १६ ॥ अर्थ-रवि, सोम, मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र अने शनि ए सात वार ले. तेमां रवि, मंगल अने शनि ए त्रण वार क्रूर ने अने बाकीना चार वार सौम्य वे. श्रा सर्वे वारो शुनाशुन फळ थापनारा बे. एटले के वीश वसानी अपेक्षाए पंदर वसा जेटलुं फळ आपे बे. क्रूर वारमा करेलुं कार्य पंदर वसा अशुन्न फळ श्रापे , अने सौम्ा वारमा करेलु कार्य पंदर वसा शुन फळ आपे . कह्यु के- "रविमन्दारवारेषु यस्मिन् संक्रमते रविः। तस्मिन्मासि लयं विद्या निक्षावृष्टितस्करैः ॥" "रवि, शनि के मंगळवारे जो सूर्यनी संक्रांति थ होय तो ते मासमां मुकाळ, अनावृष्टि तथा चोरादिकनो जय थाय ने एम जाणवू;" परंतु आत्रण वारोनी क्रूरता जेटली दिवसे गणाय ने तेटली रात्रिए गणाती नथी. कह्यु ले के-"न वारदोषाः प्रनवन्ति रात्रौ" "राए वारना दोष समर्थ थता नथी.” वारोने विषे था प्रमाणे कार्यो करवानां कह्यां ने.- ज्याभिषेक, नोकरी, विचार, शस्त्र, औषध, विद्या, संग्राम, प्रयाण, सुवर्ण, तांबु, उन, लंकार, शिल्प ( कारीगरी), पुण्यकर्म तथा उत्सवादिक कार्यों रविवारे करवायी थाय . रू', गायन, नोजन, खेती तथा वेपार विगेरे कार्यों सोमवारे करवाथी सिद्ध थाय ने. सर्व क्रूर कर्म, रक्तस्राव, सुवर्ण, परवाळा, खाण, धातु, सेना निवेशादिक कार्यो मंगलवारे करवाथी सिख थाय बे. अदर शीखवा, कान विंधवा, कविता करवी, कसरत करवी, तर्क करवो, वाद विवाद करवो तथा कळाल्यास ए विगेरे कार्यो बुधवारे रिच थाय . सर्वे शुन्न मांगलिक कार्य, दीक्षा, विद्या, यात्रा, औषध विगेरे गुरुवारे सिंघ श्राय . दीक्षाने वर्जीने वुध अने गुरुमां कहेला सर्व कार्यो शुक्रवारे सिद्ध थाय , प्रने दीक्षा, घरप्रवेश, घरनो थारंन विगेरे स्थिर कार्य तथा क्रूर कार्य शनिवारे करवाथी से थाय के. एम कडं ठे, सामान्य रीते कहीए तो "सर्वार्थसाधका वारा गुरुशुक्रबुधेन्दवः। प्रोक्तमेव कृतं कर्म नौमार्कार्किषु सिध्यति ॥" "गुरु, शुक्र, बुध श्रने सोम ए वारो सर्व कार्यना साधक डे, श्रने भंगळ, रवि तथा शनिवारे जे कार्य करवानुं कर्तुं होय ते ज करवायी सिद्ध थाय बे." था दैवज्ञवल्सनमा कडं . त या "साक्षाकुसुंनमंजिष्ठारागे काश्चनजूषणे । शस्तौ नौमरवी लोहोपखत्रपुविधौ शनिः॥" Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंजसिधि॥ ___ "साख, कसुबो अने मजिउ ए रंगने विषे तथा सुवर्णना भूषणने विपे मंगळ तमा रवि सारा ने, अने लोढुं, पत्थर तथा सीसाने विषे शनिवार सारो बे." तथा “व्यादिदानग्रहणे निधाने, वाणिज्यसेवागुरुराजयोगे। _कलाकृषिस्त्रीशुनकर्मवित्तन्यासौषधेष्वारशनी न शस्तौ ॥" "अव्यादिक खेवा देवामां, निधानमां, वेपारमां, नोकरीमां, गुरु अने राजना दर्शनमां, कळा शीखवामां, खेती करवामां, स्त्रीना समागममां, शुन कार्यमां, व्यनी थापण मूकवामां अने औषध खावामां आटला कार्यमा मंगल तथा शनि सारा नथी." एम यतिवनमां कडं बे. श्रा विषे विशेषमां लक्ष या प्रमाणे कहे जे."उपचयकरस्य कुयाग्रहस्य वारे स्ववारविहितं यत् । अपचयकरग्रहदिने कृतमपि सिद्धिं न याति पुनः॥" "पोतपोताना वारमा करवानां जे कार्य कह्यांचे ते उपचय (वृद्धि) करनारा ग्रहना वारने विषे करवामां आवे बे, पण अपचय (हानि)करनारा ग्रहना वारने विषे करवामां श्रावतांनथी, कारण के ते वारमा करेलुं कार्य कोइ पण प्रकारे सिद्ध थर्नु थी. वागळ कहेवामां आवता गोचरादिक विधिए करीने ज्यारे जे ग्रह जेने अनुकूळ हे ते ग्रह तेनो ते वखते उपचय करनार कहेवाय धने प्रतिकूळ होय तो ते अपचय करन कहेवाय . हवे वारोने आश्रीने काळहोरा कहे .होराः पुनरर्कसितचन्शनिजीवनूमिपुत्राणाम् । सार्धघटी घ्यमानाः खवारतस्तास्तु पूर्णफलाः ॥ १७॥ अर्थ-अढी धमीनी एक होरा होय . तेमां जे दिवसे जे वार होय तनी पहेली होरा जाणवी. पनी पोताना वारथी जे बो वार होय ते वारनी बीजी होरा, तेनाथी जे बजे वार होय तेनी त्रीजी होरा जाणवी. कडं ले के-“अर्कसितज्ञचन शनिजीवनूमिपुत्राणां" "रविथी जो शुक्र बे, तेथी बो बुधबे, तेश्री बचो सोमबे, तेथी बो शनि, तेथी जो गुरु अने तेथी को मंगळवार बे.” ए प्रमाणे एक शहोरात्रिमा चोवीश होरा आवे जे. जेमके रविवारथी बने शुक्र , तेनाथी बने बुध से अने तेनाथी बसो सोम , ए प्रमाणे गणवं. एटले के रविवारे पहेली होरा रविनी, बीजी शुक्रनी, त्रीजी बुधनी, चोथी चंजनी, पांचमी शनिनी, बनी गुरुनी, सातमी मंगळनी अने श्रावमी रविनी. ए प्रमाणे अनुक्रमे वारंवार गणवू ते बेवट अहोरात्रिने अंते साठ घमीमां श्रश्ने चोवीश होरा थाय. ते ज प्रमाणे सोमवारे पहेली चंग होरा श्रावे. तेने पण ब ब वारनी होरा ए प्रमाणे चोवीश सुधी गणवू. मंगळवारे पहेली होरा मंग Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ ळनी आवे बे. ए प्रमाणे साते वारनी होरा जाणवी. श्रागळ अर्धी राशिने होरा नामची कहेवामां आवशे, माटे बानुं नाम काळहोरा कहवाय जे. श्रा काळहोरानां नाम चोघमीयां प्रमाणे जाणवां एम नारचंजमां लख्युं . अहीं घंटालाला न्याये करीने वार शब्दनो बन्नेमां संबंध होवाथी पोताना वारने दिवसे तेज वारनी होराने समये जो कार्य करवामां आवे तो कार्य करनारने पूर्ण फळ एटले के वारनुं पोतार्नु पंदर वसा फळ अने पांच वसा होरानुं मळी वीश वसा शुज के अशुल्न फळ मळे . ते विषे लक्ष कह ने के"वारफलं होरायां" "वारोनुं फळ होरामा पूर्ण मळे ." आहोरा कहेवानुं कारण ए ले के “यस्य ग्रहस्य वारे यात्किश्चित्कर्म प्रकीर्तितम् । तत्तस्य कालहोरायां पूर्ण स्यात्तूर्णमेव हि ॥" "जे ग्रहना वारने विषे जे कार्य करवानुं कडं होय ते कार्य ते वारनी काळहोराने प्रखते करवाथी तेनी शीघ्र सिद्धि थाय बे." एम यतिवनजमां कडं . वळी "होराफलवारफले निन्द्ये ६ अपि न जातु गृहीत । । एकस्मिन् शुनफलदे तयोश्च कार्य शुनं कुर्यात् ॥” "होरानुं फळ तथा वारनुं फळ ए बन्ने जो निंद्य (अशुल) होय तो ते कदापि ग्रहण करवां ही एटले ते समये कांश पण कार्य करवू नहीं, थने ते बन्नेमांथी जो एक शुन फळ आपनर होय तो ते समये शुभ कार्य करवा लायक ." एम व्यवहार प्रकाशमां कडुं . हवे वारने विष कुवेळा कहे .याज्योऽधयामो वेदा ४ जिकिय पञ्चा ५ ष्ट त्रि ३ षषिमतः ६। सूर्यादौ कासवेलार्धयामाङ्कात्सैकपञ्चमी ॥ १० ॥ अर्थ-रविवारथी आरंजीने अनुक्रमे चोथो, सातमो, बीजो, पांचमो, श्राठमो, श्रीजो अने बचो अर्ध प्रहर (चोघमीयु) शुन कार्यमा तजवा लायक . एटले के रविवारे चोयुं चोघमीयु, सोमवारे सातमुं चोघमीयुं, मंगळवारे बीजुं, बुधवारे पांचमुं, गुरुवारे श्राग्नु, शुक्रवारे त्रीजु थने शनिवारे बहुं चोघमीयुं शुज कार्यमा वर्जवा लायक . श्रा विषे दिनशुधिमां था प्रमाणे कर्यु ले के.. "सख १६ मन्दसण ३१ ग २ ग १ चमचउसडी ६धश्रधपहरमऊपला । जनाश्सु श्रश्नहमा पुवाई ७ ब दिसिं ॥१॥" जे अर्ध प्रहर वारने श्राश्रीने त्याग करवाना कह्या चे, तेमां ते अर्ध प्रहरनी थनुक्रमे सेळ, थाउ, बत्रीश, बे, एक, चार अने चोस मध्यम पळो पूर्वोदिक बची बची दिशार यात्रादिक कार्यमा अत्यंत तजवा खायक ने. अर्थात् रविवारे चोथा अर्ध प्रहारनी म्ध्यनी सोळ पळ पूर्व दिशामा अत्यंत त्याग करवा लायक जे. एटले ते वखते पूर्व दिशागं यात्रादिक करवानो निषेध जे. ए रीते सोमवारे सातमा अर्ध प्रहरनी मध्यनी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥आरंसिहि॥ भाउ पळ पूर्वयी बही दिशाए एटले वायव्य खूणामां तजया लायक , मंगळवारे वीजा अर्ध प्रहरनी वत्रीश पळ वायव्यश्री बसी दिशाए एटले दक्षिण दिशामां तजवा सायक वे. बुधवारे पांचमा अर्ध प्रहरनी बे मध्य पळ तेथी बड़ी दिशाए एटले ईशान खूणामां तजवा लायक , गुरुवारे आठमा अर्ध प्रहरनी एक पळ पश्चिम दिशामां तजवा लायक ने, शुक्रवारे त्रीजा अर्ध प्रहरनी चार मध्य पळ अग्नि खूणामां तथा शनिवारे बघा अर्ध प्रहरनी चोसत मध्य पळ उत्तर दिशामां तजवा लायक . ( हवे श्लोकना उत्तरार्धवके काळवेळा कहे जे-)उपर जे वर्जवा लायक अर्ध प्रहरो कह्या , तेमने 'प्रनुक्रमे मांगीने मे एकमो लखवो, ते या प्रमाणे.-४-७-२-५-७-३-६-१. पठी अर्ध प्रहरना आंकमाथी जे पांचमो अंक आवे ते अर्ध प्रहरने काळवेळा कहे . जेमके रविवारे चोथो अर्ध प्रहर ने तेनाथी पांचमो अंक आउने, तेथी रविवारे भाउमा अर्ध प्रहरने काळवेळा जाणवी, सोमवारे सातमो अर्ध प्रहर ने तेनाथी पांचमो अंक त्रण ने, तेथी सोमवारे त्रीजो अर्ध प्रहर काळवेळा जाणवी. ए रीते अनुक्रमे पोतपोताना वारना अंकथी पांचमो अंक गणतां मंगळवारे हो, बुधवारे पहेलो, गुरुवारे चोथो, शुक्रवारे सातमो अने शनिवारे बीजो अर्ध प्रहर काळवेळा कहेवाय जे. काळवेळाने ज पागंतरवके स्पष्ट कहे ."सूर्यादौ कालवेलाष्ट त्रि ३ षट् ६ मा १ध्य ४ श्व दृग्मिताः २॥", “रविवारथी आरंजीने अनुक्रमे श्राठमो, त्रीजो, बो, पहेलो, चोथो, सात्तमो अने बीजो अर्ध प्रहर काळवेळा जाणवी." आ काळवेळा उपरथी अर्ध प्रहर कादवानी एवी रीतने के काळवेळाना अंकमां चार नाखी आठे नाग लेवो, जे अंक शेष रहे ते अर्ध प्रहर जाणवो. जेमके रविवारनो आवमो अर्ध प्रहर काळवेळा , माटे पाउमां चार उमेरी आवे नाग लेतां शेष चार रहे , तेश्री रविवारे चोत्रो अर्ध प्रहर वार्य धयो. ए रीते सोमवारे त्रीजो अर्ध प्रहर काळवेळा ने. तेमां चार जमेरवाश्री सात थया. श्रावे जाग चालतो नथी, तेथी बाकी सात ज रह्या, माटे सोमबारे सातमो अर्ध प्रहर थयो. ए रीते सर्व वारमा जाणवू. १७. हवे कंटक तथा उपकुलिक कहे जे. कंटकोऽपि दिनाष्टांशे खवारान्मंगलावधौ। बृहस्पत्यवधौ चोपकुखिकस्त्यज्यते परैः ॥ १५ ॥ अर्थ-जे दिवसे जे वार होय ते वारश्री मंगळवार जेटलामो होय तेटलामी दिनाष्टांश कंटक कहेवाय ने, अने पोताना वारथी गुरुवार जेटलामो होय तेटलामो दिनाष्टांश उप १ दिवसनो आठमो भाग, अर्थात् चोघडीयु. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः ॥ १३ कुलिक कहेवाय . या व दिनाष्टांश शुभ कार्यमा अन्य विषयोए वर्जित का बे. उदाहरण - रविवारथी मंगळवार त्रीजो के, माटे रविवारे त्रीजो दिनाष्टांश कंटक कहेवाय बे, सोमवारथी मंगळवार बीजो बे, माटे सोमवारे बीजो दिनाष्टांश कंटक कहेवाय बे. मंगळवारथी मंगळवार पहेलो ज बे, माटे मंगळवारे पहेलो दिनाष्टांश कंटक जाणवो, बुधवारश्री मंगळवार सातमो होवाथी बुधवारे सातमो दिनाष्टांश कंटक नामा बे. ए रीते गएवाथी गुरु, शुक्र ने शनिवारे अनुक्रमे बघो, पांचमो ने चोथो दिनाष्टांश कंटक नामा कहेवा . उपकुलका प्रमाणे बे-रविवारथी गुरुवार पांचमो बे, माटे रविवारे पांचमो दिनाष्टांश उपकुलिक कहेवाय बे. ए रीते गएवाथी सोमवार, मंगळवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार ने शनिवारे अनुक्रमे चोथो, त्रीजो, बीजो, पहेलो, सातमो ने बो दिनाष्टांश उपकुलिक नामा कहेवाय बे. अन्य विद्वानो या बन्ने दिनाष्टांश शुभ कार्यमां वर्ज्या बे एम कहेवाथी ग्रंथकारे पण तेनो (वर्जवानो) निषेध कर्यो नथी, तेथी ग्रंथकारना मतमां पण योग वर्जित समजवा. ए प्रमाणे बीजे ठेकाणे पण अन्यनो मत बताववाथी ग्रंथकारनी पण संमति जावी. दिनाष्टांश एटले दिवसनो मो जाग एवं कह्युं बे, माटे ते अष्टमांश दिनमानने श्रीने चार घमीथी जंबो अथवा अधिक थइ शके बे. एटले के जघन्य दिनमान होय त्यारे घर्मी ३ पळ १६ विपळ ३०, आटलो अष्टमांश थाय बे, अने उत्कृष्ट दिनमान होय त्यारे घमी ४ पळ १३ विपळ ३० श्रटलो अष्टमांश था, रीते मध्यम दिनमानमां पण अष्टमांश काढवा. १५. हवे कुलिक कहे बे. - कुलिको द्विशन्यन्तमिते त्याज्यः स्ववारतः । मुहूर्तेऽह्नि निशि व्येके जागः पञ्चदशस्तु सः ॥ २० ॥ अर्थ - पोताना वारथी शनिवार जेटलामो होय तेने बमणा करवाथी जे संख्या श्रावे तेला मुहूर्त्त ते दिवसे कुलिक कहेवाय वे अने रात्रिए ते ज संख्यामांथी एक उंठो करवो एटले तेटलामुं मुहूर्त्त रात्रिए कुलिक कहेवाय बे. जेमके रविवारथी शनिवार सामो . ते मा करवाथी चौदमुं मुहूर्त्त दिवसे कुलिक थयो, ने रात्रिए तेरमुं मुहूर्त्त कुलिक थयो. तथा सोमवारथी शनिवार बघो बे, माटे बने वमणा करवाथी वार थया, श्री सोमवारे दिवसे वारमुं मुहूर्त्त कुलिक ने रात्रिए अग्यारमुं मुहूर्त्त कुलिक कहे. बीजा वारोमां पण जाणवुं. अहीं मुहूर्त्त शब्द श्राप्यो बे, अने ते मुहूर्त्त सामान्य री ते बेघमीनुं कहेवाय बे, तोपण श्रा ठेकाणे ( कुलिकमां) दिनमान ने रात्रिमान श्रीने पंदरमो जाग जावो. एटले के जघन्य दिनमान होय त्यारे घमी १ पळ ४४ विपळ ४० ने उत्कृष्ट दिनमान होय त्यारे घमी २ पळ १५ विपळ १२ एटलो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरंजसिधि॥ काळ पंदरमो अंश एटले मुहूर्त कहेवाय ने. एवीज रीते रात्रिमानने श्राश्रीने पण जघन्य श्रने उत्कृष्ट मानमां पंदरमो अंश काढवो. तथा मध्यम मान होय त्यारे पण ए ज रीते पंदरमो अंश काढवो. कुतिकमां कां पण शुल कार्य करवामां श्रावतुं नथी. ते विषे व्यवहार प्रकाशमां कडं के के–“जिन्नं निन्नं नष्टं ग्रहजुष्टं पन्नगादिनिर्दष्टम् । नाशमुपयाति नियतं जातं कर्मान्यदपि तत्र ॥१॥" "कुलिकमांबेदायली, नेदायेली, नासी गयेली, ग्रहे (जूत प्रेतादिके ) सेवेती अने सर्पादिके मसेली चीजो ( मनुष्यादिक प्राणी तथा वस्तु) अवश्य नाश पामे . तथा तेमां बीजुं पण करेलुं कार्य नाश पामे जे." तथा"सोमे ब्राह्मः कुजे पैत्रः सुराचार्ये च राक्षसः। शुक्रे ब्राह्मः शनौ रौज़ो मुहूर्ताः कुखिकोपमाः॥१॥", "सोमवारे ब्राह्म मुहूर्त, मंगळवारे पैत्र मुहूर्त, गुरुवारे राक्षस मुहूर्त, शुक्रवारे ब्राह्म मुहूर्त अंने शनिवारे रोज मुहूर्त, थाटलां मुहूर्तो कुलिक जेनां .” यहीं ब्राह्म एटले ब्रह्मा संबंधी, पैत्र एटले पितृ संबंधी विगेरे अर्थ जाणवो. ब्राह्म विगेरे मुहू टैनो विजाग आगल दौरना अधिकारमा कहेवाशे. या एक मुहूर्त्तनो कुलिक दिवसे एक तथा रात्रिए एक मळी बे वार थावे जे, पण अर्ध प्रहरादिक वेळा तो सूर्यने श्राश्रीने श्राय बे, माटे दिवसे ज श्रावे , रात्रिए श्रावता नथी. श्रा कुखिक शिष नारचंधमा एम कडं ने के-पोताना वारथी शनिवार जेटलामो श्रावे तेटलामो दिनाष्टांश कुखिक कहवाय , तेथी रविवारादिकमां अनुक्रमे सातमो, हो, पांचमो, चोयो, त्री अने पहेलो दिनाष्टांश कुलिक कहेवाय जे. एम कडं . २०. दिवसे दिनाष्टांश ज कुलिक ने एवं नारचंजनुं वचन प्रमाण करवापूर्वक वारोने विषे सुवेळा बतावे . जानो— १ नयन ५ वः ६ सितरुचेः शीतांशु १ पञ्चा ५ ष्टमा छ जौमस्या ब्धि ४ नगा ष्टमाः ७ शशितनूजस्य त्रि३ तर्का ६ष्टमाः। जीवस्य किशरा ५ ज्यो ७ भृगुजुवश्चन्डा १ ब्धि ४ षष्ठा ६ ष्टमाः शौरेस्त्री ३ षु ५ नगा ष्टमा जश्च दिवसेष्वेतेऽष्टमांशाः शुजाः॥॥ अर्थ-रविवारे दिवसे पहेलो, बीजो श्रने यो अष्टमांश (चोधमीयु) शुल ने, अर्थात् त्रीजो, चोथो, पांचमो, सातमो अने आठमो अष्टमांश अर्ध प्रहरादिके करीने क्षित बे. सोमवारे दिवसे पहेलो, पांचमो श्रने पाठमो अष्टमांश शुन्न , मंगळवारे चोथो, सातमो अने श्राठमो, बुधवारे त्रीजो, उणे अने आठमो, गुरुवारे बीजो, पांचमो अने सातमो, शुक्रवारे पहेलो, चोलो, बो भने श्रापमो तथा शनिवारे त्रीजो, पांचमो, सातमो भने थाउमो अष्टमांश शुक्ल . आ अष्टमांशो दिवसे ज शुज . रात्रिए तेमनी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विगः॥ २५ गणतरी करी नथी. अहीं पण पूर्वनी जेम अष्टमांशनो समय थार धमीथी न्यूनाधिकबाळो जाणवो. २१. हवे वारने विषे यालग्न कहे .सिफछाया क्रमादर्कादिषु सिद्धिप्रदा पदैः। रुष ११ सार्धाष्ट आनन्दा ए ष्ट सप्तनिश्चन्छवद्वयोः॥५॥ अर्थ-रविवारथी श्रारंजीने अनुक्रमे अगीयार, सामा श्राउ, नव, श्राउ, सात तथा बेला बे वारे चंनी जेम एटले सामा आठ सामा आठ पगलांए करीने सिद्धि श्रापनारी सिझ गया कहेवाय बे. अर्थात् रविवारे अग्यार पगलां, सोमवारे सामा श्राप पगलां, मंगळवारे नव, बुधवारे आप, गुरुवारे सात श्रने शुक्र तथा शनिवारे सामा पाठ सामा पगलांए करीने सिख गया थाय .जेमके रविवारे सूर्य सन्मुख उजा रही पोताना शरीरनी गया अग्यार पगलां जेटली होय ते वखते सिद्ध बाया कहेवाय . सोमवारे सामा आठ पगलां जेटली गया होय ते वखते सिघ गया कहेवाय जे. एरीते सर्व वारोमां जाणवू. अवश्य कार्यनी सिद्धि प्रापनार होवाथी श्रानुं नाम सिघ बाया कहेवाय ने. नरपति जयचर्यामां कडं ने के-"नक्षत्राणि तिभिर्वारास्ताराश्चन्जबलं ग्रहाः । सुष्टान्याप शुल नावं नजन्ते सिञ्चबायया ॥१॥" "नक्षत्र, तिथि, वार ताराबळ, चं बळ अने ग्रहो जो कदाच दूषणवाळां होय तोपण सिद्ध गयाए करीने ते शुन जावने जजे . (शुन फळ आपे बे.)." या सिघ बयानो समय त्रीश अक्षर बोलीए तेटखो , एम वृक्ष परंपरा बे. एटखे के ज्यारे इष्ट गयानां पगलांनो समय पंदर वर्णना उच्चार काळ जेटलो न्यून होय त्यारे कार्य करवानो आरंज करवो, भने इष्ट गयाना समय उपरांत पंदर वर्णना उच्चार जेटलो समय जाय त्यांसुधीमां ते कार्य पूरं करवं. आ प्रमाणे करवाथी सिझ गया साधेली कहेवाय ने, परंतु घणा काळे समाप्त थ शके एवा कार्यमां तो सिघ गयानी आगळ पाळना त्रीश वर्णोच्चार जेटखा समर मां तेनो आरंज करी देवो. पठी कार्यनी समाप्ति वखते कां पण मुहूर्त्तनी जरुर नथी. था सिघ बाया साधवा माटे पुरुषनां पगलांनुं प्रमाण जाणवू, परंतु सात श्रांगळनो शंकु करीने जो सिझ गया काढवी होय, तो उपर कहेलां पगला बदल तेटलां थांगळवमे सिझ गया काढवी, अने जो बार आंगळना शंकुवमे सिख बाया काढवी होय तो तेनुं प्रमाण या प्रमाणे जाणवू-“वीसं सोखस पनरस चउदस तेरस य बार बारे: व । रविमाश्सु बारंगुलसंकुलायंगुला सिया ॥१॥" बार आंगळना शंकुवझे सिखाया काढवी होय तो रविवारे वीश आंगळे करीने, सोमवारे सोळ थांगळे करीने, मंगळवारे पंदर, बुधवारे चौद, गुरुवारे तेर, शुक्रवारे बार अने शनिवारे पण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिधि॥ बार आंगळवमे सिद्ध गया थाय , एटले के ते ते वारे ते ते शांगळना प्रमाण जेटली गया होय ते वखते सिझ गया कहेवाय जे. २२. ॥ इति वारघारम् ॥ २ ॥ अथ नत्रछारम् ॥३ हवे त्रीजु नत्रधार कहे . तेमां प्रथम श्रठ्यावीश नक्षत्रोने आश्रीने रेकना चार चार पाद आश्री अक्षरो कहे . चुचेचोलाश्विनी १ ज्ञेया लीलूलेलो नरण्यथ । आईए कृत्तिका ३ तु उवावीवू च रोहिणी ४॥२३॥ वेवोकाकी मृगशिर ५ था ि६ कुघङछा पुनः। केकोहाहि पुनर्वखो ७ ईहेदोमा तु पुष्यन्ने ॥२४॥ मीडूडेमोनिरश्लेषा ए ममिमूमे मघा १० मता । मोटाटीटू फल्गुनी प्राक् ११ टेटोपापीनिरुत्तरा १२ ॥ २५ ॥ हस्तः १३ पुषणठेवणे श्चित्रा १४ पेपोररिः पुनः । रुरेरोताः स्मृताः स्वातौ १५ तीतूतेतो विशाखिका १६ ॥ २६ ॥ अनुराधा १७ ननीनने स्याज्ज्येष्ठा १७ नोययीयुनिः।। स्याद् येयोनानिनिर्मूलं १ए पूर्वाषाढा २० जुधाफलैः ॥ २७॥ लेनोजाज्युत्तराषाढा २१ जुजेजोखाऽनिजि २५ न्मता। श्रवणे २३ स्युः खिखूखेखो धनिष्ठायां २४ गगीगुगे ॥ २७ ॥ गोससीसूः शतभिषक् २५ प्राक् सेसोददि नपात् श्६ . मुशऊथोत्तराना २७ देदोचची तु रेवती २७॥ ए अर्थ-श्रही अनुक्रमे श्रठ्यावीश नक्षत्रोनां नाम गणाव्यां वे. तेमां सामान्ये करीने साठ घमी सुधी एक नक्षत्र होय , तेश्री पंदर पंदर घमीनुं एक एक पाद कहेवाय ने. तेमां जेना नामनो प्रथम अक्षर 'चु' होय, तो तेनो जन्म अश्विनी नत्र ना पहेला पादमां थयेलो के एम जाणवू. एट ले के अश्विनीना पहेला पादमां जन्मेला मनुष्यनुं नाम जेमां पहेलो अक्षर 'चु' श्रावे एवं पामतुं जोश्ए. ते ज नत्रना बीजा पादमा 'चे,त्रीजामां 'चो', अने चोथा पादमां 'सा' अक्षर पहेलो श्रावे एवं नाम करवू जोइए. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥प्रथमो विमर्शः॥ अहीं चु अदरे करीने तेना सजातीय स्वरवाळो चू पण जागयो. ए ज प्रमाणे चे शशारे करीने चै, अने चो अरे करीने चौ पण जाणवो. वळी खा अक्षरे करीने स पण जाणवो. ए प्रमाणे सर्व नक्षत्रोना अक्षरोमां पण पोतपोताना सजातीय स्वरवाळा ते ते अदरो पण जाणवा. एटले के नरणी नत्रना पहेला पादमां ति ली, बीजामां लु खू, त्रीजामां से लै, अने चोथा पादमां लो लौ विगेरे. ए प्रमाणे सर्व नक्षत्रोमां जाणवू. नत्रोना पादने श्राश्री अदरो नीचे प्रमाणे जाणवा.१ अश्विनी-चु चे चो ला. २ नरणी-सी लू ले लो. ३ कृत्तिका-आई ऊ ए. रोहिणी-5 वा वी वू. ५ मृगशिर-वे वो का की. ६ श्रार्ज-कु घ ङ ब. ७ पुनर्वसु--के को हा हि. ७ पुष्य-हू हे हो मा. ए अश्लेषा-की डू के मो. १० मघा-म ११ पूर्वाफाल्गुनी-मो टा टी टू. १२ उत्तराफागुनी-टे टोपा पी. १३ हस्त-पु ष ण उ. १४ चित्रा-पे पो र रि. १५ स्वाति--रु रे रो ता. १६ विशाखा-ती तू ते तो. १७ अनुराधा-न नी नू ने. १८ ज्येष्ठा-नो य यी यु. १ए मूल-: यो ना नी. २० पूर्वाषाढा-प्नु धा फ ढ. २१ उत्तराफ ढा-ने नो जा जी. २२ अनिजित्-जु जे जो खा. २३ श्रवण-खि खू खे खो. २४ धनिष्ठा-ग गी गु गे. २५ शतभिषक्-गो स सी सू. २६ पूर्वानापद-से सो द दि. २७ उत्तरालापद-5 श क थ. २७ रेवती-दे दो च ची. अहीं न परना कोष्टकमां आर्मामां घ ङ अने उ, हस्तमां पण उ, पूर्वापाढामां ध फ ढ, तथा उत्तराजापदमां शक थ, आ अदरो कहेला वे. ते दरेक अदर दशे स्वरवाळा : वा. एटले के घ अरे करीने घ घा घि घी घु घू घे घै घो घौ था दशे जाणवा. . प्रमाणे ङब विगेरे अदरोमां जाणवू. पण उ आ ठेकाणे ष अदरे करीने मूर्धन्य पदश स्वरवाळो लेवो, पण क वर्गनो ख जाणवो नहीं, केमके ते क वर्गनो ख तो अनिजि त् अने श्रवणमां कह्यो बे. ऋ ऋल आ अक्षरो प्राये करीने नामना आरंजमां श्रावता नथी, तोपण ऋषिदत्त, ऋषन विगेरे नामोमां आवे ने तो तेमां स्वरचक्र ग्रंथना अभिप्रायथी ऋ ने बदले रि, ऋने बदले री, अने ल ने बदले लि होय एवा धारवा. ब्रह्मदत्त, श्रीधर, ध्रुव विगेरे नामोमां व, शी अने धु, ए अक्षरोने पहेला ने एम जाण वा. कडे के–“यदि नाम्नि नवेषर्णः संयोगाक्षरलक्षणः । ग्राह्यस्तस्यादिमो Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि॥ वर्ण इत्युक्तं ब्रह्मयामले ॥१॥" "जो नामनो पहेलो वर्ण संयोगअक्षरवाळो होय तो तेनो पहेलो अदर स्वर सहित ग्रहण करवो. एम ब्रह्मयामलमां कडं .” वळी श्रनुस्वार तथा विसर्ग श्रदरोमां कां पण विकार कर्ता नथी, तेथी ते दरेक अक्षर साथे लइ शकाय . ( बाळचंज, बिहारीलाल विगेरे नामोमां) ब अकरने व जेवो जाणवो, केमके ब अने व ए बे अक्षरोनी ऐक्यता कहेली . च वर्गना पांचमा श्रदर अकारने क वर्गना पांचमा श्रदर डकार जेवो गणवो. थहीं कोश्ने शंका थाय के कोइ पण नामना प्रारंनमा डञ के ण श्रावता नथी, तेथी ते अक्षरो शामाटे अहीं लीधा ? तेनो जवाब ए जे जे पूर्वना श्राचार्याए ए श्रदरो सीधा , माटे अहीं पण तेने गणाव्या बे. वसी श्रा अक्षरो गणाव्यानुं कां पण फळ नथी एम धारवू नहीं, केमके एकाशी पदोषाळा सर्वतो मना चक्रमांथा श्रझरोवमे ग्रहनो वेध थाय ने त्यारे ते ते ग्रहना पादवाळाने शरीर पीमा थाय ने एg तेनुं फळ कहेलुं बे. सर्वतोज चक्रना विवरणमां कडं बे के-"विध्यन्ते घडडा रौजे पणा हस्तगे व्यधेः। फढधाः प्रागषाढायामाहिबुन्ने तु शाकथाः॥१॥" "आर्षा नक्षत्रमा घ, ङ अने ब ए त्रण अक्षरोनो वेध थाय बे, हस्तमां ष, ण भने उनो वेध श्राय बे, पूर्वाषाढामां फ, ढ अने धनो वेध थाय , तथा उत्तरानाषपदमां श, जाने भए त्रण अक्षरोनो वेध कहेवाय ." २३-२४-२५-२६२७-२०-२ए. हवे अन्निजित् नक्षत्रनुं स्वरूप बतावे जे.उत्तराषाढमन्त्यांहि चतस्त्रश्च श्रुतेर्घटीः। वदन्त्य निजितो नोगं वेधलत्ताद्यवेक्षणे ॥ ३० ॥ अर्थ-उत्तराषाढानो बेधो एटले चोयो पाद अने श्रवण नक्षत्रनी पहेली चार घमी, थाटला काळने अनिजित् नक्षत्र कहे . श्रा नक्षत्र वेध, लत्ता, उत्पात विगेरे जोवामां उपयोगी ले. अहीं उत्तराषाढानो बेहो पाद कह्यो जे ते सामान्य रीते पंदर मीनो होय जे, परंतु जो उत्तराषाढा नक्षत्रनो नोगकाळ साठ घमीश्री न्यूयाधिक होय ते कुख घमीना चोथा नागने चोथो पाद गणवो. “वेध, लत्ता विगेरे जोवामां श्र. अजिजितनो उपयोग " एम कहेवाश्री अन्य स्थळे तेनो उपयोग करवानो नथी ए अर्थातथी जाणी खेवू तथा वेध, खत्ता विगेरे जोती वखते अनिजितनी पंदर घमी (अथवा तेथी न्यूनाधिक घमी (काढी सश्ने बाकी जेटली घमी रहे तेटली घमीन उत्तराषाढा गणी तेना पाद कटपवा. ए ज रीते श्रवणमांथी पण अनिजितनी चार घमी कढी बाकी रदेखी धमीटनुं श्रवण गणी तेना पाद कहपवा. ३०. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ __ हवे अठवावीश नक्षत्रोना स्वामी कहे - नेशास्त्वश्वि १ यमा २ नयः ३ कमलनू ४ श्चन्यो ५ऽथ रुषोऽदिति - जीवोऽहिः ए पितरो १०जगो ११ऽयम १२ रवी १३ त्वष्टा १४ समीर १५ स्तथा। शक्राग्नी १६अथ मित्र १७इन्छ निर्शतीरएवारीणि २०विश्वे १विधिश्रवैकुंठगे २३ वसवो २४ऽम्बुपो २५ऽजचरणो २६ऽहिर्बुध्न श्रुपूषा निधौ २७॥३१॥ अर्थ-नीचेना कोष्टक प्रमाणे नक्षत्रोना स्वामी जाणवा. नक्षत्र स्वामी • नक्षत्र स्वामी. १ अश्विनी-अश्विनोदन. २ नरणी-यम. ३ कृत्तिका-अग्नि ४ रोहिणी-कमलनू (ब्रह्मा). ५ मृगशिर-चं. ६ आर्जा-रुष (शंकर). ७ पुनर्वसु-अदिति ( देवोनी माता). _ पुष्य-जीव (गुरु-बृहस्पति ). ए अश्लेषा-अहि (सर्प). १० मघा-पित. ११ पूर्वाफाल्गुनी-जग (योनि). १२ उत्तराफाल्गुनी-श्रर्यमा (सूर्यनो नेद). १३ हस्त-रवि ( सूर्य ). १४ चित्रा त्वष्टा (विश्वकर्मा ). १५ स्वाति-समीर (वायु). | १६ विशाखा-शक (इंच) तथा अग्नि. १७ अनुराधा--मित्र ( सूर्यनो नेद ). १० ज्येष्ठा-इन्छ. १ए मूळ-निती ( राक्षसोनी माता ). | २० पूर्वाषाढ़ा-वारि (जळ ). २१ उत्तरापाठा--विश्व नामना तेर देवो. | २२ अनिजित्-विधि ( ब्रह्मा ). २३ श्रवण-वैकुंठ (विष्णु). २४ धनिष्ठा-वसु(वसु नामना श्राप देवो). २५ शतन्निष -अंबुप (वरुण ).. २६ पूर्वानापद-अजचरण(रुपनोजेद). २७ उत्तरानाऽपद-अहिर्बुध्न (सूर्यविशेष). । २० रेवती-पूषा ( सूर्यनो नेद). समजुती अश्विन तथा उदल ए बे देव . विशाखा नक्षत्रना प्रथम अर्धा नागमां शक्र तथा बीजा अर्धा नागमां अग्नि देवता , तेथी श्रा नक्षत्र दैिवत (बे देवतावाळु) एवा नामथी तथा मिश्र नामथी उलखाय बे, मूळ नक्षत्रनो स्वामी नैती कह्यो बे, ते नैती राक्षसोनी माता ने तेथी राक्षसोने पण ते नत्रना स्वामी जाणवा, अने तेथी करीने ज मूळ ए रहोंनत्र एटले राश्सनुं नक्षत्र एवा नामथी उळखाय . नक्षसोना स्वामी कहेवाचें फळ ए जे जे ते ते देवना नामथी ते ते नक्षत्रोनो व्यवहार करवामां श्रावे , तेथी तेमना स्वामी कह्या बे. ३१. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारंजसिद्धि। हवे अठ्यावीश नत्रोना ताराउनी संख्या कहे जे.त्रित्र्यंगनूतजगदिन्ऽकृतत्रितर्के वदिछिपञ्चकुकुवेदयुगाग्निरुझैः । वेदाब्धिरामगुणवेदशतछिकछि दन्तैश्च तत्समतिथिर्न शुजा नतारैः ॥ ३ ॥ अर्थ-अश्विनी नक्षत्रना त्रण तारा ने १, नरणीना त्रण तारा ने २, ए प्रमाणे अनुक्रमे अंग एटले ३, नूत-पांच ४, जगत्-त्रण ५, इंसु-एक ६, कृत-त्रण , त्रण G, तर्क- ए, इषु-पांच १०, अक्षि–बे ११, बे १२, पांच १३, कु-एक १४, कु-एक १५, वेद-चार १६, युग-चार १७, अग्नि-त्रण १७, रुष-अग्यार १ए, वेद-चार २०, थन्धि-चार २१, राम-त्रण २२, गुण-त्रण २३, वेद-चार २४, शत-सो २५, बे २६, बे १७, तथा रेवती (२७) ना दंत-बत्रीश तारा बे. या प्रमाणे अनुक्रमे २७ नक्षत्रोना तारानी संख्या जाणवी. अहीं तारानी संख्या कहेवानुं प्रयोजन ए जे था ताराउनी संख्यानी समान तिथि अशुल जे. एटले के अश्विनी नक्षत्रना त्रण तारा ने तेथी त्रीजने दिवसे अश्विनी नक्षत्र होय तो ते दिवसे शुल कार्य करातुं नथी. ए रीते लरणी विगेरेमां पण तारानी संख्या प्रमाणेनी तिथि शुन कार्यमा वर्जवानी कही बे. शतनिषक ननबना सो तारा कह्या बे, तेमां सोनी साथे पंदरेजाग लेतां बाकी दश रहे थे, माटे दशमने दिवसे शतभिषक् नक्षत्र होय तो ते दिवस शुन कार्यमा तजवा योग्य . ए ज रीते रेवतीना बत्रीश तारा होवाथी पंदरे लाग लेतां वे वधे जे, माटे द्वितीया युक्त रेवती तजवा योग्य बे. लव कहे के-"दग्धा तद्दिननत्रतारातुल्या तिथिर्नवेत्" "ते दिवसना नवना ताराने तुल्य-समान एवी तिथि दग्ध तिथि कहेवाय जे." या प्रमाणे सामान्य वचन कहीने ते ज ल या प्रमाणे विशेष कहे जे के-"तारासमैरहोनिर्मासरब्दैश्च धिष्ण्यफलपाकः" "ताराने तुट्य एवा दिवस, मास अने वर्षे करीने नत्रनुं फळ परिपक्क धाय." ३२. नदत्रोनी ज चर, ध्रुव विगेरे बीजी संज्ञा कहे .-. चरमाहुश्चलं खातिरादित्यं श्रवणत्रयम् । लघु झिप्रंच हस्तोऽश्विन्यनिजित्पुष्य एव च ॥ ३३ ॥ मृ मैत्रं मृगश्चित्रानुराधा चैव रेवती। ध्रवं स्थिरं च वैरंचमुत्तरात्रितयान्वितम् ॥ ३४ ॥ १ तिथि पंदर छे मादे. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो बिमर्शः॥ दारुणं तीदणमश्लेषा मूलमार्मा महेन्जम् । ऋरमुग्रं च जरणी तिस्त्रः पूर्वा मघान्विताः॥३५॥ मिश्रं साधारणं च विशाखाकृत्तिकानिधे। नाम्नोचिते धिष्ण्ये निर्मितं कर्म शर्मणे ॥ ३६॥ अर्थ-स्वाति, पुनर्वसु अने श्रवणादि त्रण एटले श्रवण, धनिष्ठा अने शतनिषक ए पांच नक्षत्रो चर तथा चल कहेवाय जे. हस्त, अश्विनी, अन्निजित् अने पुष्य र चार नक्षत्रो लघु तथा हिप कहेवाय बे. मृगशिर, चित्रा, अनुराधा अने रेवती ए चार नक्षत्रो मृउ तथा मैत्र कहेवाय जे. रोहिणी, त्रण उत्तरा एटले उत्तराफाटगुनी, उत्तराषाढा अने उत्तरालाप्रपद ए चार नक्षत्रो ध्रुव अने स्थिर कहेवाय जे. अश्लेषा, मूळ, आर्म श्रने ज्येष्ठा ए चार दारुण तथा तीक्ष्ण कहेवाय . जरणी, मघा, त्रण पूर्वा एटले पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा अने पूर्वानाप्रपद ए पांच नक्षत्रो क्रूर तथा उग्र कहेवाय . तथा विशाखा अने कृत्तिका ए बे नत्रो मिश्र तथा साधारण कहेवाय . अर्थात् था बे नक्षत्रो स्थिर, चळ, तीक्ष्ण तथा मृड विगेरे कांश पण कहेवातां नथी. श्रा चर विगेरे नामे करीने उचित एवा नक्षत्रमा करेलुं कार्य सुखने माटे थाय , एटले के जेवु नक्षत्रनुं नाम होय तेवू कार्य तेवां नक्षत्रोमां करवाथी कार्यनी सिद्धि थाय . ३३-३५-३५-३६. श्रा चरादिक नक्षत्रोमां केवां कार्य करवा योग्य ते ज कहे .कुर्यात्प्रयाणं लघुनिश्चरैश्च मृध्रुवैः शान्तिकमाजिमुत्रैः। व्याधिप्रतीकारमुशन्ति तीक्ष्णैर्मित्रैश्च मिश्रं विधिमामनन्ति ॥३॥ अर्थ-लघु तथा चर नत्रमा प्रयाण, करीयाणां, अलंकार, कळा, मैथुन, औषध, ज्ञान, विज्ञान, वाहन, उद्यान विगेरे संबंधी कार्य करवामां आवे . मृउ तथा ध्रुव नक्ष मां शांति, बीज, घर, नगर, अनिषेक, वाग बगीचा, जूषण (अलंकार ) वस्त्र, गीत, मंगळ तथा त्रि विगेरे संबंधी कार्य तथा स्थिर कार्य करवामां आवे . उग्र नक्षत्रमा खमाइ, वंचना (बेतरतुं ते ), विष, घात, बंधन, नन्छेदन, शस्त्र अने अग्नि विगेरे संबंधी कार्य करवाा आवे बे. तीक्ष्ण नदत्रमा व्याधिनो प्रतीकार ( दवा विगेरे उपाय ), नूत, यक्ष, मंत्र अनं निधिनी साधना तथा लेदकर्म विगेरे संबंधी कार्य करवामां आवे बे. तथा मिश्र नक्षत्रमा मिश्र कार्य एटले सुवर्ण, रूपुं, तांबू, लोढुं विगेरे सर्व अग्निकर्म तथा वृषोत्सर्ग अने अग्निनो परिग्रह विगेरे कार्य करवामां आवे . दिनशुद्धि ग्रंथमां का ये के-"खहूचरे सुहारंजो जग्गरिके तवं चरे । धुवे पुरपवेसाई मिस्से संधिकियं करे ॥१॥" "लघु अने घर नक्षत्रमा शुन कार्यनो श्रारंज करवो, उग्र नक्षत्रमा तप थाचरवो, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ ॥ श्रारंसिद्धि। ध्रुव नक्षत्रमा पुरप्रवेशादिक करवा, तथा मिश्र नक्षत्रमा संधि विगेरे कार्यों करवां.” वळी कह्यु के के-"तीक्ष्णोग्रलोकं विदधीत मिश्रे क्रूरोदितं दारुणनेषु कुर्यात् । तीदनोग्रमिधैर्यदिहोदितं तन्मृचवैः पिचरैर्न कुर्यात् ॥१॥” “तीदण तथा उग्र नक्षत्रमा करवा लायक कार्य मिश्रमां पण करी शकाय ने, क्रूर नत्रमा करवा लायक कार्य दारुण नक्षत्रमा करी शकाय ने, परंतु तीक्ष्ण, उग्र अने मिश्रमां करवा लायक कार्य जे अहीं कह्यां बे, ते कार्य मृड, ध्रुव, क्षिप्र अने चर नक्षत्रमा करवा लायक नथी.” वळी कडं बे के"प्रायः शान्ते कार्ये न योजयेत् कृत्तिकास्त्रिपूर्वाश्च । वारुणरौजे च तथा दिदैवतं याम्यमश्लेषाम् ॥३॥" "प्राये करीने शांत कार्यमा कृत्तिका तथा त्रण पूर्वा एटले पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा अने पूर्वानापद ए चार नत्र खेवा लायक नथी. तथा वारुण एटले शतजिषक, रोष एटले आओ, विदैवत एटले विशाखा, याम्य एटले नरणी अने अश्लेषा पाटलां नक्षत्रो पण खेवा खायक नथी." श्रा चरादिक संज्ञा वारने आश्रीने पण ग्रंथांतरमां था प्रमाणे कही .-"चरः १ स्थिर २ स्तथोग्र ३ श्च मिश्रो ४ सघु ५ रथो मृः ६। तीदणश्च ७ कथिता वाराः प्राच्यैः सूर्यादयः क्रमात् ॥१॥" "पूर्वाचार्योए रविवारथी श्रारंजीने अनुक्रमे चर, स्थिर, उग्र, मिश्र, लघु, मृतु अने तीक्ष्ण एवी संज्ञा कहेली . अर्थात् रविवार चर, सोमवार स्थिर, मंगळवार उग्र विगेरे."श्रा वारनी संज्ञा श्रापवानुं प्रयोजन ए ले जे चर नक्षत्रमा करवानु कार्य चर वारमां आवे तो ते विशेष सिधिकारक बे. ए रीते एक ज संज्ञावाळा नक्षत्र तथा वारमा ते ते करवा लायक कार्यो विशेष फळदायक थाय वे. ३७. हवे चंग संक्रांतिने श्राश्री सत्यावीश नक्षत्रोनी मुहूर्त संख्या कहे . नेषु दणान् पञ्चदशैन्डरौअवायव्यसान्तिकवारुणेषु । त्रिन्नान् विशाखादितिनध्रुवेषु शेषेषु तु त्रिंशतमामनन्ति ॥ ३० ॥ श्रर्थ-पैन्ड (ज्येष्ठा ), रौज (आर्स), वायव्य ( स्वाति ), सार्प (अश्लेषा), अंतक (जरणी) तथा वारुण (शतभिषक् ) या नात्रो पंदर मुहूर्त एटले अर्ग दिवसना जोगवाळां ने अर्थात् पंदर मुहूर्तीयां कहेवाय . विशाखा, अदिति (पुनर्वसु), ध्रुव एटले रोहिणी, उत्तराषाढा, उत्तराफाल्गुनी अने उत्तरानाषपद श्राउ नक्षत्रो पीस्तालीश मुहूर्त एटले दोढ दिवसना जोगवाळां बे एटले पीस्तालीश मुहूर्तीयां ने, बाकीनां एटले अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूळ, पूर्वाषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वानाजपद थने रेवती था पंदर नक्षत्रो त्रीश मुहूत्तीयां ने एटखे एक दिवसना नोगवाळां . श्रा प्रमाणे प्राचीन ज्योतिष शास्त्रमा नदत्रोनी नुक्तिराशि कहेली ने, परंतु हाखमां तो सर्वेनक्षत्रो एक एक दिवसना जजोगवाळां Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो बिमर्शः। एटले दरेक नक्षत्र सामान्य रीते साठ घमी जोगवे ने एम श्रीमत् आवश्यक बृहत्तिना टिप्पनकमां कडं बे. था मुहूर्तीयां नक्षत्रोनी संज्ञानो उपयोग नवा उदय पामेला चंप्रदर्शनमां बे ते विषे रत्नमाळामां कडं बे के-"बृहत्सु धान्यं कुरुते समयं जघन्यधिष्ण्येऽज्युदिते महाय॑म् । समेषु धिष्ण्येषु समं हिमांशुः शुक्लप्तिीयान्युदयी विलोक्यः ॥१॥" "सुदि बीजने दिवसे उदय पामता चंजने जोवो. जो ते वखते बृहत् नक्षत्र एटले पीस्तालीश मुहूर्तीयु नक्षत्र होय तो धान्य सस्तुं थाय एम जाणवू, जघन्य एटले पंदर मुहूर्तीयुं नक्षत्र होय तो धान्य मोंधू थशे एम जाणवू, अने जो सम एटले त्रीश मुहू युं नक्षत्र होय तो धान्यना नाव समान रहेशे एम जाणवू. ए प्रमाणे दरेक मासना नाव जाणवा. कयां कयां नक्षत्रो चंजनी आगल, पाउल अने साथे होय ? ते माटे श्रा गणे कडं बे के-"युज्यन्ते षड बादश नव चेति निशाकरेण धिष्ण्यानि। प्रागमध्यपश्चिमाधैः पौष्णैशाखमलादीनि ॥१॥" "पौष्ण एटले रेवतीथी आरंजीने उ नक्षत्रो चंनी आगळ चाखनारांने तेथी ते पूर्वयोगी कहेवाय , तथा ऐश एटले श्राआधी श्रारंलीने बार नक्षत्रो मध्यनागयोगी कहेवाय ने अर्थात् ते नक्षत्रो चंजनी साथे रहेनारां , तथा श्राखंमल एटले ज्येष्ठाथी आरंजीने नव नक्षत्री चंजना पश्चिमार्ध योगवाळां डे, एटले के ते नदत्रो चंजनी पागल चालनारां बे." था पूर्वयोगी विगेरे नक्षत्रोनी संज्ञानुं फळ या प्रमाणे जे.-"पूर्वार्धयोगिषूढस्त्रीणामतिवझलो नवेना । पश्चार्धयोगिषु स्त्रीप्रेम मियो मध्ययोगिषु ॥२॥" "पूर्वार्धयोगी नक्षत्रमा विवाह गया होय तो स्त्रीने नर्ता उपर घणी प्रीति होय, पश्चार्धयोगीमा विवाह श्रया होय तो पुरुषने स्त्री उपर घणो प्रेम होय, अने मध्ययोगीमा विवाह थया होय तो बन्नेने परस्पर समान प्रीति रहे बे." आज प्रमाणे सेवा, मित्रा विगेरेमां पण फळ जाणवु. एटले के पूर्वयोगी नक्षत्रमा सेवा ( नोकरी विगेरे ) तथा मित्राश्नो आरंज थयो होय तो जे मुख्य (शेव विगेरे ) होय जे गौण (नोकर विगेरे ) ने अत्यंत प्रेमवाळो रहे , पश्चार्धयोगीमां श्रारंन थयो होय तो जे गौण होय ते मुख्यने घणी प्रीति नक्तिवाळो थाय , तथा मध्ययोगीमां श्रारं न कर्यो होय तो परस्पर प्रीति रहे बे. नक्षत्रोनी आकृति नीचे प्रमाणे होय .हयवदन १ नग ५ कुर ३ शकट । मृगशिरो ५ मणि ६ गृहे ७ षु चक्राणाम् ।। प्राकार १० शयन ११ पर्यंक १२ हस्त १३ मुक्ता १५ प्रवालानाम् १५ ॥१॥ तोरण १६ मणि १७ कुंमल १८ सिंहविक्रम १ए स्वपन २० गजविलासानाम् २१। शृंगाटक २२. त्रिविक्रम २३ मृदंग २४ वृत्त २५ घियमलानाम् ॥ २६ ॥२॥ पर्यंक २७ मुरज २० सदृशानि नानि कथितानि चाश्विनादीनि । आ. ५ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिधि॥ अश्विनी नक्षत्रथी आरंजीने अनुक्रमे हयवदनादिक आकारवाळां नक्षत्रो कहे। एटले के अश्विनी नक्षत्र अश्वना मुखना आकारवाळु ले १, नरणी नग (योनि)ना आकारवाळु २, कृत्तिका कुर (अस्त्र )ना आकारवाळु डे ३. ए प्रमाणे अनुक्रमे शकट (गार्नु), मृगर्नु मस्तक ५, मणि ६, घर , बाण , चक्र ए, किलो १०, शयन ११, पर्यक १२, हाथ १३, मोती १४, परवाळा १५, तोरण १६, मणि १७, कुंकळ १७, सिंहनां पगलां १ए, स्वपन (शय्या) २०, हस्तिनी चाल २१, शृंगाटक २२, त्रिविक्रम २३, मृदंग २४, वृत्त (गोळ ) २५, दियामल २६, पर्यंक २७ अने मुरज (वाजिन विशेष) २८. श्रावा आकारवाळां कहेखां . दिशाउँनो क्रम श्रा प्रमाणे बे.-चित्रा अने स्वाति नक्षत्रना उदयना मध्य नागमा पूर्व दिशा मे, ते बन्नेना अस्तना मध्यमां पश्चिम दिशा बे, भुवनो तारो ज्यां होय ते उत्तर दिशा ने अने तेनी सन्मुखनी दिशा दक्षिण बे. जे जे नक्षत्रो जे जे दिशामा चालनारांने ते कहे जे.दक्षिणमार्गेऽश्लेषा १ ब्राह्मत्रय ४ करयुगे ६ विपतिषट्कम् १। उत्तरतः पुनरनिजित्नय ३ मश्वित्रय ६ यौनयुगतानि ॥१॥ भाजपादघयं १० स्वात्या ११ दित्ये १२ चेति भ्रमन्ति खे । मध्यमार्गे शतभिषक् १ पुष्य २ पौष्ण ३ मघा । इति ॥२॥ अश्लेषा, रोहिणी, मृगशिर, श्राओ, हस्त, चित्रा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा था बार नदत्रो दक्षिण मार्गमां चाले . अनिजित् , श्रवण, धनिष्ठा, अश्विनी, जरणी, कृत्तिका, पूर्वाफाट्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाजाजपद, उत्तराजाप्रपद, स्वाति, पुनर्वसु आ बार नक्षत्रो उत्तर मार्गमां चाले बे. तथा शतनिषक, पुष्य, रेवती, मघा ए चार नक्षत्रो मध्य नागे चालनारां (था सर्व हकीकत व्यवहार प्रकाशमां ). चंथी कर कई दिशामा नक्षत्रो रहेला बे ते कहे जे.बे फग्गुणि २ नदवया ४ सवण ५ धणिचा ६ य रेवर ७ नरणी । असिणि ए सयनिस १० साई ११ अभिजु १३ त्तरजोशणो चंदे ॥१॥ पुणवसु १ रोहिणि चित्ता ३ मह ४ जिस ५ णुराह ६ कत्तिश्र विसाहा । चंदस्स उन्नयजोगा श्रह दरिकण जोश्णो चंदे ॥२॥ पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वालाप्रपद, उत्तरालाप्रपद, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती, जरणी, अश्विनी, शतभिषक्, स्वाति अने अन्निजित् श्रा बार नक्षत्रो चंथी. उत्तरतरफ रहे ने, एटले श्रा नक्षत्रोथी दक्षिण तरफ रहीने चं गति करे जे. पुनर्वसु, रोहिपी, चित्रा, मघा, ज्येष्ठा, अनुराधा, कृत्तिका अने विशाखा ए श्रा नक्षत्रो धनी बन्ने Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रमो विमर्शः॥ ३५ एटले उत्तर तथा दक्षिण बाजुए रहे , एटले के कोई वखत दक्षिण तरफ अने कोश वखत उत्तर तरफ रहे बे. तथा बाकीनां एटले पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, हस्त, मूळ, अश्लेषा, मृगशिर, बार्ग अने पुष्य ए आठ नक्षत्रो चंथी दक्षिणमा रहे बे. तिथि तथा नक्षत्रनुं संपूर्ण बळ कश् वखते होय ने ते कहे जे. तिथिर्धिष्ण्यं च पूर्वार्दै बलवहुर्बलं ततः। नत्रं बलवत्रात्रौ दिने बलवती तिथिः॥१॥ ( व्यवहारसार ) दिवसना पूर्वार्ध नागमा तिथि तथा नक्षत्र संपूर्ण बळवान् होय , अने त्यारपी पुर्बळ थाय . रात्रिए केवळ नक्षत्रनुं ज बळ होय , अने दिवसे केवळ तिथि ज बळवान् होय . ॥इति नक्षत्रघारम् ॥ ३॥ ॥ अथ योगछारम् ॥४॥ रवि विगेरे वारने विषे तिथि तथा नक्षत्रने श्राश्रीने शुल तथा अशुल योग कहे . तेमां प्रथम रविवारे शुल योग कहे जे. जातौ नूत्यै करादित्यपौष्णब्राह्ममृगोत्तराः। पुष्यमूलाश्विवासव्यश्चैकाष्ट नवमी तिथिः ॥ ३० ॥ अर्थ-रहिवारे हस्त, पुनर्वसु, रेवती,रोहिणी, मृगशिर, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरानाप्रपद, पुष्य, मूळ, अश्विनी अने धनिष्ठा नक्षत्र होय तथा पमवो, श्राम श्रने नोम तिथि होय तो ते शुन्न योगने माटे बे. अहीं वार श्रने तिथि, तथा वार श्रने नक्षत्र एम. नो योग होय तो विक शुल योग जाणवो, अने वार, नत्र तथा तिथि ए त्रणे मळ होय त्यारे त्रिक शुज योग जाणवो. एप्रमाणे अशुन योगमां पण जाणवू.३ए. रविवारे अशुन योग कहे . न चार्के वारुणं याम्यं विशाखात्रितयं मघा । तिथिः षट्सप्तरुषा ११ क १५ मनु १४ संख्या तथेष्यते ॥४०॥ अर्थ-रविवारे वारुण (शतभिषक् ), याम्य (नरणी), विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा अने मघा नक्षत्र होय, तथा ब, सातम, अग्यारश, बारश श्रने चौदश, ए तिथिमांनी कोपण तिथि होय तो ते छाती नश्री, अर्थात् ते दिवसे अशुल योग जाणवो. अहीं विशाखा त्रितय सख्यु बे तेथी अनुक्रमे उत्पात, मृत्यु अने काण योग थाय . एटले के रहिवारे विशाखा नक्षत्र होय तो उत्पात योग, अनुराधा होय तो मृत्यु योग Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ॥ आरंभ सिद्धि || छाने ज्येष्ठा होय तो काण योग जाणवो. ए प्रमाणे आगळ पण कुयोगना श्लोकमां ज्यां त्रिक शब्द आवे त्यां पण उत्पात विगेरे त्रण योग अनुक्रमे जाणवा. ४०. सोमवारे शुभ योग कहे बे. - सोमे सियै मृगब्राह्ममैत्राष्यार्यमणं करः । श्रुतिः शतभिषक् पुष्य स्तिथिस्तु द्विनवा निधा ॥ ४१ ॥ अर्थ- सोमवारे मृगशिर, ब्राह्म ( रोहिणी ), मैत्र ( अनुराधा ), श्रार्यमण ( उत्तराफाल्गुनी ), कर ( हस्त ), श्रुति ( श्रवण ), शतभिषक् छाने पुष्य नक्षत्र होय तथा बीज के नोम तिथि होय तो ते दिवसे शुभ योग जावो. ४१. सोमवारे अशुभ योग कहे बे. श्र न चन्द्रे वासवाषाढात्रयार्द्राश्विद्विदैवतम् । सिध्ध्यै चित्रा च सप्तम्येकादश्यादित्रयं तथा ॥ ४२ ॥ अर्थ- सोमवारे वासव ( धनिष्ठा ), पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् श्रर्मा, विनी दिदैवत ( विशाखा ) अने चित्रा नक्षत्र होय, तथा सातम, अग्यारश, बारश ने तेरश तिथि होय तो ते दिवसे अशुभ योग जाणवो. अहीं षाढात्रय एटले पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा छाने अभिजित् नक्षत्र होय तो अनुक्रमे उत्पात, मृत्यु अने काण योग पण जाणवा. ४२. मंगळवारे शुभ योग कहे बे. - मेऽश्वपौष्णादिभमूलराधार्यमा निजम् । मृगः पुष्यस्तथा श्लेषा जया षष्ठी च सिद्धये ॥ ४३ अर्थ — मंगळवारे अश्विनी, पौष्ण ( रेवती ), आहिर्बुन ( उत्तराजा राधा ( विशाखा ), अर्यम ( उत्तराफाल्गुनी ), अग्निज ( कृत्तिका ), मृ छाने अश्लेषा नक्षत्र दोय तथा जया एटले त्रीज, श्रम अने तेरश त होय तो ते सिद्धिने माटे बे, एटले ते दिवसे शुभ योग जाणवो. ४३ . मंगळवारे अशुभ योग कहे बे. - न जौमे चोत्तराषाढामघावासवत्रयम् । प्रतिपद्दशमी रुद्रप्रमिता च मता तिथिः ॥ ४४ ॥ अर्थ - मंगळवारे उत्तराषाढा, मघा, आर्द्रा, वासवत्रय एटले धनिष्ठा, शतभिषक् छाने पूर्वाभाषपद नक्षत्र होय तथा परुवो, दशम ने अग्यारश तिथि होय तो ते दिवसे अशुभ द ), मूल, शेर, पुष्य बघ तिथि Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः ॥ योग जाणवो. श्रहों पण वासवत्रय एटले धनिष्ठा, शतजिपक् अने पूर्वालाप्रपद होय तो अनुक्रमे उत्पात, मृत्यु अने काण योग पण जाणवा. ४५. बुधवारे शुक्ल योग कहे .बुधे मैत्रं श्रुतिज्येष्ठापुष्यहस्ताग्निजत्रयम् । पूर्वाषाढार्यमर्दै च तिथिर्जा च नूतये ॥ ४५ ॥ अर्थ-बुधवारे मैत्र ( अनुराधा), श्रवण, ज्येष्ठा, पुष्य, हस्त, अग्निन : कृत्तिका) विगेरे त्रण एटले कृत्तिका, रोहिणी अने मृगशिर, पूर्वाषाढा तथा अर्यम एटले उत्तराफागुनी थामांनु कोइ नक्षत्र होय तथा जना एटले बीज, सातम श्रने बारश एमांनी को तिथि होय तो ते दिवसे शुभ योग जाणवो. ४५.. बुधवारे अशुल योग कहे .न बुधे वासवाश्लेषारेवतीत्रयवारुणम् । चित्रामूलं तिथिश्चेष्टा जयैकेन्ऽनवांकिता ॥ ४६॥ अर्थ-बुधधारे धनिष्ठा, अश्लेषा, रेवती, अश्विनी, नरणी, वारुण (शतजिषक् ), चित्रा श्रने मूळ नक्षत्र होय, तथा जया एटले त्रीज, आठम अने तेरश, तथा पमवो, चौदश अने नोम एमांनी को पण तिथि होय तो ते दिवसे अशुन्न योग जाणवो. वहीं पण रेवती, अश्विनी अने नरणी होय तो अनुक्रमे उत्पात, मृत्यु अने काण योग जागवा. ४६. गुरुवारे शुल योग कहे .गुरौ पुष्याश्विनादित्यपूर्वा ३ श्लेषाश्च वासवम् । पौष्णं स्वातित्रयं सिष्यै पूर्णाश्चैकादशी तथा ॥४७॥ अर्थ-गुरुवारे पुष्य, अश्विनी, पुनर्वसु, पूर्वाफागुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वानाप्रपद, श्रश्लेषा, वासव (धनिष्ठा ), पौष्ण (रेवती), स्वातित्रय एटले स्वाति, विशाखा अने अनुराधा नक्षत्र होय तथा पूर्णा एटले पांचम, दशम अने पूनम तथा अग्यारश होय तो शुल योग जाणवो. Us. गुरुवारे अशुन योग कहे जे.न गुरौ वारुणाग्नेयचतुष्कार्यमणध्यम् । ज्येष्ठा नूत्यै तथा ना तुर्या षष्ठ्यष्टमी तिथिः ॥ ४ ॥ अर्थ-गुरुवारे वारुण (शतजिषक् ), श्राग्नेयचतुष्क एटले कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिर अने पार्षा, अर्यमणघय एटले उत्तराफाल्गुनी अने हस्त, तथा ज्येष्ठा था नक्ष Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ॥ श्रारंसिछि॥ त्रोमांथी कोइ एक होय तथा जघा एटले बीज, सातम अने वारश, तथा चोथ, अने श्राम श्रामांनी कोई तिथि होय तोते दिवसे अशुल योग जाणवो. अहीं पण रोहिणी, मृगशिर श्रने आर्म होय तो अनुक्रमे उत्पात, मृत्यु अने काण योग जाणवा, अने कृत्तिका नक्षत्र होय तो यमघंट नामनो योग थाय बे. १७. शुक्रवारे शुन योग कहे .शुक्रे पौष्णाश्विनाषाढा मैत्रं मार्ग श्रुतिध्यम् । - यौनादित्ये करो नन्दात्रयोदश्यौ च सिझये ॥ ४ए ॥ अर्थ-शुक्रवारे पौष्ण (रेवती), अश्विनी, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, मैत्र (अनुराधा), मार्ग (मृगशिर ), श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाफाल्गुनी, पुनर्वसु अने हस्त नक्षत्र होय तथा नंदा एटले पमवो, बस अने अग्यारश, तथा तेरश तिथि होय तो ते दिवसे शुन योग थाय ने.ए. शुक्रवारे अशुन योग कहे बे.न शुक्रे नूतये ब्राह्म पुष्यं सार्प मघानिजित् । ज्येष्ठा च छित्रिसप्तम्यो रिक्ताख्यास्तिथयस्तथा ॥ ५० ॥ अर्थ-शुक्रवारे ब्राह्म (रोहिणी), पुष्य, सार्प ( अश्लेषा), मघा, अग्निजित् श्रने ज्येष्ठा नक्षत्र होय, तथा बीज, त्रीज, सातम तथा रिक्ता एटले चोथ, नोम अने चौदश होय तो ते दिवसे अशुन योग जाणवो. अहीं पण पुष्य, अश्लेषा अने मघा होय ते दिवसे अनुक्रमे उत्पात, मृत्यु अने काण योग पण थाय . ५०. हवे शनिवारे शुन योग कहे .शनी ब्राह्मश्रुतिघन्छाश्विमरुद्गुरुमित्रनम् । मघा शतभिषक् सिध्यै रिक्ताष्टम्यौ तिथी तथा ॥५१॥ अर्थ-शनिवारे ब्राह्म (रोहिणी), श्रुतिबंध एटले श्रवण अने धनिष्ठा, अश्विनी, मरुत् (स्वाति), गुरुन (पुष्य), मित्रन (अनुराधा), मघा अने शतभिषा नक्षत्र होय तथा रिक्ता एटले चोथ, नोम अने चौदश तथा अष्टमी तिथि होय तो ते दिवसे शुन योग श्राय ने. ५१. हवे वट शनिवारे श्रशुन योग कहे .न शनौ रेवती सिद्ध्यै वैश्वमार्यमणत्रयम् । पूर्वा ३ मृगश्च पूर्णाख्या तिथिः षष्ठी च सप्तमी ॥५॥ अर्थ-शनिवारे रेवती, वैश्व (उत्तराषाढा), आर्यमणत्रय एटले उत्तराफाल्गुनी, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः ॥ हस्त चित्रा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वापाढा, पूर्वाभापद ने मृगशिर नक्षत्र होय तथा पूर्णा एटले पांचम, दशम ने पूनम, तथा बाने सातम होय तो ते दिवसे शु योग थाय बे. काहीं पण उत्तराफाङगुनी, हस्त ने चित्रा होय तो उत्पात, मृत्यु ने का योग पण अनुक्रमे थाय बे. २. हीं विशेष एटलो बे के सुयोगना सात श्लोकोमां जे पहेलां पहेलां नक्षत्र श्राप्यां बे ते नक्षत्र जो ते जवारे होय तो अमृतसिद्धि योग थाय बे. ते विषे कयुं वे के."हस्त १ सौम्या २ श्विनी ३ मैत्र ४ पुष्य ५ पौष्ण ६ विरंचितैः ७ । मृत सियाख्ययोगः सूर्यादिवारणैः ॥ १ ॥” "रवि आदि वारने विषे अनुक्रमे हस्त, सौम्य ( मृगशिर ), अश्विनी, मैत्र (अनुराधा ), पुष्य, रेवती ने विरंचित ( रोहिणी ) होय तो ते दिवसे अमृतसिद्धि योग या बे. एटले के रविवारे हस्त नक्षत्र होय, सोमवारे मृगशिर होय, मंगळवारे अश्विनी, बुधवारे अनुराधा, गुरुवारे पुष्य, शुक्रवारे रेवती ने शनिवारे रोहिणी नक्षत्र होय तो ते दिवसे मृत सिद्धि योग थाय बे.” श्रा योगने विषे कार्य करवायी अवश्य ते कार्य सिद्धि थाय बे, एम रत्नमाळाना जाण्यमां कहां बे. श्री हर्ष प्रकाशमां पण कर्तुं बे के “ज़प्रासंवर्त्तकाद्यैश्चेत्सर्वकुष्टेऽपि वासरे । योगोऽस्त्यमृतसिद्ध्याख्यः सर्वदोषदायस्तदा ॥ १ ॥” "जा ने संवर्त्तक विगेरे अशुभ योगोवमे दूषण पाम्या बतां पण ते दिवसे जो श्रमृतसिद्धि योग होय तो सर्व दूषणनो दय थाय बे.” ३० “शुक्रवारेको रेवती नक्षत्र होय तो ते दिवसे शत्रु योग थाय बे, अने उत्तराजापद होय तो अमृत सिद्धि योग थाय बे,” एम लोकश्री ग्रंथमां कहां बे. कोइ आचार्य कहे के - "शरतिथितः सप्ततिथिष्वेते सप्तापि मृत्युदाः क्रमशः " । "पांचमी सात तिथि सुधी अनुक्रमे या साते अमृतसिद्धि योगोवाळा वारो मृत्यु देनारा d. रविवारे अमृतसिद्धि योग होय, पण ते दिवसे पांचम होय, सोमवारे अमृतसिद्धि योग होय, पण बघ होय, मंगळवारे सातम, बुधवारे श्रम, गुरुवारे नोम, शुक्रवारे दशम ने शनिवारे अमृत सिद्धि योग सहित अग्यारश होय तोपण ते मृत्युदायी जाणवा. " वळी कह्युं वे के "विशाखादिचतुष्केषु रविवारादिसप्तके । उत्पात मृत्युकाणाश्च सिद्धियोगाश्च कीर्तिताः ॥ १ ॥ " Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिदि॥ "विशाखादिक चार चार नक्षत्रोवझे रविवारादिक सात वारने विपे नत्पात, मृत्यु, काण अने सिद्धि योग कह्या बे. नीचेनुं कोष्टक जुर्म. । रवि | सोम | मंगळ | बुध | गुरु । शुक्र शनि. उत्पात विशाखा पूर्वाषाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उत्तराफाल्गुनी मृत्यु अनुराधा उत्तराषाढा शतभिषक् अश्विनी मृगशिर अश्लेषा हस्त काण ज्येष्ठा अन्निजित पूर्वानापद जरणी श्राओ मघा चित्रा सिद्धि मूळ श्रवण उत्तरानाऽपद कृत्तिका पुनर्वसु पूर्वाफागुनी स्वाति अहीं उत्पात, मृत्यु श्रने काणने ठेकाणे अनुक्रमे प्रवास, मरण अने व्याधि एवां नाम पण पूर्णन कहेला ले. यमघंट योग आ प्रमाणे थाय ."मघा १ विशाखा २ ३ मूल ४ कृत्तिका ५ रोहिणी ६ करैः । रव्यादिवारसंयुक्तैर्यमघंटो नृशोऽशुनः॥१॥ "रविवारे मघा, सोमवारे विशाखा, मंगळवारे आर्ज, बुधवारे मूळ, गुरुवारे कृत्तिका, शुक्रवारे रोहिणी ने शनिवारे हस्त नक्षत्र होय तो ते दिवसे यमघंट नामे योग थाय वे. ते घणोज अशुल फळदायक जे." अहीं पाकश्री ग्रंथकार हस्त नक्षत्रने ठेकाणे पूर्वापाढा तथा उत्तराषाढाने कहे . ___ वज्रमुशळ योग आ प्रमाणे थाय बे."नर १ चित्तु ५ त्तरसाढा ३ धणि उत्तरफग्गु ५ जिस ६ रेवश्था । सूराइजम्मरिरका एएहिं वजमुसल पुणो ॥ १॥" "रविवारे नरणी, सोमवारे चित्रा, मंगळवारे उत्तराषाढा, बुधवारे धनिष्ठा, गुरुवारे उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवारे ज्येष्ठा ने शनिवारे रेवती नक्षत्र होय तो वज्रमुशळ नामे श्रशुल योग थाय . श्रा रवि विगेरे ग्रहोनां जन्मनक्षत्र . अहीं चरणीने ठेकाणे लोकश्री ग्रंथमां अश्विनी कहेल . अरि ( शत्रु ) योग था प्रमाणे श्राय ."जर १ पुस्सु ५ त्तरसाढा ३ अद्द । विसाहा ५ य रेवई ६ सनिसा । अक्काश्थाणएहिं थरिजोगा गुरुविणि दिघा ॥१॥” । "रविवारे भरणी, सोमवारे पुष्य, मंगळवारे उत्तराषाढा, बुधवारे श्रार्घा, गुरुवारे वि. शाखा, शुक्रवारे रेवती ने शनिवारे शतभिषक् नक्षत्र होय तो ते अरि योग कहेवाय ने, एम गुरुजने बताव्यु जे.” प्रीतिना कार्यमां श्रा योग वर्जवामां आवे छे. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ॥ प्रथमो विमर्शः॥ अस्थिर (चर) योग या प्रमाणे थाय बे."मह १ मूलु ३ त्तरसाढा ३ श्रद्द । विसाहा य ५ रोहिणी ६ सलिसा । - सुक्काश्याण कमसो जहाकम अस्थिरो जोगो ॥१॥" "शुक्रवारे मघा, शनिवारे मूळ, रविवारे उत्तराषाढा, सोमवारे श्राओ, मंगळवारे विशाखा, बुधवारे रोहिणी अने गुरुवारे शतभिषक् होय तो ते अस्थिर (चर) योग कहेवाय बे.” स्थिर कार्योमां श्रा योग वर्जवा योग्य वे. क्रकच (कर्क) योग था प्रमाणे थाय बे."अक्काइसु कक्को बारसी उ पञ्चकमेण जा ही। कक्कय नामा जोगो रविवारादिकमां बारशथी पश्चानुपूर्वीए ब सुधी आवq एटले ककच (कर्क) योग थाय जे. अर्थात् रविवारे बारश, सोमवारे अग्यारश, मंगळवारे दशम, बुधवारे नोम, गुरुवारे आठम, शुक्रवारे सातम अने शनिवारे उछ होय तो क्रकच (कर्क)योग थाय जे. बीजी रीते या प्रमाणे पण जे.“यत्र संख्या युतौ वारतिथ्योर्जातास्त्रयोदश। झेयः क्रकचयोगोऽयं हेयश्च शुनकर्मणि ॥ १॥" "रविवारादिक वारनी अने तिथिनी संख्या नेगी करवाथी ज्यारे तेरनी संख्या थाय त्यारे तेने क्रकच योग जाणवो. श्रा योग शुल कार्यमां वयं . जेमके रविवारनी एक संख्या तेमां बार नाखवाथी तेरनी संख्या थाय बे, माटे रविवारे बारश होय त्यारे क्रकच योग थाय. ए प्रमाणे गणवायी पण उपरनी गाथा प्रमाणे मळतुं श्रावे जे." संवर्तक योग था प्रमाणे."पमिवय तिजु बुहेणं उही जीवेण बिजु सुक्केण । सत्तमि सणिसूरेसुं एए संवट्टया जोगा ॥१॥" "बुधवारे पम्वो अथवा त्रीज होय, गुरुवारे उरु होय, शुक्रवारे वीज होय तथा शनि श्रने रविए सातम होय तो ते संवर्तक योग कहेवाय .” हर्षप्रकाश विगेरे ग्रंथमां "वुधवारे मात्र पम्वो ज होय श्रने सातमने दिवसे रविवार ज होय तो संवर्तक योग पाय," एम कडं बे. बाकी सर्व उपर प्रमाणे. प्रथमश्री प्रारंजीने अहीं सुधीना जे जे योगो कह्या तेना पांच वर्ग श्र शके , ते था प्रमाणे-रुष योग १, सामान्य योग २, सुयोग ३, सिद्धि योग ४ अने अमृतसिद्धि योग. या योगोमां कार्य करवायी तेनुं फळ अनुक्रमे था प्रमाणे जाणवू. आ.६ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंनसिद्धि ॥ अत्यंत असिहि १, दैवयोगे सिद्धि २, विलंवे सिद्धि ३, इलित सिद्धि । तथा इनितथी अधिक सिद्धि ५. आ प्रमाणे त्रिविक्रमे कयुं . फरीथी ग्रंथकार बीजा योगो कहे . तेमां प्रथम कुमार योग कहे जे. योगः कुमारनामा शुनः कुजज्ञेन्शुक्रवारेषु ।। अश्वाद्यय॑न्तरितैर्नन्दादशपञ्चमीतिथिषु ॥ ५३॥ अर्थ-मंगळ, बुध, सोम अने शुक्र, एमांना कोई वारे अश्विनीथी आरंजीने वे श्रांतरावाळां नक्षत्र एटले अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, हस्त, विशाखा, मूळ, श्रवण भने पूर्वानापद, एमांनुं को एक नत्र होय, तथा नंदा एटले पमवो, उस अने अग्यारश, तथा पांचम अने दशम, एमांनी कोइ पण तिथि होय तो कुमार नामनो शुल योग थाय . श्रा योग स्थिर कार्यमां एटले मैत्री, दीक्षा, व्रत, विद्या अने शिटपर्नु ग्रहण कर विगेरे कार्यमां तथा गृहप्रवेशादिकमां विशेषे करीने शुज के; परंतु ते वखते विरुष्ठ योग होवो न जोश्ए. अर्थात् मंगळवारे दशम श्रने पूर्वानापद, सोमवारे अग्यारश अने विशाखा, बुधवारे पमवो अने मूळ अथवा अश्विनी तथा शुक्रवारे रोहिणी होय तो ते दिवसे कुमार योग पण शुनकारक नथी, कारण जे ते ते दिवसोमां कर्क, संवर्तक, काण अने यमघंट योगनी उत्पत्ति होय .या प्रमाणे श्रीहरिनजसूरिकृत लग्नशुद्धि प्रकरणमां कहेढुं . ५३. ___हवे राज योग कहे .राजयोगो नरएयायैयन्तरैः शुजावहः। नजातृतीयाराकासु कुजज्ञभृगुनानुषु ॥ ५४॥ अर्थ-मंगळ, बुध, शुक्र अने रवि, श्रामांना कोइ वारे तथा लडाएटले वीज, सातम अने वारश तथा त्रीज अने पूनम, एमांनी कोर पण तिथिए नरणी विगेरे वे आंतरावाळां नक्षत्र एटले नरणी, मृगशिर, पुष्य, पूर्वाफाट्गुनी, चित्रा, अनुर वा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा अने उत्तरानापद, एमांगें कोइ पण नक्षत्र होय तो शुन्नकारक राज योग थाय . श्रा योग मांगलिक कार्यमां, धर्मकार्यमां, पौष्टिकमां, अलंकार पहेरवामां तथा क्षेत्रना श्रारंजादिक कार्यमा विशेषे करीने श्रेष्ठ चे. "श्रा योग तरुण योगनामे पण कहेवाय जे." एम पूर्णन कडं जे. श्रा योग पण विरुष्प योग न होय त्यारे लेवो एम संजवे, तेथी रविवारे सातम अथवा वारश अने जरणी होय, मंगळवारे धनिष्ठा होय, बुधवारे नरणी के धनिष्ठा होय अने शुक्रवारे वीज के सातम तथा पुष्य होय, ते दिवसे राज योग होय तोपण श्ष्ट (शुजकारक) नथी, केमके ते ते दिवसोमां संवर्तक, क, वनमुशळ, उत्पात तथा काण विगेरे कुयोगनी उत्पत्ति थाय जे. . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ हवे स्थिर ( स्थविर ) योग कहे वे.स्थिरयोगः शुनो रोगोछेदादौ शनिजीवयोः । त्रयोदश्यष्टरिक्तासु व्यन्तरैः कृत्तिकादिनिः॥५५॥ अर्थ-गुरुवारे अथवा शनिवारे तेरश, बाग्म के रिक्ता एटले चोथ, नोम अने चौदश होय, तथा कृत्तिकादिक ध्यंतर नक्षत्र एटले कृत्तिका, आळ, अश्लेषा, उत्तराफागुनी, स्वाति, ज्येष्ठा, उत्तराषाढा, शततारका के रेवती होय तो ते रोगादिकना नाशमां शुजकारक एवो स्थिर योग थाय . आ योगनुं फळ पाकश्री ग्रंथमा श्रा प्रमाणे कर्तुं . "अणसण खिल वाहि रिणं रिज रण दिवं जलासए बंधो। . कायबो थिरजोगे जस्स य करणं पुणो नस्थि ॥१॥" "जे कार्यनुं फरीथी करवापणुं नथी एवां कार्य जेवां के अनशन, त्रिशुधि, व्याधिहरण, शण ( देणुं ) देवू, शत्रुनो वध, समाइ, दिव्य करवू, जळाशय बंधावq, ए विगेरे मंत्रद, स्नेहद विगेरे ) कार्यो स्थिर योगमा कराय जे." ५५. हवे यमल तथा त्रिपुष्कर योग कहे जे.यमलाख्यो छिपादर्दै त्रिपादर्दे त्रिपुष्करः । जीवारशनिवारेषु योगो जमातिथौ स्मृतः ॥५६॥ अर्थ-गुरु, मंगळ अने शनिवारे बीज, सातम के बारश होय अने जो धिपाद नक्षत्र एटले मृगशिर, चित्रा अने धनिष्ठा होय तो ते दिवसे यमल नामे योग कहेवाय वे. तथा ते ज तिथि वारने विपे त्रिपाद नक्षत्र एटले कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफागुनी, विशाखा, उत्तरापाढा बने पूर्वानापद होय तो त्रिपुष्कर नामनो योग कहेवाय . ५६. हवे पंचक कहे .प के वासवान्त्यार्धात्तृणकाष्ठगृहोद्यमान् । य न्यदिग्गमनं शय्यां मृतकार्य च वर्जयेत् ॥७॥ अर्थ-धनिष्ठाना पश्चार्धथी एटले वे पाया गया पजी रेवतीना अंत सुधी पंचक कहेवाय . तेमां तृण, काष्ठ, गृहारंन, दक्षिण दिशामां गमन, नवी शव्या ( पलंगविगेरे) तथा प्रेत कार्य वयं कहेलां बे. ते विषे व्यवहारसारमां कडं डे के - "धनिष्ठा धननाशाय प्राणघ्नी शततारका । पूर्वायां दंमयेाजा उत्तरा मरणं ध्रुवम् ॥१॥ अग्निदाहश्च रेवत्यामित्येतत्पंचके फलम् ।” १ नारचंद्रमां गुरुवारने स्थाने रविवार कहेल छे. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ धनिष्ठामां कार्य करवाथी धननो नाश थाय, शततारकामां करवाथी प्राणनो नाश धाय, पूर्वाजाsपदमां करवाथी राजदंक थाय, उत्तराभाद्रपदमां करवाथी निश्चे मरण थाय, छाने रेवती मां करवाथी अग्निदाह थाय. ए प्रमाणे पंचकनुं फळ जाणवुं. उपर मृतकार्य करवानो निषेध कर्यो बे, परंतु कोइ अकस्मात् पंचकमां ज मरण पामे तो ते मृतकना हाथ पग बेदीने बांधवा एम लल्ले कह्युं बे, पण गरुम पुराणमां तेने दहन करवानो विधि प्रमाणे कह्यो बे -दर्जनां चार पूतळां करीने शबनी साथे राखवां, पी ते शबनी साथे ज पूतळां पण बाळवां. एम न करे तो पुत्र अथवा बीश सगोत्रीनो नाश थाय. ५७. ४४ पंचक विषे मतांतर कहे बे. - --- पञ्चकं श्रवणादीनि पञ्च ऋक्षाणि निर्दिशेत् । केचित्पुनर्धनिष्ठादिपञ्चकं पञ्चकं विदुः ॥ ५८ ॥ अर्थ - श्रवणी रंजीने पांच नक्षत्र सुधी पंचक कहेवुं तथा कोइक श्राचार्य धनिष्ठायी श्ररंजी ने पांच नक्षत्रने पंचक कहे बे. ( सर्वेना मतमां रेवतीने ते पंचक (समाप्त था . ) नारचंड ग्रंथमां श्रवण अने रेवतीमां सर्व दिशाए गमन करवानी अनुमति पीने दक्षिण दिशामां पण गमन करवानुं स्वीकार्य बे. ते या प्रमाणे. - “सर्वदिग्गमने हस्तः श्रवणं रेवतीऽयम् । मृगः पुष्यश्च सिद्ध्यै स्युः कालेषु निखिलेष्वपि ॥ १ ॥” "हस्त, श्रवण, रेवतीय एटले रेवती ने अश्विनी, मृगशिर तथा पुष्य श्राटलां नक्षत्र सर्व काळे सर्व दिशामां गमन करवाने लायक वे अर्थात् सिद्धि पनारांबे. "५०. यमल, त्रिपुष्कर ने पंचक, एवां नामो सार्थक वे एटले के नाम प्रमाणे फळदायक बे. ते कहे बे. - दानिवृयादिकं सर्वं योगे स्याद्यमले द्विशः । त्रिशस्त्रिपुष्कराख्ये तु पञ्चशः पञ्चकेऽपिच ॥ ५० ॥ अर्थ- — यमल योगमां करेलुं हानि वृद्धिवालुं सर्व कार्य बमणुं थाय बे, त्रिपुष्कर योगमां करवाथी ऋण गणुं थाय बे ने पंचकमां करवाथी पांच गणुं थाय बे, तेथी या योगोमां इष्ट कार्य करवा लायक बे, अनिष्ट कार्य करवा लायक नथी ए श्रानो अप्रिय बे. एए. हवे गंगांत योग कहे बे. - गंमान्तं च त्यजेत्रेधा लग्न ४-८-१२ तिथ्यु ५-१०-१५ - डुषु ए-८-२७ त्रिषु । प्रत्येकं त्रित्रिभागांतर बैंक द्विघटी मितम् ॥ ६० ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अक्षम विदर्शः॥ અપ अर्थ-लग्न गंमांत, तिथि गंमांत शने नत्र गंमांत ए ऋ नकारनो गकांत योग सर्व शुन्न कार्यमां तजवा योग्य वे. ते त्रणे प्रकारनो गंमांत पोतपोताने वीजे बीजे नागे अनुक्रमे अर्ध घमी, एक घमी अने वे घमीना प्रमाणवाळो . एटले के लग्न (राशि) वार ने तेने त्रीजे त्रीजे नागे चोथु कर्क, वाग्मुं वृश्चिक अने बारमुं लग्न मीन यावे. तेमां कर्कनी बेक्षी पंदर पळ तथा सिंह लग्ननी प्रथमनी पंदर पळ ए बन्ने मळी त्रीश पळ एटले अर्ध घमी गंमांत योग थाय . ए रीते वृश्चिकनी बेसी पंदर श्रने धननी पहेली पंदर पळ तथा मीननी बेबी पंदर श्रने मेषनी पहेली पंदर पळ गंमांत योग जाणवो. या खग्न गंमांत कहेवाय तिथिपंदर , तेनोत्रीजोत्रीजोनाग गणतां पांचम, दशम अने पूनम श्रावे . तेमां पांचमनी बेबी अर्ध घमी अने बन्नी पहेली थर्ध घमी मळीने एक घमीनो गंमांत योग जाणवो. ए रीते दशमनी बेझी अर्ध घमी श्रने अग्यारशनी पहेली अर्ध घमी तथा पूनमनी जेसी अर्ध घमी श्रने पमवानी पहेली अर्ध घमी गंमांत योग जाणवो. या तिथि गंमांत कहेवाय . नक्षत्र सत्यावीश , तेनो त्रीजो त्रीजो नाग गणतां नवमुं शश्लेषा, श्रढारमुं ज्येष्ठा अने सत्यावीशमुं रेवती ने, तेथी अश्लेषानी लेखी एक घमी अने मघानी पहेली एक घमीने गंमांत योग जाणवो. ए ज रीते ज्येष्ठानी नेली घी अने मूळनी पहेली घमी तथा रेवतीनी लेझी धमी अने अश्विनीनी पहेली घमी एम बबे घमीनो गंमांत योग जाणवो. श्रा नक्षत्र गंगांत योग कहेवाय जे. जन्म, गर्जाधान, यात्रा, विवाह, व्रत, गृहनो आरंज तथा प्रवेश, श्रने दौर विगेरे सर्व कार्यमां आ योग अशुल कहेलो . ६०. "श्रा त्रणे गंमांत उपर कह्याथी बमणा बमणा प्रमाणवाळा " एम श्रीपति कहे . सारंग कहे जे के-"नक्षत्र गंमांत आठ घमीनो ." केशवार्क कहे जे के-"नक्षत्र गंमांतनी जरीते विष्फलादिक सत्यावीश योगने मध्ये रहेलो गंमांत पण पांच पांच घमीनो ." ____ गंमांत योगनुं फळ नीचे प्रमाणे कडं वे.| "नक्षत्रो मातरं हन्ति तिथिजः पितरं तथा । । खग्नस्थो बालकं हन्ति गंमान्तो वालदूषकः ॥ १॥" "बाळकनो जन्म नक्षत्र गंमांतमां थयो होय तो ते माताने हणे , तिथि गंमांतमां थयो होय तो पेताने हणे , अने खग्न गंमांतमां थयो होय तो ते वाळकनो ज हणनार थाय . "जातो न जीवति नरो मातुरपथ्यो नवेत्स्वकुलहन्ता । यदि जीवति गंगान्ते बहुगजतुरगो नवेद्भूपः ॥ १॥" "गंमांतमा जन्मेखो मनुष्य जीवतो नथी अने माताने अहितकारक तथा पोताना Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ ॥ प्रारंभसिद्धि ॥ कुळनो नाश करनार थाय बे, परंतु जो कदाच ते वाळक जीवे तो घणा हाथी घोमावाळो राजा थाय छे." “नहं न लनइ इत्थ अहिदको न जीवई । मई पाय पत्थिर्ज न नित्तई ॥ १ ॥ " “गंगांतमां खोवायेली वस्तु पाठी श्रावती नथी, सर्पदंश थयो होय तो ते मनुष्य जीवे नहीं, जन्मेलुं बाळक पण प्राये मरण पामे बे; तथा तेमां प्रयाण कर्य होय तो ते पण प्राये पाबो श्रावतो नथी." विवाह वृंदावनमां संधि नामनो पण दोष कह्यो बे. ते या प्रमाणे."नक्षत्रयोग तिथिसंधिषु नामिकैका तिथ्यष्टविंशतिपलैः सहितोजयत्र" । " सर्वे नक्षत्र, योग अने तिथिनी संधिने विषे बन्ने बाजु अनुक्रमे एक घमी उपर पंदर, आठ ने वीश पळ सहित एक एक घमी संधिदोष कहेवाय बे एटले के नक्षत्रोनी संधिमा पहेला नक्षत्रना अंतनी एक घमी छाने पंदर पळ तथा पबीना नक्षत्रनी आरंजनी एक घमी ने पंदर पळ मळी कुल छाढी घमीनो संधिदोष कदेवाय बे.. ए.. रीते वे योगनी संधिमां पूर्व योगना अंतनी एक घर्मी ने श्रावपळ तथा पीना योगनी पण खरंजनी एक धर्मी अने व पळ मळी वे घर्मी अने सोळ पळ संधिदोष कवाय बे.. ए रीते वे तिथिनी संधिमां पूर्व तिथिनी अंतनी एक घमी छाने वीश पळ तथा पबीनी तिथिनी रंजनी एक घमी ने वीश पळ मळी बे घमी ने चाळीश पळनो संधिदोष कदेवाय बे. या संधिदोष मांगलिक कार्यमां तजवा योग्य बे.” संधिदोष विषे विक्रमनो मतांतर या प्रमाणे वे. “नक्षत्रराश्यो रविसंक्रमे स्यु, -रर्वाक् परत्रापि रसेन्दु १६ नाड्य | एका घी षट्पलसंयुतेन्दो - र्नाड्यश्चतस्रः सपचाः कुजस्य ॥ १ ॥ बुधस्य तिस्रो मनवः १४ पलानि, सार्धाश्चतस्रः पलसप्त जीवे । यशीतिनाढ्यः पलसप्त शौरेः, शुक्रस्य देयाः सपलाश्चतस्रः ॥ ॥” नक्षत्र अथवा राशिने श्रश्रीने सूर्यनुं संक्रमण होय एटले एक नक्षत्रर्थ वीजा नहमां थवा एक राशिथी बीजी राशिमां सूर्यनुं संक्रमण होय तो पूर्व नक्षत्र अथवा राशिनी तनी सोळ घर्मी तथा पबीना नक्षत्र अथवा राशिनी प्रारंभनी सोळ घमीने संधि नामनो दोष कहे बे. ए रीते चंद्रना संक्रमणमां एक एक घमी छाब ब पळ, मंगळना संक्रमणमा चार चार घमी ने एक एक पळ, बुधना संक्रमणमां त्रप त्रण घमी छाने चौद चौद पळ, गुरुना संक्रमणमां सामी चार चार घमी ने सात सात पळ, शनिना संक्रमणमा ब्याशी ब्याशी घमी ने सात सात पळ ने शुक्रनी संक्रांतिमां Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ चार चार घमी अने एक एक पळ सुधी संधिदोप कहेवाय बे. श्रा दोप पण सर्व शुन कार्यमां वज्ये . हवे वज्रपात योग विषे कहे .-- वज्रपातं त्यजेवित्रिपञ्चषट्रसप्तमे तिथौ । मैत्रे २ ऽथ त्र्युत्तरे ३ पैत्र्ये ५ ब्राह्मे ६ मूलकरे क्रमात् ॥६॥ अर्थ-बीजने दिवसे मैत्र (अनुराधा ) होय, त्रीजने दिवसे त्रण उत्तरा एटले उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा के उत्तरानापद होय, पांचमने दिवसे पैच्य (मघा) होय, बच्ने दिवसे ब्राह्म (रोहिणी ) होय, अने सातमने दिवसे मूळ के हस्त होय तो वज्रपात नामनो योग थाय . ते शुन्न कार्यमा तजवा लायक जे. ६१. ___ "वज्रपात योगमां कार्य कर्यु होय तो उ मासमां कार्यकर्तार्नु मरण थाय " एम हर्षप्रकाशमां कडं बे. वळी "तेरशने दिवसे चित्रा के स्वाति नक्षत्र होय तोपण वज्रपात योग थाय ने” एम नारचंजनी टिप्पणीमां कडं . वळी "सातम ने नरणी, नोम ने पुष्य तथा दशम ने अश्लेषा होय ते पण तजवा योग्य " एम कडं बे. वळी नारचंपनी टिप्पणीमां काळमुखी नामनो योग था प्रमाणे कह्यो . "चज रुत्तर पंच मघा कत्तिथ नवमी तश्च अणुराहा। अमि रोहिणिसहिया कालमुही जोगि मास बगि मच्चू ॥१॥" "चोथने दिवसे त्रण उत्तरा होय, पांचम ने मघा होय, नोम ने कृत्तिका, त्रीज ने अनुराधा तथा प्राधम ने रोहिणी होय, तो ते काळमुखी नामनो योग कहेवाय जे. आ योगमां कार्य करे तो उ मासे कानुं मरण थाय.” । दिनशुद्धि ग्रंथमां नत्र मृत्युयोग या प्रमाणे कहेल ."मूलद्दसाइचित्ताअसेसस्यन्निसयकत्तिरेवश्था । नंदाए नहाए जद्दवया फग्गुणी दो दो ॥ १॥ विजयाए मिगसवणापुस्सऽसिणिजरणिजिक रित्ताए। आसाढमुग विसाहा अणुराह पुणवसु महा य ॥२॥ पुन्ना कर धणिचा रोहिणि श्यमयगऽवत्यनरकत्ता । नंदिपश्चापमुहे सुहको वजए मश्मं ॥ ३॥" ___ "नंदा तिथिए एटले पमबो, अने अग्यारशे मूल, श्रा, स्वाति, चित्रा, अश्लेषा, शतनिपक्, कृत्तिका अने रेवती होय, ला एटले बीज, सातम अने बारशे पूर्वानाप्रपद, उत्तरानाप्रपद, पूर्वाफाल्गुनी अने उत्तराफागुनी होय, विजया एटले त्रीज, आठम अने तेरशे मृगशिर, श्रवण, पुष्य, अश्विनी, नरणी अने ज्येष्ठा होय, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ॥ आरंभ सिद्धि || रिक्ता एटले चोथ, नोम ने चौदशे पूर्वापाढा, उत्तराषाढा, विशाखा, अनुराधा, पुनसुने मघा होय, तथा पूर्णा एटले पांचम, दशम ने पूर्णिमाए दस्त, धनिष्ठा ने रोहिणी नक्षत्र होय तो ए मृतक अवस्था नक्षत्र कहेवाय बे, माटे नंदि प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यमा बुद्धिवान पुरुषोए तजवा योग्य बे." तथा अबला नामे योग या प्रमाणे थाय बे. - “ कत्तिपनिई चउरो सपि बुहि ससि सूर वार जुत्तकमा । पंचमि बि एगारसि बारसि वला सुहे कओ ॥ १ ॥ " "कृत्तिका आदि चार एटले कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिर अने आर्षा नक्षत्र शनि, बुध, सोम ने रविवारे अनुक्रमे होय, तथा ते दिवसे अनुक्रमे पांचम, बीज, अग्यारश छाने बारश होय तो छावला नामनो योग थाय बे. या योग सर्व कार्यमा अशुन बे." पाकश्री ग्रंथमां ऋतुने श्रीने शुभ तथा अशुभ योग या प्रमाणे बे. - " कत्ति न मग्गसिरे वि ा पंचमि गुरुवार पुण्वसू चेवं । सुहाति सरए श्रद्दा दसमी कुजे सुहा ॥ १ ॥” "कार्तिक ने मार्गशीर्ष मासमां पांचम, गुरुवार ने पुनर्वसु ए त्रणे एक दिवसे होय तो ते दिवसे शुभ योग कहेवाय बे. तथा शरद् ऋतुमां ( कार्तिक तथा मार्गशीर्ष मासमां ) श्रार्षा, दशम अने मंगळवार ए त्रणे एक ज दिवसे होय तो ते अशुभ योग जावो. १.” " पोसे माहे बडी निगुत्तराफग्गु का कक्करा । सुहइगारसि गुरुणा फग्गुणि पुत्रा य हेमंते ॥ २ ॥ " "पोष तथा माघ मासमां बघ, शुक्रवार ने उत्तराफाल्गुनी एक ज दिवसे होय तो ते दिवसे कार्यनी सिद्धि थाय बे अर्थात् शुन बे तथा हेमंत ऋतुमां ( पोप अने माघमा ) ग्यारस, गुरुवार ने पूर्वाफागुनी एक ज दिवसे होय तो ते शुज बे. २.” " फग्गुण चित्ते मासे तेरसि सफला विसाह बुदवारो । बारस के साइ वसंतकाले विवजिका ॥ ३ ॥" "फाल्गुन तथा चैत्र मासमां तेरश, विशाखा ने बुधवार एक ज दिवसे होय तो ते सफळ ( शुभ ) बे. तथा वसंतकाळे ( फागण ने चैत्रमां ) वारश, शुक्र छाने स्वाति एक ज दिवसे होय तो ते वर्ज्य बे. ३” "वसाह जि सूरो परिवय मूलो छ उत्तराफग्गू । सुह म्हि सुह तेरसि सविारे सवणनरकत्तं ॥ ४ ॥ " १ अहीं मासनी गणतरी पूनमीया महीना प्रमाणे करवी. एटले के कार्तिक मास गुजराती प्रमाणे लेवो होय तो आश्विन वद तथा कार्तिक शुद्ध जाणवो. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए ॥प्रथमो विमर्शः॥ "वैशाख तथा ज्येष्ठ मासमां रविवार, पम्वो अने मूळ के उत्तराफागुनी एक ज दिवसे होय तो ते शुज . तथा ग्रीष्म ऋतुमां (वैशाख तथा ज्येष्ठमां) तेरश, शनिवार अने श्रवण नक्षत्र एक ज दिवसे होय तो ते अशुन . ४." "श्रासाढ सावण विश्रा उत्तरत्नद्दवय चंददिण सुह । पाउसि असुहो उ बुहो चउदसि पुवा य नद्दवया ॥ ५॥" "श्राषाढ तथा श्रावण मासमां बीज, उत्तरानाप्रपद अने सोमवार एक ज दिवसे होय तो ते शुज . तथा प्रावृडू ऋतुमां (आषाढ तथा श्रावणमां) बुधवार, चौदश अने पूर्वालाप्रपद एक ज दिवसे होय तो ते अशुन जाणवो. ५." "जद्द व श्रासो मासे सत्तमि सणिवार रोहिणी सफला । वासारते असुहा रवि कत्तिथ पुन्नमासी अ ॥ ६॥" "नादरवा तथा आशो मासमां सातम, शनिवार अने रोहिणी एक ज दिवसे होय तो ते सफळ (शुल) . तथा वर्षा ऋतुमां रविवार, कृत्तिका अने पूर्णिमा एक ज दिवसे होय तो ते अशुल . ६." श्रा बए गाथामां ऋतु अने मासना नाममा विपर्यय बे, कारण के नाममाळा विगेरे ग्रंथोमां आश्विन अने कार्तिक विगेरे बबे मासनी शरद् विगेरे ऋतु कही जे अने अहीं तो कार्तिक अने मार्गशीर्ष विगेरे बबे मासनी ऋतुओ कही . तथा श्रा गाथाश्रोमां शिशिर ऋतु बिलकुल लीधी ज नयी अने वर्षा ऋतु तथा प्रावृडू ऋतु एक ज उतांबे जूदी जूदी लश्ने उ ऋतुनां नाम पूरा का बे. श्रा सर्व विपर्यास ते ग्रंथकर्ताए ज करेखो ठे, माटे तेमनो एवो ज मत हशे एम जणाय बे. हवे मूळ ग्रंथकार रवि योग कहे .योगो रवेर्लात्कृत ४ तर्क ६ नन्द ए, दिग् १० विश्वविंशोशण्डुषु सर्व सिध्यै। आये १ जिया ५श्वहिप न्रु१९सारी १५,राजो१६डुषुप्राणदरस्तु हेयः६१ अर्थ-सूर्यनुं जे नत्र चालतुं होय ते नात्रथी गणतां ते दिवसनुं नक्षत्र जो चोद्यु होय तो चोथो रवि योग जाणवो. हुं होय तो उसो रवि योग, नवमुंहोय तो नवमो, दशमुं होय तो दशमो, तेरमुं होय तो तेरमो अने वीशमुं होय तो वीशमो रवि योग जाणवो. श्राटला रवि योग सर्व सिद्धिकारक बे, एटले के आ योगने दिवसे करेलु कार्य सिख श्राय के; परंतु सूर्यना नदनथी ते दिवसर्नु नत्र पहेलु, पांचमुं, सातमुं, बाग्मुं, अग्यारमुं, पंदर के सोळमुं होय तो ते योग प्राणने हरण करनारो ने तेथी ते सर्व कार्यमां तजवा योग्य वे. ६२. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ॥आरंजसिद्धि॥ श्रा रवि योग विपे हर्षप्रकाशमां कांटे के."एआण फलं करसो विउलं सुरकं । जयं च सत्तू ६। __ लानं ए च कहासिद्धी १० पुत्तुप्पत्ती १३ अ रङ २० च ॥१॥" “श्रा रवि योगनुं फळ अनुक्रमे था प्रमाणे जे.-चोथा रवि योगे कार्य करवाथी घj सुख थाय ने, बछे होय तो शत्रुने जीताय , नवमे लाल थाय बे, दशमे कार्यसिद्धि थाय ने, तेरमे पुत्रनी उत्पत्ति थाय ने अने वीशमे राज्य मळे बे.” शुद्ध खनन जेवं बळ होय , तेवू बळ आ रवियोगर्नु होय जे. एम यतिवनजमां का . वळी कडं ले के "इक्कस्स नए पंचाणणस्स नऊंति गयघमसहस्सा। तह रविजोग पणछा गयणम्मि गहा न दीसंति ॥१॥" “एक सिंहना जयथी सहस्र हाथीनो समूह नासी जाय जे, तेम रवि योगथी नाश पामेला ग्रहो आकाशमां देखाता नथी अर्थात् जो रवि योग सारो बळवान् होय तो बीजा कुयोगो नासी जाय ." "रविजोग राजजोगे कुमारजोगे असुख दिअहे वि। जं सुहकडी कीर तं सवं बहुफलं हो ॥१॥" "अशुज दिवसे पण जो रवियोग, राज योग के कुमार योग होय अनेते दिवसे जे शुज कार्य कर्यु होय ते सर्व कार्य वढु फळदायक थाय बे." श्रा रवि योगमां अजिजित् नत्र गणेलुं नथी, कारण के ग्रंथांतरोमां सत्यावीश रवि योगोनुं ज फळ कहेलुं वे. या योगमां वीजो, त्रीजो, वारमो, सत्तरमो, वीशमो अने सत्यावीशमो, आटला रवि योग विपे कांई कर्वा नथी तथा तेनों निषेध पण कर्यो नथी, तेथी तेटला योगो मध्यम जाणवा. वाकीना रवि योगोनुं शुनाशुनपणुं अहीं पण केटखाकनुं साक्षात् कह्यु , अने केटलाकनुं फळ उपग्रहपणाए करीने हमषां ज कहेशे. हवे सत्यावीश रवि योगोनी मध्ये जेमनी उपग्रह संझा , ते कहे .नोपग्रहास्तु जूत्यै नूता५डि फणीन्छ १४ तिथि १५धृति रन् युगले १ए। रविनात्तथैकविंशादिषु पञ्चसु२१-२२-२३-२४-२५ चरति नेविन्दौ ॥३॥ अर्थ-सूर्यना नक्षत्रयी चंजनुं ( ते दिवसर्नु ) नक्षत्र पांचमुं, सातमुं, श्रापमुं, चौदमुं, पंदरमुं, अढारमुं, ओगणीशमुं, एकवीशमुं, बावीशमुं, त्रेवीशमुं, चोवीशमुं के पचीशर्मु होय तो ते नक्षत्र उपग्रह कहेवाय . श्रा बार उपग्रहो बाबा ने माटे नयी अर्थात् अशुल . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ ५१ श्रा वार उपग्रहोमांना आउनी संज्ञा तथा तेमनुं विवाहादिक कार्यमा जे फळ श्राय ते नारचंजमां आ प्रमाणे कडं .“विद्युन्मुख १ शुला २ शनि केतू । हका ५ वज्र ६ कंप ७ निर्घाताः ।। ड एज ढ १४ द १० ध १एफ २२ व २३ न २४ संख्ये रविपुरत उपग्रहा धिष्ण्ये॥१॥ फलमंगज १ पतिमरणे २ दशमदिनान्तस्तथाऽशनि निपातः३।। सानुजपति । धननाशौ ५ दौःशीट्यं ६ स्थान ७ कुलघातौ ॥२॥" “पांचमा उपग्रहy नाम विद्युन्मुख , अाउमानुं शूल नाम , चौदमार्नु अशनि, अढारमानुं केतु, ओगणीशमार्नु उस्का, बावीशमानुं वज्र, त्रेवीशमानुं कंप अने चोवीशमा उपग्रहनुं नाम निर्घात के (१). विद्युन्मुखमां विवाहादिक कार्य करवाश्री पुत्रनुं मरण थाय, शूलमां करवाथी पतिनुं मरण थाय, अशनिमां करवायी दश दिवसनी अंदर वज्रपात थाय, केतुमां करवाथी नाना ना सहित पतिनो नाश थाय, उहकामां करवाथी धननो नाश थाय, वज्रमा करवाथी सुशीलपणुं थाय, कंपमां करवायी स्थाननो नाश थाय अने निर्यातमा करवाथी कुळनो घात ( नाश) थाय." बाकीना चार उपग्रहो सामान्य रीते अनिष्ट फळने आपनारा बे. एकाशी पद नामना वेधचक्रादिकमां पण या रीते ज उपग्रहोगें फळ जाणवू. हवे प्रसंगोपात्त आम्ल नामनो योग कहे . तेमां अनिजित् नक्षत्र गणवानुं जे. एटले के श्रठ्यावीश नक्षत्रोनी गणतरीए जाणवो. "6ि हया के एन्छ १४ जूपै १६ क २१ त्र्य २३ ष्टयुग्विंशति २०प्रमे । सूर्यलाञ्चन्मने स्यादामलस्त्याज्यः सदा बुधैः ॥१॥" "सूर्यना नत्रयी चंपनुं नक्षत्र जो बीजे, सातमे, नवमे, चौदमे, सोळमे, एकवीशमे, त्रेवीशमे के अठ्यावीशमे होय तो ते श्रामल योग कहेवाय बे. या योग शुन कार्यमां माह्या माणसे से त्याग करवा खायक जे. "मलो यात्रासु रोधकृत" या चोथं पाद प्रत्यंतरमां बे. तेनो अर्थ ए के-“श्रा आम्ल योग यात्राने विष रोध करनार ." श्रामक्ष योग जाणवानो सहेलो उपाय नरपतिजयचर्यामां आ प्रमाणे कह्यो . "सूर्यनाजुणयेन्दोर्न सप्तनिर्जागमाहर। शून्यं धौ वा न शेषौ चेदाम्लो नास्ति निश्चितम् ॥ १॥" "सूर्यना नदत्रयी चंजनुं नत्र गणq. पठी तेने साते नाग खेवो. तेमां जो शून्य अथवा बे शेष न रहे तो आमल योग नथी एम निश्चे जाणवू अर्थात् जो शून्य के बे शेष रहे तो अवश्य आमत योग होय .". Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ॥ आरंसिधि॥ (श्रा आमस योग प्राये उत्तर दिशामा विशेष उपयोगी बे.) आ उपरथी ए सिघ ययुं के नवमो रवियोग (शुन ले तोपण) यात्रादिकमां सारो नथी. हवे दररोज थनारा आनंदादिक उपयोगो कहे .उपयोगास्त्वश्वि १ मृगा २रलेषा३कर मैत्र ५ वैश्व ६ वारुणतः । ख्यादिषु तदिनप्रमिताः क्रमतोऽनिधानफलाः ॥ ६ ॥ अर्थ-रविवारे अश्विनी नक्षत्रथी गणतां ते दिवसे ( रविवारे ) जेटलामुं नक्षत्र हाय तेटलामो उपयोग ते दिवसे ने एम जाणवू. सोमवारे मृगशिरथी गणवू, मंगळवारे अश्लेषाथी, बुधवारे हस्तथी, गुरुवारे अनुराधाथी, शुक्रवारे उत्तराषाढाथी अने शनिवारे शतनिषकथी गणq. ते रीते गणतां ते दिवसनुं जेटलामुं नदत्र होय तेटलामो उपयोग ते दिवसे जाणवो. अहीं अनिजित् नत्र गणवानुं बे. ते उपयोगोनां नाम प्रमाणे तेमनुं फळ जाणवू. ते उपयोगोनां नामो या प्रमाणे बे. थानन्दः १ कालदमश्च २ प्राजापत्यः ३ सुरोत्तमः ।। सौम्यो ५ ध्वांदो ६ ध्वजश्चैव ७ श्रीवत्सो वज्र ए मुझरौ १०॥६५॥ उत्रं ११ मित्रं १५ मनोज्ञश्च १३ कंपो १४ बुंपक १५ एव च । प्रवासो १६ मरणं १७ व्याधिः १० सिद्धिः १ए शूला० मृतौरतथा ॥६६॥ मुसलो २२ गज २३ मातंगौ २४ राक्षसोऽथ २५ चरः५६ स्थिरः २७ । वर्धमानश्चेति नाम्ना स्युरष्टाविंशतिः क्रमात् ॥ ६७ ॥ अर्थ-यानंद, कालदंम, प्राजापत्य, सुरोसम, सौम्य, ध्वांद, ध्वज, श्रीवत्स, वज्र, मुद्गर, बत्र, मित्र, मनोज्ञ, कंप, लुंपक, प्रवास, मरण, व्याधि, सिधि, शूल, अमृत, मुसळ, गज, मातंग, राक्स, चर, स्थिर तथा वर्धमान, श्रा अठ्यावीश उपयोगोनां अनुक्रमे नाम जाणवां. __ आनंदादिक योगर्नु कोष्टक. योगनाम | रवि । सोम | मंगळ । बुध | गुरु । शुक्र । शनि १ आनंद अश्विनी मृगशीर्ष अश्लेषा | हस्त अनुराधा उत्तराषाढा शतनिषा २ काळदंग | नरणी | थानों | मघा चित्रा ज्येष्ठा अन्निजित् पूर्वाना ३ प्राजापत्य कृत्तिका पुनर्वसु पूर्वाफा स्वाति / मूळ | श्रवण उत्तराना ४ सुरोत्तम | रोहिणी पुष्य नत्तराफा विशाखा पूर्वाषाढा धनिष्ठा । रेवती Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगनाम ए सौम्य ६ ध्वांक ७ ध्वज वुध गुरु शुक्र शनि हस्त मघा चित्रा अनुराधा उत्तराषाढा शतनिपा अश्विनी ज्येष्ठा श्रभिजित् पूर्वाजा० नरणी श्रवण उत्तराजा० कृत्तिका धनिष्ठा रेवती रोहिणी मूळ श्रीवत्स पुष्य पुनर्वसु पूर्वाफा० स्वाति उत्तराफा० विशाखा पूर्वाषाढा अश्लेषा हस्त अनुराधा उत्तराषा० शतनिषा अश्विनी मृगशीर्ष चित्रा ज्येष्ठा अभिजित् पूर्वाजा० जरणी आ स्वाति मूळ श्रवण उत्तराजा० कृत्तिका पुनर्वसु विशाखा पूर्वाषाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य अनुराधा उत्तराषाढा शतभिषा अश्विनी मृगशीर्ष अश्लेषा ज्येष्ठा अभिजित् पूर्वाजा० | नरणी मूळ श्रवण उत्तराजा कृत्तिक विशाखा पूर्वाषाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी अनुराधा उत्तराषाढा शतभिषा अश्विनी ज्येष्ठा अभिजित् पूर्वाभाष० चरणी मूळ श्रवण उत्तराजा० कृत्तिका पूर्वाषाढा धनिष्ठा रेवती | रोहिणी २१ अमृत उत्तराषाढा शतभिषा अश्विनी मृगशीर्ष अश्लेषा २२ मुसळ अजिजित् पूर्वाना० हस्त चित्रा स्वांति १७ मरण मृगशीर्ष अश्लेषा १० व्याधि १७ सिद्धि २० शूळ पुष्य जरी श्रवण २३ गज स्वाति उत्तराजा० कृत्तिका २४ मातंग धनिष्ठा रेवती रोहिणी २५ राक्षस शतजिपा अश्विनी मृगशीर्ष २६ चर पूर्वाना मरण आ 29 स्थिर उत्तराजा० कृत्तिका २० वर्धमान रेवती | रोहिणी मघा श्रवण हस्त अनुराधा उत्तराषा० चित्रा ज्येष्ठा निजित् पुनर्वसु पूर्वाफा० स्वाति मूळ पुष्य उत्तराफा०| विशाखा | पूर्वाषाढा | धनिष्ठा योगोनुं फळ तेमनां नामवरे ज जणाय तेवुं बे तेथी जूडु कहेता नथी. केटलाक आचार्य प्राजापत्य, सुरोत्तम, मनोज्ञ, कंप, लुंपक, प्रवास, मरण, व्याधि, शूळ अने ने गज, ए दश योगने स्थाने अनुक्रमे धूम्र, प्रजापति, मानस, पद्म, लंबक, उत्पात, मृत्यु, काण, शुज ने गद, एवां नामो पण कहे . आ उपयोगो विष्कंजादिक दररोजना योगोनी साथे ज सर्वदा रहेला होवाथी सार्थक नामवाळा बे. ए वज्र १० मुद्गर मूघा ११ छत्र पूर्वाफा० १२ मित्र उत्तराफा० १३ मनोज्ञ १४ कंप १५ लुंपक १६ प्रवास रवि सोम मृगशीर्ष अश्लेषा ॥ प्रथमो विमर्शः ॥ मंगळ ० श्रा पुनर्वसु पुष्य अम्लेपा श्र पुनर्वसु ५३ - ed कुयोगोने विषे अपवाद कहे बेयत्प्रातिकूल्यं वाराणां तिथिनक्षत्रसंभवम् । हृपवंगखसेष्वेव तत्त्यजेदिति केचन ॥ ६८ ॥ आ मघा पुनर्वसु पूर्वाफा पुष्य उत्तराफाο हस्त मघा चित्रा पूर्वाफा० स्वाति उत्तराफा० विशाखा हस्त अनुराधा मघा० चित्रा ज्येष्ठा पूर्वाफा० मूळ उत्तर फा०] विशाखा पूर्वाषाढा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एU ॥श्रारंसिधि॥ अर्थ-संवर्तक अने कर्क विगेरे तिथिथी उत्पन्न थयेख तथा उत्पात, मृत्यु, काण श्रने उपयोगादिकने विपे नक्षत्रश्री उत्पन्न श्रयेल वारोनुं प्रतिकूळपणुं हूण देश, वंग देश अने खस देशमां ज त्याज्य के एम केटलाक कहे जे. तात्पर्य ए के खास धरुरीश्रात कार्य न होय तो बीजा देशोमां पण श्रा योगो वर्जवा योग्य . . हवे शुल अने अशुल योगना संकरमां शुल योगनुं प्रबळपणुं कहे जे. सिद्धियोगः कुयोगश्च जायेतां युगपद्यदि। कुयोगं तत्र निर्जित्य सिद्धियोगो विजृनते ॥ ६ ॥ अर्थ-जो कदाच एकी वखते सिद्धि योग अने कुयोग नेळा श्रया होय, तो तेमां कुयोगने जीतीने सिद्धि योग उल्लास पामे बे (प्रबळ थाय रे ). अहीं सिद्धि योग शब्दनो यौगिक अर्थ होवाथी सर्वे शुल योगो जाणवा. हवे दिवसना (दररोजना) विष्कंनादिक योगो कहे जे.विष्कंजः १ प्रीति ५ रायुष्मान् ३ सौजाग्यः ४ शोजन ५ स्तथा । अतिगंमः ६ सुकर्मा ७ च धृतिः शूलं ए तथैव च ॥ १० ॥ गंको १० वृद्धि ११ वुव १२ श्चैव व्याघातो १३ दर्षण १४ स्तथा । वनं १५ सिकि १६ यंतीपातो १७ वरीयान् १७ परिघः रए शिवः२० ॥७॥ सिकः १ साध्य शुनः २३ शुक्लो२४ ब्रह्मा २५ चैन्डो २६ऽथ वैधृतः। इति सान्वयनामानो योगाः स्युः सप्तविंशतिः॥ २॥ अर्थ-विष्कंन १, प्रीति २, आयुष्मान् ३, सौलाग्य ध, शोजन ५, अतिगंझ ६, सुकर्मा ७, धृति , शूख ए, गंमो १०, वृद्धि ११, ध्रुव १२, व्याघात १३, हर्पण १४, वज्र १५, सिधि १६, व्यतीपात १७, वरीयान् १७, परिघ १ए, शिव २०, सिद्ध २१, साध्य ३२, शुन्न २३, शुक्त श्व, ब्रह्मा २५, इंज २६ श्रने वैधृत २७. श्रा सत्यावीश योगो अन्वर्थ संज्ञावाळा एटले पोतपोतानां नाम प्रमाणे फळ श्रापनारा . श्रा योगोनां फळ माटे नारचंजनी टिप्पणीमां या प्रमाणे विशेष कह्यो .-- "विरकंल १ सूल २ गमे ३ अगमे ४ वङ ५ तह य वाग्याए ६। वधि ७ सूराश्कमा अश्वा मूलजोगा ॥१॥" "रविवारे विष्कल होय, सोमवारे शूळ होय, मंगळवारे गंग होय, बुधवारे अतिगंग होय, गुरुवारे वज्र होय, शुक्रवारे व्याघात होय अने शनिवारे वैधृति होय तो ते मूळ योगो अत्यंत दुष्ट .” Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ ५५ आ सत्यावीश योगोनी मध्ये जेटला मुष्ट योगो ने, तेमां पण जेटली पुष्ट धनी , ते कह - व्यतिपातवैधृताख्यौ सकलौ परिघस्य पूर्वम: च । प्रथमः पादोऽन्येष्वपि विरुषसंज्ञेषु हातव्यः ॥७३॥ अर्थ-व्यतीपात अने वैधृत नामना योगो समग्र (श्राखा ) तजवा खायक , परिघनो पहेलो अर्ध नाग त्याज्य बे, अने बाकीना विरुप (अशुन) नामवाळा योगोमां प्रथम पाद वर्जवा योग्य वे. या योगोनो अर्ध जाग तथा एक पाद पंचांगमां खखेली घमीउने अनुसारे समज़वा. विरुष्ट नामवाळा योगो विष्कल, गंम, अतिगंम, शूळ, व्याघात तथा वज्रपात जाणवा.. उपर जे प्रथम पाद वर्जवानुं कडं ने, तेमां बीजो प्रकार कहे .त्यजेछा पञ्च विष्कंन्ने षट् तु गंमातिगंगयोः। घटिकाः सप्त शूले तु नव व्याघातवज्रयोः ॥ ४ ॥ अर्थ-अथवा तो विष्कंन योगमां पहेली पांच घमी तजवी, गंग ने अतिर्गममां पहेली उ उ घमी, शूळमां प्रथमनी सात घमी अने व्याघात तथा वज्र योगमां प्रथमनी नव नव घमी वर्जवा योग्य . . विष्कनादिक मुष्ट योगोमां एकार्गलवेध नामना योगनी उत्पत्ति थाय ने ते कहे/जे. एकार्गलः कुयोगेषु चन्डे च परस्परात् । गते सानिजिदोजर्द त्याज्यः पादान्तरो न चेत् ॥५॥ अर्थ-मुष्ट योगने दिवसे अन्निजित् सहित अठ्यावीशे नक्षत्रोमांना विपम नत्रमा परस्पर (सामसामा) चंज अने सूर्य रह्या होय तो ते एकार्गल कहेवाय , ते तजवा योग्य केपरंतु जो एकार्गल योग पादनां श्रांतरावाळो न होय तोज तजवा लायक जे. ' था एकार्गल योग मुष्ट योगोमां थाय ने एम कर्तुं , माटे प्रीति, आयुष्मान् विगेटे शुन योगमां ते थतो ज नथी एम सूचवन कर्यु जे. कुयोग उतां पण श्रा योगनो संलव क्यारे थाय ? ते उपर चंज अने सूर्यनी स्थिति दावी . श्रहीं अनिजित् खखेलु होवाथी अठ्यावीश नक्षत्रो जाणवां. या प्रमाणे लत्ताना श्लोकमां पण समजवं. 'श्रा श्लोकनो समग्र नावार्थ श्रारीते जे.-आगल कहेवामां आवे ए रीते एकार्गख चक्र करी तेमां अनुक्रमे ठाठ्यावीश नत्रो लखवां, पगी जो चंषधी सूर्य अने सूर्य थी चंद्र एक बीजाश्री निलम नत्रे एक ज लीटीमा रहेला होय तो एकार्गल थाय के अने ते सर्व त्रण, पांच, सात, नव इत्यादि पकी नक्षत्र विषम कहेवाय छे. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥शारंलसिद्धि। कार्यमां तजवा योग्य , एटले के जे नक्षत्रमा एकार्गल पमेलो होय ते नक्षत्र शुल कार्यमां तजवा योग्य जे, परंतु सूर्ये तथा चं आक्रमण करेलां नक्षत्रोनां पादोनो आंतरोएटले परस्पर सन्मुख नहीं रहेवारूप विशेष न होय अर्थात् तेमनां पादो पासे पासे ज होय तो ते एकार्गस अवश्य वर्जवा योग्य ने अने पादना आंतरावाळो होय तो त्याग करवो वा न करवो. श्रा एकार्गल योगने ज स्थापनादिकना विधिए करीने विशेष प्रकारे कहे . तिर्यक्त्रयोदशो?करेखे खजूंरके त्यजेत् । कुयोगे शीर्षनादर्कचन्दावेकार्गलर्दगौ ॥ ६ ॥ अर्थ-तेर रेखा (लीटी) श्रामी अने एक रेखा उनी ए रीते खजुरीनुं वृक्ष कर. तेना मस्तक (शिखर) पर आगल कहेवामां श्रावशे ए रीते नक्षत्र मूकद् (खखq ). पली दक्षिण बाजुथी अनुक्रमे पीनां सत्यावीश नत्रो दरेक रेखाए मूकवां. परी एक रेखारूप अर्गलने मे रहेला बन्ने नत्रोने विषे जो चंज अने सूर्य रह्या होय तो ते एकार्गल कहेवाय . तेमां पण सन्मुख रहेखां बन्ने नत्रोनां बन्ने पादमां ते सूर्य चं रहेता होय तो ते आंतरा रहित एटले संपूर्ण एकार्गल थाय ने ते या प्रमाणे. "श्राद्येन विध्यते तुर्यो वितीयेन तृतीयकः। तृतीयेन द्वितीयस्तु तुर्येण प्रथमस्तथा ॥१॥" __ “पहेला पादवझे चोथा पादनो वेध थाय ने, वीजा पादवझे त्रीजा पादनो वेध थाय , त्रीजा पादवझे बीजा पादनो वेध थाय ने अने चोथा पादवमे पहेला पादनो वेध थाय ." चोयुं अने पहेलु तथा बीजुं अने त्रीजु पाद, ए परस्पर श्रांतरारहित कहेवाय ने एम समजq. आथी विपरीतपणे जो सूर्य चंज रह्या होय तो ते पादना आंतरावाळो कहेवाय अने तेथी ते दोषरहित जे. जेम को धनुर्धर निशानने विंधवा लाग्यो, हे वखते जो तेनी दृष्टि निशानथी जरा पण चूके तो ते निशान विंधातुं नथी. तेम वेध पण जो पादना अग्र नागथी भ्रष्ट थयो होय तो ते फळदायक नथी. ते विषे यतिवसनमां कह्यु बे के "बाणाग्रदृष्टिपाताद्यघवयं निनत्ति धानुष्कः। . तत्समदृष्टिगतो वेधो धिष्ण्यं प्रदूषयति ॥१॥" "जेम धनुषधारी वाणना अग्र नाग पर दृष्टि राखीने लक्ष्य ( निशान) ने विधे , तेम सम ( सरसी) दृष्टिमा रहेलो वेध नक्षत्रने दूषित करे .” (आ प्रमा नीजा वेधोमां पण जाणवू. ) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ हवे खजुरीना मस्तक पर कयुं नक्षत्र मूकद् तेनी रीत वसावे .. खर्जूरकस्य शीर्षर्दमानमेकार्गले मतम् । योगांकः सैक जोऽन्यः साष्टाविंशतिरम्तिः॥ ७॥ अर्थ-इष्ट दिवसे विष्कलादिक योगोमांनो जेटलामो योग होय ते जो विषम होय तो तेमां एक उमेरवो, अने सम होय तो तेमां अठ्यावीश उमेरवा. पळी ते बनेने अर्धा करवा. जे संख्या आवे ते संख्यावाळु (तेटलामुं) नक्षत्र खजुरीने मस्तके मूक. ए प्रमाणे खजुरीना मस्तकना नदत्रनुं प्रमाण एकार्गलमां कहेलु . एकागेल यंत्र पादवेध यंत्र चन्द्र मृगशीर्ष रवि । रवि रोहिणी -आदी कृत्तिका -पुनर्वसु भरणी -पुष्य अश्विनी -अश्लेषा रेवती -मघा उत्तराभा० -पूर्वाफा० पूर्वाभा० -उत्तराफा० शतभिषाधनिष्ठा -चित्रा श्रवण -स्वाति अभिजित् -विशाखा उत्तराषाढा - अनुराधा पूर्वापाढा -ज्येष्टा समजुती-इष्ट दिवसे शूळ योग नवमो बे, तेश्री तेमां एक वधारी दश कर्या, तेनो अर्ध करवाश्री पांच श्राव्या, तेथी पांचमुं नक्षत्र मृगशीर्ष ने भाटे ते नक्षत्र मस्तक पर आवे. एरीते इष्ट दिवसे गंम योग होय तो ते दशमो होवाथी तेमां अठ्यावीश उमेरी अर्ध करवाथी उंगणीश आवे , तेथी उगणीशमुं मूळ नक्षत्र मस्तक पर मूक. ए रीते वीजा कुयोगोमां पण जाणवू. मस्तकर्नु नत्र लाववा माटे लल कहेले के"शूले मूर्ध्नि मृगो मघा च परिघे चित्रा पुनर्वैधृते । व्याघाते च पुनर्वसू निगदितौ पुष्यश्च वजे स्मृतः। गंमे मूलमथाश्विनी प्रथमके मैत्रोऽतिगंमे तथा सार्पश्च व्यतिपात इन्तपनावेकार्गलस्थौ यदा॥१॥" आ०८ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ច ॥आरंनसिद्धि॥ - "जो शूळ योग होय तो मस्तक पर मृगशीर्ष नत्र यावे, परिघ योग होयतो मघा आवे, वैधृत होय तो चित्रा, व्याघात योग होय तो पुनर्वसु, वज योग होय तो पुष्य, गंझ होय तो मूळ, विष्कंन होय तो अश्विनी, अतिगंम होय तो अनुराधा अने व्यतिपात होय तोश्रश्लेषा नक्षत्र मस्तक पर ओवे. एप्रमाणे नक्षत्रो स्थापी पी चंज तथा सूर्य जे नक्षत्रना होयते नक्षत्र उपर स्थापवा. जो चं अने सूर्य एक अर्गलमांरहेला होय तो एकार्गल योग जाणवो.” __ हवे सात शलाकाना चक्रवमे वेध योग कहे .वेध ऊर्ध्वतिरः सप्तरेखे पूर्वादितोऽग्निनात् । नस्य रेखाग्रगे खेटे हेयश्चेन्न पदान्तरम् ॥ ७ ॥ अर्थ-उजी तथा आमी सात सात रेखाने विषे पूर्वादिक दिशाना क्रमे स्थापन करेसां कृत्तिकादिक नत्रश्री इष्ट दिवसना नक्षत्रनी रेखाना अग्र भागमा जे नक्षत्र मे तेमां कोई ग्रह होय तो वेध थाय . ते त्याग करवा लायक , पण जो पादनुं श्रांतरं न होय तो त्याग करवा लायक बे. एटले के-उजी तथा आमी सात सात रेखा करवी, पनी तेमने के पूर्वादिक दिशाना क्रमे कृत्तिकाथी श्रारंलीने सात सात नक्षत्रो (अनिजित् सहित ) स्थापवां. पी जे जे ग्रह जे जे नत्रमा होय, ते ते ग्रह ते ते नक्षत्रनी पासे मूकवो. पठी जे रेखाने मे श्ष्ट दिवस, नत्र श्राव्यु होय, ते रेखाने बीजे बेमे जो को ग्रह श्राव्यो होय तो ते ग्रहवमे ते श्ष्ट नत्रनो वेध थयो जाणवो. ते वेध त्याग करवा खायक , कारण के "क्रूर वेध होय तो मृत्यु ज थाय ने अने सौम्य वेध होय तो सर्वथा सुखनो नाश थाय ." आ वेधनो अपवाद कहे जे. जो ते वेध पूर्वनी रीते पादना शांतरावाळो होय तो त्याग करवो वा न करवो. एटले के इष्ट नदत्रना जे पादमां कार्य करवू होय, अने तेनी सन्मुखना नक्षत्रना पादमां जो ते ग्रह न होय, परंतु पादने श्रांतरे होय तो आ ग्रह वेध पादांतरित थयो, तेथी ते दूषणवाळो नथी. ते विषे पूर्णनम कहे के "विध पादं परित्यज्य कुर्यात्कार्यमशंकितः। सर्पदष्टाङ्गुखिछेदे विषवेषोनवः कुतः ॥१॥" "वेधवाळा पादनो त्याग करीने निःशंक रीते कार्य करवं, केमके सर्प मसेली अंगुलीनो बेद कर्या पनी विषना प्रवेशनी उत्पत्ति क्याथी होय ?" केशवार्क तो पादांतरित ग्रह वेधने पण ग्रहण करवानो निषेध करे बे. ते कहे के "विश्लेषमायाति यथासुन्निः स्वैरेणः शरेणैकदिशि तोऽपि । तयां हिवेधादपि तारकाणां क्रूरस्य नश्येद्वलसत्त्वसंपत् ॥१॥" "जेम मृग शरवसे एक नागमा हणायो होय तोपण पोताना प्राणवमे वियोग पामे डे Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ एटले मरी जाय , तेम क्रूर ग्रहवझे नाना पादनो वेध अवाथी पण वळ, सत्त्व श्रने संपत्तिनो नाश थाय ते." __ श्रीपति कहे जे के"शदं सौम्यग्रहैर्वि पादमानं परित्यजेत् । क्रूरैस्तु सकलं त्याज्यमिति वेधविनिश्चयः ॥१॥" "जो नक्षत्रनो सौम्य ग्रहवमे वेध थयो होय तो मात्र ते पादनो ज त्याग करवो, अने क्रूर ग्रहवमे वेध अयो होय तो ते आलुं नत्र तजवं. ए प्रमाणे वेधनो निश्चय ( व्यवस्था) जे." सात शलाकाना वेधनो यंत्र. क्र रो मृ आ पु पु अ सप्त रेखा वेधचक्र श्र अ उ पू मू ज्ये अ हवे विवाहमां विचारवा योग्य बीजो वेध योग पांच शलाका चक्रवमे बतावे . विवाहे पूर्ववत्पश्च रेखा के के तु कोणके ।। लिखित्वाऽग्निजतो नानि वेधं तत्रापि चिन्तयेत् ॥ ए॥ अर्थ-विवाहने विषे पूर्वनी जेम एटले उनी तथा श्रामी पांच पांच रेखा तथा चारे Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अVA ध । ॥शारंसिधि॥ खूणाश्रोमां घवे रेखा करीने कृत्तिका नक्षत्रयी आरंजीने अट्यावीश नक्षत्रोने स्थापन करी तेमां पण वेधनो विचार करबो. पंच रेखा चक्र कृ रो मृ आ पु पु अ अहीं मूळ श्लोकमां “तत्रापि" ए पदमां "अपि" भVIII.Vम Ly शब्द आप्यो बे, ते अव्यय मे, अने अव्ययोना अनेक - अर्थ होवाथी अहीं अपि शब्दनो अर्थ अवधारण एटले - -- निश्चय जेवो करवानो ने, तेथी एवो अर्थ थाय ने के -चि पूर्वे कहेलो सात रेखावाळो वेध प्रतिष्ठादिक सर्व कार्योमां शास्वा जोवो, अने विवाहमां तो आ पंच रेखावाळो ज वेध जोवो पू मू ज्ये* ते विषे विवाह वृंदावनमां कह्यु के के-"विवाह सिवाय बीजा कार्यमा सात रेखावाळा यंत्रनो वेध जोवो.” श्रा वेधमां पण पूर्वनी जेम पादांतरितनी व्यवस्था जाणवी. श्रांतरा रहित ग्रहनो वेध होय तो तेनुं फळ श्रा प्रमाणे कडं जे. "रवि विहवा कुजि कुखखय बुहि वंना निगु अपुतं सणि दासी। ___ गुरुवेहेण तवस्सिणि विलासिणी राहुकेहिं ॥१॥" "रविना वेधमां लग्न करवाथी स्त्री विधवा थाय ने, मंगळना वेधमां करवाथी कुळनो क्ष्य श्राय, बुधना वेधमां करवाथी वंध्या थाय, शुक्रना वेधमां करवाथी पुत्र रहित पाय, शनिना वेधमां करवाथी दासी थाय, गुरुना वेधमां करवायी तपस्विनी थाय, तथा राहु अने केतुना वेधमां करवाथी विलासवाळी थाय.” । आ वेध दीक्षामा पण जोवो एम पूर्णना कहे . ते कहे जे के.__"सूरिपयाश्सु सत्तसलायं वयगहणाश्सु पंचसखायं । ___ कत्तिनमा विज दु चकं जोअह ससिणो तो गहवेहं ॥१॥" "श्राचार्यपद तथा उपाध्यायपदादिकनी प्रतिष्ठादिकमां कृत्तिकादिक ननोनुं सप्त शलाका चक्र स्थापी ते मध्ये चंञमानो ग्रहोनी साथे वेध जोवो, अने दीक्षामां पांच शलाका चक्र स्थापी चंजमानो ग्रहोनी साथे वेध जोवो.” हवे लत्ता योग कहे जे.लत्ता वज्र्येष्टनस्यार्कादीनां सानिजिदीयुषाम् । धृत्या १७कृत्यु२५ डु २७ सप्ताहत् २४ पश्चा५ कृत्यं श्२ क एसंख्यनम् ७० अर्थ-श्ष्ट नक्षत्रयी अढारमा नक्षत्रने विषे रहेलो सूर्य इष्ट नक्षत्रने सातवमे हणे Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमो विमर्शः ॥ ६१ वे, इष्ट नक्षत्रथी वावीशमा नक्षत्रे रहेलो चंद्र इष्ट नक्षत्रने लातवमे हणे बे, ए रीते सत्यावीशमे रहेलो मंगळ, सातमे रहेलो बुध, चोवीशमे रहेलो गुरु, पांचमे रहेलो शुक्र, बावीशमे रहेलो शनि ने नवमे रहेलो राहु इष्ट नक्षत्रने हो बे. हीं निजित् सहित व्यावीश नक्षत्रो लेवानां बे. सात ( लत्ता ) एटले पादनो प्रहार कहेवाय बे, अने ते अश्वादिकनी जेम प्राये पाबळथी मारे बे, माटे या प्रमाणे कां. हवे जोशीने नक्षत्रोनी गणतरी सहेलाइथी थवा माटे आगळथी तत्त" मारे ते पाठांतरवमे बतावे बे. - लत्तयन्ति जमर्काद्याः स्वर्दतः सानि जित्क्रमात् । अर्का १२ ष्टानि ३ विकृत्यं २३ ग ६ तच्वा २५ ष्ट ( सूर्या १२ष्ट त्रि ३ त्रयोविंश २३ षटू ६ तत्त्वा २५ है प्रकृति २१ प्रमम् ०१ कविंशकम् २१, पाठान्तरं ) अर्थ- सूर्य पोताना नक्षत्रथी बारमा नक्षत्रने गळनी बात मारे बे, चंद्र श्रावमा नक्षत्रने, मंगळ त्रीजा नक्षत्रने, बुध त्रेवीशमा नक्षत्रने, गुरु बघा नक्षत्रने, शुक्र पचीशमा नक्षत्रने, शनि यावमा नक्षत्रने ने राहु एकवीशमा नक्षत्रने सत्ता मारे बे. अहीं पण निजित् सहित नक्षत्रो गवां. पाबळनी लत्ता तथा आगळनी लत्ता ए बन्ने रीते गणतां एक ज अर्थ वे बे. जेमके इष्ट नक्षत्र अश्विनी नक्षत्र बे, त्यांथी अढारमुं नक्षत्र ज्येष्ठा बे, ते ज्येष्ठामां रहेलो सूर्य विनीने पाबळ लात मारे बे, तथा सूर्यनुं पोतानुं नक्षत्र ज्येष्ठा वे, त्यां रहेलो सूर्य श्रागळना वारमा नक्षत्रने एटले अश्विनीने जात मारे बे. ए रीते सर्वत्र जावं. - अहीं को शंका करे के इष्ट दिवसनुं जे नक्षत्र होय ते ज नक्षत्र चंद्रनुं पण होय बे, ने त्यां रहेलो चंद्र जो पाबळना बावीशमा अथवा गळना श्रवमा नक्षत्रने लात मारे तो तेमां इष्ट नक्षत्रने शुं श्रव्यं ? कां ज नहीं, तेथी इष्ट नक्षत्रने चंद्रनी लत्तानो विचार करवो व्यर्थ बे. या शंकानुं समाधान ए वे जे चंद्र परिपूर्ण ( पूर्णिमानो ) थइने ज नक्षत्रने लत्ता मारे बे, पण बीजो चंद्र लत्ता मारतो नथी. ते विषे श्रीपति कबे – “विंशं परिपूर्णमूर्त्तिरुमुपः संतापयेन्नेत्तरः " "परिपूर्ण मंगळवाळो चंद्र पाबळना बावीशमा नदत्रने संतापे बे, पण बीजो अपरिपूर्ण चंद्र संतापतो नथी.” तेथी करीने गइ पूर्णिमा जे नक्षत्रमां समाप्त थइ होय ते ज चंद्रनुं नक्षत्र धारीने त्यांथी गएतरी करवी. यतिवलनमां पण कांबे के "चकार यत्र नक्षत्रे राकान्तं रजनी करः । ततश्चाष्टमनक्षत्रं स पुरो हन्ति लत्तया ॥ १ ॥” Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ "आरंसिद्धि॥ "चंजे जे नक्षत्रमा पूर्णिमानो अंत कर्यो होय, ते नदत्रयी श्रापमा नक्षत्रने ते भागळनी लातवझे हणे बे." हवे खत्ताने विषे अन्य आचार्यनो मत पण बतावे जे.अग्रतो नवमे राहोः सप्तविंशे नृगोस्तु ने। केचिज्ज्योतिर्विदः प्राहुर्खतां तामपि वर्जयेत् ॥ २ ॥ अर्थ-राहु पोताना नक्षत्रथी नवमा नक्षत्रने अने शुक्र सत्यावीशमा नक्षत्रने श्रागळनी लात मारे , एम केटलाक ज्योतिर्विद कहे , माटे ते लत्ता पण वर्जवा योग्य बे. त्रिविक्रम तो एम कहे जे के-“नख २० संख्यं तमो हन्ति" "राहु पोताना नक्षत्रयी वीशमा नक्षत्रने लत्ता मारे जे." खत्तार्नु फळ पौर्णजन ज्योतिषमां आ प्रमाणे कडं ."श्रणुजविणासे १ नासो २ कजालावा ३ नयं । विहवळ ५। गुरु १ बुह २ सि श्र३ ससि धरवि ५ हयरिकेषु मरणमन्नेसु ॥१॥" "गुरुए हणेला नक्षत्रमा कार्य करवायी नाना नाश्नो नाश थाय, बुधथी हणायेला नत्रमा कार्य करवाथी पोतानो नाश थाय, शुक्रथी हणायेला नत्रमा कार्यनो नाश थाय, चंजे हणेला नक्षत्रमा नय उपजे, अने रविए हणेला नत्रमा कार्य करवाथी वैनवनो नाश थाय, तथा बीजा (मंगळ, शनि तथा राहु) ग्रहोए हणेला नक्षत्रमा कार्य करवाथी मरण थाय.” अहीं वृयो कहे बे के-"सौम्य ग्रहनी सत्ता अष्ट्य दोष करे , केमके ते सत्ता नक्षत्रनी पुर्बळता ज करे जे, अने क्रूर ग्रहनी सत्ता तो मरण अने दारिद्य विगेरे अनर्थने करे जे." केशवार्क पण कहे जे के "उमुनि निर्दलिते शुन्नलत्तया न फलमस्ति बलस्य गलत्तया । अशुजलत्तिनमत्ति तदूढयोर्धनसुतानसुतापकरं परम् ॥ १॥" "शुक्न प्रहनी लत्तावमे हणायेखा नक्षत्रमा कार्य करवायी बस रहित होवाथी कांच पण अशज फळ अतुं नथी, पण अशुन ग्रहनी सत्ताव हणायेलु नत्र तो तेमां परऐसा दंपतीना धन तथा पुत्रनो नाश करे ने अने जीवने संतापकारक थाय ने." बळी ग्रंथांतरमा श्रा प्रमाणे कडं बे."सौम्यलत्ताहतं पातोपग्रहाद्यैश्च दूषितम् ।। नपादं वर्जयेदेव नं च केन्छे न चेखनाः॥१॥" _ "जो कदाच तत्काळ कार्य करवानुं होय, अने केंजमां शुल ग्रहो होय तो सौम्य ग्रहनी खत्ताश्री हणायेखा तथा पात अने उपग्रहादिकवझे दूषित श्रयेला नक्षत्र, ते पाद ज Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ॥ प्रथमो विमर्शः॥ त्याग करवं, परंतु केंजमां शुन्न ग्रह न होय तो सौम्य ग्रहनी लत्ताश्री पण हणायेद्धं आलुं नक्षत्र तजवा योग्य वे." __ हवे पात योग कहे .पातः सूर्यदतोऽश्लेषा मघा चित्रानुराधिका। श्रुतिः पौष्णं च यत्र स्युस्त्याज्यस्तत्संख्यन्नेऽश्विनात् ॥ ३ ॥ अर्थ-सूर्यना नक्षत्रश्री अश्लेषा, मघा, चित्रा, अनुराधा, श्रवण श्रने रेवती ए नक्षत्रो जेटली संख्यावाळां अश्विनीथी गणतां होय तेटली संख्यावाळां नक्षत्रमा पात योग जाणवो, अने ते योग शुन कार्यमां वर्जवा योग्य ले (श्रा योगने त्रिशूळपात पण कहे ). लावार्थ ए ने के ज्यारे सूर्य ज्येष्ठा नक्षत्रनो होय त्यारे ज्येष्ठा नक्षत्रीश्रश्लेषा श्रोगणीशमुंडे, मघा वीशमुंडे, चित्रा चोवीश जे, अनुराधा सत्यावीशमुं , श्रवण पांचमुंबे, श्रने रेवती दशमुं . तेथी ते दिवसे अश्विनीथी गणतां श्रोगणीशमुं मूळ बे, वीशमुं पूर्वाषाढा ने, चोवीशमुं शतभिषक् ने, सत्यावीशमुं रेवती ने, पांच, मृगशीर्ष बे, अने दशमुं मघा ने, तेथी करीने थाटलां नत्रोमां पात योग ने एम जाणं. ए रीते बीजं पण जाणवू. या पात योगमा अनिजित् गणवू नहीं. अहीं सहेलाइने माटे थाम्नाय कहे .पातं शूलस्य गंमस्थ हर्षणव्यतिपातयोः। साध्यवैधृतयोश्चान्ते धिष्ण्यं यत्तत्र वर्जयेत् ॥ ४ ॥ अर्थ-शुळ, गंम, हर्षण, व्यतिपात, साध्य अने वैधृत, ए उ योगने अंते जे नक्षत्र होय, ते नक्षत्रमा पात योग होय जे, अने ते पात योग वर्जवा योग्य वे. ते व पात योगनां नाम नरपतिजयचर्यामां अनुक्रमे आ प्रमाणे कह्यां बे. “पवनः १ पावकश्चैव २ कालः ३ किंकर ४ एव च । मृत्युकृत् ५ यकृच्चेति ६ पाता नामसदृक्फलाः ॥१॥" “पवन, पावक, (अग्नि), काळ, किंकर, मृत्युकृत् अने यकृत् ए पात योगो पोतानां नाम प्रमाणे फळ आपनारा .” ॥इति योगघारम् ॥ ॥ इति श्रीमति श्रारंजसिद्धिवार्त्तिके तिथि १ वार २ ज ३ योग परीक्षात्मकः प्रथमो विमर्शः॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ ॥ आरंभसिद्धि ॥ | अथ द्वितीयो विमर्शः । हवे राशिदार कहे बे.. राशिरथ तत्र मेषोऽश्विनी च नरणी च कृत्तिकापादः । वृषस्तु कृत्तिकां त्रियान्विता रोहिणी समार्गार्द्धा ॥ १ ॥ मिथुनो मृगार्द्धमा पुनर्वस्वोश्चांयत्रयः प्रथमे । कर्की च पुनर्वस्वोः पादः पुष्यस्तथाऽश्लेषा ॥ २ ॥ सिंहस्तु मघाः पूर्वाः फल्गुन्यः पाद उत्तराणां च । कन्योत्तरा त्रिपादी हस्तश्चित्रार्धमाद्यं च ॥ ३॥ तौली चित्रान्त्या स्वातिपादत्रयं विशाखायाः । स्याश्विको विशाखाचतुर्थपादोऽनुराधिका ज्येष्ठा ॥ ४ ॥ धन्वी मूलं पूर्वाषाढाऽपि च पाद उत्तराषाढः । स्यान्मकर उत्तराषाढांहित्रितयं श्रुतिर्धनिष्ठार्द्धम् ॥ ५ ॥ कुंनोऽन्त्यधनिष्ठार्थं शततारा पूर्वजाऊपास्त्रिपदी । मीनो जापदां द्विस्तथोत्तरा रेवती चेति ॥ ६ ॥ अर्थ -वार राशि तथा तेमां आवतां नक्षत्रोनां पाद या प्रमाणे. - १ मेष राशिमां अश्विनी, भरणी तथा कृत्तिकानुं प्रथम पाद यावे . २ वृष राशिमां कृत्तिकानां बेल्लां ऋण पाद, रोहिणी ने मृगशीर्ष ३ मिथुन राशिमां मृगशीर्ष बेलुं अ, आ ने पुनर्वसुनां प्रथम त्रण पाद. आवे छे. ४ कर्क राशिमां पुनर्वसुनुं बेल्लुं पाद, पुष्य ने अश्लेषा. ५ सिंह राशिमां मघा, पूर्वाफाल्गुनी छाने उत्तराफाल्गुनीनुं प्रथम पाद. ६ कन्या राशिमां उत्तराफाल्गुनीना अंतनां त्रण पाद, हस्त तथा चित्रा पहेलुं . 9 तूल राशिमां चित्रा बेलुं श्र, स्वाति तथा विशाखानां प्रथम त्रण पाद. ८ वृश्चिक राशिमां विशाखानुं चोथुं पाद, अनुराधा ने ज्येष्ठा. ―― धन राशिमां मूळ, पूर्वाषाढा काने उत्तराषाढानुं प्रथम पाद १० मकर राशिमां उत्तरापाढानां बेल्लां त्रण पाद, श्रवण अने धनिष्ठा अधु Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः॥ ११ कुंन राशिमां धनिष्ठा जेतुं अधु, शततारका तथा पूर्वाजापदनां प्रथम त्रण पाद. १२ मीन राशिमा पूर्वानापदनुं बेधुं एक पाद, उत्तरालाप्रपद अने रेवती. राशिनी व्यवस्थामा अनिजित् नक्षत्र सेवानुं नथी, तेथी सत्यावीश नत्रोने विषे दरेकनां चार चार पाद होवाथी कुल एकसो ने श्राप पाद थाय , ते पाद अदरोना नियम कहेवावमे प्रथम सूचवन कर्या . तेमांनां नव नव पादोए करीने एक एक राशि थाय जे. एम बार राशि कहेली, तेथी करीने पुरुषादिकनां नाम पामवामां राशिनी कटपनाए नक्षत्रना पादमां नियत करेला वर्णो (अदरो)ने जाणीने नामादिकना अक्षरो करवा. (तेवा अदरथी शरु श्रतुं नाम पामवं.)अनिजित् नक्षत्रनां त्रण पादना अक्षरो उत्तराषाढाना बेला ( चोथा ) पादमां अंतर्गत थाय , अने अनिजितना बेझा पादना अदरो श्रवणना प्रथम पादमां अंतर्गत थाय . ____ हवे मेषादिक बार राशिउंना वर्ण कहे जे.मेषाछोणार्जुनद रिक्तश्वेतैतमेचकाः। पिंगपिंगलकल्माषकमालमलिना रुचः॥७॥ अर्थ-मेषधी आरंजीने शोण (रातो), अर्जुन (श्वेत ), हरित (पीळो-सीखो), रक्त (रातो), श्वेत, एत ( काबरचित्रो), मेचक ( काळो), पिंग (पीको-रातो,) पिंगल ( पीळो-रातो), कटमाष (काबरचित्रो), कमाल (पीळो) अने मलिन (मत्स्यनी जेवो मेलो), श्रा प्रमाणे बारे राशिऊंना वर्ण जाणवा. था वर्ण कहेवार्नु प्रयोजन विशेषे करीने नवांशमां आवशे ते एवी रीते के धातु,मूळ तथा जीवरूप पदार्थ नवांशथी ज जणाय . कह्यु के-"अंशकाज्ज्ञायते जयं” “नवांशथी व्यर्नु ज्ञान थाय ते." तेथी करीने धातु अने मूळ विगेरे वस्तु चोराश होय अथवा खोवाइ होय, तेना प्रश्नमां श्रा वर्णवमे ते वस्तुना वर्षेनुं ज्ञान थाय . . हवे राशिनां स्वरूप कहे .उद्यद्घोषवतीगदं नृमिथुनं नौस्थाऽग्निसस्यान्विता, कन्या ना च तुलाधरो धृतधनुर्धन्व्यश्वपश्चार्धकः । एणास्यो मकरः कुटांकित शिराः कुंनो विलोमाननं, मीनो मीनयुगं च नामसदृशाः प्रोक्ताः परे राशयः ॥७॥ अर्थ-जेना हाथमां वीणा ने एवी स्त्री तथा जेना हाथमां गदा ने एवो पुरुष ए बन्ने सामसामां बेगं होय ते मिथुन राशिनो श्राकार जाणवो. मावा हाथमां अग्नि श्रने जमणा हाथमां धान्य धारण करीने वहाणमां बेठेली कन्याने आकारे कन्या राशि के, हाश्रमां आ०९ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंलसिधि॥ तुला (त्राजवा ) राखीने वेठेला पुरुपने थाकारे तुला राशि मे, कटीनी नीचेनो लाग अश्वनी जेवो एटले चार पगवाळो अने शरीरनो जपरनो माग पुरुष जेयो, वळी जेना हाथमा धनुप बे एवा पुरुषने आकारे धन राशि , मृगना जेवा मुखवाळा मगरने थाकारे मकर राशि में, मस्तक पर कुंज रहेलो होय एवा पुरुपने आकारे कुंन राशि के. ("खांध पर खाली घमो रह्यो होय,” एम बृहजातकमां कडं बे.) एक बीजाना पुउनी सन्मुख जेनां मुख रहेलां वे एवा बे मत्स्यने आकारे मीन राशि के, तेथी करीने ज ा राशिनो उदय मस्तक अने पीरथी थाय बे. बाकीनी राशि एटले मेष, वृष, कर्क, सिंह अने वृशिक नामनी पांच राशि पोतपोतानां नामने समान रूपवाळी जाणवी. तेमज बारे राशिऊनी चेष्टा तथा स्थान विगेरे पण पोतपोतानां नामनी सदृश ज जाणवां एवो संप्रदाय . ते विषे सारंग कहे जे के "मेषो दैन्यमुपैति गर्वति वृषो नानामतिर्मन्मथः, शूरः कर्कटको धृतिश्च वनपे कन्या च मायाविनी। सत्यं रज्जुतुखास्वलौ मलिनता चापश्च पापाशयो, मोखर्य मकरे घटे चतुरता मीने च धीरा मतिः॥१॥" "मेष दीनताने पामे ने, वृष गर्विष्ठ थाय ने, मन्मथ ( मिथुन ) नाना प्रकारनी बुद्धिवाळी होय , कर्क शूरवीर होय , सिंह हिंमतवान् होय , कन्या कपटी होय , तुला सत्य अने रङ्गुनी जेम सरळ होय , वृश्चिक मलिन होय , धनुष (धन) पापप्रकृतिवाळी होय , मकर वाचाळ होय , कुंन चतुर होय ने अने मीन धीर बुद्धिवाळी होय ." तेमज मेप अने वृष दिवसे अरण्यमा रहेनारी अने रात्रिए गाममा रहेनारी होय ने, मिथुन गाममा रहेनार ने, कर्क अने मीन जळमां रहे , सिंह अरण्यमां रहे , कन्या अने तुला गाममां रहे , वृश्चिक प्रवासी ने, धन अने कुंन गाममा रहे , तथा मकरनो पहेलो (मुखनो) नाग अरण्यवासी डे अने बीजो नाग जळचर बे. चोरायेली के खोवायेली वस्तुना प्रश्न वखते चोरनी चेष्टा तथा स्थान जोवा माटे श्रा उपयोगी जे. ते ते लग्नमां उचित कार्य करवा माटे दैवझवसन एवं कहे जे के"राज्याभिषेक, विरोध, साहस, कूट कर्म विगेरे तथा धातुनी खाण विगेरे संबंधी कार्य मेष लग्नमां करवाथी सिघ थाय जे. विवाह, गृहप्रवेश, कन्यानो संबंध (वाग्दान) विगेरे ध्रुव कर्म तथा क्षेत्रनो आरंन अने पशु वेचवा लेवानां कार्यो वृष लग्नमां करवामां श्रावे . वृष लग्नमां कहेलां कार्य उपरांत विद्या, शिल्प अने अलंकार संबंधी कार्यो मिथुन लग्नमां सिम थाय जे. सेवा, जोग, मृऽ शुल कर्म, पौष्टिक कर्म, तथा वाव कूवा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः॥ दिक जळ संबंधी कार्य कर्क लग्नमां सिख थाय . मेप लग्नल कहेला कार्य छपरांत वेपार, राजसेवा तथा शत्रुनी संधि विगेरे कार्यो सिंह लग्नमां करवाश्री सिद्ध थाय . शिटप, औषध, नूषण, वेपार विगेरे चर थने स्थिर कार्य कन्या लग्नमां सिद्ध थाय रे. खेती, सेवा, यात्रा विगेरे तथा कन्या लग्नमां कहेला सर्व कार्यों तुला लग्नमां सिद्ध थाय वे. ध्रुव कर्म, राजसेवा, चोरी विगेरे दारुण उग्र कार्य वृश्चिकमां सिख थाय . यात्रा, युद्ध, व्रत विगेरे सत्कार्यो धनुषमा सिद्ध थाय बे. क्षेत्रनो आश्रय तथा जळमार्गे यात्रा विगेरे चर कार्य तथा नीच कार्य मकरमा सिच थाय जे. जळमार्गे यात्रा, वहाण तैयार करवं, बीज वावq, दंन, नेद, व्रत विगेरे तथा नीच कर्म कुंलमां सिद्ध श्राय बे. विद्या, अलंकार, शिटप, पशुकर्म, वहाणनी यात्रा, अभिषेक विगेरे तथा सर्व मंगलिक कार्य मीन लग्नमां सिख थाय . __ "एतान्युक्तानि संसिद्धिं यांति शुभेष्वजादिषु । . ___ क्रूराणि क्रूरयुक्तेषु शुलानि सशुनेषु तु ॥१॥" "मेषादिक लग्न शुद्ध होय तो ए कहेलां कार्यो सिछिने पामे बे. क्रूर ग्रहोवमे युक्त होय तो क्रूर कार्य सिद्ध थाय अने शुन ग्रह सहित होय तो शुन्न कार्य सिद्ध थाय जे." हवे राशियोनुं दिक्स्वामित्व तथा स्वन्नाव कहे .-. पूर्वादिदितु मेषाद्याः पतयः स्युः पुनः पुनः। चरस्थिरहिवजावाः फरारा नरस्त्रियः ॥ ए॥ अर्थ-"पुनः पुनः” “फरी फरीने" ए पद दरेक विशेषण साथे जोमवाथी था प्रमाणे अर्थ थाय जे.-अनुक्रमे पूर्वादिक दिशाओना मेपादिक स्वामी बे. एटले पूर्व दिशानो मेष, दक्षिणनो वृष, पश्चिमनो मिथुन अने उत्तरनो कर्क स्वामी . ए रीते सिंह विगेरे चार तथा धन विगेरे चार अनुक्रमे चार दिशाना इंश कहेवा. एटले दरेक दिशाना त्रण त्रण स्वामी थाय , श्रानुं प्रयोजन यात्रादिकमां ने, तथा चोरायेली के खोवायेली वस्तुना प्रश्नमां वस्तु कर दिशाए ते जाणवा माटे . तथा मेष राशि चर जे, वृष स्थिर ने अने मिथुन विस्वनाव , कारण के तेनी पहेलां वृष ने ते स्थिर ने माटे मिथुननो प्रथम अर्ध नाग स्थिर , अने तेनी पी कर्क जे ते चर वे माटे मिथुननो बीजो अर्ध नाग चर ने ए रीते विस्वन्नाव जाणवो. एम जातक वृत्तिमां कडं . "पुनः पुनः" नो संबंध होवाथी कर्क चर , सिंह स्थिर , कन्या विस्वन्नाव जे. ए रीते अनुक्रमे बारे राशिनु चरादिकपणुं जाणवू. आनुं प्रयोजन ए जे जे चर राशिमां जन्मेला वाळको ते ते स्वन्नाववाळां श्राय तथा मेषने श्रारंजीने अनुक्रमे क्रूर अने अक्रूर तथा पुरुष अने स्त्री एमांनी एक एक संज्ञा पण श्रापवी. एटखे के मेष क्रूर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥शारंसिद्धि॥ भने पुरुष , वृष अक्रूर अने स्त्री, मिथुन क्रूर अने पुरुष ने विगेरे वारे राशि सुधी बइ जतां मेष, मिथुन विगेरे उ एकीवाळी राशियो क्रूर तथा पुरुषले अने वृष, कर्क विगेरे बेकीवाळी राशि अक्रूर ( सौम्य) अने स्त्री जे. आनुं फळ ए बे के क्रूर अने पुरुष राशिमां जन्मेलां बाळको क्रूर अने तेजस्वी थाय , तथा सौम्य अने स्त्री राशिमां जन्मेलां बाळको सौम्य अने मृड (कोमळ ) थाय ; पण रत्नमाळामां कडं ले के"मेष, सिंह, वृश्चिक, मकर अने कुंज ए पांच राशि क्रूर स्वामीवाळी होवाथी क्रूर ले अने बाकीनी सात राशि सौम्य स्वामीवाळी होवाथी सौम्य बे." वळी क्रूर राति पण सौम्य ग्रहथी युक्त होय अथवा तेना पर सौम्य ग्रहनी दृष्टि पमती होय तो ते सौम्य थाय ने, अने सौम्य राशि पण क्रूर ग्रह सहित होय अथवा तेना पर क्रूर ग्रहनी दृष्टि पमती होय तो ते क्रूर थाय . ते विषे दैवज्ञवसन कहे जे के “ग्रहयोगेक्षणान्यां स्याजाशे वो ग्रहोनवः। राशिः स्वनावमाधत्ते ग्रहयोगेकणोनितः ॥१॥" "ग्रहना संबंधथी तथा दृष्टिथी राशिनो नाव ग्रह जेवो थाय बे, पण ग्रहना संबंध तथा दृष्टिथी रहित होय तो राशि पोताना नावने धारण करे .” हवे राशियोना बळ तथा उदय विषे कहे .षड्र निशाबलिनोऽजोदयुग्मकर्कधनुर्मुगाः। __ पृष्ठेनोद्यन्त्ययुग्मास्ते शीर्षेणान्ये द्विधा ऊषः ॥ १० ॥ अर्थ-मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धनुष अने मकर ए उ राशि रात्रिए वळवान् ने. अर्थात् बाकीनी सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुंन अने मीन ए 3 दिवसे बळवान् ने एम जाणवू. खोवायेली अथवा चोरायेली वस्तुनो समय जाणवा माटे श्रानुं प्रयोजन के. तेमज दिवसे बळवान् राशिना लग्न वखते दिवसे यात्रादिक करवा शुनकारी ने, अने रात्रिए बळवान् राशिना लग्नमां रात्रे यात्रादिक करवा शुन वे. तेथी विपरीतपणुं इष्ट नश्री. श्रा रात्रिनी बळवान् ब राशिमांथी मिथुन विनानी पांच राशि पृष्ठथी उदय पामे ने एटले उदय समये तेमनुं पृष्ठ प्रथम देखाय . तथा वीजी मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक अने कुंन ए उ राशि मस्तकथी उदय पामे ने अर्थात् उदय वखते प्रथम मस्तक देखाय बे. तथा मीन राशि वन्नेथी उदय पामे ने एटले के तेना जदय वखते एकी वखते पृष्ठ तथा मस्तक देखाय बे. आनुं प्रयोजन ए जे जे यात्रादिकमां शीर्पना उदयवाळा लग्नमां जय थाय , अने पृष्ठ उदयना लग्नमां निष्फळ थाय ने विगेरे. हवे राशिऊनां उच्च स्थान कहे .अर्काद्यच्चान्यज १ वृष २ मृग ३ कन्या कर्क ५ मीन ६ वणिजो ऽशैः। दिग १० दहना ३ष्टाविंशति शतिथी १५षुएनदात्र २७ विंशतिनिः२० ॥१९॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः ॥ ६ए अर्थ – मेष, वृष २, मकर ३, कन्या ४, कर्क ए, मीन ६ धने तुला ए सात राशि अनुक्रमे दश, त्रण, अठ्यावीश, पंदर, पांच, सत्यावीश ने वीश अंशे करीने अनुक्रमे सूर्यादिकनां उच्च स्थानो बे. अर्थात् मेष राशिना पहेला दश त्रिंशांशो रविनुं उच्च स्थान बे, वृषनना पहेला त्रण त्रिंशांशो चंद्रनुं उच्च स्थान बे. मकरना पहेला अठ्यावीश त्रिंशांशो मंगळनुं उच्च स्थान बे विगेरे. अहीं संप्रदाय एवो बे के ―" आखी मेष राशिमा सूर्य उच्च बे, तेमां पण दश अंशो सुधी तो परम उच्च बे, अने त्यारपछी मात्र उच्च ज बे. चंद्र वृष राशिमां उच्च बे, तेमां पण त्रण अंश सुधी परम उच्च बे, अने त्यारपी मात्र उच्च ज बे विगेरे." या संप्रदाय लोकश्री विगेरे ग्रंथोना अभिप्रायने मळतो बे, परंतु लघु ने बृहत् जातक तथा नारचंद्र विगेरे ग्रंथोनो अभिप्राय तो या प्रमाणे बे. - " मेष राशिमां सूर्य उच्च बे, पण तेना ज दशमा त्रिंशांशे परम उच्च बे. चंद्र वृष राशिमां उच्च बे, पण तेना ज त्रीजा श्रंशे परम उच्च बे. मंगळ मकर राशिमां उच्च बे, पण तेनाज श्रठ्यावीशमे अंशे परम उच्च बे विगेरे." ताजिक ग्रंथमां तो परम उच्च एवी संज्ञा जनश्री, परंतु " मेष राशिमां पहेला दश जाग सुधी सूर्य उच्च बे, पण पनी तेजहीन एक बे. ए ज प्रमाणे वृषादिकमां चंद्रादिकनुं उच्चपणुं जाणवुं. राशिनुं नीच तथा त्रिकोण स्थान कहे बे. बे." स्वोच्चतः सप्तमं नीचं त्रिकोणान्यथ जानुतः । सिंहो ५ ६ २ मेष १ प्रमदा ६ धनु ए ट ७ घटाः ११ क्रमात् ॥ १५ ॥ अर्थ - पोतपोताना उच्च स्थानयी सातमुं सातमुं स्थान नीच जाए. हवे रवि आदि ग्रहों अनुक्रमे सिंह, वृष, मेष, कन्या, धन, तुला छाने कुंज ए राशि त्रिकोण स्था कवाय a. जे जे ग्रहनुं जे जे उच्च स्थान होय ते थकी जे जे सातमुं स्थान होय ते ते ते (ग्रह) नं नीच स्थान जाणवुं. अहीं पण दश, त्रण, अठ्यावीश, पंदर, पांच, सत्यावीश ने वीश ए प्रमाणे शनी संख्या जे पूर्वे कही वे, ते पण लेवी. तेथी करीने उच्चनी जेम नीचमां पण तेवी जरी अर्थ करवो. जेमके मेषथी सातमी तुला राशि बे, सेना पहेला दश त्रिंशांशो रविनुं नीच स्थान जाणवुं वृष राशिथी सातमी वृश्चिक राशि बे, तेना पहेला त्रण त्रिंशांशो चंद्रनुं नीच स्थान जाणवुं विगेरे. अहीं पण संप्रदाय एवो बे के" तुलामां रवि नीच बे, तेमां पण दश अंश सुधी परम नीच अने त्यारपवी मात्र नीच जावो. ए प्रमाणे चंद्रादिकमां पण कहेवुं.” या संप्रदाय पाकश्री विगेरे ग्रंथो साथे मळतो बे, परंतु जातक ने नारचंद्र विंगेरे ग्रंथोनो अभिप्राय तो या प्रमाणे बे. - " तुलामां सूर्य नीच बे, तेमां पण दशमा त्रिंशांशे परम नीच बे, ए प्रमाणे चंद्रादिकमां W Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंलसिधि ॥ पण जाए." ताजिकमां तो परम नीच एबी संझा ज नग्री, परंतु "तुला राशिमां पहेला दश अंशो सुधी चंज नीचनो के." एम कर्दा बे. ए प्रमाणे चंबादिकमां पण जाणवू विशेष था प्रमाणे जे. "कन्या राहुगृहं प्रोक्तं राहूच्चं मिथुनः स्मृतः। राहुनीचं धनुर्वर्णादिकं शनिवदस्य च ॥ १॥" "रादुनु घर (स्थान) कन्या राशि के, राहुर्नु उच्च स्थान मिथुन राशि कही , राहुन नीच स्थान धन राशि में, तथा आ (राहु ) ना वर्णादिक शनि प्रमाणे जाणवा." परम उच्चपणुं तथा परम नीचपणुं साठ लिप्ताना प्रमाणवाळा ते ते अंशना मध्य नागे जाणवू अर्थात् त्रीश लिप्ताए करीने जाणवू. परम उच्चता अने परम नीचताना समयने जाणवानो उपाय आ प्रमाणे - "मासं रविबुधशुक्राः ३ सार्धं नौम ४ स्त्रयोदशाचार्यः ।। त्रिंशन्मन्दो ६ ऽष्टादश रादु ७ श्चन्छः ७ सपाद दिवसयुगम् ॥१॥" “एक राशिमां सूर्य, बुध अने शुक्र एक एक मास रहे जे, मंगळ दोढ मास रहे , गुरु तेर मास रहे बे, शनि त्रीश मास रहे , राहु अढार मास रहे बे, तथा चंछ सवा वैदिवस रहे बे.” . "त्रिंशांशे शार्कशुक्राणां दिनं ३ सार्धचतुर्घटि। इन्दोः । कुजे सार्धदिनं ५ मासमेकं शनैश्चरे ६ ॥१॥ अष्टादशदिनी राहो ७ स्त्रयोदशदिनी गुरोः । "बुध, सूर्य अने शुक्रनो त्रिंशांश एक एक दिवसनो , चंनो त्रिंशांश सामी चार मीबे, मंगळनो त्रिंशांश दोढ दिवस , शनिनो त्रिंशांश एक मास, राहुनो त्रिंशांश अढार दिवस अने गुरुनो त्रिंशांश तेर दिवसनो .” आधी करीने या प्रमाणे लावार्थ थयो के-मेषनी संक्रांतिमा नव दिवस पठी एक दिवस परम उच्चनो सूर्य कहेवाय. वृषमा नव घमी पीनी सामी चार घमी सुधी चं परम उच्च अयो. मकरमा सामी चाळीश दिवस पठी दोढ दिवस सुधी मंगळ परम उच्च जे. कन्यामां चौद दिवस पनी एक दिवस सुधी वुधं परम उच्च वे. कर्कमां वावन दिवस पनी तेर दिवस सुधी गुरु परम उच्च बे. मीनमां ग्वीश दिवस पनी एक दिवस सुधी शुक्र परम उच्च . तथा तुलामां योगणीश मास पी एक मास सुधी शनि परम उच्च. ए रीते परम नीचनी पण नावना जाणवी. आ प्रकार सामान्यताथी बताव्यो वे एम जाएवं, कारण के मंगळ विगेरे ग्रहो प्राये वक्र तथा अतिचारवाळा थाय बे. ते वखते श्रा १ घडी. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीय विमर्शः ॥ ७१ परम उच्चनो तथा परम नीचनो समय न जावो, परंतु वक्र गतिवाळा तथा अतिचारवाळा ग्रहोनी गळ कहेवाशे ते रीते स्पष्टता कर्या पक्षी उपर कहेला श्रंशो प्रमाणे उच्च नीचनी जावना करवी. या कहेलो समय तो सहज गतिवाळा ग्रहोने माटे ज समजवो. ग्रहोना उच्च नीचपणानुं फळ या प्रमाणे बे. - "इक्को जइ नचत्थो हवइ गहो उन्नरं परं कुणइ । किं पुण वे तिनि गहा कुति को इत्थ संदेहो ॥ १ ॥” "जो कदाच एक पण ग्रह उच्च स्थाने रह्यो होय तो परम उन्नतिने करे बे, तो पछी उच्च स्थाने रहेला वे ऋण ग्रहो परम उन्नति करे तेमां शो संदेह ?" जन्मने विषे उच्च ग्रहनुं फळ या प्रमाणे बे. - “ज्युञ्चैर्नृपः पञ्च निरर्द्धचक्री चक्री च षमुच्चैर्मुनिनि 9 स्तथाईन् ।” " जन्मसमये त्रण ग्रह उच्च होय तो ते राजा थाय, पांच ग्रह उच्च होय तो वासुदेव थाय, व उच्च होय तो चक्रवर्ती थाय अने सात ग्रह उच्चना होय तो अरिहंत ( तीर्थंकर ) थाय." वळी कह्युं वे के " त्रिनिनीचैर्भवेद्दास स्त्रि निरुच्चैर्नराधिपः । त्रिभिः स्वस्थानमंत्री त्रिनिरस्तमितैर्जयः ॥ १ ॥ धं दिगंबरं मूर्ख पर पिंकोपजीविनम् । कुर्यातामति नीचस्थौ पुरुषं चन्द्रजास्करौ ॥ २ ॥” "जेना जन्मसमये त्रण ग्रह नीचना होय तो ते दास थाय बे, छाने त्रण ग्रह उच्चना होय तो ते राजा थाय बे. त्रण ग्रहो स्वस्थाने रह्या होय तो ते मंत्री थाय बे, अने त्रण ग्रह अस्त पाया होय तो ते जम थाय बे. (१) चंद्र ने सूर्य जो नीच स्थाने रह्या होय तो ते पुरुषने अंध, दिगंबर ( वस्त्र रहित - गरीब ), मूर्ख ने निक्षावृत्तिथी आजीविका करनार करे बे. २. " उपर मूळ श्लोकमा जे त्रिकोण संज्ञा श्रापी बे, ते मूळ त्रिकोण पण कवाय a. त्रिकोनुं फळ ए बे जे " त्रिकोणमा रहेला ग्रहो उच्च ग्रहना जेवुं ज अथवा तेथी कांक न्यून फळ श्रापनारा बे." एम पाकश्री ग्रंथमां कह्युं छे. प्रश्न शतक वृत्तिमां त्रिकोण विगेरेने त्रिंशांनी स्पष्टतावरे या प्रमाणे कह्या बे. - “ सिंह राशिमां वीश त्रिंशांशो त्रिकोण ने बाकीना दश त्रिंशांश सूर्यनुं गृह ( घर - स्थान ) बे. वृषभ राशिमां बे त्रिंशांशी उच्च बे, त्रीजो परम उच्च बे, अने बाकीना चंद्रनुं त्रिकोण बे. मेषमां बार त्रिंशांशो त्रिकोण बे, बाकीना शो मंगळनुं गृह बे. कन्यामां चौद त्रिंशांशो उच्चना बे, पंदरमो परम उच्च बे, तेनी पबीना पांच त्रिकोण बे ने बाकीना दश बुधनुं गृह Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिधि॥ वे. धनुषमा दश त्रिंशांशो त्रिकोण ने श्रने वाकीना गुरुनुं गृह . तुलामां पंदर त्रिंशांशो त्रिकोण ने, अने बाकीना शुक्रनुं गृह ये. कुंजमां वीश त्रिंशांशो त्रिकोण जे अने चाकीना दश शनिनुं घर बे." हवे राशिऊना संबंधवाळा बार नावोने कहे .लग्नानावास्तनु र अव्य श्व्रातृ ३ बन्धु सुता ५ रयः ६। स्त्री ७ मृत्यु धर्म एकर्मा १० य ११व्यया १२श्च छादश स्मृताः ॥१३॥ अर्थ-लग्नथी एटले प्रथम स्थानश्री अनुक्रमे तनु १,७व्य २,लातृ ३, बंधु ४, सुत ए, अरि ६, स्त्री, मृत्यु ७, धर्म ए, कर्म १०, आय ११, व्यय १२, श्रा रीते बार जावो कहेला . प्रश्न वखते, जन्म वखते अथवा यात्रादिकने समये जे कोइ राशि उदयमां होय ते राशिने लग्न नामे जाणवी. तेने बार श्रारावाळा चक्रनी श्राकृति करीने तेनी वच्चेना विवरमां मुख्य स्थाने स्थापन करवी. बाकीनी अगीयार राशि मावी बाजुनां अनुक्रमे अगीयार स्थानकोमा मूकवी. ए रीते कुंभळी थाय बे. ते श्रा प्रमाणेल क अहीं लग्ननी तनु नाव संज्ञा ने एटले इष्ट माणसना शरीर विषे ए तनु नावने आधारे विचार करवो. त्यारपीमाबी बाजुना क्रमथी अगीयार स्थानोने विषे रहेला बीजा विगेरे स्थानोमां रहेली राशि उनी संज्ञा अनुक्रमे अव्य नाव २, जात नाव ३, बंधु नाव , * | विगेरे जाणवी. तेथी इष्ट माणसनुं अव्य, नाइ विगेरे संबंधी ते ते स्थानोने थनुसारे विचारवां. कडं वे के “यो यो नावः स्वामिदृष्टो युतो वा सौम्यैर्वा स्यात्तस्य तस्यास्ति वृद्धिः। __ पापैरेवं तस्य तस्यास्ति हानिर्निर्देष्टव्या पृछतां जन्मतो वा ॥१॥" “जे जे नाव स्वामीए जोयेलो होय के युक्त होय अथवा सौम्य ग्रहोए जोयेलो के युक्त होय तो ते ते नावनी वृद्धि थाय बे. ए जरीते जो पाप ग्रहोए युक्त के जोयेलो होय तो ते ते लावनी हानि थाय. ए प्रमाणे पूजनारने तेनी जन्मकुंमळी परथी कहे." विशेष ए जे जे उ अरि नावमा जेम क्रूर ग्रहो अरि जावने हणे देतेमज सौम्य ग्रहो पण हणे ने ज, पण पुष्ट करता नथी,अने व्ययस्थान तथा आठमा स्थानमां पण जेम सौम्य ग्रहो व्यय (खर्च)ने तथा मृत्युने पोषे बे तेम क्रूर ग्रहो पण पोषे जजे, परंतु तेने हणता नथी. कह्यु बे के-“सौम्याः षष्ठेऽरिघ्नाः सर्वे नेष्टा व्ययाष्टमगाः” । “उठे स्थाने रहेला सौम्य ग्रहो थरिने हणे , तथा व्ययस्थाने अने आठमा स्थाने रहेखा सर्वे ग्रहो अनिष्ट बे." यवनेश्वर तो कहे जे के-“श्रष्टमे सौम्या आयुर्वृधिकराः" "श्राग्मे स्थाने सौम्य Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ॥हितीयो विमर्शः॥ ग्रहो होय तो ते श्रायुष्यनी वृद्धि करनारा बे." त्रातृ नावमां बहेन संबंधी विचार पण करवो. बंधु एटले स्वजन ने तेश्री बंधु नावमां मातानो पण विचार करवो. सुत नावां शिष्यो पण जाणवा. स्त्री एटले जार्या, तेना नावमां गमन आगमन पण जाणवा. थाउमा स्थानमा रोगादिक पण जाणवा. धर्म जावमां वंशपरंपराए श्रावेली विद्या अपूर्व विद्या तथा अचिंतव्यो धनलाल विगेरे जाणवा. दशमा स्थानमां कर्म एटले वेपार, ते स्थानमा पिता, जाग्य, आज्ञा, ऐश्वर्य विगेरे संबंधी विचार करवा. लाल स्थानमां नाश पामेलानी पण प्राप्तिनो विचार करवो. तथा व्यय स्थानमां सत् तथा असत् बन्ने जातना खर्च विगेरेनो विचार करवो. जेम लग्नथी आरंजीने बार नाव कह्या तेम चंथी पण बार नाव जाणवा. तेथी करीने लग्न श्रने चंजनी मध्ये जे बळवान् होय तेनाथी बार नाव विचारवा एवो थाम्नाय . ___ बारे जावोनां बीजां नामो बतावे .सुहृन्मंदिरपाताल हिबुकाम्बुसुखानिधम् । चतुर्थमष्टमं विडं चतुरस्त्रे उन्ने पुनः ॥ १४ ॥ अर्थ सुहृद्, मंदिर, पाताल, हिबुक, अंबु अने सुख ए चोथा स्थाननां नामो बे, निज ए श्रापमा स्थाननुं नाम बे. चतुरस्र ए चोथा तथा श्रावमा ए बे स्थान- नाम बे. सुहृत् शब्दे करीने मित्रजवन, मंदिर शब्दवमे गृह नवन, पाताल शब्दवमे रसातल इत्यादिक पर्याय नामो पण अत्र खेवाय बे. ए प्रमाणे श्रागळ पण सर्वत्र जाणवं. तथा पूर्वे कहेला तनु विगेरे बार जावोने स्थाने पण शरीर विगेरे पर्याय शब्दोनो पण व्यवहार करवो. श्राउM मृत्यु स्थान अनायु नामनुं पण कहेवाय बे. त्रित्रिकोणं च नवमं त्रिकोणे नव पञ्चमे। सप्तमं कामजामित्रघुनघुनास्तसंज्ञकम् ॥ १५ ॥ श्रर्थ-नवमुं स्थान त्रित्रिकोण कहेवाय बे. नवमुं अने पांचमुं स्थान त्रिकोण कहेवाय ने श्रने सातमुं स्थान काम, जामित्र, धुन, छून अने अस्त नामे पण कहेवाय , अहीं काम एटले कामदेव , जामिने एटले बहेनने त्याग करे ते जामित्र कहेवाय बे, एटखे के ते विवाहनो पर्याय शब्द . तथा सर्व कोइ ग्रह जे राशिमां उदय पामे डे, तेनाथी सातमी राशिमां अस्त पामे , तेथी सातमा स्थानने अस्त नामे पण कडं. स्यातां तृतीये ऽश्चिक्यविक्रमे पञ्चमे तु धीः। मध्यमेपूरणव्योमान्याहुदेशमधामनि ॥ १६ ॥ अर्थ-त्रीजा स्थान- नाम मुश्चिक्य श्रने विक्रम कहेवाय ने, पांचमुं स्थान धी (बुधि) नामर्नु कहेवाय जे, दशमा स्थानमां मध्य, मेषूरण अर्ने व्योम एवां नामो कहेवाय , आ. १० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ॥श्रारंसिधि ॥ 'अहीं जे चोथा स्थाननी पाताल श्रने अंबु संझा कही बे तथा दशमा स्थाननी मध्य थने व्योम संज्ञा कही ने, ते नूगोळनी रीते कही ने एम जाणवू. भूगोळनो मत एवो ले के-"सूर्य प्रातःकाळे पूर्व दिशामां उदय पामीने दक्षिण वाजुए फरतो फरतोमध्याह्न समये दशमा स्थानरूप व्योम (आकाश)ना मध्य नागमां श्रावीने सायंकाळे सातमे स्थाने अस्त पामे वे, अने तेज प्रमाणे रात्रिए पण फरतो फरतो मध्य रात्रिए चोथा स्थानरूप पाताळमां श्रश्ने पागे प्रातःकाळे पूर्व दिशामां उदय पामे ." श्रा रीते कह्यु बे. वळी पाताळ अंबुनुं (जळy ) स्थान डे ए प्रसिद्ध . उपान्त्यं सर्वतोजऽमन्त्यं रिष्यमुदीरितम् । वदन्त्युपचयाहाँस्त्रिषड्दशैकादशान् पुनः ॥ १७ ॥ अर्थ-अगीयारमुं स्थान सर्वतोना कहेवाय बे, केमके ते स्थाने रहेलो ग्रह सर्वथा शुनकारक जे. बारमुं स्थान रिष्य कहेवाय बे. लग्नथी तथा चंथी गणतां त्रीजुं, बई, दशमुं अने श्रगीयारमुं स्थान उपचय नामे कहेवाय ने, केमके ते स्थानोमा रहेला पाप ग्रहो पण शुज फळदायक थाय बे. बाकीनां स्थानो अपचय एटले हानि करनारां बे, एम समजवू. तेनुं फळ था प्रमाणे कडं बे. "कार्य यदुक्तं तऽपैति सिधिं वारे ग्रहे चोपचयईजाजि। नीचर्दसंस्थेऽपचयस्थिते च यत्ते कृते चापि जवत्यसाध्यम् ॥१॥" __“जे कार्य करवानें कडं होय ते उपचय स्थानवाळी राशिमा रहेल ग्रहमां तथा वारमा सिधिने पामे , श्रने नीच राशिमां तथा अपचय स्थानमां ग्रह रह्यो होय तो यत्न कर्या बतां पण ते कार्य असाध्य थाय ने एटखे सिख श्रतुं नश्री." केन्च तुष्टयकंटकनामानि वपुः १ सुखा ४ स्त ७ दशमान १०। स्युःपणफराणि परत २-५-७-११स्तेन्योऽप्यापोक्लिमानीति३-६-ए-१२ ॥१॥ अर्थ-पहेलु, चोथु, सातमुं अने दशमुंए चार स्थानो केन्द्र, चतुष्टय अने कंटक नामे कहेवाय बे, ते दरेकनी पड़ीनां एटले बीजूं, पांचमुं, आठमुं श्रने अगीयारमु ए चार स्थानो पणफर नामे कहेवाय जे. तथा तेनी पीनां एटले त्रीजुं, बहुं, नवमुं अने बारमुं ए चार स्थानो श्रापोक्लिम नामे कहेवाय जे. केंजने विष रहेखा सर्वे ग्रहो संपूर्ण पराक्रमी होय , पणफरमा रहेला ग्रहो अर्ध पराक्रमी होय , अने श्रापोक्खिमने विषे तेथी अर्ध एटले चतुर्थाश पराक्रमवाळा होय जे. एम त्रैलोक्यप्रकाशमांकयुं बे. विशेष ए डे जे-संज्ञा बे प्रकारनी होय , एक अन्वर्थ अने बीजी यादृचिकी ( रूढिवाळी ). तेमां मुश्चिक्य, हिबुक, त्रिकोण, धुन, धू, त्रित्रिकोण, चतुरस्र, मेषूरण, रिष्य, केंज, चतुष्टय, कंटक, पणफर तथा श्रापोक्सिम अने कहेवामां श्रावशे एवी होरा, जेष्काण विगेरे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥हितीयो विमर्शः॥ ए संज्ञा सार्थक नहीं होवाथी यादृचिकी कहेवाय , ते संज्ञा यवनाचार्यना मजमां रूढ होवाथी अहीं कही . तथा विक्रम, सुख, वेश्म, धी, जामित्र श्रने विज विगेरे संज्ञा अन्वर्थ डे, तेथी करीने इष्ट मनुष्यनां विक्रम, सुख, घर, बुद्धि, विवाह अने हानि विगेरे अनुक्रमे ते ते स्थानोथी विचाराय . ए ज रीते लग्नश्री आरंजीने प्रथम विगेरे स्थानोनी तनु विगेरे संज्ञा नियमित कहेली ने, तेथी तेने अनुसारे करीने जागळ पर पण सर्व ठेकाणे प्रथम आदि स्थानोने ठेकाणे तनु आदि शब्दनो व्यवहार जाणी लेवो. हवे राशिनां गृह (घर-स्थान), होरा, बेष्काण, नवांश, बादशांश अने त्रिंशांश नामना ब वर्गनुं स्वरूप बतावे . मेषादीशाः कुजः १ शुक्रो ५ बुध ३ श्चन्यो ४ रवि ५ «धः ६ । शुक्रः कुजो गुरु ए मन्दो १० मन्दो ११जीव १५ इति क्रमात्॥१॥ अर्थ-श्रा वर्गना अधिकारमा राशिनु “गृह" एवं नाम बे. तेथी करीने मेष राशि (गृह)थी अनुक्रमे मंगळ १, शुक्र १, बुध ३, चंज ४, रवि ५, बुध ६, शुक्र , मंगळ , गुरु ए, शनि १०, शनि ११ अने गुरु १२, श्रा बार स्वामी जे. श्रानुं फळ “यो यो नावः स्वामिदृष्टो युतो वा” विगेरे पूर्वे कह्या प्रमाणे . होरा रायमोजर्देऽन्छोरिन्धर्कयोः समे। जेष्काणा ने त्रयस्तु व १ पञ्चम ५ त्रित्रिकोणपाः ए॥२०॥ अर्थ-राशिनो अर्ध नाग होरा कहेवाय , तेथी एक एक राशिमां बबे होरा होय वे. तेमा मेष विगेरे विषम राशिमां पहेली होरा रविनी थने वीजी होरा चंजनी होय ने, तथा वृष विगेरे सम राशिमां पहेली होरा चंपनी अने बीजी होरा सूर्यनी होय जे. होरानुं फळ ए ने जे-"सूर्यनी होरामां जन्मेलां वाळक तेजस्वी थाय ने, अने चंजनी होरामा जन्मेला मृञ् (कोमळ ) थाय ने इत्यादि" ए प्रमाणे जेष्काण विगेरेमां पण क्रूर तथा सौम्य स्वामीने अनुसारे क्रूरपणुं श्रने सौम्यपणुं समजवं. दरेक राशिमां त्रण त्रण जेष्काण होय . तेमां जे पोतानी जराशिनो ईशहोय ते प्रथम श्रेष्काणनो ईश होय जे, तेथी पांचमी राशिनो जे स्वामी होय ते बीजा श्रेष्काणनो ईश होय , तथा नवमी राशिनो जे स्वामी होय ते त्रीजा जेष्काणनो स्वामी होय . हरिनकृत खग्नशुधिमां पण कडं बे के “दिक्काणो उ तिलागो सो पढमो निश्रयरासिश्रहिवश्णो । बी पंचमपहुँणो तळ पुण नवमगिहवश्णो ॥१॥" __ "दरेक राशिनो त्रीजो नाग जेष्काण कहेवाय बे. तेमां पोतानी राशिना अधिपतिनो पहेलो भेष्काण, तेथी पांचमी राशिना स्वामीनो बीजो वेष्काण अने नवमा गृहना स्वामीनो बीजो श्रेष्काण समजवो.” Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ॥ आरंभसिद्धि ॥ बृहत् जातकमां पण कधुं बे के - "प्रेष्काणाः स्युः स्वजवनसुतत्रित्रिकोणाधिपानां" पोताना स्थानना, पांचमा स्थानना ने नवमा स्थानना स्वामीना एम त्रण प्रेष्काणो होय.” केटलाएक आचार्यो राशिउंना सप्तांशपण कहे बे, तथा तेना स्वामी पण कहे बे, ते होरामकरंदमां या प्रमाणे कह्या बे. - " स्वर्दादोजे युग्मने द्यूनगेहाजण्यास्तज्ः सप्तमांशाः क्रमेण” विषम ( एकी राशिमां ) पोतानी राशिथी सप्तमांशो गएवा. सम ( बेकी राशिमां ) पोतानी राशिथी सातमी राशि जे होय त्यांथी सप्तमांशो गएवा. एटले मेष राशिमा पहेलो मेषनो सप्तमांश जाणवो, बीजो वृषजनो यावत् सातमो तुलानो ने वृष राशिमा पहेलो वृश्चिकनो, बीजो धननो यावत् सातमो वृषननो सप्तमांश जावो. आ प्रमाणे तेना जाणकार पुरुषोए सप्तमांश गएवा.' "" हवे नवांशो कहे बे. नवांशाः स्युरजादीनामजैणतुलकर्कतः । वर्गोत्तमाश्चरादौ ते प्रथमः पञ्चमोऽन्तिमः ॥ २१ ॥ अर्थ – मेषथी आरंजीने दरेक राशिमां नव नव नवांश । होय बे. तेमां मेष राशिना नवांश मेष आदि लइने नव सुधी गणवा, ( एटले के मेष राशिमां पहेलो नवांश मेपनो, बीजो नवांश वृषनो, त्रीजो नवांश मिथुननो, ए रीते नव सुधी गणतां नवमो नवांश धनो वे बे. ) ए रीते वृषना नवांशो मकरथी गएवा, मिथुनना नवांशो तुला गावा, तथा कर्कना नवांशो कर्कथी जगणवा. एजप्रमाणे सिंहना नवांशो मे पथी गणवा एटले के मेषनी ज जेवा, कन्याना वृषनी जेम, तुलाना मिथुननी जेम, ने वृश्चिना कर्कनी जेम गवा. ए ज रीते धन, मकर, कुंज ने मीनना नवांशो पण अनुक्रमे मेष, वृष, मिथुन ने कर्कनी जेवाज गएवा. या नवांशोनुं फळ पूर्णन श्रा प्रमाणे लखे बे. - "ति पण च सत्त नवमा रासीण नवसथा सुहा जम्मे । www पढम 5 अहम श्रहमा बघो पुए मञ्जिमो नेट ॥ १ ॥ " " जन्मने विषे राशिनो त्री जो, पांचमो, चोथो, सातमो ने नवमो ए पांच नवांशो सुखकारक एटले उत्तम जाणवा, पहेलो, बीजो अने आठमो ए त्रण नवांशो अधम (अशुभ) जाणवा, तथा बघो नवांश मध्यम जाणवो." वर्ग एटले समूह विषे जे उत्तम ते वर्गोत्तम कहेवाय बे, तेमां चर राशिमां पहेलो नवांश वर्गोत्तम जाणवो, स्थिर राशिमां पांचमो नवांश वर्गोत्तम जाणवो, अने दिवनाव राशिमां बेलो एटले नवमो नवांश वर्गोत्तम बे. अर्थात् आ रीते गएवाथी सर्वे राशिमां पोतपोताना नामनो नवांश वर्गोत्तममां आवे छे. वर्गोत्तमनुं फळ ए बे जे“वर्गोत्तममां उत्पन्न थयेला मनुष्यो पोताना कुळमां प्रधान थाय बे विगेरे.” बेल्लो नवांश पण अमुक राशिमां वर्गोत्तम होवाथी ते लग्नमां आदरवा योग्य बे. नहीं तो ते बेलो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः ॥ "लग्नस्याद्यन्त नवांश ग्राह्य ( तजवा योग्य ) थइ जाय. ते विषे पूर्ण कहे वे केमध्येषु वलं पूर्णाहमध्यमं” “श्रदि, अन्त ने मध्यने विषे लग्ननुं वळ ( फळ ) अनुक्रमे पूर्ण, अपाने मध्यम बे.” हर्षप्रकाशमां पण कह्युं बे के - " वग्गुत्तमं विणा दिजा नेव चरमं नवंसगं कह वि" "वर्गोत्तम विना कोइ पण वखत बेल्लो नवांश ग्रहण करवो नहीं.” वर्गोत्तमना नवांशमां रहेलो ग्रह पण वर्गोत्तम कहेवाय बे छाने ते ( ग्रह ) अत्यंत बळवान् बे. ते विषे दैवज्ञवनमां कह्युं बे के "बलवानुदितांशस्थः शुद्धं स्थानफलं ग्रहः । दद्यात्तमांशे च मिश्रं शेषांशसंस्थितः ॥ ॥” "उदयना अंशमां रहेलो तथा वर्गोत्तमना अंशमां रहेलो ग्रह बळवान् बे अने ते स्थाननुं फळ शुद्ध (पूर्ण) झापे बे, अने बाकी ना अंशमां रह्यो होय तो ते मिश्र फळ आपे बे. "यतो य एव राशिः स्यात्स एव च नवांशकः । "" प्रोक्तं स्थानफलं शुद्धमतोऽस्मिन् सोपपत्तिकम् ॥ २ ॥” "कारण के जे राशि होय बे ते ज नवांशक होय बे ( अर्थात् ते राशिना नामनो नवांशक ज वर्गोत्तम होय बे ) तेथी करीने या नवांशने विषे स्थानफळ जे शुद्ध कधुं युक्ति युक्त बे." 66 हवे द्वादशांश तथा त्रिंशांशनुं स्वरूप बतावे बे. स्युर्द्वादशांशाः स्वगृदादथे शास्त्रिंशांशकेष्वोजयुजोस्तु राश्योः । क्रमोत्क्रमादर्थ ५ शरा ५ ष्ट शैले ७ न्द्रियेषु ५ नौमार्किगुरुज्ञशुक्राः २२ अर्थ - पोताना गृह ( स्थान ) थी बार बार द्वादशांशो होय बे. एटले के जे नामनी राशि होय ते नामनो पहेलो द्वादशांश जाणवो, बाकीना अगीयार द्वादशांशो तेनी पीनी गीयार राशिना नामवाळा जावा. जेमके मेष राशिमां पहेलो दादशांश मेषनो, बीजो वृषनो, त्रीजो मिथुननो, ए रीते गणतां बेल्लो ( बारमो ) द्वादशांश मीननो श्रावे. वृष राशिमां पहेलो द्वादशांश वृषनो, बीजो मिथुननो, ए रीते अनुक्रमे गणतां बेलो मेनो वे. ए रीते मिथुन राशिमां पहेलो मिथुननो, बीजो कर्कनो, ए रीते गणतां बेलो वृषनो आवे. पादशांशोना ईशो जे मेषादिकना ईशो बे ते ज जाणवा. दवे दरेक राशिमां त्रीश त्रीश त्रिंशांश होय बे. तेना ईशो आ प्रमाणे जाणवा - मेष, मिथुन विगेरे विषम (एक) राशिमां पांच, पांच, आव, सात ने पांच त्रिंशांशोना स्वामी अनुक्रमे मंगुळ, शनि, गुरु, बुध अने शुक्र जाणवा, छाने सम ( बेकी ) राशिमां ते अंशो तथा स्वामी उत्क्रमथी एटले पश्चानुपूर्वीए जाएवा. एटले के वृष, कर्क विगेरे सम राशिमां पांच, सात, आठ, पांच ने पांच, त्रिंशांशोना स्वामी शुक्र, बुध, गुरु, शनि श्रने मंगळ जाणवा. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " £ b b v 佾强盘强 मेष 4 4 4 4 4 4 2 8 2 月 1 होरा ERSC 科 推舷盘可 द्वेष्काणेशाः चंद्र रवि शुक्र बुध शनि “ 帶 2 6 3 2 2 2 2 3 4 1 1 $ गुरु “ ** ㄢ 芑 amo Doo ī runni » D D B ∶ R » * * * p o मं शु बु चं रघु शु मं गु मं शु वु चं र खु शु मं गु श श गु नवांशेशाः श श गु मं शु बु 包 h " 团。 成。 这 For चं र 4. 2 同 四 4. गुरु रवि चंद्र गुरु मंगळ रवि मं शु वु चंर वुशु बु शु बु चं र 102 चंद्र रवि शनि शुक्र बुध श श गु मं शु वु चं चंद्र रवि चंद्र मंगळ गुरु चं र बु शु मं गु श श गु | चंर बु शु मं गु श श गु में शु बु J मं गु d. 10 रबु रवि चंद्र शनि बुध शुक्र शु मं गु श श गु मं शु बु द्वादशांशेशाः to @ चंद्र रवि गुरु चंद्र मंगळ चं र वुशु मं गु श श गु 색 वुशु मं गु श श गु मं 60 凶 m 音 可 의 रवि चंद्र शुक्र शनि बुध शु मं गु श श गु मं शु बु शु मं गु श श गु मं शु वु च र बु | GA | * 开 शुक्र शश गु में शु वु च र बु बु शु मं गु श श गु मं शु वु च र 12 出 वर वुशु मं गु श श गु मं गु श श गु मंशु बुच र बु शु 巡 쇠 CB d गु शश गु मंशु वु चं र बु शु मं शशगु मं शु बु चं र बु शु मं गु | शगु मं शु बु चं र वुशु मं गु श गु मंशु बु चं र बु शु मं गु शश त्रिंशांशेशाः GGGGGGA 妈妈区海 9 咔哒 J #5##mrsmrrrr . 叮叮 39 Ue Dege ㄐㄧㄣ行 cy 색 咔 叮。 可 ** x لله 出品 钉 . . 出口 مو 섬 14.5 6 색 s: AB छ घर्गनी स्थापना ( यंत्र ) G Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥वितीयो विमर्शः।। हवे ग्रहोना तथा लग्नना स्पष्टीकरण माटे तेनी नुक्तिने उपयोगी सर्व षड्वर्गर्नु साधारण लिप्तामान कहे .षड्दर्गेऽष्टादशरज नव ए० षडू ६०० के २०० साऊँ शतानि षष्टिश्च ६०। क्रमशो गृहहोरादौ लिप्ताः स्युः प्रजुरिद नवांशः ॥ २३ ॥ ___ अर्थ- वर्गनी मध्ये मेषादिक गृहो (स्थानो )मांना दरेकने अढारसो अढारसो लिप्ता ने, होरानी लिप्ता नवसो बे, केमके गृहथी अर्धी होरा जे. जेष्काणनी सिताउँ सो बे, कारण के गृहथी त्रीजे जागे जेष्काण ,एरीते नवांशोनी बसें लिप्ता, पादशांशनी दोढसो लिप्ता ने त्रिंशांशनी साठ लिप्ता ने. साठ विलिप्ता (पळ)नी एक लिप्ता (घमी) थाय बे एवं आगळ कहेशे. या वर्गनुं फळ एजे-"तिथि विगेरेना बळश्री चंजनुं बळ सो गएं , तेनाथी लग्न हजार गणुं वधारे बळवान् , तेनाथी पण होरा विगेरे सर्वे उत्तरोत्तर पांच पांच गणा वधारे बळवान् बे.” ए प्रमाणे बृहत् जातक वृत्तिमां कडं . हवे श्रा बए वर्गमां नवांशनुं ज प्रधानपणुं ते कहे जे.-श्रा नए वर्गमा प्रतिष्ठा, विवाह विगैरे सर्वे कार्योने विषे नवांश ज वधारे समर्थ (बळवान् ) बे. ए विषे सन कहे जे के "स्वाः नक्षत्रफलं तिथ्यधै तिथिफलं समादेश्यम् । होरायां वारफलं लग्नफखं त्वंशके स्पष्टम् ॥ १॥" "नक्षत्रनुं फळ पोताना अर्ध जागमा स्पष्ट , तिथिना अर्ध नागमां तिथि- फळ स्पष्ट ने, होराने विषे वारनुं फळ स्पष्ट के, तथा लगनुं फळ अंशकमां (नवांशमां) स्पष्ट बे." अहो नवांशनु केवं प्राधान्य ? दैवज्ञवसने कहुं ले के"लग्ने शुल्नेऽपि यद्यशः क्रूरः स्यान्नेष्टसिद्धिदः। लग्ने क्रूरेऽपि सौम्यांशः शुलदोऽशो बली यतः॥१॥" "लग्न शुल होय उतां जो अंश ( नवांश) क्रूर होय तो ते इष्ट सिधिने श्रापतो नथी, श्रने लग्न क्रूर होय बतां अंश सौम्य होय तो शुनकारक बे, कारण के अंश ज बळवान् ." तेमज "क्रूर अंश ( नवांश )मां रहेलो सौम्य ग्रह पण क्रूर श्राय , श्रने सौम्य अंशमा रहेखो कर ग्रह पण सौम्य श्राय ." एमसल कहे . "क्रूर अंशमा रहेला सौम्य ग्रहनी दृष्टि पण पुष्ट थाय , श्रने सौम्य अंशमां रहेता क्रूर ग्रहनी दृष्टि पण शुन (सौम्य ) थाय ." तथा ग्रहगोचरनी शुधिना विचारने समये “राशिना गोचरथी ग्रह शुल होय तोपण नवांशना गोचरे करीने जो शुल होय तो ज ते शुक्न थाय ने." इत्यादि लक्ष तमा श्रीपति कहे . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि॥ . हवे ग्रह पोताना वर्गमा रहेलो वे के बीजा वर्गमा रहेलो ? ते कहे बे. षमा त्र्यादिषु वर्गेषु यो ग्रहः खेष्ववस्थितः। स खवर्गगतो झेय एवमेवान्यवर्गगः ॥२४॥ अर्थ-कोर पण ग्रह ब वर्गमांना कोइ पण पोताना त्रण, चार अथवा उत्कृष्टथी पांच वर्गमा रहेलो होय, तो ते स्ववर्गमा रहेलो के एम जाणवू, अने एवी ज रीते एटले त्रण, चार के पांच वर्गमा रहेलो होय, पण ते बीजाना वर्गमा रहेलो होय तो ते अन्य वर्गमा रहेलो जाणवो. कोइ पण ग्रह उत्कृष्टथी पांच वर्ग सुधी ज श्रावी शके ने, परंतु कदापि नए वर्गमां श्रावी शकतो नथी, कारण के सूर्य अने चंड ए बे ग्रहो त्रिंशांशमां आवता ज नथी, तथा मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र श्रने शनि ए ग्रहो होरामां आवता ज नश्री. श्रा प्रमाणे जे ग्रह पोतानापांच वर्ग सुधीमां श्रावतो होयते स्ववर्गमां आवेलो होवाश्रीज बळवान् , अने अन्य वर्गमां श्रावेलो होय तो ते निर्बळ जे. विशेष ए जे जे-"जे नवांशमां उ, पांच के चार गृहादिक मध्ये सौम्य ग्रहस्वामी मळे तो ब वर्गनो, पांच वर्गनो के चार वर्गनो ते नवांश सौम्य होवाथी प्रतिष्ठादिकना लग्नने विषे विशेषे करीने ग्रहण करवा लायक बे. ते सौम्य ग्रहनो श्रा रीते निश्चय करेलो . “सत्तमनवमा मेसे १ पंचमतश्या विसे २ मिणि उसो ३ । पढमतश्या य कक्के ४ सिंहे बो ५ कणी तळ ६॥१॥ अमनवमा य तुले ७ विनियलग्गे चउत्यय नवंसो छ । धणुलग्गि बसत्तमनवमा ए मयरंमि पंचम १० ॥२॥ बच्च्मा य कुंने ११ पढमो तल अमीण लग्गम्मि । चउपणवग्ग ब वग्गो एएसु नवंसएसु सुहो ॥ ३ ॥" __ "मेष लग्नमां सातमो अने नवमो नवांश, वृषमां पांचमो अने त्रीजो, मिथुनमां बनो, कर्कमां पहेलो भने त्रीजो, सिंहमां बनने, कन्यामां त्रीजो, तुलामां श्राठमो अने नवमो, वृश्चिक लग्नमां चोथो नवांश, धन लग्नमां बो, सातमो अने नवमो, मकरमां पांचमो, कुंजमां बो अने श्रापमो तथा मीन लग्नमां पहेलो श्रने बीजो, आटला नवांशोमां चार वर्ग, पांच वर्ग के वर्ग होय ते शुन बे." आटला नवांशोमां चार वर्गनी शुद्धि तो सर्वने जे, परंतु पांच अने उ वर्गनी शुद्धि तो केटलाएक नवांशोमां संपूर्ण रीते , अने केटलाएकमां केटलेक अंशे ज बे. तेनी स्पष्टता आ ग्रंथना बेहा श्लोकनी टीकामां लखेली ने, त्यांनी जाणी खेवी. केटलाएक श्राचार्यो त्रण ज वर्गनी शुधिए करीने अने बीजा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥हितीयो विमर्शः॥ १ केटलाक नवांशनी ज प्रनुताने लीधे एक तेने ज सौम्यने खस्ने वाकीना अर्गनी शुद्धि विना पण लग्ननो श्रादर करे . तेथी करीने अहीं तत्त्व ए चे जे लग्नने विपे अवश्य ग्रहण करवा लायक नवांशनी शुद्धि कर्या पठी जेम जेम वधारे शुन्न वर्गनो लाल थाय तेम तेम प्रतिष्ठादिक शुन्न कार्यमां तेनुं विशेपे करीने ग्रहण करवं. __ दिशाऊना स्वामी तथा ग्रहोनी सौम्यता क्रूरता कहे जे.ग्रहाः स्युरैन्यायधिपा दिनेशरशुक्राश्र३राहार्किए शशि६७जीवाः। पापाः कृशेन्छर्कतमोऽसितारास्तैः संयुतो ज्ञश्च परे तु सौम्याः ॥ २५॥ अर्थ-पूर्व दिशानो अधिपति सूर्य , अग्नि कोणनो शुक्र, दक्षिणनो मंगळ, नैर्ऋत्यनो राहु, पश्चिमनो शनि, वायव्यनो चंञ, उत्तरनो बुध अने इंशाननो अधिपति गुरु वे. आनुं प्रयोजन ए ने जे-“केंजमां रहेला बळवान् ग्रहने अनुसारे चोरादिक कर दिशामां गया वे तेनुं ज्ञान थाय .” कृश चंड, (एटले वदि चौदशथी त्रण दिवसमां चं कळा रहित होय , माटे ते कृश चंछ कहेवाय डे) सूर्य, राहु, शनि अने मंगळ एटता ग्रह पापी-क्रूर जे, तथा आटला ग्रहे करीने युक्त एटले आमांना कोइ पण ग्रहनी साथे एक स्थानमा रहेलो बुध पण क्रूर बे, अने बाकीना एटले पुष्ट ( कळावाळो) चं, क्रूर प्रहथी जूदो रहेलो बुध, गुरु अने शुक्र एटला ग्रहो सौम्य बे. आनुं फळ ए जे जे क्रूर अने सौम्य ग्रहना बलिष्ठपणाने लीधे (अनुसारे) उत्पन्न थयेला बाळकना स्वन्नाव विगेरेनुं ज्ञान थाय . विशेष प्रा प्रमाणे - "रक्तश्यामो नास्करो १ गौर इन्छ । त्युच्चांगो रक्तगौरश्च वक्रः ३। पुर्वाश्यामो झो ४ गुरुगौरगात्रो ५श्यामः शुक्रो ६जास्करिः कृष्णदेहः ७॥१॥" "सूर्य रक्त तथा श्याम वर्णवाळो बे, चंड गौर वर्णवाळो बे, मंगळ रक्त तथा गौर ने अने अत्यंत उंचा शरीरवाळो नथी, बुध फुर्वा (ध्रो) जेवो श्याम , गुरु गौर गात्रवाळो , शुक्र श्याम ने अने शनि कृष्ण देहवाळो बे." श्रानुं फळ पण ए जने के बळवान् ग्रहना जेवी वाळकनी मूर्ति (वर्ण ) होय जे, अथवा लग्नमां ते ज वखते जे नवांश होय तेना स्वामीना जेवी तेनी मूर्ति (वर्ण) होय . हवे केतुना स्थाननो निर्णय करे बे. पृछादिष्वपरे केतुं तमसः सप्तमं विपुः। शुक्रेन्यू योषितौ मन्दबुधौ क्लीवौ परे नराः ॥२६॥ अर्थ-केटलाएक श्राचार्यो प्रश्नादिकमां केतुने राहुना स्थानथी सातमे स्थाने कहे वे. प्रश्नादिक कहेवाथी जातकमां, ग्रहगोचरमा तथा प्रतिष्ठादिकना लग्नमां केतुनो आ० ११ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ॥ आरंभसिद्धि || तेवा प्रकारनो उपयोग नथी एम सूचव्युं छे. केतुना स्थानना निर्णय माटे भुवनदीपकमांक वे के "राहुचाया स्मृतः केतुर्यत्र राशौ नवेदयम् । तस्मात्सप्तमके केतू रादुः स्याद्यन्नवांशके ॥ १ ॥ तस्मादंशे सप्तमे स्यात्केतु (तो) रंशो नवांशकः ।” "केतुने राहुनी बयारूप कहेलो बे, तेथी करीने राहु जे राशिमां होय रे राशिथी सामी राशिए केतु होय बे. वळी राहु जे नवांशकमां होय बे, तेथी सातमे नवांशे केतुनो नवांशक होय . आनो जावार्थ ए वे जे राशिना जेटलामा नवांशकमां राहु होय, ते राशिथी सातमी राशिना तेटलामा ज नवांशकमां केतु पण होय बे, परंतु राहुनी स्थिति - वाळा नवांशथी गणीए तो केतुनी स्थितिवाळो नवांशक सातमो ज श्रावे. जेमके मेषना पहेला मेष नामना नवांशकमां राहु होय त्यारे तुलाना पहेला तुला नामना नवांशमां केतु होय बे, तेथी मेष नामना नवांशथी गणतां तुला नामनो नवांश सातमो ज बे. वळ मेषना नवमा धन नामना नवांशमां राहु होय तो तुलाना नवमा मिथुन नामना नवांशमां केतु होय, तेथी धनुष ( धन ) नामना नवांशथी गणतां मिथुन नामनो नवांश सातमोज बे. इत्यादि हवे मूळ श्लोकना उत्तरार्धनो अर्थ प्रमाणे बे-शुक्र अने चंद्र स्त्रीरूपे बे, शनि बुध नपुंसक बे, अने बाकीना एटले रवि, मंगळ ने गुरु पुरुष बे. शनि ने बुध पण स्त्री जबे एम कोइ आचार्य कहे वे. चानुं फळ ए बे जे जन्मना विचारमां श्रथवा गयेली वस्तुना विचारमां जे ग्रह बळवान् होय तेने अनुसारे स्त्री विगेरे पोताना वर्गनो बोध थाय बे. हवे ब्राह्मणादिक वर्णोना स्वामी कहे बे. - वर्णानां जीवसितौ १ रविजौमा २ विन्दु ३ रिन्दुज ४ चेशाः । संकरजानां तु शनिर्जीव १ सिता २ रें३ पुजाश्च ४ वेदानाम् ॥ २७ ॥ अर्थ - वर्णोनी मध्ये ब्राह्मणोना स्वामी गुरु ने शुक्र बे, क्षत्रियोना रवि ने मंगळ स्वामी बे, वैश्यन स्वामी चंद्र बे, अने शूघनो स्वामी बुध बे. संकरज एटले मूर्धावसि - कथी श्ररंजीने रथकार ( सुथार ) नी जाति सुधीना निघंटुमां कहेला तेर नेदोवाळी मिश्र जाति अर्थात् गमे तेवी वे जातिथी उत्पन्न थयेला माणसो संकर कद्देवाय बे, ते सर्वनो स्वामी शनि बे. ऋग्वेदनो स्वामी गुरु बे, यजुर्वेदनो स्वामी शुक्र बे, सामवेदनो स्वामी मंगळ बेने अथर्ववेदनो स्वामी बुध वे. यानुं फळ ए बे जे–गुरु विगेरेना उदय तथा अस्तमां ते ते वेदवाळाने सुख दुःखादिकनी प्राप्ति थाय बे. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दितीयो विमर्शः॥ ____ हवे ग्रहोनां स्थान, दिशा, काळ, चेष्टा, दृष्टि तथा स्वानाविक बळ ए नामनांब प्रकारनां बळने कहे . तेमां प्रथम स्थानवळ कहे . ते स्थानबलिनो मित्रस्वगृहोच्चनवांशगाः। __ स्त्रीराशिविन्मुभृगुजौ पुराशिषु पुनः परे ॥ २७ ॥ अर्थ-ते सर्वे ग्रहो मित्रना घरमां, पोताना घरमां, पोताना उच्च स्थानमां (मित्रना उच्च स्थानमां, मित्रना नवांशमां) अने पोताना नवांशमा रह्या होय तो ते बळवान् बे. स्त्री राशिमां चंड अने शुक्र बळवान् , तथा बीजा पांच ग्रहो पुरुष राशिमां बळवान् बे. अहीं गृह (घर ) शब्दना उपलक्षणथी मूळ त्रिकोण पण लेवानो ने. ते विषे त्रैलोक्यप्रकाशमां कडं वे के-"मित्र ५ स्वर्द १० त्रिकोणो १५ च्चे २० फलं दत्तेहिवृद्धितः" “मित्रना स्थानमा रहेलो ग्रह एक पादनु एटले विंशोपकनी अपेदाए पांच वसानुं फळ आपे, पोताना स्थानमा रहीने बे पादनुं एटले दश वसानुं फळ आपे बे, त्रिकोणमा रह्यो होय तो त्रण पादनुं एटले पंदर वसानुं फळ आपे बे, अने उच्च स्थानमा रह्यो होय तो चारे पादनुं एटले वीशे वसानुं फळ आपे बे."आगल कहेवामां आवनार अधिमित्रांशमां वर्गोत्तमांशमां अथवा लग्नना नदितांशमा रहेलो ग्रह बळवान् , ए तो स्फुट ज . । इति स्थानबलं । हवे दिग्वळ कहे .लग्नायु(व्युत्क्रमकेन्डाख्यदिक्कु प्राच्यादिषूद्दलाः। जीवझौ १ जास्करमाजौ ५ शनिः ३ सितसितद्युती ४ ॥॥ अर्थ-वग्नथी आरंजीने उत्क्रम ( पश्चानुपूर्वीना क्रम )श्री केन्द्र नामनी पूर्वादिक दिशामां अनुक्रमे गुरु अने बुध, रवि अने मंगळ, शनि, तथा शुक्र अने चंज बळवान् वे. नावार्थ ए वे के-उत्क्रमश्री के स्थान लेतां पहेलु, दशमुं, सातमुं अने चोथु स्थान आवे. तेथी पहेलुं ( लग्न ) स्थान ए पूर्व दिशा अश, तेमां गुरु अने बुध वळवान् बे. दशमुं स्थान दक्षिण दिशा, तेमां रवि अने मंगळ वळवान् बे. सातमुं स्थान पश्चिम दिशा, तेमां शनि बळवान् बे, तथा चोथु स्थान उत्तर दिशा, तेमां शुक्र श्रने चं बळवान् . श्रा केन्द्र स्थानना श्रांतरामां जे अगीयारमुं अने बारमुं विगेरे बबे स्थानो रह्यां ने तेने अग्नि खूणा विगेरे चार विदिशा जाणवी अने तेमर्नु पूर्वादिकनी जेवं ज फळ जाणवू, केमके विदिशा दिशाउने ज अनुसरे बे. । इति दिग्बलं । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ॥ आरंजसिधि॥ ये काळबळ कहे .बलिनोऽह्नि गुरु सितार्काः सदा बुधो निशि तु चन्मकुजमन्दाः। खदिनादिषु च सितासितपदहितयेषु शुजक्रूराः ॥ ३० ॥ अर्थ-गुरु, शुक्र अने रवि ए त्रण ग्रह दिवसे बळवान् बे, बुध रात्रि दिवस बळवान् , तथा चंज, मंगळ अने शनि ए त्रण ग्रहो रात्रिए बळवान् के. पोताना दिवसमां, पोताना वर्षमां, पोताना मासमां अने पोतानी काळहोरामां ते ते दिनादिकना स्वामीरूप ग्रहो बळवान् बे. ते अधिपति (स्वामी) आ प्रमाणे___“यस्य वारस्य मध्ये स्यात् शुक्लप्रतिपदो मुखम् । तन्मासेशः स विज्ञेयश्चैत्रे वर्षाधिपः पुनः॥१॥" ___ "जे वारना ग्रहमां शुक्ल प्रतिपद्नो प्रारंन होय ते ग्रह ते मासनो स्वामी होय ने, परंतु वर्षनो जे स्वामी होय ते चैत्र मासनो स्वामी होय बे." वर्षनो स्वामी जाणवा माटे व्यवहारसारमां ा प्रमाणे बे."चैत्रादिमेषसंक्रान्तिकर्कसंक्रान्तिवासराः। प्रतिवर्ष क्रमाज्ञया राजानो मंत्रिसस्यपाः ॥१॥" "चैत्र मासना पहेला वारने वर्षनो राजा ( स्वामी ) जाणवो, मेष संक्रांतिना वारने वर्षनो मंत्री जाणवो अने कर्क संक्रांतिना वारने वर्षनो सस्याधिप (धान्येश) जाणवो. एम दरेक वर्षे जाणवू.” दिवसनो स्वामी ते दिवसनो वार ज जाणवो, अने काळहोराना स्वामी तो प्रथम कह्या बे ते जाणवा. आनुं फळ मुहूर्तसारमा कडं वे के "वर्षमासाहोरेशैर्वृद्धिः पञ्चोत्तरा फले।" "वर्षनो स्वामी (ग्रह) आखा वर्ष सुधी एक पादनुं फळ एटले पांच वसा फळ श्रापे बे, मासनो स्वामी आखा माप्तमा दश वसा फळ आपे , दिवसनो स्वामी श्राखो दिवस पंदर वसा फळ आपे बे, अने होरानो स्वामी पोतानी होरामां पोताना वारना योगने सीधे पूर्ण एटले वीशे वसा फळ आपे ." शुक्लपदमां सौम्य ग्रहो बळवान् ने अने कृष्णपक्षमां क्रूर ग्रहो बळवान् बे. ।इति कालबलं । ३ हवे चेष्टावळ कदे .रविचन्डावुदगयने विपुल स्निग्धाश्च वक्रगाश्चान्ये । बलिनो युधि चोत्तरगा व्यर्केन्ऽयुताश्च चेष्टानिः॥३१॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः॥ अर्थ-रवि श्रने चंड़ ए वे ग्रहो उत्तरायणमां वळवान् ने, एटले के मकर विगेरे उ राशिमां बळवान् , पण कर्क विगेरे ब राशिमां वळवान् नथी, अने बीजा पांच ग्रहो विपुल, स्निग्ध अने वक्र गतिवाळा होय त्यारे ते बळवान् वे. विपुल एटले घणा दिवसथी उदय पामेला अने विशाळ स्थूळ बिंबवाळा होय, पण बाळक, वृक्ष के अस्त पामेला न होय. यहीं उदय थया पली ग्रहोगें बाळपणं कहेवायचे, अने अस्त थया पहेलां वृद्धत्व व वाय . सप्तर्षि कहे जे के“बाट्यावस्थामां तथा वृक्षावस्थामां सर्वे ग्रहो सात सात दिवस निर्बळ होय .” वळी ते पांचे ग्रहो स्निग्ध होय एटले के स्पष्ट किरणवाटा अर्थात् आकाशमां देखाता होय, आ स्निग्धपणुं सूर्यश्री अत्यंत पूर होय त्यारे होय . वळी ते पांचे ग्रहो वक्र गतिवाळा होय तो ते बळवान् होय . पाकश्री ग्रंथमां कडं बे के "वक्र गतिमां सर्वे ग्रहोर्नु बळ मूळ त्रिकोणनी जेटलुं होय .” परंतु हर्षप्रकाशमां तो एवं कडं वे के–“वक्की पावो बली सुनो सिग्घो" "वक्री थयेलो बळवान् ग्रह मुष्ट , अने स्निग्ध बळवान् ग्रह शुज जे." मंगळ विगेरे पांचे ग्रहोनी गति प्रश्नशतक वृत्तिमा या प्रमाणे बे. "सूर्यनु(मुक्ता उदीयन्ते शीघ्रा अर्के दितीयगे। समं तृतीयगे यान्ति मन्दा नानौ चतुर्थगे ॥१॥ वक्राः पञ्चमषष्ठेऽर्के तेऽतिवका नगाष्टगे। नवमे दशमे मार्गाः सरला साल ११ रिष्यगे १२ ॥॥" "सर्वे (पांचे ) ग्रहो सूर्ये लोगव्या पठी एटले सूर्यथी बूटा थया पठी उदय पामे ने, सूर्य बीजी राशिमां जाय त्यारे ते शीघ्र गतिवाळा थाय , सूर्य त्रीजे स्थाने होय त्यारे ते सम गति करे , सूर्य चोथे होय त्यारे मंद गतिवाळा होय बे, सूर्य पांचमे तथा उठे होय त्यारे ते वक्र गतिवाळा होय जे, सूर्य सातमे अने आपमे होय त्यारे ते शति वक्र गतिवाळा होय बे, सूर्य नवमे अने दशमे होय त्यारे ते मागेर ने, तथा सूर्य अगीयारमे अने बारमे होय त्यारे ते सरल गतिवाळा (सीधा) होय जे." अहीं सूर्य पांचमे बछे होय एम जे कर्तुं ते शनि, मंगळ अने गुरुने आश्रीने कर्तुं , केमके बुध अने शुक्र तो सूर्यनी समीपे रहीने ज वक्र श्राय . ए ज रीते मार्गगामीमां, पण जाणवू. एटले के शनि, मंगळ अने गुरुने आश्रीने ज जाणं. श्राकाशमां एक ज नक्षत्रना पादमां परस्पर तारा अने ग्रहनो जे योग श्रवो ते युद्ध कहेवाय बे. तेथी करीने युष्मां सूर्य रहित अने चंड सहित एवा सर्वे ग्रहो उत्तरमा गति करनारा होय तो ते चेष्टाए करीने बळवान् बे. एटले के उत्तर गामी ग्रहोनो जय भाय ने माटे ते बळवान् , अने दक्षिण गामीनो पराजय श्राय ने माटे ते निर्बळ बे. थाय Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६ ॥ श्रारंसिद्धि ॥ पराहना मतमां तो शुक्रने दक्षिण गामी होय तो वळवान् कह्यो . ते विपे वराहसंहितामां कडं वे के “सर्वे बलिन उदक्स्था दक्षिणदिक्स्थो वली शुक्रः।" “सर्वे ग्रहो उत्तरमा रह्या होय तो बळवान् ने, अने शुक्र तो दक्षिणमा रह्यो होय तो ते बळवान् बे. ।इति चेष्टावलं ।। ___हवे दृष्टिबळ कहे .सौम्यैदृग्बलिनो दृष्टा बले नैसर्गिके पुनः।। मन्दार ज्यशुक्रेन्छनास्कराः स्युर्बलोत्तराः ॥ ३ ॥ अर्थ-सौम्य ग्रहोए तथा उपलक्षणथी मित्र ग्रहोए पण एक पाद, बे पाद, त्रण पाद के चार पादनी दृष्टिए जोयेला होय तो ग्रहो अनुक्रमे तेटलां पाद एटले तेटला वसा बळवान् कहेवाय जे. ।इति दृग्बलं । ५ __ ज्यारे बे अथवा तेथी वधारे ग्रहोगें बीजा ग्रहनी सरखं वळ थाय त्यारे स्वानाविक वळे करीने ज सबळपणुं अने निर्बळपणुं जणाय वे. तेथी करीने स्वानाविक वळ कहे बे. स्वानाविक बळनो विचार करीए तो शनि, मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र, चंज श्रने सूर्य ए ग्रहो उत्तरोत्तर अधिक बळवान् ने, एटले के शनिथी मंगळ वधारे बळवान् , तेनाथी बुध वधारे बळवान् विगेरे. राहु तो सूर्यश्री पण वधारे बळवान् बे. ।इति स्वानाविकवलं । ६ उपर जे सौम्य ग्रहोए जोयेला होय एम दृष्टिबळमां कडं तेमां दृष्टिनो प्रकार कहे जे. पश्यन्ति पादतो वृष्ट्या त्रातृ ३ व्योम्नी १० त्रित्रिकोणके ५-ए । चतुरस्त्रे ४-७ स्त्रियं ७ स्त्रीवन्मतेनाया ११ दिमा १ वपि ॥ ३३ ॥ अर्थ-सर्वे ग्रहो पोतपोताना स्थानथी त्रीजा तथा दशमा स्थानने एक पाद विंशोपकनी अपेक्षाए पांच वसा दृष्टिए जुए , नवमा अने पांचमा स्थानने वे पाद एटले दश वसा दृष्टिए जुए चे, चोथा अने श्राधमा स्थानने त्रण पाद एटले पंदर वसा दृष्टिए जुए बे, अने सातमा स्थानने चारे पादनी संपूर्ण (वीशे वसा) दृष्टिए जुए . कोश श्राचार्यनो एवो मत डे के पहेला (पोताना) अने अगीयारमा स्थानने पण स्त्रीनी एटले सातमा स्थाननी जेम पूर्ण दृष्टिए जुए . बाकीनां एटले वीजुं, हुं अने बारभु ए त्रण स्थानोने बिलकुल जोता नथी. एम अापत्तिथी सिद्ध थयु. ज्यां जेटता वसा दृष्टि होय त्यां तेटला वसा फळ पण जागी खे. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥क्तिीयो विमर्शः॥ ___ अहीं कोई शंका करे ने के-"शुं सर्वे ग्रहोनी सातमा स्थानमा ज पूर्ण दृष्टि ? के कोश्ने बीजे स्थाने पण पूर्ण दृष्टि के ?" ते पर कहे . पश्येत्पूर्ण शनिळतृव्योम्नी धर्मधियो गुरुः। चतुरस्त्रे कुजोऽर्केन्ऽबुधशुक्रास्तु सप्तमम् ॥ ३४ ॥ अर्थ-शनि त्रीजा अने दशमा स्थानने पूर्ण दृष्टिए जुए , गुरु नवमा अने पांचमा स्थानने पूर्ण दृष्टिए जुए ने, मंगळ चोथा अने आठमा स्थानने संपूर्ण दृष्टिए जुए ने, तथा सूर्य, चंञ, बुध अने शुक्र तो सातमा स्थानने पूर्ण दृष्टिए जुए बे. नावार्थ-त्रीजा अने दशमा स्थान उपर बीजा ग्रहोनी एक पाद दृष्टि से, पण शनिनी तो पूर्ण दृष्टि , अने नवमा तथा पांचमा पर, चोथा तथा आठमा पर अने सातमा पर जम बीजा ग्रहोनी दृष्टि अनुक्रमे बे पाद, त्रा :जम बाजा ग्रहोनी दृष्टि श्रनुक्रमे बे पाद, त्रण पाद अने संपूर्ण दृष्टि ने. ते ज रीते शनिनी पण बे, तेथी करीने शनिनी एक पाद दृष्टि कोइ पण स्थाने नथी एम सिझ थयुं. तथा नवमा अने पांचमा स्थान पर अन्य ग्रहोनी बे पाद दृष्टि मे, पण गुरुनी तो पूर्ण दृष्टि ने, अने जेम बीजा ग्रहोनी दृष्टि त्रीजा तथा दशमा स्थान पर, चोथा तथा आठमा स्थान पर आने सातमा स्थान पर अनुक्रमे एक पाद, त्रण पाद अने पूर्ण (चार पाद) तेम गुरुनी पण तेटसी ज दृष्टि , तेथी करीने बे पाद दृष्टि कोइपण स्थाने नथी एम सिह थयु. तथा चोथे अने आपमे स्थाने अन्य ग्रहोनी त्रण पाद दृष्टि बे, परंतु मंगळनी तो पूर्ण दृष्टि जे. जेम त्रीजे तथा दशमे स्थाने, नवमे तथा पांचमे स्थाने अने सातमे स्थाने अन्य ग्रहोनी अनुक्रमे एक पाद, वे पाद अने चारे पाद (पूर्ण) दृष्टि ते जरीते मंगळनी पण जे, तेथी करीने मंगळनी त्रण पाद दृष्टि को पण स्थाने नथी एम सिख थयु. सूर्य, चंज, बुध अने शुक्र ए चार ग्रहो तो सातमा स्थानने ज पूर्ण दृष्टिए जुए बे, बीजा कोइ पण स्थानने पूर्ण दृष्टिए जोता नथी. जे स्थानोने पादादिक दृष्टिए जुए बे, ते प्रथम कही गया . ___ ज्योतिषसारमां तो था प्रमाणे कर्यु के-"सर्वे ग्रहोनी ( को पण ग्रहनी ) वीजे श्रने बारमे स्थाने दृष्टि पमती नथी, बछे अने आग्मे स्थाने एक पाद दृष्टि पके चे, त्रीजे श्रने अगीयारमे स्थाने वे पाद दृष्टि पके चे, नवमा अने पांचमा स्थाने दृष्टि पमे ने अने केंनां चारे स्थानो उपर पूर्ण दृष्टि पझे .” वळी ताजिकमां तो बीजुं, बारमुं, उर्छ अने आउM ए चार स्थाने विलकुल दृष्टि श्छी नथी. स्थानबळ कहेती वखते मित्र स्थान अने पोतानुं स्थान ए विगेरे जे कर्तुं ने तेथी स्थान मैन्यादिक कहे . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिहि॥ रवेः शुक्रशनी शत्रू ज्ञः समः सुहृदः परे । चन्स्यार्कबुधौ मित्रे कुजगुर्वादयः समाः॥ ३५॥ अर्थ-शुक्र अने शनि रविना शत्रु बे, बुध सम (नहीं शत्रु तेम नहीं मित्र ) , अने बीजा (चंज, मंगळ, गुरु ) मित्रो के. चंजना सूर्य अने बुध मित्र , अने बाकीना मंगळ, गुरु विगेरे सम . ( शत्रु कोइ नथी.) कुजस्य शो रिपुमध्यौ शनिशुक्रौ परेऽन्यथा । बुधस्य मित्रे शुक्राक्रौं शत्रुरिन्छः समाः परे ॥३६॥ अर्थ-मंगळनो शत्रु बुध , शनि अने शुक्र मध्य ने, अने बीजा मित्र . बुधना मित्र शुक्र अने सूर्य जे, चंऽ शत्रु बे, अने बीजा सम ने. जीवस्यार्कात्रयो मित्राएयार्किर्मध्यः परावरी। कवेरमित्रे मित्रेन्यू मित्रे शार्की समावुनौ ॥ ३ ॥ अर्थ-गुरुना रवि, चंड अने मंगळ ए त्रण मित्रो ने, शनि मध्य (सम) ने तथा बीजा (बुध श्रने शुक्र) शत्रु जे. शुक्रना सूर्य श्रने चंज शत्रु बे, बुध अने शनि मित्र ने तथा मंगळ अने गुरु सम बे. मंदस्य सितो मित्रे गुरुर्मध्यः परेऽरयः। तत्कालसुहृदो कित्रि ३ सुख ४ लाना ११ न्त्य १२ कर्म १० गाः ॥३॥ अर्थ-शनिना बुध अने शुक्र मित्र बे, गुरु सम , अने बीजा एटले सू', चंड श्रने मंगळ ए त्रण शत्रु बे. शत्रु, मित्र अने समर्नु यंत्र. गृहाणि | रवि चन्छ। मंगळ । बुध । गुरु । शुक्र शनि शत्रवः शु. श. | बु. चं. बु. शु. | र.चं. र. चं. मं. मित्राणि चं.मं.गु. र.बु. र.चं.गु. र. शु. र. चं. मं. बु. श. | बु. शु. मध्यस्थाः बु. मं.गु.शु. शु. श. म.गु. श. श. मं. गु. गु. । श. जन्ममा अथवा प्रश्नादिकना लग्नमां कोइ पण स्थाने को पण ग्रह होय तेनाथी बीजे, त्रीजे, चोथे, अगीयारमे, बारमे के दशमे स्थाने जे कोइ बीजो ग्रह होय तो ते तेटता वखत सुधी एटले बे विगेरे स्थाने रह्यो होय त्यांसुधी तेनो मित्र थाय बे. श्रा तात्कालिक मैत्री कहेवाय ने. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥क्तिीयो विमर्शः॥ हवे तात्कालिक मैत्रीचें फळ कहे जे.मित्रमध्यारयो येऽत्र निसर्गेणोदिताः क्रमात् । अधिमित्रसुहृन्मध्यास्ते स्युस्तकालमैत्र्यतः ॥ ३ ॥ अर्थ-वहीं जे मित्र, मध्य श्रने शत्रु स्वनावे करीने कहेला बे, ते अनुक्रमे तत्काल मैत्री की अधिक मित्र, मित्र अने मध्य श्राय बे. _ अर्थापत्तिथी ज मित्र स्थानयकी अन्य जे पहेलु, पांच मुं, नहुँ, सातमुं, आग्मुं अने नवमुं एटलां स्थानो ते तत्काळ वैरी स्थानो थयां. तेमनुं फळ आ प्रमाणे बे. "येऽत्रारिमध्यमित्राणि निसर्गेणोदिताः क्रमात् ।। अधिशत्रुषिन्मध्यास्ते स्युस्तत्कालवैरतः॥१॥" "अहीं जे स्वन्नावे करीने अरि, मध्य अने मित्र कह्या चे, ते अनुक्रमे तत्काल वैरपणाथी अधिक शत्रु, शत्रु अने मध्य थाय .” नुवनदीपकमां तो ग्रहोना मित्र अने शत्रु एवा बेज पर कह्या बे. ते या प्रमाणे . "रवीन्नौमगुरवो इशुक्रशनिराहवः। स्वस्मिन् मित्राणि चत्वारि परस्मिन् शत्रवः स्मृताः॥१॥ राहुरव्योः परं वैरं गुरुनार्गवयोरपि । हिमांशुबुधयोर्वैरं विवस्वन्मन्दयोरपि ॥ २ ॥ अतिमैत्री राहशन्योरिन्मुगुर्वोः कुजार्कयो। सितायोः" "रवि, चंज, मंगळ अने गुरु ए चारे परस्पर मित्रो , अने बीजाना शत्रु तथा बुध शुक्र, शनि अनेराहु ए चारे परस्पर मित्र , अने बीजाने विषे शत्रु जे. (१) राहु अने रविने परस्पर अत्यंत वैर , गुरु अने शुक्रने पण परस्पर अत्यंत वैर , चंड अने बुधने तथा सूर्य अने शनिने पण परस्पर अत्यंत वैर .(२) राहु अने शनिने, चंज अने गुरुने, मंगळ अने सूर्यने तथा शुक्र अने बुधने परस्पर अत्यंत मित्रत्नाव ." श्रा प्रमाणे ग्रहोने मित्र स्थान अने पोतानुं स्थान जो उच्च स्थान होय तो ते विशेषे करीने हर्ष तथा दीप्तिने देनारां बे. जेम रविने मित्रनुं गृह मेष राशि के अने ते उच्च चे, बुधने पोतानुं घर कन्या ने अने ते उच्च बे. इत्यादि, पण शत्रुनां घरो तो उच्च होय तोपण प्रत्नाने श्रापनारां , पण अंदरथी सुख श्रापनारां नथी. जेम शुक्रने मीन स्थान उच्च बतां शत्रुनुं घर , अने मित्रनां घर नीच उतां कांक प्रत्नाने आपनारां वे. जेम चंपने वृश्चिक स्थान नीच , तथा शत्रुनां घर नीच होय तो नाना प्रकारना अनर्थने तथा प्रजानी हानिने करनारां प्राय जे. एम नुवनदीपक वृत्तिमां कडं बे. मा० १२ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्ररंजसिद्धि ॥ - वे यवनाचार्ये कहेलो राशिमां रहेला ग्रहोनो परस्पर वेध कहे बे. स्यानोचरेणात्र शुनोऽपि विद्धः खेटोऽन्यखेटैरशुनः क्रमेण । दुष्टोऽपि चेष्टश्च स वामवेधान्मिथो न वेधः पितृपुत्रयोस्तु ॥ ४० ॥ अर्थ - अहीं गोचरवमे शुभ थयेलो ग्रह पण कदेवाशे एवा क्रमे करीने बीजा होए विंधावाथी असुन थर जाय बे, अने गोचरवमे दुष्ट थयेलो ग्रह पण कदेवाशे एवा अनुक्रमे वाम वेधथकी इष्ट ( शुभ ) थाय बे; परंतु पिता ने पुत्रने परस्पर वेध तो नथी. एटले के रवि ने शनि पिता पुत्र बे तथा चंद्र ने बुध पिता पुत्र बे, तेनो परस्पर वेध नथी. ए Maa art विगेरे स्थानमा रहेला सूर्यने नवमा विगेरे स्थानमा रहेला अन्य महोव जे कहेवामां आवशे ते वेध कदेवाय बे, अने नवमा विगेरे स्थानमा रहेला सूर्यने त्रीजा विगेरे स्थानमा रहेला अन्य ग्रहोवने जे कहेवाशे ते वाम वेध कदेवाय बे. एटले के वीजा विगेरे स्थानमा रहेलो सूर्य शुन बे, पण जो नवमा विगेरे स्थानमां रहेला बीजा ग्रहोव तेनो वेध न तो होय तो ते शुज बे. तथा नवमा विगेरे स्थानमा रहेलो सूर्य शुबे, बतां जो त्रीजा विगेरे स्थानमां रहेला अन्य ग्रहोवमे तेनो वेध थाय तो ते शुज बे. ए प्रमाणे बीजा ग्रहो पण जाणवा. यतिवह्नजमां कह्युं बे के"ए निर्वेधैर्विद्या विफलाः स्युर्गोचरे ग्रहाः सर्वे । ― विपरीतवेधविधाः पापा अपि सौम्यतां यान्ति ॥ १ ॥ " "गोवरमा रहेला सर्वे ग्रहो श्र वेधवमे विंधाया दोय तो निष्फळ (अशुभ) बे, विपरीत - वाम ( झावळा ) वेधथी विधायेला पुष्ट ग्रहो होय तो ते सौम्यताने पामे बे-राज थाय बे. " रत्नमाला जाण्यमां क बे के – “जे कोइ स्थाने रहेला ग्रहे इष्ट ग्रहनो वेध कर्यो होय तो ते त्यां रही ने ज पोतानुं शुभ अथवा अशुभ फळ आपे बे. ए खरुं तत्त्व बे. " जे गोचरना फळने ज प्रमाणरूप गणीने वेधना विषयमा मध्यस्थपणा ( उदासीनता )नो आश्रय करे बे, तेमनो मत घणा श्राचार्योंने संमत नथी. ते विषे सारंग कहे बे के "यत्र गोचरफलप्रमाणता तत्र वेधफल मिष्यते न वा । प्रायशो न बहुसम्मतं त्विदं स्थूलमार्गफलदो हि गोचरः ॥ १ ॥ " " जे कार्यमां गोचरना फळनी प्रमाणता बे, ते कार्यमां वेधनुं फळ गणवं अथवा तो न गए. तेमां जेवी इला, परंतु प्राये करीने या वात घणाने संमत नथी, कारण के गोचर तो स्थूल मार्गे फळने आपनार बे. " Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ॥वितीयो विमर्शः॥ यतिवनमां पण कडं ले के"अज्ञात्वा वेधविधि ग्रहगोचरपाकजातगुणदोषम् । ये निर्दिशन्ति मूढास्तेषां विफलाः सदादेशाः ॥ १॥" "जे मूढ पुरुषो वेधना विधिने जाण्या विना ग्रहग चरना पाकथी उत्पन्न थयेला गुण दोषने कहे , तेमना श्रादेशो सदा निष्फळ बे." वाम (माबो) श्रने अवाम (जमणो) ए बे प्रकारनो वेध जन्मनी राशिथी ज गणवो. हवे वेधनो प्रकार कहे जे. वेधस्त्रिषगगनलाजगतस्य ३-६-१०-११ नानोः, खेटैः क्रमेण नवमान्त्यसुखात्मजस्थैः ए-१२-४-५। इन्दोस्तनौ त्रिरिपुमन्मथखायगस्य १-३-६-१-१०-११, धीधर्मरिष्यधनबन्धुमृतौ ५-ए-१२-२-४-७ स्थितैश्च ॥४१॥ स्यान्मंगलस्य सहजहिषदायगस्य ३-६-२१, सौरेस्तथा व्ययतपःसुखगैश्च १५-५-४ वेधः। चान्ः स्वबन्धुरिपुमृत्युखलाजगस्य २-४-६-७-१०-११, पुत्रत्रिधर्मतनुनिर्व्यथनांत्यगैश्च ५-३-५-१-७-११ ॥४२॥ वाचस्पतेः खतनयास्तनवायगस्य ५-५-७-ए-११, वेधस्तथान्त्यसुखविक्रमखाष्टगैश्च १२-४-३-१०-७ । शुक्रस्यषखमदनान्यजुषो १-२-३-४-५---११-१२ टसप्ता थाकाशधर्मतनयायतृतीयषष्ठैः--१-१०-ए-५-११-३-६॥४३॥ अर्थ-त्रीजे, बसे, दशमे श्रने अगीयारमे स्थाने रहेखा सूर्यनो अनुक्रमे नवमा, बारमा, चोया अने पांचमा स्थाने रहेला अन्य ग्रहोवमे वेध श्राय जे. पहले, त्रीजे, बछे, सातमे, दशमे अने अगीयारमे स्थाने रहेला चंजनो अनुक्रमे पांचमे, नवमे, बारमे, बीजे, चोथे अने बाउमे रहेला ग्रहोवमे वेध श्राय जे. बीजे, ब श्रने अगीयारमे स्थाने रहेला मंगळनो तथा शनिनो अनुक्रमे बारमे, नवमे अने चोथे स्थाने रहेखा ग्रहोवमे वेध थाय . बीजे, चोथे, बचे, आपमे, दशमे अने अगीयारमे स्थाने रहेखा बुधनो अनुक्रमे पांचमे, त्रीजे, नवमे, पहेले, आपमे अने बारमे स्थाने रहेखा ग्रहोवमे वेध आय . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए ॥ श्रारंजसिद्धि। __ वीजे, पांचमे, सातमे, नवमे बने थगीयारमे स्थाने रहेला गुरुनो अनुक्रमे वारमे, चोथे, त्रीजे, दशमे अने आउमे रहेला ग्रहोवझे वेध थाय . पहले, बीजे, त्रीजे, चोथे, पांचमे,आठमे, नवमे, अगीयारमे अने बारमे रहेला शुक्रनो अनुक्रमे श्राठमे, सातमे, पहेले, दशमे, नवमे, पांचमे, अगीयारमे, त्रीजे घने बरे स्थाने रहेला ग्रहोवमे वेध थाय . ग्रहोनो वेध यंत्र चन्ऽस्य जीमशन्योः बुधस्य | गुरोः । शुक्रस्य रवे: اس xm m ३ एप مہ wr DM lacuna wwr DD anews weatu mr D5 worm won 27 "21.mar । इति राशिफारम् । ५ हवे उपर जे "गोचरवझे” एम कर्दा हतुं तेथी तथा क्रमे करीने पण प्राप्त थयेलु होवाथी गोचरफार कहे जे. श्रेयान् गोचरतोऽशुमानुपचये ३-६-१०-११ चन्ऽस्तु साद्याने ३-६-१०-११-१-७ वक्राळ त्रिषमायगा ३-६-११ वथ बुधस्त्वत्यान्ययुग्लानगः २-४-६-७-१०-११। जीवःस्त्रीधनधर्मलानसुतगः -२--११-५ शुक्रोऽरिखास्तान्यगो १-२-३-४-५-७-ए-११-१२ जन्मेन्दोम्रहणे तमोऽप्युपचये ३-६-७-१०-११ ऽन्येषां त्वनाद्येन्ऽवत् ३-६-७-१०-११॥ ४४ ॥ अर्थ-गायोनी चरवानी नूमिने गोचर कहे जे, तेथी लक्षणाए करीने ग्रहोने पण चालवानी नूमि गोचर कहेवाय जे. जन्मना चंथी श्रारंजीने त्रीजे, बछे, दशमे अने Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३ ॥हितीयो विमर्शः॥ शगीयारमे सूर्य रह्यो होय तो ते गोचरनी रीते शुक्ल ने, जन्मनी राशिना चंथी ३-६१०-११-१-७ श्राटले स्थाने चंड होय तो ते पण शुन्नने, जन्मना चंथी ३-६-११ मे स्थाने मंगळ तथा शनि रह्या होय तो ते शुक्न चे, बुध २-४-६-७-१०-११ मे स्थाने होय तो शुल , गुरु ७--ए-११-५ मे स्थाने रह्यो होय तो शुल , शुक्र १-३-३-४-५--ए-११-१२ मे स्थाने होय तो शुन्न , (पूर्णन पाउमुं स्थान वर्ण्य कडं बे.) राहु ग्रहणने दिवसे ज ३-६-१०-११ मे स्थाने होय तो शुनजे, बीजा श्राचार्यना मते पहेला स्थान विना चंजनी जेम राहु कह्यो , एटले के ३-६-१०-११-७ मे स्थाने रहेलो राहु शुक्ल कह्यो . श्रहीं उपर जे जन्मनो चंड कह्यो ने ते इष्ट पुरुषना जन्मसमये जे राशिमां चंड होय ते तेना जन्मनो चं कहेवाय . ग्रहण एटले सूर्य तथा चंजनुं बन्नेनुं ग्रहण लेवं. ग्रहण शब्द कहेवाथी एवं जणाव्यु के के ग्रहण विना बीजे दिवसे राहुनो गोचर गणातो नथी, परंतु "नक्षत्र गोचरने आश्रीने तो अन्य दिवसे पण राहुनो गोचर गणाय बे." एम ज्योतिषसारमां कडं जे. रत्नमाला नाष्यमां कडं वे के-"जन्मना लग्नथी पण उपर कहेला स्थानोमां ज रहेला ग्रहो शुल .” जन्मनी राशिथी तो शुल बे ज. गोचरनुं फळ वराहसंहितामां श्रा प्रमाणे कर्तुं - "स्थानबंश १ जय श् श्री ३ परिजव ४ दैन्या ५ रिहति ६ पयां गाती । कान्ति य ए सिद्धि १० धन ११ व्ययांश्च १२ जन्मादिगो रविः कुरुते ॥१॥" "जन्मना प्रथम स्थानमा रहेलो रवि स्थानथी नष्ट करे , वीजे स्थाने होय तो जय करे बे, बीजे लक्ष्मी, चोथे पराजव, पांचमे दीनता, उठे शत्रुनो पराजय, सातमे पंथ (प्रयाण ), बाग्मे शरीरनी पीमा, नवमे शांतिनो नाश, दशमे कार्यसिधि, अगीयारमे धनप्राप्ति अने बारमे रह्यो होय तो खर्च करावे ." । "तुष्ट्या १धि २ धना ३ ज्य र्थबंश ५ श्री ६ सार्थयुवति ७ मृति नीतीः ए। सुख १० जय ११ सरुग्धनक्ष्य १२ मिन्पुर्जन्मादिगो दत्ते ॥२॥" "जन्मना प्रथमादिक स्थानमा रहेलो चंज अनुक्रम तुष्टि १, मननी पीमा , धन ३, लमा ४, धननाश ५, लदमी ६, धन सहित स्त्रीनो लाल , मृत्यु , नय ए, सुख १०, जय ११, रोग सहित धननो क्ष्य १२, आटलां वानां करे बे." "रुग् १ धननाश २ धना ३ रिन्य ४ र्थक्ष्य ५ धन ६ शुग ७ स्वघाता ःए। शुग १० खान ११ विविधःखानि १२ दिशति जन्मादिगो वक्रः ॥३॥" "जन्मना प्रथमादिक स्थानमा रहेलो मंगळ अनुक्रमे रोग १, धननो नाश २, धननी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥आरंसिधि॥ प्राप्ति ३, शत्रुथी जय ४, धनल्य ५, धनसाल ६, शोक , शस्त्रघात , शरीरनी पीमा ए, शोक १०, साल ११, तथा विविध प्रकारनां पुःखो १५ श्रापे बे." "बन्धा १ S२ वधा ३ र्थ हति ५ स्थान ६ वपुर्बाध ७ धन महापीडाः ए। सौख्या १० र्थ ११ वित्तनाशाः १५ स्युइँ जन्मादिगे क्रमशः॥४॥" "जन्मथी प्रथमादिक स्थानमां बुध रह्यो होय तो अनुक्रमे बंधन १, धन २, वध ३, धन ४, हरण ए, स्थान ६, शरीरपीमा ७, धन ७, महापीमा ए, सुख १०, धा ११ श्रने धननो नाश १२, प्राप्त थाय ." "रोगा १र्थ २ क्लेश ३ व्यय ४ सुख एजी ६ नृपमान ७ धनागम ७ श्रीदः ए। अप्रीति १० साल ११ हृदुःखदश्च १२ जन्मादिगो जीताः॥५॥" "जन्मथी प्रथमादिक स्थानमा रहेको गुरु अनुक्रमे रोग १, धन २, क्लेश ३, खर्च ४, सुख ५, जय ६, राजसन्मान ७, धनप्राप्ति , सदमी ए, अप्रीति १०, खान ११ भने हृदयना दु:ख १२ ने देवावाळो थाय जे." "थरिनाशा १ र्थ २ सुख ३ श्री ५ सुता ५ रिवृधि ६ शुग ७ र्थ - वस्त्राणि ए। असुखा १० य ११ लान १२ मुशना सनापि जन्मादिगस्तनुते ॥ ६॥" "जन्मथी प्रथमादिक स्थानमा रहेलो शुक्र अनुक्रमे शत्रुनो नाश १, धन २, सुख ३, लक्ष्मी ४, पुत्र ५, शत्रुवृद्धि ६, शोक ७, धन , वस्त्र ए, असुख १०, श्रावक ११ तथा खान १२ ने सदा विस्तारे -श्रापे ." "श्रस्थान १ धनगमा २ थों ३ रिवृद्धि ४ सुतनाश ५ लाल ६ सुःखजरान् । पीमा छ अंगमा एर्ति १० श्री ११ पुःखानि १३ शनिस्तनोति जन्मादौ ॥ ७॥" "जन्मथी प्रथमादिक स्थानमा रहेलो शनि अनुक्रमे अस्थान (स्थानत्रंश) १, धननाश २, धनप्राप्ति ३, शत्रुवृद्धि, पुत्रनाश ५, लाल ६, दुःखना समूह ७, पीमा ७, धननाश ए, पीमा १०, सदमी ११ अने दुःखो १२ ने विस्तारे .” ज्योतिषसारमा राहुनुं रूप श्रा प्रमाणे कडं बे."गहणे तमरासी नियरासी ति चन अडिगार सुहा । पण नव दहंत मनिम ब सत्त श्ग इन्नि अश्लहमा ॥१॥" "प्रहणने दिवसे राहुनी जे राशि होय तेनाथी पोतानी राशि त्रीजे, चोथे, आवमे के अगीयारमे होय तो ते शुक्ल ने, पांचमे, नवमे, दशमे श्रने बारमे होय तो मध्यम बे, अने बरे, सातमे, पहेले तथा बीजे होय तो अति अधम जे." तथा "यादृशेन शशांकेन संक्रान्तिर्जायते रवेः। तन्मासि तादृशं प्राहुः शुजाशुजफवं नृणाम् ॥ १॥" Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ वितीयो बिमर्शः॥ एए "जेवा चंवमे सूर्यनी संक्रांति थती होय ते मासमां मनुष्योने तेवा प्रकारचें शुजा. शुन फळ थाय ने एम कहे ." साथी करीने कदाच सूर्य बारमा, थाउमा विगेरे श्रशुल स्थानमा रह्यो होय तोपण गोचरवमे, ताराबळवमे तथा शुल्न अवस्था दिके करीने शुल एवा चंजनुं बळ होय त्यारे तेनी संक्रांति थर होय तो ते शुज ज . एम रत्नमाला नाष्यमां कडं . तथा दक्ष कहे जे के"सितपक्षादौ चन्छे शुने शुनः पक्षकोऽशुने त्वशुलः। बदुखे गोचरशुनदे न शुनः पदोऽशुने तु शुलः ॥१॥" “शुक्लपक्षना प्रारंजमां एटले प्रतिपद् बेसे ते वखते जो चंग शुल होय तो ते श्रा पखवामीयुं शुल जाणवू, अने जो चंग अशुल होय तो आखा पक्षने अशुन जाणवो. कृष्णपक्षमां तो प्रतिपदनी शरुवातमां जो चंड शुन्न होय तो ते श्राखा पक्ष्ने श्रशुल जाणवो, अने जो चंग श्रशुल होय तो श्राखा पक्षने शुन जाणवो." तथा “यादृशेन ग्रहेणेन्दोयुतिः स्यात्तादृशो हि सः" "जेवा ग्रहनी साथे चंजनो योग होय, तेवा ज ग्रहनी जेवो ते चंज थाय ने." एम दैवज्ञववनमां कहुं ने, तथा दैवज्ञवननमा ज कई ने के "अशुनोऽपि शुलश्चन्छः सौम्यमित्रगृहांशके। स्थितोऽथवाधिमित्रेण बलिष्ठेन विलोकितः ॥१॥" ___ "अशुल चंज पण सौम्य ग्रहना के मित्र ग्रहना स्थानना नवांशमा रह्यो होय तो ते शुल के. श्रथवा बळवान् अधिक मित्रे जोयेलो होय तोपण ते चं बळवान् जे." सर्व ग्रहोगें साधारण फळ दैवज्ञवसनमां था प्रमाणे - "असत्फलोऽपि यः सौम्यैदृष्टो यः सत्फलोऽपि वा । क्रूरेण दृष्टोऽरिणा वा स न किश्चित्फलप्रदः॥१॥" “जे को अशुन फळदायक ग्रह सौम्य ग्रहे जोयेसो होय, अथवा जे कोश् शुल फळवाळो ग्रह क्रूर ग्रहे श्रथवा शत्रु ग्रहे जोयेलो होय, ते ग्रह कांइ पण फळने देनारो नथी." - पक्ष कहे जे के-"नीचेऽस्तेऽरिगृहे वापि निष्फलो ग्रहगोचरः" "नीचमां, अस्तमां के शत्रुना घरमा रहेखो ग्रहगोचर निष्फळ ." हवे चन्गोचर फळ कहे जे. चन्मो जन्म त्रिषट्सप्तदशैकादशगः शुनः। छिपश्चनवमोऽप्येवं शुक्लपके बली यदि ॥४५॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ॥ श्ररंजसिद्धि ॥ अर्थ – चंद्र १, ३, ६, ७, १० अने गीयारमा स्थानमा रह्यो होय तो ते शुन बे, तथा शुक्लपक्षमां जो बळवान् होय तो बीजे, पांचमे अने नवमे स्थाने पण शुन बे. नारचंद्र टिप्पणीमां या प्रमाणे विशेष कह्यो बे. - " यात्रा १ युद्ध २ विवाहेषु ३ जन्मेन्दौ रोगसंजवे ४ । क्रमेण तस्करा १ जंगो २ वैधव्यं ३ मरणं ४ भवेत् ॥ १ ॥ " "जन्मना चंद्रमां यात्रा करवाथी चोरनो उपद्रव थाय, युद्ध करवाथी पराजय थाय, विवाद करवाथी विधवापणुं थाय, छाने रोग उत्पन्न थयो होय तो मरण प्राय." हीं को शंका करे के चंद्रगोचर तो पहेलाना ( ४४ मा ) श्लोकमां कही गया बे, माटे हीं फरीथी कहेवामां श्रायुं, तेथी पुनरुक्त दोष थयो. तेनो जवाब ए बे जे - ते वात खरी बे, परंतु चंद्रनुं प्राधान्य बताववाथी ते दोष नथी, केमके जेम मननो उपयोग होय तो ज सर्वे इंद्रियो पोतपोताना विषयोने ग्रहण करवामां समर्थ थाय बे, अन्यथा यती नथी, ते ज प्रमाणे चंद्र शुभ होय तो ज बीजा ग्रहो शुभ फळ दे बे, अन्यथा देता नथी. व्यवहारप्रकाशमां कह्युं बे के - " चंद्र शुभ होय तो बीजा ग्रहो शुभ फळ देनारा ज प्राये होय बे, पण अशुभ फळ आपनारा होता नथी." हर्षप्रकाशमां पण कबे के – “चंदस्सेव बलाबलमास गहा कुणंति सुहमसुहं" "चंद्रनाज बळ अबने पामीने बीजा ग्रहो शुभाशुभ करे बे. " मूळ श्लोकमां बीजे, पांचमे अने नवमे चंद्र रह्यो होय तो ते पण शुज बे, परंतु ते चंद्र शुक्लपक्षमां ने वळी बळवान् होय तो ज. ए प्रमाणे विशेष विधान करेलुं होवाथी पुनरुक्त दोष नथी. शुक्लपक्ष कहेवाथी वृद्धि पामतो चंद्र जाणवो, पण कृष्णपक्ष्मां दय थतो होवाथी ते लेवो नहीं. बळवान् कहेवाश्री शुक्लपक्षमां कृश होय तो बीजे, पांच ने नवमे शुज नथी छाने कृष्णपक्ष्मां चंद्र पुष्ट होय तोपण बीजे, पांच ने नवमे शुभ नश्री एम जाणवुं. रत्नमाला जाण्यमां पण कह्युं बे के – “बीजो, पांच नवमो गुरु जेवुं शुभ फळ आपे बे तेवुं वृद्धि पामतो शुक्लपक्षनो पुष्ट चंद्र पण बीजे, पांचमे अने नवमे स्थाने रह्यो होय तो शुभ फळ आपे बे. उपरना लोकमां जो चंद्र बळवान् होय एम कह्युं, तेथी चंद्रनुं बळाबळ कहे बे. हीनमध्योच्चबलता तिथिवन्तु हिनद्युतेः । बलहानाविदं त्वस्य ग्राह्यं ताराबलं बुधैः ॥ ४६ ॥ अर्थ – चंद्रनुं हीन बळपणुं, सम बळपणुं ने उच्च बळपणुं तिथिनी जेम जाणवु. तथा चंद्रना बळनी दानिने वखते विधानोए आगळ कहेवामां श्रावशे एवं ताराबळ ग्रहण कर, कारण के ते वखते ताराना बळे करीने तेनुं बळवान्पएं बे. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥हितीयो विमर्शः॥ शुक्ल तथा कृष्णपक्षमा पांच पांच तिथिने श्राश्रीने हीन, मध्यम अने उत्तमता जे प्रमाणे कही , ते प्रमाणे चंजर्नु पण हीन, मध्यम अने उच्च वळपणुं अनुक्रमे तथा उत्क्रमे जाणवु. जातक वृत्तिमां तो आ प्रमाणे कडं वे.-"चंड उदय पामे त्यारथी दश दिवस सुधी मध्यम वळवान् बे, बीजा दश दिवस सुधी अधिक बळवान् बे, अने त्रीजा दश दिवस हीन बळवाळो , तथा कृष्ण चतुर्दशी, अमावास्या अने शुक्ल प्रतिपद् ए त्रण दिवस तो सर्वथा बळ रहित बे, परंतु चंज पर सौम्य ग्रहोनी दृष्टि पमती होय तो निरंतर बळवान् बे.” अन्य आचार्यो कहे जे के-"कृष्णपक्षनी अष्टमीना अर्वा नाग पजी अने शुक्ल अष्टमीना अर्धा नाग सुधी चंड क्षीण जाणवो, बाकीना समयमा पुष्ट जाणवो.” नत्र समुच्चय ग्रंथमां तो था प्रमाणे कडं . "उदिते च तथा चन्जे शुजयोगे शुने तिथौ । __ कृष्णस्य दशमी यावत्सर्वकार्याणि साधयेत् ॥१॥ "चंजनो उदय थाय त्यारथी आरंजीने कृष्णपदनी दशमी सुधी शुल योग अने शुल तिथिने दिवसे सर्व शुन्न कार्यों करवां." विशेष ए ने जे-"शुक्लपक्षनी बीजने रोज चंड उदय पामवानो ने तोपण दिवसना नागमां ते तिथि लेवी नहीं, कारण के प्राये करीने दृष्टिना विषयनो नाव (होवापणुं) अने अनावे (नहीं होवापणुं ) करीने बीजनो व्यवहार करवामां श्रावे . ते विषे विवाहवृंदारकमां कडं डे के "उदेति चायं प्रतिपत्समाप्तौ कृशोऽपि वर्धिष्णुतया प्रशस्तः । दीपान्तरस्थो विफलस्तु तावद्यावन्न पृथ्वीनयनाध्वनीनः॥१॥" "श्रा चंड प्रतिपद्नी समाप्तिमा उदय पामे जे. ते कृश बतां पण वृद्धि पामवानो होवाथी प्रशस्त . तथा बीजा दीपमा रहेलो ते चंड ज्यांसुधी जगतना लोकोनी दृष्टिना मार्गमां श्राव्यो न होय, त्यांसुधी ते निष्फळ ये." उपर जे चंजना निर्वळपणामां तारानुं वळ लेवानुं कहुं ते विषे कह्यु बे के__ "चन्नाद्बलवती तारा कृष्णपदे तु नर्तरि । विकले प्रोषिते च स्त्री कार्य कर्तुं यतोऽर्हति ॥ १॥" "कृष्णपक्षमां तो चंड करतां तारा बळवान् , कारण के नर्ता विकलांग होय अथवा परदेश गयो होय तो स्त्री पोते ज कार्य करवाने योग्य वे." तेथी करीने"कृष्णस्याटम्यादनन्तरं तारकावसं योज्यम् । प्रतिपत्प्रान्तोत्पन्नं सन्ध्याकासोदयं यावत् ॥१॥" आ०१३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एच. ॥ आरंजसिधि॥ __"कृष्णपदानी अष्टमीना अर्ध नाग पठी अने शुक्ल प्रतिपद्ने अंते उत्पन्न अयेला संध्याकाळनो उदय थाय त्यांसुधी तारानुं वळ. ग्रहण करवू.” या प्रमाणे व्यवहारप्रकाशमां कडं बे. तारानुं वळ गौण , एम धारवु नहीं; केमके ताराना बळy प्रधानपणुं प्रगट ज . ते विषे लन कहे डे के "ताराबले शशिवलं शशिबलसंयुतसंक्रमाद्वलं नानोः। सूर्यबले सति सर्वेऽप्यशुना अपि खेचराः शुनदाः ॥ १॥" "तारानुं बळ होय तो चंजनुं बळ होय बे, चंजना बळयी युक्त एवी संक्रांति श्रवादी सूर्यनुं बळ होय बे, अने सूर्यनुं बळ ते ज सर्वे अशुल ग्रहो पण शुक्ल फळदायक श्राय ." हवे तारा कहे .जनितान्नवकेषु त्रिषु जनि ? कर्मा १० धान रए संझिताःप्रथमाः। ताज्यस्त्रि३-१२-२१पञ्च५-१४-२३सप्तम७-२६-२५ताराः स्युन हि शुजाःक्वचन अर्थ-जेना जन्मने समये जे नक्षत्रमा चंड होय ते नक्षत्र तेनुं जन्मनक्षत्र कहेघाय जे. ते जन्मनक्षत्रथी अथवा तेनी खबर न होय तो नामना नक्षत्रधी आरंजीने नव नवनी त्रण अोळ करवी. ते त्रणे नवकमां जे पहेली पहेली त्रण तारा होय तेनुं नाम अनुक्रमे जन्म तारा, कर्म तारा अने श्राधान तारा जाणवू. ते त्रणे नवकमांनी त्रीजी त्रीजी एटले ३-१२-२१, पांचमी पांचमी एटले ५-१४-२३ अने सातमी सातमी एटले ७-१६-२५, श्राटली तारा कोइ पण वेकाणे शुल नश्री. __ जन्म तारादिकनी संज्ञा माटे कयुं ने के-"अाधानाद्दशमे जन्म दशमे कर्म जन्मलात्" "श्राधाननी ताराथी दशमी तारानी संज्ञा जन्म , अने जन्मनी ताराथी दशमी सारा कर्म नामनी ." बीजी, त्रीजी विगेरे ताराऊनी संज्ञा श्रा प्रमाणे जे."संपविपत्मसंज्ञा प्रत्यरा साधका मृतिः। मैत्री परममैत्री च स्युर्पितीयादिमा श्माः॥१॥" त्रणे नवकमांनी बीजी बीजी तारानुं नाम संपत् , त्रीजी त्रीजीनुं विपत् , चोथीन क्षमा, पांचमीनुं प्रत्यरा, बहीनुं साधका, सातमीनुं मृति, श्राउमीनुं मैत्री अने नवमीनू परममैत्री, एवां नामो के. श्रामांनी प्रत्यराने बदले यमा एवं पण बीजुं नाम के. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१५ ॥हितीयो विमर्शः॥ ताराउनी स्थापना. जन्म | संपत् विपत् क्षमा यमा साधना निधना मैत्री । परममैत्री कमे संपत् विपत् क्षमा यमा साधना निधना। मैत्री | परममैत्री १३ १४ १७ आधान संपत् विपत् क्षमा यमा साधना निधना मैत्री | परममैत्री १५ - २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ । ५७ श्रा तारामा चोथी चोश्री, बनी बनी अने नवमी नवमी तारा श्रेष्ठ बे. ते विषे लन कहे ने के___"शदं न्यूनं तिथिyना पानायोऽपि चाष्टमः। तत्सर्व शमयेत्तारा षट्चतुर्थनवस्थिताः ॥१॥" "नक्षत्र न्यून एटले अशुल होय, तिथि पण न्यून होय अने चंड पण आठमो (अशुन ) होय, तोपण बची, चोथी अने नवमी तारा होय तो ते सर्वने समावी दे बे-दबावी दे बे." पहेली, बीजी अने आग्मी ए त्रण त्रण तारा मध्यम , अने त्रीजी, पांचमी, तथा सातमी ए त्रण त्रण तारा अधम डे ते तो पूर्वे कडं ज . हवे ते ताराऊनो विशेष कहे जे.जन्माधानान्वितास्तिस्त्रस्तास्त्यजेत्दौरयात्रयोः। __ शुक्लेऽप्यासूस्थिते रोगे दीर्घक्लेशोऽथवा मृतिः ॥ ४ ॥ अर्थ-जन्म अने श्राधान सहित ते त्रण त्रण (त्रीजी, पांचमी अने सातमी) तारा दौर तथा यात्रामा तजवा योग्य बे. शुक्लपक्षमां पण था ताराउने विषे रोग उत्पन्न भयो होय तो चिरकाळ सुधी क्लेश रहे , अथवा मरण थाय बे. त्रण त्रण एटले दरेक टळनी त्रीजी त्रीजी, पांचमी पांचमी अने सातमी सातमी समजवी. अर्थात् नव जाणवी. वळी खल्ल कहे डे के "यात्रायुधविवाहेषु जन्मतारा न शोजना। शुनाऽन्यशुजकार्येषु प्रवेशे च विशेषतः॥१॥ जन्मवदाधानं कर्मसु शस्तेषु शस्तमेव स्यात् । यञ्च न जन्मनि कार्य विवर्जनीयं तदाधाने ॥२॥" "यात्रा, युद्ध श्रने विवाहमा जन्मनी तारा सारी नथी. वीजां शुल कार्यमां ते जन्म रा शुल , अने प्रवेशमां तो विशेष शुज ने (१). जन्म तारानी जेवी आधान तारा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंजसिद्धि॥ पण जाणवी. एटले के ते पण वीजां शुज कार्योमा प्रशस्त ज , अने जे कार्य जन्म तारामां करवानुं नश्री, ते कार्य आधानमां पण वर्जवा योग्य ते ()". ___ जो के शुक्लपक्ष्मां चंड ज बळवान् बे, ते वखते तारानुं प्राधान्य नथी, कारण के ते विषे कह्यु के "शुक्ले परे बली चन्मस्ताराबलमकारणम् । पत्यौ स्वस्थे गृहस्थे च न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति ॥१॥" "शुक्लपक्ष्मां चंड ज बळवान् , तेमां तारानुं बळ कारण नथी, केमके पति साजो होय अने घेर ज होय तो स्त्री स्वतंत्रताने योग्य नथी." आश्री करीने शुक्लपक्षमां चंजनुं वळ ज प्रधान , तोपण जन्मनी, आधाननी तथा त्रीजी त्रीजी, पांचमी पांचमी अने सातमी सातमी, ए अगीयार ताराऊमां जो रोग उत्पन्न अयो होय तो दीर्घ क्लेश अथवा मरण थाय बे. एटले के बीजा ग्रहो प्रतिकूळ न होय तो दीर्घ क्लेश थाय अने बीजा ग्रहो प्रतिकूळ होय तो मरण थाय. ते विषे सन कहे के "यद्यपि स्याद्वली चन्मस्तारा तथाप्यनिष्टदा। जन्माधाने तृतीया च पञ्चमी सप्तमी तथा ॥१॥ शेषासु तु तारासु व्याधिः साध्यो नृणां नवति जातः। व्याधिवदवबोधव्याः सर्वारंजाश्च तारासु ॥ २॥" "जो के चंग बळवान् होय तोपण जन्मनी, आधाननी, त्रीजी त्रीजी, पांचमी पांचमी श्रने सातमी सातमी तारा अनिष्टने आपनारी २ (१), अने बाकीनी तारामां मनुप्योने उत्पन्न श्रयेलो व्याधि साध्य आय . आ व्याधिनी जजेम ताराउने विषे करेखा सर्वे आरंनो जाणवा (२).” उपर रत्नमाला नाष्यना प्रमाणथी कडं इतुं के “यात्रादिकमां चंजने शुल अवस्थावाळो जोवो.” तेथी करीने हवे चंजनी अवस्था कहे . चन्धावस्था प्रोषित १ हृत २ मृत ३ जयपहास ५ हर्ष ६ रति निषाः। नुक्ति ए जरा १० जय ११ सुखिता राश्यंशा हादश यथार्थाः ॥४ए ॥ __ अर्थ-चंनी आ वार अवस्था -प्रोषिता १, हृता २, मृता ३, जया , हासा ५, हर्षा ६, रति ७, निषा ८, नुक्ति ए, जरा १०, नय ११ अने सुखिता १२. आ अवस्था चंनी राशिना घादशांशने विषे अनुक्रमे जाणवी. ते अवस्थानुं फळ ते ते नामने अनुसारे . राशिना घादशांश था रीते काढवा-एक राशिमां चंनो लोग जेटली घमी होय ते पंचांगमा जोड्ने निर्णय करवो. जेम सामान्य रीते एकसो ने पांत्रीश धमी एक राशिनं Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः ॥ १०१ जोगकाळ चंद्रने होय बे, तेथी तेना वार जाग करतां अगीयार घमी ने पंदर पळ एक एक जागमां आवे छे. हवे इष्ट वखते ( कार्य करती वखते ) १३५ घमीमांथी जेटली धमी जोगवा होय तेने सवा गीयार घमीए जाग लइने जोगवेलो काळ काढवो, बाकीनी घमीमांथी जोग्य काळना द्वादशांशो पण काढवा. पबी जेटलामा द्वादशांशमां कार्य कर होय ते द्वादशांशनुं नाम अनुक्रमे जाणी कार्य करवुं. अहीं सामान्यaha तोप एम जाणवु के दरेक राशिमां बादशांशनी रीते चंद्र बार बार अवस्थाबने जोगवे बे. ते विषे यतिवल्लनमां कह्युं वे के "राशौ राशौ पादशामूर्मुक्तेऽवस्थाश्च चन्द्रमाः । द्वादशांशक्रमात्सां हिघ्य देनाख्यासदृक्फलाः ॥ १ ॥ " "चंद्र दरेक राशिमां द्वादशांशना क्रमथी सवा बे दिवसमां नामने सदृश फळवाळी बार बार अवस्थाउने जोगवे बे." जावार्थ एबे जे - मेष राशिमां रहेला चंदनी प्रोषिताथी आरंजीने बार अवस्था जावी, वृषमां रहेला चंद्रनी हृताथी आरंजीने बार अवस्था गणवी, मिथुनमां रहेला चंदनी मृताथी आरंजीने गणवी विगेरे. मूळ लोकमां " यथार्थाः” एवं कयुं वे तेनो अर्थ ए वे जेते अवस्था पोतपोतानी संज्ञाने सदृश फळवाळी बे. तेथी करीने प्रोषिता, हृता, मृता, निद्रा, जरा अने जया, ए नामनी व अवस्था तजवा योग्य बे. एम नारचंड टिप्पणीमां कहां बे. तेथी ज दिनशुशिमां पण कधुं वे के "परासि वारसा असुहाउं चएज सुहो विससी । एहिं होइ असुहो सुहाहिं सुहो वि होइ सुहो ॥ १ ॥ " " दरेक राशिमां बार बार द्वादशांशो ( अवस्था ) बे, तेमांथी अशुभ अंशोने वर्जवा, केमके शुभ होय तोपण ए अशुभ अवस्था व अशु थाय बे, अने चंद्र शुज होय तोपण ते शुभ अवस्थानवमे शुभ थाय बे." हवे शनि पुष्ट बे, माटे तेनुं नक्षत्र गोचर जू कहे बे. - मन्दतः प्रथम १ वेद ४ षम ६ ब्धि ४ बाल ५, त्रि ३ ले २ क १ चन्द्र १ मितनेषु यथाक्रमेण । पीडा १ विभूति ५ पथ ११ वन्धन १५ धर्म २० लाज २३, पूजा 245 नित्य २६ पमृतीः २७ फलमूचुरुच्चैः ॥ ५० ॥ अर्थ - नक्षत्रमां शनि रहेलो होय ते नक्षत्र पीमाकारी वे, तेनी पठीनां चार नक्षत्रो लक्ष्मीने आपनाएं बे, त्यारपवीनां व पंथ करावनाएं बे, ते पबीनां चार बंधन करावनाएं बे, ते पछीनां पांच धर्म करावनाएं बे, ते पबीनां त्रण लाज आपनाएं बे, ते Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि॥ पसीनां बे पूजा ( सन्मान ) आपनारांचे, ते पजीनु एक परानव श्रापना , श्रने ते पनीनु एक मृत्यु आपनाएं बे. अहीं शनिना नदत्रयी पोताना नक्षत्र सुधी गणवू, तेमां जेटली संख्यावाळु पोतार्नु नत्र होय, तेटली संख्यावाळा नक्षत्रनुं फळ जे कडं ने ते जाणवू. अहीं शनिनो आकार पुरुष जेवो डे ते कह्यो नथी, तोपण जाणी देवो. ते विषे यतिवद्धनमां कडं बे के "यस्मिन् शनिश्चरति वक्रगतं तदृदं चत्वारि दक्षिणकरेऽहियुगे च पट्कम् । चत्वारि वामकरगाण्युदरे च पञ्च मूर्ध्नि त्रयं नयनयोर्षितयं गुदे च ॥१॥" "जे नत्रमा शनि चालतो होय ते नक्षत्र तेना मुखमां मूकबु, पसीनां चार जमणा हाथमां, पीनां व बे पगमां, पतीनां चार मावा हाथमां, पसीनां पांच उदर उपर, पसीनां त्रण मस्तक उपर, पीनां वे नेत्रमा अने पळीनां बे गुदामां मूकवां." अहीं बे गुदामां कह्यां तेनुं कारण ए के ज्यारे पट्ट विगेरेमां पुरुषनो आकार चितरीए त्यारे गुदा अने गुह्यनी एकता ज जणाय बे. तेथी करीने अहीं गुदामां ज बे मूक्यां बे. मूळकारे तो ते बन्ने स्थाननी जिन्न विवदा करीने बन्ने स्थानमां एक एक नत्र कडं . शनि नरनी स्थापना. १ । पीमा दक्षिण हाथे लक्ष्मी बे पगे मावा हाथे बंधन उदरे धम मस्तके लाल बे नेत्रे पूजा गुदाए परानव गुह्ये अपमृत्यु रुज्यामल नामना ग्रंथमां नवे ग्रहोनां पुरुषाकारनी स्थापनाए करीने गोचरफळ कह्यां बे. तेमां रवि नरनुं स्वरूप मूळ ग्रंथकार ज जातकाधिकारमा कहेशे. बाकीना ग्रह नरो नीचे प्रमाणे. दृग् ३ बाहुयुग्म ६ वक्त्रेषु ३ जानां प्रत्येकतस्त्रिकम् १२। हृदि सप्तं १ए तथा गुह्ये चतुष्कं २३ पञ्चकं पदोः २० ॥१॥ वक्त्रे पीमां नृशं चकुर्हदयेषु शुनं सुखम् । वाह्वोर्लानं मृतिं गुह्ये नम दत्ते पदोः शशी ॥३॥ मुखे पंथ wwwrr. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः॥ चंज नरनी दृष्टिमा ३, बे वाहुमां ६, मुखमां ३, हृदयमां , गुह्यमां ४ अने वे पगमां ५ नक्षत्रो . तेनुं फळ-मुखमां होय तो अत्यंत देहपीमा करे, चकुमां होय तो शुन्ज फळ आपे, हृदयमां होय तो सुख आपे, बाहुमां होय तो लाल आपे, गुह्यमां होय तो मृत्यु आपे, अने पगमां होय तो ज्रमण ( देशाटण ) आपे ( करावे ). अहीं पण चंजना नत्रथी पोताना नत्र सुधी गणतां जेटलामुं नत्र ज्यां होय ते स्थानफळ ते आपे बे. चंड नरनी स्थापना. १ नेत्रे . शुन w my हृदये गुह्ये बन्ने हाथे लान मुखे ३ अतिपीमा सुख मरण बन्ने पगे । ५ त्रमण त्रयं त्रयं त्रिमुखदृशिरस्सु ए घयानि वामेतरबाहुकंठे १५॥ पंचोरसि २० स्युस्त्रितयं च गुह्ये २३ चत्वारि चांहूयोः २७ कुजचक्रमेतत् ॥१॥ कीर्ति शिरसि हुन्नेत्रे लानं चरणयोन॒मम् । ___ गुह्येऽन्यस्त्रीरतिं दत्ते कुजः शेषेषु चाशुनम् ॥ २॥ मंगळ नरनां मुख, दृष्टि अने मस्तक पर त्रण त्रण मूकवां ए, माबे हाथे, जमणे हाथे अने कंठे बवे मूकवां १५, जरःस्थळ उपर पांच मूकवां २०, गुह्यमांत्रण २३, अने वन्ने पग पर चार मूकवां २७. आ मंगळ नरनुं चक्र थयु. तेनुं फळ-मस्तक पर होय तो कीर्ति आपे, हृदय अने नेत्रमा होय तो लान थापे, चरणमां होय तो ब्रमण करावे, गुह्यमां होय तो परस्त्री पर प्रीति आपे, अने वीजां स्थानोमां होय तो ते अशुन . मंगळ नरनी स्थापना. १ रोग लाल मस्तके यश वाम करे दक्षिण करे शोक कंठे हिक्का हृदये लान गुह्ये परस्त्री रति बन्ने पगे त्रमण mm mrror रोग Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख नेत्रे कंठे बे पगे १०४ ॥श्रारंसिद्धि। वक्त्रनेत्रगलोरस्सु पादयोः पञ्च पञ्च च २५ । वाहुयुग्मे तथा गुह्ये त्रीएयुडूनि २८ नवन्ति च ॥१॥ वक्त्रहृद्धाहुषु ज्ञप्तिं गुह्यपादेषु संदयम् । गले सुस्वरतां दत्ते नेत्रे राज्यं बुधो ग्रहः ॥२॥ बुध नरना मुखमां, नेत्रमां, गळामां, उरःस्थळमां अने बन्ने पगमां पांच पांच मूकवां एटले पचीश थयां. तथा वे वाहुमां बे अने गुह्यमां एक मूकवां एटले अठ्यावीश नक्षत्रो थयां. तेनुं फळ.-मुख, बाहु अने हृदयने विषे होय तो ज्ञान आपे, गुह्य अने पादने विषे रोय तो मृत्यु थापे, गळामां होय तो सारो स्वर आपे, अने नेत्रमा होय तो राज्य आपे. बुध नरनी स्थापना. ३ झान राज्य सुस्वरपणुं हृदये झान क्ष्य वाम करे झान दक्षिण करे झान गुह्ये क्ष्य शीर्षे चत्वारि राज्यं युगपरिगणिता सव्यहस्ते च लक्ष्मीरेक कंठे विनूर्ति मदनशरमिते वदसि प्रीतिलालम् । पद्भिः पीमा हियुग्मे जलधिपरिमिते वामहस्ते च मृत्यु दृग्युग्मे त्रीणि कुर्युर्नृपतिसमसुखं वाक्पतेश्चक्रमेतत् ॥ १॥ गुरु नरना मस्तक पर चार नक्षत्र मूकवां ते राज्य आपे. दक्षिण हायमा चार मूकवां ते लक्ष्मी आपे. एक कंठे मूकवु ते विनूति (धन) आपे. गतीमां पांच मूकवां ते प्रीतिनो लाल श्रापे. बे पगमां ब मूकवां ते पीमा करे. काबा हाथमां चार मूकवां ते मृत्यु आपे, नेत्रोमा त्रण मूकवां ते राजानी जेवू सुख आपे. आ गुरु नरनुं चक्र जाणवू. गुरु नरनी स्थापना. ४ मस्तके राज्य जमणे हाथे सदमी कंठे धन प्रीति बे पगे असुख (पीमा) माबे हाथे मृत्यु बे नेत्रे सुख हृदये w um Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥वितीयो विमर्शः ॥ युगं शीर्षे ऽयं वन्ने चतुष्क हृदयेऽपि च । दश बाह्वोस्त्रयं गुह्ये जान्वंहिषु यं यम् ॥१॥ जानुमुष्ककपादेषु दुःखं वाह्वोर्गेपार्हणाम् । हृजीर्षे सौम्यतां वक्त्रे मरणं कुरुते सितः ॥२॥ शुक्र नरना मस्तक पर चार, मुखमां वे, हृदयमां चार, वे बाहुमां दश, गुह्यमां त्रण, जानुमां बे अने पगमां वे मूकवां. तेनुं फळ-जानु, गुह्य अने पादमां होय तो मुःख थापे, बाहुमां होय तो राजसन्मान प्रापे, हृदय अने मस्तक पर होय तो सौम्यता श्रापे तथा मुखमां होय तो मरण थापे. शुक्र नरनी स्थापना ५. मस्तके सौम्यता मुखे मरण हृदये सौम्यता हस्तध्ये राजपूजा गुह्ये मुःख जानुष्ये। दुःख पादधये । २ । पुःख वक्त्रे त्रीणि जयाय दक्षिणकरे चत्वारि लदम्यै पदोः षडू ब्रान्त्यै न सुखाय वामककरे चत्वारि हुत्स्थं त्रयम् । लब्ध्यै कंगमेकमामयकरं शीर्षे त्रयं राज्यदं सौलाग्यं युगलेऽदिगे मृतिरथो गुह्यष्ये राहुनात् ॥१॥ राहु नरना मुखमां त्रण नक्षत्रो मूकवां ते जय आपे, दक्षिण हाथे चार मूकवां ते सदमी थापे, वे पगमां मूकवां ते भ्रमण करावे, मावा हाथमां चार मूकवां ते असुख करे, हदयमां त्रण मूकवां ते लब्धि (लाल) आपे, कंठे एक मूकवू ते रोग करे, मस्तक पर त्रण मूकवां ते राज्य आपे, बे नेत्रमा बे मूकवां ते सोनाग्य आपे अने गुह्यमां बेमूकवां ते मृत्यु आपे. राहु नरनी स्थापना ६. मुखे जय जमणे हाथे सदमी बे पगे ब्रमण वाम करे क्लेश लान कंठे रोग मस्तके राज्य बे नेत्रे सौजाग्य मरण हृदये Wwwmrmor N गुह्ये आ०१४ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शारंसिधि॥ वक्त्रे हे जयदे जयाय शिरसि स्यात्पञ्चकं पञ्चक नीत्यै तत्फणगं जयाय करयोयुग्मे चतुष्कं स्थितम् । अंड्योः पञ्च सुखाय हृत्स्थयुगलं शोकाय कंठे व्यथा नीत्यै स्याच्च चतुष्टयं फलमिदं केतौ तदाक्रान्तनात् ॥ १॥ केतु जे नक्षत्रमा होय ते नत्र तथा तेनी पीनुं एम वे नदात्रो तेना मुखमां मूकवां ते जय आपनारां बे, पसीनां पांच मस्तके मूकवां ते जय आपे, पठीनां पांच फणा पर मूकवां ते जय आपे, पसीनां चार बे हाथमा मूकवां ते जय आपे, पजीनां पांच बे पगमां मूकवां ते सुख आपे, पजीनां बे हृदयमां मूकवां ते शोक करावे, पतीनां चार कंठे मूकवां ते पीमा तथा लय करावे. केतु नरनी स्थापना . COECD जय मस्तके जय फणे जय बे हाथे जय वे पगे सुख हृदये शोक कंठे ४ पीमा, जय अहीं कोई शंका करे के-या प्रमाणे अन्य अन्य ग्रह नरोना शुनाशुन्न फळनो नेद होवाथी ग्रह संबंधी ग्रहगोचर फळनो निर्णय शीरीते अश् शके ? तेनो जवाव एजेइष्ट समये जे ग्रह सर्वथी अधिक बळवान् होय, ते ग्रह ते वखते शुनाशुन फळ आपे ने. श्रा सर्वे ग्रह नरोने जन्मसमये ज केटलाक श्राचार्यों विचारे . हवे ग्रहगोचर अशुल होय तो तेने निष्फळ करवा माटे अष्टकवर्गने कहे जे. गोचरेण ग्रहाणां चेदानुकूल्यं न दृश्यते । जन्मलग्नग्रहेन्योऽष्टवर्गेणालोकयेत्तदा ॥५१॥ अर्थ-जो ग्रहोनुं गोचरवके अनुकूळपणुं न देखातुं होय तो जन्मश्री, लग्नथी अने प्रहोथी अष्टवर्गे करीने जोवु. अहीं ग्रहोने सामान्य रीते कह्या रे, तोपण "रवि, चं अने गुरु ए त्रण ग्रहोर्नु ज अनुकूळपणुं न देखाय तो” एवो अर्थ करवो. नारचंञमां पण कडं वे के “रविशशिजीवैः सबलैः शुलदः स्याजोचरोऽथ तदलावे । माह्याष्टवर्गशुद्धिर्जननविलग्नग्रहेन्यस्तु ॥ १॥" Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥हितीयो विमर्शः ॥ "बळवान् रवि, चं अने गुरुए करीने गोचर शुनदायी थाय , अने ते (शुज गोचर ) ने अलावे जन्मथी, लग्नथी अने ग्रहोथी अष्टवर्गनी शुदि ग्रहण करवी." अष्टवर्ग एटले राशिमां चालता ग्रहनो बीजा ब ग्रहनां स्थानोथी, पोताना स्थानथी अने लग्नना स्थानथी जे विचार करवो ते विचार अष्टवर्ग कहेवाय . ते ज कहे .अर्कः स्वमन्दनौमेच्यो नवव्यायाष्टकेन्गः ए,२,१९,७,१,४,७,१० । त्रिकोणायारिगो ए,५,११,६ जीवाबुकादन्त्या रिकामगः १२,६,७ ॥५॥ चन्मामुपचयस्थो ३,६,१०,११,काहीधर्मोपचयान्त्यगः५,ए,३,६,१०,११,१२,। पातालोपचयान्त्येषु ४,३,६,१०,११,१२ लग्नाच तरणिः शुनः॥ ५३॥ अर्थ-सूर्य पोताना स्थानथी, शनिथी अने मंगळथी ए,२,११,७,१,४, ७ अने १० मे स्थाने रह्यो होय, गुरुथी ए,५,११ अने ६ स्थाने रह्यो होय, शुक्रथी १२, ६ अने ७ मे स्थाने रह्यो होय, चंथी ३,६,१० अने ११ मे स्थाने रह्यो होय, बुधथी ५,ए,३, ६,१०,११ अने १२ मे स्थाने होय, तथा लग्नथी ४,३,६,१०,११ अने १५ मे रह्यो होय तो ते सूर्य शुल ने, एटले अष्टवर्गथी तेनी शुद्धि जाणवी ॥इति सूर्याष्टकवर्गः॥१ चन्धश्चोपचये ३,६,१०,११, लग्नानानोः साष्टस्मरे स्थितः ३,६,१०,११,७,७। वात्सादिसप्तमे ३,६,१०,११,१,७, ष्वारात्सप्रव्यनवमात्मजे ३,६,१०,११,२,ए,५ ॥ ५४॥ बिपत्रिलानात्मजकेन्गो ७,३,११,५,१,४,७,१० बुधामुरोस्तु रिष्याष्टमलानकेन्गः १२,७,११,१,४,७,१० । शुक्रात्रिपंचास्तनवायखांबुगः३,५,७,ए,११,१०,४ शुनः शनेः षटत्रिसुतायगः ६,३,५,११ शशी ॥ ५५॥ अर्थ-चं लग्नथी ३,६,१० अने ११ मे होय, सूर्यथी ३,६,१०,११, अने सातमे होय, पोताना स्थानथी ३,६,१०,११,१ अने ७ मे रह्यो होय, मंगळधी ३,६,१०,११, २,ए भने ५ मे होय, बुधथी ७,३,११,५,१,४,७ अने १० मे होय, गुरुथी १५,७,११, १,५,७ अने १० मे होय, शुक्रथी ३,५,७,ए,११,१० अने । थे होय, तथा शनिथी ६,३,५, अने अगीयारमे होय तो ते चंड शुन्न . ॥ इति चन्माष्टकवर्गः ॥२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंभसिद्धि ॥ कुज इन्दोरुपचयने ३,६,१०,११ साधे ३,६,१०, ११, १ लग्नात्सपञ्चमे ३,६,१०,११,५ सूर्यात् । यायाष्टकेन्द्रगः २, ११, ८, १, ४, ७, १० स्वात्सौम्या त्रिसुतारिलानस्थः ३, ५, ६, ११ ॥ ५६ ॥ जीवात्खान्त्यायारिषु १०, १२, ११,६ शुक्रा विद्रान्त्यलाज शत्रुगतः, १२, ११,६ । मन्दाल्लाजनवाष्टम केन्द्रस्थः ११, ५, ८, १,४,७,१० शोजनो जौमः ॥ ५१ ॥ १०० अर्थ - मंगळ चंद्रथी ३,६,१०अ ११ मे स्थाने होय, लग्नथी ३,६,१०,११ अने १ ले स्थाने होय, सूर्यथी ३,६,१०,११ ने ए मे होय, पोताना स्थानथी २,११, ८, १, ४,७ ने १० मे होय, बुधथी ३, ५, ६ छाने ११ मे होय, गुरुथी १०,१२,११ छाने ६ होय, शुक्रथी ८, १२, ११ अने ६ हे होय, तथा शनिथी ११,७,८,१,४,७ अने १० मे होय तो ते मंगळ शुन बे. ॥ इति जौमाष्टकवर्गः ॥ ३ बुधोऽतोऽन्त्यायनवारिधीषु १२, ११, ५, ६, ८ स्थितः स्वतः सत्रिदशादिमेषु १२, ११, ५, ६,५, ३,१०,१ । द्विषड्दशायाष्टसुखेषु २, ६, १०, ११,८,४ चन्द्रात् लग्नात्तु तेष्वाद्ययुतेषु १२, ६, १०, ११, ८, ४, १ शस्तः ॥ २८ ॥ कुजशनितो व्यन्त्या रिषु १, २, ३, ४, ५, ७, ८, ९, १०, ११ जीवाद रिनिधनलाज रिष्यस्थः ६, ८, ११, १२ । शुक्रादापुत्राष्टमनवमायस्थो १, २, ३, ४, ५, ८, ९, ११ बुधः शुनदः ॥ ५‍ ॥ अर्थ - बुध सूर्य १२,११,५,६ अने ५ मे रह्यो होय, पोताना स्थानथी १२,११, ए, ६, ९,३, १० अने १ ले रह्यो होय, चंद्रथी २,६,१०,११,८ अने ४ थे रह्यो होय, लग्न २,६,१०,११,८,४ अने १ ले रह्यो होय तो प्रशस्त वे, तथा मंगळ छाने शनिथी १,२,३,४,५,७,८,९,१० अने ११ मे होय, गुरुश्री ६,८,११ अने १२ मे होय, तथा शुक्रथी १, २, ३, ४, ५, ८, ने ११ मे होय तो बुध शुभ फळदायक बे. ॥ इति बुधाष्टकवर्गः । ४ गुरुः केन्द्रस्वरन्ध्राये १, ४, ७, १०, २, ८, ११ वात्स्वात्सत्रिषूत्तमः १, ४, ७, १०, २, ८, ११,३ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः ॥ त्रिनवखि १,४,७,१०,२,७,११,३,० न्दोः स्वधीका मनवायगः २, ५, ७, ९,११ ॥ ६० ॥ खा दिखाय सुखधी तपोऽरिषु २, ९, १०, ११, ४, ५, ७,६ झारुः स्मरयुतेषु २, ९, १०, ११, ४, ५, ७, ६, ७ लग्नतः । स्वत्रिकोण रिपुखायगः २, ४, ५, ६, १०, ११ सितात् त्र्यन्त्यधी रिपुषु ३,१२, ५, ६ मन्दतः शुनः ॥ ६१ ॥ अर्थ- गुरु मंगळथी १,४,७,१०,२० अने ११ मे होय, पोताना स्थानथी १, ४, ७, १०,२,८,११ अने ३ जे होय, सूर्यथी १, ४, ७, १०, २०,११,३ अने मे होय, चंद्रथी २,५,७, अने ११ मे होय, बुधथी २,१, १०, ११, ४, ५, अने ६ हे होय, लग्नथी २,१,१०,११,४,५,ए, ६ ने 9 मे होय, शुक्रथी २, ४, ५, ६, १० अने ११ मे होय, तथा शनिथी ३,१२,५ छाने ६ हे होय तो ते गुरु शुभ बे. ॥ इति गुर्वष्टकवर्गः ॥ ५ शुक्रो लग्नादासुतधर्मायाष्टसु १, २, ३, ४, ५, ९,११,० मतः स्वतः साचः १, २, ३, ४, ५, ९, ११, ८, १० । शशिनः सान्त्यः १, २, ३, ४, ५, ९, ११, ८, १२ शनितः खायतपत्रिसुखधीनृतिषु १०, ११,५,३,४,५,८ ॥ ६२ ॥ व्याष्टगोsa ११, १२, हुधा त्रिकोणाय ४, ५. शनि षट्त्रिगः ए, ५, ११,६, ३ शुभदः । ध्यापो क्लिमातिषु ५, ३, ६, ९, १२, ११ कुजाङ्कुरोत्रिकोणष्टखायगः ए, ५, ८, १०, ११ शुक्रः ॥ ६३ ॥ अर्थ – शुक्र लग्न १, २, ३, ४, ५, ९, ११ अने मे होय, पोताना स्थानथी १, २, ३, १० छाने १० मे होय, चंद्रथी १, २, ३, ४, ५, ९, ११, ८ अने १२ मे होय, ०,११,९,३,४,५ छाने मे होय, सूर्यथी ११, १२ अने मे होय, बुधथी ए, ५, ११, २ ने ३ जे होय, मंगळथी ए, ३, ६, ९, १२ अने ११ मे होय, तथा गुरुथी ,,८,१० अने ११ मे होय तो ते शुक्र शुभ बे ॥ इति शुकाष्टकवर्गः ॥ ६ १० ए Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारलसिधि॥ शनिः खात्यायपुत्रारि ३,११,५,६ ष्वारात्सव्ययकर्मसु ३,११,५,६,१२,१. केन्डाष्टायार्थगः१,४,७,१०,७,११,२ सूर्याच्चन्प्रात् षत्र्यायगो ६,३,११ मतः६४ आद्यांबूपचये लग्नात् १,४,३,६,१०,११ कवेरायव्ययारिषु ११,१२,६ । गुरोःसधीषु ११,१२,६,५ सान्त्राष्टधर्मेषु ११,१२,६,१०,,एझावनिर्मतः ॥६५॥ अर्थ-शनि पोताना स्थानश्री ३,११,५ अने ६ से होय, मंगळयी ३,११,२,६,१२ अने १० मे होय, सूर्यथी १,४,७,१०,७,११ अने २ जे होय, चंथी ६,३ अने ११ मे होय, लग्नश्री १,४,३,६,१० अने ११ मे होय, शुक्रथी ११,१२ अने ६ हे होय, गुरुथी ११,१२,६ अने ५ मे होय, तथा बुधथी ११,१२,६,१०, ७ अने ए मे होय तो ते शुन्न मानेलो . श्रा चौद श्लोकोनो नावार्थ ए के जे-पहेला श्लोकमा जे अर्क ( सूर्य ) शब्द ने ते ज्यारे यात्रादिक करवानी चा होय, ते समये जे राशिनो सूर्य होय ते तात्कालिक सूर्य कहेवाय जे अने "स्वमन्द" ए ठेकाणे जन्मकाळनो सूर्य ग्रहण करवानो के. ए जरीते शनि, मंगळ विगेरे पण जन्मकाळना ज लेवाना . तेथी करीने तात्कालिक सूर्य विगेरे जो जन्मकाळना सूर्य, शनि विगेरेथी नवमा, बीजा विगेरेमांना कोइ पण स्थाने होय तो ते शुक्ल . ते सर्व शुन्न स्थाने रेखा “" आपे बे एवी परिभाषा बे. तेथी करीने जेटला लग्नना ग्रहोथी कहेलांमांनां कोइ पण स्थानोमां तात्कालिक सूर्यादिक पमाय, तेटली रेखा देवी, अने जेटला लग्नना ग्रहोथी कहेलां स्थानोमांनां जेटलां स्थान न पमाय तेटलां शून्य-मीमां "," देवां. ए रीते करवायी दरेक ग्रहने आश्रीने आठ आठ रेखा संनवे बे. तेमां जो चार के तेथी उगी के तेथी वधारे रेखाउँ पामीए तो अनुक्रमे ते मध्यम, अधम अने श्रेष्ठ जाणवी, अने तेम करवाथी जे ग्रहनी रेखा घणी होय ते ग्रह कदाच गोचरवमे अशुल होय तोपण शुल जाणवो, अने शून्य-मीमांई घणणं होय तो गोचरवमे शुन ग्रह पण अशुन जाणवो. केटलाक आचार्यों कहे जे के-“कार्य वखते अष्टकवर्गनी रेखा मेळवाती नथीमळती नथी; परंतु गमे ते वखते जन्मकुंमळीने ज सात वार जूदी जूदी स्थापन करीने पछी पहेली कुंमळीमां जे स्थाने सूर्य रह्यो होय, त्यांथी नवमा विगेरे श्रावे स्थानोमां आठ रेखा देवी ( दरेक स्थानमां एक एक रेखा काढवी ). ए ज प्रकारे शनि अने मंगळथी पण दरेकमां आठ आठ रेखा देवी. गुरुथी चार रेखा देवी, शुक्रथी त्रण, चंधी चार, बुधधी सात अने लग्नथी ब रेखा देवी. आ प्रमाणे ते सूर्यना अष्टक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दितीयो विमर्शः ॥ वर्गनी कुमळीमां सर्व मळीने सूर्यनी ४ रेखा श्रइ. ए ज प्रमाणे बीजी, त्रीजी विगैरे चंजादिकना अष्टकनी कुंमळीमा अनुक्रमे सर्व रेखाउँ करवी. तेथी चंधनी कुंमळीमां पए, मंगळनी कुंमळीमा ४०, बुधनी कुंमळीमा ५७, गुरुनी कुंमळीमा ५६, शुक्रनी कुमळीमा ५२, अने शनिनी कुंमळीमा ३ए रेखा कुल पाय .” कह्यु ले के “वसुवेदौ १ नन्दवेदौ खवेदौ ३ वसुसायकौ ।। षड्वाणौ ५ विशरौ ६ नन्दवह्नी ७ रेखा श्नादिजाः॥१॥" "सूर्यथी श्रारंजीने अनुक्रमे पए,४०,५८,५६,५३ अने ३ए रेखा आय जे.” आ प्रमाणे एक एक ग्रहना अष्टकवर्गनी कुंमळीमां बारे राशिनां स्थानोमां जेम संजवे तेम एक एक रेखा देवी (करवी), अने बाकीनां स्थानोमां शून्य मूकवी. एम करवाथी एक ग्रहने स्थाने उत्कृष्टी आठ रेखानो संन्नव श्राय बे. त्यारपजी कार्य वखते जे ग्रह जे राशिमां होय, ते स्थान जो. ते स्थानमां जो रेखानुं अधिकपणुं होय तो ते ग्रहण करवू श्रेष्ठ , शून्यनुं अधिकपणुं होय तो अशुन जाणवो. श्रा बन्ने मतनुं तत्त्व सरखं ज . ते रेखाउँनो उपयोग आ प्रमाणे. "चतुरेखे मध्य फलं होने हीनं ततोऽधिके श्रेष्ठम् । विफलं गोचरगणितं त्वष्टकवर्गेण निर्दिष्टम् ॥१॥" "चार रेखा श्रावे तो मध्यम फळ, तेथी उडी आवे तो हीन फळ थने तेथी अधिक श्रावे तो श्रेष्ठ फळ जाणवू, अने या श्रेष्ठ फळ अष्टकवर्गे बताव्युं होय त्यारे गोचरथी गणेलुं गोचरफळ निष्फळ थाय .” ___ या सर्व एक ग्रहने आश्रीने कर्तुं वे. तात्कालिकना सर्व ग्रहोनी रेखा मेळवीए तो सोळथी उजी रेखा कदापि न थाय, पण सत्तरथी आरंजीने उत्कृष्टी ५६ रेखा सुधी श्राय जे. ते वखते सत्तरथी बवीश सुधीनी अशुन जाणवी, सत्यावीश होय तो मध्यम, अने अठ्यावीशथी आरंजीने उप्पन सुधी उत्तरोत्तर शुज, शुनतर अने शुलतम जाणवी. कर्वा के "रेखाधिक्यं शस्तं शून्याधिक्यं तथाऽधमं कथितम् । एतत्संयोगे स्युः षट्पञ्चाशन्न जातु अधिकास्ताः॥१॥" "अधिक रेखा होय तो प्रशस्त ने अने शून्य अधिक होय तो अधम कडं जे. ए सूर्यादिक सर्वनी रेखाउने एकठी करीए तो बप्पन थाय बे, पण तेथी अधिक थती नथी, कारण के सूर्यादिक सात ग्रहोनी दरेकनी आठ श्राप रेखा मेळववाथी बप्पन ज थाय जे.” विशेष ए जे जे-"जो के "चतुरेखं मध्यफलं" "चार रेखा मध्य फळवाळी " एम पूर्वे कडं ने, तोपण जे ग्रहना अष्टकवर्गनी शुद्धिते वखते जोवाती होय, ते Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंसिधि॥ शुधिना स्वामीरूप ग्रहनी रेखा जो पोताथी ज उत्पन्न थयेली मळती होय तो चार रेखा आवे ते पण श्रेष्ठ , अने तेम न होय तो ( पोताथी उत्पन्न श्रयेली रेखा न होय तो) षड्वर्ग विगेरेना वळवाळा पोताना मित्ररूप ग्रहनी पोताधी ज उत्पन्न थयेली रेखा मळे तोपण चार रेखाउँ प्रशस्त ठे, तेम पण न होय तो ते ज शुधिनो स्वामीरूप ग्रह जो वामवेधे करीने शुन्न होय तोपण चार रेखा प्रशस्त जे. आत्रणे प्रकारमांनो कोई पण न होय तो चारथी अधिक रेखावाळो ग्रह पण शुन्न नथी." एम व्यवहारप्रकाशमां कडं . . ___वळी उपर जे ५६ रेखा उत्कृष्ट कही बे, ते "राहुनी रेखा बिलकुल नयी" एवा मते करीने कर्तुं , पण केटलाक तो राहुनी पण रेखा कहे , ते श्रा प्रमाणे. "केन्माष्टनित्रिगः १,४,७,१०,०,२,३ सूर्याजाहू रेखाप्रदः स्मृतः। इन्दोस्तनुत्रिधीस्त्यष्टधर्मकर्मव्यये १,३,५,७,८,ए,१०,१२ स्थितः॥१॥ नौमात्तनुत्रिधीरिष्ये १,३,५,१३ स्वांबुख्यष्टान्तिमे १,४,७,८,१२ बुधात् । जीवात्सप्रथमे २,४,७,८,१२,१ शुक्रादरियूनायरिष्यगः ६,७,११,१२॥२॥ शनेस्त्रिधीवधूलाले ३,५,७,११ खग्नाजाहुस्तु शोजनः।। त्रिपञ्चसप्तनवमान्त्येषु ३,५,७,ए,१२ रेखाऽस्य न स्वतः ॥३॥ त्रिचत्वारिंशदेव स्यू रेखा राह्वष्टवर्गगाः।" । "राहु सूर्यथी १,४,७,१०,८,२ अने ३ जे स्थाने होय तो ते रेखाने श्रापनारो (शुन) कह्यो बे, चंथी १,३,५,७,७,ए,१० अने १२ मे होय, मंगळथी १,३,५ श्रने १२ मे होय, बुधथी २,४,७,७ अने १२ मे होय, गुरुथी २,४,७,८,१२ अने १ से होय, शुक्रथी ६,७,११ अने १२ मे होय, शनिथी ३,५,७ अने ११ मे होय चने खग्नथी राहु ३,५,७,ए अने १२ मे रह्यो होय तो ते सारो . आ राहुने पोताना स्थानथी रेखा श्रावती नश्री. श्रा प्रमाणे राहुना अष्टकवर्गमां कुल रेखाउँ ४३ अवश्य उत्कृष्टी थाय बे." हवे कया कार्यमां कयो ग्रह वळवान् लेवो? ते कहे .सर्वत्रेन्छुः कुजः संख्ये बोधे ज्ञः स्थापने गुरुः। थाने शुक्रः शनिौंड्ये बली नानुर्नृपेरणे ॥६६॥ अर्थ-सर्व शुन कार्यमां कार्य करनारनो चंद्र बळवान् जोवो जोइए, युद्धमा मंगळ, ज्ञानमां बुध, स्थापना ( पदवी, प्रतिष्ठा, विवाह विगेरे ) मां गुरु, प्रयाणमां शुक्र, मुंगनमां (दीक्षामां) शनि अने राजाना एटले उपरीना दर्शनमां सूर्य वळवान् लेवो जोइए. श्रा सर्वनुं गोचरादिक बळ जोवू. कडं ने के Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयो विमर्शः ॥ " एग १ व २ ३ सोलस ४ वत्तीसा ए सठि ६ सयगुण ७ फलाई । तिहि १ रिस्क २ वार ३ करण ४ जोगो ए तारा ६ ससंकवलं ७ ॥ १ ॥ " " तिथिनुं बळ एक गणुं बे, तेनाथी नक्षत्रनुं वळ चार गणुं बे, तेनाथी वारनुं बळ गणुंबे, तेनाथी करणनुं बळ सोळ गणुं बे, तेनाथी योगनुं बळ बत्रीश गणुं बे, तेनाथी तारानुं बळ साव गणुं वे अने तेनाथी चंद्रनुं बळ सो गणुं फळदायक बे.” तेथी करीने ज कयुं बे के “कर्तुरनुकूल योगिनि शुभेहिते शशिनि वर्द्धमाने च । योगेटे सर्वेऽर्थाः सिद्धिमुपयान्ति ॥ १ ॥” “कर्ताने अनुकूळ योगवाळो, शुभ ग्रहे जोयेल ने वृद्धि पामतो चंद्र होय तथा तारानो योग सारो होय तो तेनां सर्व कार्यो सिद्धिने पामे बे." मां पण या प्रमाणे विजाग बे. "ग्रामे नृपतिसेवायां संग्रामव्यवहारयोः । चतुर्षु नामजं योज्यं शेषं जन्मनि योजयेत् ॥ १ ॥” “गाममां, राजसेवामां, संग्राममां ने व्यवहार ( वेपार ) मां, ए चार कार्यमां नामनुं नक्षत्र सेतुं, छाने बाकीनां दीक्षा, प्रतिष्ठा, विवाहादि कार्यमा जन्मनुं नक्षत्र खेवुं." नरपति जयचर्यामां कहां बे. तात्कालिक लग्नां पण सर्वे कार्योमां चंद्रनुं बळ अवश्य लेवुं तेने माटे सारंग कहे ड़े के“लग्नं देहः पङ्कवर्गोऽङ्गकानि, प्राणश्चन्त्रो धातवः खेचरेन्द्राः । प्राणे नष्टे देहधात्वङ्गनाशो, यलेनातश्चन्द्रवीर्यं प्रकटयम् ॥ १ ॥” ११३ "लग्न ए शरीर बे, षडूवर्ग ए अंगो बे, चंद्र ए प्राण बे ने ( सात ) ग्रहो ए (सात) धातु बे, प्राण नाश पामवाथी देह, धातु अने अंग पण नाश पामे बे, तेथी प्रयत्नवमे पण चंद्रनुं बळ लेवुं जोइए." मूळ श्लोकनो जावार्थ ए बे जे-ज्यारे ते ते कार्यों लग्नना वळवानपणाथी करवामां चावे, त्यारे तेना ग्रहोनुं उदयपणाए करीने अथवा लग्नमां रहेवापणा करीने मां कला पडूवर्गना स्वामीपणाए करीने अथवा केंद्रमां रहेवापणा करीने ara प्रकार विगेरेना बळवमे करीने सबळपणुं लग्नमां करयुं ने कार्य करनारने ए ग्रहोनुं गोचरबळ लेवुं. ज्यारे कार्य केवळ मुहूर्त्तना वळथी ज करवुं होय त्यारे ते महोनुं गोचरबळ तथा वार होरादिक सेवां. ह राशिमां वे कयो ग्रह क्यारे फळदायक होय ? ते कहे बे. - झोऽखिले फलदो राशावादावादित्यमंगलौ । मध्ये सुरासुराचार्यौ प्रान्ते विन्दुशनेश्वरौ ॥ ६७ ॥ अ० १५ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ॥ आरंसिधि॥ अर्थ-बुध आखी राशिमां फळदायक , सूर्य अने मंगळ थादिमां, गुरु अने शुक्र मध्यमां अने चंड तथा शनि अंत नागमां फळ देनारा के. फळदायक एटले शुन्न गोचरमा रहेलो ग्रह शुन्न फळ आपे, अने अशुल गोचरमां रह्यो होय तो अशुन फळ आपे बे. बुध श्राखी राशिमां फळ आपे ने एटले के जे राशिने पोते आक्रमण करी होय ते आखी राशिमां. श्रादिमां एटले पहेला प्रेष्काणमां, मध्यमां एटले बीजा जेष्काणमां अने अंते एटले त्रीजा जेष्काणमां. श्रा नियम सहज (सरल) गतिमां वर्तता ग्रहोने आश्रीने कह्यो बे, पण ज्यारे वक्रतार करीने तथा अतिचारपणाए करीने ते ग्रहो बीजी राशिमां गया होय त्यारे आ प्रमाणे जाणवू. "पदं १ दशाहं २ मासं च ३ दशाई मासपञ्चकम् । __वक्रेऽतिचारे नौमाद्याः पूर्वराशिफलप्रदाः ॥१॥" "मंगळ वक्र गतिमां के अतिचार गतिमां होय तो पंदर दिवस सुधी पूर्वनी राशिनुं फळ आपे ने, ए प्रमाणे बुध दश दिवस, गुरु एक मास, शुक्र दश दिवस श्रने शनि पांच मास सुधी फळ आपे बे. अहीं पूर्वनी राशि एटले के वक्री होय तो पळीनी राशिनुं श्रने अतिचारी होय तो पहेलानी राशिनुं फळ आपे , एम जाणवू. प्रश्न प्रकाशकर तो आम कहे ."वक्रेऽतिचारे जौमाद्याः पूर्वराशिफलप्रदाः। जीवः शनिश्च यत्रस्थौ तस्य राशेः फलप्रदौ ॥१॥" "मंगळ विगेरे ग्रहो वक्री के अतिचारी होय तो पूर्वराशिना फळने आपे ने, परंतु गुरु अने शनि तो जे राशिमा रह्या होय ते जराशिना फळने आपे ने." विशेष श्राप्रमाणे "राश्यन्तगतः खेटः परजावफलं ददाति पृचासु। __ अन्त्यघटीं यावदसावासीनफलं विवाहादौ ॥१॥" "प्रश्नने विषे राशिना अंत नागमा रहेलो ग्रह पसीना स्थानना फळने आपे , अने विवाहादिकमां तो ते ग्रह अन्त्यनी घमी सुधी ज्यां रहेलो होय ते ज स्थाननुं फळ आपे जे." अहीं राशिनो अंत्य एटले बेहो त्रिंशांश लेवो. __ ग्रहगोचर विरुष्ठ (अशुल ) होय तो माणसे विशेषे करीने सत्कर्ममा (धर्मकार्यमां) तत्पर रहेवू, अने अत्यंत दूरनी यात्रा, अश्वक्रीमा, विकाळे फरवू अने साहस कार्य विगेरे कार्यनो त्याग करवो. श्रा प्रमाणे (विरुध ग्रहगोचरमां) यात्रादिक कर्या विना निर्वाह अश् शके नहीं, तेश्री ते ग्रहोनी शांतिने माटे कहे बे. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ ॥ द्वितीयो विमर्शः ॥ अर्कारयो १ ईस्य २ गुरोः ३ सितेन्को ४मन्दस्य ५ राहरगयोश्च ६ तुष्ट्यै । सदा वहेछियुम १ हेम ५ मुक्ता ३. रूप्याणि ४ लोहं च ५ विराटजं च ६॥ ६ ॥ अर्थ—सूर्य अने मंगळनी तुष्टि माटे विद्रुमने धारण करवां, बुधनी शतिने माटे सुवर्ण पहेरवु, गुरुनी शांति माटे मोती पहेरवां, शुक्र अने चंजनी शांति माटे रूपुं पहेरवू, शनिनी शांति माटे लोढुं पहेरवु (पासे राखq) अने राहु तथा केतुनी शांति माटे राजावत नामनो मणि पहेरवो. । श्रही कोश् शंका करे के-सात ग्रहोगें तो सर्वदा गोचरफळ विचारवान कहुं ने श्रने दिवस, मास, वर्ष तथा होरानुं स्वामीपणुं पण सात ग्रहोने जबे, तो अहीं राहु अने केतुनुं ग्रहण केम कर्यु ? तथा तेमनुं प्रतिकूळ गोचरपणुं पण शी रीते घटे ? के जेथी करीने तेमनी शांतिने माटे विराटज मणिने वहन करवायूँ कहे, पज्यु ? श्रानो जवाब ए जे जे-राहु अने केतुर्नु दिवसादिकनुं स्वामीपणुं भले न होय, परंतु ग्रहपj तो ज, केमके जो ते ग्रह न होय तो राशि विगेरेमा तेमनो संचार शी रीते घटे ? तथा राह गोचर पण ग्रहपने दिवसे विचारवान का जले, तेथी तेना प्रतिकळपणामां तेनी शांतिनो उपयोग थर शके चे, अने केतु पण ज्यारे उदय पाम्यो होय त्यारे तेनाश्री उत्पन्न अयेला उपवनी शांतिने माटे तेनो शांतिक उपाय उपयोगी जे. ग्रहोनी शांति माटे बीजो प्रकार कहे .पूषादितोषाय च पद्मराग १-- मुक्ता २ प्रवालानि३ सगारुडानि ।। सपुष्परागं ५ कुलिशं ६ च नील - गोमेद - वैर्य ए मणीन् वदेत ॥ ६ए ॥ अर्थ-रविनी तुष्टि माटे पद्मराग धारण करवो, चंड माटे मुक्ता, मंगळ माटे परवाळां, बुध माटे सगारुक ( मरकत मणि), गुरु माटे पुष्पराग, शुक्र माटे कुलिश (वज्र), शनि माटे नील मणि, राहु माटे गोमेद जातना मणि, अने केतुनी शांति माटे वेडूर्य मणिने धारण करवा. ग्रहोनी शांतिने माटे स्नानो कहे जे.एलाशिलापद्मकयट्युशीरसुराह्वकश्मीरजशोणपुष्पैः। अर्के विधौ कैरवपश्चगव्यैः सशंखशुक्तिस्फटिकेजदानैः ॥ ७० ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ॥श्रारंसिदि॥ अर्थ-सूर्य विरुध (अशुल ) होय तो एलायची, मणशील, कमळ, जेठीमध, सुगंधी वाळो, देवदार, केसर अने राता कणेरनां पुष्पोथी स्नान करवू एटले के या सर्व वस्तु पापीमा नाखी तेवझे स्थान करवं. तथा ते स्नान पण ते ते ग्रहना वारने दिवसे करवं. ए प्रमाणे सर्वत्र जाणवू. चंड विरुष होय तो शंख, जीप, स्फटिक भने हाथीना मद सहित पोयणा (कमळ ) अने पंचगव्यवमे स्नान करवू. पंचगव्य माटे पराशर था प्रमाणे कहे . "कृष्णाया गोमयं मूत्रं नीलायाः कपिलाघृतम् । सुरनेर्दधि शुक्लायास्ताम्रायाः दीरमाहरेत् ॥ १॥" _ "काळी गायतुं गण, लीली गायनुं मूत्र, पीळी गायनुं घी, धोळी गायनुं दहीं आने राती गायतुं सुध लेवु." नौमे बलाहिंगुल बिस्वकेसरैर्मास्या फलिन्याऽरुणपुष्पचन्दनैः। सुवर्णमुक्तामधुगोमयाक्षतैः सरोचनामूलफलैर्बुधे पुनः॥१॥ अर्थ-मंगळ विरुष होय तो बळदाणा, हींगळोक, बीलानुं फळ, बकुलनुं फळ, मुरमांसी, प्रियंगु, रातां पुष्प (जवाकुसुम ) अने लाल चंदनवमे स्नान करवू. बुध विरुध होय तो सुवर्ण, मोती, मध, गायनुं गण, अक्षत, गोरोचंदन श्रने नारंगीन फळ, एटली वस्तुवमे स्नान करवू. जीवे सजातिकुसुमैः सितसर्षपयष्टिमल्लिकापत्रैः। __ मूलफलकुंकुमैलामनःशिलानिस्तु दैत्यगुरौ ॥ २ ॥ अर्थ-गुरु अशुन होय तो जाश्नां पुष्प, धोळा सरसव, जेठीमध अने मक्षिका (विचकिल )नां पांमदांए करीने स्नान करवं. शुक्र अशुल होय तो बीजोरु, केसर, एलायची अने मणशीलवमे स्नान करवू. कृष्ण तिलाञ्जनलाजैः शतपुष्पीरोधमुस्तकबलानिः। तरणितनये च गोचरविरुधराशिस्थिते स्नायात् ॥७३॥ शनि गोचर विरुष राशिमा रह्यो होय तो काळा तल, सौवीरांजन ( सोयरो), लाजा (शेकेला ब्रीहि ), शतपुष्पी (सोश्रा), लोधर, मोथ अने बळ नामनी औषधिए करीने स्नान करवू. राहु केतुनी शांति माटे जास्कर या प्रमाणे स्नान कहे . "रोध्रगर्लतिलपत्रकमुस्ताहस्तिदानमृगनाभिपयोनिः। स्नानमेतदपरोधति राहोः साजमूत्रमिदमेव च केतोः॥१॥" Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥वितीयो विमर्शः॥ ११७ "सोधरनो गर्न, तखनां पांदगां, मोथ, हाथीनो मद अने कस्तूरीना जळवमे स्नान करवायी राहुनी पीमा रोकाय , अने ते ज स्नान बकराना मूत्र सहित करवाथी केतुनी पीमा रोकाय जे." “सप्रियंगुरजनीध्यमांसीकुष्ठलाजसितसर्षपचन्ः। __ वारिनिः सहवचैः सहरोधैः स्नानमत्ति निखिलग्रहपीडाम् ॥ २॥" "प्रियंगु (कांग), हळदर, जटामांसी, कुष्ठ (एक जातनी वनस्पति ), लाजा, धोळा सरसव अने कपूर सहित तथा वज अने लोध्र सहित जळवमे स्नान करवाथी समग्र ग्रहोनी पीमा नाश पामे ." । . श्रा स्नानो राजादिकने ज उचित . अन्य जने तो श्रा प्रमाणे करवू."रत्तं १ सेकं २ रत्तं ३ नीलं पीकं ५ सिधे ६ तिसु किन्हें ए। पूचं बलिं च कुजा सूराईणं विरुधाणं ॥१॥" "सूर्यादिक विरुष्प होय तो तेनी शांति माटे अनुक्रमे राता १, श्वेत २, राता ३, खीला ४, पीळा ५, श्वेत ६ अने जेसा व्रण एटले शनि, राहु श्रने केतुनी शांति माटे काळा ए पदार्थोथी (पुष्पादिक, धान्यादिकथी) पूजा तथा बलिदान करवां.” श्रा प्रमाणे हर्षप्रकाशमां कडं . ।इति गोचरघारम् । ६ ॥ इति श्रीमति श्रारंसिधिवार्तिके राशि १ गोचर २ परीक्षात्मको वितीयो विमर्शः॥२ श्रीसूरीश्वरसोमसुन्दरगुरोनिःशेषशिष्याग्रणीर्गन्धः प्रचुरत्नशेखरगुरुर्देदीप्यते सांप्रतम् । तबिष्याश्रवहेमहंसरचितस्यारं नसिद्धेः सुधी शृंगारानिधवार्तिकस्य किल दृक् २ संख्यो विमर्शोऽनवत् ॥२॥ श्रीमान् सूरीश्वर सोमसुंदर गुरुना समग्र शिष्योमा अग्रेसर अने गवना नायक एवा पूज्य श्री रत्नशेखर गुरु हालमा देदीप्यमान वर्ते . तेमना शिष्य हेमहंसे रचेली श्रारंजसिधिना सुधीभंगार नामना वार्तिक (वृत्ति )नो आ बीजो विमर्श पूर्ण थयो. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिद्धि॥ । अथ तृतीयो विमर्शः। --canDoconor हवे कार्यघार कहे जे.कार्य वितारेन्पुबलेऽपि पुष्ये, दीदां विवाहं च विना विदध्यात् । पुष्यः परेषां हि बलं हिनस्ति, बलं तु पुष्यस्य न हन्युरन्ये ॥१॥ अर्थ-तारा अने चंजनुं बळ नहीं बता पण दीक्षा अने विवाह सिवायनां बीजां शुन कार्यो पुष्य नक्षत्रमा करवां, कारण के पुष्य नक्षत्र बीजाउंना बळने हणे , पण पुष्यनुं बळ बीजा हणी शकता नथी. गोचरवमे अथवा अष्टकवर्गवमे चंड विरुष होय, तथा तारा जन्म, यम अने निधनादिकमां रहेली होय, तोपण पुष्यमां कार्य करवं. चंज अने तारानुं बळ होय तो तो विशेषे करीने पुष्यमां करवं. मूळमां "अपि" शब्द लख्यो ते परथी श्रा प्रमाणे जाणवु.-पुष्य नक्षत्र पांच रेखाना के सात रेखाना चक्रमां पुष्ट (अशुल) ग्रहवेमे विधायुं होय, अथवा पाप ग्रहवमे आक्रमण करायु होय, नोगवायुं होय अथवा जोगववार्नु होय, अथवा पश्चिम के दक्षिण दिशामां जतां वचमां परिघदंग अने पातवझे ते दिशामां विवरीत होय तोपण पुष्य नक्षत्रमां चंजनुं बळ होय त्यारे अथवा पुष्यना उदयसमये पुष्यना ज मुहूर्त्तमां प्रतिष्ठा, यात्रा, कौर, अन्नप्राशन, उपनयन, विद्यारंज, श्वेत वस्त्र परिधान (पहेरवु ते) विगेरे सर्व शुन्न कार्य करवां, एम रत्नमाला नाष्यमां कडं . ___ मूळ श्लोकमां दीक्षा अने विवाह ए वे कार्य वा व् तेना उपलक्षणथी कन्यानो संबंध पण पुष्य नक्षत्रमा वर्जवो. या कार्यों वर्जवानुं कारण ए जे जे-पहेलां प्रजापति पुष्य नक्षत्रमा पोतानी स्त्रीने परण्यो हतो. ते वखते पुष्य नक्षत्रना प्रनावथी ते अत्यंत कामनी पीमाथी पीमायो. ते पीमाने सहन करवामां अशक्तिमान् थवाश्री तेणे पुष्यने शाप आप्यो के-"अरे पापी ! आज परी तुं विवाहनां कार्योमा अधिकारी नहीं था." श्रा प्रमाणे श्रुति , ते विषे विवाहवृंदावनमां पण कडं ले के "पुष्यः स्म पुष्यत्यतिकाममेव, प्रजापतेः प्राप स शापमस्मात् ।" * "पुष्ये प्रजापतिना कामने ज अत्यंत पोषण कर्यु, तेथी ते पुष्य ते (प्रजापति थी शापने पाम्यु.” कामने पोषण करनार होवाथी जदीदामां पण पुष्य अनधिकारी ने, तेथी ते त्याज्य बे, एम जाणी खेवं. मूळ श्लोकमां कडं के “पुष्य नत्र बीजाऊना बळने हणे " एटले के कुतिथि, कुवार श्रने कुयोगादिकना बळने हणे बे, पण ते कुतिथि, कुवार विगेरे Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ पुण्यना वळने हणता नथी. ते कुवारादिक जेम पुष्यना बळने हणता नथी, ते ज रीते ग्रहवेध, विरुष तारापणुं ए विगेरे पुष्यना दोपने पण हणता नथी. अर्थात् पुष्य पोतानी जाते ज पोताना दोषने हणे जे. तेथी करीने कडुं ने के-"सिंहो यथा सर्वचतुपदानां तथैव पुष्यो बलवानुडूनाम्” । “जेम सिंह सर्व पशुमां वळवान् बे, तेम पुष्य सर्व नक्षत्रोमां बळवान् बे. हवे कार्यना नेदने सीधे नक्षत्रोना अधोमुख विगेरे दो कहे . अधोमुखानि पूर्वाः स्युर्मूला लेषामघास्तथा । नरणीकृत्तिकाराधाः सिद्ध्यै खातादिकर्मणाम् ॥२॥ अर्थ-त्रणे पूर्वा, मूळ, अश्लेषा, मघा, नरणी, कृत्तिका अने विशाखा ए नव नक्षत्रो अधोमुख (नीचा मुख )वाळां वे तेथी ते खात विगेरे कार्यनी सिद्धि करनारां वे. आदि (विगेरे ) शब्दथी वाव, कूवा, तलाव, खार विगेरे खोदवामां तथा निधान खोदवामां ( नाखवामां), द्यूत रमवामां, गुफामा प्रवेश करवामां, धातुकर्ममां, राजानी साथे खमाश्मां तथा गणितना आरंजमां विगेरे कार्यमां श्रेष्ठ के. तिर्ग मुखवाळां नतो आ प्रमाणे .तिर्यग्मुखानि चादित्यं मैत्रं ज्येष्टा करत्रयम् । अश्विनीचान्जपोष्णानि कृषियात्रादिसिद्धये ॥३॥ अर्थ-पुनर्वसु, अनुराधा, ज्येष्ठा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अश्विनी, मृगशीर्ष श्रने रेवती, ए नव नदत्रो तिन मुखवाळां ने, ते खेती, यात्रा विगेरे कार्यने सिद्ध करनारांबे. अहीं पण श्रादि (विगेरे ) शब्दथी अश्व, हस्ती अने बळद विगेरेने दमवामां, वेपार, राजा साथे संधि, वहाण करावq, वहाण रस्ते जवू, वहाणने प्रश्रम हांक, गाउँ, रथ अने यंत्रने प्रथम चलाववां विगेरे कार्यमां पण श्रेष्ठ बे. हवे ऊर्ध्व मुखवाळां कहे .ऊर्ध्वास्यान्युत्तराः पुष्यो रोहिणी श्रवणत्रयम् । आङ च स्युर्वजछत्रानिषेकतरुकर्मसु ॥४॥ अर्थ-त्रण उत्तरा, पुष्य, रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक् अने श्रा, ए नव नक्षत्रो ऊर्ध्व ( उंचा) मुखवाळां . ते ध्वज, उत्र, अभिषेक ने वृदनां कार्योमां शुल ले. कर्म (कार्य) शब्द बदुवचनमां , तेश्री वर्ग, प्राकार, तोरण, उद्यान, पट्टान्निषेक विगेरे कार्य करवामां शुज बे. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥थारंसिद्धि ॥ श्रा प्रमाणे सामान्य रीते कार्य कहीने हवे पोतपोताने स्थाने नामनो प्रकाश करवापूर्वक केटलांक उपयोगी कार्यो कहे . शत्वाद्याचतुष्टयवर्जी विषमासु रात्रिषु न योषाम् । सेवेत पुत्रकामः पौष्णमघामूलनेष्वपि च ॥५॥ अर्थ-पुत्रनी श्वावाळा पुरुषे ऋतुना प्रथमना चार दिवस वर्जीने विषम (एकी) रात्रिमा स्त्रीने सेववी नहीं, तथा रेवती, मघा श्रने मूळ नक्षत्रमा पण सेववी नहीं. विषम रात्रिने वर्जवा विषे विवेकविलासमां कडं ले के“निशाः पोमश नारीणामृतुः स्यात्तासु चादिमाः।। तिस्रः सर्वैरपि त्याज्याः प्रोक्ता तुर्यापि केनचित् ॥१॥" "स्त्री ने सोळ रात्रि सुधी ऋतु होय , तेमां प्रथमनी त्रण रात्रि सौने वर्जवा योग्य जे. कोइए चोथी रात्रि पण वर्ण्य कही जे.” "चतुर्थ्यां जायते पुत्रः स्वट्पायुर्गुणवर्जितः। - विद्याचारपरिज्रष्टो दरिजः क्लेशनाजनम् ॥२॥" "चोथी रात्रिए पुत्र उत्पन्न भयो होय तो ते अटप आयुष्यवाळो, गुण रहित, विद्या अने श्राचारथी भ्रष्ट, दरिज अने क्लेशना स्थानरूप श्राय बे.” विषम रात्रिमा स्त्री प्रत्ये गमन न करवा विषे कडं ले के-"समायां निशि पुत्रः स्याविषमायां च पुत्रिका"। "सम रात्रिए स्त्रीगमन करवाथी पुत्र थाय चे, अने विषम रात्रिए पुत्री थाय बे." मूळ श्लोकमां "विषम रात्रिए गमन न करतुं' एम जे निषेध मुखे कडं जे, ते वचन गुप्तिनुं सत्यापन करवा माटे कडं . ए रीते आगळ पण निषेध मुखनी उक्तिमां जाणी खेवू. रेवती विगेरे नक्षत्रो मूळ श्लोकमां वर्जवानां कह्यां ने, ते विषे कहुं ले के "ग धाने मघा वा रेवत्यपि यतोऽनयोः । पुत्रजन्मदिने मूलाश्लेषे स्तस्ते च दुःखदे ॥ १॥" "गर्न धारण करवामां मघा श्रने रेवती वर्ण्य , कारण के था वे नक्षत्रमा गर्ने रहे तो पुत्रना जन्मने दिवसे अनुक्रमे मूळ तथा अश्लेपा नक्षत्र आवे बे, तेथी ते मूळ अने अश्लेषानो जन्म अत्यंत दु:खदायी . मूळ तथा अश्लेषामां जन्म अवार्नु प्रमाण"श्राधानादशमे जन्म" "श्राधानथी दशमा नक्त्रमा जन्म श्राय बे," ए वचन जे. रत्नानीव प्रशस्तेऽहि जाताः स्युः सूनवः शुजाः। अतो मूखमपि त्याज्यं गोधाने शुजार्षिनिः॥३॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ ११ "प्रशस्त दिवसे उत्पन्न श्रयेला वाळको रत्ननी जेम शुन्नकारक थाय ने, तेथी शुलने बनार पुरुषोए गोंधानमा मूळ नक्षत्रनो पण त्याग करवो.” हवे स्त्रीना सीमंतनुं मुहूर्त कहे जे.सीमन्तः स्यान्नृवारेषु मासि षष्ठेऽष्टमेऽपि वा। इस्तमूलमृगादित्यपुष्यश्रुतिषु योषिताम् ॥६॥ अर्थ-स्त्रीउनुं सीमंत कार्य पुरुष वारमा एटले रवि, मंगळ अने गुरुवारे बछे अथवा आपमे मासे अने हस्त, मूळ, मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य अने श्रवण एटलां नक्षत्रमा शुल. त्रिविक्रम सीमंत कार्यने पुरुष नक्षत्रमा करवायूँ कहे . तेमां पण आ ज नक्षत्रो श्रावे , केमके या नक्षत्रो ज (बाकीनां स्त्रीरूप होवाथी) पुरुषरूपे बे. "अवोग्विवाहकालाच्च पितृचन्त्रबलं सदा।। स्त्रीणां सीमन्त उछाहे ग्राह्यमन्यत्र तत्पतेः ॥१॥" "विवाह कर्या पहेलां ( कन्याने ) पिताना चंजनुं बळ सदा शुन्ज , स्त्रीना चंजनुं वळ सीमंत तथा विवाहमां बळवान् , अने बीजां कार्योमां पंतिनुं चं बळ शुल्ल बे." एम व्यवहारप्रकाशमां कडं . विष बाळकनी उत्पत्ति कहे जेविषकौमारजन्म स्याद्वितीयाशनिसार्पनैः। सप्तम्यारशतश्च छादश्याग्निनैस्तथा ॥७॥ अर्थ-बीज, शनि श्रने अश्लेषाए करीने,सातम, मंगळ अने शतनिषके करीने, तथा वारस, रविवार श्रने कृतिकाए करीने विष कुमार ( संतति )नो जन्म थाय . एटले के अावा योगमां जो कोऽ बाळक उत्पन्न पाय तो ते विष कन्या के विष पुत्र थाय . तेनुं फळ. "विषकन्याख्या प्रथम पित्रोर्वशक्यंकरी। हन्ति पश्चात्पतिं श्वश्रू श्वशुरं देवरं तथा ॥१॥" "विष कन्या प्रथम (कुमारिका अवस्थामां) माता अने पिताना वंशनो नाश करे के, अने पनी (परण्या पी) पतिनो, सासुनो, ससरानो अने दीयरनो नाश करे ." विशेषमा व्यवहारप्रकाशमां कडं डे के–“अन्निजित् नत्रमा करेलुं सर्व कार्य शुन बे, पण तेमां उत्पन्न श्रयेलुं बाळक प्राये जीवतुं नथी. हवे मूळ विगेरे नत्रमा उत्पन्न श्रयेला बाळकने श्राश्रीने कहे जे.मूलस्यांहिचतुष्के पितृ १ मातृ २ अव्यनाश ३ सौख्यानि । बालस्य जन्मनि स्युः क्रमतः सार्पस्य तूकमतः ॥७॥ आ०१६ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ॥ श्रारंसिधि॥ अर्थ-मूळना पहेला पादमां वाळक उत्पन्न थाय तो पितानो नाश याय, वीजामां जन्मे तो मातानो नाश थाय, त्रीजामां जन्मे तो व्यनो नाश थाय अने चोथामां जन्मे तो सुख थाय. अश्लेपामां बाळक जन्मे तो तेनुं उत्क्रमथी फळ जाणवू, एटले के अश्लेषाना पहेला पादमां जन्मे तो सुख श्राय, बीजामां जन्मे तो ऽव्यनो नाश, त्रीजामां मातानो नाश अने चोथा पादमां जन्मे तो पितानो नाश थाय. वराह तो मूळना चोथा पादमां जन्मेला बाळकनुं फळ आ प्रमाणे कहे जे. "क्षेत्राधिपसंदृष्टे शशिनी नृपस्तत्सुहृनिरर्थपतिः।। जेष्काणांशकपैर्वा प्रायः सौम्यैः शुभं नान्यैः ॥ १॥" "श्रा तात्कालिक जन्मलग्नमां विचारवान बे.-क्षेत्राधिपे देखेला चंजमां एटले के ते वखते (जन्मसमये) जे राशिमां चंड होय ते राशिनो स्वामी जो चंधने जोतो होय तो मूळना चोथा पादमां जन्मेलो बाळक राजा प्राय अने ते राशिना मित्रोए ते चंजने जोयो होय तो धनपति थाय तथा चंजे आक्रमण करेला प्रेष्काणनो अथवा नवांशनो स्वामी जो सौम्य होय अने ते चंजने जोतो होय तो ते शुक्ल ने अने अन्य एटले क्रूर स्वामी जोतो होय तो अशुन बे." केटलाक श्राचार्यो कहे जे के"मूलस्यांहिचतुष्के क्रमेण पशुनाशिनी १ सुखकरी च । पितृपक्ष्मथ पयति ३ मातुलपदं च ४ जाता स्त्री ॥१॥" "मूळना पहेला पादमा उत्पन्न थयेली कन्या पशुनो नाश करे ने, वीजा पादमां जन्मी होय तो सुख करनारी थाय बे, त्रीजा पादमां जन्मी होय तो पिताना पक्ष्नो नाश थाय ने श्रने चोथा पादमां जन्मी होय तो माताना पहनो नाश श्राय ." "मूले जातोऽधमः स्यान्ना स्त्री तु पुण्यवती नवेत् । __ ज्येप्रा मघा विपरीताऽश्लेषा तज्नयेऽधमा ॥२॥" "मूळमां जन्मेलो पुरुष अधम श्राय , अने स्त्री जन्मी होय तो ते पुण्यवती थाय जे, ज्येष्ठा अने मघामां जन्मे तो तेथी विपरीत थाय ने, एटले के पुरुप जन्मे तो पुण्यवान् श्रने स्त्री जन्मे तो अधम थाय ने, थने अश्लेषामां जन्मे तो बन्ने अधम थाय बे." "तृतीया दशमी कृष्णा शनिन्नौमझसंयुता। शुक्तचतुर्दशी मूलजातः संहरते कुलम् ॥ ३॥" "शनि, मंगळ अने बुधवारे करीने सहित कृष्णपक्षनी त्रीज के दशम होय श्रश्रया शुक्लपक्षनी चौदश होय ते दिवसे मूळ नक्षत्र होय तेमां उत्पन्न अयेतो पुरुष कुळनो क्षय करे ." Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ ११३ अश्लेपामां जन्मेलानुं फळ श्रा प्रमाणे कडं बे."सापाशे प्रथमे राजा वितीयांशे धनक्षयः। तृतीये जननी हन्ति चतुर्थे पितृघातकः॥१॥" __ "अश्लेषाना पहेला अंशमां (पादमां ) जन्मे तो राजा श्राय, बीजा अंशमां जन्मे तो धननो क्ष्य थाय, त्रीजा अंशमां जन्मे तो माताने हणे अने चोथामां जन्मे तो पिताने हणे." ___ हवे मूळ नक्षत्रनुं पुरुषस्वरूप कहे .मूर्धा र स्य २ स्कंध ३बाहाकर ५ हृदय ६ कटी गुह्य जानु एक्रमेषु १०, स्युर्घट्यः पञ्च ५ पश्चो५ रग करटिण्कराश्ष्ट नहिदि १०क्तर्कतर्काः६। बालबत्री १ पितृघ्नो २ ऽसलदृढबलवान् ३ राक्षसो ब्रह्मघाती ५, राजा ६ नाशी ७ स्वसौख्यावह इह चपलो ए नश्वर १० श्चासुजातः॥॥ अर्थ-मूळ पुरुषना मस्तक पर पांच घमी मूकवी, मुखमां ५, वे स्कंध पर ७, वे बाहुमां ७, बे हाथमा २, हृदय पर ७, कटी पर २, गुह्य पर १०, बन्ने जानुए ६ श्रने बन्ने पगे ६ घमी मूकवी. अहीं बे स्कंध पर आठ मूकवानी कही बे तेमां दरेक पर चार चार मूकवी. एज प्रमाणे बाहु विगेरेमां पण ब बे लागे मूकवी. वीजे ठेकाणे पण यथायोग्य श्रा प्रमाणे ज जाणवं. श्रा घमीउने विष उत्पन्न थयेलो बाळक थनुक्रमे राजा १, पितृघाती २, दृढ खांधना बळवाळो ३, राक्षस ४, ब्रह्महत्यारो ५, राजा ६, नाशवंत ७, सुखी , चपळ ए, अने नाशवंत (अपायुवाळो). थाय ने अर्थात् मस्तक परनी पांच घमीमां जन्म थयो होय तो राजा थाय, मुखनी पांच घमीमां जन्म भयो होय तो पितृघाती थाय, ए रीते अनुक्रमे जाणवू. मूळ पुरुषनी स्थापना. मस्तके राजा मुखे पितृहंता खांधवाळो वे स्कंधे aaaEE बेवादुए वे हाथे कटीए गुह्ये बे जानुए बे पगे DY DWw ब्रह्मघाती राज्यधर अस्पायु सुखी चपळ अल्पायु Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ॥ श्रारंसिद्धि॥ कोइ आचार्य आ प्रमाणे कहे ."ब्रह्महत्याकरः पाणौ यघा मातुलघातकः।। गुह्यजातो धनं हन्यादृष्यत्वे च सुखी नवेत् ॥१॥ न जीवेषामजंघायां पांथो वा जायते नरः। दक्षिणस्यां तु जंघायां जातकः स्यान्महाधनी ॥२॥ कृबाजीवति वांमेऽहो दक्षिणे धनपुण्यवान् ॥' "मूळ नक्षत्रनी हाथनी घमीमां उत्पन्न भयो होय तो ब्रह्महत्या करनार थाय, अपवा मामानो घात करे, गुह्य स्थाननी घमीमां जन्म्यो होय तो धननो नाश करे अने वृद्धपणामां सुखी थाय, वाम ( माबी ) जंघानी घमीमां जन्म्यो होय तो जीवे नहीं अने जीवे तो पंथिक थाय, जमणी जंघानी घमीमां जन्म्यो होय तो महा धनवान् थाय, माबा पगनी घमीमां जन्म्यो होय तो महा कष्टे जीवे, अने जमणा पगनी धमीमां जन्म्यो होय तो धनवान् तथा पुण्यवान् थाय.” केटलाएक मूळने वृक्षरूपे कहे , ते था प्रमाणे."पात् १ स्तंब २ नि ३ शाखा ४ दल ५ कुसुम ६ फले ७ स्युः शिखायां च घट्यो , मूलमोवोर्षि ४ सप्ताष्टक दशक १० नवे एवं ५ ग ६ रुष ११ प्रमाणाः। मूला १ थे २ञातृ ३ मातः पयति । पतति ५ प्रौढमंत्री ६ नृपश्च , स्यादेतासु प्रसूतः श्रयति कृशतरं चायुरेतचिखायाम् ॥१॥" . “मूळ वृक्षना मूळमां । घमी मूकवी, थममां , गलमां , शाखामा १०, पत्रमा ए, पुष्पमां ५, फळमां ६, तथा शिखा (टोच) उपर ११ घमी मूकवी. या घमीमां जन्मेलानुं फळ अनुक्रमे था प्रमाणे-मूळनो नाश करे १, अर्थनो नाश करे २, लाइनो नाश करे ३, मातानो नाश करे , पोते नाश पामे ५, मोटो मंत्री थाय ६, राजा थाय , अने शिखामां नत्र होय तो अल्पायु थाय ७.” केटलाक श्राचार्यों कहे जे के शिखामां नक्षत्र होय तो मोटा आयुष्यवाळो थाय. मूळ वृदनी स्थापना. मूळपात थके अर्थहानि गले व्रातृनाश शाखाए मातृनाश मरण मंत्री थाय राज्यप्राप्ति शिखए अपायु पत्रे WMeeo Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १२५ अन्य शास्त्रमा मूळ पुरुषथी विपरीत अश्लेषा पुरुष पण या प्रमाणे कह्यो . "अश्लेपाघटिकापष्टिरेवं स्थाप्या नराकृतिः। श्रादौ पादघये पञ्च जान्वोः पञ्च गुदेऽष्ट च ॥१॥ नानावष्टौ हृदि घौ च पाण्योरष्टौ घ्यं नुजे। स्कन्धयोर्दशकं वशे षटू शीर्षे पमिति क्रमात् ॥२॥ मृति १ज्रमः २ सुखं ३ व्याधी ४ राज्यं ५ हत्या ६ च दैत्यता । स्कन्धिलः - पितृहा ए नेता १० फलं ज्ञेयं यथाक्रमम् ॥ ३॥" "अश्लेषा नक्षत्रनी ६० घमी आ प्रमाणे नरनी श्राकृतिए स्थापवी-प्रथम बे पगमा ५ घमी मूकवी, पजी अनुक्रमे बे जानुमां ५, गुदामां ७, नानिमां ७, हृदयमां २, बे हाथमा ७, बे बाहुमां २, बे स्कंध उपर १०, मुखमां ६ अने मस्तक पर ६. तेनुं फळ अनु. क्रमे पगयी या प्रमाणे जाणवू. मरण १, ब्रमण २, सुख ३, व्याधि ४, राज्य ५, हत्या करनार ६, रासपणुं ७, खांधवाळो ७, पितानो घाती ए, राजा १०." ___अश्लेषा पुरुषनी स्थापना. बे पग मरण बे हाथ । हत्या करनारो बेजानु । ५ ब्रमण बे बाहु । ३ । राइस गुदाए सुख बे स्कंधे खांधवाळो नाजिए व्याधि पितृघाती राज्य मस्तके राजा एज रीते मूळ वृदयी विपरीत अश्लेषा वृक्ष पण अन्य शास्त्रमा कहेडं जाणवू. विशेष ए के घमीनो क्रम मूळ वृदनी जेम ज लेवो. अश्लेषा वृक्नी स्थापना. शिखाए अस्पायु राज्यप्राप्ति पुष्पे मंत्री थाय मृत्यु शाखामा मातृनाश गखमा त्रातुनाश थो अथेहानि मूळे मूळनाश विवेकविलास विगेरे ग्रंथोमां तो मूळ श्रने अश्लेषानां मुहूर्तोए करीने जन्मेलान फळ श्रा प्रमाणे कहेलुं . हृदये ४ फळे पत्रे Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ॥ आरंभसिद्धि ॥ "याद्यः षष्ठस्त्रयोविंशो द्वितीयो नवमोऽष्टमः । अष्टादशश्च मूलस्य मुहूर्त्ता दुःखदा जनौ ॥ १ ॥ त्रयोविंशपञ्चविंशौ द्वाविंशोऽष्टत्रयोदशौ । एकोनत्रिंशत्रिंशौ च सार्पे स्युरशुजाः दणाः ॥ २ ॥” " मूळ नक्षत्रना पहेला, बघा, त्रेवीशमा, वीजा, नवमा, आवमा अने ढारमा मुहूर्त्तमां जन्म थाय तो ते दुःखदायी बे. तथा अश्लेषाना त्रेवीशमा, पचीशमा, बावीशमा, आमा, तेरमा, उगणत्रीशमा ने त्रीशमा मुहूर्त्तमां जन्म याय तो ते पण अशुन ( दुःखदायी ) बे." आनुं कारण ए बे जे आ मुहूर्त्तोना स्वामी क्रूर बे, माटे ते अशुभ बे. ते स्वामी आ प्रमाणे. - " राक्षसो १ यातुधानश्च २ सोमः ३ शक्रः ४ फणीश्वरः ए । पितृ ६ मातृ ७ यमाः कालो ए वैश्वदेवो १० महेश्वरः ११ ॥ १ ॥ साध्यदेवः १२ कुबेरश्च १३ शक्रो १४ मेघो १५ दिवाकरः १६ । गंधर्वो १७ यमदेवश्च १८ ब्रह्मविष्णुमय १९ स्ततः ॥ २ ॥ ईश्वरो १० विष्णु २१ रिन्द्राणी २२ पवनो २३ मुनय २४ स्तथा । मुखो २५ गिरीटी २६ च गौरी २१ मातृ २० सरस्वती २५ ॥ ३ ॥ प्रजापति ३० श्च मूलस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तनायकाः । विपरीताः पुनया अश्लेषाजातबालके ॥ ४ ॥” "मूळ नक्षत्रनां त्रीश मुहूर्त्तेना नायको अनुक्रमे या प्रमाणे बे. - राक्षस १, यातुधान ( राक्षस ) २, सोम ३, शक्र ४, नागेंद्र ५, पितृ ६, मातृ 9, यम, काळ ए, वैश्वदेव १०, महेश्वर ११, साध्यदेव १२, कुवेर १३, शक्र १४, मेघ १५, दिवाकर १६, गंधर्व १७, यमदेव १८, ब्रह्माविष्णु १५, ईश्वर २०, विष्णु २१, इंद्राणी २२, पवन २३, मुनिर्ज २४, पएमुख ( कार्त्तिकस्वामी ) २५, भृंगिरीटी २६, गौरी 29, मातृ २०, सरस्वती २० छाने प्रजापति ३० आयी विपरीत ( एटले बेनेथी अनुक्रमे ) अश्लेषानां मुहूर्त्तोना नायको जाणवा. तेमां उत्पन्न थयेला बाळकनुं पण ते प्रमाणे ( नायक प्रमाणे ) फळ जाणवुं.” हवे मूळ नक्षत्रमा जन्मेला वाळक माटे शांतिनो विधि कहे बे. - त्यजेन्न वी देत समाष्टकं वा, वालं पिता मूल विकारशान्त्यै । शतौषधी मूलमृदम्बुरलैः, स्नायाच्च हुत्वा सशिशुप्रसूकः ॥ १० ॥ अर्थ- मूळना विकार ( दोष )नी शांति करवा माटे पिताए ते वाळकनो त्याग करवो, एटले के पोताना घरथी दूर राखवो. अथवा आठ वर्ष सुधी ते वाळकने जोवो Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ नहीं. पली शांतिनो होम करीने सो उपधीनां मूळ, सात प्रकारनी माटी, तीर्थोनां जळ ने पंच रत्नथी बाळक तथा तेनी माता सहित पोते स्नान करवं. उपधीनी साथे पंचगव्य, हाथीनो मद, बीज सहित पंचकषाय अने सर्वोषधी पण लेवी, एटके के सुवर्णमय मूळ नक्षत्रनुं राक्षसरूप करावq. पजी सो विजवाळा घमामां ते राक्स तथा सर्वे उपधी विगेरे नाखवु अने तेनी विधिने जाणनार विधान् पासे होम कराववापूर्वक स्नान करवं. अश्लेषामा जन्मेला बाळकनो पण आ ज विधि , परंतु सुवर्णना राक्षस्ने बदले सुवर्णना सर्पनुं रूप बनाव. या मूळ विधान तथा अश्लेषा विधान विस्तारथी गृहस्थधर्मसमुच्चय विगेरे ग्रंथोमां बाप्युं . ते बहु दोष युक्त होवाथी अहीं तेनो विस्तार कों नथी. बहु सावध आरंजना पापथी लय पामनार पुरुषे तो मूळ अथवा अश्लेपामां बाळकनो जन्म थाय त्यारे सर्व नक्षत्रोना नोगवनार नव ग्रहोए पण जेनां चरणकमळ सेवातां बे एवा श्रीमान् अरिहंतनी तथा विशेषे करीने मूळ नत्रमा ज उत्पन्न श्रयेला श्रीसुविधि स्वामीनी अष्टोत्तरशत प्रकारी स्नात्र पूजा शास्त्रोक्त विधि प्रमाणे महोत्सवपूर्वक नणाववी. एम करवाथी पण समग्र तुज उपजवोनी शांति श्रयेली सर्वत्र साक्षात् जोवामां आवे बे. अहीं केटलाक कहे के के"विष्कलादिकुयोगेषु कुलिके सत्रिपुष्करे। संक्रान्तौ ऽर्दिने विष्टौ मूलाम्लेपाजबालके ॥१॥ गणकेनैव कर्तव्यं पौष्टिकं मूलसार्पयोः।" "विष्कंन्नादिक कुयोगमां, कुलिकमां, त्रिपुष्करमां, संक्रांतिमां, खराव दिवसे, विष्टिमां, मूळमां अने अश्लेषामां बाळकनो जन्म श्रयो होय तो मूळ अने अश्लेषानुं पौष्टिक कर्म गणकनी (जोशीनी) पासे ज करावq." जन्मादिकमां उपयोगी नक्षत्रोना कुट्यादिक लेदो कहे . कुव्यनान्यश्विनी पुण्यो मघा मूलोत्तरात्रयम् । दैिवतं मृगश्चित्राकृत्तिकावासवानि च ॥ ११ ॥ जपकुल्यानि जरणी ब्राह्म पूर्वात्रयं करः। ऐन्जमादित्यमश्लेषा वायव्यं पौष्णवैष्णवे ॥ १५ ॥ अर्थ-अश्विनी, पुष्य, मघा, मूळ, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरालाप्रपद, विशाखा, मृगशीर्ष, चित्रा, कृत्तिका अने धनिष्ठा ए बार नक्षत्रो कुट्य कहेवाय ने (११) नरणी, रोहिणी, पूर्वाफाट्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वानाजपद, हस्त, ज्येष्ठा, पुनर्वसु, अश्लेषा, स्वाति, रेवती अने श्रवण ए बार नकत्रो उपकुट्य कहेवाय बे. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ॥श्रारंसिदि॥ कुट्यादिक नक्षत्रोनुं फळ कहे वे.पूर्वेषु जाता दातारः संग्रामे स्थायिनां जयः। अन्येषु त्वन्यसेवा" यायिनां च सदा जयः ॥ १३ ॥ __ अर्थ-पूर्व एटले कुट्य नक्षत्रमा जन्म थयो होय तो ते दातार थाय , अने ए नक्षत्रोमां जो संग्राम ( युद्ध) अयुं होय तो स्थायिनो एटले पोताने स्थाने रहेला रानानो जय थाय ने, अर्थात् चमी श्रावेला राजानो पराजय थाय बे. तथा अन्य एटले उपकुष्य नक्षत्रमा जेनो जन्म थयो होय ते बीजानी (राजादिकनी ) सेवा-नोकरी करनारा थाय बे, अने ते नात्रोमां जो युछ थयुं होय तो चमी श्रावनारनो जय थाय ने अर्थात् स्थानमा रहेलानो पराजय थाय . हवे कुट्योपकुख्य नक्षत्रो कहे .कुल्योपकुल्यमान्याओऽनिजिन्मैत्राणि वारुणम् । फलन्त्येतानि पूर्वोक्तष्यसाधारणं फलम् ॥ १४ ॥ अर्थ-या , अनिजित् , अनुराधा अने शततारका ए चार नक्षत्रो कुट्योपकुट्यक जे. श्रा नक्षत्रो पूर्वे कहेला बन्नेनुं साधारण फळ आपेने, एटले के ते नक्षत्रोमां जन्मेला दातार पण थाय ने, अने अन्यना सेवको पण थाय ने अने युद्ध थयु होय तो संधि थाय बे. कर्जा ने के-"कुस्योपकुट्यले सन्धिः” “कुट्योपकुट्य नत्रमा युध थाय तो संधि थाय." ___ हवे वारोना कुट्यादिक नेदो कहे .गुर्वार्कीन्दवः कुख्या उपकुल्यः कुजः सितः। तमश्वाथ बुधो. मिश्रस्तत्र नदात्रवत्फलम् ॥ १५॥ अर्थ-गुरु, सूर्य, शनि अने चंग ए चार वारो कुट्य ने, मंगळ अने शुक्र ए वे उपकुख्य ने, तथा राहु अने बुध मिश्र एटले कुट्योपकुट्य . ते सर्वेनुं फळ नक्षत्रो प्रमाणे जाए. अहीं राहु वार नथी, तोपण ग्रहोनो प्रसंग होवाथी तेने सीधो के. ___केटलाएक आचार्यो तिथि, वार, समय अने राशिना योगे करीने कुट्य योग श्रा प्रमाणे कहे बे. "सूर्योदये कुजस्याहि नन्दा वृश्चिकमेपयोः । कुलीरयुग्मकन्यानां ना यामे बुधाहनि ॥१॥ चापसिंहघटानां च मध्याहे वाक्पती जया ३। वणिग्वृषजयो रिक्ता त्रियामान्ते नृगोदिने ॥२॥ सूर्यास्ते शनिवारे तु पूर्णा स्यान्नक्रमीनयोः । कुखजास्तिश्रयो वारे वेलायां राशिषु क्रमात् ॥३॥" Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १२ए "मंगळवारने दिवसे सूर्योदय वखते वृश्चिक अथवा मेष राशि होय चने नंदा तिथि होय, बुधवारने दिवसे पहेला पहोरने अंते कर्क, मिथुन के कन्या राशि होय अने जा तिथि होय, गुरुवारे दिवसे मध्याह्न समये धन, सिंह के कुल राशि अने जया तिथि होय, शुक्रवारे दिवसे त्रण पहोरने अंते तुला के वृष राशि अने रिक्ता तिथि होय, तथा शनिवारे सूर्यास्त समये मकर के मीन राशि अने पूर्ण तिथि होय, श्रा प्रमाणे अनुक्रमे वार, वेळा अने राशिने विषे तिथि होय तो ते तिथि कुख्य कहेवाय बे, अने तेथी करीने ज ते तिथि ते ते वखते उत्तम बे. हवे रवि पुरुष कहे वे.मूळ ३ स्यां ३ स ५ जुजार करोश र ५ उदरा धोनाग १ जानु श्क्रमे ६, ध्वग्निविछियमछिपञ्चकुकुदृक्तर्केषु नेष्वकैनात् । जूपः १ खाशनो २ सलो ३ऽधिकबल ४ श्चौरो ५ धनी ६ शीलवान् ७, जारः ७ स्यात्पथिकश्च ए निक्नु १० रपि चोत्पन्नः क्रमाबालकः ॥ १६ ॥ अर्थ-सूर्यना नक्षत्रथी पहेला त्रण नक्षत्रो सूर्य पुरुषना मस्तक पर भूकवां, पळीनां ३ मुखमां, पनी खन्ना उपर २, नुजा पर २, हाथमां २, हृदय उपर ५, उदर पर १, अधोनागे (गुह्ये) १, जानुए २ अने पगमां ६ मूकवां. ते ते नक्षत्रमा उत्पन्न श्रयेला वाळकने या प्रमाणे अनुक्रमे फळ जाणवू.-राजा १, मिष्ट नोजनवाळो २, खांधवाळो ३, अधिक बळवान् , चोर ५, धनवान् ६, शीळवान् ७, परस्त्रीरत ७, पथिक ए अने निकुक १७. बे बाहुए होय तो स्थानत्रष्ट थाय एम को ठेकाणे कडं . रवि नरनी स्थापना. राजा मिष्टानोजी खांधवाळो बे बाहुए वळवान् वे हाथे चोर धनवान् नानीए सुशील परस्त्री पर आसक्त बेजानुए परदेशगमन बे पगे निक्षाचारी मस्तके मुखे वे स्कंधे हृदये rrrrrrrror गुह्ये आ०१७ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥आरंजसिदि। विशेष ए जे जे था परयी आयुष्यनुं ज्ञान पण थाय ."शतं मूर्ध्नि मुखे स्कन्धे चाशीतिर्नुजहस्तयोः। सप्तसप्ततिवर्षाणि हन्नान्योरष्टषष्टिका ॥१॥ गुह्ये षष्टिस्तथा जान्वोरष्ट षट् पादयोस्तथा। रविचक्रे क्रमेणैवमायु यं विचक्षणैः ॥ ॥" "रविना चक्रमां विधानोए था प्रमाणे अनुक्रमे आयुष्य जाणवू.-मस्तक पर नक्षत्र होय तो सो वर्ष, आयुष्य थाय, मुख अथवा स्कंध पर होय तो एंशी वर्ष, बाहु अथवा हाथमां होय तो ७७ वर्ष, हृदय अथवा नानि पर होय तो ६० वर्ष, गुह्ये होय तो ६० वर्ष, जानु पर होय तो ७ वर्ष अने पगमां होय तो 3 वर्षनुं आयुष्य जाणवू." ___ हवे जातकर्मादिकने आश्रीने कहे .स्याजातकर्म चरलघुमृफुध्रुवर्देष्वमीषु नामापि। तच्चाविरुफमुजयोर्योनी १ गण ५ राशि ३ तारका ४ वगैः ५ ॥१७॥ अर्थ-चर, लघु, मृउ अने ध्रुव नक्षत्रोमां जातकर्म करवं. नाम पण श्रा नक्षत्रोमां पामधुं अने ते नाम बन्नेना (दंपतीना) योनि, गण, राशि, तारा श्रने वर्गे करीने अविरुद्ध पामवं. जातकर्मे करीने षष्ठीजागरणादिक पण आ चरादिक नक्षत्रोमां ज करवू. चरादिक नदत्रो पण शुन चंजवझे युक्त लेवां अथवा ते नक्षत्रो उदयसमयनां लेवां, अथवा ते नत्रो संबंधी मुहूर्त्तमां कार्य करवं. या त्रण प्रकारमांथी पूर्व पूर्वने अन्नावे उत्तर उत्तर प्रकार लेवो एटले के चंबळ न होय तो उदयवळ खेबु अने उदयवळ न होय तो मुहूत्ते खेवं. ते विष व्यवहारप्रकाशमां कह्यु बे के “धिष्ण्यानां मौहूर्तिकमुदयात्सितरश्मियोगाच्च । __ अधिकबलं यथोत्तरमिति" __नक्षत्रोनुं मुहूर्त बळवान् , ते करतां उदयबळ वधारे बळवान् ने श्रने ते करतां पण चंबळ वधारे बळवान् के एम उत्तरोत्तर वधारे बळवान् ." .. ___ जो ते ज दिवसर्नु नत्र होय अने ते ज नक्षत्रना मुहूर्त्तमां कार्य कराय तो ते अत्यंत शुल बे. ते विषे शौनक कहे जे के–“नत्रवत्क्षणानां बलमुक्तं विगुणितं स्वनक्षत्रे ।" "मुहूर्तोनुं बळ पण नक्षत्रना जेटलु ज कह्यु बे. तेमां पण पोताना नक्षत्रमा बमणुं कर्यु जे." ए प्रमाणे सर्वत्र जाणवू. ___ ते वाळकनुं नाम पण दंपतीने अविरुष्प करवू. ते साथे गुरु शिष्य अने स्वामी सेवक विगेरेने पण अविरुष समजq. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १३१ हवे अठ्यावीश नत्रोनी योनि कहे . उडूनां योन्योऽश्व १ छिप २ पशु ३ नुजंगा ४ दिए शुनको ६त्व ७ जान्मार्जारा ए खुष्य १०, ११ वृष १५ मह १३ व्याघ्र १४ महिषाः १५। तथा व्याघे १६ णै १७ ण १७ श्व रए कपि २० नकुलहन्छ१,२२ कपयो २३ हरि २४ जी २५ दन्तावलरिपु २६ रजः २७ कुञ्जर २७ इति ॥ १७ ॥ अर्थ-अश्विनीथी आरंजीने नक्षत्रोनी योनि एटले उत्पत्तिस्थान अनुक्रमे श्रा प्रमाणे जे.-अश्व १, हाथी २, पशु (बकरो)३, तुजंग (सर्प), अहि (सर्प), कूतरो ६, बिलामो ७, बकरी , बिलामो ए, पजी बे नक्षत्रोनी वंदर १०, ११, बळद १२, पामो १३, वाघ १४, पामो १५, व्याघ्र १६, मृग १७, मृग १७, कूतरो १ए, वानर २०, पठी बे नक्षत्रोनी नोळीयो २१, २२, वानर २३, सिंह २४, घोमो २५, सिंह २६, बकरो २७ अने हाथी २७. गुरु, शिष्य अने दंपती विगेरेना योगने माटे पूर्वाचार्योए श्रा योनिनी कहपना करी बे, पण सत्य नथी. ए प्रमाणे रत्नमाला नाष्यमां कहेल . हवे योनिवैर कहे . श्वैणं हरीनमहिबन्नु पशुप्लवंगं, गोव्याघ्रमश्वमहमोतुकमूषिकं च । लोकात्तथाऽन्यदपि दम्पतिलर्तृनृत्ययोगेषु वैरमिह वय॑मुदादरन्ति ॥१॥ अर्थ-कूतराने अने मृगने परस्पर वैर . ए ज रीते सिंह अने हाथी, सर्प श्रने नोळीयो, बकरो अने वानर, बळद अने वाघ, घोमो अने पामो तथा बिलामो श्रने सुंदर, ए सर्वेने परस्पर वैर . आ सिवाय पण वाघ बने मृग, कूतरो अने बिलामो इत्यादि खोकप्रचलित वेरो पण जाणवां. स्त्री पुरुष अने स्वामी सेवक विगेरेना योगमां श्रा वैर वर्जवानुं कडं बे. उपलक्षणथी गुरु शिष्य विगेरेमां पण वैर वर्जq. अर्थात् एकनुं जन्मनत्र अश्विनी होय तो कूतरानी योनि थइ, बीजाना जन्मनक्षत्रनी योनि मृग होय तो ते परस्पर वैर कहेवाय . व्यवहारप्रकाशमां विशेष था प्रमाणे . “विहाय जन्मन्नं कार्ये नामनं न प्रमाणयेत् । जन्मनस्यापरिझाने नामनस्य प्रमाणता ॥१॥" "कार्यमा जन्मना नत्रनो त्याग करीने नामना नक्षत्रने प्रमाण करवू नहीं, परंतु जन्मनक्षत्रनी खबर न होय तो नामना नत्रने प्रमाण करवं." तेमज “योर्जन्मजयोर्मेलो यो मनयोस्तथा। जन्मनामजयोर्मेलो न कर्तव्यः कदाचन ॥२॥" “बन्नेनां जन्मनक्षत्रनो योग करवो, अथवा बन्नेनां नामनक्षत्रनो योग करवो Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिधि॥ परंतु एकनुं जन्मनक्षत्र अने बीजार्नु नामनक्षत्र ए बेनो योग कदापि करवो नहीं." अर्थात् एकना जन्मनदतनी खबर न होय तो बन्नेनां नामनक्षत्रो ज लेवां. ए ज प्रमाणे गण, राशि विगेरेमां पण जाणवू. हवे सत्यावीश नक्षत्रोना गणो कहे - दिव्यो गणः किल पुनर्वसुपूष्यहस्तखात्यश्विनीश्रवणपौष्णमृगानुराधाः। स्यान्मानुषस्तु नरणी कमलासनईपूर्वोत्तरात्रितयशंकरदैवतानि ॥२०॥ रदोगणः पितृजराक्षासवासवैन्छचित्राहिदैववरुणाग्निजुजंगनानि । प्रीतिः खयोरति नरामरयोस्तु मध्या वैरं पलादसुरयोर्मृतिरन्त्ययोस्तु ॥ १॥ अर्थ-पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाति, अश्विनी, श्रवण, रेवती, मृगशीर्ष श्रने श्रनुराधा, ए ए नक्षत्रो देवगण बे. जरणी, रोहिणी, त्रण पूर्वा, त्रण उत्तरा अने श्रार्जी ए ए नक्षत्रो मनुष्यगण . (२०) मघा, मूल, धनिष्ठा, ज्येष्ठा, चित्रा, विशाखा, शतनिपक्, कृत्तिका अने अश्लेषा ए नव राक्षसगण . आमा बन्नेनो एक ज वर्ग होय तो अत्यंत प्रीति रहे, एकनो देववर्ग अने वीजानो नरवर्ग होय तो मध्यम प्रीति रहे, रास अने देववर्ग होय तो वैर रहे, तथा मनुष्य अने राक्षसवर्ग होय तो मृत्यु श्राय. कह्यु ले के "स्वकुले परमा प्रीतिर्मध्यमा देवमत्ययोः। _देवराक्सयोर्वैरं मरणं मर्त्यरक्षसोः॥१॥" “पोताना वर्गमां अत्यंत प्रीति रहे, देव अने मनुष्यने मध्यम प्रीति रहे, देव अने राक्षसने वैर पाय, अने मनुष्य तथा राक्षसने मृत्यु थाय, अर्थात् ते बे वर्गमां होय तो मरण थाय.” अन्निजित् नक्षत्र एकज विद्याधरना गणमां बे एम केटलाक कहे . विशेष ए ने जे-वर विगेरे मुख्य माणसनो राक्षसगण होय अने वहु विगेरे गौण माणसनो मनुष्यवर्ग होय तोपण ते बन्नेने शुन राशिकूट होय, तेना स्वामीनी मैत्री होय, योनिनी शुद्धि होय तथा नामीवेधनी शुद्धि होय तो ते योग शुल बे. ते विषे गर्ग कहे जे के "रक्षोगणो यदा पुंस: कुमारी नृगणा नवेत् । सन्नकूट १ खगप्रीति २ ोनिशुद्धि ३ स्तदा शुजम् ॥१॥" Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १३३ "ज्यारे पुरुषनो राक्षसगण होय भने कुमारीनो मनुष्यगण होय त्यारे शुल राशिकूट, ग्रहनी मैत्री अने योनिनी शुद्धि होय तो ते शुन ." हवे राशिकूट तथा राशिनु परस्पर वैर अने मित्रपणुं कहे .राशेरोजान्मृतिः षष्ठे सर्वाः स्युः संपदोऽष्टमे। राशौ छिछादशे नैःस्व्यं खामिमैत्र्ये पुनः श्रियः ॥२५॥ अर्थ-विषम राशिथी उठे मरण पाय, आपमे सर्व संपत्ति थाय, विधादश (बीजे बारमे ) राशिमां निधनपणुं थाय, अने स्वामीनी मैत्रीमां लक्ष्मी प्राप्त थाय ने. विस्तरार्थ-ज्यां बेनी (स्त्री पुरुषनी अथवा गुरु शिष्य विगेरेनी) राशि परस्पर बची श्रावमी होय तो ते बन्नेनुं षमष्टक ए नामर्नु राशिकूट कहेवाय . ए प्रमाणे बीजें बारमुं अने नवमुं पांचU विगेरे पण जाणवू. मेष, मिथुन विगेरे विषम राशिथी उनी राशि होय तो ते शत्रु षमष्टक कहेवाय ने, केमके ते राशिऊने परस्पर वैर . तेमां जेनी श्राग्मी राशि होय तेनुं मरण थाय ने एम रत्नमाला नाष्यमां कडं , अने विषम राशिथी ज आग्मी राशि होय तो ते प्रीति षष्टक कहेवाय ने, केमके ते राशिना स्वामीउने परस्पर मैत्री . तेथी करीने तेनुं आ प्रमाणे तात्पर्य जे. "मकरवृषमीनकन्यावृश्चिककर्काष्टमे रिपुत्वं स्यात् । __ अजमिथुनधन्विहरिघटतुलाष्टमे मित्रताऽवश्यम् ॥१॥" "मकर, वृष, मीन, कन्या, वृश्चिक अने कर्कना श्रष्टकमां शत्रुपणुं थाय, श्रने मेष, मिथुन, धन, सिंह, कुंन अने तुलाना अष्टकमां अवश्य मित्रता थाय." अहीं कोई शंका करे के-वैर अने मैत्री विगेरे बन्ने दंपत्यादिकना जन्मना लग्नमां विचारवा योग्य , केमके जन्मलग्न ज सर्वत्र बळवान् , तो अहीं जन्मराशिने श्राश्रीने केम वैर मैत्री कही ? आनो जवाव ए जे जे __ "जन्मलग्नमिदमङ्गमङ्गिना, मेनिरे मन इतन्ऽमंदिरम् । __ सौहृदं च मनसोर्न देहयोर्मेलकस्तदयमिन्गेहयोः॥१॥" "जे जन्मलग्न ने ते प्राणीनुं अंग-शरीर मानेलु , अने चंपनुं स्थान (राशि) प्राणीनुं मन मानेगुं बे, तेथी मननी ज मित्राश् होय बे, शरीरनी होती नथी. तेथी करीने था चंजनी राशिनो मेलाप युक्त जे." शंका-ज्यारे एम ने त्यारे राशिने श्राश्रीने मैत्री विगेरेनो विचार नले हो, परंतु ए स्थूळ विचार ले. तेथी करीने जन्मनी राशिमा रहेला नवांशोने विषे ते मैत्र्यादिकनो १ आ बीया बारमुं भाषामां कहेवाय छे. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ॥श्रारंसिद्धि॥ विचार करवो योग्य , केमके-"प्रनुरिह नवांशः" "अहीं नवांशो प्रनु-समर्थ हैं" एम प्रथम कही गया . __ जवाब-एम नथी, कारण के था स्थळे पूर्वाचार्योए था स्थूळ विचारने ज प्रमाणरूप मान्यो . जो एम न होय तो कर्क संक्रांतिमांमकरना नवांशो पण आवे जे, तो ते नवांशोमां रहेला सूर्यने केम उत्तरायणनो नथी कहेता ? तथा विधान करेला नक्षत्रनो दिवसना नागमां अनाव होय त्यारे पण तेना उदयमां अथवा तेनां मुहूर्तोमा जेम जातकर्म, कौरकर्म विगेरे थाय ने तेम पाणिग्रहण (विवाह ) पण केम नथी करातुं ? तेथी अहीं स्थूळy ज प्रमाणपणुं . आधी करीने सूदा विचार प्रमाण जे एम न जाणवू,कारण के कडं के "निन्नन्निन्नफललाग्नुवि नूयानेकधिष्ण्यदिनजोऽपि जनोऽयम् । __ सूक्ष्मतापि ननु तेन गरिष्ठा, किं तु मूलमनुरुध्य विधेया ॥२॥" “एक नक्षत्रमां, एक दिवसमां तथा एक ज लग्नमां पण उत्पन्न श्रयेला श्रा जीवो पृथ्वी पर जिन्न भिन्न फळने जोगवनारा घणा ज ने, तेथी करीने सूक्ष्मता पण मोटी (प्रमाणजूत ) , परंतु मूळ ( पूर्वाचार्योना प्रमाण )ने अनुसरीने ते सूक्ष्मतानो उपयोग करवो." लग्नमां नवांशो, बादशांशो, त्रिंशांशो, कळा, विकळा विगेरे उत्तरोत्तर सूक्ष्म होवाथी जिन्न भिन्न फळनो संजव . तेथी करीने अत्यन्तसूक्ष्मः स कलैकदेशो, येनाखिलानां निकुरा फलर्षिः। नास्मादृशां दृग्विषयः स तस्मान्मूलानुकूला व्यवहारसिद्धिः ॥३॥ __ "ते कळानो एक विजाग अत्यंत सूक्ष्म ले के जे विजागे करीने सर्वनी फळसंपत्ति जेदवाळी -निन्न निन्न फळदायक , पण ते कळानो विजाग आपणी दृष्टिना विषयमां श्रावतो नथी, तेथी करीने मूळने अनुकूळ एटले पूर्वाचार्यना प्रमाणने अनुकूळ व्यवहारनी सिद्धि करवी.” तेथी करीने जन्मादिकना लग्नमां कळा, विकळा सुधी विचार कराय . ते जरीते पूर्वाचार्योए प्रमाण करेलुं . इत्यलं. । षमष्टकनी स्थापना. शत्रु पमष्टक प्रीति षमष्टक n TET वृष मेष मिथुन मकर सिंह मीन कूल कन्या मष वृश्चिक मिथुन मकर | सिंह मीन | तुखा वृष तुला धनु कुंज | कन्या कके Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १३५ मूळ श्लोकमां जे विवादश एटले बीजुं वारमुं कर्तुं ते स्वन्नावथी ज दारियकारक बे, तोपण ते दंपती विगेरेना राशिना स्वामीठनी जो परस्पर मैत्री होय अथवा उपलक्षणथी राशिना स्वामी एक ज होय, त्यारे विधादशक अत्यंत शुल जाणं. जो बेमांथी एक स्वामी मध्यस्थ (उदासीन ) होय अने बीजो मैत्रीवाळो होय तोपण विषादशक शुक्ल ज जाणवू. अवशिष्ट एटले के जो राशिऊंना स्वामीउने परस्पर वैर होय अथवा एकनुं मध्यस्थपणुं अने बीजानुं वैरपणुं होय, अथवा बन्नेनुं मध्यस्थपणुं होप तो ते विधादशक अशुल जाणवू. ते विषे सारंग कहे जे के “प्रीतिरायुर्मियो मैत्र्यां सुखं स्यात्सममित्रयोः। योः समत्वे न स्नेहो न सुखं समवैरिणोः॥१॥" “राशिना बन्ने स्वामीने परस्पर मैत्री होय तो प्रीति तथा आयुष्य घj होय, एक मध्यस्थ बने एक मित्र होय तो सुख थाय, बन्ने मध्यस्थ होय तो प्रीति न होय, तथा एक सम अने एक वेरी होय तो सुख न होय.” विधादश ( बीजुं बारमुं)नी स्थापना. (१) श्रेष्ठ विधादशक| |शुन्न विवादशक. | अशुन विघादशक १३ | मीन कन्या सिंह वृश्चिक मिथुन मकर धनु सिंह कर्क मीन कुंज तुला कन्या वृप धनु वृश्चिक (४) कुंज मकर अशुजतर विधादशक ५ ५ । १२ 9 तुला वृष मेष १ मिथुन श्रामांना पहेला यंत्रमा प्रश्रमनां पांच विकादशकमां ग्रहोने परस्पर मैत्री बे, अने बघामा बन्नेनो स्वामी एक ज. बीजा यंत्रमा एक राशिनो स्वामी मध्यस्थ डे अने बीजानो स्वामी मित्र ने, तेथी करीने आ बन्ने यंत्रो प्रीतिकारक . त्रीजा यंत्रमा चारेना स्वामी परस्पर मध्यस्थ बे. चोथा यंत्रमा एक मध्यस्थ ने अने वीजो वैरी ने अथवा "चंड अने बुधने परस्पर वैर " ए मत लइए तो बन्ने वैरी . तेथी करीने या बन्ने यंत्रोनां पांचे बीया बारमा शत्रु . त्रिविक्रम पण कहे बे के-"सिंह राशि सिवाय वीजी सर्व विषम राशिथी बीजी राशि आवे एवां बीया बारमा अशुल , अने सम Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिधि॥ राशिथी तथा सिंह राशिथी बीजी राशि श्रावे एवां बीया बारमा श्रावे ते शुज . केटखाएक कहे जे के-"नामी विगेरे चारनी अनुकूळता होय तो परस्पर मध्यस्थपणावाळां बीया बारमां पण सारां ." ते विषे सारंग कहे बे के "नामी १ योनि २ र्गणा ३ स्तारा ५ चतुष्कं शुजदं यदि । __ तदौदास्येऽपि नाथानां नकूटं शुलदं मतम् ॥ १॥" "जो नामी, योनि, गण अने तारा, ए चार शुन्न होय तो राशिना स्वामीन उदासीनपणुं (मध्यस्थपणुं ) बतां पण राशिकूट शुलदायी माने जे.” नामी अने तारानुं स्वरूप श्रागळ कहेशे. "सिंहना बीया बारमा सिवाय बीजां सर्वे बीया बारमा अशुन ३" एम व्यवहारप्रकाशमां कडं बे. हवे राशिनुं नव पंचम कहे .श्रेयो मैत्र्यात्परे त्वाहुः कलिकृन्नवपञ्चमम् । एकरदे च जिन्नांशे श्रेयः शेषेषु च घ्योः ॥२३॥ अर्थ-नव पंचम राशिना स्वामीनी मैत्री होय तो शुन्न , केटसाक कहे जे के क्लेशकारक बे. एक राशिमां जिन्न अंशमां पण शुक्ल ने, अने बाकीनां राशिकूटोमां बन्नेने शुज . "नव पंचम स्वन्नावथी ज क्लेशनो हेतु , तेमां विवाह अयो होय तो संततिने हानि करनार " एम व्यवहारसारमां कडं . केटलाएक कहे जे के-बन्नेनी राशिठने परस्पर मैत्री होय ते नव पंचम शुन्न , अने एकनी मैत्री तथा बीजार्नु मध्यस्थपणुं होय तो ते मध्यम बे. नव पंचमनी स्थापना. शुन्न नव पंचम । मध्यम नव पंचम मिथुन मन कके कके | वृश्चिक कन्या । मकर मेष सिंह वृष कन्या मिथुन तुला सिंह धनु तुला वृश्चिक मीन धनु मकर | वृष कुंन मेष Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १३७ विशेष ए ने जे प्रीति (शुल ) नवपंचमश्री प्रीति बीया बारमुं श्रेष्ठ ने अने तेथी पण प्रीति षमष्टक सारुं . वळी नारचंड टिप्पणीमां कडं वे के "श्रआसन्नस्तु वरो ग्राह्यो नासन्ना कन्यका पुनः।। मृतैकमातापितरं संग्राह्यं नवपंचकम् ॥१॥" "श्रासन्न (नजीक )नो वर ग्रहण करवो, पण नजीकनी कन्या ग्रहण करवी नहीं, एटले के जो कन्यानी राशिथी गणतां वरनी राशि समीपे होय श्रने वरनी राशिथी गणतां कन्यानी राशि दूर होय तो नवपंचम विगेरे सर्व राशिकूट शुल्ल बे, पण कन्यानी राशिथी गणतां वरनी राशि दूर होय तो ते शुक्न नथी. तोपण जो वर के कन्या बेमांथी एकनां माता पिता मरण पाम्यां होय तो नवपंचम शुक्ल ज .” । ___ मूळ श्लोकमां "एक शक्ष" कह्यु बे, त्यां शक्नो अर्थ "राशि" एवो , तेथी जो बेनी एक ज जन्मराशि होय तो नवांशना नेदश्री ते शुज ने, अने बेउनुं जन्मनक्षत्र एक होय तो ते शुन नथी. त्रिविक्रम कहे जे के "एक जायते यत्र विवाहे वरकन्ययोः। मूलवेधस्तु स प्रोक्तो महाअष्टफलप्रदः ॥१॥" "जो विवाहमां वर कन्यागें एक ज (जन्म ) नक्षत्र होय तो ते मूळवेध कहेवाय ने, ते महा पुष्ट फळने थापनार बे." खस पण कहे जे के "एकनक्षत्रजातानां परेषां प्रीतिरुत्तमा । दम्पत्योस्तु मृतिः पुत्रा वातरो वार्थनाशकाः॥१॥" “एक नक्षत्रमा उत्पन्न श्रयेला बीजाउने उत्तम प्रीति रहे डे, परंतु स्त्री पुरुषनी तो मृति (मरण)ज थाय . अथवा तेना पुत्रो अने नाल धननो नाश करनार थाय ." तेमां पण एटले एक नक्षत्रमा पण पादनो लेद होय एटले जूदा जूदा पादमां जन्मेला होय तो ते शुज जने, पण एक ज पादमां जन्म्या होय तो ते शुन नथी. कडं के "नक्त्रमेकं यदि जिन्नराश्योरनिन्नराश्योरपि निन्नमृक्षम् । प्रीतिस्तदानीं निविमा नृनार्योश्चेत्कृत्तिकारोहिणिवन्न नामिः॥१॥" "जो नक्षत्र एक होय अने राशि निन्न होय, अथवा राशि एक होय अने नक्षत्र निन्न होय तो ते स्त्री पुरुषने अत्यंत प्रीति रहे, परंतु कृत्तिका अने रोहिणी जेवी एक नामी (नामीवेध) न होवी जोश्ए. एटखे के जेम कृत्तिका अने रोहिणीने नामीवेध ने, तेवो नामीवेध न होवो जोइए.” तथा "नाग्निर्दहत्यात्मतनुं यथा वा अष्टा स्वदृष्टेनं हि दर्शनीयः। एकांशकत्वे समतैव तपन्न नर्तृलार्याव्यवहारसिद्धिः॥२॥" "जेम अग्नि पोताना देहने बाळतो नथी, अने जेम अष्टा पोतानी दृष्टिए जोवा सायक भा. १८ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥आरसिद्धि ॥ नथी (पोतानी दृष्टिए पोताने जो शकतो नथी), तेम एक ज अंशमां जन्म्या होय तो समानपणुं थाय ने, माटे वर वहुना व्यवहारनी सिद्धि थश् शकती नथी." एक पाद उतां पण शुल , एम केटलाक कहे - "पराशरः स्माह नवांशलेदादेकराश्योरपि सौमनस्यम् । एकांशकत्वेऽपि वसिष्ठशिष्यो नैकत्रपिंमे किल नामिवेधः॥ ३ ॥" “पराशर कहे जे के नवांशनो नेद होय तो एक नक्षत्र अने एक राशिमां पण प्रीति होय . वशिष्टनो शिष्य कहे जे के एक अंश होय तोपण एक शरीरमा अर्थात् एक नक्षत्रमा नामीवेध अवश्य न होय.” ___ मूळ श्लोकमां “शेषेषु च योः" एवं . तेमां शेष एटले बाकीना एटले के सातमे सातमे, दशमे चोथे, त्रीजे अगीयारमे राशिकूट होय तो ते श्रेष्ठ , कारण के था स्थानोमां राशिउने ज परस्पर मैत्री बे, तेथी तेना स्वामीनी मैत्री विचारवानी नथी. ते विषे गदाधर कहे जे के "राशिकूटे शुल्ने लब्धे ग्रहमैत्री न चिन्तयेत् । अलाने राशिकूटस्य ग्रहमैत्री तु चिन्तयेत् ॥ १॥" __ "राशिकूट शुक्ल प्राप्त थयु होय तो ग्रहनी मैत्री विचारवी नहीं, अने राशिकूट शुल मळयुं न होय तो ग्रहनी मैत्री विचारवी.” तेमां पण एटले सप्तम सप्तम विगेरेमां एक ज स्वामीपणुं होय तो अत्यंत श्रेष्ठ जाणवं. __ सर्वे बाकीनां राशिकूटोनी स्थापना. | शुल्ल तृतीयैकादश सप्तम सप्तम दशम चतुर्थ | दशम चतुर्थ श्रेष्ठ श्रेष्ठतर मेष मकर वृश्चिक मिथुन मेष कके मकर वृश्चिक सिंह तुला कके थुन कुंज मकर तुला कन्या कके वृश्चिक तुला मीन धन वृश्चिक कन्या धन तुला मकर वृश्चिक कुंज १० ४ तुला १० | प मेष मान मीन मथुन धन सिंह वृष सिह कन्या मीन धनु कन्या कन्या मिथुन | कुज सह मकर Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १३ए श्रहीं सप्तम सप्तममा तथा त्रण अगीयारमा स्वामीनी मैत्रीनी चिंता (विचार ) करवानी नथी. दशम चतुर्थ (१-५) मां तो पहेला चारमा मैत्री बे, श्रने ना बेमां एक ज स्वामी ने, तेथी ए ए राशिकूट अत्यंत श्रेष्ठ जे. बीजा दशम चतुर्थनां गए कूट स्वनावधी ज श्रेष्ठ बे. तात्पर्य ए जे जे-प्रथम नक्षत्र योनि विगैरेनी शुद्धि बळवान् , तेनाथी राशिनुं वशपणुं बळवान् , तेनाथी पण राशिना स्वामी जे ग्रहो तेमनी मैत्री बळवान् , तेनाथी पण राशिउनी स्वानाविक मैत्री बळवान् बे. ते विषे कह्यु बे के "स्वनावमैत्री १ सखिता स्वपत्यो २ वशित्व ३ मन्योन्यजयोनिशुद्धिः ।। परः परः पूर्वगमे गवेष्यो हस्ते त्रिवर्गी युगपद्युतिश्चेत् ॥ १॥" "राशिनी स्वानाविक मैत्री, तेमना स्वामीउनी मैत्री, तेमनुं वशवर्तिपणुं तथा परस्पर नक्षत्र योनिनी शुद्धि, पूर्व पूर्वना अनावे पर परनी गवेषणा करवी, यथा स्वानाविक मैत्रीना श्रन्नावे तेमना स्वामीनी मैत्री, तेना अनावे वशवर्तिपणुं इत्यादिः जोएक साथे स्वालाविक मैत्री, तेमना स्वामीउनी मैत्री आदि होय तो धर्म, अर्थ अने काम त्रणे वर्ग तेना हाथमां जाणवा, परंतु तारामैत्री अने नामीवेध शुद्धि तो सर्वत्र जोवानी ज . केटलाएक नवीन गाममां वसवा माटे या प्रमाणे कहे . "जन्मराशिस्थितो ग्रामस्त्रिषष्ठः सप्तमोऽपि वा। स्वकीयो व्यनाशाय आपदा च पदे पदे ॥१॥ चतुर्थोऽष्टमको ग्रामो बादशो यदि वा नवेत् । यत्रैवोत्पद्यते अर्थस्तत्रैवार्थो विलीयते ॥ २॥ पञ्चमो नवमो ग्रामो वितीयो यदि वा नवेत् । दशमैकादशश्चैव शुलदः स फलप्रदः ॥३॥" "पोतानी जन्मराशिमा रहेल ग्राम तथा जन्मराशिथी त्रीजे, बठे के सातमे होय तो व्यनो नाश थाय तथा मगले मगले आपत्ति प्राप्त थाय. जन्मराशियी चोथे, बाउमे के बारमे जो होय तो अर्थ ज्यां पेदा थाय त्यांज नाश पामे. नवमे, बीजे, दशमे के अगीयारमे शुजकारी फळनो आपनार बे. हवे तारा कहेवी जे. तेमां प्रथम तेनी साथे संबंध होवाथी नामीवेध कहे . चक्रे त्रिनाडिके धिष्ण्यमेकनाडिगतं शुनम् । गुरुशिष्यवयस्यादेने वधूवरयोः पुनः ॥२४॥ अर्थ-त्रण नामीवाळा चक्रमां एक नामीमा रहेलु नत्र होय ते गुरु शिष्यने तथा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ॥ श्रारंसिद्धि ॥ मित्रादिकने श्रादि शब्दथी स्वामी नृत्यादिक सर्व इंघोने शुल्लकारी ने, परंतु वढु वरने शुन नथी, एटले के जेजेनां जन्मनक्षत्रो अथवा नामनत्रो एक नामीमा रह्यां होय तो ते नामीवेध कहेवाय ने, अने जिन्न जिन्न नामीमा रह्यां होय तो नामीवेध नश्री एम जाणवू. त्रिनामी चक्र स्थापना अनहोम अरिपन पर हावस्या विविध स्पर्ड अपशिष्रे दंपतीना संबंधमां आ नामीवेध शुन नथी. ते विषे हर्षप्रकाशमां कां ने के "सुश्रसुहिसेवयसिस्साघरपुरदेस सुह एगनामी था। __ कन्ना पुण परिणीश्रा हणश् परं ससुरं (च) सासुं च ॥१॥" "पुत्र, मित्र, सेवक, शिष्य, घर, नगर अने देश, ए सर्वे एक नामीमां एटले नामीवेधमां होय तो श्रेष्ठ बे, परंतु एक नामीमा रहेली कन्या जो परणी होय तो ते पतिने, ससराने तथा सासुने हणे बे." विशेष ए जे जे-"पुत्र, मित्रादिकने नामीवेध होय तो विरुध योनिवाळा नक्षत्रनो योग पण अशुन नथी.” वर वहुने नामीवेध होय तो तेनुं फळ श्रा प्रमाणे कां बे."हन्नामिवेधतो जर्तुमध्यनामाव्यधे घयोः। पृष्ठनामीव्यधे नार्या मृत्युः स्यान्नात्र संशयः ॥१॥ समासन्ने व्यधे शीघ्रं वेधे चिरेण च । वेधान्तरजमानेऽत्र वर्षे उष्टं प्रजायते ॥२॥" __"हृदयनी नामीनो (पहेला नक्षत्रनी नामीनो) वेध होय तो पतिनुं मरण थाय ने, मध्य (बीजी) नामीनो वेध होय तो बन्नेनुं मरण अने पृष्ठनी (त्रीजी) नामीनो वेध होय तो स्त्रीनु मरण थाय बे. श्रा वात निःसंदेह बे. तेमां पण पासेनो वेध होय तो शीघ्रताश्री अशुज प्राय डे, पूर वेध होय तो चिरकाळे अने वचमां वेध होय तो नदबनी संख्या प्रमाणे ( तेटले ) वर्षे अशुल थाय ." कदाच नक्षत्रवेधनो त्याग न अश् शके तो पादवेधनो अवश्य त्याग करवो. ते विषे नरपतिजयचर्यामां कडं बे के "एतच्चक्रं समालिख्य अश्विन्यायंपिंक्तितः। वेधो पापशनामीनिः कर्तव्यः पतिकन्ययोः॥१॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ एवं निरन्तरो येषां दम्पतीनां नवेषेधः। तेषां मृत्युने संदेहः सान्तरस्त्वरूपःखदः॥३॥" "अश्विनीना पहेला पादनी पंक्तिथी श्रारंजीने वार नामी (रेखा )ए करीने श्रा चक्र श्राळेखवू, तेमां वर वहुनो वेध जोवो. तेमां जे दंपतीनो वेध श्रांतरारहित होय तो अवश्य तेमनुं मृत्यु थाय अने जो आंतरा सहित एटले घर होय तो अटप फुःखदायी थाय." __वळी ते ज ग्रंथमां "दंपतीनी जेम देवता, मंत्र तथा गुरु शिष्यना योगमां पण नामीवेध अशुल ," एम कडं बे. ते था प्रमाणे. “एकनामीस्थिता यत्र गुरुमंत्रश्च देवता। तत्र देषं रुजं मृत्यु क्रमेण फलमादिशेत् ॥ १॥" "ज्यां गुरु, मंत्र अने देवता एक नामीमा रह्या होय त्यां अनुक्रमे क्षेष, व्याधि अने मृत्युरूप फळने कहे.” प्रथम कहेला सर्वे मैत्रीना प्रकारोमा श्रा नामीवेध बळवान् ने. ते विषे कह्यु ले के "सदा नाशयत्येकनामीसमाजो नकूटादिकान् सर्वनेदान् प्रशस्तान्"। "नत्र, (राशि) कूट विगेरे सर्व शुल नेदोनो एक नामीवेध ज नाश करे ." हवे तारामैत्री कहे जे.येषु गुरुशिष्यादेः प्रीतिहेतोः परस्परम् । त्रिपञ्चसप्तमी तारां सर्वत्र परिवर्जयेत् ॥ २५॥ अर्थ-परस्पर प्रीतिना हेतुरूप गुरु शिष्यादिकनां घोने परस्पर त्रीजी, पांचमी भने सातमी तारा सर्वत्र वर्जवी. एटले के बेमांथी एकनी पण तारा त्रीजी, पांचमी के सातमी होय तो तेमनी तेवी (सारी) प्रीति अती नश्री. ( नव नव तारानी त्रण ठळी प्रथम कही नेते अहीं जाणवी.) तेमां पण विशेषे करीने गुरु, वर, राजादिक स्वामी विगेरेनी तारा त्रीजी, पांचमी के सातमी न ज होवी जोश्ए. कह्यु बे के "नीरुनादचल ७ पञ्च ५ तृतीया ३ शौकवैर विपदे वरताराः”। "स्त्रीना नक्षत्रथी वरनी तारा सातमी, पांचमी के त्रीजी होय तो ते अनुक्रमे शोक, वैर अने विपत्तिने माटे बे." श्रा तारामैत्रीनुं प्रधानपणुं जे. ते विषे दैवज्ञवक्षनमां कडं ले के "पुंस्त्रीराशीशयोमैत्र्यामेकेशत्वे च वश्यने। षमष्टमादिष्वपि स्यात्तारामैच्या करग्रहः॥१॥" "वर कन्यानी राशिना स्वामीउनी मैत्री बता, अश्रवा तेमनुं एक स्वामीपणुं उतां, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ॥ आरंभसिद्धि ॥ तथा वश्यपणुं बतां, तेमज परुष्टक विगेरे बसां पण तारामैत्रीए करीने पाणिग्रहण करवामां आवे छे." हवे वर्गमैत्री कहे बे. - चत्वारोऽकचटा वर्गाः क्रमात्तपयशास्तथा । यत्नतो वर्जनीयाः स्युरितरेतरपञ्चमाः ॥ २६ ॥ - कारादिक स्वरोनो अ वर्ग, कादि पांचनो क वर्ग, च विगेरे पांचनो च वर्ग, वर्ग, वर्ग, प वर्ग, यरलवनो य वर्ग, तथा शपसनो श वर्ग एम श्र वर्ग जाणवा. या वर्गोमांथी परस्पर पांचमो पांचमो वर्ग यत्नश्री वर्जवा योग्य बे. एटले के वर बहु विगेरेना नामना पहेला पहेला काक्षर जे जे वर्गमां आवता होय ते वर्ग एक बीजाथी पांचमी होय तो तेमना स्वामीनुं जातिवैर होवाथी ते तजवा योग्य बे. वर्गना स्वामी दर्षप्रकाशमां श्र प्रमाणे कहेला बे. - “वैनतेयौ १ तु २ सिंह ३ श्वा ४sदि ए मूषक ६ मृगो 9 रणाः ८ । क्रमादकचादीनां स्वामिनोऽमी स्मृता बुधैः ॥ १ ॥” ", क, च विगेरे खावे वर्गोना स्वामी अनुक्रमे गरुरु १, बिलाको २, सिंह ३, कूतरो ४, सर्प ५, जंदर ६, मृग ने घेटो ८, श्र प्रमाणे पंकितोए कहेला . वामां दरेकथी पांचमा पांचमा साथे वैर बे." विशेष ए बे जे - योनि १, गण २, राशि ३, ताराशुद्धि ४ छाने नाडीवेध ए, श्रा पांच बाबतो जन्मनक्षत्रनी खबर होय तो ते जन्मनक्षत्रे करीने ज जोवी. खबर न होय तो नामना नक्षत्रवमे जोवी, पण वर्गमैत्री श्रने लेपादेखी तो प्रसिद्ध नामना नक्षत्रे करीने ज जोवी. वर्ग कहेवानी साथे संबंध होवाथी परस्पर लेखादेखी जाणवानी रीत बतावे बे. - नामादिवर्गांकमथैकवर्गे, वर्णांकमेव क्रमतोऽक्रमाच्च । न्यस्योजयोरष्टहृतावशिष्टेऽर्धिते विशोपाः प्रथमेन देयाः ॥ २७ ॥ अर्थ-बेनां नामना आदि अक्षरवाळा वर्गना अंक ( संख्या ) ने अथवा एक ज वर्गनां होय तो ते नामना पहेला अहरोनी संख्याने जोके जोके मूकवी. पढी तेने श्रावे नागी जे अवशेष रहे तेनुं अर्ध करवुं. जे यावे तेटला वसा पहेला कना वर्गवाळो बीजा वर्गनी देवादार बे एम जाणवुं. ए रीते क्रमाने उत्क्रमवमे जेम घटे तेम लेणं चने देणुं यथायोग्य वाळवं, अने बाकीनुं देणुं निश्चित कर, अने जो परस्पर लेणुं के देवु नये तो बेमांथी एकने जेने यावे तेनो निर्णय करवो. उदाहरण – कणाद गुरु छाने वक्ष्मीक शिष्य बे. तेमनां नामना वर्गनी संख्या अनु Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १५३ क्रमे मूकी त्यारे २७ सत्यावीश अया. तेने श्राठे नाग लेतां त्रण शेष रह्या, तेने अर्ध कर्या त्यारे दोढ रह्यो, माटे कणाद गुरु वहमीकनो दोढ वसानो देवादार थयो. हवे (कणाद वहमीक पासे केटलुं मागे ते जाणवा माटे ) ते ज ांकने उत्क्रमे मूकतां ७२ बोंतेर श्रया, तेने आठे नाग खेतां कां पण शेष रह्यं नहीं, तेथी वटमीक गुरुनो कांश पण देवादार न थयो, परंतु गुरु ज शिष्यनो देवादार थयो. या योगनिधान ग्रंश्रमां कहेलु उदाहरण कयुं . हवे बीजुं उदाहरण आपीए बीए.-आदिनाथ ने श्रीदत्तना वर्गना अंक मूकवाथी १० अढार थया. तेने आये नाग देतां वे वध्या, तेनुं अर्ध करतां एक आव्यो. तेथी एक वसो आदिनाथ श्रीदत्तना देवादार थया. हवे ते ज अंको उत्क्रमे स्थापवाथी ०१ अया. आवे नाग्या त्यारे एक अवशेष रह्यो. तेने अर्ध करवाथी अर्ध श्राव्यो, तेथी श्रीदत्त श्रादिनाथनो श्र? वसो देवादार थयो. परस्पर लेणदेण वाळवाथी बाकीनो अर्धो वसो श्रादिनाथ श्रीदत्तना देवादार श्रया. ए निर्णय थयो. ए प्रमाणे सर्वत्र जाणवू. “देवा लेवामां सहेलु पमे माटे खेणादेणी थोमी होय ते सारी," एम नारचं टिप्पणमां कडं बे. अहीं गर्गाचार्ये कहेलो संग्रह श्लोक आ प्रमाणे ."राशि १ ग्रहमैत्री २ गण ३, योनी ४ तारै ५ कनाथता ६ वश्यम् । स्त्रीपूर - नामियुति ए वर्ग १० खन्य ११ वर्ण १५ युजयो १३ प्येषह्याः ॥१॥" "गुरु शिष्य, वर वहु विगेरे घोमां राशि १, ग्रहमैत्री २, गण ३, योनि ५, तारा ५, एक स्वामीपणुं ६, वश्यपणुं ७, स्त्रीपूर , नामीवेध ए, वर्ग १०, खेणादेणी ११, वर्ण १५ श्रने युजि १३, थाटली १३ बाबतो जोवी. नावार्थ था प्रमाणे जाणवो.बेउनी राशिऊनी स्वानाविक मैत्री त्रण अगीयार, दश चार अने सप्त सप्तममां (राशिकूटमां) जोवी. ग्रहमैत्री, प्रीति षमष्टक, प्रीति विघादशम अने प्रीति नवपंचममां जोवी. तथा गण, योनि, तारा, एक स्वामीपणुं, नामीवेध, वर्ग अने लेणादेणी, ए सर्वे कही दीधा ने माटे स्फुट ले. वश्यपणुं आगळ कहेशे. स्त्रीपूर एटले वहुनी राशि वरनी राशिथी दूर होय तो सारी अर्थात् वहुनी राशिथी वरनी राशि पासे होय तो सारीवर्ण एटले मीनथी आरंजीने चार चार राशिना त्रण विनाग करवा. तेमां दरेक विनागमा अनुक्रमे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भने शूज वणे जाणवा. एटले के मीन ब्राह्मण, मेष क्षत्रिय, वृष वैश्य अने मिथुन शूष ए रीते कके ब्राह्मण विगेरे. या वर्षेविनाग सारावळीमां कह्यो बे. तेनुं फळ था प्रमाणे कडं . “यत्र वर्णाधिका नारी तत्र लत न जीवति ।। यदि जीवति नर्ता स्यात्तदा पुत्रो न जीवति ॥ १॥" Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ॥ श्रारंलसिद्धि "जे इंघमां नारी जंचा वर्णवाळी होय, ते इंघमां पति जीवे नहीं. जो कदाच पति जीवे तो पुत्र न ज जीवे,” एम महादेव कहे जे." युजि पण पूर्वे “पूर्वार्ध योगीमा परणेली स्त्रीने तेनो नर्ता अत्यंत वखन थाय जे." ए विगेरे कहेलुं बे." विशेष ए जे जे जिनबिंब करावनार धनिकने अनुकूळ प्रतिमा स्थापवामां तथा शिष्यतुं नाम पामवामां मुनिए नक्षत्रनी योनि विगेरेनो विशेष उपयोग करवो तेमां शिष्यना नाममा नामीवेध श्रेष्ठ . ते जिनेश्वरना नाममां तजवा योग्य ज , अने तारानो विरोध प्राये करीने जिनबिंबना अधिकारमां विचारवानो नथी. कडं के "योनि १ गण २ राशिलेदा ३ बन्यं ४ वर्गश्च ५ नामिवेधश्च ६।। नूतनबिंबविधाने षड्विधमेतविलोक्यं ज्ञैः॥१॥" "योनि १, गण २, राशिजेद, ३, लेणादेणी ४, वर्ग ५ अने नामीवेध ६, श्राउ प्रकारनुं बळ पंमितोए नवीन जिनबिंब कराववामां जोवू." तेमां जिनेश्वरना जन्मनक्षत्रनी जेम जे धनिकना जन्मनक्षत्रनी खवर होय तेना जन्मनक्षत्र साथे योनि, गण, राशि अने नामीवेध, या चार बाबत जोवी, पण वर्ग श्रने लेणादणी ए बे बाबत जोवी नहीं, केमके वर्गनुं परस्पर पांचमापणुं तथा परस्पर खेणादेणी ए बेज बाबत जिनेश्वरनी ज जेम ते धनिकने पण प्रसिद्ध नामवेम ज जोवाय के. श्रारीत सर्वत्र लेवी, परंतु जन्मनक्षत्रनी खबर न होय तो तेनी योनि विगेरे सर्व प्रसिद्ध एवा नामना ज नक्षत्रवझे जोवं. तेमां प्रथम तो जिनेश्वर तथा धनिकनु योनि, गण अने वर्ग संबंधी परस्पर वैर अवश्य तजवं. अथवा वैर उतां पण धनिकनी योनि विगेरे जो देवनी योनि विगेरेथी बळवान् होय तो ग्रहण करवामां हरकत नथी. एटले के श्रहप वळवानवमे वधारे बळवाननो पराजव थर शकतो नथी. श्रा अभिप्राये करीने धनिकनी योनि बिलामो ( बळवान् ) होय अने देवनी योनि जंदर (निर्बळ ) होय, एटलाथी कांइदोष नथी, श्रने जातिवैर न होय तो धनिकनां योनि अने वर्ग अटप बळवाळां होय तोपण का विशेष दोष नथी, कारण के शास्त्रमा योनि श्रने वर्गनां जातिवैरने ज वा बे. लोकमां पण ते ज प्रमाणे श्रादरवामां श्रावे . तथा जेमां देवनी राशिथी धनिकनी राशि समीपे होय, अने धनिकनी राशिथी देवनी राशि दूर होय एवं प्रीति षष्टक विगेरे ग्रहण करवं. ते सिवाय बीजुं एटले अप्रीतिवाळु ग्रहण न करवं. तथा तेवा प्रका. रनुं बीजुं को शुद्ध न मळे तो ते पण एटले अप्रीतिवाळु पण ग्रहण करई. देव राक्षसरूपी गणवैर पण ए ज रीते जाणवू, केमके लोकमां पण वर कन्यादिकना संबंधमां बीजी शुधिने अनावे देव राक्षसरूप गणवैर पण आदर करातुं जोवामां आवे . शिष्यनां Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १४५ नाम पामवामां तो गुरु शिष्यनो परस्पर ताराविरोध तथा शत्रु पमप्टक विगेरे सर्व (राशिकूटना) अशुजनो त्याग करवो. योनिनो विरोध पण तजवो, परंतु नामीवेध होय तो श्रा योनिविरोध अशुन्न नथी. ते विषे हर्षप्रकाशमां कयुं ले के "5बारस नवपंचम उक्कग तिपणसत्तमी तारा । अन्नुन्नं गुरुसीसाणं नामकरणे विवक्रिजा ॥१॥ गुरुसीसाण करिजा नामं न विरुधजोणिए रिरके । जश् दुजा न तं रिकं आरूढं एगनामीए ॥२॥" "नाम करवामां गुरु शिष्यनुं परस्पर बीया बारमुं, नवपंचम, पमष्टक तथा त्रीजी, पांचमी अने सातमी तारा, थाटलां वानां वर्जवां. गुरु शिष्यना परस्पर विरुष्ठ योनिवाळा नक्षत्रमा नाम करवू नहीं, परंतु जो ते नक्षत्र एक नामी पर आरूढ थयुं न होय तो-नामीवेधमां न होय तो अर्थात् नामीवेधमां ते नात्र होय तो विरुष्क योनिवाळा नक्षत्रनो दोष नथी.” गण अने वर्गनो विरोध तो तजवा योग्य ज . लेणादेणी पण परस्पर जोवा योग्य बे. परस्परनी राशिमैत्री विगेरेनो अनाव होय तो राशिनुं वश्यपणुं ग्रहण करवू, केमके वश्यपणुं होवाथी शत्रु षमष्टकादिकनो पण विशेष दोष संजवतो नश्री. पुत्र विगेरेना नामने विषे पण प्राये सर्व बाबत शिष्यना नाम प्रमाणे ज जाणवी. पूर्णता पण कहे के "जीवेन्धर्केषु बलिषु त्रिषु गोचरशुद्धितः। नामप्रथमवणेस्य नृणां नाम विधीयते ॥१॥" ___ "पहेला अनी गोचरशुद्धियी गुरु, चंद्र अने सूर्य ए त्रण बळवान् होय त्यारे माणसनुं नाम करवामां आवे जे. जावार्थ एजे जे नाम पामनार आचार्यदिकने जेटला वर्णो (अक्षरो) मैत्रीने लजनारा बे, ते वर्णोमांथी जे वर्णना गुरु, चं श्रने सूर्य गोचरशुद्धिवझे बळवान् होय, ते वर्णने प्रथम (नामनी आदिमां ) राखीने इष्ट ( शुज ) दिवसे शिष्यादिकनुं नाम पामवं." हवे कर्णवेधनुं मुहूर्त कहे जे. कर्णवेधोऽहि सौम्यस्य मार्गे मैत्र्ये श्रुतिघ्ये । हस्तचित्रोत्तरा ३ पौष्णाश्विनादित्यये शुजः ॥ ७ ॥ अर्थ-बुधवारे दिवसमां मृगशीर्ष, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, चित्रा, त्रणे उत्तरा, रेवती, अश्विनी, पुनर्वसु अने पुष्य नक्षत्रमा कर्णवेध करवो शुल के. गुरुवारे पण करवानुं व्यवहारसारमां कडं ने. भा. १९ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ॥आरंलसिछि॥ हवे वाळकने प्रथम चलाववानुं तथा प्रथम नोजन- मुहूर्त कहे जे. आद्याटनं प्राथमकाल्पकस्य, मृउध्रुवक्षिप्रचरेषु नेषु। पूर्वाशनं मासि शिशोश्च षष्ठे, जं वारुणं स्वातिमितश्च मुक्त्वा ॥४॥ अर्थ-बाळकने तथा नवा दीक्षित साधुने मृड, ध्रुव, क्षिप्र अने चर नक्षत्रोमांप्रथम हिंमन तथा गोचरीनी चर्या शुल ने. अहीं वार कह्यो नथी तोपण मंगळ अने शनि सर्व कार्यमा त्याग करवा. बाळकने पहेलु अशन ( खवरावq ते-अबोटण ) उठे महीने करावq, अने पूर्वनां मृड विगेरे नक्षत्रोमांथी शततारका अने स्वाति विनानां बीजां सर्वे नक्षत्रो लेवां. "पुत्रीने पांचमे मासे पहेलुं अशन करावq.” एम नोज कहे . "पुत्रीने माटे मासनो नियम नथी" एम हरि कहे .तिथिमां रिक्ता तिथिनो सर्व कार्यमा त्याग करवो. विशेष ए ले के "शशिशुक्रे च मन्दाग्निः शनिनौमे बलक्ष्यः। । बुधार्कगुरुवारेषु प्राशनं तु हितावहम् ॥ १॥" ___ "चंड अने शुक्रवारे अन्न प्राशन कराववाथी अग्नि मंद पाय , शनि श्रने मंगळवारे बळनो क्य थाय , तेथी बुध, सूर्य अने गुरुवारे अन्न प्राशन करावq शुज ." हवे नवां पात्रो वापरवानुं मुहूर्त कहे .पात्रलोगोऽश्विनीचित्रानुराधारेवतीमृगे। हस्ते पुष्ये च युर्विन्वारयोश्च प्रशस्यते ॥३०॥ अर्थ-अश्विनी, चित्रा, अनुराधा, रेवती, मृगशीर्ष, हस्त अने पुष्य नक्षत्रमा तथा गुरु अने चंना वारे नवां पात्रो वापरवां शुल . हौरनुं मुहूर्त कहे जे.दौरं शुजस्याहनि तारकावले, तिथौ च रिक्ताष्टमिषष्ठ्यमोज्जिते । चित्राचरैन्याश्विनपुष्यरेवतीदस्तैन्दवैस्तुल्यपतौ क्षणेऽथवा ॥३१॥ अर्थ-शुल वारने दिवसे तारानुं बळ होय त्यारे रिक्ता तिथि, आग्म, बस अने अमावास्या सिवायनी बीजी को तिथिए चर नक्षत्रो, चित्रा, ज्येष्ठा, अश्विनी,पुष्य, रेवती, हस्त तथा मृगशीर्ष नत्रमा अथवा तो श्रा नक्षत्रोना पति जेमां होय तेवा मुहूर्त्तमां बाळकनुं प्रथम मुंझन अथवा नवीन साधुनो प्रथम लोच करवो. बाकीनां-पबीनां मुंमनो तो वार तथा मात्र नक्षत्रनी शुधिए करीने ज थाय बे. मुंमनमां शुन्न वार एटले अक्रूर वार लेवो. ते विषे व्यवहारसारमां आ प्रमाणे खख्युं . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ "कौरे मासं मुनोत्यर्को नौमोऽष्टौ सप्त सूर्यजः । षट् प्रीणातीन्पुरष्टौ झो गुरुर्नव नृगुर्दश ॥ १॥" "रविवारे दौर कराववाथी एक मास सुधी दु:ख थाय ने, मंगळे आठ मास अने शनिवारे मुंमन कराववाथी सात मास मुख थाय जे. सोमवारे मुंमन कराववाथी 3 मास प्रसन्नता रहे बे, बुधवारे आठ मास, गुरुवारे नव मास अने शुक्रवारे दश मास प्रसन्नता रहे जे." _कौरमां ताराबळ अवश्य जोवु जोइए, केमके "तारासुद्धं खरं" "ताराए करीने शुद्ध दिवसे कौर करावq" एम हर्षप्रकाशमां पण कर्वा के. चंजवळ पण अवश्य लेवू एम व्यवहारप्रकाशमां कडं जे. जो कहेला नत्रो न मळतां आवे, अने कौर अवश्य करवं होय तो कहेला नत्रोनो जे स्वामी होय, ते ज जे हणनो स्वामी होय ते क्षणे दौर करावq. कण एटखे मुहूर्त नामनो रात्रि दिवसनो पंदरमो जाग ( बेघमी). ते क्षपोना स्वामी श्रा प्रमाणे - "शिव १ नुजग २ मित्र ३ पितृ । वसु ५ जल ६ विश्व ७ विरंचि पंकजप्रजवाः ए। इन्शा १० नील ११ निशाचर १५ वरुणा १३ र्यम १४ योनय १५ श्चाह्नि ॥१॥" ___ "दिवसना १५ क्षणोना अधिपति अनुक्रमे या प्रमाणे बे.-शिव १, नुजग १, मित्र ३, पितृ ४, वसु ५, जल ६, विश्व , विरंचि छ, पंकजप्रजव (ब्रह्मा) ए, इंज १०, अग्नीन्छ ११, निशाचर १२, वरुण १३, अर्यमा १४ अने योनि १५." "रुषा १ जा २ हिर्बुधाः ३ पूषा ४ दस्रा ५ न्तका ६ नि ७ धातारः । शघ ए दिति १० गुरु ११ हरि १२ रवि १३ त्वष्ट्र १४ नलाख्याः १५ दणाधिपा रात्रौ " "रात्रिए दाणोना अधिपो अनुक्रमे था प्रमाणे जे.-रुष १, अज २, अहिर्बुध ३, पूषा ४, दस्र , अन्तक ६, अग्नि ७, धाता ७, इंए, अदिति १०, गुरु ११, हरि १२, रवि १३, त्वष्टा १४ अने श्रनल १५." क्षणोनां नामो श्रा प्रमाणे ."आर्षा १ श्लेषा २ नुराधा ३ च मघा । चैव धनिष्ठिका । पूर्वाषाढो ६ त्तराषाढे ७ अनिजि मोहिणी ए तथा ॥३॥ ज्येष्ठा १० विशाखिका ११ मूलं १२ नक्षत्रं शततारकम् १३ । उत्तर १४ पूर्वे १५ फल्गुन्यौ दाणास्तिथिसमा दिने ॥४॥" "अनुक्रमे दरेक तिथिने दिवसे पंदर क्षणोनां नामो श्रा प्रमाणे बे.-श्रा १, अश्लेषा २, अनुराधा ३, मघा ४, धनिष्ठा ५, पूर्वाषाढा ६, उत्तराषाढा ७, अनिजित् ७, रोहिणी ए, ज्येष्ठा १०, विशाखा ११, मूळ १२, शततारका १३, उत्तराफाल्गुनी १४ अने पूर्वाफाल्गुनी १५. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ "दरिकादिसि मुत्तु गमं दिरक पइहा गमागमाइकथं । जं तं सर्वं सुदयं निजिमुत्तंमि श्रहमए ॥ ए ॥" " पंदरे मुहूर्त्ता ( क्षणो ) मां दक्षिण दिशाना गमन ( प्रयाण ) ने मूकीने बाकीनां दीक्षा, प्रतिष्ठा ने गमन आगमन विगेरे सर्व कार्य श्रावमा निजित् मुहूर्त्तमां शुभकारी बे." कांबे के W १४८ “उप्पायविधि वश्वायदतिहि पावगह विदिश्रदोसे | मनहगर्न सूरो सबै ववणीय सुरककरो ॥ ६॥" " उत्पात, विष्टि, व्यतिपात, दग्ध तिथि तथा पाप ग्रहोथी थयेल सर्वे दोषोने डूर करीने मध्याह्नकाळनो सूर्य सुखकारक बे." श्र प्रमाणे हर्षप्रकाशमां बे पण कहे बे के पूर्ण "ग्रसते ग्रहचक्रमसौ रविरुदये यावदेव यामयुगम् । उमति वमनकाले वान्तं तदिहलीजवति ॥ १ ॥ " " रवि (सूर्य) उदयसमये बे प्रहर सुधी ग्रहोना समूहने गळे बे ने पबी वमनकाळे तेमने मे बे, घने वमेलुं एवं ते ग्रहच विह्वळ थाय बे. अर्थात् मध्याहसमये विह्वळ थाय बे." "विह्वलतामुपगतवति तस्मिन् विजयाह्वयो भवति योगः । यस्मिन् विहितं कार्यं न चलति कथमपि युगान्तेऽपि ॥ २ ॥ " "ज्यारे ते ग्रहचक्र विह्वळताने पामे बे त्यारे विजय नामनो योग थाय बे. तेमां करेलुं कार्य युगना अंतमां पण कोइ पण प्रकारे चळतुं नथी." ल पण कहे बे के " रवौ गगनमध्यस्थे मुहूर्त्तेऽनिजिदाह्वये । सिकलान् दोषांश्चक्रमादाय माधवः ॥ १ ॥” " रवि गगनना मध्य जागमां रह्यो होय त्यारे निजित् नामनुं मुहूर्त्त कहेवाय बे, ते वखते माधव (कृष्ण) चक्र लइने सर्व दोषोने हणे बे." विजय मुहूर्त्त माटे केटलाएक या प्रमाणे कहे बे. "हुपहरघ मिश्रा दुपदरघकिएगा हि मनहे । विजयं नाम मुडुतं पसाहगं सबककाणं ॥ १ ॥” " मध्याह्नसमये बे प्रहरमां एक घमी उंबी होय त्यारे तथा पीना बे प्रहरनी एक अधिक (अर्थात् मध्याह्न पबीना बे प्रहरमांनी पहेली एक घमी छाने पीनी एक घमी) कुल बे घमीनुं विजय नामे मुहूर्त्त कहेवाय बे, ते सर्व कार्यने साधे बे." Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १४ए सायंकाळनी संध्याना समये पण विजय योग श्राय जे. ते विष हर्षप्रकाशमां श्रा प्रमाणे कडं बे. "सिसंजामशकतो किंचि नप्रिनतार । विज नाम जोगोऽयं सबकजाप्पसाहर्ज ॥१॥" ___ "कांक संध्याने उलंघन करी गयेलो तथा कांइक तारा जेमां उत्पन्न श्रया एवो जे समय ते विजय नामनो योग कहेवाय बे. ते सर्व कार्यने साधे जे." सो प्रातःकाळनी संध्यामां पण यात्रा करवानुं श्वयु जे. कडं ने के____ "श्रावश्यके तथा याने सौम्येऽस्ते निधनेऽपि वा।। ब्रजेदर्कोदये वाऽपि मध्याह्ने वाऽविशंकितः॥१॥" "तथा अवश्य यात्रा (प्रयाण ) करवानी होय तो सूर्योदयसमये अथवा मध्याह्नसमये तात्कालिक लग्नकुंमळीमां सातमे अथवा आपमे स्थाने सौम्य ग्रह रह्यो होय तोपण निःशंकपणे प्रयाण करवं." प्रातःकाळनी संध्यानी “उषा" अने “त्रितार" एवी पण संज्ञा . ते विषे पूर्णजय कहे जे के ___ "उषानिधानं वरयोगमेवं, त्रितारमाहुर्मुनिवृन्दवन्द्याः ।" "मुनिना समूहने पण वांदवा योग्य एवा महात्मा उषा नामना श्रेष्ठ योगने त्रितार नामे पण कहे ." वळी-"उषांप्रशंसयेजर्गः" "गर्ग कहे बे के उषा योगप्रशस्त जे." श्रा सर्वे वचनोनुं तात्पर्य ए थयुं के त्रणे संध्या प्रशस्त . तथा"रात्रावा; १ तथैवाष्टौ पूर्वजनपदादयः ए। श्रादित्य १० पुष्य ११ श्रुतयो १२ हस्ताद्याश्च त्रयः १५ क्रमात् ॥१॥" "रात्रिए अनुक्रमे पंदर क्षणो (मुहूर्तों) या प्रमाणे जाणवा-श्राओ १, पूजापदवी श्राउ एटले पूर्वानापद २, उत्तरानाअपद ३, रेवती ४, अश्विनी ५, नरणी ६, कृत्तिका ७, रोहिणी ७, अने मृगशीर्ष ए, आदित्य (पुनर्वसु ) १०, पुष्य ११, श्रवण १२, हस्तादिक त्रण एटले हस्त १३, चित्रा १४ अने स्वाति १५." ___ "यस्मिन् धिष्ण्ये यच्च कर्मोपदिष्टं, तदैवहस्तन्मुहूर्तेऽपि कार्यम् । दिक्शूलाद्यं चिन्तनीयं समस्तं, तपदंमः पारिघश्च क्षणेषु ॥२॥" "जे नक्षत्रमा जे कार्य करवानुं कहुं , ते कार्यने ज्योतिषना जाणनाराउए ते मुहूतमां पण करवं, परंतु ते मुहूर्तोमां पण नक्षत्रनी ज जेम दिक्शूळ विगेरे एटले नक्षत्र दिक्शूळ अने कीला विगेरे कहेवामां श्रावशे ते सर्वनो विचार करवो. एटले के जे दिशामां ते दिकूशूलादिक उत्पन्न अयुं होय ते दिशामां प्रयाण न करवू. तथा चर, स्थिर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंसिद्धि ॥ विगेरे नक्षत्रना सात प्रकारो क.या बे ते आ नक्षत्र संबंधी क्षणने विषे पण इष्ट कार्यने अनुसरीने विचारवा. तथा परिघदंझ के जे आगळ कहेवामां आवशे ते पण नवनी ज जेम विचारीने यात्रादिव कार्य करवां." आ प्रमाणे रत्नमाला नाष्यमां कडं बे. __ पोराणिक क्षणोनां नामो तो आ प्रमाणे कहेलां ."रोधः १ श्वेतो २ मैत्र ३ श्चारजटः । पञ्चमस्तु सावित्रः ५। वैराजो ६ गान्धर्व ७ स्तथानिजि मोहिण ए बलौ १० च ॥१॥ विजयो ११ऽथ नैर्ऋताख्यो १२ माहेन्यो १३ वारुणो १५ नगश्चैव १५ । एते पुराणकथिता दिवसमुहूर्तास्तथान्निजित्कुतपः ॥२॥ अनिजि १ विजयो २ मैत्रः ३ सावित्रो ४ बलवान् ५ सितः६। वैराजश्चेति ७ सप्त स्युः दणाः सर्वार्थसाधकाः॥३॥" "पुराणमां कहेला दिवसना हणोनां नामो आ प्रमाणे बे.-रोज १, श्वेत २, मैत्र ३, चारलट ४, पांचमो सावित्र ५, वैराज ६, गांधर्व , अनिजित् ७, रोहिण ए, बल १०, विजय ११, निर्जत १२, माहें १३, वारुण १४ अने जग १५. तथा अनिजित् कुतप एटले श्रापमुं मुहूर्त जे. आ सर्वे क्षणोमा अन्निजित् १, विजय ५, मैत्र ३, सावित्र ध, बळवान् ( बळ ) ५, सित (श्वेत) ६ अने विराज ७, ए सात क्षणो सर्व कार्यना साधक जे." "रोको १ गन्धर्वो ३ ऽर्थप ३ श्चारणाख्यो ४, वायु ५ र्वही ६ राक्षसो ७ धातृ सौम्यौ ए। ब्रह्मा १० जीव: ११ पौष्ण १२ विष्णू १३ समीरो १४, रात्रावेते नैर्ऋताख्यः १५ क्षणोऽन्यः॥४॥" "रात्रिना क्षणो अनुक्रमे था प्रमाणे ने.१, गंधर्व २, अर्थप ३, चारण ४, वायु ५, वह्नि ६, राक्षस , धाता ७, सौम्य ए, ब्रह्मा १०, जीव ११, पौष्ण १२, विष्णु १३, समीर १५ अने नैर्ऋत १५.” था प्रमाणे बहु उपयोगी होवाथी झणनो विचार विस्तारथी कह्यो. प्रथमर्नु अने पीनां पण दौरने श्रीने वर्ण्य वखत कहे जे. अन्यक्तनाताशितनूषितयात्रारणोन्मुखैः दौरम् । विद्यादिनिशासन्ध्यापर्वसु नवमेऽह्नि च न कार्यम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-श्रन्यंजन (तैलमर्दन विगेरे ) करेलुं होय, स्नान करेलुं होय, लोजन कर्यु होय, आजूषण पहे- होय, तथा यात्रामां अने रणसंग्राममां तैयार थयो होय, आवा माणसे कौर करावq नहीं. तथा विद्यारंजने दिवसे, रात्रिसमये, त्रणे संध्यासमये, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः ॥ १५१ दीवाळी विगेरे पर्व दिवसे तथा नवमे दिवसे एटले पूर्वे दौर कराव्यं होय ते दिवसथी गणतां नवमे दिवसे दौर कराववुं नहीं. काहीं "नवम” शब्दे करीने नोम तिथिनो अर्थ करवो नहीं, कारण के नोम रिक्ता तिथि बे ने रिक्ता तिथिनुं वर्जन तो प्रथम कही गया, तेथी जे दिवसे पूर्वे दौर कराव्यं होय ते दिवसथी गणतां जे नवमो दिवस वे ते दिवसे बीजी वारनुं दौर कराववुं नहीं. या नवमा दिवसनो निषेध केवळ दौरमा जबे एम नथी, परंतु गृहप्रवेशादिकमां पण नवमा दिवसनो निषेध ने. ते विषे लन कहे बे के — “निर्गमान्नवमे चाह्नि प्रवेशं परिवर्जयेत् । शुत्रयोsपि प्रवेशाघापि निर्गमम् ॥ १ ॥” "प्रयाण करवाना दिवसथी गणतां नवमे दिवसे नक्षत्र योग शुभ बतां पण पुरप्रवेशादिक करवो नहीं, तेमज प्रवेश कर्या पी नवमे दिवसे प्रयाण पण करवुं नहीं.” नियम मांगळिक ( सामान्य ) दौरने माटे को बे. अमांगळिक ( सूतक विगेरेनुं ) दौर तो नवमे दिवसे पण थाय बे. "नीचे शासन नाख्या विना दौर कराव नहीं" एम लल कहे बे. - पटूकूत्तिकोऽष्टवैरञ्च स्त्रिमैत्रश्चतुरुत्तरः । पञ्चपैत्रः सकृन्मूलः दौरी वर्षं न जीवति ॥ ३३ ॥ अर्थ - लगोलग व कृत्तिकामां क्षौर करावनार, ए ज रीते आठ रोहिणीमां, त्रण अनुराधामां, चार उत्तरामां, पांच मघामां ने एक मूळ नक्षत्रमां दौर करावनार माणस एक वर्ष सुधी जीवे नहीं. विद्यामां तो कृत्तिका, विशाखा, मघा ने जरणी ए चार नक्षत्रोमां ज सोचकर्म निषेध कर्यो बे. विशेष ए बे जे "सर्वदापि शुनं दौरं राजाज्ञामृतिसूतके । वन्धमोदे मखे दारकर्मतीर्थव्रतादिषु ॥ १ ॥” "राजानी प्रज्ञाए, मृत्युसूतकमां, बंधनथी मुक्त थयो होय त्यारे, यज्ञमां, स्त्रीना कार्यमां, तीर्थमां ने व्रतादिकमां ( व्रतादिकना प्रारंभमां ) दौरकर्म कराव ए सर्वदा एटले सर्वे वाराने नक्षत्रोमां शुन बे.” वहीं स्त्रीना कार्यमां जे कां बे ते कोश्ना कुळनो चार बे, एटले के जेना कुळनो रीवाज होय तेने श्रीने बे. हवे राजाने श्रीने दौरकर्म कहे . श्मश्रुकर्म नरेन्द्राणां पञ्चमे पञ्चमेऽहनि । कौरनेषु नखोल्लेखो व्यर्के क्रूरे विशेषतः ॥ ३४ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ ॥श्रारंसिधि॥ अर्थ-हौरना नक्षत्रोने विषे त्रीजी, पांचमी अने सातमी तारा विगेरे न होय त्यारे क्रूर वार (सूर्य, शनि, मंगळ ) ने दिवसे पण शुन ग्रहनी काळहोराने विषे पांचमे पांचमे दिवसे राजाउए श्मश्रुकर्म ( दाढी मुग्नुं दौर ) करावq. नख कपाववामां पण श्रा ज समय लेवो, पण एक रविवार तजवो, अने शनि तथा मंगळ अने तेनी होरा विशेष करीने ग्रहण करवी. हवे विद्यारंजनुं मुहूर्त कहे .विद्यां सुराध्यापकराजपुत्रसितार्कवारेषु समारनेत । पूर्वाश्विनीमूलकरत्रयेषु, श्रुतित्रये वा मृगपञ्चके वा ॥ ३५॥ अर्थ-गुरु, बुध, शुक्र अने रविवारे त्रणे पूर्वा, अश्विनी, मूळ, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शततारका, मृगशीर्ष, आओ, पुनर्वसु, पुष्य अने अश्लेषा, पाटलां नक्षत्रोमां विद्यानो आरंज करवो श्रेष्ठ बे. अहीं श्रवण, धनिष्ठा अने शततारका एत्रणने बदले केटलाक एक श्रवण ज लेवानुं कहे जे. धनिष्ठा श्रने शततारकानो निषेध करे बे. विद्यारंजमां वारोनुं फळ व्यवहारसारमा श्रा प्रमाणे कडं .“विद्यारं नृणां वाराः कुर्वते जास्करादयः।। श्रायु १ र्जाड्यं २ मृतिं ३ खमी । बुद्धि ५ सिद्धिं ६ च पञ्चताम् ॥१॥" "विद्याना प्रारंजमां मनुष्योने सूर्यादिक वारो था प्रमाणे अनुक्रमे फळ आपे जे.रविवारे विद्यारंज को होय तो श्रायुष्य, सोमे जमता, मंगळे मरण, बुधे लक्ष्मी, गुरुए बुद्धि, शुक्रे सिद्धि अने शनिए मरण." हवे नंदीनुं (नांद मांगवानुं) मुहूर्त कहे .नियमालोचनायोगतपोनन्द्यादि कारयेत् । मुक्त्वा तीणोपमिश्राणि वारौ चारशनैश्चरौ ॥ ३६ ॥ अर्थ-नियम एटले समकित अथवा बार व्रतो विगेरे उच्चरवां ते, आलोचना एटले धर्मगुरुनी पासे प्रायश्चित्त मागवा माटे पोतार्नु पाप प्रकाश, ते, योग श्रुतनुं आराधन करवा माटे विशेष प्रकारनो तपविधि, तप एटले सिद्धांतमां कहेला श्रेणी श्रादिक उ प्रकारना तप, था सर्वे नियमादिकनी नंदी विगेरे एटले नांद मांमवी अथवा बीजुं कां पण धर्मोत्सवादिक कार्य करवू ते तीदण, उग्र अने मिश्र नत्रीने वर्जीने बीजां नक्षत्रोमां तथा मंगळ अने शनिने व ने बीजा वारोमा करवं. विशेष ए ने जे “शान्तिकं पौष्टिकं कार्य शेज्यशुक्रार्कवासरे । कन्या विवाहनक्षत्रे पुष्याश्विश्रवणे तथा ॥१॥" Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १५३ "बुध, गुरु, शुक्र अने रविवारे तथा कन्याविवाहनां नक्षत्रो उपरांत पुष्य, अश्विनी अने श्रवण नवमां शांतिक तथा पौष्टिक कार्यो करवां." हवे प्राये करीने ब्राह्मणादिक वर्णोने श्राश्रीने पंदर श्लोकोवळे संस्कारो कहे . तेमा प्रथम मौंजीबंध ( कटिमेखळाबंध एटले उपनयन) नो संस्कार कहे बे. मौञ्जीबन्धोऽष्टमे गर्नाजन्मतो वाऽग्रजन्मनाम् । राज्ञामेकादशे च स्याछत्सरे हादशे विशाम् ॥ ३७॥ 'अर्थ-मौंजीबंधन कर्म ब्राह्मणने गर्नथी अथवा जन्मश्री उमे वर्षे श्राय . क्षत्रियने अगीयारमे वर्षे अने वैश्यने बारमे वर्षे थाय . ब्राह्मणने दशमे वर्षे पण मौंजीबंध करवामां आवे , तेमां जे प्रमाणे कुळाचार होय ते प्रमाणे करवं. शाखाधिपे बलोपेते केन्ऽस्थेऽह्नि च तस्य वा। बले सूर्येन्फुजीवानां वर्णनाथे बलीयसि ॥ ३०॥ माघादौ पञ्चके मासां पौष्णाश्विन्योः करत्रये । श्रुतिघ्ये मृगादित्यपुष्येषूपनयः श्रिये ॥३ए ॥ युग्मम् ॥ अर्थ-शाखाधिप ( वेदाधिप गुरु, शुक्र, मंगळ अने सूर्य ) 3 प्रकारादिकधी बळवान् होय तथा केंजस्थानमा रह्यो होय त्यारे उपनय ( यज्ञोपवीत ) संस्कार करवो, केमके शाखाधिप निर्बळ होय तो वर्णसंकर प्रजा थवानो संलव जे. तथा ते शाखाधिपना ज वारमा उपनय संस्कार करवो. अहीं "तस्य वा" ए ठेकाणे वा शब्द कह्यो ने तेथी एवं सूचवन कर्यु के-जो लग्नना बळथी उपनयन करातुं होय तो शाखाधिपना वारमा ग्रहण करवं. एटले के खग्नकुंमळीमां शाखाधिप बळवान् थश्ने केंघमा रहेलो करवो, अने जो मात्र दिनशुद्धिव ज संस्कार करवो होय त्यारे पण वार तो शाखाधिपनो ज सवो. तथा सूर्य, चंच अने गुरु बळवान् होय त्यारे अथवा वर्णनो नाथ (गुरु अने शुक्र) बळवान् होय त्यारे उपनयन संस्कार करवो. अथवा तो "सूर्य, चंन अने गुरु बळवान् होय तो सर्वे वर्णना नाथो बळवान् ज " एम दैवझवसनमां कडं जे. श्रा संस्कार माघ विगेरे पांच मास (जेठ सुधी)मां करवो. तथा रेवती, अश्विनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, मृगशीर्ष, पुनर्वसु अने पुष्य नक्षत्रमा करवो शुल . पराजितेऽरिवेश्मस्थे नीचस्थेऽस्तंगते गुरौ। सितेऽपि चोपनीतः स्यावृतिस्मृतिबहिष्कृतः॥ ४० ॥ अर्थ-बे ग्रहोनो योग थयेथी जे ग्रह दक्षिण दिशा तरफ जतो होय ते पराजित कहे. आ०२० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४ ॥ श्रारंसिहि ॥ वाय . तेमां पण "एक शुक्र तो उत्तरमा जतो होय तो ते पराजित कहेवाय ," एम वराह कहे . तेथी करीने गुरु अने शुक्र पराजित स्थानमा रह्या होय, शत्रुना स्थानमां रह्या होय,नीच स्थाने रह्या होय अथवा अस्त पाम्या होय अने तेवा समये जो उपनयन संस्कार को होय तो ते श्रुति अने स्मृतिथी बहिष्कृत ( रहित ) थाय जे. क्रमादेशेषु सूर्यादेः क्रूरो १ मन्दो ऽतिपातकी ३। पटु ४ र्यज्वा ५ च यज्वा ६ च मूर्ख ७ श्चोपनयानवेत् ॥४१॥ अर्थ-खग्नमां सूर्यनो नवांश रह्यो होय अने उपनयन कर्यु होय तो ते क्रूर थाय ने, चंजनो नवांश होय तो ते मंद थाय , मंगळनो नवांश होय तो अत्यंत पापी थाय, बुधनो होय तो दुशियार पाय, गुरुनो होय तो यज्वा ( यज्ञ करनार ) श्राय, शुक्रनो होय तोपण यज्वा थाय अने शनिनो नवांश लग्नमां होय तो ते मूर्ख श्राय बे. चतुष्टयेऽर्कादिषु राजसेवी १ स्याद्वैश्यवृत्तिः २ क्रमतोऽस्त्रवृत्तिः३। अध्यापकः कर्मसु षट्सु विछान् ५ विद्यार्थयुक्तो ६ऽन्त्यजसेवकश्च ॥४२॥ अर्थ-केंजस्थानमां सूर्य होय तो ते राजसेवक थाय ने, 'चंड होय तो वैश्य वृत्तिवाळो एटले कृषि, पशुपाल विगेरे वृत्तिवाळो श्राय जे. मंगळ होय तो शस्त्रनी वत्तिवाळो थाय बे. बुध होय तो अध्यापक थाय, गुरु होय तो उ कर्ममां विधान् थाय,शुक्र होय तो विद्यावान् अने धनवान् श्राय तथा शनि होय तो अंत्यजनो (चंमाळनो) सेवक थाय. केंजमा एकथी वधारे ग्रह होय तो जे ग्रह अधिक बळवान् होय तेनुं फळ कहे. ए रीते सर्वत्र जाणवं. लग्ने गुरौ त्रिकोणे सिते सितांशे विधौ च वेदज्ञः। नवति यमांशे गुरुसितलग्नेषु जमो विशीलश्च ॥ ४३ ॥ अर्थ-सग्नमां गुरु होय, त्रिकोणमां शुक्र होय तथा शुक्रना अंशमां चंड होय एटले के गमे ते स्थाने रहेलो चंज शुक्रना नवांशमा रह्यो होय, तो ते वेदने जाणनारो पाय रे, तथा गुरु, शुक्र अने लग्न शनिना अंशमा रह्या होय तो ते जम (मूर्ख ) श्रने शीळ रहित तथा कृतघ्नी थाय . विधिगुरुशुक्रैः सार्धनगुणहीनः कुजान्वितैः क्रूरः । सबुधैर्बुधः सशौरैः स्याऽपनीतोऽलसो विगुणः ॥ ४ ॥ अर्थ-चंज, गुरु अने शुक्र जो सूर्य साथे रह्या होय अने उपनयन कर्यु होय तो ते 'न भने गुणधी रहित थाय, मंगळनी साथे रह्या होय तो ते क्रूर थाय, बुध साथे Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ रह्या होय तो विधान् थाय, अने शनि साधे रह्या होय तो ते आळसु अने गुणहीन थाय बे. श्रा श्लोक राज्याभिषेकना लग्नमां पण लागु पमे बे. चन्डे षष्ठाष्टमे मृत्युमूर्खत्वमथवा बटोः। व्रतमोऽथ केशान्ते चौले चैवंविधो विधिः॥४५॥ अर्थ-चंड उछे के बाग्मे होय तो बटुकनुं मरण थाय अथवा ते मूर्ख रहे. व्रतना मोक्षमा ( मौंजीबंधन बगेवामां ), केशान्त (मुंमन )मां श्रने चौल कर मां के जे पोतपोताना कुळना श्राचार प्रमाणे पहेले अथवा त्रीजे वर्षे करवामां आवे रे तेमां पण श्रा प्रमाणे ज (एटले उपरना सामा श्राप श्लोकमां कह्या प्रमाणे ज) विधि जाणवो. हवे अग्निस्थापन (अग्निहोत्र )नुं मुहूर्त कहे जे. वः परिग्रहं प्राहुः कृत्तिकारोहिणीमृगैः। उत्तरात्रितयज्येष्ठापुष्यपौष्ण द्विदैवतैः॥४६॥ अर्थ-कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्ष, त्रण उत्तरा, ज्येष्ठा, पुष्य, रेवती अने विशाखा नक्षत्रमा अग्निनुं स्थापन कडं . केन्मोपचयधीधर्मेष्वन्मुझसुरार्चितैः। . शेषैस्त्रिषड़दशायस्थैरादध्याजातवेदसम् ॥ ४॥ अर्थ-सूर्य के प्रस्थानमां (१-४-७-१०) रह्यो होय, चंड उपचय (३,६,१०,११) स्थानमा रह्यो होय, बुध पांचमे रह्यो होय, गुरु नवमे रह्यो होय,अने बीजा ग्रहो (मंगळ, शुक्र, शनि) त्रीजे, हे, दशमे अने अगीयारमे रह्या होय त्यारे अग्नि स्थापन करवो. उदयेऽथ नवांशे वा राशीनां जलचारिणाम् । उदयस्थे च शीतांशोर्व हिरहाय शाम्यति ॥ ४ ॥ अर्थ-जळचर राशिना (कर्क, मकर, कुंल, मीन ) उदयमां अश्रवा नवांशमां थने चंजना उदयमा अग्नि तरत ज बुझाइ जाय . क्रूराः कुर्युर्धने निःखमाढ्यं सन्तोऽन्नदं विधुः। हन्युश्विझे ग्रहाः सर्वे लग्ने च झयमौ छिजम् ॥ ४॥ अर्थ-अग्निाधाननी कुंमळीमां जो बीजा स्थानमा क्रूर ग्रह रह्या होय तो ते ब्राह्मणने निर्धन करे , अने सौम्य ग्रह रह्या होय तो धनाढ्य करे , तथा चंड रह्यो होय तो ते ब्राह्मणने अन्नदातार करे बे. वळी आठमा स्थानमा कोइ पण ग्रह रह्यो होय तो तेनुं मरण पाय , तथा लग्नमां के चंनी साधे बुध अने शनि रह्या होय तो. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ॥ आरंभ सिद्धि ॥ पण ते ब्राह्मण मरण पामे बे एम रलमाला जाण्यमां कह्युं छे. आवमा स्थाने रहेला ग्रहो विषे या प्रमाणे विशेष जाणवुं के आठमे स्थाने चंद्र रह्यो होय तो ते ब्राह्मएनी स्त्रीनं मरण थाय, मंगळ होय तो ब्राह्मणनुंज मरण थाय, रवि, गुरु के शनि होय तो ते ब्राह्मण असाध्य रोगथी पीमा पामे, अने बुध के शुक्र रह्या होय तो कां पण फळ थाय नहीं. लत तो लग्नमां रहेला ग्रह विषे या प्रमाणे कहे बे के "लग्नमां अथवा चंद्रनी साथे बुध के शनि रह्यो होय तो खोकाग्निनी साथे ते अग्निनो संग याय बे. अर्थात् अग्नि उत्पन्न याय बे." जितैरस्तमितेन च शत्रुक्षेत्र गतैरपि । सोमजौमसुराचार्यैराहिताग्निर्न नन्दति ॥ ५० ॥ अर्थ – सोम, मंगळ अने गुरु जो पराजय पाम्या होय, अस्त पाम्या होय, नीच स्थाने रह्या होय के शत्रुना घरमा रह्या होय तो अग्निनुं धान करनार सुखी थतो नथी. चन्द्रेऽर्के वा त्रिशत्रुस्थे लग्ने धनुषि वा गुरौ । मेषस्थे खा १० स्त १ गे वारे यज्वा स्यादात्तपावकः ॥ ५१ ॥ अर्थ - अग्निधाननी कुंकळीमां चंद्र के सूर्य त्रीजे के बछे स्थाने रह्यो होय, लग्नमां के धन राशिमां गुरु रह्यो होय, अने मंगळ मेष राशिमां के दशमा अथवा सातमा स्थानमा रह्यो होय तो अग्निनुं धान करनार ब्राह्मण याज्ञिक थाय बे. । इति विप्राद्यधिकारः । हवे नवां वस्त्र परवानुं मुहूर्त्त कहे बे. - नववाससः प्रधानं वासवपौष्णाश्विनादितिद्वितये । करपञ्चकध्रुवेषु च बुधगुरुशुक्रेषु परिधानम् ॥ ५२ ॥ अर्थ – बुध, गुरु ने शुक्रवारे धनिष्ठा, रेवती, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, तथा ध्रुव एटले रोहिणी, उत्तराषाढा, उत्तराफाल्गुनी अने उत्तराजाऽपद्, य नक्षत्रोमांसी कोइ पण नक्षत्र होय, ते दिवसे नवां वस्त्र पहेरवां शुन बे. कांबे के " नष्टप्राप्ति १ स्तदनुमरणं २ वह्निदादो ३ऽर्थसिद्धि ४ - श्वाखोति । मृतिरथ ६ धनप्राप्ति 9 रर्थागमश्च । शोको मृत्यु १० नरपतिजयं ११ संपदः १२ कर्मसिद्धि १३ - . विद्यावाप्तिः १४ सदशन १५ मथो वल्लत्वं जनानाम् १६ ॥ १ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः ॥ मित्राप्ति १७ रम्बरहतिः १८ सलिलप्दुतिश्च १ए, रोगो २०ऽतिमिष्टमशनं २१ नयनामयश्च २५। धान्यं २३ विषोनवनयं २४ जलजी २५ र्धनं २६ च, रत्नाप्ति २७ रम्बरधृतेः फलमश्विनात् स्यात् ॥२॥" "नवां वस्त्र धारण करवामां अश्विनी नक्षत्रयी नीचे प्रमाणे अनुक्रमे फळ थाय ने. अश्विनी नक्षत्रमा वस्त्र धारण करे तो नाश पामेली वस्तुनी प्राप्ति थाय ने १. जरणीमां धारण करे तो तरत ज मरण पाय २, कृत्तिकामां अग्निदाह थाय ३, रोहिणीमां अर्थनी सिद्धि थाय ४, मृगशिरमां चंदरनो जय थाय ५, आ मां मरण थाय ६, पुनर्वसुमां धननी प्राप्ति , पुष्यमा अर्थनी (धननी) प्राप्ति , अश्लेषामां शोक ए, मघामां मृत्यु १०, पूर्वाफाल्गुनीमा राजानो लय ११, उत्तराफाल्गुनीमां संपत्तिनी प्राप्ति १२, हस्तमां कार्य सिद्धि १३, चित्रामा विद्यानी प्राप्ति १५, स्वातिमा सारु नोजन १५, विशाखामां माणसोनी प्रीति १६, अनुराधामां मित्रनी प्राप्ति १७, ज्येष्ठामां वस्त्रनी चोरी १७, मूळमां जळमां मुबे १ए, पूर्वाषाढामा रोग २०, उत्तराषाढामां अत्यंत मिष्ट जोजन २१, श्रवणमां नेत्रनो व्याधि २२, धनिष्ठामा धान्यनी प्राप्ति २३, शतनिषकमां विषनो नय २४, पूर्वानाजपदमां जळनोनय २५, उत्तरालाजपदमां धननी प्राप्ति २६, अने रेवतीमां नवं वस्त्र पहेरवाश्री रत्ननी प्राप्ति थाय ने २७." __व्यवहारप्रकाशमां कडं बे के-"केवळ श्वेत वस्त्रने माटे ज ा नियम नथी, पण रातां वस्त्रने माटे पण उपर गणावेलां ज नक्त्रो शुन बे." व्यवहारसारमा तो एम कडं बेजे-"रातां वस्त्र धारण करवामां पुरुषने पण जे नकत्रो स्त्रीउने माटे कहेवामां श्रावशे ते ज शुन, अने या उपर गणावेला नत्रो तो श्वेत वस्त्रने ज श्राश्रीने जे." हवे वारने आश्रीने आ प्रमाणे फळ जाणवू. "नवाम्बरपरीनोगे कुर्वन्त्यर्कादिवासराः। जीर्ण १ जलाई २ शोकं ३ च धनं । ज्ञानं ५ सुखं ६ मखम् ॥१॥" नवां वस्त्र धारण करवामां रवि विगेरे वारो अनुक्रमे जीर्ण १, जलाई २, शोक ३, धन ४, ज्ञान ५, सुख ६ अने मल ( मेलापणुं), श्रा प्रमाणे फळ आपे ." नवो कंबल धारण करवामां रवि पण शुक्ल ने एम कहेलुं . केटलाक श्राचार्यो कहे जे के "व्यापार्यते रवी पीतं बुधे नीलं शनौ शितिः। गुरुजार्गवयोः श्वेतं रक्त मंगलवासरे ॥१॥" १ वहेलु फाटी जाय. २ निरंतर भीनुं ज रहे. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ॥ श्रारंसिधि॥ ___ "रविवारे पीलु वस्त्र पहेर शुज बे, बुधवारे लीलु, शनिवारे काळु, गुरु श्रने शुक्रवारे श्वेत तथा मंगळवारे रातुं वस्त्र पहेरवू शुन बे." हवे स्त्रीने नवां वस्त्र तथा अलंकार विगेरे पहेरवानुं मुहूर्त कहे .योषिद्भजेत करपञ्चकवासवाश्विपौष्णेषु वक्रगुरुशुक्रदिनेशवारे। मुक्ताप्रवालमणिशंखसुवर्णदन्तरक्ताम्बराण्य विधवात्वमतिः सतीचेत् ॥५३॥ अर्थ-विधवा अवानी श्चा न होय एवी सती स्त्रीए मोती, प्रवाळा, मणि, शंख (शंखला), सुवर्ण, दांत ( हाथीदांत ) तथा रातां वस्त्रोने हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, धनिष्ठा, अश्विनी अने रेवती, ए नत्रोमां तथा वक्र (मंगळ ), गुरु शुक्र श्रने रविवारे धारण करवां शुन बे. विशेषमा या प्रमाणे जाणवू."पुष्यं पुनर्वसुं चैव रोहिणी चोत्तरात्रयम् । कौसुले वर्जयेषस्त्रे नधातो नवेद्यतः॥१॥" "कुसुंबा (रातां) वस्त्र धारण करवामां तथा प्रवाळा, सुवर्ण, शंख विगेरे धारण करवामां पुष्य, पुनर्वसु, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा ने उत्तरानाप्रपद, ए नक्षत्रो अवश्य वर्जवां, कारण के ते नक्षत्रोमांधारण करवाथी तेना पतिनो नाश धाय ने." वासः प्राप्तं विवाहादौ राज्ञा दत्तं च यन्मुदा। विरुक्षेऽपि हि वार तहसीताविशंकितः ॥५४॥ अर्थ-विवाहादिकमां मळेलुं वस्त्र तथा राजाए हर्षथी जे (वस्त्र ) आप्यु होय, ते वार अने नत्र विरुध (अशुल ) होय तथा चंजादिक प्रतिकूळ होय तोपण शंका रहित धारण कर. हवे फाटेला तथा बळेला वस्त्रने श्राश्रीने कहे जे.कृतनवजागे वाससि कोणेषु सुरास्तथान्तयोर्मनुजाः। असुरास्तु मध्ययोः स्युर्मध्यतमो राक्षसो नागः ॥ ५५ ॥ अर्थ-वस्त्रना नव जाग पामीने तेना चारे खूणामां देव स्थापवा, बे मे मनुष्य स्थापवा, मध्यना बे नागमां असुर अने बराबर वच्चे रासने स्थापवो. ते श्रारीते. देव । असुर । देव मनुष्य राक्षस । मनुष्य देव । असुर । देव Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १एए पळी तेनुं फळ आ रीते जाणवु.सुर १ नर २ दनुज ३ पलादाः ४ श्रेष्ठतम १ श्रेष्ठ २ हीन ३ हीनतमाः४ अन्ताः सर्वेऽप्यशुजा एवं शयनासनायेऽपि ॥५६॥ अर्थ-जो ते वस्त्र देवना नाग (अंश )मां फाव्युं के बळथु होय तो अत्यंत श्रेष्ठ, मनुष्यना अंशमां श्रेष्ठ, असुरना अंशमां अधम (अशुल्न) श्रने राक्सना अंशमां फाव्यु के बळयुं होय तो अत्यंत अधम-अशुल जाणवू. तेमां पण जो ते ते देवादिकना अंशना अंत नागने विषे फाट्युं के बळयुं होय तो ते सर्वे पण अशुल ज . श्रा रीते ज शय्या तथा आसन विगेरेमां पण जाणq. लख कहे जे के"रुग् राक्सांशेष्वथवापि मृत्युः, पुंजन्म तेजश्च मनुष्यत्नागे । लागेऽमराणामथ नोगवृद्धिः, प्रान्तेषु सर्वत्र नवत्यनिष्टम् ॥ १॥" “राक्षसना अंशमां वस्त्र फाट्युं के बळयुं होय तो ते वस्त्रना मालिकने रोग अथवा मृत्यु थाय, मनुष्यना नागमां फायूं के बळयुं होय तो तेना मालिकने पुत्रजन्म तथा तेज थाय, अने देवना अंशमां फाट्यु के बळयुं होय तो तेना मालिकने लोगनी वृद्धि थाय. परंत ते सर्वना अंतना नागमां फाट्यं के बळयं होय तोते अशन. अहीं राक्षसे करीने असुर पण समजी लेवो, अने तेने माटे ज रोग अथवा मरण ए बे फळ कह्यां बे. एटले के असुरना अंशमां रोग अने राक्सना अंशमां मरण थाय एम समजq." __ श्रीवृहत्कटपसूत्र नामना बेदग्रंथनी वृत्तिमां कडं वे के-“श्री गुरु तथा गबने लायक एवा वस्त्रनी एषणाने माटे नीकळेला साधुने जो प्रथम तेवा प्रकारना ( एटले फाटेला के बळेला ) वस्त्रनो साल थाय तो त्यां पण नव नागनी कल्पना करीने या प्रमाणे निमित्त ज्ञान कां ने के "देवेसु उत्तमो लालो माणुसेसु श्रमनिमो। असुरेसु अ गेलन्नं मरणं जाण रकसे ॥१॥" "जो ते वस्त्र देवना अंशमां फाटेलुं के बळेढुं होय तो उत्तम लाल थाय, मनुष्यना अंशमां मध्यम लाल थाय, असुरना अंशमा रोग थाय, अने राक्षसना अंशमां फाव्यं के बळयु होय तो मरण थायः" ___ फाटेला तथा बळेला वस्त्रने आश्रीने ज विशेष कहे .क्षिते दग्धेऽथ लिप्तेऽस्मिन् गोमयाञ्जनकर्दमैः।। अनुक्ते नूरि जुक्तेऽल्पं फलमेतबुन्नाशुजम् ॥ ५ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ॥ श्ररं सिद्धि ॥ अर्थ- कोरुं वस्त्र बाण, अंजन के कादववमे लींपाय, फाटे के दाऊ तो तेनुं शुभ के फळ वधारे बे ने जोगवेल वस्त्र बाण, अंजन के कादववमे लींपाय, फाटे के दाऊ तो तेनुं शुभ के अशुभ फळ अप बे. विशेष या प्रमाणे बे. - " बेदाकृतिः श्रिये स्याछत्रादिसमा गतापि रक्षोऽंशे । काकोलूकादिसमा न देवनागाश्रिताऽपि पुनः ॥ १ ॥ " "ते वस्त्रना बेद ( फाटेला के बळेला )नी आकृति बन्त्र विगेरेना जेवी होय तो ते राक्षसना जागमां होवा बतां पण लक्ष्मीने माटे बे-शुन बे, छाने कागमा के घुवरुना जेवी आकृति होय तो ते देवना जागमां रह्या बतां पण अशुभ ज बे.” हवे कया मुहूर्त्तमां गयेलुं द्रव्य पाडं सुलन थाय बे ? अथवा कया मुहूर्त्ते थापण विगेरे करवी ? ते कहे बे. - सुलनं स्वं नवेन्यस्तं निखातं दत्तमेव वा । मृश्रुतित्रादित्यलघुनेषु शुभेऽहनि ॥ ५० ॥ अर्थ - मृ ( चित्रा, अनुराधा, रेवती, मृगशिर ), श्रवण, धनिष्ठा, शतनिषक्, पुनर्वसु ने लघु (पुष्य, अभिजित्, हस्त, अश्विनी ), ए नक्षत्रोमां तथा शुभ दिवसे एटले मंगळ ने शनि विनाना बीजा वारे धननो न्यास कर्यो होय ( एटले थापणमां के वेपार विगेरेमां मूक्युं होय ), पृथ्वी विगेरेमां दाट्युं होय, व्याजे खाप्यं होय तथा अजाणतां खोवाइ गयुं होय तो ते धन पाउं फरीने सुलन वे, एटले फरीथी मळी शके बे. विशेष ए बे जे - " इणदानमथादानं क्षिप्रधिष्ण्यैर्विधीयते ।” शण देवुं अने लेबुं एप्रि ( पुष्य, अभिजित् हस्ताने अश्विनी ) नक्षत्रमां शुज बे. वळी कह्युं बे के“निधिलब्धिधन विवर्द्धनमादित्याद्वाह्मतः करात् पौष्णात् । द्वितये श्रवणत्रितयोत्तरासु मित्राधिदेवे च ॥ १ ॥” "निधिनी प्राप्ति अने धननी वृद्धि पुनर्वसु, पुष्य, रोहिणी, मृगशिर, हस्त, चित्रा, रेवती, अश्विनी, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक्, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराजापद, अनुराधा ने त्रिजित् ए नक्षत्रोमा शुभकारक बे. " -- नष्टं हवे गयेली वस्तु पानी मळशे के नहीं ते कहे बे.. चतुर्निरन्धाद्यैष्ठेत्पूर्वादिषु क्रमात् । तचाप्यते सुखा १ यता २ तद्वाव ३ न सापि च ॥ ५० ॥ - धादिक चार नक्षत्रोमां गयेली चीज अनुक्रमे पूर्वादिक दिशामां गइ बे Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १६१ एम जाणवू, अने ते चीज सुखेथी मळे, यत्नश्री मळे, तेनी खबर मळे अने खबर पण न मळे, ए रीते अनुक्रमे तेनुं फळ जाणवं. सुखेथी मळे एटले समीपे ज ते वस्तु रही बे, डूर गइ नथी एम जाणवं. "आंधळां नक्षत्रमा गयेली वस्तु बधी पाजी मळे वे अने काणां नक्षत्रमा गयेली अर्धी पानी मळे " एम केटलाक कहे जे. वळी बीजा केटलाक कहे जे के-"आंधळु नक्षत्र पण जो बे पाद के चार पादनुं होय तो गयेली वस्तु फुःखे करीने पाठी मळे , पण जे नक्षत्रा त्रण पादवाळां ने एटले एक पादे लंगमां ने तेवां देखतां नक्षत्रोमां पण गयेली वस्तु पानी मळी शके .” हवे आंधळां काणां विगेरे नक्षत्रोनी संज्ञा कहे .रेवत्यादिचतुष्केषु नामानि प्रतिनं जगुः।। अन्ध १ माकेकरं २ चित्रं ३ सुलोचन ४ मिति क्रमात् ॥६॥ अर्थ-रेवती नक्षत्रथी चार चार नक्षत्रोमां दरेक नक्षत्रनां नाम अनुक्रमे श्रधळु, आकेकर (काएं), चिन (चीपमावालु) अने सुलोचन ( देखतुं) ए प्रमाणे कह्यां . श्रांधळां, काणां विगेरे संज्ञा तथा तेमां गयेली वस्तुनी दिशा तथा ते वस्तु मळशे के नहीं ते जाणवानुं कोष्टक.अव्यावीश नक्षत्रोनां नामो. दिशा. फळ. आंधळां रेवती रोहिणी पुष्य उत्तराफा विशाखा | पूर्वाषाढा धनिष्ठा पूर्व शीघ्र मळे काणां अश्विनी मृगशिर अश्लेषा हस्त अनुराधा | उत्तराषाढा शतभिषक् दक्षिण यत्नधी मळे चिल्लां | भरणी मार्दा मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित् | पूर्वाभाद्रपद पश्चिम खबर मळे देखता | कृत्तिका पुनर्वसु । पूर्वाफा० | स्वाति (मूळ श्रवण उत्तराभाद्रपद उत्तर खबर पण न मळे. दिनशुधिकार था प्रमाणे कहे जे."रविरिका व बाला बारस तरुणाय नव परे थेरा। ___ तरुणेहिं जाइ रोहिं न जा बाले नम पासे ॥१॥" "रविना नक्षत्रथीब नत्र बाळक बे, त्यारपीनां बार नक्षत्र जुवान ने श्रने त्यारपनीनां नव नक्षत्रो वृष्ठ जे. तेमां जुवान नक्षत्रमा गयेली वस्तु जाय-पनी आवे नहीं, वृक्ष नत्रमा वस्तु जाय नहीं एटले पानी आवे खरी, अने बाळ नक्षत्रमा गयेली वस्तु पासेज नमे बे एटले के दूर जती नथी." ____ हवे प्रेत ( मरेखानुं ) कर्मनुं मुहूर्त कहे जे. न प्रेतकर्म कुर्वीत यमले सत्रिपुष्करे । क्रूर मिश्रध्रुवापुसु तथा मूलानुराधयोः ॥ ६१ ॥ १ सूर्य जे नक्षत्रमा होय ते नक्षत्रथी इष्ट दिवसनुं नक्षत्र छ सुधीमा होय तो बाळक. ० २१ संज्ञा. I. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ॥ श्रारंसिछि॥ अर्थ-प्रेतकार्य वाटला नक्षत्रोमां करवू नहीं.-यमलयोगमा, पंचकमां, त्रिपुष्करयोगमां,क्रूर (जरणी, त्रणे पूर्वा अने मघा)मां, मिश्र (विशाखा श्रने कृत्तिका)मां, ध्रुव (त्रण उत्तरा अने रोहिणी )मां, आमां, मूळमां तथा अनुराधामां. वळी "रवि तथा मंगळवारनो पण त्याग करवो" एम दिनशुधिमां कडं . वळी अन्य ग्रंथमा श्राप्रमाणे कडं बे "पुष्याश्विनी स्वातिहस्ता ज्येष्ठा श्रवणरेवती। एषु प्रेतक्रिया कार्या रविवारं विना बुधैः ॥१॥ "पुष्य, अश्विनी, स्वाति, हस्त, ज्येष्ठा, श्रवण अने रेवती, आटलां नक्षत्रोमां रविवार विना बीजा वारे माह्या पुरुषोए प्रेतक्रिया करवी.” । मृते साधौ पञ्चदशमुहूर्त.व पुत्रकः। एकस्त्रिंशन्मुहूर्तेस्तु क्षेप्यः शेषैस्तु नैरुजौ ॥ ६॥ अर्थ-पंदर मुहूर्त्तवाळा नक्षत्रमा साधुए काळ को होय तो पुत्रक करवो नहीं, (अनिजितमां पण करवो नहीं ), त्रीश मुहूर्त्तवाळांमां काळ को होय तो एक पुत्रक करवो, एटले एक पुत्रक करीने साधुनी पासे राखवो, अने संस्कारसमये तेने मध्यमां नाखवो एवी रीत , तथा बाकीनां पीस्ताळीश मुहूर्त्तवाळां नत्रोमां काळ को होय तो बे पुत्रक करवा. __ हवे सर्पमंश श्रयो होय ते जीवे के नहीं ? ते कहे जे.सर्पदष्टः सुपर्णेन रक्षितोऽपि न जीवति । मूलाजिरणीयुग्ममघाश्लेषाहिदैवतैः ॥ ३ ॥ अर्थ-मूळ, आर्षा, नरणी, कृतिका, मघा, अश्लेषा अने विशाखा नक्षत्रमा सर्पमंश थयो होय तो तेनी गरुम रदा करे तोपण ते जीवे नहीं, श्रने बीजां नक्षत्रोमां सर्पश थयो होय तो ते जीवे बे. विवेकविलासमां तो आ प्रमाणे कडं बे."मूलाश्लेषामघाः पूर्वात्रयं नरणिकाश्विनी । कृत्तिकार्षा विशाखा च रोहिणी दष्टमृत्युदाः॥१॥ तिथयः पञ्चमी षष्ठ्यष्टमी नवमिका तथा । चतुर्दश्यप्यमावास्याऽहिना दष्टस्य मृत्युदाः॥२॥ दष्टस्य मृतये वारा नानुलोमशनैश्चराः। प्रातःसन्ध्यास्तसन्ध्या च संक्रान्तिसमयस्तथा ॥३॥" "मूळ, अश्लेषा, मघा, त्रणे पूर्वा, भरणी, अश्विनी, कृत्तिका, पार्षा, विशाखा अने Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमशः ॥ १६३ रोहिणी, आटलां नक्षत्रोमां सर्पमंश थयो होय तो ते मरण पामे बे ( १ ) तथा पांचम, बघ, आम, नोम, चौदश ने अमावास्या, श्रतिथितमां सर्पमंश थयो होय तो ते मरण पामे बे ( २ ) रवि, मंगळ छाने शनिवारे तथा प्रातःकाळनी संध्या, सायंकाळनी संध्या ने संक्रांतिना समये सर्पमंश थयो होय तो ते मरण पामे बे." इत्यादि. हवे मांदो मास जीवशे के नहीं ? ते विषे कहे बे. - जातरोगस्य पूर्वार्डास्वा तिज्येष्ठा हिनैर्मृतिः । जवेन्नीरोगता रेवत्यनुराधासु कष्टतः ॥ ६४ ॥ मासान्मृगोत्तराषाढे विंशत्यह्नां मघासु च । पण तु द्विदैवत्ये धनिष्ठादस्तयोस्तथा ॥ ६५ ॥ नरणी वारुणश्रोत्र चित्रास्वेकादशाहतः । अश्विनी कृत्तिकार कोनत्रेषु नवादतः ॥ ६६ ॥ श्रादित्यपुष्यादिर्बुभरोहियार्यमणेषु तु । सप्ताहादिद ताराया यदि स्यादनुकूलता ॥ ६७ ॥ अर्थ - पूर्वा, आर्द्रा, स्वाति, ज्येष्ठा ने अश्लपामां रोग उत्पन्न थयो होय तो रोगीनुं मरण थाय बे. रेवती ने अनुराधामां रोग उत्पन्न थयो होय तो कष्टथी नीरोगी श्राय. मृगशिर ने उत्तराषाढामां रोग थयो होय तो एक महीने सारं थाय. मघामां थयो दोय तो वीश दिवसे नीरोगी थाय. विशाखा, धनिष्ठा के हस्तमां थयो होय तो पंदर दिवसे सारं थाय. काहीं वृद्धो कहे बे के - " उत्तराषाढामां रोग थयो होय तो वे मासे मृत्यु थाय छाने अभिजितमां थयो होय तो वे मासे नीरोगी थाय." नरणी, शतजिक्, श्रवण ने चित्रामां व्याधि उत्पन्न थयो होय तो गीयार दिवसे सारुं थाय. अश्विनी, कृत्तिका ने मूळमां थयो होय तो नव दिवसे सारुं थाय. पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरानाsपद, रोहिणी ने उत्तराफाल्गुनीमां थयो होय तो सात दिवसे सारं थाय. सर्व स्थळे तारानी अनुकूलता होय तो सारुं याय एम जाणवुं. “शुक्लेऽप्यासूत्थिते रोगे दीर्घक्लेशोऽथवा मृतिः” “शुक्लपक्षने विषे पण त्रीजी, पांचमी के सातमी तारामां रोग उत्पन्न थयो होय तो घणो क्लेश पामे अथवा मृत्यु पामे" एम कह्युं बे. हीं प्रसंगथी मृत्युनुं ज्ञान लखे बे. - "आचार धरेवि अंगह, पनरहमाहिग्वेविणु गह | Mare बाहर सय दिन, जीवियमरण फुरुं जाणिक ॥ १ ॥” " नामीवाको सर्प करवो. तेमां सूर्य जे नक्षत्रमां होय ते नत्र प्रथम मूकवु, Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ ॥आरंसिधि॥ श्रने त्यारपजी अनुक्रमे बीजां नक्षत्रो मूकवां (अन्निजित् गणवू नहीं ). तेमां पंदर नक्षत्रो नामी उपर श्रावे अने बार नक्षत्रो बहार रहे ए रीते सर्प करीने जीवित अथवा मरण स्पष्ट रीते जाणवू. जुजंगनी स्थापना. २००००90696002080006660०१२२ अहीं जे जे ग्रहो जे जे नक्षत्रोमां होय, ते ते ग्रहो ते ते नक्षत्र उपर मूकवा. पजी सूर्यना नक्षत्रयी रोगीना नामनक्षत्र सुधी गणवं. तेमां जो पहेली नामीमां एटले पहेले, नवमे, तेरमे, एकवीशमे के पचीशमे रोगीनुं नक्षत्र होय तो मरण थाय, जो बीजी नामीमां एटले बीजे, आठमे, चौदमे, वीशमे के बवीशमे रोगीनुं नक्षत्र होय तो घj कष्ट थाय, अने रोगीनुं नक्षत्र त्रीजी नामी उपर एटखे त्रीजे, सातमे, पंदरमे, उंगणी. शमे के सत्यावीशमे होय तो थोड़ें कष्ट थाय. बाकीनां बार नक्त्रो उपर रोगीनुं नक्षत्र होय तो आरोग्य आय. अहीं शुनाशुन ग्रहना वेधयी पण शुनाशुन फळ विशेष प्रकारे कहे,." । यतिवद्धनमा तो था प्रमाणे ज जुजंगचक्रने स्थापवानुं कर्तुं ने, पण तेमां श्रा नक्षत्र प्रथम मूकवानुं कहे . ते था प्रमाणे. “श्राद्यैिः पञ्चदशनिस्त्रीणि त्रीएयन्तरा त्यजन् । त्रिनामिचक्रे चन्ना १ कै २ जन्म ३ वेधे न जीवति ॥१॥" "श्रांतरे आंतरे त्रण त्रण नक्षत्रोने तजीने आओ नत्रथी पंदर नक्षत्रोने त्रिनामीना चक्रमा स्थापवां. तेमां जो चंड, सूर्य श्रने रोगीना नामना नक्षत्रनो (ए त्रणेनो) वेध थाय तो ते रोगी जीवे नहीं.” त्रिनामी चक्रनी स्थापना. आपुपुअमपू'उहविस्वाविअसे मूपू उश्रधशपूर रेअभकृण्मू व्याधि अवाने समये जो चंखें, सूर्यनुं अने रोगीनुं नक्षत्र एक नामी पर होय तो रोगीनु मरण नीपजे. दिनशुधि ग्रंथमां तो त्रण त्रण नक्षत्रनो त्याग कर्या विना ज ार्माथी आरंजीने त्रिनामी चक्रनी स्थापना तथा फळ या प्रमाणे कहे . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ "आई श्रद्दा मिगं अंते मन्ने मूलं पच्चिं । रवींजम्मनस्कत्तं तिवियो न हु जीवश्॥१॥" "प्रथम श्राओ, अंते मृगशिर श्रने मध्ये मूळ ए रीते मूकीने त्रिनामी चक्र करवं. तेमां सूर्य, चंजनुं अने जन्मनुं नक्षत्र जो वींधाय एटले एक नामी पर आवे तो रोगी माणस जीवे नहीं." त्रिनामी चक्रनी स्थापना. आधु अम पउिहे चिखाविज्यिम्पू उश्रीध शपूरे रे अकिरो "रवींजम्मनस्कत्तं एगनामीगया जया । तया दिने नवे मञ्चू नन्नहा जिएनासिकं ॥१॥" "सूर्य-, चंजनुं अने जन्मनुं ए त्रणे नक्षत्रो ज्यारे एक नामी पर आवे, ते दिवसे रोगीनुं मरण थाय . जिनेश्वरनुं वचन अन्यथा अतुं नश्री." अहीं को श्राम पण कहे जे के• "रोगिणो जन्मशक्षस्य एकनाड्यां यदा रविः । यावहदं रवेर्नोग्यं तावत्कष्टपरंपरा ॥१॥" “रोगीना जन्मनक्षत्रनी एक ( सरखी ) नामी उपर ज्यारे सूर्य होय श्रने जेटलु नक्षत्र सूयेने लोगववानुं होय तेटला वखत सुधी रोगीने कष्टनी परंपरा रहे बे." _ "रोगिणो जन्मशक्षस्य एकनाड्यां यदा शशी। ___ तदा पीमां विजानीयादष्टप्राहरिकी ध्रुवम् ॥ २॥" ___ "रोगीना जन्मनक्षत्रनी एक (समान) नामी उपर ज्यारे चंड होय त्यारे श्राप पहोर सुधीनी अवश्य पीमा जाणवी." "क्रूरग्रहास्तदाऽन्ये तु यदि तत्रैव संस्थिताः । तदा काले नवेन्मृत्युः सत्यमीशाननाषितम् ॥३॥" "ते वखते बीजा क्रूर ग्रहो जो त्यां ज रहेला होय, तो ते ज वखते मृत्यु थाय ने. एवं ईश्वरनुं वचन सत्य .” श्रा ने बीजा प्रकारोवमे विचारीने क्रूर ग्रह, दशा, चंनी प्रतिकूळता, तिथि विगेरे, बेद विगेरे वझे आम्नायमां कह्या प्रमाणे जोश्ने रोगीना मृत्युना समयनो निर्णय करवो. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ॥आरंसिद्धि ॥ हवे औषध खावानुं मुहूर्त कहे जे.नैषज्यमिष्टं मृगवारुणानुराधाधनिष्ठाश्रुतिरेवतीषु । पुष्याश्विनीराक्षसहस्तचित्रापुनर्वसुखातिषु देहपुष्टयै ॥ ६ ॥ अर्थ-प्रथम औषध खावानुं नीचेनां नत्रोमां देहनी पुष्टिने माटे श्छेलु .मृगशिर, शतनिषक, अनुराधा, धनिष्ठा, श्रवण, रेवती, पुष्य, अश्विनी, मूळ, हस्त, चित्रा, पुनर्वसु अने स्वाति. अहीं वार विषे कां कडं नथी तोपण सर्वत्र सौम्य वारो ज ग्रहण करवा, अने अहीं तो रविवार पण कहेलो होवाथी लेवानो . ए ज रीते अश्व, गजकर्म, पशुविधि, नाटक, वाव, कूवा, उद्यान, बाळकनुं नाम स्थापन, गृह करवू, अश्वने प्रथम चलाववो, बीज वावq, नगरादिकनां तोरण चमाववां, तथा देवपूजा विगेरे सर्व मांगलिक कार्योमां पण वारने माटे कांश विशेष कर्तुं न होय तो सौम्य वारो तथा रविवार पण जाणी लेवा. हवे रोगीने माथे पाणी रेमवानुं मुहूर्त कहे .स्नानमुबाघनस्येष्टं वारयोर्नेन्ऽशुक्रयोः। ब्राह्मपौष्णोत्तराश्लेषादित्यखातिमघासु च ॥६॥ अर्थ-नीरोग श्रयेला माणसने प्रथम स्नान चंड अने शुक्रवारने वर्जीने बीजा वारोमां तथा रोहिणी, रेवती, त्रणे उत्तरा, अश्लेषा, पुनर्वसु, स्वाति अने मघाने वर्जीने बीजां नक्षत्रमा श्छेलु जे. पूर्णजमां "बुध अने गुरुवार" तथा हर्षप्रकाशमां "शनिवारने" वर्जवानुं कर्तुं . - हवे अन्यंग स्नान- मुहूर्त कहे .अन्यंगमर्ककुजजीवसितेषु पर्वसंक्रान्तिविष्टिषु विवर्जितयोगयुग्मे । कुर्याविषट् ६ जुजगदिक १० तिथि १५ शक १५ विश्व संख्ये तिथौ च न कदाचन नूतिकामः ॥ ७० ॥ अर्थ-रवि, मंगळ, गुरु अने शुक्रवारे तथा पर्वमां एटले सूर्य चंपर्नु ग्रहण श्रने दीवाळी विगेरेमां, सूर्यनी संक्रांतिने दिवसे, वर्जित योग व्यतिपात अने वैधृति योगने दिवसे तथा बीज, ब, आठम, दशम, पूनम, चौदश अने तेरश, ए तिथिने दिवसे श्राबादीने श्चता पुरुषे कदापि अन्यंग स्नान एटले तेल चोळवापूर्वक स्नान करवू नहीं. व्रण (व्याधि )श्री मुक्त श्रयेलाने तो व्यतिपात अने विष्टिमां पण स्नाननो निषेध नथी. कह्यं ने के Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ "रविमन्दारवारेषु विष्टौ वा व्यतिपातके । स्नातव्यं व्रणमुक्तेन शशिन्यशुनतारके ॥१॥" "रवि, शनि अने मंगळवारे विष्टि के व्यतिपातमां अशुन तारा श्रने चंड होय तोपण व्रणथी मुक्त श्रयेलाए स्नान (अन्यंग स्नान ) करवू.”. हवे नवं अनाज खावानुं मुहूर्त कहे .जुञ्जीतान्नं नवं दत्वा शुग्नेऽह्रि ध्रुवचान्मने । पुनर्वसुकरश्रोत्ररेवतीनां येषु च ॥ १ ॥ अर्थ-शुन दिवसे रोहिणी, त्रणे उत्तरा अने मृगशिर नक्षत्रमा तेमज पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, श्रवण, धनिष्ठा,रेवती अने अश्विनी एनक्षत्रोमां नवं अनाज दान दश्ने खावू. राजादिक स्वामीना दर्शन- मुहूर्त कहे जे.राजावलोकनं कुर्यान्मृऽक्षिप्रध्रुवोडुनिः। वासवश्रवणान्यां च सुधीः सर्वार्थ सिधये ॥ २ ॥ अर्थ-मृड, क्षिप्र तथा ध्रुव नक्षत्रमा तेमज धनिष्ठा अने श्रवण नक्षत्रमा बुद्धिमान् पुरुषे सर्व प्रयोजननी सिधिने माटे राजानुं दर्शनुं करवू. राजाए करीने पोतपोताना स्वामी-उपरी समजा. हवे हस्ती तथा अश्वना कर्म विषे कहे .गजवाजिकर्म नेष्टं रौजे पूर्वो ३ त्तरा ३ विशाखासु । जरणित्रितयाश्लेषाहितयज्येष्ठाच्येषु तथा ॥ ३ ॥ अर्थ-श्रा, त्रणे पूर्वा, त्रणे उत्तरा, विशाखा, नरणी, कृत्तिका, रोहिणी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा अने मूळ, ए नक्षत्रोमां हस्तीनुं कर्म एटले गजशांतिक, दांत कापवा विगेरे तथा वाजिकमें एटले अश्वनी शांति, भारती विगेरे करवू श्ष्ट-शुल नथी.अर्थात् बीजां नक्षत्रोमां शुल बे. अहीं सामान्य रीते कह्या बतां पण या प्रमाणे विशेष जाणवु."अश्विनी, पुनवेसु, पुष्य, हस्त, चित्रा अने स्वाति ए नक्षत्रोमा हस्तीनुं कर्म शुल ने, तथा अश्विनी, मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाति, धनिष्ठा, शतभिषक् अने रेवती ए नात्रोमां अश्वनुं कर्म शुल बे." हवे गायो विगेरेनां बंधनस्थानादिकनुं मुहूर्त कहे जे.गवां स्थानं च यानं च प्रवेशश्च न शस्यते । तिथौ नूताष्टदर्शाख्ये श्रोत्रचित्राध्रुवे च ने ॥ ४ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ॥ श्रारंसिद्धि॥ अर्थ-गायो तश्रा जपलक्षणथी हस्ती, अश्व, नेंस विगेरेनुं स्थान एटखे बांधवानुं ठेकाणुं नवं करवू ते, यान एटले प्रथम चरवा लश् जq ते, तथा प्रवेश एटले गृहादिकमां प्रथम प्रवेश कराववो ते कार्यमां आठम, चौदश भने अमावास्या तथा श्रवण, चित्रा श्रने ध्रुव नक्षत्रो प्रशस्त-शुल नथी.. हवे गायो विगेरेने वेचवानुं तथा खरीद करवानुं मुहूर्त कहे जे.क्रय विक्रयौ न हि गवां हस्तज्येष्ठाश्विनीधनिष्ठाच्यः। अन्यत्र पौष्णवारुणराधादित्यम्येभ्यश्च ॥ ५ ॥ अर्थ-हस्त, ज्येष्ठा, अश्विनी, धनिष्ठा, रेवती, शतनिषक, विशाखा, पुनर्वसु श्रने पुष्य, श्राटलां नत्रो सिवाय बीजां नक्षत्रोमां गायो विगेरेनो क्रय विक्रय शुज नथी. अर्थात् हस्तादिक नक्षत्रोमा ज शुक्ल . वळी लव कहे जे के "तीक्ष्णेषु पशुं दमयेदारण्यं न ध्रुवेषु संग्राह्यम् । पशुपोषणं विधेयं चरेषु दीक्षारतं मृषु ॥१॥" "तीक्ष्ण नक्षत्रोमां पशुदमन करवू योग्य , ध्रुव नक्षत्रोमां अरण्यनां पशु ग्रहण करवां योग्य नथी, चर नक्षत्रोमां पशुनुं पोषण करवू योग्य , श्रने मृउ नत्रोमां दीक्षा तथा मैथुन योग्य जे.” हवे हळ जोमवानुं मुहूर्त कहे .हलस्य वाहनारंजं न हि कुर्वीत कर्हि चित् ।। पूर्वासु कृत्तिकासार्पज्येष्ठा नरणीषु च ॥ ६ ॥ अर्थ-हळy प्रथम वहन व्रणे पूर्वा, कृत्तिका, अश्लेषा, ज्येष्ठा, श्रार्ग अने नरणीमां कदापि करवू नहीं. अर्थात् बीजां नक्षत्रो शुन्न बे.. क्षेत्र खेमवाना आरंजने दिवसे कयुं नत्र ग्रहण करवा योग्य ने ? तेने माटे हळचक्र कहे . हलचक्रेऽर्कमुक्ताद्भात्त्रयं नेष्टं शुनं त्रयम् । त्यजेन्नव शुन्नाय स्युः कृषौ नानि त्रयोदश ॥ ७ ॥ अर्थ-हळचक्रने विषे सूर्ये लोगवीने मूकी दीधेला नत्रथी गणतां पहेला त्रण नक्षत्रो (एटले दंडिकाना मूळमां रहेला ) अशुल ने, त्यारपतीनां एटले हळ (सांगत )नी नीचेनां त्रण शुल जे. पी दंमिकाना मुखनां त्रण तथा यूपना बन्ने बेमानां त्रण त्रण मळीने नव नक्षत्रो तजवा योग्य , अने बाकीनां एटले बे योत्रनां मळीने दश तथा Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः ॥ १६ दळना मस्तकनां त्रण, ए तेर नक्षत्रो खेतीना आरंभमां सारां बे. ( कुल श्रठ्यावीश नक्षत्र सेवानां बे.) "सांगल, दंशिका, यूप ने वे योत्र सहित हळने स्थापन करीने सूर्ये जोगवेखा ( जोगवीने मूकी दीधेला ) नक्षत्रथी आरंजीने अनुक्रमे नक्षत्रो मूकवां तेमां दंकिका, इळ ( लांगल ) ने यूप ए त्रणेना व बे बेमा उपर त्रण त्रण तथा बे योत्रमां पांच पांच नक्षत्रो मूकीने हळचक्रनी गणतरी करवी." श्रीं जरी मां सूर्य रहेलो होय त्यारे अश्विनी नक्षत्र जोगवेलुं ययुं, तेथी श्रश्विनीने आरंजीने दळचक्रनी स्थापना करी बे. दळचकनी स्थापन. 9 लागल रे उपू अ इंडिकार्नु मूळ भ इळचने स्थापन करवानी रीत या प्रमाणे बे. - " लांगलं दंगिका यूपं योत्रघयसमन्वितम् । दलं न्यस्य लिखेनानि रविणा मुक्त धिष्ण्यतः ॥ १ ॥ hare यूपानां दिव्यन्तेषु त्र्यं त्रयम् । योत्रयोः पञ्चके न्यस्य गणना चक्रलांगले ॥ २ ॥ " 市 पु पुअ यूप शधश्र 9 रो टू आ धनुं फळ नीचे प्रमाणे नरपतिजयचर्यामां कहां बे. "दकिकास्थे गवां दानिर्यूपस्थे स्वामिनो जयम् । लक्ष्मी लगिलयोत्रस्थे क्षेत्रारंभ दिनके ॥ १ ॥” १ चक्रमां १ ए शुभनी नीशानी छे अने० ए अशुभनी नीशानी छे, आ० २९ योत्र, अउपूज्ये मपूउ हचि स्वाि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ॥ श्रारं सिद्धि ॥ " क्षेत्र खेमवाना श्ररंजना दिवसनुं नक्षत्र जो दंमिकामां रचुं होय तो वळदनी हानि था, यूपमा रह्यं होय तो तेना स्वामी ( खेडूत ) ने जय थाय, अने लांगल के योत्रमां रह्युं होय तो लक्ष्मी प्राप्त थाय. " व्यवहारप्रकाशमां पण कांबे के" पूष्णो नुक्तनतस्त्रयं न शुनदं श्रेष्ठं चतुर्थात्रयम्, न श्रेष्ठं त्रितयं च सप्तमजतो दिग्नानं पञ्चकम् । सीरेsयंत्रितयं न पञ्चदशतोऽप्यष्टादशात् पञ्चकं, श्रेष्ठं नैव शुद्धं त्रयं च विकृतेः २३ षड्विंशतेः सत्रयम् ॥ १ ॥” "हळचक्रमां सूर्ये जोगवेला नक्षत्रथी प्रथमनां त्रण शुभ नथी, त्यारपबी चोथाथी त्रण सारां बे, त्यारपबी सातमाथी ऋण सारां नथी, त्यारपवी दशमाथी पांच सारां बे, त्यारपवी पंदरमाथी त्रण सारां नथी, त्यारपवी अढारमाथी पांच सारां बे, त्यारपी वीशमाथी त्रण सारां नथी, अने त्यारपत्री बवीशमाथी त्रण सारां बे." हवे बीज वाववानुं मुहूर्त्त कहे बे. - -- बीजोतौ प्रतिषिद्धानि पूर्वा जरणीयम् । सार्पा दित्यश्रुतिज्येष्ठा विशाखावारुणान्यपि ॥ ७८ ॥ अर्थ - बीज वाववामां पूर्वा ३, नरणी, कृत्तिका, अश्लेषा, पुनर्वसु, श्रवण, ज्येष्ठा, विशाखा ने शतभिषक्, आटलां नक्षत्रो निषिद्ध वे, एटले अशुभ बे. ते सिवायनां वीजां सर्वे शुभ बे; परंतु "उपर कहेला हळचक्रमां शुन होय एवं नक्षत्र लेवुं” एम रत्नमाला जाण्यमां कह्युं छे. विशेष या प्रकारे बे. - " स्थाप्योऽहिः सूर्यमुक्ताना त्रिनाड्येकान्तरक्रमात् । मुखे त्रीणिगले त्रीणि जानि द्वादश चोदरे ॥ १ ॥ वेदाः पुत्रे बहिः पञ्च दिनजाच्च फलं वदेत् । दवे मञ्जनमन्नाप्तिः क्रमान्निष्कणतेतिनीः ॥ २ ॥” त्रिनामवाळ सर्प स्थापवो. तेमां सूर्ये जोगवीने मूकेला नक्षत्रथी आरंभीने अनुक्रमे एक एकांतरावाळां नक्षत्रो मूकवां. तेमां मुखमां त्रण, कंठमां त्रण, उदरमां बार, पुमां चार ने पांच बहार. पी इष्ट दिवसे जे नक्षत्र होय तेने श्रीने या प्रमाणे फळ कहेवुं. तेमां जो इष्ट नक्षत्र मुखनां त्रण नक्षत्रमांथी होय तो ते दिवसे वावेलुं विष या एटले धान्यनी वृद्धि थाय नहीं, गळानां त्रणमांथी होय तो अंजन एटले अंगारनी वृष्टि थाय, उदरनां बारमांथी होय तो अन्ननी वृद्धि थाय, पुछनां चारमांथी होय तो रहित ( बगसर ) थाय एटले के अनाज पाके नहीं, अने वहानां पांच नक्षत्रोमांथी होय तो मूषकादिक ईतिनो जय थाय. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ त्रिनामीक सर्प स्थापना. गळु उदर असकृरो मृआपुपुम्पूउहचिस्वाविअसे मू पूउपशपूरे मुख श्रा प्रमाणे रत्नमाला नाष्यमां कडं . तेमज व्यवहारप्रकाशमां पण कडं ले के "अर्कनुक्ताष्टमात्रीणि घादशाच त्रयं शुजम् । बीजोप्तौ षोमशात्रीणि एकविंशात्तथा त्रयम् ॥१॥" "सूर्ये लोगवेला नत्रथी गणतां आउमा नत्रयीत्रण नक्षत्रो शुन बे, बारमाथी त्रण शुक्ल ने, सोळमाथी त्रण अने एकवीशमाथी त्रण सारांबे. अर्थात् श्रा बार नक्षत्रो शुल जे. बीजां अशुन ." कृषिने माटे ज नक्षत्र आश्री शुनाशुल फळ कहे जे.कृषिरूचे सूर्यादिषु ५कुर रसे ६ न्छ? नि ३ नू १ रसे६न्छ १ युगैः।। असुखरसुखश् मध्य ३ लानाध रति परतिक्ष्मध्या र्थन्मुःखए कृत्क्रमशः अर्थ-सूर्यना नक्षत्रथी आरंजीने प्रथमनां पांच नक्षत्रोमां कृषि करी होय तो ते कृषि असुखकारक चे, त्यारपजीना एक नदत्रमा करी होय तो ते सुखकारक ने, त्यारपीनांब नदत्रमा मध्यम बे, त्यारपीनुं एक नक्षत्र लानकारक बे, त्यारपनीनां त्रण नत्रो अरति (असुख )कारक बे, त्यारपीनुं एक नक्षत्र रति ( सुख ) कारक , त्यारपीनां उनकत्रो मध्यम बे, त्यारपीनुं एक बदमी आपनार बे, अने त्यारपतीनां चार मुःखकारक बे. __ अहीं कृषिना चक्रमां शनि नरनी जेम नरनो आकार नथी कह्यो तोपण जाणवो, तेथी सूर्यना नक्षत्रयी श्रारंजीने मुख विगेरे नव अवयवोमां अठ्यावीश नत्रो श्रा प्रमाणे स्थापवां. कृषि नरनी स्थापना.मुखे । ५ असुख दक्षिण करे १ । सुख पादपये मध्यम वाम करे लान उदरे अरति १ भरणी नक्षत्रमा रहेला सूर्यनी कल्पना करी छे, तेथी अश्विनी भुक्त थयुं, माटे अश्विनीथी आरंभ कर्यो छे. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिधि॥ रति मस्तके नेत्रधये मध्यम गुदे लक्ष्मी गुह्ये ४ । दुःख जळाशय नवं करवानुं मुहूर्त कहे जे.जलाशयं न कुर्वीताश्विनीचरणी मिश्रनैः। भाजपादश्रुतिखातिनाग्यदारुणस्तथा ॥ ७ ॥ अर्थ-वाव, कूवा, तळाव विगेरे जळाशय खोदाववानुं मुहूर्त अश्विनी, जरणी, मिश्र (विशाखा श्रने कृत्तिका), पूर्वानापद, श्रवण, स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी अने दारुण एटले अश्लेषा, ज्येष्ठा, मूळ श्रने आओ, ए नक्षत्रोमां करवू नहीं. हवे वृक्ष वाववा- मुहूर्त कहे जे.न वृक्षरोपणं कुर्यात्क्रूराआदित्यवहिनैः। .. अश्लेषामारुतज्येष्ठाधनिष्ठाश्रवणैरपि ॥१॥ अर्थ-क्रूर नक्षत्रो (त्रण पूर्वा, जरणी अने मघा), आओ, पुनर्वसु, कृत्तिका, अश्लेपा, स्वाति, ज्येष्ठा, धनिष्ठा अने श्रवण, श्रा नक्षत्रोमां वृक्षतुं धारोपण करवू नहीं. हवे नृत्य करवानुं तथा शीखवानुं अने मदिरापाननुं मुहूर्त कहे . नृत्तं मैत्रे स्याफनिष्ठाये वा, हस्तज्येष्ठापुष्यपौष्णोत्तरे ३ वा। संधानाचं नाचरेत् किं च मुक्त्वा , धिष्ण्यं क्रूरं दारुणं वारुणं वा ॥ ५ ॥ अर्थ-अनुराधा, धनिष्ठा, शतनिषक, हस्त, ज्येष्ठा, पुष्य, रेवती अने त्रण उत्तरा, आटला नक्षत्रमा नृत्य (नाटक) करवानो तथा शीखवानो श्रारंल कराय बे. तथा जरणी, त्रण पूर्वा, मघा, अश्लेषा, ज्येष्ठा, मूळ, आजै अने शतनिषक, आ नक्षत्रो सिवाय बीजां नक्षत्रोमा मदिरा विगेरेनुं आचरण (पान) न करवं. श्रा त्रीजा विमर्शमां पाटलां उपयोगी कार्योना नामपूर्वक तेमनां मुहूर्तों कह्यां. श्रा सिवाय बीजां पण शुनाशुल कार्यों बे, तेमनुं संक्षेपथी वर्णन पूर्णनजना मतने अनुसारे करीए बीए. "रित्ततिहि असुहजोगे कूरविलग्गा कूरवारे श्र । आयरह कसिणपरकं असुहे अन्नत्थ विवरीअं ॥१॥" Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः ॥ १७३ कार्यों रिक्ता तिथिमां, अशुभ योगमां, क्रूर लग्नादिकमां, क्रूर वारमां ने कृष्णपक्षमां करवा लायक बे, छाने अन्यत्र एटले शुभ कार्योंमां एथी विपरीत जाएं. * जे लग्न क्रूर ब वर्गवाळु, क्रूर ग्रहे अभ्यास करेलुं, अथवा क्रूर ग्रहे जोयेलुं होय तेमज ( आदि शब्द होवाथी ) तीक्ष्ण, उग्र अने मिश्र नक्षत्रो क्रूर ग्रहे अध्यास करेला होय, अथवा पात ने उपग्रहादिकवके हणायेलां होय तेवा समये अशुभ कार्य करवामां वे बे. मूळ गाथामा "कूरवारे " अहीं च शब्द होवाथी क्रूर वारमां, फूर होरामां तथा क्रूर र एटले विष्टि विगेरेमां, ए रीते जाणवुं. अन्यत्र विपरीत जावं. एटले के कार्यमा तिथि विगेरे सर्वे शुभ ज लेवानां बे. लग्न पण शुन ब वर्गवालु, शुभ ग्रहोए श्रध्यासित अशुभ ग्रहोए जोयेलुं लेवं. नक्षत्रो पण कार्यने अनुसारे चर, लघु, मृदु ध्रुव तथा सौम्य ग्रहोए अध्यासित लेवानां बे. या कार्योमां लग्ननो कांई आग्रह नथी, केमके - "लग्नं विवाहे दीक्षायां प्रतिष्ठायां च शस्यते” “विवाहमां, दीक्षामां ने प्रतिष्ठामां लग्न लेवं शुन बे." एम श्रागल कहेवाना बे, परंतु जे श्रा उपरनां शुभ कामां पण लग्ननो श्रादर करवा इडे बे, तेमने माटे जा (त्रीजा) विमर्शमां मौंजीite रंनना धान पर्यंतनां कार्योंमां तथा आवता ( चोथा ) विमर्शमां यात्रामां ने गृहनुं निवेशन तथा प्रवेश करवामां सूत्रकारे ज ( मूळ ग्रंथकारे ज ) लग्ननुं बळ सेवानुं कह्युं बे, अने जे कार्योंमां लग्ननुं बळ लेवानुं कह्युं नथी, ते मां या प्रमाणे जाणवुं. प्रथम गर्भाधान विषे कहे बे. शुक्रेज्ययोर्बलवतोः शेषेष्वबलेषु पुंप्रसवयोगे । द्विपदे लग्ने शीर्षोदयिनि च गुरुशुक्रयुतदृष्टे ॥ १ ॥ या त्रिकोणकेन्द्रस्थितयोरनयोः स्वजन्मलग्ने वा । नोपचये चन्द्रे ऋतौ सुतार्थी जेनार्याम् ॥ २ ॥ शुक्र ाने गुरु: बळवान् होय, बीजा ग्रहो बळवान् न होय, पुंप्रसव नामनो योग होय, लग्न बे पादनुं ( मिथुन कन्या तुला धन कुंन ) तथा शीर्षोदयी (मीन) होय अने गुरु तथा शुक्र सहित होय अथवा गुरु ने शुक्र देखता होय अथवा गुरु ने शुक्र त्रिकोण के केन्द्रमा रह्या होय अथवा पोताना जन्मना लग्नमां रह्या होय, छाने चंद्र लग्नमां के उपचयस्थानमा रह्यो होय त्यारे पुत्रनार्थी पुरुषे ऋतुना दिवसोमां (प्रथमना चार दिवस वर्जीने ) स्त्री प्रत्ये गमन कर. - पुंप्रसव नामनो योग जातकमां या प्रमाणे कह्यो बे.विषमर्दों विषमनवांशसंस्थिता गुरुशशांकलग्नार्काः । पुंजन्मकराः समनेषु योषितां समनवांशगताः ॥ १ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिद्धि॥ बखिनौ विषमेऽर्कगुरू नरं स्त्रियं समगृहे कुजेन्दुसिताः।। लग्नादिषमोपगतः शनैश्चरः पुत्रजन्मकरः ॥२॥ पुरुषना गुरु, चं श्रने लग्ननो सूर्य विषम नत्रमा अने विषम नवांशमा रहेला होय तथा स्त्रीना (गुरु, चंग अने लग्ननो सूर्य ) सम नदत्रमा अने सम नवांशमां रह्या होय तो ते पुत्रना जन्मने करनारा बे. अर्थात् था पुंप्रसव योग कहेवाय . (१) पुरुषने लग्नथी विषम स्थाने रहेला सूर्य अने गुरु बळवान् , अने स्त्रीने सम स्थानमां रहेला मंगळ, चंड अने शुक्र वळवान् बे, (अर्थात् पुत्रने उत्पन्न करनारा , ) अने लग्नथी विषम स्थाने रहेलो शनि पण पुत्रना जन्मने करनारो ने. ।इति ग धानम् । १ हवे सीमंत विष कहे .सीमन्तकर्म पुरुषे लग्नेशे च त्रिकोणकेन्मस्थे । जीवे त्रिकोणकेन्अव्ययाष्टमेष्वशुनरहितेषु ॥३॥ पुरुष लग्नमां (विषम लग्नमां ) तथा पुरुष (विषम ) नवांशमां, त्रिकोणमां के केंस्थानमां गुरु रह्यो होय तथा त्रिकोणमां, केंजमां, बारमा के थाउमा स्थानमां को अशुल ग्रहो न होय त्यारे सीमंतकर्म कराय ने. ।इति सीमन्तः । __ हवे जातकर्म तथा नाम करण विषे कहे .गुरौ नृगौ वा केन्प्रस्थे मिश्रतीक्ष्णोग्रवर्जिने। जातकर्म शिशोः कुर्यान्नामविन्यसनं तथा ॥४॥ मिश्र, तीदण अने उग्र नक्षत्र वर्जित अन्य नक्षत्रमां, तथा गुरु अथवा शुक्र होय त्यारे बाळकनुं जातकर्म तथा नाम करण थाय बे. । इति जातकर्म ३ नामस्थापने ।। हवे कर्णवेधनुं मुहूर्त कहे जे.कर्णवेधः शुल्ने लग्ने सौम्यग्रहविलोकिते। क्रूरोज्झिते च लालत्रिसंस्थैः सौम्यग्रहैः शुन्नः ॥ ५॥ सौम्य ग्रहोए जोयेला तथा क्रूर ग्रहे रहित एवा शुल्ल लग्नमां तथा सौम्य ग्रहो अगीया. रमा के वीजा स्थानमा रह्या होय त्यारे बाळकनो कर्णवेध श्राय . ।इति कर्णवेधः । ५ हवे अन्न प्राशननुं मुहूर्त कहे जे.अन्नप्राशनलग्ने मूर्त्यादिस्थे ग्रहे फखमेवम् । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ क्षीणे चन्छ निकुः संपूर्णे सत्रदश्च यज्वा स्यात् । शेज्यसितैर्लग्नस्थैर्नीरुक् क्रूरैर्महाव्याधिः ॥ ६॥ निधनत्रिकोणकेन्वान्त्यगैः फलं तद्यदेव तनुगेषु । खग्नात् षष्ठाष्टमगश्चन्योऽनिष्टः शुनयुतोऽपि ॥७॥ अन्न प्राशनना लग्नमांप्रथमादिक स्थानमा रहेला ग्रहोगें फळ था प्रमाणे जे.-खग्नमां हीण चं होय तो ते (बाळक)जिनुक थाय, संपूर्ण चंज होय तो दातार तथा यज्ञ करनार याज्ञिक श्राय, लग्नमां बुध, गुरु अने शुक्र रह्या होय तो नीरोगी थाय, क्रूर ग्रह रह्या होय तो महाव्याधि थाय, सर्वे ग्रहो ( कोश् पण ग्रह ) आग्मे स्थाने, त्रिकोणमां, केंजमां के बारमा स्थानमा रह्या होय तो तेनुं फळ तनु नुवन (लग्न) नी जेवू ज जाणवू. तथा खग्नथी उठे तथा बाग्मे स्थाने रहेलो चंड शुल ग्रहे युक्त होय तोपण ते अनिष्ट के. ।इति अन्नप्राशनम् । ६ हवे दौरनुं मुहूर्त कहे .दौर शुलकरमिष्टैः केन्प्रस्थैनों शुग्नं ग्रहैः क्रूरैः। बादशधनत्रिकोणाष्टगैर्नवेदसुखवृद्धिकरम् ॥ ७॥ केंजस्थानमां सौम्य ग्रहो रह्या होय तो तेमां क्षौर करावq शुजकारक , श्रने क्रूर ग्रहो केन्द्रमा रह्या होय तो ते अशुल बे. तथा सर्वे ग्रहो बारमुं, बीजूं, त्रिकोण अने थाउM, थाटलां स्थानमा रह्या होय तो असुख (दुःख )नी वृद्धि करे . ।इति कौरम् । ७ हवे चौलकर्मनुं मुहूर्त कहे जे.चूमा शुजाय कुरकर्मनेषु, सौम्येषु केन्जे म्रियते कुजेऽस्त्रात्। हीणे यायोमुपतौ ज्वराय, नानुः सुतस्तस्य च पंगुतायै ॥ ए॥ क्षौरकर्मनां नक्षत्रोमां तथा सौम्य ग्रहो केन्प्रस्थानमा रह्या होय ते वखते चूमाकर्म शुल ने, केंजस्थानमा मंगळ रह्यो होय तो शस्त्रथी मरण थाय, केंजमां क्षीण चंज रह्यो होय तो ते क्य (नाश )ने माटे , केंजमां सूर्य रह्यो होय तो ते ज्वरने माटे बे, अने केंजमां शनि रह्यो होय तो ते पंगुपणानी प्राप्तिने माटे जे. ।ति चौलकर्म । हवे विद्या तथा शिल्पना आरंजनुं मुहूर्त कहे .सौम्यैर्दशमोपगतैर्खग्ने चन्जात्मजे गुरौ वापि । विद्याशिङपारंजौ जीवेन्फुजवर्गगे चन्छे ॥१०॥ सौम्य ग्रहो दशमा स्थानमा रह्या होय, बुध अथवा गुरु खनमा रह्या होय, तथा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ॥ आरंज सिद्धि ॥ गुरु के बुधना वर्गमां चंद्र रह्यो होय त्यारे विद्या ने शिल्पनो श्रारंभ करवो शुभ बे. ॥ इति विद्या ए शिपारंचौ १० ॥ वे नाटक तथा काव्यना आरंभ विषे कहे बे. - बुधे लिने शशिनि राशौ गुरुवीक्षिते । हिबुकस्यैः शनैर्नृत्यं काव्यं चारच्यते बुधैः ॥ ११ ॥ मां बुध रह्यो होय, बुधनी राशिमां चंद्र रह्यो होय अने तेना पर गुरुनी दृष्टि पकती होय तथा शुभ ग्रहो चोथा स्थानमा रह्या होय त्यारे माह्या पुरुषो नृत्य तथा काव्यनो प्रारंभ करे बे. ॥ इति नाट्य ११ काव्यारंजौ १२ ॥ वे मंत्रादिक ग्रहण करवानो समय कहे बे. - शीतांशी बुधराशिस्थे शुभेषूदयवर्त्तिषु । मंत्रादिग्रहणं कार्यं हित्वा पापग्रहोदयम् ॥ १२ ॥ बुधनी राशिमां रह्यो होय, शुभ ग्रहो उदयमां वर्त्तता होय, अने पाप ग्रहनो उदय न होय त्यारे मंत्रादिक ग्रहण कर. ॥ इति मंत्रादिग्रहणं १३ ॥ हवे वेतासमंत्रादिकना साधवानुं मुहूर्त्त कहे बे. - पित्र्यैशयाम्यमूलेन्डुषु शुद्धेऽष्टमेऽपि च । वेताल सिद्धिः पाताले नृगौ के कुंजलग्नगे ॥ १३ ॥ मघा, जरणी, मूल ने मृगशिरमां श्रमुं स्थान शुद्ध होय त्यारे तथा चोथा स्थानम शुक्र होय ने कुंभ लग्नमां बुध रह्यो होय त्यारे वेताल मंत्रादिक सिद्ध थाय बे. ॥ इति वेतालमंत्रादिसाधनम् ॥ १४ दवे धर्मना रंजनुं तथा नंदी मांग्वानुं मुहूर्त्त कदे बे. - egash गुरौ लग्ने धर्मारंजो खेर्दिने । गुरुग्नवर्गे वा शुजारंजास्तयोर्बले ॥ १४ ॥ सूर्य चोथा स्थानमा रह्यो होय ने लग्नमां गुरु रह्यो होय त्यारे रविवारने दिवसे धर्मनो आरंभ करवो, अथवा गुरु, बुध अने लग्नना वर्गमां अथवा ते ( रवि छाने गुरु )नुं बळ होय त्यारे शुभ कार्यना श्रारंभ करवा. ॥ इति धर्मारंज १५ नन्द्यादिके ॥ १६ हवे दीक्षानुं मुहूर्त्त कहे बे. - मोक्षार्थिनां च दीक्षा स्थिरोदये कर्मगे त्रिदशपूज्ये पापैर्धर्मप्राप्तैर्बलहीनैः प्रत्रजितयोगे ॥ १५ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ स्थिर लग्नना उदयमां गुरु दशमे स्थाने रह्यो होय, पाप ग्रहो नवमा स्थानमा रह्या होय अने बळहीन (निर्बळ ) होय तथा प्रव्रजित योग होय त्यारे मोदना अर्थाए दीक्षा ग्रहण करवी. चार, पांच के तेथी पण वधारे ग्रहो एक स्थानमा रह्या होय त्यारे प्रत्रजित योग कहेवाय ने. तेमज जन्मवखते जे राशिमां चंड होय, ते राशिना स्वामीने बीजा ग्रहो जोता न होय, पण ते (स्वामी ) शनिने जोतो होय, त्यारे प्रव्रजित योग थाय . अथवा तो तेराशिना स्वामीने शनि जोतो होय त्यारे पण प्रव्रज्या योग कहेवाय . ।इति दीदा । १७ ___ हवे आयुष्यनां कार्यो आश्री कहे जे..पूर्णे चन्जे वेश्म ४ गेऽर्केऽम्बर १० स्थे, जीवे लग्ने वाक्पतेर्वासरे च। श्रीमन्त्यायुष्याणि कार्याणि कार्याएयुक्तस्तस्मिन्नेव राज्याभिषेकः ॥ १६ ॥ परिपूर्ण चंज चोथा स्थाने रह्यो होय, सूर्य दशमे स्थाने रह्यो होय अने गुरु लग्नमां रह्यो होय त्यारे गुरुवारने दिवसे लक्ष्मीवाळां आयुष्यनां कार्यो करवां, अने आ मुहूर्त्तमां ज राज्याभिषेक करवानुं पण कडं जे. ।इति श्रायुष्यकार्याणि । १० । हवे वस्त्र ग्रहण करवानुं मुहूर्त कहे जे.वस्त्रग्रहणं कुर्यात् क्रूरैस्त्यकाष्टमान्तिमैर्लग्ने । उपचयनेषु च सन्निदृष्टेष्विन्दावुपचयस्थे ॥ १७॥ __ क्रूर ग्रहो आउमा के बारमा स्थानमा रहेला न होय, लग्नमां अने उपचयस्थानमा रहेला ग्रहो उपर शुक्ल ग्रहोनी दृष्टि पमती होय तथा चंज उपचयस्थानमा रह्यो होय त्यारे नवा वस्त्रनुं ग्रहण कर.. ।इति वस्त्रव्यापारः। १५ औषधनो श्रारंन करवा विषे कहे .औषधसेवा विहिता शुलाय बलवत्सु सौम्यखेटेषु । निधनान्त्यसप्तमरिपुत्यक्ते क्रूरे विना रिष्टम् ॥ १० ॥ सौम्य ग्रहो बळवान् होय, क्रूर ग्रहो आउमे, बारमे, सातमे अने बछे स्थाने रह्या न होय, तथा रिष्ट योग न होय त्यारे औषधनुं सेवन कर्यु होय तो ते शुनकारक . (रिष्ट योगो जातकमां कह्या जे, ते जाणवा.) ।इति औषधसेवा । २० हवे रोगथी मुक्त श्रयेलाने स्नान करवानुं मुहूर्त कहे जे.बग्ने चरे केन्गते च जीवे, क्रूरे दिने रिक्ततिथौ कृशेन्दौ । केन्जत्रिकोणोपगतैश्च पापैः, स्नानं हितं रोगविमुक्तिकाले ॥ १॥ भा. २३ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥शारंलसिद्धि॥ चर लग्नमां कॅजमां गुरु रह्यो होय, क्रूर वार होय, रिक्ता तिथि होय, चंज कृश होय अने पाप ग्रहो कें अने त्रिकोण ( नवमुं अने पांचमुं स्थान )मां होय त्यारे रोगथी मुक्त श्रयेलाने स्नान करवू हितकारक के. ।ति नीरुनानम् । २१ नृपादिकनी सेवा करवानुं मुहूर्त कहे .नौमे दिवाकरे वा दशमायगते शुनग्रहविलग्ने। विद्यायुधोपजीवी योनिवशादाश्रयेदीशम् ॥ २० ॥ मंगळ अथवा रवि दशमा के अगीयारमा स्थानमां होय अने लग्नमां कोई शुल ग्रह होय त्यारे प्रथम कहेला योनिवैरनो त्याग करीने विद्याजीवी तथा शस्त्रजीवीए स्वामीनो आश्रय करवो. । इति नृपादिसेवा । २२ ___ हवे पशुकर्म विषे कहे जे.लग्नस्थिते शुने शुऽऽष्टमे धिष्ण्ये स्वयोनिके। रक्षा वृद्धिः क्रयश्चापि पशूनां शोजनो नवेत् ॥१॥ लग्नमां शुल ग्रह होय अने आउM स्थान शुध होय ( को ग्रहो न होय ) त्यारे पोतानी (पशुनी ) योनिवाळां ज नक्षत्रमा पशुउन रक्षण, वृद्धि अने क्रय पण शुनकारक थाय बे. ।इति पशुकर्म । २३ हवे खेतीकर्म तथा बीज अने वृदना वाववा विषे कहे .दौर्बट्ये पापानां शुक्रेन्बले गुरौ विलग्नस्थे । चन्छ जलराशिस्थे कुर्यात्कृषिकर्मवीजवृदोप्तीः ॥२२॥ __ पाप (क्रूर ) ग्रहो उर्बल होय, शुक्र अने चंज बळवान् होय, गुरु लग्नमा रह्यो होय अने चं जळ राशि (कर्क, मकर, कुंल, मीन)मा रह्यो होय त्यारे कृपिनुं कर्म, बीजर्नु अने वृक्षy आरोपण करवु शुन . । इति कृषिकर्म २४ बीज २५ वृक्षोप्तयः २६ । ___ जळाशयोनां कार्य करवा विणे कहे .तोयानां कर्माणि प्रोक्तानि बुधोजमे गुरोरुदये। चन्छे जलचरराशौ ख १० स्थसिते पुर्वलैरशुन्नैः॥ २३ ॥ बुध अने गुरुनो उदय होय, चंज जळचर राशिमा रह्यो होय, शुक्र दशमा स्थानमा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृती। मशः॥ रह्यो होय श्रने अशुन ग्रहो पुर्वळ होय त्यार वाव, कूवा, तळाव विगेरे जळाशयोनां कार्यों करवां शुज . ।इति जलाश्रयादि । २७ उकान मांझवार्नु मुहूर्त कहे .शुजदा यध्योमचरैः सौम्यैर्लग्नानवित्तलालगतैः । क्रूरैर्व्ययाष्टवर्ज विपणिः सेन्दौ सिते लग्ने ॥२४॥ सौम्य ग्रहो लग्नमां, दशमा, बीजा अने अगीयारमा स्थानमां होय, क्रूर ग्रहो बारमा के आवमा स्थानमां न होय अने चंड तथा शुक्र लग्नमां रह्या होय त्यारे नवी चुकान मांगवी शुजदायक . ।इति विपणिः। २८ धनने निधानमां मूक अथवा कोइने देवु ए विगेरे धनना प्रयोगर्नु मुहूर्त कहे जे.--- वित्तप्रयोगकालश्चरोदये पुत्रधर्मकेन्जेषु । शुनयुक्तेष्वथ निधने ग्रहरहिते शोलनः प्रोक्तः॥२५॥ चर लग्नमां पांचमुं, नवमुं अने केन्मस्थान शुल ग्रहोए युक्त होय श्रने बाग्मुं स्थान , ग्रह रहित होय त्यारे वित्त (धननो) प्रयोग (न्यासादिक ) शुल कह्यो . इति वित्तप्रयोगः। एं हवे करीयाणांना क्रय विक्रयर्नु मुहूर्त कहे जे.दशमैकादशे लग्ने वित्तकेन्द्र त्रिकोणगैः । शुग्नैः पण्यस्य कर्मोक्तं वर्जयित्वा घटोदयम् ॥ २६ ॥ पोतानी जन्मराशिथी अथवा जन्मलग्नथी दशमे, अगीयारमे लग्ने, बीजे, केंछस्थाने अने त्रिकोण एटले नवमे तथा पांचमे स्थाने शुन ग्रहो रह्या होय त्यारे पएयनांक (करीयाणां )नो क्रय विक्रय शुक्ल ने, परंतु एक कुंन लग्ननो त्याग करवो. (कुंज खन्न न होवू जोश्ए.) ।इति क्रयविक्रयौ । ३० हवे रसना संग्रह करवा विषे तथा चोरी करवा विषे कहे जे. चन्मोदये तदिवसे केन्जेज्ये रससंग्रहः । स्तेयस्य समयो लग्ने बुधे नौमे ननःस्थिते ॥ २७ ॥ लग्नमां चंज रह्यो होय अने गुरु केंस्थानमा रह्यो होय त्यारे रस ( घी, तेल विगेरे )नो संग्रह करवो शुनकारक . लग्नमां बुध होय अने दशमा स्थानमा मंगळ होय त्यारे चोरी करवायी लान थाय जे. । इति रससंग्रह ३१ स्तेये ३२। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ॥ " नामछि॥ हवे साम्रीत कहे .व्ययनैधनसंशुधौ सद्दष्टापये। सर्वारनेषु संसिधिश्चन्छे चोपचयस्थिते ॥२॥ बारमुं अने बाग्मुं स्थान शुद्ध होय ( कोश् ग्रहो न होय ) तथा इष्ट पुरुषना जन्मलग्नथी अथवा जन्मनी राशिथी उपचयस्थानमां एटले ३-६-१० अने ११ मा स्थानमां रहेली राशि लग्नमां रही होय तथा उपचयस्थानमां चंज रह्यो होय त्यारे श्रारंनेखां सर्वे शुल कार्यनी सिद्धि प्राय . प्रायः शुला न शुलदा निधनव्ययस्था, धर्मान्त्यधीनिधनकेन्जगताश्च पापाः। सर्वार्थसिद्धिषु शशी न शुलो विलग्ने सौम्यान्वितोऽपि निधनं न शिवाय लग्नम् ॥ २५॥ श्रापमा अने बारमा स्थानमा रहेला शुन ग्रहो पण प्राये करीने शुल फळने देनारा नथी, तथा नवमा, बारमा, पांचमा, थाउमा अने केंज (१-३-H-१०)स्थानमा रहेला क्रूर ग्रहो पण शुनदायक नथी.तथा चंज शुन ग्रहो सहित होय तो पण ते लग्नमां सर्व कार्यनी सिझमां शुनकारक नथी. तेमज थाउमुं स्थान लग्न होय एटले के श्ष्ट पुरुषनाजन्मसाथी अथवा जन्मराशिथी श्रापमुं लग्न होय तोते कोइ पण कार्यमा सेवा योग्य नथी. ___ हवे क्रूर कार्यने आश्रीने कहे बे.अनिचारविधिर्बलवांश्चन्छे क्रूरस्य योगवर्गस्थे। रिपुनिधने लग्नस्थे रिष्टयोगे वुधे बलिनि ॥ ३० ॥ हणवाने श्छेला शत्रुना जन्मलग्नथी अथवा जन्मराशिथी श्रावमी राशि लग्नमां रही होय, रिष्ट योगमां बुध बळवान् होय अने चंगने क्रूर ग्रहनो योग होय अथवा क्रूर ग्रहना वर्गमां चंज रहेलो होय त्यारे अनिचारनो प्रयोग वळवान् (सिधिकारक) जे. इत्यादि. श्रा घारनां सर्व कार्यामां जेटलां निरवद्य ( पाप रहित ) कार्यों बे, तेटलां कार्यो शुनने श्चता पुरुषोए आदरवा योग्य ने, अने जेटलां कार्यो धर्मने बाधा करनारां , तेटलां पापथी जय पामनार पुरुषोए त्याग करवा योग्य वे. तथा पाप व्यापारमा प्रवतेला पुरुषो पासे तेवां कार्योनी प्ररूपणा पण करवी नहीं. इति कार्यघारम् । ॥ इति श्रीमति श्रारंसिधिवार्तिके कार्यपरीक्षात्मकस्तृतीयो विमर्शः॥३ १ मंत्रादिकना प्रयोगथी शत्रुनो नाश करवो ते. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ । अथ चतुर्थो विमर्शः। अथ गमघारम् । हवे गमधार कहे , तेमां प्रथम प्रस्थान विधि कहे .प्रस्थानमन्तरिह कार्मुकपञ्चशत्याः, प्राहुधेनुदेशकतः परतश्च नूत्यै । सामान्य १ मांगलिक २ नूमिजुजां क्रमेण, स्यात् पञ्च १ सप्त २ दश ३ चात्र दिनानि सीमा ॥१॥ अर्थ-प्रस्थान एटले यात्राना मुहूर्त्तने साधवा माटे आगळथी जे करवामां आवे रे ते ( पस्तार्नु), आ प्रस्थान दश धनुषधी उपरांत अने पांचसो धनुषनी अंदर, एटलुं दूर करवाथी शुल . तेना समयनी सीमा सामान्य माणसोने १, मांगलिक राजाने २ तथा पृथ्वीपतिने अनुक्रमे पांच, सात अने दश दिवसनी बे. यात्रामा जे तिथि, वार अने नक्षत्र कहेवामां आवशे, ते ज या प्रस्थानमां पण जाणवां. ते प्रस्थान राजा तथा आचार्य विगेरेए पोतानी जाते ज करवानुं . तेमा उत्र, धनुष, खङ्ग, शय्या, आसन, आयुध, बख्तर, दर्पण विगेरे प्रस्थाननी वस्तु तथा अक्षमाळा अने पुस्तक विगेरे वस्तु चंदनपूजादिक पूर्वक स्थापवी. श्वेत वस्त्रादिक पण स्थापवां, परंतु काळु वस्त्र, जीर्ण वस्त्र विगेरे स्थापq नहीं. तेमज शंख, मदिरा, औषध, सवण, तेल, गोळ, जोमा विगेरे तथा बीजी पण जीर्ण वस्तु स्थापवी नहीं. ते प्रस्थान नजीकमां नजीक दश धनुष उपर अने वधारेमां वधारे पांचसो धनुष सुधीमा मूक. अहीं चोवीश आंगळनो एक हाथ, अने चार हाश्रनुं एक धनुष ए धनुषनुं प्रमाण जाणवू. वृद्ध परंपरा एवी डे के प्रस्थान दक्षिण बाजुए मूक. आ प्रस्थान पृथ्वीपतिने-मोटा राजाने दश दिवस सुधी पहोंचे बे, एटले के प्रस्थान को पठी एक स्थान दश दिवसर्नु उलंघन न करवं, पण दश दिवसनी अंदर आगळ प्रयाण करवं. ते ज प्रमाणे मांगलिक राजाए सात दिवसनी अंदर प्रयाण करवू, अने बीजा सामान्य मनुष्योए पांच दिवसनी अंदर प्रयाण करवू. कदाच कोश् कारणथी वधारे वखत एक स्थाने रहेवू पमे अथवा प्रस्थाननी वस्तु राखी मूकवी पमे तो फरीश्री बीजुं मुहूर्त लश्ने प्रस्थान करेला स्थाननी आगळ चालवू, पण प्रथमना मुहूर्त्तना बळयी चालवू नहीं. विशेष ए जे जे कोश्क स्थाने एटले शत्रु राजादिकना स्थाने जवाना उद्देश (इरादा)थी ते स्थान प्रत्ये सारा लग्न मुहूर्ते चालेला राजा विगेरे घणां प्रयाणो चालीने पनी Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ॥थारंसिधि॥ (पचमां ) कोइ एक प्रदेशमां वधारे मुदत रहे तो ते बाबतमां अन्यना मतो था प्रमाणे जे.-"जो कोइ स्थाने त्रण दिवस सुधी रहे तो पनी आगळ सारा मुहूर्तमां बळ तश्ने ज चालवु.” एम गौतम कहे . “पांच दिवस रहे तो फरीथी मुहूत्त लेवू.” एम अत्रि कहे . "सात दिवस रहे तो बीजुं मुहूर्त लेवू." एम वामन कहे . लस पण कहे जे के “योधानामवि(नुरोधेन तोयेन्धनवशेन वा । त्र्यादिरात्रोपितां सेनां पुनर्जप्रेण योजयेत् ॥ १॥" "योधाउना अनुसरवावमे करीने ( तेनी चाथी) अथवा जळ अने इंधनना कारपथी त्रण, पांच के सात दिवस सुधी रहेली सेनाने फरीथी कट्याण साथे जोमवी एटले के प्रयाण वखते फरीश्री शुभ मुहूर्त लेवं." परंतु या सर्वे मतो अयोग्य , केमके "प्रथम सारं मुहूर्त निश्चय करीने चाले पछी घेर न आवे त्यांसुधी तेनुं ते ज खग्न-मुहूर्त चाले जे एम घणानो मत .” ए प्रमाणे रत्नमाला नाष्यमां का . तथा एक सारा मुहर्ते तथा शुल लग्ने चालेखाए एक ज यात्रा करीने पाग फरवू, पण प्रथमना लग्न मुहूर्त्तना बळे करीने ज बीजी यात्रा पण न करवी. ते विषे लहस कहे जे के-"संसाध्यैकां यात्रां वीर्यादवहीयते ग्रहः सर्वः" । "एक यात्राने सिद्ध करीने सर्व ग्रहो बळहीन थाय जे.” वहाणना प्रस्थानने श्राश्रीने व्यवहारसारमां था प्रमाणे लख्युं . "रेवत्यां तु समुत्थानं श्रेष्ठं स्वामिहितावहम् । अश्विन्यां गतगामित्वं नौनवेद्बहुरत्ननृत् ॥ १॥ अनुराधामृगे चैव धनिष्ठाहस्तवैष्णवे । प्रस्थापयेत्ततो नावं सर्वकामसमृधये ॥२॥ पूर्वाफगुनिसौम्ये च हस्तचित्रासु वैष्णवे। वादित्रमंगलैश्चापि पोतं संचारयेजाले ॥३॥" "रेवती नक्षत्रमा वहाण तैयार करवु श्रेष्ठ ने तथा स्वामीने हितकारक ले. अश्विनीमां ते (वहाण )मां करीयाणां नरवायी वहाण घणां रत्नोथी पूर्ण थाय ने, अनुराधा, मृगशिर, धनिष्ठा, हस्त, श्रवण, एटलां नत्रोमां वहाणनुं प्रस्थान करवू ए सर्व कामनी सिधिने माटे , तथा पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिर, हस्त, चित्रा, अने श्रवण नक्षत्रमा वाजिन मंगळे करीने वहाणने जळमां चलाववं ए शनकारक." मळ श्लोकमां सीमा शब्द लख्यो ने तेथी पांचमे विगेरे दिवसे चालवू ज जोइए एवो नियम कर्यो . हवे यात्रामां शुज एवां नव नदत्रोमांनां कयां नक्षत्रोमा प्रस्थान करेलो पुरुष पांच दिवस पहेखां पण चाली शके ? ते कहे . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थी विमर्शः ॥ श्रुतौ तदन्येयुर्धनिष्ठापुष्यपौष्यने । तृतीये मैत्रमृगयोर्हस्ते तुर्येऽहनि व्रजेत् ॥ २ ॥ अर्थ - जो श्रवण नक्षत्रमां प्रस्थान कर्यु होय तो ते ज दिवसे प्रस्थानना स्थानथी गळ चालवं, धनिष्ठा, पुष्य ने रेवतीमां प्रस्थान कर्यु होय तो बीजे दिवसे प्रयाण कर, अनुराधा के मृगशिरमां प्रस्थान कर्यु होय तो त्रीजे दिवसे प्रयाण कर, छाने हस्त नक्षत्रमां प्रस्थान कर्यु होय तो चोथे दिवसे चालवुं. अवशेषथी अश्विनीने पुनर्वमां प्रस्थान कर्य होय तो पांचमे दिवसे अवश्य चालवुं जोइए. ए ज प्रमाणे सात दिवस दश दिवस विषे पण संप्रदाय प्रमाणे आगळना दिवसोमां प्रयाणनो नियम करी लेवो. हवे प्रयाणना समयनी शुद्धि कहे बे. - यात्रा दिनतिथिताराबलशुद्ध मृगकरानुराधासु । आश्विन पौष्णधनिष्ठा श्रुत्यादित्यद्वये श्रेष्ठा ॥ ३ ॥ अर्थ-दिवस, तिथि अने ताराबळनी शुद्धि होय तथा मृगशिर, हस्त, अनुराधा, अश्विनी, रेवती, धनिष्ठा, श्रवण, पुनर्वसु ने पुष्य, ए नक्षत्रोमांनुं कोइ एक होय त्यारे यात्रा ( प्रयाण) श्रेष्ठ बे. ૨ दिवसनी शुद्धि हर्षप्रकाशमां या प्रमाणे कही बे. - " रयन्न १ मन्नं २ पर्यंरूपवणं ३ तहास निग्धायं ४ | परिवेस ६ दिसादाहाइ प्रजु दिएं छं ॥ १ ॥ " सुर "आकाश धूळथी व्याप्त होय १, आकाश वादळांथी व्याप्त होय २, प्रचंक पवन वात होय ३, वज्रघात थतो होय ( गरुगकाट थता होय ) ४, आकाशमां इंद्रधनुष खेंच्युं होय ५, चंद्र तथा सूर्यने फरतुं कुंमालुं थयेल होय ६, तथा दिशा बळती होय 9, तो ते दिवस पुष्ट बे एम जाणवुं. अहीं वर्षाऋतु विना आवां चिह्नो थतां होय तो ज ष्ट दिवस जावो. एम सर्वत्र जाणवुं. या चिह्नोथी रहित एवो दिवस शुद्ध जाणवो.” अथवा तो सौम्य वारोए करीने दिवसनी शुद्धि जाणवी. ते विषे व्यवहारसारमां कबे के - “गमनेऽर्कादयो वाराः क्रमशः कुर्वते फलम् । नैः स्व्यं १ धनं २ रुजं ३ प्रव्यं ४ जयं ए चैव श्रियं ६ वधम् ॥ १ ॥” " प्रयाणने विषे रवि विगेरे वारो अनुक्रमे श्र प्रमाणे फळने आपे बे. - निर्धनता १, धन २, रोग ३, धन ४, जय ए, लक्ष्मी ६ ने वध-नाश प्र. " " राजादिकने प्रयाणमां रविवार पण शुन बे, " एम व्यवहारप्रकाशमां कहां बे. तथा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ॥ आरंसिद्धि । हर्षप्रकाशमां कहेल डे के-“पमिवश्नवमनमिचउदसीसु गमएंकरे न बुहवारे" एकम, नोम, श्रापम अने चौदसे गमन करवं, पण बुधवारे गमन न करवं. अथवा वारनी शुद्धि यतिवक्षनमां आ प्रमाणे कही बे. "चैत्राद्या विगुणा मासा वर्तमानदिनैर्युताः। सप्तन्निस्तु हरेनागं यजेषं तद्दिनं नवेत् ॥ १॥ श्रीदिनः १ कलहश्चैव २ नन्दनः ३ कालकर्णिका ।। धर्मः ५ यो ६ जय ७ श्चेति दिना नामसदृक्फलाः॥२॥" "चैत्रादिक मासथी गणतां जेटलामो मास चालतो होय तेने बमणा करवा, तेमांरविवारादिकथी गणतां चालतो दिवस जेटलामो होय तेटला उमेरवा. पनी तेने सातेनागवा. जेटला शेष रहे तेटलामो ते दिवस अनुक्रमे आ प्रमाणे जाणवो-श्रीदिन १, कलह २, नंदन ३, कालकर्णिका , धर्म ५, क्षय ६ अने जय 9. श्रा दिवसोनुं शुनाशुन फळ पोताना नाम प्रमाणे जाणवू." तिथिमां पक्ष, विष, अवम, फटगु, दग्ध अने क्रूरं ए नामनी तिथिनो त्याग करवाश्री तिथिनी शुद्धि कहेवाय , पूर्णिमा पण त्याज्य बे. ते विषे व्यवहारसारमा कडं ले के“पूर्णिमायां न गन्तव्यं यदि कार्यशतं भवेत्" "सो कार्य होय तोपण पूर्णिमाने दिवसे प्रयाण करवू नहीं. तारानी शुद्धि माटे “जन्म तारा श्राधान तारा” विगेरे प्रथम कहुं , ते प्रमाणे जाएवं. यात्रामां तारानुं बळ अवश्य ग्रहण करवा योग्य . नक्षत्रोमां अजिजित् पण यात्रामा श्रेष्ठ बे. ते विषे लन कहे के-"अनिजिति कृतप्रयाणः सर्वार्थान् साधयेनियतं” “अनिजितमां प्रयाण करनार सर्व कार्यने अवश्य साधे .." वळी दिनशुद्धिमा था प्रमाणे विशेष कर्तुं ने के "दसमि तेरसि पंचमि बीअगो, निगुसुन गमणेऽतिसुहावहो । गुरु पुणवसु पुस्स विसेस, सयनिसा अणुराह बुहे तहा ॥१॥" "गमनमां दशमी, तेरस, पांचम, बीज ने शुक्रवार अति शुलकारक . पुनर्वसु, पुष्य श्रने गुरुवार विशेष करीने शुजकारक . तथा शतभिषक् अने अनुराधा बुधवारे शुजकारक ." तथा चंग संबंधी गोचरनु, शिव नुजग श्रादि दिवस रात्रि मुहूर्तोर्नु, अने लग्नबल होय तो मुहूर्त ग्रहण करवं. “पहि कुसलु लग्गि तिहिं कऊसिद्धि लानं मुदुत्त हो। रिकेणं श्रारुग्गं चंदेणं सुरकसंपत्ती ॥१॥" Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ।। "शुज लग्नश्री मार्गमा कुशल होय. शुन्न तिथिश्री कार्यसिद्धि थाय. शुल मुहूर्त्तथी साल थाय. शुल नक्षत्रथी आरोग्य थाय. अनुकूल चंथी सुखप्राप्ति थाय.” तथा "शुल लग्ने करीने सर्वे तिथ्यादिकना गुणो पमाय बे." एम लल्ल कहे . हवे प्रयाणमां मध्यम अने निंद्य नक्षत्रो कहे .मध्या तु ध्रुवपूर्वाज्येष्ठाघ्यवारुणेषु यात्रा स्यात् । । निन्द्यानिरणीध्यचित्रात्रयसापेपेत्रेषु ॥४॥ अर्थ-धुव नक्षत्र (रोहिणी अने त्रणे उत्तरा), पूर्वा त्रणे, ज्येष्ठा, मूळ अने शतजिषकमां यात्रा मध्यम फळवाळी , अने श्रार्ज, नरणी, कृत्तिका, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अश्लेषा अने मघा, पाटलां नदत्रोमां यात्रा करवी निंद्य-अशुल वे. "श्रा निंद्य नक्षत्रोमां प्रयाण कर्यु होय तो ते कदापि पागे आवतो नथी,” एम व्यवहारसारमा कडं . नारचंजमां तो था प्रमाणे कडं ने के-"ज्येष्ठा अने मूळमां यात्रा करवी श्रेष्ठ ने, चित्रा, स्वाति, श्रवण अने धनिष्ठामां मध्यम ने, तथा त्रण उत्तरामां निंद्य जे.' विशेष प्रा प्रमाणे जाणवू. "अशुने ने शुने धने दिवा यात्रादि साधयेत् । शुले ने त्वशुले घने रात्रौ यात्रादि साधयेत् ॥ १॥" "श्रशुन नक्षत्र होय अने शुल दिवस होय तो दिवसने विषे प्रयाणादिक करवं, तथा नक्षत्र शुन होय अने दिवस अशुन होय तो प्रयाणादिक रात्रिए करवू," कारण के-“नत्रं बलवप्रात्री दिने बलवती तिथिः” । “रात्रिए नक्षत्र बळवान् होय , अने तिथि दिवसे बळवान् होय जे,” एम लक्ष कहे ... हवे नत्रने आश्रीने यात्रामां दिनांशनो नियम कहे .न दिवाये ध्रुव मिस्तीदणैर्मध्येऽथ लघुनिरन्त्येशे। अंशेष्विति रात्रेरपि मैत्रो १ अ २ चरै ३ न नैर्यात्रा ॥५॥ अर्थ-दिवसना त्रण नाग करवा, तेमां पहेला नागमां ध्रुव अने मिश्र नक्षत्र होय तो यात्रा न करवी, बीजा नागमा तीक्ष्ण नक्षत्र होय अने त्रीजा नागमां लघु नक्षत्र होय तो यात्रा न करवी. ए ज रीते रात्रिना पण पहेला जागमां मैत्र नक्षत्र होय, बीजामां उग्र होय अने त्रीजामां चर नदत्र होय त्यारे यात्रा (प्रयाण ) न करवी. तेना फळ विषे लट्स कहे जे के “धनहानिर्मृत्यु नियतो नंगः पराजयश्चैव । यस्मादेनिः कालैः प्रायेण विवर्जयेत्तस्मात् ॥ १॥" "जेथी करीने या उपर कहेला काळे प्रयाण कर्यु होय तो प्राये करीने धननी हानि, आ०२४ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ॥थारंलसिद्धि॥ मृत्यु, अवश्य जंग अथवा पराजय थाय बे,तेथी करीने ए नक्षत्रो एकाळे वर्जवा योग्य जे." श्रा उपर कहेला काळे पण प्रयाण अश् शके, तथा आगळ कहेवाशे एवा परिघमां पण प्रयाण श्रश् शके. एवां नक्षत्रो कहे . सर्व दिग्छारको पुष्यहस्तौ मैत्राश्विनीयुतौ। तावेव सर्वकालीनौ मृगश्रुतिसमन्वितौ ॥ ६ ॥ अर्थ-पुष्य, हस्त, अनुराधा अने अश्विनी, ए नक्षत्रो सर्व (आ) दिशामां बार (मुख )वाळां , एटले के श्रा नक्षत्रोमा परिघ के नक्षत्र दिक्शूळ होतो नथी. नारचंधमां कडं बे के श्रवण अने रेवती पण सर्व दिशामां घारवाळांबे. पुष्य, हस्त, मृगशिर थने श्रवण, ए नक्षत्रो सर्वकालीन ( सर्व काळवाळां ) , एटले के श्रा नक्षत्रोमां उपरनो (पांचमो) श्लोक गणवो नहीं अर्थात् आ नक्षत्रो होय तो उपरनो थशुन काळ पण शुज गणवो. दिनशुधिमां तो दिग्यात्रामा उ नक्षत्रोने सर्व दिशामां सर्वकालीन कह्यां - "सबदिसि सबकालं रिधिनिमित्तं विहारसमयम्मि । · पुस्सस्सिणि मिग हत्था रेवर सवणा गहेअबा ॥१॥" "पुष्य, अश्विनी, मृगशिर, हस्त, रेवती अने श्रवण, ए उ नक्षत्रो सर्व दिशामा सर्व कालीन ने, तेमने विहारसमये समृधिना निमित्ते ग्रहण करवां, एटले के ए नक्षत्रोमां प्रयाण करवाथी समृद्धि मळे जे.” __ हवे यात्रामां दिशानी शुद्धि कहेवा माटे परिघ कहे जे.सप्त सप्त गमने वसुदाछुत्तराप्रतिदिन शुनानि । वहिवायुपरिघोऽत्र न लंध्यो, मध्यमानि तु मिथः स्खदिशोः स्युः७ अर्थ-उत्तर दिशाथी श्रारंजीने चारे दिशामां धनिष्ठा नक्षत्रथी सात सात नक्षत्रो गमन करवामां शुल . आ गमनमां अग्नि अने वायव्य कोणनो परिघ उलंघन करवा योग्य नथी थने पोतानी बे दिशानां नत्रो परस्पर स्व कहेवाय , ते गमनमां मध्यम जे. धनिष्ठा नक्षत्रयी आरंजीने सात सात नत्रो उत्तर विगेरे चारे दिशामां गमन करवाने विषे शुज ने, एटले के था सात सात नत्रो उत्तरादिक दिशाना धारवाळां जे.धनिष्ठाथी सात नक्षत्रो उत्तर कारवाळांबे, तेथी ते नक्षत्रोमां उत्तर दिशानुं प्रयाण शुन बे. ए रीते चारे दिशामां जाणवू. स्थानांग सूत्र अने चंचप्राप्तिनी वृत्ति विगेरेमां लख्यु ने के-“धनिष्ठानी जेम कृत्तिकाथी वारंनीने, मघाथी आरंजीने अने अनुराधाथी भारतीने सात सात नक्षत्रो अनुक्रमे पूर्व, दक्षिण अने पश्चिम दिशाना कारवाळां ने, तेथीते ते नक्षत्रोमां ते ते दिशामां यात्रा करवी शुल." Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो घिमर्शः॥ । अहीं सप्त रेखावाळा चक्रनी जेम पूर्वादिक चार दिशामां कृत्तिकाथी सात सात नक्षत्रो स्थापवां, अने अग्नि तथा वायव्य खूणामां तांबो परिघ करवो. परिघ यंत्र. कृ रो मृ आ पु पु अM | ध श पू उ रे अन । दक्षिण | म पू उ ह चि स्वा वि K KAŁ X kesks KI यव्या श्रा अग्नि श्रने वायव्य खूणानी वच्चैनो रेखारूप परिघ उबंधन करवा योग्य नथी, एटले के धनिष्ठा विगेरे चौद नक्षत्रोमां उत्तर अने पूर्वमां ज जवू, अने मघा विगेरे चौद नक्षत्रोमां दक्षिण अने पश्चिममा ज गमन करवू, पण उत्तर अने पूर्वना पारवाळां नक्षत्रमा दक्षिण के पश्चिममां गमन न करवू इत्यादि. तेमां पण परस्पर स्वजनरूप नक्षत्रो के जे परिघना एक नागमां (उत्तर पूर्वमां अमे दक्षिण पश्चिममां ) जे नक्षत्रो रहेलां ने तेनी बन्ने दिशानां ते ते नक्षत्रो यात्रामां मध्यम , एटले शुन पण नथी तेमज अशुल पण नथी. तात्पर्य ए जे जे धनिष्ठादिक सात नक्षत्रोना कृत्तिकादिक सात नक्षत्रो स्वजन बे, अने ते ( स्वजन )नी दिशा पूर्व ने, तेथी ते (पूर्व )मां गमन करवामां धनिष्ठादिक सात नक्षत्रो मध्यम ने, ए रीते कृत्तिकादिक सात नक्षत्रोना धनिष्ठादिक सात नक्षत्रो स्वजन डे अने तेनी दिशा उत्तर बे, तेथी उत्तरमां गमन करवामां कृत्ति कादिक सात नक्षत्रो मध्यम जे. ए रीते ज बीजी बे दिशामा जाणी खेवु. अहीं कोई शंका करे के-श्रा परिघ कहेवाथी दिशा श्राश्री नक्षत्रनो नियम कह्यो, Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ॥ आरंजसिछि॥ पण विदिशा (खूणा )उमां गमन करवा विषे नक्षत्रनो शो नियम थयो ? तेनो जवाब ए ने जे-पूर्व कारनां नक्षत्रोमां अग्नि कोण तरफ गमन करवू, दक्षिण कारनां नक्षत्रोमां नत्य खूणामां गमन करवू, पश्चिम दारवाळामां वायव्य तरफ अने उत्तर धारवाळामां ईशान तरफ गमन करवू. या रीते विदिशा दिशाउने अनुसरे ने, माटे तेने श्राश्रीने पण नियम प्रगट ज . दैवज्ञ वखन पण कहे जे के-"यायात् पूर्वधारनरग्निकाष्टां प्रादहिण्येनैवनाशाविपूर्वाः” “पूर्व घारनां नक्षत्रोमां अग्नि खूणा तरफ जवू, ए रीते बीजी विदिशा पण प्रदक्षिण क्रमे करीने जाणवी.” पूर्णन तो आ नियम साथे था प्रमाणे विशेष कहे बे. "स्वामिनः सप्त लौमाद्याः क्रमतः कृत्तिकादिषु । प्राच्यादौ तत्सनाथेषु नेषु यात्रा महाफला ॥१॥" “कृत्तिकादिक सात नक्षत्रना अनुक्रमे मंगळथी आरंजीने चंड पर्यंत सात स्वामी वे. ए रीते मघादिक विगेरेमां पण मंगळथी आरंजीने ज स्वामी जाणवा. तेमां कृत्तिका श्रने मंगळवारे पूर्व दिशामां गमन करवू एम ते ते नक्षत्रोमां ते ते वारे ते ते दिशामां गमन करवाथी महाफळ प्राप्त थाय जे." "प्राच्यादिषु चरन् जानुः सप्तके कृत्तिकादिके।। वितनोति दिशामस्तं यात्रा तासु कृता श्रिये ॥२॥" "कृत्तिकादिक सात सात नत्रोमा पूर्वादिक दिशाउने विषे चालतो सूर्य दिशाउने श्रस्त करे , तेथी ते दिशामा करेली यात्रा (गमन ) लक्ष्मीने माटे बे." हवे परिघनो अपवाद तथा नक्षत्र शूळ कहे . उबंध्यः परिघोऽपि लग्नबलतः शूलं तु नानां सदा, हेयं तच्च पुनः सुरेश्वरदिशि ज्येष्ठाम्बुविश्वोडुनिः। राधावैष्णववासवाजपदर्याम्यां प्रतीच्यां पुन ाया मूलयुजा तथोत्तर दिशि स्यादर्यमण च ॥७॥ अर्थ-खग्नना बळथी परिघनु पण नबंधन करवू, एटले के शत्रुसैन्यनु आगमन विगेरे एकांतिक (आवश्यक ) कार्योमां गमन करवानी दिशानुं मुख शुछ होय-यात्रानुं लग्न ग्रहना बळथी युक्त होय त्यारे परिधनुं उलंघन करवामां दोष नथी, परंतु नक्षत्र शूळ सदा त्याग करवा लायक डे, एटले के शूळ नक्षत्र होय तो लग्ननी शुद्धि तां पण गमन न करवं, कारण के नक्षत्र शूळनो दोष शुध लग्नयी पण नाश पामतो नथी. ते विषे व्यवहारप्रकाशमां कडं बे के-"त्यजेबग्नेऽपि शूलई शूलीं नास्ति निर्वृतिः।" "खग्न शुध Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ १०ए बतां पण शूळ नक्षत्र वर्जवा योग ने, केमके शूळ नक्षत्रमा गमन करवाथी पाळु अवातुं नश्री.” ते नक्षत्र शूळ आ प्रमाणे .- , ___ ज्येष्ठा, पूर्वाषाढा अने उत्तराषाढा ए पूर्व दिशामां नक्षत्र शूळ जे. दक्षिणमा विशाखा, श्रवण, धनिष्ठा अने पूर्वानापद ए नत्र शूळ . पश्चिममा रोहिणी अने मूळ नक्षत्र शूळ बे. तथा उत्तर दिशामां उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र शूळ जे. (आ नत्र दिकशूळ कहेवाय ने.) पूर्णन तो था प्रमाणे नक्षत्र दिक्शूळ कहे जे.“पूबा जिज्ञऽसाढा धणि पुवनद्द दाहिण दिसाए । रोहिणि मूलऽवराए विसाह पुवफग्गुणुत्तर ॥१॥" "पूर्व दिशामा ज्येष्ठा, पूर्वापाढा अने उत्तराषाढा नदत्र शूळ , दक्षिणमां धनिष्ठा अने पूर्वालाप्रपद नक्षत्र शूळ , पश्चिममां रोहिणी अने मूळ नक्षत्र शूळ चे, तथा उत्तरमां विशाखा अने पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र शूळ .” “पश्चिम दिशामां पुष्य ने उत्तरमां हस्त नक्षत्र शूळ बे,” एम नारचंजमां कडं बे. यतिवद्धनमां तो नक्षत्र कील आ प्रमाणे कहे . नक्षत्र कील विषे. "ज्येष्ठा १ लपदा पूर्वा रोहिण्यु ५ त्तरफटगुनी ।। पूर्वादिषु क्रमाकीला गतस्यैतेषु नागतिः॥१॥ औत्सुक्याद्यदि पूर्वोक्तदंमलंघनवर्जने । असमर्थस्तदावश्यं दिक्कीलान् वर्जयेदिमान् ॥२॥" "पूर्वमा ज्येष्ठा, दक्षिणमा पूर्वानाऽपद, पश्चिममां रोहिणी अने उत्तरमा उत्तराफाल्गुनी, ए नक्षत्र कील कहेवाय . आनत्र कीलमां जो गमन करे तो ते पागे आवे नहीं. जो कदाच कार्यनी उत्सुकताथी पूर्वे कहेला दंमना उलंघनने वर्जी न शके तो अवश्य आ दिकूकीलने वर्जवा.” लोकमां तो आ प्रमाणे कहेवाय जे.“उत्तर हत्था दरिकण चित्ता, पुवा रोहिणि सुणि रे पुत्ता। पछिम सवणा म करिस गमणा, हरि हर बंन पुरंदर मरणा ॥१॥" "हे पुत्र ! सांजळ. हस्त नक्षत्रमा उत्तर तरफ, चित्रामा दणि तरफ, रोहिणीमा पूर्व तरफ अने श्रवणमां पश्चिम तरफ गमन करीश नहीं, केमके तेमां गमन करवाथी हरि, हर, ब्रह्मा बने इंच जेवार्नु पण मरण थाय.” हवे वारने आश्रीने दिक्शूळ तथा विदिक्शूळ कहे .शूलं सोमे शनौ च प्राग्गुरौ दक्षिणतस्त्यजेत् । रवौ शुक्रे च वारुण्यामुत्तरेण कुजझयोः ॥ ए॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंभ सिद्धि ॥ आग्नेय्यादिविदिक्शूलं क्रमादादित्यजीवयोः १ । शीतांशुशुक्रयो २ जममन्दयो ३ ईस्य ४ च त्यजेत् ॥ १० ॥ अर्थ- सोम ने शनिवारे पूर्व दिशामां शूळ होय, गुरुवारे दक्षिणमां, रवि तथा शुक्रवारे पश्चिममां ने मंगळ तथा बुधवारे उत्तरमां दिक्शूळ होय. दिक्शूळ सन्मुख होय तो त्यां गमन कर नहीं. रवि ने गुरुवारे अग्निमां शूळ होय, सोम ने शुक्रवारे नैर्शत्यमां शूळ होय, मंगळ अने शनिवारे वायव्यमां शूळ होय, तथा बुधवारे ईशानमां शूळ होय. श्रा विदिक्शूळ कद्देवाय बे. दिक्शूळनुं कोष्टक विदिक्शूळनुं कोष्टक. १५० पूर्व दक्षिण गुरु. पश्चिम उत्तर अवश्यना कार्य विधान कहे बे. - . सोम, शनि. रवि, शुक्र. अनि रवि, गुरु. नैर्कत्य सोम, शुक्र. वायव्य मंगळ, शनि. ईशान बुध. मंगळ, बुध. माटे दिक्शूळ तथा विदिक्शूळमां जनुं पये तो तेने माटे दिक्शूलध्वंसि वन्देत चन्दनं १ दधि २ मृत्तिकाम् ३ | तैलं पिष्टं ५ च सर्पिश्च ६ खलं 9 चार्कादिषु क्रमात् ॥ ११ ॥ ४ अर्थ - रवि विगेरे वारमां अनुक्रमे चंदन १, दहीं २, माटी ३, तेल ४, आटो ए, घी, ६ ने खोळ 9, ए चीजोनुं वंदन ( तिलक ) करवुं, तेथी दिक्शूळ तथा विदिक्शूळनो नाश थाय बे, एटले के रविवारे चंदननुं तिलक कर, सोमवारे दहींनुं तिलक कर विगेरे. योगिनी कहे . -- स्याद्योगिनी शक्र १ कुबेर २ वह्नि ३ - रक्षो ऽन्तका ५ प्पत्य ६ निले ७ शदिक्षु । यातुन नव्या प्रतिपन्नवम्या दितो विना पश्चिमवामजागौ ॥ १२ ॥ अर्थ - पवाथी ( एकमथी ) आरंजीने तथा नोमथी आरंभीने अनुक्रमे पूर्व १, उत्तर २, अग्नि ३, नैर्ऋत्य ४, दक्षिण ए, पश्चिम ६, वायव्य ने ईशान, ए दिशा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थी विमर्शः ॥ १९१ मां योगिनी होय . ते योगिनी जनार माणसने जे दिशामां जनुं होय ते तरफ जतां वा अथवा माबी बाजुए रहेती होय तो सारी, ने सन्मुख तथा जमणी बाजु श्रवती होय तो ते शुन जावी. वहीं परुवाथी रंजीने एक एक तिथि लेतां श्रवम सुधीमां एक आवृत्ति थाय ठे, बीजी प्रवृत्ति नोमथी लेतां पखवामीयाना अंत सुधी लइए तो सात ज तिथि रहे बे, अने दिशा तो श्राव बे, तो ते शी रीते करवुं ? तेनुं समाधान ए बे जे नोमश्री पूर्णिमा सुधीनी सात तिथि छाने वमी श्रमावास्यानी तिथि लेवी, तेथी पूर्णिमाए वायव्यमां ने अमावास्याए ईशानमां योगिनी होय. एम बीजी आवृत्तिमां पण दरेक दिशामा एक एक तिथि यावी जाय बे. पूर्णजय पण कहे वे के “पू १ २ ३ नै ४ द प ६ वा ७ई दिसिसु परिवर नवमी जोइपिश्रा । वायवि पुन्नमाए ईसाणे अमावसा तदा ॥ १ ॥” " पूर्व १, उत्तर 2, अग्नि ३, नैत्य ४, दक्षिण ए, पश्चिम ६, वायव्य 9 श्रने ईशान , ए व दिशामा अनुक्रमे परुथी छाने नोमथी तिथिने विषे योगिनी थाय बे, मां पूर्णिमा वायव्य खूणामां ने श्रमावास्याए ईशान खूणामां योगिनी श्रावे बे. " योगिनी कोष्टक दिशा | तिथि. १ - ए २-१० पूर्व उत्तर अग्नि नैर्ऋत्य दक्षिण पश्चिम वायव्य ईशान ३-११ ४-१२ ५- १३ ६-१४ १-१५ ८-३० दिशा. पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर धो दिशि ऊर्ध्व दिशि मतांतरे योगिनीनुं कोष्टक. कृष्णपक्षी तिथि | शुक्लपक्षनी तिथि. १-६-११ १-६-११ २-१-१२ ३-८-१३ ४-०-१४ १० ५-१५ केटलाक श्राचार्यो या प्रमाणे योगिनी सुधी पूर्वादिक चार दिशामां योगिनी होय Tor नोम सुधी पूर्वादिक चार दिशा मां रथी चौदश सुधी पूर्वादिक चार दिशामां होय . एज रीते शुक्लपक्ष्मां पण जाणवुं. कहे बे-कृष्णपक्षनी एकमथी घोष बे, अने पांचमे ऊर्ध्व दिशामां होय बे, ने दशमे धो दिशामां होय बे, अगीयाने अमावास्याए ऊर्ध्व दिशामां योगिनी तफावत एटलो बे के शुक्लपक्षमां पांचमे धो दिशामां, दशमे ऊर्ध्व दिशामां ने पूर्णिमाए धो दिशामां योगिनी होय बे. २-१-१२ ३-८-१३ ४-९-१४ ५- १५ १० Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ॥ श्रारंसिद्धि (ते कोष्टक पण उपर श्राप्यु बे.)जे दिवसे जे दिशामां योगिनी होय ते दिशा, तथा ते दिशानी दक्षिण बाजुनी विदिशाना हाथमां कातर के तेथी ते विदिशा, तथा तेनी माबी बाजुनी विदिशाना हाथमां खपर ने तेथी ते विदिशा, या त्रणे दिशा युद्धादिकमां पारळ रही होय तो ज ते शुल बे. व्यवहारप्रकाशमां पण कयुं के “योगिनी देवी पृष्ठे दक्षिणवामे स्थिता विजयदात्री। संमुखसंस्था युधे पराजयं नाशमाधत्ते ॥ १॥" “योगिनी देवी पळवामे, दक्षिण बाजुए तथा माबी बाजुए रही होय तो ते युधमां विजयने श्रापनारी ने, अने सन्मुख रही होय तो ते पराजयने तथा मृत्युने आपे बे." गमनादिक कार्य अवश्यर्नु होय तो गमन वखते योगिनीनी मात्र दृष्टिने ज सन्मुख तजवी. तेनी सन्मुख दृष्टि नारचंघमां आ प्रमाणे कही जे. "ऊर्ध्व तिथिमित १५ नाड्यो दश चाघो १० वाम १० दक्षिणे १० पाच । घटिका पञ्चदशापि १५ च योगिन्याः संमुखी दृष्टिः॥१॥" “योगिनी ऊर्ध्व दिशामां पंदर घमी बे, अधो दिशामां दश घमी ने, वाम (माबी) बाजुए दश घमी, जमणी बाजुए दश घमी ने, अने सन्मुख दृष्टि पंदर घमी." वळी तत्काळयोगिनी पण अवश्य त्याग करवा लायक बे. ते तत्काळयोगिनी दिनशुधिमां आ प्रमाणे कही बे. "दिणदिसि धुरि चउघमिश्रा पुरत पुबुत्तदिसिसु अणुकमसो । तक्कालजोणी सा वोअवा पयत्तेणं ॥ १ ॥" “दिवसनी दिशामा प्रथमनी चार घमी योगिनी रहे , अने पनी अनुक्रमे पीनी दिशामां चार चार घमी रहे , ते तत्काळयोगिनीने प्रयत्नवमे वर्जवी, एटले केजे दिवसे जे तिथि होय ते तिथिनी जे दिशा कही होय ते दिशामां प्रातःकाळे चार घमी सुधी योगिनी रहे , अने त्यारपली उपर कहेला अनुक्रम प्रमाणे बाकीनी दिशाउमां योगिनी रहे . जेमके-एकमने दिवसे पूर्व दिशामां पहेली चार घमी ( अर्ध प्रहर ) योगिनी रहे बे, बीजी चार घमी उत्तरमां, त्रीजी चार घमी अग्नि खूणामां, ए रीते अनुक्रमे ईशान खूणा सुधी अर्ध अर्ध प्रहरो गणवा. बीजने दिवसे पहेलो अर्धप्रहर उत्तर दिशामां, बीजो अर्ध प्रहर अग्नि खूणामां, ए रीते गणतां श्राठमो अर्ध प्रहर पूर्व दिशामां श्रावे . ए प्रमाणे रात्रि दिवसमां श्रश्ने आवे दिशामां बबे वखत योगिनी फरे ने. ___ हवे पाश तथा काळy स्वरूप कहे .पाशो मासस्येष्टस्तिथिरष्टहृतावशिष्ट ऐन्यादौ । तत्संमुखस्तु कालः स तु दक्षिण एव सौख्याय ॥ १३ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ अर्थ-मासनी तिथिने श्रावे लाग लेतां बाकी जे वधे ते (तिथि )ने पूर्वमा मूकवी. त्यारपतीनी तिथि अनुक्रमे अग्नि विगेरे दिशामां मूकवी. ते तिथिए ते दिशामां पाश जे एम जाणवू, अने ते (पाश )नी सन्मुख काळ जाणवो. ते काळ जमणी बाजुए शुज . - अहीं कृष्णपदनी एकमथी मासनो आरंज जाणवो. मासनी तिथि त्रीश), तेथी तेनो श्रावे लाग लेतां बाकी वधे जे, तेथी कृष्णपानी बच्ने दिवसे पूर्व दिशामां पाश बे, सातमे अग्नि खूणामां पाश जाणवो, एम अनुक्रमे गणतां चौदशे ऊर्ध्व दिशिमां श्रने अमावास्याए अधो दिशिमां पाश जाणवो. पजी शुक्ल एकमे पूर्वमां, ए रीते गणतां शुक्ल दशमे अधो दिशिमां, पागे अगीयारशे पूर्वमां, ए रीते गणतां कृष्णपक्षनी पांचमे श्रधो दिशिमां पाश श्रावे . या प्रमाणे त्रण वखत आवर्तन करवाथी मास पूर्ण थाय बे. ।पाशनी स्थापना। | पूर्व [अग्नि | दक्षिण नैर्ऋत्य पश्चिम वायव्य उत्तर ईशान | ऊर्ध्व | श्रधः कृष्ण ६ ७ | ए १० ११ १२ । | शुक्ल १ २ ३ १२ ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । कृष्ण १ २ ३ ४ । ५ पाशनी सन्मुखनी दिशाए काळ जाणवो, एटले. ऊर्ध्व अने अधः ए वे दिशा विना बाकीनी श्राप दिशामां पोतपोतानी पाश दिशाथी पांचमी पांचमी दिशाए काळ होय बे. ज्यारे ऊर्ध्व दिशिए पाश होय त्यारे अधो दिशिए काळ जाणवो, अने ज्यारे अधो दिशिए पाश होय त्यारे ऊर्ध्व दिशिए काळ जाणवो, केमके ए बे दिशानुं सन्मुखपएं एज प्रमाणे होय . दिनशुधिमां कडं बे के "पुवाइ दस दिसाहिं कमेण सिथ पमिवयाइ हुइ पासो । तस्संमुहो श्र कालो गमणे उन्नि वि संमुह वजो ॥१॥" "पूर्वादिक दश दिशामा अनुक्रमे शुक्लपहनी एकमयी श्रारंजीने पाश होय ने, अने तेनी सन्मुख काळ होय जे. ते बन्ने गमनमां सन्मुख वर्जवा योग्य जे." ।काळनी स्थापना। पश्चिम | वायव्य | उत्तर ईशान पूर्व | अग्नि । दक्षिण नैत्य | अधः । ऊर्ध्व कृष्ण ६ | १० ११ १२ १३ १४ शुक्ल १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ए ११ १२ १३ १४ १५ कृष्ण १ २ ३ ४ आ.२५ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ॥शारंसिधि॥ गमन करनारनी मावी बाजुए पाश होय अने जमणी बाजुए काळ होय तो ते शुल बे. ते विषे दिनशुधिमां कडं बे के "कुजा विहारि वामो पासो कालो अ दाहिण" “विहार (गमन )मां पाशने माबी बाजु करवो अने काळने जमणी बाजु करवो.” वास्तुशास्त्रना विधानो तो था प्रमाणे कहे बे.-"शुक्लपत्नी एकमथी चार तिथिउमा पूर्व, अग्नि विगेरे चार दिशामां पाश होय ने अने पांचमे ऊर्ध्व दिशिमां पाश होय . त्यारपजी बच्ची चार तिथि सुधी पश्चिम, वायव्य विगेरे चार दिशामां पाश होय जे अने दशमे अधो दिशिए होय जे. त्यारपनी अगीयारशथीचार तिथि सुधी पूर्व, अग्नि विगेरे चार दिशामां पाश होय, अने पूर्णिमाए ऊर्ध्व दिशिए होय . पनी कृष्णपदनी एकमथी चार तिथि सुधी पश्चिम, वायव्य विगेरे चार दिशामां पाश होय , अने पांचमे अधो दिशिए होय . एज प्रमाणे त्रीजी वार पण गणवू, अने पाशनी सन्मुख दिशामां सदा काळ रहेलो .” या प्रमाणे तेउनो मत होवाथी पूर्णा तिथिए गृहादिकनुं खात मुहूर्त अने ध्वजारोपण विगेरे ते करवाने श्चता नथी, कारण के अधो दिशिए अथवा ऊर्ध्व दिशिए पाश के काळ अवश्य होय ज . वार आश्रीने पाश तथा काळ ज्योतिषसारमा श्रा प्रमाणे कह्या जे. "दिणवारं पुधाई कमेण संहारि जत्थ गणि सणी।। कालं तत्थ विधाणसु तस्संमुहु पास नण इगे ॥१॥" जे दिवसे जे वार होय ते वारथी आरंजीने अनुक्रमे साते वारो पूर्वादिक दिशामां अनुक्रमे मूकवा. तेमां जे दिशामां शनिवार आवे ते दिशामां काळ जे एम जाणवू, अने तेनी सन्मुखनी दिशामां पाश जाणवो, एम केटलाक कहे . अहीं ईशान विनानी सात दिशा गणवानी ने, कारण के ते ईश्वर- घर बे, माटे त्यां काळनो प्रवेश थश् शकतो नथी, एम तेढ कहे . श्राऊना मतमां वार आश्रीने ज काळ तथा पाश थाय बे, पण तिथिने श्राश्रीने अता नथी. __ हवे रादुचार कहे जे.राहुरसंमुखवामोऽष्टसु यामार्केष्वहर्निशं युमुखात् । क्रमशः षष्ठ्यां षष्ठ्या मिष्टः प्राच्यादिषु प्रचरन् ॥ १४ ॥ अर्थ-दिवसना प्रारंलथी एटले सूर्योदयश्री श्रारंजीने दिवस अने रात्रि आठ आठ अर्ध प्रहरोमां अनुक्रमे पूर्वादिक बड़ी उसी दिशाए फरतो राहु असन्मुख अने वाम नागे रहेलो इष्ट-शुन बे. अथात् गमन करनारनीपउवामे अथवा माबी बाजुए होय तो ते शुनका जे. राहु रात दिवस चाले जे. ते प्रातःकाळथी श्रारंजीने पूर्वादिक बही नही दिशामां कारक Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ चाले ने, एटले के पहेला अर्ध प्रहरे पूर्व दिशामां चाले बे, बीजा अर्ध प्रहरे तेनाथी उही दिशामां एटले वायव्य खूणामां चाले बे. त्रीजा अर्ध प्रहरे तेनाथी बी एटले दक्षिण दिशाए चाले. ए प्रमाणे आठ अर्ध प्रहर सुधी बहीबही दिशा लेवी. तेवी ज रीते रात्रे पण आठ अर्ध प्रहरमां पण बळीची दिशा जाणवी. ते विषे हर्षप्रकाशमां कडं ने के_ "जामझे राहुगई पू १ वा २ दा ३ ई ४ प ५ अ ६ उ ७ ने दिसिसु" ॥ "सूर्योदयश्री आरंजीने अर्ध अर्ध प्रहरे राहुनी गति अनुक्रमे पूर्व १, वायव्य २, दक्षिण ३, ईशान ४, पश्चिम ५, अग्नि ६, उत्तर ७ अने नैर्ऋत्य दिशामां होय जे." पूर्वादिक दिशा अवळी प्रदक्षिणाथी गणीए तो चोथी चोथी दिशाए राहुनी गति जाणवी. ते विषे नारचंजमां कडं ले के "श्रष्टासु प्रथमायेषु प्रहरावहानशम्।। पूर्वस्या वामतो राङस्तुर्या तुर्या बजेदिशम् ॥ १॥" "प्रथमादिक श्राप अर्ध प्रहरोमा रात दिवस पूर्व दिशाथी माबी बाजुने क्रमे चोथी चोथी दिशामां राहु गति करे , एटले के पहेला अर्ध प्रहरे पूर्वमां, बीजा अर्ध प्रहरे तेथी श्रवळी चोथी दिशा वायव्यमां, बीजे अर्धे प्रहरे तेथी अवळी चोथी दिशाए एटले दक्षिणमा राहुनी गति . ए रीते आठे अर्ध प्रहर गणवा तथा ए ज रीते रातना पण थावे अर्ध प्रहर गणवा. राहुचार स्थापना . ईशान । पूर्व अग्नि६ ४ १ अर्ध प्रहर | दक्षिण उत्तर ७ वायव्य पश्चिम नैर्ऋत्य २ अर्ध प्रहर | हवे चंचार कहे जे.चन्ऽश्चरति पूर्वादौ क्रमानिर्दिक्चतुष्टये। मेषादिष्वेष यात्रायां संमुखस्त्वतिशोजनः ॥ १५ ॥ अर्थ-चंड मेषादिक बारे राशिमा पूर्वादिक चार दिशाठमां अनुक्रमे त्रण वार चाले . आ चंज प्रयाणमां सन्मुख होय तो ते अत्यंत शुक्ल ने. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ॥ श्रारंभसिद्धि ॥ मेष राशिमा रहेलो चंद्र पूर्वमां होय वे, वृषमां रहेलो चंद्र दक्षिणमां, मिथुननो चंद्र पश्चिममां ने कर्कनो चंद्र उत्तरमां होय वे. ए प्रमाणे सिंहादिक चार छाने धनादिक चार राशिना चंद्रने पण पूर्वादिक चारे दिशिमां अनुक्रमे जावो. चंद्रचार स्थापना उत्तर, कर्क, वृश्चिक, मीन पूर्व मेष सिंह धनु चंद्रचार वृष, कन्या, मकर, दक्षिण. मिथुन तुल कुंज पश्चिम दिनशुद्धिमां तो शुक्रनी जेम चंद्रनुं पण त्रण प्रकारे सन्मुखपणुं ग्रहण करवानुं कां बे. - “उदयवसा १ हवा दिसि २ दारजवसर्ज ३ हवइ ससी समुहो । मिश्रा वरिसंतो ॥ १ ॥ " सो मुझे पहाणो गम "चं जे दिशामां उदय पामे बे ते उदयना वशथी १ अथवा जे दिशामां जाय बे ते दिशाना वशथी २ अथवा जे दिशाना घारवाळा नक्षत्रने पाम्यो होय ते दिशाधार नक्षत्रना वशथी ३, या ऋण प्रकारे सन्मुख होय बे. ते सन्मुख तथा जमणो गमनने विषे अमृतने वरसतो एवो प्रधान अति शोभाकारक बे." नारचंद्रमां चंद्रचारनुं फळ या प्रमाणे कह्युं बे. - "जयाय दक्षिणो राहुर्योगिनी वामतः स्थिता । पृष्ठतो यमप्येतच्चन्द्रमाः संमुखः पुनः ॥ १ ॥” "जमणो राहु जयने माटे बे, मावी बाजु रहेली योगिनी पण जयकारक बे, ते बन्ने वा रह्या होय तो शुभ बे, छाने चंद्रमा सन्मुख होय तो शुभ बे.” मूळ श्लोकमां "तिशोजनः” “घणो सारो” एम कह्युं बे, तेथी जमणी बाजुमा रहेलो पण चंद्र शुज ने एम सूचवन करे बे. ते विषे नारचंद्र टिप्पणीमां कह्युं वे के" संमुखीनोऽर्थलानाय दक्षिणः सर्वसंपदे । पश्चिमः कुरुते मृत्युं वामश्चन्द्रो धनक्ष्यम् ॥ १ ॥ " Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ १४ “गमन करतां चंछ सन्मुख होय तो ऽव्यनो लाल थाय, जमणी वाजु होय तो सर्व संपत्ति मळे, पापळ होय तो मृत्यु करे अने माबी बाजुए रह्यो होय तो धननो क्य करे." हवे रविचार कहे .रविष्ठौँ छौ तु पूर्वादौ यामौ रात्र्यन्त्ययामतः। यात्रास्मिन् दक्षिणे वामे प्रवेशः पृष्ठगे घ्यम् ॥ १६ ॥ अर्थ-सूर्य रात्रिना बेला पहोरथी श्रारंजीने बबे पहोर पूर्वादिक चार दिशामां चाले , तेमां प्रयाणसमये सूर्य जमणी बाजुए होय तो शुल, माबी बाजुए होय तो प्रवेशमां शुज , अने पाबळ होय तो प्रयाण तथा प्रवेश बन्नेमां शुल बे. . __ रात्रिनो बेझो प्रहर तथा दिवसनो पहेलो प्रहर ए वे प्रहर सुधी सूर्य पूर्व दिशामां चाले बे. दिवसना मध्यना बे पहोर सुधी दक्षिण दिशामां रहे , दिवसनो बेबो प्रहर श्रने रातनो पहेलो पहोर ए बे पहोर सुधी पश्चिममां चाले , तथा रात्रिना मध्यना बे पहोर सुधी उत्तर दिशामा रहे . ____ नारचंजमां तो सर्व ग्रहोने उदयसमयथी आरंजीने भ्रमण करवाना वशथी (गतिने बानीने ) आठे दिशानो स्पर्श कहेलो . ते आ प्रमाणे. __ "स्वस्योदयस्य समयात्पूर्वयामा(म्या)दितः क्रमात् । संचरन्ति ग्रहाः सर्वे सर्वकालं दिगष्टके ॥१॥" "सर्वे ग्रहो पोतपोताना उदयसमयथी आरंजीने पूर्व, दक्षिण विगेरेना क्रमे करीने सर्वदा आने दिशाओमां गति करे ." ___ सूर्य जमणी बाजुए रह्यो होय तो ते समयनुं प्रयाण शुनकारक ने. ते विपे खास कहे जे के "न तस्याङ्गारको विष्टिर्न शनैश्चर लयम् । व्यतिपातो न पुष्येच्च यस्यार्को दक्षिणस्थितः॥१॥" "जेना प्रयाणमां सूर्य जमणी बाजुए रह्यो होय तेने अंगारक नम्तो नथी, विष्टिनो पण दोष लागतो नथी, शनिथी उत्पन्न श्रयेलो जय लागतो नथी, तथा व्यतिपात पण ऽषित करतो नथी." तेथी करीने ज नक्षत्रसमुच्चयमां पण कर्वा डे के"पूर्वाह्ने चोत्तरां ग त्याच्यां मध्यंदिने तथा। दक्षिणामपराहे तु पश्चिमामर्धरात्रके ॥ १॥" "दिवसना पहेला नागमां उत्तर दिशा तरफ प्रयाण करवं, मध्याह्नसमये पूर्व दिशामां प्रयाण करवू, सायंकाळे दक्षिणमां प्रयाण करवू, अने अर्धी रात्रिए पश्चिममा Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ प्रयाण कर.” तात्पर्य बे. ॥ श्रारं सिद्धि ॥ रीते प्रयाण करवाथी सूर्य जमणी बाजुए ज रहे बे ए च श्लोकनुं फरीथी पण चंद्र ने सूर्यना वारनी अनुकूळता ज कहे बे के "रविशशिरप्रदीघां मकरादावुत्तरां च पूर्वी च । यायाच्च कर्कटादौ याम्यामाशां प्रतीचीं च ॥ १ ॥ नानुकूलयानं हितमर्केन्धोर्धयोरसंपत्तौ । निशं प्रगृह्य यायादिपर्यये क्लेशवधबन्धाः ॥ २ ॥ " “मकरादिकमां सूर्य ने चंद्रनां किरणोथी प्रदीप्त अयेली उत्तर तथा पूर्व तरफ प्रयाण कर ने कर्कादिकमां दक्षिण तथा पश्चिम दिशामां प्रयाण कर. सूर्य is ए बेनी प्राप्ति होय तो यनने अनुकूल प्रयाण हितकारक बे, एटले रात्रि दिवस ग्रहण करीने गमन कर. तेथी जलडुं करवाथी क्लेश, वधाने बंधन याय बे." अहीं जावार्थ ए बे जे– “ज्यारे सूर्य छाने चंद्र मकरादिक व राशिमां एटले उत्तरायणमां होय त्यारे पूर्वमां तेमज उत्तरमां सर्वदा ( रात दिवस) गमन करवु, अने या कर्कादिक राशिमां एटले दक्षिणायनमां होय त्यारे दक्षिण ने पश्चिममां सर्वदा गमन कर, पण सूर्याने चंद्र जो एक अयनमां न होय तो अनुक्रमे दिवसे रात्रि गमन कर, एटले के ज्यारे सूर्य उत्तरायणमां होय त्यारे दिवसना जागमां उत्तर तथा पूर्वमां गमन कर, छाने ज्यारे सूर्य दक्षिणायनमां होय त्यारे दिवसना जागमां दक्षिण पश्चिममां गमन कर. ए ज प्रमाणे चंद्र उत्तरायणमां होय त्यारे रात्रिए उत्तर तथा पूर्वमां गमन कर ने दक्षिणायनमां होय त्यारे रात्रिए दक्षिण छाने पश्चि मां गमन कर. एथी उलडुं करवाथी अशुभ बे, एटले के सूर्य ने चंद्र मकरादिकमां रह्या होय त्यारे जो दक्षिण ने पश्चिममां गमन करे, तथा कर्कादिकमां रह्या होय त्यारे जो उत्तर ने पूर्वमां गमन करे, तथा सूर्य मकरादिकमां रह्यो होय त्यारे दिवसना जागमां जो दक्षिण ने पश्चिममां गमन करे, अने चंद्र कर्कादिकमां रह्यो होय त्यारे जो रात्रिए उत्तर के पूर्वमां गमन करे तो गमन करनारने वध, बंध विंगेरे दोष प्राप्त थाय बे. w वेरविचारने ज हंस ( वायु ) नी गति ( स्वरोदय व विशेष प्रकारे कहे बे. - हंसेऽन्तराविशति दक्षिणतोऽथ पृष्ठे, कृत्वा रविं प्रवदनामिपदं पुरश्च । सियै व्रजेदथ विजेतुमना विपक्ष पक्ष स्वतस्तु विदधीत वितानपदे ॥ १७ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ १एए अर्थ-प्राण वायु नासिकामां प्रवेश करतो होय ते वखते सूर्यने ( सूर्यनी दिशाने ) जमणी बाजुए अथवा पळवामे राखीने जे नासिकानी नामी वधारे चालती होय ते तरफर्नु पगढुं प्रथम मूकीने प्रयाण करवं ते सिधिने माटे बे. शत्रुने जीतवानी श्छावाळाए पोतानी जे तरफनी नामी वहेती न होय ते तरफ शत्रु पक्ने करवो. अध्यात्मशास्त्रनी रीते हंस ए प्राण वायु कहेवाय . ते प्राण वायु नासिकामां प्रवेश करतो होय त्यारे प्रयाण करवू, पण बहार नीकळतो होय ते वखते प्रयाण करईं नहीं. प्राण वायुनी गति आगति विषे अध्यात्मने जाणनारा था प्रमाणे कहे . "षट्शतान्यधिकान्याहुः सहस्राएयेकविंशतिम् ।। अहोरात्रे नरे स्वस्थे प्राणवायोर्गमागमः॥१॥" "मनुष्य स्वस्थ होय त्यारे एक रात्रि दिवसमां अश्ने प्राण वायुनुं गमन आगमन ( श्वासोबास ) एकवीश हजार अने उसो श्राय बे, एम कहे ." जे तरफनी नामी चालती होय ते तरफनुं पगलुं एटले मावी चालती होय तो मार्बु अने जमणी चालती होय तो जमणुं पगलुं आगळ करीने कार्यनी सिद्धि माटे गमन करवं. ते विषे विवेकविलासमां कडं जे के "दक्षिणे यदि वा वामे यत्र वायुर्निरन्तरः। तं पादमग्रतः कृत्वा निस्सरेन्निजमन्दिरात् ॥१॥ न हानिकलहोगाः कंटकैर्नापि निद्यते । निवर्त्तते सुखेनैव दुञोपववर्जितः॥२॥ धरदेशे विधातव्यं गमनं तुहिनद्युतौ। अन्यणेदेशे दीप्ते तु तरणाविति केचन ॥३॥" "जमणी अथवा माबी जे नासिकामां वायु निरंतर संचार करतो होय ते तरफनो पग श्रागळ करीने पोताना घरमांथी नीकळवू. (१). ते रीते प्रयाण करवाश्री हानि, क्लेश के उग थता नथी, कंटकवझे पण नेदातो नथी एटले के मार्गमां कांटो सरखो पण वागतो नथी, तथा कुछ उपवो रहित सुखेथी ज पागे फरे बे-आवे . (२). केटलाएक कहे जे के दूर देशमा जq होय तो चंज नामी एटले मात्री नासिका चाखती होय त्यारे ते तरफनो पग आगळ करीने चालवू, अने समीप देशमां जq होय तो सूर्य नामीने श्रागळ करीने जq एटले जमणी नासिकामां प्राण वायु चालतो होय त्यारे जमणो पग प्रथम मूकीने चालवं. (३) (मावी नासिकाने चंड नामी कहे ,जमणी नासिकाने सूर्य नामी कहे वे तथा वन्ने समान चालती होय तो सुषुम्णा नामी कहे .) स्वरोदयने जाणनारा आचार्यो या प्रमाणे विशेष कहे जे के-"जमणी नामीमां प्राण Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिधि॥ वायु प्रवेश करतो होय त्यारे विषम (१-३-५-४-५ ) पगले चालवु श्रने पश्चिम तथा दक्षिण दिशामां न चालवू, अने माबी नामी प्राण वायुवझे पूर्ण थप होय त्यारे सम (२-४-६-७-१०) पगले चालवू, अने ते वखते पूर्व तथा उत्तर दिशा तरफ न जq.” श्रा प्रमाणे प्राण वायु विगेरेनी शुद्धि होय त्यारे जिनेश्वरनी प्रदक्षिणा करीने जवाश्री विशेषे करीने सर्व कार्यनी सिद्धि श्राय बे. ते विषे यतिवखनमां कडं बे के "प्राणप्रवेशे वहनामिपादं, कृत्वा पुरो दक्षिणमर्कबिम्बम् ।। प्रदक्षिणीकृत्य जिनं च याने, विनाप्यहःशुधिमुशन्ति सिद्धिम् ॥ १॥" "प्राण वायु नासिकामां प्रवेश करतो होय त्यारे जे तरफनी नामी चालती होय ते तरफनो पग भागळ मूकीने तथा सूर्यने (सूर्यनी दिशाने ) जमणी बाजु राखीने तथा जिनेश्वरनी प्रदक्षिणा करीने प्रयाण करे तो दिवसनी शुद्धि नहीं उतां पण कार्यसिद्धि थाय .” प्रयाणना उपलक्षणथी प्रवेश करवामां पण आ सर्व विधि ज जाणवो. ते विषे दिनशुधिमां कडं बे के "पुन्ननामि दिसा पायं अग्गे किच्चा सया विऊ । पवेसं गमणं कुजा कुणंतो साससंगहं ॥ १ ॥" "श्वासनो संग्रह करीने एटले प्राण वायु नासिकामां प्रवेश करतो होय त्यारे पूर्ण नामी तरफना पगने आगळ करीने विधान् पुरुषोए सर्वदा प्रवेश अने गमन करवू." ___ शत्रुने जीतवानी बावाळाए पोताना वायुसंचारवाळा पार्श्वश्री मावी वाजुए शत्रुने राखवो, एटले के जे तरफ वायु चालतो न होय ते तरफ शत्रुने राखवो के जेथी ते सुखेथी जीताय ले. अर्थात् इष्ट जन होय तो तेने पूर्ण अंग तरफ राखवो, एटले के जे तरफ श्वास चालतो होय ते तरफ श्ष्ट जनने राखवो. ते विषे विवेकविलासमां कडं वे के "अरिचौराधमाद्या अन्येऽप्युत्पातविग्रहाः। कर्तव्याः खलु रिक्तांगे जयलालसुखार्थिन्निः॥१॥ गुरुवन्धुनृपामात्या अन्येऽपीप्सितदायिनः। पूर्णागे खलु कर्त्तव्याः कार्यसिद्धिमनीप्सता॥२॥" "शत्रु, चोर, देणदार विगेरे तथा बीजा पण उत्पात करनाराने जय, लाल अने सुखने श्चता पुरुषोए रिक्तांगे करवा, एटले जे तरफ प्राण वायु चालतो न होय ते तरफ करवा(१). अने कार्यसिधिने श्चता पुरुषे गुरु, बंधु, राजा, प्रधान विगेरे तथा वीजा पण इष्ट वस्तुने आपनार जनोने पूर्णगे करवा, एटले जे तरफनी नाडी चालती होय ते तरफ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २०१ करवा."(२) अहीं पण "सूर्यने ( सूर्यनी दिशाने ) जमणी वाजु अथवा पळवामे राखवो." ए अर्थ समजवो. ते विषे यतिवद्धनमां पण कडं वे के ___ "वहनामिगतो वाच्यो दक्षिणेऽर्केऽर्थलब्धये । रिक्तनामीगतः शत्रुर्जीयते पृष्ठगे रवौ ॥ १॥" __ "सूर्यने जमणी बाजुए राखीने चालती नामी तरफनो प्रथम पग मूकी गमन करे तो अव्यनी प्राप्ति थाय, अने सूर्यने पबवामे राखीने शत्रुने रिक्त (खाली) नामी तरफ राखे तो ते शत्रुनो पराजय थाय बे.” ___ हवे शुक्रचार कहे जे.शुक्रस्तु यत्रोदयति नमन् वा, यां याति यद्वारकमेति नं वा। श्वं त्रिधा तदिशि संमुखः स्यात्त्याज्यस्तु तत्रोदयसंमुखीनः ॥ १० ॥ अर्थ-शुक्र जे दिशामां उदय पामे वे अथवा फरतो फरतो जे दिशामा जाय , अथवा जे दिशाना धारवाळा नदत्रने पामे ३ ते दिशामां सन्मुख होय , एटले के ते शुक्र आत्रण रीते सन्मुख कहेवाय बे. तेमां (ते त्रणमां) उदय सन्मुख शुक्र तजवा योग्य शुक्र पूर्व अथवा पश्चिम जे दिशामा उदय पामे वे ते दिशामां जनारा मनुष्यने ते सन्मुख होय . अथवा जेम सूर्यने फरवाना (गतिना) वशश्री चारे दिशानो स्पर्श कह्यो , तेम शुक्र पण जमतो नमतो जे जे दिशामां जाय जे ते ते दिशामां जनार माणसने ते शुक्र सन्मुख होय . अथवा जे मेषादिक चार चार राशियो अने पूर्वादिक चार चार दिशा, तेमने विषे भ्रमण करतां प्राप्त थयेलो शुक्र ते ते दिशामा जनारने सन्मुख होय . अथवा परिघचक्रमां कहेली रीत प्रमाणे जे दिशाना बारवालु नक्षत्र होय, ते नात्रमा श्रावेलो शुक्र पण ते ते दिशामां जनारने सन्मुख होय . आ रीते त्रण प्रकारे शुक्र सन्मुख होय बे तोपण शुक्रनी उदयनी दिशा के जे पूर्व के पश्चिम ज होय ले ते ज त्याग करवा योग्य वे. विशेष ए जे जे जमणी बाजुए रहेलो पण शुक्र तजवा योग्य वे. ते विषे नारचंडमां कडं डे के "अग्रतो लोचनं हन्ति दक्षिणो ह्यशुलप्रदः। पृष्ठतो वामतश्चैव शुक्रः सर्वसुखावहः ॥१॥" "शुक्र सन्मुख होय तो नेत्रनो नाश थाय, जमणी बाजुए होय तो अशुल फळ श्रापे, तथा पाबळ अथवा माबी बाजुए होय तो सर्व सुखने करनार श्राय ." केटलाक आ प्रमाणे कहे .“पौष्णाश्विनीपादमेकं यदा वहति चन्जमाः। तदा शुक्रो नवेदन्धः संमुखं गमनं शुलम् ॥ १॥" आ० २६ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ॥ आरंनसिधि॥ "रेवती (आ) अने अश्विनीना पहेला पाद सुधी ज्यारे चंजमा होय जे त्यारे शुक्र अंध होय जे, माटे ते वखते सन्मुख शुक्र होय तोपण ते दिशामांगमन करवू शुन बे.” केटलाएक आ श्लोकपूर्वार्ध श्रा प्रमाणे कहे -"अश्विन्या वह्निपादान्तं यावच्चरति चन्जमाः” । “ज्यारे अश्विनी, नरणी तथा कृत्तिकाना पाद सुधी चंघमा होय डे त्यारे शुक्र अंध ने विगेरे.” तथा लव कहे के"काश्यपेषु विसिष्ठेषु नृग्वव्याङ्गिरसेषु च । जारपाजेषु वात्स्येषु प्रतिशुक्रं न विद्यते ॥१॥ एकग्रामे पुरे वापि उर्जिके राष्ट्रविन्रमे । विवाहे तीर्थयात्रायां वत्सशुक्रौ न चिन्तयेत् ॥ २॥ स्वनवनपुरप्रवेशे देशानां विन्रमे तथोघाहे ।। नववध्वागमने च प्रतिशुक्रविचारणा नास्ति ॥३॥" "काश्यप, विसिष्ठ, नृगु, अत्रि, अंगिरस, नाराज अने वत्स ए सात शषिर्जना मतमात्रणे प्रकारना शुक्रनो निषेध नथी. एक गाममां, पुरमां, उकाळमां, राज्यना उपअवमां, विवाहमां अने तीर्थयात्रामां, श्राटले स्थळे वत्स अने शुक्रनो विचार करवो नहीं. पोताना घरमां एटले स्वानाविक रीते घरमा प्रवेश करवो होय त्यारे सन्मुख शुक्रनो विचार करवो नहीं, पण नवा घरमा प्रवेश करवो होय त्यारे तो त्रणे प्रकारना शुक्रनो त्याग करवो जोइए एम आगळ कहेशे. तथा पुरप्रवेशमां, देशावरोमां जाव आव करवामां, विवाहमां, नवी वहुने तेमी लाववामां, आटले स्थळे त्रणे प्रकारना शुक्रनो विचार करवो नहीं. अर्थात् सन्मुख शुक्रनो त्याग करवो.” तथा शुक्रनी बाट्यावस्थामां, वृद्धावस्थामां, नीचपणामां, अस्तपणामां, वक्रगतिपणामां अने बीजा ग्रहथी पराजय पामेलो होय त्यारे ए विगेरेमां यात्रा करवी अशुल ने, केमके-“यात्रामा शुक्र बळवान् लेवो" एम कडं . तथा रत्नमाळामां पण कडं ने के "नीचगे ग्रह जितेऽथ विलोमे, नागेवे कलुषितेऽस्तमिते वा। प्रस्थितो नरपतिः सवलोऽपि, क्षिप्रमेव वशमेति रिपूणाम् ॥ १॥" "शुक्र नीच स्थानमा रह्यो होय, बीजा ग्रहवझे जीतायो होय, वक्र थयो होय, कलुष यो होय एटले वाळ के वृक्ष होय, तथा अस्त पाम्यो होय, ते वखते जो राजाए प्रयाण कर्यु होय तो ते बळवान् बतां पण तत्काळ शत्रुने वश थर जाय जे." शुक्रना उदय अने अस्तना दिवसनी संख्या स्वानाविक रीते श्रा प्रमाणे नारचंड टिप्पणीमां कहेली . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २०३ "प्राच्यां नृगुर्जलधितत्त्व २५४ दिनानि तिष्ठेत्तत्रास्तगस्तु नयनाति ७२ दिनान्यदृश्यः। तिष्ठेच्च षोमशकृति २५६ दिवसान प्रतीच्या मस्तं गतस्त्विह सयक्ष १३ दिनान्यदृश्यः॥१॥" “पूर्व दिशामां उदय पामेलो शुक्र २५४ दिवस सुधी रहे, त्यारपी अस्त पामे, ते ७५ दिवस सुधी अदृश्य रहे. त्यारपडी पश्चिम दिशामां उदय पामे, ते २५६ दिवस सुधी रहे, अने त्यारपती अस्त पामे, ते १३ दिवस सुधी अदृश्य रहे." ___ "पोताना जन्मनक्षत्रनो स्वामी अस्त पाम्यो होय ते वखते पण यात्रा करवी अशुल जे,” एम दैवज्ञवक्षनमां कडं .. हवे शुक्रचारना फळमां मतांतर कहे वे.प्रतिशुक्रं त्यजन्त्येके यात्रायां त्रिविधं बुधाः। तस्मात्प्रतिकुजं कष्टं ततोऽपि प्रतिसोमजम् ॥ १५ ॥ अर्थ-केटलाएक पंमितो यात्रामा त्रणे प्रकारथी सन्मुख (प्रतिकूळ ) शुक्रनो त्याग करे बे. ते (प्रतिकूळ शुक्र ) की प्रतिकूळ मंगळ वधारे कष्टकारक , तेथी ते पण त्रणे प्रकारनो तजवो, तेनाथी पण प्रतिकूळ बुध वधारे कष्टकारी ने, तेथी ते पण त्रणे प्रकारनो तजवो. आ मत पण श्रा ग्रंथकार श्राचार्यने संमत , तेथी करीने पूर्व श्लोकमा मात्र उदय सन्मुख शुक्रनो त्याग करवानुं कह्यु , ते उतावळना कार्यमां जाणवू. घणी उतावळ न होय तो शक्ति प्रमाणे त्रणे प्रकारचें सन्मुखपणुं तजवा योग्य वे एम जाणवू. ते विषे दैवज्ञवल्सनमां पण कडं जे के "धनिष्ठादिकमश्लेषापर्यन्तं जगणं नृगुः। यदा चरति नोदीची न प्राची च तदा ब्रजेत् ॥१॥ मघादिश्रवणान्तानि नानि शुक्रो यदा चरेत् । नापाची न प्रतीची च तदा गक्रिजीविषुः ॥२॥" "ज्यारे शुक्र धनिष्ठाश्री अश्लेषा सुधीना नक्षत्रमा रह्यो होय त्यारे उत्तर अथवा पूर्व दिशामां जीववानी श्छावाळाए प्रयाण करवू नहीं, अने ज्यारे शुक्र मघाथी श्रवण सुधीनां नक्षत्रमा रह्यो होय त्यारे दक्षिण के पश्चिम दिशामां जीववानी श्वावाळाए प्रयाण करवू नहीं." Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ॥ श्रारंसिधि॥ शुक्र की मंगळ अने मंगळयी पण बुध वधारे कष्टकारक , ते विषे दैवज्ञवक्षनमां कर्वा ने के ___ "प्रतिशुक्रेऽपि निर्गदनुकूलो बुधो यदि । ___ गतः प्रतिबुधे नान्यैः शक्यते रक्षितुं ग्रहैः॥१॥" __ "जो बुध अनुकूळ होय तो त्रण प्रकारे शुक्र प्रतिकूळ उतां पण प्रयाण करवू, अने जो प्रतिकूळ बुधमां प्रयाण कर्यु होय तो तेने बीजा ग्रहो रक्षण करवाने शक्तिमान "शनीज जेम मंगळ तथा बध पा सन्मख रहेखा अथवा जमणी तरफ रहेखा होय तो ते तजवा योग्य " एम त्रिविक्रम कहे . "बुध सन्मुख होय तो ज तेने तजवो” एम रत्नमाला नाष्यमां कडं . हवे वत्सचार कहे .वत्सः प्राच्यादिषूदेति कन्यादित्रित्रिगे रवौ। प्रवासवास्तुद्वारा प्रवेशाः संमुखेऽत्र न ॥ २० ॥ अर्थ-कन्या संक्रांतिश्री आरंजीने त्रण त्रण संक्रांतिमा रहेको सूर्य होय त्यारे पूर्वादिक चार दिशामां अनुक्रमे वत्स उदय पामे , एटले के कन्या, तुल अने वृश्चिक संक्रांति होय त्यारे पूर्व दिशामां वत्सनो उदय होय, धन, मकर अने कुंज संक्रांतिमां दक्षिण दिशाए, मीन, मेष अने वृष संक्रांतिमां पश्चिम दिशाए अने मिथुन, कर्क अने सिंह संक्रांतिमां उत्तर दिशाने विषे वत्सनो उदय होय . आ वत्स सन्मुख होय एवी रीते प्रवास (प्रयाण ) करवो नहीं, घर विगेरेनुं घार मूकवू नहीं, तथा जिनेश्वरादि प्रतिमानो धनिकना घरमा प्रवेश कराववो नहीं. नारचंड टिप्पणीमां वत्सनुं शरीर आ प्रमाणे कडं ."वपुरस्य शतं हस्ताः शृंगयुगं पष्टि संयुता त्रिशती। पन्नानिपुत्रशिरसां नूप १६ नव ए त्रि ३ शर ५ करमानम् ॥ १॥" "श्रा वत्सनुं शरीर सो हाथ उंचुंबे, तेनां बन्ने शींगमां ३६० हाथ लांबां ने, पग सोळ हाथ, नानि नव हाथ, पूंबहुं त्रण हाथ अने मस्तक पांच हाथ, वे." __ वत्सचार संबंधी विशेष ज्योतिषसारमां आ प्रमाणे कयुं बे."पंच १ दिक् तिथि ३ सत्रिंश ४ तिथि ५ दिक् ६ शर वासरान् । 'वत्सस्थितिर्दिक्चतुष्के प्रत्येकं सप्तनाजिते ॥ १॥" "चारे दिशामांनी प्रत्येक दिशाना सात सात नाग करवा. तेमां पहेला नागमां वत्सनी स्थिति पांच दिवसनी बे, बीजामां दश, त्रीजामां पंदर, चोथामां त्रीश, पांच Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयो विमर्शः॥ १०५ मामां पंदर, बामां दश अने सातमा जागमां पांच दिवसनी स्थिति मे, एटखे के श्राटला आटला दिवस ते ते नागमां अनुक्रमे वत्स रहे ." वत्सचार तथा वत्सनी स्थितिनुं चक्र ११० | १५ | ३० | १५ | १० १६] कन्या तुल वृश्चिक १० १५ ३० १५ १०५ उत्तर मिथुन कर्क सिंह धन मकर कुंज १० १५ ३० १५ १० दक्षिण __ ? | ५८ | | 0 | श्रा वत्सने केटलाक श्राचार्यो “वास्तु” एवे नामे पण कहे . हवे वत्स चारनुं फळ कहे जे.संमुखोऽयं हरेदायुः पृष्ठे स्याख्ननाशनः। वामदक्षिणयोः किं तु वत्सो वाबितदायकः ॥१॥ अर्थ-श्रा वत्स सन्मुख रह्यो होय तो आयुष्य हरे ने, पापळ होय तो धननो नाश करे बे, पण माबी तथा जमणी बाजु रह्यो होय तो ते वांछितने आपनार थाय . बीजा श्राचार्यो वत्सनी ज जेम सूर्य विगेरे सर्वे ग्रहोनां घरो श्रा प्रमाणे कहे . “मीनादित्रयमादित्यो वत्सः कन्यादिकत्रये । धन्वादित्रितये राहुः शेषाः सिंहादिकत्रये ॥ १॥" "सूर्य मीनथी पारंजीने त्रण त्रण संक्रांति सुधी अनुक्रमे पूर्वादिक दिशामा रहेलो बे, वत्स कन्या संक्रांतिथी आरंजीने, राहु धन संक्रांतिथी आरंजीने अने बाकीना ग्रहो सिंह संक्रांतिथी आरंजीने पूर्वादिक दिशामा रहेला बे. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ॥ श्रारंसिद्धि ॥ रविचार चक्र राहुचार चक्र मंगळ, बुध,गुरु, शुक्र, शनिचार चक्र पूर्व सिंह कन्या तुला पूर्व मीन मेष वृष धन मकर कुंभ उत्तर धन मकर कुंभ मिथुन कर्क सिंह दक्षिण उत्तर कन्या तुल वृश्चिक मीन मेष वृष दक्षिण वृष मिथुन कर्क उत्तर वृश्चिक धन मकर दक्षिण j वत्सचार चक्र उपर श्राप्यु बे. अही प्रसंगोपात्त शिवचार लखे ."मेषेऽर्काउत्तरादौ दिशि विदिशि शिवो मासमेकं तथा घौ, संहत्या संस्थितो दिज्रमति नृशमहोरात्रमध्ये तु सृष्ट्या । अध्यर्धे नामिके दिशि विदिशि घटीपञ्चकं चैष तिष्ठन् । चन्तादेः प्रातिकूट्यं हरति किरति शं दक्षिणपृष्ठगोऽसौ ॥१॥" "मेष राशिमा रहेला सूर्यथी उत्तरादिक दिशामा उत्क्रमश्री फरे ले. दिशामा एक मास तथा विदिशामां बे मास सुधी रहे बे. ते शिव एक दिवस रात्रिमा थश्ने बे वार अनुक्रमे भ्रमण करे , तेथी दरेक दिशामां ते शिव अढी अढी घमी रहे , अने दरेक विदिशामां पांच पांच घमी रहे बे. नावार्थ ए के के मेषनो सूर्य होय त्यारे प्रथम श्रढी धमी शिव उत्तर दिशामां होय, पनी पांच घमी ईशानमां, पी अढी घमी पूर्वमां एम एक अहोरात्रमा बे वखत फरे बे.. पली वृष तथा मिथुनना सूर्य होय त्यारे बे मास प्रथम पांच घमी वायव्यमां, पजी अढी घमी उत्तरमांएम क्रमे भ्रमण करे बे. पठी कर्कमा प्रथम पश्चिममां आ प्रमाणे जाणवू. श्रा शिव जमणी वाजु अथवा पाळना नागमा रह्यो होय तो चंगादिकनी प्रतिकूळतानो नाश करे ने तथा सुख आपे . चंसादिके करीने ताराउनी तथा तेनी अवस्थानी पण प्रतिकूळतानो नाश करे बे एम जाणवू. १ उत्क्रमथी. २ क्रमथी. १ डाबी वाजुने क्रमे. २ जमणी बाजुने क्रमे. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ शिवचार चक्र. ईशान । पूर्व । अग्नि घडी २॥ घडी २॥ मकरेऽर्कः / अग्नि ईशान घडी २॥ /घडी २॥ घडी २॥ मेषेऽर्कः घडी २॥ दक्षिण तुलार्कः घडी २॥ घडी २॥ वायव्य नैऋत्य कर्केऽर्कः घडी २॥ घडी २॥ वायव्य नैर्ऋत्य | घडी २॥ | पश्चिम घडी २॥ था शिवचकनी स्थापना स्थूळ प्रमाणवाळी जे. सूक्ष्म प्रमाणवाळी तो था प्रमाणे - संक्रान्तेराद्यघने स्वदिशि शर ५ पलान्येष नुक्त्वा जमान्यां, पश्चात्सृष्ट्या तटस्थां दिशमटति दशैवं पलान्यन्यघने । वृद्धिः पश्चोत्तरैवं प्रतिदिवसमहो तावदेतस्य यावत् , संक्रान्तेरन्त्यघस्ने स्थितिरधिककुन्नं साधनामीक्ष्यं स्यात् ॥२॥ "संकांतिने पहेले दिवसे शिव पोतानी दिशामां वे ब्रमणे करीने पांच पळ जोगवे , एटखे के दिवस अने रात्रिमा थश्ने शिव वे वार भ्रमण करे , तेमां पहेला भ्रमणमा पोतानी दिशामा अढी पळ शिव रहे अने बीजा ब्रमणमां पण बीजा अढी पळ रहे जे. ए प्रमाणे संक्रांतिने पहेले दिवसे. बे चमणे करीने शिव पोतानी दिशामां पांच पळ रहे . त्यारपती सृष्टिना क्रमे बीजी दिशामां जाय . ए ज रीते बीजे दिवसे पण बीजी पांच पळो नोगववाथी दश पळ थर (ए रीते बीजे दिवसे पण पांच पळो लोगववाश्री पंदर पळ थइ). एज रीते दरेक दिवसे पांच पांच पळनी वृद्धि करतां बेवट संक्रांतिने बेखे दिवसे एटले त्रीशमे दिवसे शिवने पोतानी दिशामां दोढसो पळ एटले अढी घमीनी स्थिति थाय बे." त्यारपनी फरीथी संहारे करीने बीजी दिशामां पण श्रावेला शिवनो या प्रमाणे ज क्रम जाणवो. शिवचारनुं फळ या प्रमाणे जे.“विवादे शत्रुहनने रणे ऊगटके तथा । द्यूते धैव प्रवासे वाऽत्राम पृष्ठे शिवे जयः ॥३॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंजसिद्धि। स्वराश्च शकुना 5ष्टा नजाग्रहबलं तथा । दिग्दोषा योगिनीमुख्या अनयाः स्युः शुन्ने शिवे ॥४॥" "वादविवादमां, शत्रुने हणवामां, रणसंग्राममां, जगमामां, द्यूतमां तथा प्रवासमां शिव जमणो अथवा पाबळ होय तो ते जय आपनार बे. अशुल्न स्वरोदय, अशुल शकुन, जत्रा, अशुल ग्रहोनुं बळ अने योगिनी विगेरे दिशाऊना दोषो, ए सर्वे शिव शुल होय तो निर्नयकारक .” तथा "सूर्यराश्यादितः सव्ये लग्नं तत्कालसंनवम् । पृष्ठदक्षिणगं कृत्वा जयेधुझे न संशयः॥१॥" "सूर्यनी राशिने श्रादि करीने एटले सूर्य जे राशिमां होय ते राशिने पूर्व दिशामां मूकीने त्यां सृष्टिने क्रमे (सवळी-जमणी बाजुने क्रमे) तत्काळ संजवतुं जे लग्न आवे एटले ते वखते जे लग्न वर्ततुं होय तेने पाबळ अने जमणी बाजुए राखीने युद्ध करे तो जय पामे. तेमां कां पण संशय नथी." ।इति यात्रायां समयशुद्धिः दिक्शुधिश्च । श्रा प्रमाणे यात्रामां समयनी शुद्धि अने दिशानी शुद्धि कही. हवे यात्रामा ज चेष्टा निमित्त विगैरेनी शुद्धि कहे . उत्सवमशनं स्नानं प्रगुणं चोपेक्ष्य मंगलमशेषम् । असमापिते च सूतकयुगेऽङ्गन्नत्तौ च नो यायात् ॥ २॥ अर्थ-कौमुदी विगेरे उत्सव, नोजन, रोगथी मुक्त थयार्नु अथवा सामान्य स्नान अने विवाह तथा पुत्रनुं अन्नप्राशन विगैरे सर्व मांगलिक कार्योनी तैयारी होय ते वखते तेनुं उलंघन करीने तथा जन्म के मरण- सूतक समाप्त कर्या विना तथा शतुवाळी नार्या होय त्यारे प्रयाण करवू नहीं. अवमन्य माननीयान्निर्नय॑ स्त्रीं च कमपि संताड्य । बालमपि रोदयित्वा जिजीविषु व निर्गछेत् ॥ २३ ॥ अर्थ-जीववानी श्वा राखनारे मानवा योग्य (पूज्य ) मनुष्यनी अवगणना करीने, स्त्रीनी तर्जना (तिरस्कार ) करीने, कोश्ने पण तामन करीने ( मारीने ), तथा बाळकने रोवमावीने गमन करवू ज नहीं. अहीं लबर्नु भा प्रमाणेनुं वचन सक्षमा राखवा योग्य वे.प्रमत्तो व्याधितो नीतः श्रान्तः क्रुखो बुनुदितः। अध्वानं न प्रपद्येत क्लीबवेषस्तथैव च ॥१॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ रात्री तु मैथुनं कृत्वा प्रजाते योऽनिगवति । यात्राकालेऽथवा प्राप्ते मैथुनं यो निषेवते ॥२॥ यो वा प्रस्थानके गत्वा पुनर्गृहमुपागतः।। इत्येवमादिचेष्टान्तिः सिद्धिर्नास्त्यनिगलतः॥३॥" "उन्मत्त श्रयेलो, व्याधिग्रस्त, जय पामेलो, बाकी गयेलो, क्रोध पामेलो, नूख्यो थयेतो तथा नपुंसकना वेषने धारण करेलो, श्रावा पुरुष मार्गमां प्रयाण करवू नहीं. रात्रे मैथुन करीने प्रातःकाळे जे प्रयाण करे , अथवा प्रयाण करवानो समय प्राप्त भये जे मैथुनने सेवे बे, अथवा जे प्रस्थान करेले स्थळे जश्ने पागे घेर श्रावे , ए विगेरे चेष्टाए करीने प्रयाण करे तेने कार्यसिद्धि यती नथी.'' कुतगृहकलहज्वलनौतुयुफपुर्वचनवसनसंगाद्यम् । अशुनं यात्रावसरे शुनमपि शकुनागमाछिन्द्यात् ॥२४॥ अर्थ-जींक थर होय, घरमां कंकास थयो होय, घरमां अग्नि लाग्यो होय, बिलामानुं अथवा पामा विगेरेनुं युद्ध थतुं होय, उर्वचन एटले “जश्श नहीं, मरी जश्श" एवा अमंगळ शब्द बोलाता होय, वस्त्रनो मो बारणा विगेरेमा नराश् गयो होय तथा मस्तक अथमायुं होय, वेस वागवाथी अथवा बीजा कारणथी गतिनी स्खलना थर होय, आवी चेष्टा प्रयाणसमये अश् होय तो शुल अथवा अशुजनो विचार करीने प्रयाण करवू अथवा न करवू. श्रा सिवाय शकुनना शास्त्रमाथी कहेली चेष्टा विगेरे जाणवू. जास्करव्यवहारमा था प्रमाणे विशेष कडं बे."रिक्तोऽनुकूलः कुंनोऽम्नःपूरणाय प्रयोजितः। विद्यार्थिचौरवणिजां प्रयाणेऽतीव सिद्धिदः ॥ १॥" “विद्यार्थी, चोर अने वणिकना प्रयाणमा जो कोश् माणस खाली श्रने अनुकूळ घमो पाणी जरवा लश् जतो होय अने ते माणस प्रयाणमा साथे थयो होय तो कार्यनी सिद्धि थाय, एटले के जेम ते घको पूर्ण नराश्ने पानो श्रावशे, तेम प्रयाण करनार पण पूर्ण थश्ने पागे श्रावशे एम जाणवू." तथा रत्नमाळामां कह्यु डे के "श्राद्ये विरुधे शकुने प्रतीक्ष्य, प्राणान्नृपः पञ्च च षट् च यायात् । अष्टौ दितीये विगुणास्तृतीये, व्यावृत्त्य नूनं गृहमन्युपेयात् ॥१॥" "राजाने प्रयाण वखते पहेलुं शकुन अशुल थयुं होय तो पांच अने उ एटले अगीयार प्राण सुधी राह जोश्ने पठी प्रयाण करवू, बीजी वखत पण अशुन शकुन थाय तो आ० २७ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ॥ श्रारंभ सिद्धि ॥ हिगुण व एटले सोळ प्राण सुधी विलंब करीने पती चालवुं श्रने त्रीजी वार पण अपशकुन याय तो पाठा फरीने घेर ज श्राववुं.” सिवाय बीजां शकुनो शकुननां आगम ( शास्त्र ) थी एटले वसंतराज विगेरेनां करेला शास्त्रोथी जाएवां. अर्थात् वीजा श्राचार्योए पोतपोताना ग्रंथोमां यात्राना अधिकार प्रयाने योग्य एवां शकुनो पण विस्तारथी कह्यां वे, श्रमे तो अहीं तेनुं प्रस्तुत ( प्रसंग ) नहीं होवाने लीधे तथा शकुननां शास्त्रथी पण तेना ज्ञाननो संजव होवाथी ह्यांनी. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ने शू ए चारे वर्णाने साधारण यात्राना विधिने कही ने हवे शत्रुना विजयना प्रयोजनवालुं नृपादिकनुं प्रयाण चाळीश श्लोकोवमे कहे वे, तेमां प्रथम ष्ट निमित्तोनो परिहार करे वे. ―― कालिकीषु विद्यर्जितवर्षासु वसुमतीनाथः । उत्पातेषु च नौमान्तरिक्ष दिव्येषु न प्रवसेत् ॥ २५ ॥ अर्थ - राजा काळे थती एटले गर्भ के वर्षास्तु विना यती वीजळी, गर्जना तथा वृष्टि विषे प्रयाण न करवुं, वहीं राजाए करीने सामंतादिक तथा श्राचार्यादिक पण जाणवा. तथा जौम, अंतरिक्ष ने दिव्य उत्पातोमां प्रयाण न करवुं. अहीं नौम उत्पात एटले जूमिकंप विगेरे, तथा जे चर पदार्थोनुं स्थिर श्रवाप अने स्थिर पदार्थों चल स्वभावपणुं अथवा पुष्प फळादिकनो विकार ए सर्व जौम एटले भूमिना उत्पात जावा. अंतरिक्ष ( आकाश ) ना उत्पात उल्कापात, निर्घात ( आकाशमां गरुगमाट), पवननुं तोफान, गंधर्व नगर, इंद्रधनुष, रातो ऐरावण हाथी, परिवेष, दंग, परिघ विगेरे जावा. तथा दिव्य उपवो एटले चंद्र के सूर्यनुं ग्रहण, ग्रह तथा नक्षत्रनो विकार केतुनुं दर्शन ए विगेरे जाणवा. मूळ श्लोकमां च शब्द वे तेथी राहु ने योगिनी ( जोगणी ) विगेरेनो पण विचार करवो. "आवा समयमां सात दिवस सुधी प्रयाण कर नहीं" एम दैवज्ञवान कहे बे. "एक दिवस तो अवश्य तजवो" एम सारंग कहे a. " केतु जोयो होय तो सोळ दिवस सुधी प्रयाण न करवुं, पण चैत्र के वैशाक मासमां जोयो होय तो ते शुन बे" एम वराह कहे बे. हवे यात्राने योग्य एवं लग्न कहे बे. - यातव्यं दिग्मुखे लग्ने सिद्ध्यै शीर्षोदये तथा । एतद्विलोमयोर्जातु यात्रा यातुर्न सिद्धये ॥ २६ ॥ १ चंद्र सूर्य विगेरेनी फरतु कुंडालुं. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ २११ अर्थ-मेपादिक राशि अनुक्रमे पूर्वादि चार दिशाउँना ईश , ते ज प्रमाणे सिंहादिक चार तथा धन्वादिक चार राशि पूर्वादिक दिशाउना ईश ने एम पूर्वे कडं वे. ते राशि ते ते दिशाना मुखवाळी जे एम ज्योतिर्विदो कहे , तेश्री दिग्मुख लग्नमां तथा शीर्षोदयी लग्नमां प्रयाण करवाथी कार्य सिद्धि थाय बे अने तेथी उलटुं एटले उत्तर के पूर्व मुखर्नु लग्न होय त्यारे अनुक्रमे दक्षिण के पश्चिममां गमन करवू अने दक्षिण के पश्चिम मुखवाळा लग्नमां अनुक्रमे उत्तर के पूर्वमां गमन करवू तथा पृष्ठोदय लग्नमां गमन करवू ए सिधिने माटे नथी. विशेष ए जे के यात्रामां लग्न प्राये चर ज ग्रहण करवं. लग्ननुं दिग्मुख चक्र. पूर्व मेष, सिंह, धन उत्तर कर्क, वृश्चिक, मान वृष, कन्या, मकर दक्षिण RE ARRIA खल कहे जे के“अनिष्टदं दिक्प्रतिलोमलग्नं, पृष्ठोदये वावितकार्यनाशः" । "प्रतिखोम ( उलटी) दिशामां लग्न होय अने गमन करे तो अनिष्ट फळ मळे तथा पृष्ठोदयी लग्नमां गमन करे तो इचित कार्यनो नाश श्राय." जन्मलग्ने शुन्ना यात्रा जन्मराश्युदये तु न । तयोश्चोपचयस्थेषु राशि विष्टा परेषु न ॥२७॥ अर्थ-यात्रा करनार नृपादिकने जन्मलग्नमां यात्रा करवी शुन्न , श्राथी करीने एवं सूचव्यु के-प्रथम जन्मनु लग्न जाणीने पछी यात्रानुं लग्न आपq जोइए, ते विना लग्न श्रापवू नहीं, कारण के जन्मलग्न जाणीने दशा, आयुष्य अने ग्रहनुं बळ जोश्ने आपेलु यात्रादिक, मुहूर्त फळदायक श्राय बे. रत्नमाळामां कडं डे के___ "अज्ञातजन्मनोऽप्यन्यैर्यानं योज्यमिति स्मृतम् । प्रश्नलग्ननिमित्ताद्यैर्विज्ञाते सदसत्फले ॥१॥" । __“जन्मलग्न जाणवामां न होय तोपण प्रश्नलग्न अने निमित्त विगेरे अन्य चेष्टाए करीने शुनाशुन फळ जाणीने प्रयाणर्नु मुहूर्त आपq एम कडं ." Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ॥ श्रारंलसिछि॥ __जन्मराशिना उदयमां यात्रा करवी शुल नथी, एटले के जन्ममां जे ठेकाणे चंड होय ते जन्मराशि कहेवाय . ते जन्मराशिनु ज लग्न होय तो तेमां यात्रा करवी शुन नथी. रत्नमाळामां तो "जन्मराशिना लग्नमां पण यात्रा करवी शुन्न " एम का ले. ते जन्मलग्न अने जन्मराशिनी अपेक्षाए जपचयस्थानमां एटले ३-६-१० अने ११ मा स्थानमा रहेली राशि यात्रामा शुल . ते सिवाय बीजा स्थानमां होय तो तेमां यात्रा करवी शुल्न नथी. विशेष ए ने जे-"शत्रुनी जन्मराशि के जन्मलग्न अथवा ते बन्नेना स्वामी तत्काळना लग्नथी चोथे के सातमे स्थाने होय त्यारे पण यात्रा करवाथी जय थाय ने, अने जो शत्रुनी जन्मराशि अने जन्मलग्ननां उपचयस्थानो चोथे के सातमे स्थाने होय तोपण जय श्राय ," एम रत्नमाळामां कडं बे. पापैरस्तांबुगैर्दृष्टे युते वा जन्मलमन्ने । सौम्यग्रहैस्तु नैवं चेत्तदा यातुः पराजवः ॥ ७ ॥ अर्थ-जे कोई स्थानमा रहेली जन्मलग्ननी राशि यात्रालग्नना सातमा ने चोथा स्थानमा रहेला पापग्रहोए करीने युक्त होय अथवा तेमनी दृष्टि पम्ती होय, तथा ते ज जन्मलग्ननी राशि सातमा ने चोथा स्थानमा रहेला सौम्य ग्रहोए करीने युक्त के दृष्ट न होय तो (तेवे वखते) प्रयाण करनारनो परानव थाय. अर्थात् पापग्रहनी जेम सौम्य ग्रहोए युक्त अथवा दृष्ट होय तो पराजव न थाय. विशेष ए ने जे-यात्राने समये जन्मकुंकळी संबंधी आठमुं तथा बहुं स्थान क्रूर अने सौम्य ग्रहोए सहित होय तो ते अशुल ने. ते विषे दैवज्ञवलनमां कडंबे के-“वधः प्रयातुस्त्वरितिः प्रसूतौ, रंध्रारिने क्रूरशुनान्विते चेत्” । “जन्मनुं श्रावमुं अने बहुं स्थान जो क्रूर श्रने शुज ग्रहोए युक्त होय तो ते वखते शत्रु तरफ प्रयाण करनारनो वध थाय ." अष्टमं स्वेन्मुलग्नाच्या ताज्यां षष्ठमथ द्विषः। ताशिनाथयुक्तं वा लग्नं यातुरनर्थकृत् ॥शए । अर्थ-जन्मकाळना चंथी श्रने जन्मकाळना लग्नथी जे आठमुं लग्न ते यात्रामां तजवा योग्य ने अने ते बन्नेथी जे बहुं लग्न होय ते पण तजवा लायक बे. तथा शत्रुना जन्मलग्नयी अने जन्मराशिथी बछे स्थाने रहेली जे राशि ते जो लग्नमां होय तो तेने पण तजवी. तेमज जन्मराशिथी श्रने जन्मलग्नथी जे आठमी अने बड़ी राशि होय तथा शत्रुना जन्मलग्नथी अने जन्मराशिथी जे बही राशि होय ते गए राशिऊंना स्वामीए करीने युक्त एवं जे लग्न ते पण यात्रामां तजवा लायक के. श्रा सर्व प्रकारचें सन्न प्रयाण करनारने अनर्थकारक . श्रा विषे दैवज्ञवसनमां कडं ने के Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥चतुर्थो विमर्शः॥ "जन्म १ लग्नाष्टमरा शिलग्ने २, षष्ठोदये । शत्रुललग्नतो वा ६। ताशिनाथै ६ रथवोदयस्थैः, करोतु यात्रां विषलक्षणं वा ॥१॥" "जन्मराशि तथा जन्मलग्नथी श्राग्मी राशिनुं लग्न होय, अथवा शत्रुनी जन्मराशि अने जन्मलग्नथी बहु स्थान लग्न- होय, अथवा ते सर्वेना स्वामीए करीने युक्त खग्न होय तो तेवा समये प्रयाण करो अथवा विषy लक्षण करो, ते बन्ने समान ." कर्कवृश्चिकमीनानामुदयेऽशे च न ब्रजेत् ।। मूर्तिस्थेऽहर्बले रात्रौ रात्रिवीर्येऽह्नि च ग्रहे ॥३०॥ अर्थ-कर्क, वृश्चिक अने मीननुं लग्न होय अथवा तेनो नवांश होय ते वखते प्रयाण करवू नहीं. तथा यात्राना लग्नमां रहेलो ग्रह जो दिवसे बळवान् होय तो रात्रे प्रयाण करवू नहीं अर्थात् दिवसे प्रयाण करवं अने ते ग्रह जो रात्रे बळवान् होय तो दिवसे प्रयाण करवू नहीं अर्थात् रात्रे प्रयाण करवू. ___ कर्क अने वृश्चिक ए बे कीट (कीमा ) , तेथी तेमनुं यात्रामा असमर्थपणुं ने, माटे ते बे वर्जवा अने मीन लग्नमां प्रयाण कर्यु होय तो वक्र मार्गे नटकी लटकीने कार्य सिद्ध कर्या विना ज पागे आवे . ते विषे रत्नमाळामां कडं बे के "वक्रः पन्था मीनलग्नेशके वा, कार्यासिघौ स्यानिवृत्तिश्च तत्र"। "मीनना लग्नमां अथवा नवांशमां प्रयाण कर्यु होय तो वक्र मार्गमा ज एटले अवळे मार्गे जवाय जे, अने कार्यनी सिद्धि कर्या विना पाबु अवाय बे.” तथा “घमो (कुंल) खाली ने, तेथी कुंलनुं लग्न तथा नवांश पण तजवा योग्य " एम पण रत्नमाळामां कडं जे. सिध्यै सौम्येशलग्नानि नौयानं जलन्नेष्वपि । जानीयाहोकतश्चात्र राशीनां वश्यतां मिथः ॥३१॥ अर्थ-सौम्य स्वामीना लग्नमां प्रयाण करवाथी कार्यसिद्धि थाय ने, अने वहाणर्नु प्रयाण जळचर राशिना लग्नमां अथवा तेना नवांशमां पण कार्यसिधिने माटे , अने वहाण पूर्ण थवाथी विघ्नरहितपणुं तथा लाल ए वन्ने थाय बे. तथा अहीं राशिउनु परस्पर वशपणुं लोकधी जाणवू. ते विषे दैवज्ञवबन्नमां कडं बे के "चतुष्पदा ध्यं हिवशा विसिंहाः, सरीसृपश्चाम्बुचराश्च नदयाः। सिंहस्य वश्या विसरीसृपाः स्युरुह्यं जनोक्तव्यवहारतोऽन्यत् ॥१॥ स्थलाम्बुसंजूतसरीसृपाख्या, नवन्ति वश्या बलिनां स्वकानाम् । समा ह्युसंस्था विषमान नजन्ते, वश्या रजन्यां विषमाः समानाम् ॥ ॥" "मेष, वृष, सिंह, धनुषनो पाउलो अर्ध नाग तथा मकरनो पहेलो अर्ध नाग,पाटलां Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ॥ श्रारंसिधि॥ चतुष्पद कहेवाय , मिथुन, कन्या, तुला, कुंज अने धनुषनो पहेलो अर्ध नाग, श्राटला मनुष्य , कर्क, मीन अने मकरनो पालो अर्धनाग, आटलांजळचर , अने एक वृश्चिक सरीसृप एटले वृश्चिक. हवे श्लोकना अर्थ था प्रमाणे -सिंह सिवायनां चतुष्पदो मनुध्यने वश्य ने, वृश्चिक अने जळचरो मनुष्यना नदय (नक्षण करवा लायक ) बे. वृश्चिक विनाना सर्वे सिंहने वश ने, बीजु मनुष्यमां कहेला व्यवहारथी जाणवू एटले के वृश्चिकने सिंह पण वश्य बे. सर्वे पुरुष राशि कन्याने वश्य बे, तथा धनुषने सर्वे वश्य ने विगर (१). जो बन्ने राशि परस्पर स्थळचर, जळचर के वृश्चिक होय त्यारे ते बन्नेनी मध्ये जे बळवान् होय तेने बीजो एटले दुर्बळ वश्य होय . जेम मेष वृषने वश्य , मीन अने कर्क मकरने वश्य जे. वृश्चिकने वीजो निर्बळ वृश्चिक वश्य होय . वन्ने मेष के बन्ने वृष विगेरे बन्ने एक ज होय तोपण वृश्चिकनी जेम वळर्नु अधिकपणुं विचारीने वश्यपणुं जाणवू. श्ष्ट लग्न दिवसे के रात्रिए होय . तेमां जो दिवस होय तो सम राशि विषम राशिने वश्य होय अने रात्रि होय तो विषम राशि सम राशिउँने वश्य होय . श्रानुं फळ आगळ कहेशे." जन्मकाले शुर्युक्ता द्वितीयास्तरणेश्च ये। निष्क्रूरा निर्विकाराश्च ते लग्ने राशयः शुजाः ॥३॥ अर्थ-जे राशि जन्मकाळे शुन ग्रहोए युक्त होय, तथा जे राशि रविथी बीजी होय, श्रा सूर्यथी बीजी राशिनी जातकमां “वेशि” एवी संज्ञा ( नाम ) कही जे. “सूर्याद्वितीयमृदं वेशिः" "सूर्यथी बीजुं लग्न वेशि कहेवायचे,” एम कडं ने, तथा जे राशि निष्कर एटले जन्मकाळे जे राशिमां कर ग्रह न होय एवी होय, तथा जे निर्विकार होय एटखे के क्रूर ग्रहे लोगवेली राशि सविकार श्रने चं लोगवेली होय ते निर्विकार कहेवाय जे. जन्मकाळे आवी राशिर्ड होय तो ते यात्राना लग्नमां शुल जाणवी. यञ्च वश्यं स्खलनेन्छोर्न च वश्यं हिषस्तयोः । शत्रोरेवाष्टमं ताच्या लग्नं यातुर्जयावहम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-जे यात्रानुं लग्न पोताना जन्मलग्नने तथा जन्मराशिने वश्य होय, अने शत्रुना जन्मलग्नने तथा जन्मराशिने वश्य न होय, वळी ते यात्रालग्न शत्रुना जन्मलग्न अने जन्मराशिथी आम्मे होय, तो ते लग्न यात्रा करनारने जय श्रापनारुं . श्रा प्रमाणे आठ श्लोकोवझे यात्राने योग्य लग्न कह्यु. हवे “जत्ता उवग्गसुद्धीए""यात्रा उ वर्गनी शुछिए करीने करवी योग्य ” एम हर्षप्रकाशमां कडं ने, माटे यात्राने योग्य एवा होरादिक पांच वर्ग कहे . Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ विमुक्ताकान्तजोग्यानि राज्यर्द्धान्युष्णरश्मिना । ऊर्ध्व तिर्यगधोमुख्यो होराः स्युरुदयावधि ॥ ३४ ॥ अर्थ-जे होरा सूर्ये जोगवीने मूकी दीधी होय ते ऊर्ध्वमुखी कहेवाय बे, जे जोगवाती होय ते तिर्यमुखी कहेवाय बे ने जे हजु हवे जोगववानी बे ते अधोमुखी कहेवाय बे. त्यारपवीनी बीजी ऋण होराने एज रीते अनुक्रमे ऊर्ध्वमुखी, तिर्यग्मुखी अधोमुखी जाणवी, त्यारपवीनी पण त्रण ए ज रीते जाणवी. ए प्रमाणे त्रण त्रण होराने अनुक्रमे उदय सुधी एटले सूर्योदय सुधी ते ते नामवाळी जाणवी. अथवा उदय सुधी एटले लग्नमां अधिकार करेली होरा सुधी जाणवी. या प्रमाणे त्रण प्रकारनी होनी कल्पना करवी. तेथी करीने एक दिवस रात्रिमां थइने चोवीश होरा होवाथी तेमना नए नए प्रकार गणवाथी आठ वखत श्रवृत्ति थाय बे. हवे त्रण प्रकारनी होरानुं फळ कहे बे. - जय मूर्ध्वमुखी होरा विपद स्तिर्यगानना । अधोमुखी रणे यातुङ्गं दिशति लग्नगा ॥ ३५ ॥ अर्थ - लग्नमां रहेली ऊर्ध्वमुखी होरा युद्धमां जयने पे बे, तिर्यग्मुखवाळी आप तिने पे बे, छाने अधोमुखी होरा नाशने आपे बे. अर्थात् लग्नमां ऊर्ध्वमुखी होरा वे ते वखते प्रयाण करवाथी जय थाय बे. हवे का विषे कहे बे. - द्वेष्काणः फलरत्नाढ्यः शुजनाथः शुभेदितः । शुजोऽशुनस्तु सास्त्रादिपावकः ( पाशकः ) पापवीक्षितः ॥ ३६ ॥ अर्थ- दरेक राशिमां ऋण ऋण प्रेष्काण होवाथी बारे राशिना मळीने बत्रीश प्रेष्काण eta a. मां जे प्रेष्काण फळ, रत्न तथा उपलक्षणश्री पुष्प, जांग (वास) विगेरेथी युक्त होय, सौम्य स्वामीवाळो होय, सौम्य स्वामीए पूर्ण ( चार पाद) दृष्टिए जोयेलो होय, तेमज सौम्य आकारवाळो होय, ते प्रेष्काण जो यात्राना लग्नमां होय तो ते शुन बे, छाने जे प्रेष्काण यात्रालग्नमां अस्त्र, सर्प ने नए करीने युक्त होय अथवा . पाश एटले बंधने करीने युक्त होय, तथा क्रूर ग्रहे जोयेलो होय तेमज उपलक्ष्णथी क्रूर ग्रहे युक्त होय, क्रूर स्वामीवाळो होय अथवा क्रूर आकारवाळो होय तो ते शुन बे. कांबे के “द्रेष्काणाकार चेष्टा गुणसदृशफलं योजयेद्वृद्धिहेतोका सौम्यरूपे कुसुमफलयुते रत्नजांगान्विते च । २१५ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिधि॥ सौम्यदृष्टे जयः स्यात्प्रहरणसहिते पापदृष्टे च लङ्गः, साग्नौ दाहोऽथ बन्धः सनुजगनिगमे पापयुक्तेऽपि चाऽश्रीः॥१॥" . "वृधिने माटे श्रेष्काणचें फळ तेना आकार, चेष्टा अने गुणनी सदृश जाणवू. तेमां जो जेष्काण सौम्य आकारवाळो तथा पुष्प, फळ, रत्न अने नांझथी युक्त होय तथा सौम्य ग्रहे जोयेलो होय तो जय थाय बे. हथियार सहित तथा पाप ग्रहे जोयेलो होय तो जंग (नाश) थाय, अग्नि सदित होय तो दाह थाय, सर्प तथा वंधन सहित होय तो बन्धन पाय, अने पाप ग्रहे युक्त होय तो अलक्ष्मी थाय.” प्रेष्काणोनां रूपो (आकारो) बृहज्जातकमां था प्रमाणे कह्यां जे.१ मेष राशिमा पहेलो जेष्काण पुरुषरूपे, तेना हाथमां परशु ने. अने ते तेणे उंचो करेलो , वळी ते काळो, रक्त नेत्रवाळो अने क्रूर .१.बीजो जेष्काण स्त्रीरूपे , तेने रातां वस्त्र , तेनुं मुख अश्वनी जेवू , तेनुं मुख, ऊरू ( साथळ ) अने पग सांवा , एक पगवझे देखाय , तथा चतुष्पद जेतुं तेनुं मुख होवाथी ते चतुष्पद . २. श्रीजो प्रेष्काण पुरुष , क्रूर, कपिल वर्णवाळो, रातां वस्त्रवाळो तथा उंचो करेलो दंम हाथमा राखेलो .३. २ बृष राशिमा पहेलो घेष्काण स्त्रीरूपे , तेना केश टुका अने कपायेला ने, उदर मोटुं बे, तेनां वस्त्र तथा चूषणो अग्निथी दग्ध श्रयेला वे. १. बीजो श्रेष्काण पुरुषरूपे बे, बकरा जेवा मुखवाळो बे, धान्य, क्षेत्र, वास्तु (घर), हळ अने गामाना कर्ममा कुशळ , तथा ते चतुष्पद . २.त्रीजो श्रेष्काण पुरुष ने, तेनुं शरीर तथा पग मोटा . ३. ३ मिथुन राशिमां पहेलो श्रेष्काण स्त्रीरूपे . ते प्रेष्काणरूप स्त्री स्वरूपवान् , दीन प्रजावाळी,उंचा हाथवाळी, ऋतुवाळी तथा अलंकारोमां श्रादरवाळी बे. १. बीजो जेष्काण पुरुषरूपे .गरमनी जेवा मुखवाळो, उद्यानमा रहेलो तथा बखतर अने धनुष बाण धारण करेलो , श्रा खग (पक्षी). २. त्रीजो जेष्काण नररूपे . रत्नोथी शोनित, पंमित. तूण (बाण, नाथु) तथा बखतरने धारण करनार अने धनुर्धारी . ३. ४ कर्कमां पहेलो श्रेष्काण नर . हाथीना जेवू शरीर , अश्वनी जेवो कंठ , सूकर (मुंम) जेमुख बे, पत्र (पांदमां) तथा मूळने धारण करनार , श्रा चतुष्पद . १, बीजो जेष्काण स्त्री ने, जुवान , सर्प सहित ने, आने वनमा रहेनार . २.त्रीजो जेष्काण नर ने, ते सर्पथी वीटायेलो . वहाणमां बेठेलो ने, तथा सुवर्णना श्राजरणोथी युक्त .३. . ५ सिंहमां पहेलो श्रेष्काण नर . ते शामली वृक्ष पर बेगे , गीध, शीयाळ श्रने कूतरा जवो तथा मलिन वस्त्रवाळो बे. श्रा खग तथा चतुष्पद . १. बीजो बेष्काण नर बे. अश्वनी आकृतिवाळो, काळु चर्म अने कंबलने धारण करे , धनुर्धारी बे, तेनी नासिकानो अग्र जाग नमेलो . या चतुष्पद . २. त्रीजो बेष्काण नर ने. तेनुं मुख Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ रीठ जेवं ने, वानर जेवी चेष्टा करे , दाढी मूवाळो ने, टुंका केशवाळो , तेना हाथमां दंग, फळ अने मांस बे. आ चतुष्पद . ३. ६ कन्यामा पहेलो जेष्काण स्त्रीरूपे बे. ते जेष्काणरूप स्त्री पुष्पोथी नरेला घमाथी युक्त ने, मलिन वस्त्रवाळी के, ते गुरुना कुळनी श्छा राखे . १. बीजोप्रेष्काण नर बे. तेना हाथमां लेखण जे, ते रंगे श्याम बे, तेने वाळ घणा , तेनुं मस्तक वस्त्रथी ढांकेढुंचे, तेना हाथमा विस्तारवाळु धनुष ने. २. बीजो जेष्काण स्त्रीरूपे .ते जेष्काणरूप स्त्री गौरवर्णवाळी, उंची, धोयेलां सारां वस्त्रवाळी बे, तेना हाथमां कुंन तथा कम्जी, ते देवालय तरफ जाय जे. ३. ७ तुलामां पहेलो जेष्काण नर बे. तेना हाथमा त्राजवां बे, ते चौटामा रहेलो ने, मान तथा उन्मान करवामां चतुर ने तथा लांमनी चिंता करे बे. १. बीजो प्रेष्काण नर बे. तेनुं मुख गीध पदीना जेवू बे, ते घट सहित बे, नूख्यो तथा तरस्यो बे. श्रा खग वे. २. त्रीजो प्रेष्काण नर बे. ते फळ अने मांसने धारण करनार , सुवर्णना तूण (नाथो) तथा वखतरने धारण कर्या ने, वानरनी जेवो ने, रत्नवमे चित्र विचित्र जे, हाथमा धनुष ने तथा ते वनमां मृगोने लय पमाझे . था चतुष्पद . ३. .. वृश्चिकमां पहेलो जेष्काण स्त्रीरूपे . ते काणरूप स्त्री नग्नने, स्थानथीघ्रष्ट थयेली चे, तेना पग सर्पश्री बांधेला , तेनुं रूप मनोहर , ते समुअमांथी कांग तरफ श्रावे बे. १.बीजो जेष्काण स्त्रीरूपे बे. ते पतिने माटे सर्पवळे पोताना अंगने वींटे , तेनी आकृति काचबा अने कुंजना जेवी , ते स्थान तथा सुखने श्छे . २. त्रीजो बेष्काण पुरुष. सिंह जेवं तेनुं रूप में, तेनुं नाक चीबj अने मुख काचबा जेवू . श्रा काचबो तथा चतुष्पद . ३. ___ए धनमा पहेलो जेष्काण नर ने. तेना हाथमा लांबुं धनुष बे, ते मनुष्य जेवा मुखवाळो अने अश्वनी जेवा शरीरवाळो बे. आ चतुष्पद . १. बीजो जेष्काण स्त्रीरूपे . तेनुं अंग गौरवर्ण जे, ते समुषमाथी रत्नो काढे . २. त्रीजो जेष्काण नर जे. ते गौरवर्णवाळो ने, हाथमा दम राखीने बेठेलो ने, दाढी मूबवाळो ने, रेशमी वस्त्र तथा चर्मने धारण करनारो . ३. १० मकरमा पहेलो श्रेष्काण नर बे. तेने शरीरे घणा वाळ , तेनी आकृति सूकर () जेवी ने, तेनी दाढा स्थूळ , ते बंधनश्री बंधायेलो , तेने रौष मुख ने. श्रा चतुष्पद . १. बीजो जेष्काण स्त्रीरूपे बे. ते श्याम, अलंकार सहित तथा कानमां लोहना आजूषणयी जूषित , २. त्रीजो जेष्काण नर बे. तेनुं अंग किन्नर जेवू , तेणे तूण, बखतर अने धनुषने धारण कर्या चे, तेणे कंबल धारण कर्यो , तथा स्कंध उपर रत्न जमित कुंज उपाड्यो बे. ३. आ० २८ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ॥ आरंभ सिद्धिः ॥ ११ कुंजमा पहेलो का नर बे. ते चर्मने धारण करनार, गीध पक्षींना जेवा मुखवाळो तथा कंबल सहित बे. आ खग बे. १. बीजो प्रेष्काण स्त्रीरूपे बे. तेनां वस्त्रो मलिन बे, ते मस्तक पर जांग राख्यां बे, अग्निवमे शकट ( गामी ) बळी जवाथी मांथी लोढुं ग्रहण करे बे. २. त्रीजो द्रेष्काण नर बे. ते सिंहना जेवो बे, श्याम बे, तेना कानमा वाळवे, तेना मस्तक पर मुगट बे, तेथे बाल, पांदकां, रस ने फळ धारण करेला बे. ३. १२ मीनमा पहेलो प्रेष्काण नररूपे बे. तेना हाथमां हार, मोती अने शंख बे, तेणे आभूषणो पर्या े, ते नावमां बेठो बे, अने समुद्र तरे बे. १. बीजो प्रेष्काण स्त्री े. तेनुं अंग गौर बे, ते नावमां बेटी बे, अने ते समुद्रमांथी कांठा तरफ जाय बे. २. त्रीजो sorry नर बे. ते नग्न, जीरु छाने चोर तथा अग्निथी व्याकुळ थयेलो बे, तेनुं श्रंग सर्पथी वटायेलुं बे, ते गर्ता (खामा ) नी पासे रहेलो बे. या प्रेष्काण व्याकुळ बे. ३. नुं फळ चिंता तथा खोवायेली वस्तुना प्रश्नमां "डेष्काणोए करीने ( तेने अनुसरीने ) चोरो कहेला बे” ए प्रकारे बे. रोगीना प्रश्नमां जो गृध, कोल के सर्पनो त्रिंशांश लग्नमां होय तो ते रोगीनुं मरण थाय बे. बंधनथी बूटवाना प्रश्नमां सर्पनो त्रिंशांश लग्नमां आवे तो श्रृंखलाथी के पाशथी बंधन थाय इत्यादि. यात्राना विषयमां श्र प्रेष्काणनो जेवी रीते उपयोग वे ते प्रथम कह्यो बे. soकाना स्वामी प्रथम कह्या बे. ते प्रेष्काण शुभ ग्रहे जोयेलो होय एम जे मूळ लोकमां कं वे मां एवं समज के जे प्रेष्काण लग्नमां रहेलो बे, ते नामनी राशि यात्रानी कुंकळी मां जे स्थाने होय तेने जो शुभ ग्रहे जोयेली होय तो ते द्रेष्काण शुभ ग्रहे जोलो कहेवाय बे. जेमके वृषनो बीजो द्रेष्काण कन्या बे, तेनो स्वामी बुध बे, ते सौम्य बे, तेना उपर बारमा छाने पहेला स्थानमा रहेला शुक्र छाने गुरुनी पूर्ण दृष्टि परे बे. ए ज रीते क्रूर स्वामीपणुं ने क्रूरदृष्टिपणुं पण जाणवुं. एज प्रमाणे आगळ उदयास्तनी शुद्धि विगेरे कहेवाशे, तेमां पण नवांशादिकनुं सौम्य ने क्रूर स्वामीपणुं तथा सौम्य क्रूर दृष्टिपणं जाणवुं. शन्यर्केन्डुकुजाँस्त्यक्त्वा शुनोऽन्येषां नवांशकः । लग्नवद्वादशांशस्तु त्रिंशांशस्तु नवांशवत् ॥ ३७ ॥ अर्थ - शनि, सूर्य, चंद्र ने मंगळना नवांशने बोमीने वीजाना नवांशो शुभ बे लग्ननी जेम द्वादशांश जावो, अने नवांशनी जेवो त्रिंशांश जावो. दैवज्ञवतनमां कंबे के Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थी विमर्शः ॥ “लग्नेऽर्कस्य नवांशे वाहननाशः कुजस्य वह्निजयम् । इन्दोः प्रतापहानिः शनैर्नवांशे मरणमेव ॥ १ ॥ " “लग्नमां सूर्यनो नवांश होय तो वाहननो नाश थाय, मंगळनो होय तो अग्निनो जय थाय, चंद्रनो होय तो प्रतापनी हानि थाय, अने शनिनो नवांश होय तो मृत्यु ज थाय.” लग्ननी जेम द्वादशांश जाणवो, एटले के "यातव्यं दिग्मुखे लग्ने ०" श्लोक ( २६ मा) श्री आरंजीने " यच्च वश्यं स्वलग्नेन्धो ०" श्लोक ( ३३ मा ) सुधीना व श्लोकोमां लग्न संबंधी जे जे कां वे ते सर्व द्वादशांशमां पण समजवुं. त्रिंशांशने नवांशनी जेम जावो, एटले के शनि ने मंगळ विना वीजा ग्रहोनो त्रिंशांश शुन बे, सूर्य अने चंद्रने तो त्रिंशांश ज वे नहीं. । इति पवर्गशुद्धिः । ते षड्वर्गनी शुद्धि कही. हवे यात्राने विषे वार जावोने कहे बे. - तनुः १ कोशो २ जटो ३ यानं ४ मंत्रो परि ६ वर्त्म 9 जीवितम् ८ । मनः ए कर्मा १० जना ११ मंत्री १२ जावाः स्युरुदयादयः ॥ ३८ ॥ २१ अर्थ- -तनु १, कोश २, जट ३, यान ४, मंत्र ५, अरि ६, वर्त्म ( अध्या - मार्ग) ७, जीवित, मन ए, कर्म ( जाग्य - व्यापार ) १०, अर्जन ११, मंत्री १२. या उदयादिक बार जाव जाणवा. या बार स्थानोनुं शुभाशुभ फळ ग्रहना बळी विचाराय बे. अहीं पूर्वेकहेली बार जावोनी विचारणा प्राये करीने सरखी ज बे, पण विशेषे करीने तो यात्रामा बार जावोने श्रीने ग्रहनो विचार या प्रमाणे कहे बे. - हन्ति योधाय कर्मान्यानसौम्यः कर्म चासितः । सौम्योऽप्यरिं सितोऽध्वानं चन्द्रश्च तनुजीविते ॥ ३० ॥ अर्थ - क्रूर ग्रह त्रीजा, अगीयारमा छाने दशमा जाव विनाना बीजा सर्व जावोने हवे. अर्थात् ३-११-१० जावोने पुष्ट करे बे. तेमां पण शनि दशमा जावने पण दबे, अर्थात् वीजा जावोने तो ऐ बे ज. केवळ त्रीजा अने अगीयारमा जावने ज पुष्ट करे बे. सौम्य ग्रह पण एटले गुरु, शुक्र, बुध अने चंद्र वा जावने हो बे, अने वीजा सर्व जावोने पुष्ट करे बे. क्रूर ग्रह तो क्रूर होवाथी वा स्थानने हो बेज एम अपि शब्दथी ज सिद्ध थाय छे. अहीं कोइ शंका करे बे के सर्व सौम्य ग्रहो बघा नाव सिवाय बीजा सर्व जावोने पुष्ट करे बे के तेमां कां विशेष वे ? ते उपर कहे बे के - एक शुक्र सातमा जावने पण हणे बे, अने चंद्र पहेला तथा आमा जाने पण हवे. शुक्र चंद्र बघा जावने तो द ज बे. ते तो कह्युं ज बे, तेथी करीने श्र प्रमाणे जावार्थ थयो. - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ॥श्रारंसिद्धि "ख १० स्थशनिवर्जमुपचयगाः क्रूराः सर्वगाः शुन्नाः सौम्याः। हित्वाऽस्ते ७ सितमष्टम लग्न १ गशशिनं च यात्रायाम् ॥ १॥" "यात्राने विषे दशमा स्थानमा रहेला शनि विनाना सर्वे क्रूर ग्रहो उपचयस्थानमा (३-६-१०-११) रह्या होय तो ते शुन बे. अर्थात् एक शनि दशमा स्थानमां शुन नथी. सातमा जावमा रहेला शुक्रने तथा आठमा नावमा अने लग्नमां रहेला चंने गेमीने सर्वे सौम्य ग्रहो सर्व नावमा रहेला शुक्न जे." __ था रीते यात्रानी कुंमळीमां सामान्ये करीने बार नावोनो विचार कर्यो. हवे लग्नमां रहेला ग्रहोनो विचार करे . जन्मन्यनिष्टः सौम्योऽपि न लग्नस्थः शुनो ग्रहः। तत्रेष्टदस्तु पापोऽपि यात्रालग्नस्थितः शुत्नः ॥१०॥ अर्थ-सौम्य ग्रह पण जो जन्मसमये अाठमे बारमे स्थाने रहेवाए करीने श्रशुल होय, अने ते यात्राना लग्नमां पहेला स्थानमा रह्यो होय तो ते शुल नथी, अने जे क्रूर ग्रह पण जन्मसमये के अगीयारमे स्थाने रहेवाए करीने शुन्न होय, आने ते यात्राना लग्नमां पहले स्थाने रह्यो होय तो ते शुन्न बे. जन्मसमयना शुनाशुन्न ग्रहो विस्तारथी जातकमां बाप्या चे, त्यांथी जाणवा. संक्षेपथी तो आ प्रमाणे जाणवं. "क्रूरास्त्रिषमायस्थाः सितेन्गुरवोऽन्तिमाष्टरिपुवर्जाः। व्यष्टान्तिमरिपुवों बुधः प्रशस्यो जननसमये ॥१॥" "जन्मसमये क्रूर ग्रहो त्रीजे, हे अने अगीयारमे स्थाने रह्या होय तो ते शुन . शुक्र, चंच अने गुरु ए त्रण ग्रहो बारमा, आवमा अने बघा स्थान सिवाय बीजे को स्थाने रह्या होय तो ते शुल . तथा बीजा, आमा, बारमा अने बना स्थानने वर्जीने बीजा कोर पण स्थानमा रहेलो बुध शुन्न .” पापोऽप्यनीष्टदो जन्मलग्नर्दस्वामिनोः सुहृद् । मूर्ति स्थितः शुनोऽपि स्यादशुनोऽरातिरेतयोः ॥४१॥ अर्थ-पहेला स्थानमा रहेलो पापग्रह पण जो जन्मलग्नना स्वामीनो तथा जन्मराशिना स्वामीनो मित्र होय तो ते शुल , अने शुल ग्रह पण जन्मलग्नना स्वामीनो तथा जन्मराशिना स्वामीनो शत्रु होय तो ते अशुल बे. सुहृदशापतेः १ सद्यः सफलो २ जनने बली ३। क्रूरोऽपि त्रिविधो नअस्तनौ सौम्योऽपि नेतरः ॥ ४२ ॥ श्रर्थ-यात्रालग्नमां प्रथम स्थाने रहेलो पापग्रह पण जो दशापतिनो मित्र १, Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २१ सद्यः सफळ २ अने जन्मनो वळवान् ३, ए त्रण प्रकारमांनो कोइ पण होय तो ते सारो वे. ते सिवायनो सौम्य ग्रह पण सारो नथी. ___ यात्राने समये जे ग्रहनी दशा चालती होय ते ग्रह दशापति कहेवाय जे, तेनो जे मित्र ते दशापतिनो मित्र कहेवाय जे. विशेष ए ले जे यात्राने समये दशापति पण बळवान् होवो जोश्ए. ते विषे लल्ल कहे के “यात्रा नैव दशापतावुपहते नैवास्तगे नाबले, __नीचस्थे न च नैव वक्रिणि नृणां देया कदाचिद्बुधैः।” "दशापति हणायेलो ( पराजय पामेलो ) होय, अस्त पाम्यो होय, वळहीन होय, नीच स्थाने रह्यो होय तथा वक्री थयो होय तो ते वखते पंमितोए मनुष्योने यात्रानुं मुहूर्त देवू नहीं." ___ दशानो क्रम, तेनुं प्रमाण तथा तेनो वित्नाग विगेरे स्वरूप जातकादिक ग्रंथोथी जाएवं. अहीं तेनुं प्रस्तुत नहीं होवाथी तथा ते स्वरूप अत्यंत विस्तारवाळु होवाथी अहीं लखता नथी, परंतु ते स्थान ( विषय )ने शून्य न राखवाने माटे एक वर्पनी दिनदशानुं प्रमाण अहीं स्थूळ दृष्टिए बतावीए बीए. “निजनामराशितः प्रति गण्यते वर्तमानसंक्रान्तेः। गतदिवसावध्येवं दिवसदशाः स्युः क्रमादेताः॥१॥ रवी १न्छ २ नौम ३ ४ शनी ५ ज्य ६ राहु - सकेतु शुक्रेषु ए नखाः २० खबाणाः । अष्टाश्वि २७ पडूबाण ५६ रसाग्नि ३६ देव ३३देवा ३३ ति शीत्य ३४ नहया ७० दशाहाः ॥२॥ हानिं १ धनं २ रुजं ३ लदमी ४ दैन्यं ५ सदमी ६ च बन्धनम् । नयं श्रियं ए चार्कादीनां दद्युर्दिनदशाः क्रमात् ॥ ३॥" "पोताना नामनी राशिथी आरंजीने वर्तमान संक्रांतिना गयेला दिवसो सुधी श्रा प्रमाणे अनुक्रमे दिनदशा गणवी.-रविनी २० दिवस, चंनी ५० दिवस, मंगळनी २० दिवस, बुधनी ५६ दिवस, शनिनी ३६ दिवस, गुरुनी ३३ दिवस, राहुनी ३३ दिवस, केतुनी ३४ दिवस अने शुक्रनी ७० दिवस. अहीं एम समजवानुं के-पोताना नामनी राशिमा जे दिवसे सूर्यनी संक्रांति बेठी होय ते दिवसथी आरंजीने चालता दिवस सुधीना दिवसो गणवा. जेटला दिवसो गया होय तेमां पहेला वीश दिवस रविनी दिनदशा जाणवी, त्यारपसीना ५० दिवस चंजनी दिनदशा जाणवी. ए रीते अनुक्रमे गणतां श्ष्ट दिवसे जे ग्रहनी दिनदशा आवे ते ग्रह दशापति कहेवाय वे. ते दशापतिर्नु Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंलसिधि ॥ फळ आ प्रमाणे जे.-सूर्यनी दिनदशा हानि कर्ता चे, चंनी दिनदशा धन आपनार बे, मंगळनी दशा रोग आपे , बुधनी दशा लक्ष्मी आपे चे, शनिनी दशा दीनता आपे बे, गुरुनी दशा लक्ष्मी आपे , राहुनी दशा बंधन करावे, केतुनी दशा नय उपजावे अने शुक्रनी दिनदशा लक्ष्मी आपे बे." मूळ श्लोकमां सद्यः सफळ ग्रह कह्यो , तेनो अर्थ ए के जे-जे ग्रह इष्ट दिवसे गोचरे करीने अथवा प्रतिकूळ वेधे करीने शुल होय ते ग्रह सद्यः सफळ कहेवाय , अने जे ग्रह गोचरे करीने अथवा अनुकूळ वेधे करीने अशुल होय ते सद्यः अफळ कहेवाय . तथा मूळ श्लोकमां जन्मनो वळवान् ग्रह कह्यो , तेनो अर्थ ए ने जेजन्मकुंभळीमा जे ग्रह बळवान् एटले सर्वोत्कृष्ट बळवाळो होय ते जन्मनो बळवान् कहेवाय . तथा ते सिवायनो सौम्य ग्रह पण एटले के जे ग्रह वर्तमान दशाना ईशनो शत्रु होय, अथवा जे ग्रह ते वखते अफळ होय अथवा जे ग्रह जन्मकाळे निर्बळ होय तो तेवो सौम्य ग्रह पण सारो नश्री. अहीं कोई शंका करे के-जन्मनो वळवान् ग्रह ज्यारे सारो ने त्यारे जे सर्वोत्कृष्ट बळवान् ग्रह श्रापमा विगेरे स्थानमा रहेवाए करीने अनिष्ट फळने आपनार ते पण पहेला स्थानमा ग्रहण करवा लायक थशे. आ शंकानुं समाधान ए ले के-“जन्मन्यनिष्टः सौम्योऽपि" ए उपरना चाळीशमा श्लोकवमे ज तेनो निषेध श्राय . तान तथा कारक संज्ञा अने तेनुं फळ कहे जे.जन्मकाले विधोर्यघाऽन्योऽन्येनोपचयस्थिताः । तानाख्याः सौम्यवत्कृरा जातकोक्ताश्च कारकाः॥४३॥ अर्थ-जन्मकुंमळीमां ज्यां चंड रह्यो होय त्यांथी उपचय (३-६-१०-११)स्थानमा जे जे ग्रहो रहेला होय तेनी चंजनी अपेक्षाए तान संज्ञा कहेवाय ने तथा जन्मकाळे जे जे ग्रहो एक वीजाथी जपचयस्थानमा रहेला होय तेमनी पण परस्पर तान संझा कहेवाय बे, एटले के पिता पुत्र, गुरु शिष्य विगेरेनी जेम तान शब्द पण संबंधिवाचक बे, तेथी ते संबंध बन्नेमां रहेलो होवाथी दरेकनी तान संझा कहेवाय ने, कारण के तान शब्दनो अर्थ एवो थाय ने के "तन्वन्ति विस्तारयति अन्योऽन्यस्य कार्य इति तानाः" "एक बीजाना कार्यने विस्तारे एटले करे ते तान कहेवाय जे." ए जप्रमाणे कारक संज्ञानु बन्नेमा रहेवापणुं अने सार्थकपणुं जाणवू. ते तान संझावाळा ग्रहो क्रूर होय तोपण सौम्य जेवा जाणवा. तथा जातकने विषे जे ग्रहोनी कारक संज्ञा कहेली ने ते पण क्रूर होय तोपण सौम्व जेवा जाणवा. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ ॥ चतुर्थों विमर्शः॥ जातकमां कारक संझावाळा ग्रहो या प्रमाणे कह्या .-"जे ग्रहो पोतानी राशिमां, पोताना उच्च स्थानमा अथवा पोताना त्रिकोणमा रह्या होय, ते जो केंजस्थानमां होय तो ते सर्वे परस्पर कारक संज्ञावाळा कहेवाय . तमनी मध्ये दशमा केंप्रमा रहेलो ग्रह वीजा ग्रहोनो विशेषे करीने कारक होय . आ सर्वे ग्रहोर्नु लग्नमां रहेल चंजनी दृष्टिए करीने बळवानपणुं जाणवु. जेम कर्कनुं लग्न होय अने लग्नमां चंड होय त्यारे सूर्य, मंगळ, गुरु अने शनि, ए ग्रहो पोतपोताना उच्च स्थानमा रह्या सता परस्पर कारक संझावाळा थाय . तेनी स्थापना या प्रमाणे. ग. च. १० मं. तथा लग्नमां जे ग्रह रहेलो होय तेना स्थानथी दशमा अने चोथा स्थानमा रहेलो कोइ पण ग्रह पोताना स्थानमां, पोताना उच्च स्थानमां के पोताना त्रिकोणमा रह्यो न होय तोपण कारक आय . तथा लग्न अने केंज विना पण कोइ पण स्थाने रहेला ग्रहना स्थानथी जो कोइ पण ग्रह दशमा स्थानने विष पोतानुं स्थान, पोतानुं उच्च स्थान अने पोतानुं त्रिकोण, एमांना कोइ पण एकने विष रह्यो होय अने स्वानाविक अथवा तात्कालिक मैत्रीए करीने युक्त होय त्यारे ते पण तेनो कारक कहेवाय जे. कडं बे के "स्वोच्चगमूल त्रिकोणगाः, कंटकेषु यावन्त आश्रिताः । सर्व एव तेऽन्योऽन्यकारकाः, कर्मगस्तु तेषां विशेषतः॥१॥ कर्कटोदयगते योपे, स्वोच्चगाः कुजयमार्कसूरयः । कारका निगदिताः परस्परं १, लग्नगस्य सकलोऽम्बराम्बुगः ॥२॥ स्वर्दकोणोच्चगः खेटः, खेटस्य यदि कर्मगः। सुहृत्तझुणसंपन्नः, कारकश्चापि संस्मृतः ॥ ३॥" Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्२४ ॥श्रारंसिद्धि॥ __"पोताना स्थानमां, पोताना उच्च स्थानमां अने मूळ त्रिकोणमा रहेला जेटला ग्रहो कंटक (१-४-४-१०) स्थानमा रह्या होय ते सर्वे परस्पर कारक कहेवाय बे. तेमां पण दशमे स्थाने रहेला ग्रह विशेषे करीने कारक कहेवाय जे. जेमके कर्कना लग्नमां चंड रह्यो होय त्यारे पोताना उच्च स्थानमा रहेला मंगळ, शनि, सूर्य अने गुरु, ए चारे परस्पर कारक कहेला बे. तथा दशमा अने चोथा स्थाने रहेलो सर्व कोई ग्रह स्वगृह, उच्च केत्रिकोणनो न होय तोपण ते लग्ननो कारक थायले. पोताना स्थानमा, त्रिकोणमां के उच्चमा रहेलो ग्रह जो दशमा स्थानमां होय तो ते लग्नना ग्रहनो तद्गुणने पामेलो मित्र कहेवाय बे तथा तेने कारक पण कह्यो .” जन्मलग्नेशयोस्तानः कारको वापि लग्नगः । __ असौम्योऽपि शुजाय स्याध्यस्तः सौम्योऽपि चान्यथा ॥४४॥ अर्थ-जन्मेश अथवा लग्नेशनो तान अथवा कारक जो लग्नमां रह्यो होय तो ते असौम्य (क्रूर ) बतां पण शुनने माटे , अने ते सिवायनो सौम्य ग्रह पण अशुन जे. ___ यात्रा करवानी श्वावाळा राजादिकना जन्मसमये जे राशिमां चंड रह्यो होय ते राशिनो ईश जन्मेश कहेवाय . ते जन्मेश ग्रहनो अथवा जन्मना लग्नेश ग्रहनो जे ग्रह जन्मपत्रिमा तानरूप अथवा कारकरूप होय अने ते क्रूर होय तोपण यात्रानी बग्नपत्रिमा प्रथम स्थाने रहेलो शुल बे, अने तेथी विपरीत एटले जे सौम्य ग्रह पण जन्मपत्रिकामा जन्मेश के खग्नेशनो तान के कारक न होय ते ग्रह यात्रानी लग्नपत्रिकामां प्रथम स्थाने रहेलो शुन्न नथी. अर्थात् यात्रामां तान अने कारकनुं बळ अवश्य ग्रहण करवं जोश्ए. दैवज्ञवसनमां कडं वे के "नायकाः स्युः प्रसूतौ ये रक्षका ये च वर्धकाः। ते क्रूरा अपि यात्रायां लग्नस्थाः शुलदा ग्रहाः ॥१॥" "जन्मकाळे जे ग्रहो नायक होय, जे रक्षक होय अने जे वर्धक एटले वृधिकारक होय ते ग्रहो क्रूर होय तोपण यात्रामां लग्न (प्रथम ) स्थाने रहेला शुन जे.” आ नायक, रक्षक अने वर्धकनुं स्वरूप बृहत् जातकमांधी जाणी लेवू. , वक्री केन्ऽथ तो लग्ने यातुर्जयापहः। गतिप्रमाणवणैर्वा विकृतश्च ननश्वरः ॥ ४५ ॥ अर्थ-वक्री ग्रह केंजमा रह्यो होय अथवा ते वक्री ग्रहनो वर्ग लग्नमां रह्यो होय तो यात्रा करनारना जयनो नाश करे . तथा जे ग्रह गति, प्रमाण अने वर्षे करीने विकृत (विकारवाळो) होय ते पण यात्रालग्नमां प्रथम स्थाने रहेलो अशुल बे. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ ३३५ सूर्य ने चंद्र वक्री होइ शकता नथी, तेथी मंगळ विगेरे कोइ पण ग्रह यात्रासमये वक्र गतिवाळो होय ते एक ज जो यात्रालग्नमां केंद्रस्थाने रह्यो होय तो ते जयनो नाश करे बे, तो पढी बे ऋण वक्री ग्रह रह्या होय तेमां तो शुं कहेवुं ? अथवा ते ज वक्री प्रनो वर्ग एटले होरानो असंभव होवाथी गृह ( स्थान ), द्वेष्काण ने नवांश विगेरेरूप वर्ग जो लग्नमां होय तो ते पण अशुभ बे, वक्र गतिना दिवसनी ने मार्गगतिना दिवसनी संख्या ज्योतिषसारमां आ प्रमाणे कही बे. - "पणस ६५ इक्कवीसा २१ बारसाहियं सयं च ११२ बावन्ना ५२ । तीस सयं च १३४ कमा वक्कदिणा मंगलाई ॥ १ ॥ सगसपणाल ७४५ बिएवइ ए२ चुचालसय १४४ पंचसयचउडीसा ५२४ । दो का सया चालीसा २४० मंगलमाईण मग्गदिया ॥ २ ॥” "मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र अने शनि ए पांच ग्रहोना वक्र गतिना दिवस अनुक्रमे ६५-२१-११२ - २२ अने १३४ बे, तथा मंगलादिकना मार्गगतिना दिवसो अनुक्रमे १४५ - ०२ - १४४-५२४ अने २४० बे." गति, प्रमाण ने वर्णे करीने विकृत ग्रह पण यात्रालग्नमां प्रथम स्थाने रहेलो शुन नथी. तेमां अतिचारी ग्रह गतिए करीने विकृत कहेवाय बे. तिचारी ग्रहनुं स्वरूप या प्रमाणे कां बे. - “पक्षं १ दशाहं २ त्रिपक्षी ३ दशाहं ४ मासषट्तयी ५ । अतिचारः कुजादीनामेष चार स्त्वितोऽपरः ॥ १ ॥” "मंगलादिक ग्रहोनो अतिचार अनुक्रमे पंदर दिवस, दश दिवस, त्रण पक्ष ( दोढ मास ), दश दिवसाने व मास सुधी बे. त्यारपबीना दिवसो चार कदेवाय बे." या उपर कदेला प्रमाथी बो के अधिक प्रमाणवाळो ग्रह आकाशमां जातो होय तो ते ग्रह प्रमाणे करीने विकृत कहेवाय बे. एज प्रमाणे वर्णे करीने विकृत पण जावो. लल्ल तो कहे बे के – “जे ग्रहनुं जन्मनक्षत्र क्रूर ग्रह के उस्कापात विगेरेथी पीमा पाम होय ते ग्रह पण यात्रालग्नमां प्रथम स्थाने रहेलो शुभ नथी. ग्रहनां जन्मनक्षत्र या प्रमाणे बे. - "विशाखा १ कृत्तिका २ प्यानि ३ श्रवणो ४ भाग्य ए मिज्यनम् ६ । रेवती 9 याम्यमश्लेषा ए जन्मण्यर्कतः क्रमात् ॥ १ ॥" १ होरा चंद्र भने सूर्यनीज होय छे, ते प्रथम कही गया छे. * भर १ चित्तु २ तरसाढा ३ णि ४ उत्तरफग्गु ५ जिठ्ठ ६ रेवइआ ७ | सुराइ जम्म रिक्खा एएहिं वज्जमुसळ पुणो ॥ १ ॥ आ प्रमाणे प्रथम विमर्शमां छे तथा प्रथम विमर्श प्रमाणे ज लमशुद्धिमां तथा नारचंद्रमां पण कहेल छे, तेथी विशाखा इत्यादि उपरनो पाठ मतांतर जाणवो. आ. २९ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥आरंसिछि॥ "रविन जन्मनक्षत्र विशाखा , चंगें कृत्तिका ने, मंगळर्नु पूर्वाषाढा ने, बुधनुं श्रवण बे, गुरुर्नु पूर्वाफाल्गुनी ने, शुक्रनुं ज्येष्ठा ने, शनि-रेवती बे, राहुनुं नरणी ने अने केतन जन्मनक्षत्र अश्लेषा ." उत्तरान्तश्चरो नानोः शुनो नान्यस्तनौ ग्रहः। फलेन वर्गो वारश्च तनुगव्योमगोपमः ॥ ४६॥ अर्थ-जे ग्रह सूर्यनी उत्तरचर अथवा अन्तश्चर होय ते जो यात्रालग्नमां पहेले स्थाने रह्यो होय तो ते शुल बे. ते सिवायनो शुन नश्री. अहीं एम जाणवू के–इष्ट दिवसे जे स्थाने सूर्यनो उदय अने अस्त थतो होय ते स्थान सारी रीते निर्णय करीने ध्यानमा राखq. तथा जे स्थाने विवक्षित (कहेवाने श्वेला ) ग्रहनो उदय तथा अस्त थतो होय ते पण ध्यानमा राखq. पनी ते ग्रह जो सूर्यथी उत्तर दिशामां उदय श्रने श्रस्त पामतो होय तो ते ग्रह उत्तरचर कहेवाय , अने ते ग्रह जो सूर्यने ज स्थाने उदय अने अस्त पामतो होय तो ते अंतश्चर कहेवाय . आ बे जातना ग्रह यात्राखग्नमां प्रथम स्थाने रह्या होय तो ते शुक्ल ने, अने ते सिवायनो वीजो एटले सूर्यथी दक्षिणचर होय तो ते श्रशुल . श्रा प्रथम स्थानना ग्रहनुं स्वरूप जो के अहीं यात्राने उद्देशीने कह्यु , तोपण विवाहादिक सर्व शुन कार्यना लग्नमां पण था रीते ज समजq. दैवज्ञवबजमां विशेष आ प्रमाणे कडं बे. "लग्नेऽर्कारौ शनर्धाम्नि शुन्नावन्यत्र जंगदौ । शीतांशुरुदयप्राप्तः सर्वकार्येषु नाशदः ॥१॥ जीवशुक्रशनिस्थाने स्थितो खग्ने जयार्थदः । स्थानेष्वन्छनौमानां शशिसूनुरनर्थदः (कः)॥२॥ मन्दारबुधसूयाणां स्थानेषु शुनदो गुरुः। शुक्रेन्ऽस्थानगो लग्ने धनयोधविनाशकः ॥ ३ ॥ सौम्यस्थाने सितः शस्तो लग्नस्थोऽन्यत्र नेष्टदः। बायापुत्रो रविस्थाने प्रीतिदोऽन्यत्र नाशदः॥४॥ स्वस्थाने न शुनो मन्दो लग्नेऽन्यत्र शुनावहः । यात्रायां चन्जमाः शस्तो दिग्वलेन विवर्जितः॥५॥" "यात्रालग्ननी कुंमळीमां सूर्य अने मंगळ जो शनिना स्थानमा रह्या होय तो ते शुन बे, वीजा को स्थानमां होय तो नाशने करनारा बे, चं उदयना स्थानमा रह्यो होय तो सर्व कार्यमां नाशने आपनारो , अने गुरु, शुक्र तथा शनिना स्थानमा रह्यो होय जो जय श्रने धनने आपनार थाय . सूर्य, चंड अने मंगळना स्थानमां बुध रह्यो होय Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ २१७ तो ते अनर्थने आपनारो बे. शनि, मंगळ, बुध ने रविना स्थानमां गुरु होय तो ते शुन बे, तथा शुक्र अने चंद्रना स्थानमा रह्यो होय तो ते धन योद्धानो नाश करे बे. बुधना स्थानमां शुक्र रह्यो होय तो ते प्रशस्त (शुभ) बे, अने बीजे कोइ स्थाने रह्यो होय तो ते इष्ट वस्तुने श्रापनारो नथी ( शुन बे ). रविना स्थानमां राहु रह्यो होय तो प्रीति पनार बे, छाने बीजा कोइ स्थानमा रह्यो होय तो ते नाशने करनारो बे. शनि पोताने स्थाने रह्यो होय तो ते शुन नथी, ने बीजा कोइ पण स्थानमा रह्यो होय तो ते शुन बे. दिक्बळे करीने रहित एवो चंद्र यात्राने विषे प्रशस्त ( शुभ ) बे.” या प्रमाणे सामा ब श्लोके करीने प्रथम स्थाने रहेला ग्रहोनी व्यवस्था कही. हवे मूळ श्लोकना उत्तरार्धवमे यात्रालग्नमां व वर्ग तथा वारनो नियम कहे बे. - वर्ग एटले पड्वर्ग तथा वार एटले यात्राना दिवसनो वार, ए प्रथम स्थानमा रहेला होय तो तेनुं फळ दशमा स्थाने रहेला ग्रहनी जेवुं जाणवुं, एटले के "जन्मन्यनिष्ट" ए ४० मा श्लोकथी रंजीने या श्लोकना पूर्वार्ध सुधीमां कहेली रीते करीने जेवो ग्रह प्रथम स्थानमां शुभ अथवा अशुभ कहेलो होय, तेवाज ग्रहना गृह, होरा विगेरे ब वर्ग प्रथम स्थानमां रहेला होय तो ते शुभ अथवा अशुभ जाणवा, अने ए ज रीते यात्राने दिवसे वारनो पण निर्धार करवो. विशेष या प्रमाणे बे. - "उपचयकरस्य वर्गः क्रूरस्यापि प्रशस्यते लग्ने । चन्द्रो वा तद्युक्तो न तु विपरीतस्य सौम्यस्य ॥ १ ॥ उपचयकरग्रह दिने सिद्धिः क्रूरेऽपि यायिनां ( नो ) जवति । सौम्येऽप्यनुपचयकरे न जवति यात्रा शुजा यातुः ॥ २ ॥ " “उपचय करनारा क्रूर ग्रहनो वर्ग पण लग्नमां रह्यो होय तो ते शुज बे, अथवा ते प्रदे करीने युक्त चंद्र रह्यो होय तोपण ते शुन बे, पण उपचय करनारो न होय एवो सौम्य ग्रहनो वर्ग लग्नमां होय तो ते शुभ नथी. उपचय करनारा ग्रहनो दिवस ( वार ) क्रूर होय तोपण ते यात्रा करनारने सिद्धि श्रापनारो बे, परंतु उपचय करनार न होय एवा सौम्य ग्रहने दिवसे यात्रा करनारनी यात्रा शुभकारक नथी,” एम लल कहे बे. वळी दैवज्ञवनमां श्र प्रमाणे कां बे. - "सौम्योऽपि न शुनं दत्ते रिपोर्वारे विलग्नपः । वारे मित्रस्य पापोsपि जवेनफलप्रदः ॥ १ ॥ " " लग्ननो स्वामी सौम्य होय तोपण ते शत्रुना वारने विषे शुभ नथी, अने मित्रना यारने विषे पाप स्वामी पण शुभ फळने आपनारो बे. " Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिद्धि। वळी जेनो वार शुल अथवा अशुल होय तेनी होरा पण तवी ज शुज के अशुल जाणवी. तेनुं फळ शौनक था प्रमाणे कहे . "रूपं ग्रहस्य वर्गे स्वदिने विगुणं स्वकालहोरायाम् । त्रिगुणमरिवर्गयोगे फलस्य पात्यस्तृतीयांशः॥१॥" "ग्रहनुं फळ पोताना वर्गमां सर ज (पूर्ण) , पोताने दिवसे बमणुं जे, पोतानी काळहोरामां त्रण गणुं बे, श्रने शत्रुना वर्गने योगे त्रीजा नागनुं फळ मळे बे." तथा लव कहे के“बलिनः कंटकसंस्था वर्षाधिपमासदिवसहोरेशाः। विगुणशुनाशुनफलदा यथोत्तरं ते परिझेयाः ॥ १॥" "वर्षनो स्वामी, मासनो स्वामी, दिवसनो स्वामी अने होरानो स्वामी ए कंटक (केंज)स्थानमा रह्या होय तो ते बळवान् , तथा ते उत्तरोत्तर बमणा बमणा शुनाशुन फळने आपनारा .” प्रश्रम स्थानमा रहेखा ग्रहो तथा तेना षड्वर्ग विगैरेनी व्यवस्था कही. हवे बाकीना केंजादिक स्थानने श्राश्रीने कहे . केन्डेषु ग्रहशून्येषु लग्ने वीर्येण वर्जिते । बलहीनैश्च सौम्यैः स्यादनिषेणयतो जयम् ॥ ४ ॥ अर्थ केंजस्थान ग्रहवमे शून्य होय, लग्न वीर्यवझे रहित होय तथा सौम्य ग्रहो बळहीन होय, ते वखते शत्रु तरफ खम्वा माटे प्रयाण करनारने लय थाय . . केंजस्थान ग्रहशून्य होय एटले प्रथम तो केंना एक पण स्थानमा कोइ पण सौम्य ग्रह होय तो ज यात्रा अथवां बीजां कार्य करवा शुल . ते सिवाय शुल नथी. जो कदाच केंना कोइ पण स्थानमा कोइ पण सौम्य ग्रह न होय तो केंषनुं एक पण स्थान उपचयकारक क्रूर ग्रहवमे सहित होय तोपण ते शुल बे. केंजनां सर्व स्थानो एक पण ग्रह रहित होय तो सर्वथा अनिष्ट थाय. ते विषे रत्नमाळामां कडं ले के___“पापोऽपि कामं बलवान्नियोज्यः, केन्जेषु शून्यं न शिवाय केन्यम्"। "पापग्रह पण बळवान् करीने अवश्य केंजमां खाववो जोइए, केमके केंज शून्य होय तो ते कल्याणने माटे नथी." विशेष एटर्बु ले के-केंजमा सौम्य ग्रहो पापग्रहोए करीने सहित रह्या होय तो मोटा कष्टथी यात्रा सिद्ध श्राय . ते विषे लन कहे जे के "सौम्यैश्च पापैश्च चतुष्टयस्थैः, कृवण संसिधिमुपैति यात्रा"। "सौम्य तथा पापग्रहो केंजमा रह्या होय तो कष्टे करीने यात्रा सिधिने पामे ." Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ए ॥ चतुर्क विमर्शः॥ लग्न वीर्य रहित होय एम जे मूळ श्लोकमां कयुं तेमां एम समजवु के सौम्य स्वामी तथा सौम्य ग्रहने अनावे करीने तथा तेमनी दृष्टिने अनावे करीने तेमज क्रूर ग्रहोना स्वामी श्रने ग्रहोना होवापणाथी अथवा तेमनी दृष्टि पम्वाथी लग्न वीर्य रहित थाय बे. मूळ श्लोकमां सौम्य ग्रहो बळहीन होय एम कडं जे. तेमां ग्रहोर्नु बळहीनपणुं जुवनदीपकनी वृत्तिमा अढार प्रकारे कडं बे. "स्व १ मित्रनीचगो २ वक्रः ३ स्वराश्यस्ता । रिवर्गगः ५। खग्नावादशगः ६ षष्ठः ७ क्रूरैर्युक्तो छ ऽथ वीदितः ए॥१॥ याम्यो १० राहास्य ११ पुच्चस्थो १२ बालो १३ वृद्धो १५ ऽस्तगो १५ जितः १६। मुथुशिले १७ मुशरिफे पापै १० रित्यबलो ग्रहः ॥५॥" "पोताना नीच गृहमा रहेलो ग्रह निर्बळ ने १. मित्रना नीच गृहमा रहेको प्रह निर्बळ ले २. श्रा बन्ने जातनो ग्रह नीच नवांशमा रह्यो होय तोपण निर्बळ जाणवो. वक्र अथवा वक्रतामां सन्मुख थयेलो ग्रह निर्बळ डे ३. पोताना गृहनी राशिथी सातमी राशिमा रहेलो ग्रह निर्बळ प. शत्रुरूप अथवा अधि शत्रुरूप ग्रहना गृह, होरा विगेरे उ वर्गमा रहेलो ग्रह निर्बळ चे ५. सनथी बारमे स्थाने रहेलो ग्रह निर्बळ . समथी बछे स्थाने रहेलो ग्रह निर्बळ वे अ. क्रूर ग्रहे करीने युक्त एवो ग्रह निर्बळ डे ७. क्रूर ग्रहे जोयेसो ग्रह पण निर्बळ चे ए. कर्कादिक उ राशिरूप दक्षिणायनमा रहेखो ग्रह निर्बळ डे १०. राहुना मुखमा रहेलो ग्रह निर्बळ डे ११. राहुना पुलमां रदेखो ग्रह निर्बळ ले १५. राहुन मुख अने पुन्छ आ प्रमाणे जाणवू. “यत्र शहे स्थितो राहुर्वदनं तदिनिर्दिशेत् । मुखात् पञ्चदशे शके तस्य पुढं व्यवस्थितम् ॥ १॥" "जे नक्षत्रमा राहु रहेलो होय ते नक्षत्र राहुनुं मुख जाणवू, अने मुखश्री पंदरमुं जे नत्र होय त्यां तेनुं पुष्ठ रहेलुं ." __ बाळ एटले थोमा दिवसथी उदय पामेलो ग्रह निर्बळ ले १३. वृक्ष एटले अस्त श्रवामां सन्मुख श्रयेलो ग्रह निर्बळ ने, वृक्ष कहेवाथी अटप तथा रुक्ष बिंबवाळो अने कांतिरहित एवो ग्रह पण निर्बळ जाणवो १४. अस्त एटले सूर्यनां किरणोमा प्रवेश करवाथी अस्त पामेलो ग्रह निर्बळ ले १५. जीतायेलो एटले ग्रहोना युधमा जे ग्रह दक्षिणगामी होय ते निर्बळ , वराह कहे जे के शुक्र तो उत्तरगामी होय त्यारे जीतायेलो ने १६. मुथुशिल एटले शीघ्र गतिवाळो क्रूर ग्रह मंद गतिवाळा ग्रहना एक अंशमां मळ्यो होय श्रने वळी ज्यांसुधी ते मंद ग्रहनी पाबळ रह्यो होय त्यांसुधी ते मुथुशिल कहेवाय , तेनुं बीजुं नाम इथिशाब ले. श्रा मुथुशिल ग्रह निर्बळ होय ने १७. ज्यारे शीघ्र गतिवाळो क्रूर ग्रह मंद गतिवाळा प्रहना एक अंशमां मळीने पळी ते अंसने नवं Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ॥ आरंनसिद्धि घन करीने आगळ जाय त्यारे ते राशि पूरी श्रतां सुधी मूशरिफ योग कहेवाय जे. ते पण निर्बळ २ १७. जेमके कट्पनाए करीने गुरु त्रीजा त्रिंशांशमां मंद गतिवाळो , ते अंशमां श्रावेलो सूर्यादिक क्रूर ग्रह ज्यां सुधी ते त्रीजा अंशने उलंघन करीने नथी जतो त्यांसुधी मुथुशिल कहेवाय बे, श्रने ज्यारे ते त्रीजा अंशनो त्याग करीने चोथा अंशमां जाय त्यारे राशिना अंतसुधी मुशरिफ कडेवाय जे. जो शीघ्र गतिवाळो ग्रह क्रूर ग्रहमां श्रावीने श्राबे योगो उत्पन्न करे तो मंद गतिवाळो ग्रह निर्बळ जाणवो.” प्रश्नप्रकाशमां तो नव प्रकारे ज निर्वळता आ प्रमाणे कही बे."पापः शीघ्रः १ शुल्लो वक्री २ बालो ३ वृद्धो ४ रिना ५ स्तगः ६। नीचः ७ पापान्तरे ७ ऽष्टस्थ ए इत्युक्तो बलवर्जितः॥१॥" "क्रूर ग्रह शीघ्रगामी होय १, शुज ग्रह वक्री होय २, बाळक ३, वृक्ष ४, शत्रुना स्थानमा रहेलो ५, अस्त पामेलो ६, नीच स्थाने रहेलो , क्रूर ग्रह साथे रहेलो ,श्रने लग्नथी थाउमे स्थाने रहेलो ए, श्रा नव प्रकारनो ग्रह निर्बळ कह्यो ." या प्रमाणे अन्यत्र पण संनव प्रमाणे पुर्वळता जाणवी. दिगीशः केन्गः श्रेयान् दिग्बली नालगस्तु न । बलिनौ जन्मलग्नेशौ केन्द्रोपचयगौ शुनौ ॥ ४ ॥ अर्थ-दिक्पति केंजमां होय तो ते शुल , पण दिग्बली अने सन्मुख रह्यो होय तो ते शुक्ल नथी. जन्मेश श्रने लग्नेश बळवान् होश्ने केंज के उपचयस्थानमा रह्या होय तो ते शुन्न . दिगीश एटले जे दिशामा जवु होय ते दिशानो स्वामी जे कोई ग्रह बळवान् थश्ने यात्रालग्नमां कोई पण केंजना स्थानमा रह्यो होय तो ते शुल ने, परंतु गमन करवा योग्य दिशानो स्वामी ग्रह लग्नमां दिग्बळी होय तो ते शुल नथी. ग्रहोगें दिग्बलीपणुं पूर्वे "लग्नाद्युत्क्रमकेन्द्र०” (द्वितीय प्रकाश श्ए) ए श्लोकमां कडुं ने, तथा लालग एटले जवा लायक दिशानो स्वामी ग्रह लग्नमां तेज दिशामा रहेवा वझे करीने जनारने सन्मुख अतो होय तो ते शुल नयी. ते विषे दैवज्ञवसनमां कडं बे के "दिगीश्वरो खलाटस्थो यदि वा दिग्बलान्वितः। __वधबन्धप्रदो यातुः केन्गस्तु जयार्थदः॥१॥" "दिशानो पति सन्मुख रह्यो होय, अथवा दिग्वळे करीने सहित होय तो प्रयाण करनारने वध बंधन करनारो श्राय जे, अने केंजमा रह्यो होय तो जय तथा धनने थापनार थाय ." दिशाना पतिने सन्मुख्न रहेवानो प्रकार पूर्वाचार्योए आ प्रमाणे कह्यो . Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ "लग्ने १ लानुर्व्यय १५ जव ११ गतः शुक्र ारो ननः १० स्थो, राहुर्धर्मा ए ष्टम गृहगतः सप्तमस्थो ७ ऽर्कपुत्रः। नीहारांशू रिपु ६ तनय ए गो बंधु ४ गः सोमपुत्रो, जीवस्त्रि ३६२ स्थित इति खलाटस्थिताः पूर्वतः स्युः॥१॥" "लग्नमां (प्रथम स्थानमां) रहेलो सूर्य, बारमा अने अगीयारमा स्थानमा रहेको शुक्र, दशमा स्थानमा रहेलो मंगळ, नवमा अने आठमा स्थानमा रहेलो राहु, सातमा स्थानमा रहेलो शनि, बम अने पांचमा स्थानमा रहेलो चं, चोथा स्थानमा रहेलो वुध अने त्रीजा तथा वीजा स्थानमा रहेलो गुरु, आ प्रमाणे पूर्वादि दिशाना अनुक्रमे रहेला ग्रहो सन्मुख कहेवाय जे." यात्राना लग्नमां सन्मुख रहेला ग्रहनुं चक्रईशान १२ अग्नि ११ उ मंगल दक्षिण - शनि ९ चिद६ पश्चिम/ ८ राहु वायव्य नैऋत्य] सन्मुख रहेला ग्रहनुं फळ या प्रमाणे बे."शस्त्राग्निलयं १ व्याधि र्धनक्यो ३ बन्धनं ४ मृति ५ ाधिः ६। हारिः ७ सैन्यविमर्दो - लालगदिगधिपफलं क्रमशः ॥१॥" "पूर्व दिशानो अधिपति सन्मुख रह्यो होय तो शस्त्र अने अग्निनो लय थाय, अग्नि खूणानो स्वामी सन्मुख होय तो व्याधि श्राय, दक्षिणनो स्वामी सन्मुख होय तो धननो क्ष्य थाय, नैर्ऋत्यनो स्वामी सन्मुख होय तो बंधन थाय, पश्चिमनो स्वामी सन्मुख होय तो मृत्यु थाय, वायव्यनो स्वामी सन्मुख होय तो व्याधि थाय, उत्तरनो स्वामी सन्मुख होय तो पराजय थाय, अने ईशाननो स्वामी सन्मुख होय तो सैन्य नांगे." विशेष ए जे जे“उदय पामेलो केतु अग्र नागेलो नमेलो होय अने यात्रानी दि. शामां सन्मुख थयो होय तो ते शुज . तथा उपचय करनार ग्रहनी दिशामां जवं, पण अपचय करनार ग्रहनी दिशामां न जq." ए प्रमाणे लव कहे जे. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ॥श्रारंजसिद्धि। मूळ श्लोकमां जन्मेश श्रने लग्नेश बळवान् कह्या ते श्रा प्रमाणे. गंमांतमा रहे, गोचरादिकनी प्रतिकूळता, गति, प्रमाण अने वर्णथी विकृतिपणुं, सूर्यथी दक्षिणगामीपणुं, पूर्वे कहेवा अढार प्रकारनां पुर्बळपणांनो अनाव, उ प्रकारनां वळथी युक्तपणुं, तथा शत्रुनो पराजय करवापर्यु, थाटलांए करीने जन्मेश अने लग्नेश बळवान् कहेवाय . तथा मूळ श्लोकमां सामान्य रीते केंज लख्यो , तोपण सातमा स्थानने वर्जीने ज बीजा केंघस्थानमा रहेलो लग्नेश शुल ने एम जाणवं. विशेष ए ने जे"जन्मेश अने लग्नेश क्रूर होय तोपण तेमने सर्व कार्यमां बळवान् करीने सौम्य ग्रह जेवा ज जाणवा. केंपादिकमा रहेला अहोनी व्यवस्था कही. हवे यात्रानी कुंमळीमां केवा भने कया ग्रहोए प्रयाण करनारने कयो उपाय जयकारक ? ते कहे . सितेज्या १ विन्दु राज्ञितमोऽन्त्याः ३ सूर्यमंगलौ ।। सामादिसाधकाः केन्द्रोपचयेषु बलोत्कटाः॥४॥ अर्थ-यात्राकुंमळीमां शुक्र श्रने गुरु बळवान् अश्ने केंड के उपचयस्थानमा रह्या होय तो साम उपाये करीने जय थाय ने, ए ज रीते चंज रह्यो होय तो दान उपाये करीने, शनि, बुध, राहु श्रने केतु रह्या होय तो जेद उपाये करीने अने सूर्य तथा मंगळ रह्या होय तो दंग उपाये करीने जय थाय बे. ___साम एटले संधिना उपाये करीने जय थाय जे. अहीं करेखो संधि जे प्रकारे निश्चल थाय ते प्रकार कहे जे. "लाग्ये मैत्रे शीतरश्मौ स पुष्ये, पादश्यां वा शुक्रदृष्टे च लग्ने । ___अष्टम्यां वा तैतिलाख्ये प्रदिष्टा, पूर्वाचार्यैरत्र संधानसिधिः॥१॥" _ "दशमा तथा चोथा स्थानमां चंज होय, शुक्र लग्नने जोतो होय, बारस अथवा श्रामने दिवसे पुष्य नक्षत्रमा तैतिख नामा करणमा पूर्वाचार्योए संधाननी सिद्धि कथन करेखी जे." विशेष ए जे जे-ते ते ग्रहोना लग्नमां अथवा नवांशोमां तेमज वार होराने विषे पण अनुक्रमे कहेला उपाये करीने सर्व कार्यमां सिद्धि पाय . हवे जेवा ग्रहना बळे शत्रुथी पहेखां प्रयाण करवु के पनी करवू सफळ २ ते कहे जे. पौरा इजीवमन्दाः स्युरपरे यायिनो ग्रहाः। सफला यायिनिर्यात्रा बलिनिः स्थितिरन्यथा ॥५०॥ अर्थ-बुध, गुरु श्रने शनि ए त्रण ग्रहो पौर ( स्थायी) कहेवाय , श्रने बाकीना ग्रहो याची कहेवाय . तेमां जो यायी ग्रहो बळवान् होय तो शत्रुथी पहेला ज यात्रा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ ३३३ करवी सफळ , अने स्थायी ग्रहो वळवान् होय तो पोताने स्थाने ज स्थिति करवी सफळ , एटले के शत्रुनी पहेलां पोते प्रयाण न करवं. विशेष ए जे जे-“स्थायी अने यायी ग्रहो मिश्र होय एटले के बन्ने ग्रहोर्नु वळवानपणुं होय तो वैधी नाव करवो, एटले के अर्ध सैन्य स्थायी राखq अने अर्धा सैन्यने प्रयाण कराव. तथा सौम्य ग्रहो बळवान् होय तो संधि करवी अने क्रूर ग्रहो वळवान् होय तो युट करवायी जय थाय . वन्ने जातना ग्रहो निर्वळ होय तो कोश नाग्यवान् अन्य राजानो आश्रय करवो.” आ सर्व योगयात्रा ग्रंथमां कडं ठे. आ प्रमाणे पचीश श्लोकोए करीने यात्रानी लग्नकुंमळीनुं स्वरूप विस्तारथी कर्वा. या स्वरूप सामान्य रीते राजादिकने माटे जाणवू, कारण के राजा पण नीचेना श्लोकमां कहेखा योगो न मळे तोपण केवळ लग्नना बळथी पण यात्रा करी शके . ते विषे लह कहे जे के "ऐकान्तिकगन्तव्ये दैवेन निपीमिते च यातव्ये । केवल विलग्नयोगादपि याता सिधिमानोति ॥ १॥" "दैवयोगे अवश्य एकांते करीने यात्रा करवानी जरूर पमी होय तो केवळ खनना बळथी पण यात्रा करनार सिधिने पामे जे.” ___ हवे शुल तिथि, नक्षत्र, लग्न विगेरेना बळ विना पण जेवा ग्रहयोगोए करीने राजाउनी यात्रा सफळ थाय बे तेवा मात्र राजाने ज योग्य एवा यात्राने लायक ग्रहयोगो कहेवानी श्वाथी कहे जे. चौराणां शकुनैर्यात्रा नदात्रैश्च हिजन्मनाम् । मुहत्तः सिझयेऽन्येषां राज्ञां योगैश्च ते त्वमी ॥५१॥ अर्थ-चोरोने शकुनवझे यात्रा करवी सिधिने माटे बे, ब्राह्मणोने नक्षत्रनी शुधिए करीने यात्रा करवी शुल बे, बीजा एटले वैश्य, शूज, कारीगरो विगेरेने शुन मुहूर्ते करीने यात्रा करवी शुनजे, अने राजाने योगोवमे करीने यात्रा करवी शुल, एटले के तिथि, वार अने लग्नादिकनी शुद्धि न होय तोपण राजाउने श्रा ग्रहयोगोमां यात्रा करवाथी कार्यसिद्धि थाय ने. दैवज्ञवसनमां कडं बे के "तिथि १ कण न ३ वाराणां । साध्यं योगेन सिध्यति । तस्मात्सर्वेषु कार्येषु ग्रहयोगान् सुचिन्तयेत् ॥ १॥" "तिथि, मुहूर्त, नत्र अने वारोथी साधवा खायक कार्यों योगवझे सिख थाय ने, तेथी सर्वे कार्योमा ग्रहयोगनो सारी रीते विचार करवो.” आ.३० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ॥श्रारंसिद्धि ॥ अहीं कोई शंका करे के-ग्रहयोगनो विचार करवो ते ठीक ने, परंतु लग्न वळवान् बतां पण ग्रहोनी सौम्यता अने क्रूरता यत्ने करीने विचारवानी ने, श्रने अहीं तो तेना विचारनो लेश पण कह्यो नश्री. तेनो शो हेतु वे ? आनो जवाब ए ने जे-अहीं योगर्नु वळ ज प्रधानपणे कडं बे. जेम अन्य ओषधिना संयोगयी वत्सनाग विगेरे विष पण रसायणरूप थक्ने प्राणीने जीवामनारुं थाय , तेम क्रूर ग्रह पण योगना वशथी शलदायी श्राय बे. तथा जेम घी तथा मध सरखे नागे मिश्र करवाथी मृत्युने करनालं एबुं उपविष बन्ने बे एम चरकमां कडं बे, ते ज रीते शुन ग्रहो पण योगना वशथी अशुज थाय , तेथी करीने मास, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, मुहूर्त, चंड, तारा अने खनन विरुष्पणुं बता पण श्रा योगोए करीने यात्रा सफळ थाय ने एम सिद्ध मानवं. रलमाळामां पण कर्यु ले के "तिथी दाणे ने करणे च वारे, योगे विलग्ने हिमगौ नृपाणाम् । पापेऽपि यात्रा सफलात्र योगैः," "तिथि, मुहूर्त, नक्षत्र, करण, वार, योग, लग्न अने चंड ए सर्वे पाप एटले अशुन होय तोपण राजाउने योगोवमे करीने यात्रा करवी सफळ बे.” । श्रा योगोनुं वळ एकांतिक कार्यना विषयमा जाणवू, परंतु घणी उतावळ न होय तो मास, तिथि, नक्षत्र विगेरेनुं बळ तथा श्रा योगोनुं वळ एम सर्व बळ जो. ते विषे नास्कर कहे ले के-"अवमाधिमासयोर्न प्रतिष्ठतेऽन्नीष्टसिद्ध्यर्थी । “इष्ट सिधिना अीए क्ष्य मास तथा अधिक मासमां प्रयाण न करवू." "तथापि हि कुसललग्गि" "तोपण कुशळ (शुल ) लग्न जोवू.” इत्यादि. हवे ग्रहयोगो कहे जे.अर्कार्किशशिनः सिद्ध्यै राझा लग्ना १ रि ६ मध्य १० गाः (१)। सितेज्यमन्दझाराश्च लग्ना १स्त ७ त्रि३ सुखा शरिगाः (१)॥५॥ अर्थ-लग्नमां सूर्य, उठे स्थाने शनि अने दशमे स्थाने चंड रह्यो होय तो ते वखते राजानी यात्रा सिधिने माटे के. (१). लग्नमां शुक्र, सातमा नवनमां गुरु, त्रीजे स्थाने शनि, बीजे स्थाने बुध अने उठे स्थाने मंगळ रह्यो होय तो ते शुल ने. (२). गुरुझायश्च लग्न १ व २ञातृषु३ क्रमतः श्रिये (३)। लग्ना रिगौच जीवाौं जयदौ व्यष्टमे विधौ () ॥ ५३॥ अर्थ-लग्नमां गुरु होय, बीजा नावमां बुध होय अने त्रीजा नावमा सूर्य होय तो १ शुक्रः इति प्रत्यन्तरे. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २३५ ते लदमीने माटे -शुन्न . (३). लग्नमां गुरु होय, उषा नावमां सूर्य होय अने बाग्मा सिवाय वीजा कोर पण नावमां चंड होय तो ते पण शुल बे. (). मन्दारौ व्या ३ य ११ षट्सु शसितेज्याश्चोत्कटाः श्रिये (५)। केन्छे च बलिनौ झज्याविन्दौ त्वापोक्लिमेऽबले (६)॥५४॥ अर्थ-शनि अने मंगळ त्रीजे, अगीयारमे अने बछे स्थाने रह्या होय तथा बुध, शुक्र श्रने गुरु बळवान् श्रश्ने गमे ते स्थाने रह्या होय तो ते लदमीने माटे बे-शुल . (५). बुध अने गुरु वळवान् श्रश्ने केंजमा रह्या होय तथा चंग निर्वळ अश्ने श्रापोक्सिम एटले ३-६--१२ मे स्थाने रह्यो होय तो ते शुक्ल . (६). श्रिये विधुः सुखे ४ऽस्ते, तु सितझौ () व्यत्ययेन वा ()। याने त्रिकोणकेन्ऽस्थाः सौम्याः षट् व्यायगाः परे (ए) ॥५५॥ अर्थ-चंड चोथा नावमा रह्यो होय अने शुक्र तथा बुध सातमा नावमा रह्या होय तो ते लक्ष्मीने माटे . (७). अथवा विपरीतपणे होय एटले के शुक्र अने बुध घोया नावमां होय अने चंग सातमा नावमां होय तो ते पण लक्ष्मीने माटे वे. (). सौम्य ग्रहो त्रिकोण अने केंजमा रह्या होय तथा क्रूर ग्रहो बजे, त्रीजे अने अगीयारमे रह्या होय तो ते पण यात्रामा खदमीने माटे जे. (ए). जयाय मूर्ती १ मार्तंडः सौम्याः खे २ सप्तमो विधुः (१०)। बृहस्पतिर्वा केन्मस्थः शेषेषु स्वाश्य ११ वर्तिषु (११) ॥५६॥ अर्थ-प्रथम नावमां सूर्य होय, बीजा नावमां सौम्य ग्रह होय अने सातमा जावमा चंड होय तो ते जयने माटे जे. (१०). बृहस्पति (गुरु) केंजमा रह्यो होय अने बाकीना ग्रहो (क्रूर तथा सौम्य सर्वे) वीजा तथा अगीयारमा नावमा होय तो ते पण जयने माटे बे. (११). आ रीते अगीयार योग थया.. यातुः प्रारदक्षिणयोई सितान्तर्जयकरः सुखे चेन्छुः (१२)। गुरुरेकान्तर आर्के (१३) झे वा शुक्राच (१४) नौमाछा (१५) ॥७॥ अर्थ-पूर्व अथवा दक्षिणमा यात्रा करनारने चोथा नावमां रहेलो चंग जो बुध श्रने शुक्रनी मध्ये रह्यो होय तो ते जयकारक बे. (१२). पश्चिम अने उत्तर दिशामां यात्रा करनारने माटे आ योगनी अपेक्षा नथी. शनिथी एकांतर गृह (स्थान)मां गुरु रह्यो होय तो ते शुज . (१३). शुक्रथी एकांतर गृहमा रहेलो बुध होय तो ते शुन १ जे स्थाने शनि होय तेनी पछीना एक स्थानने मूकीने बीजाज स्थानमा रह्यो होय. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ॥ श्ररंजसिद्धि ॥ बे. (१४). ने मंगळथी एकांतर गृहमां रहेलो बुध पण शुभ वे. (१५). दैवज्ञवलनमां पण कांबे के "गुजादथवा महीसुताद्बुध एकान्तरने स्थितो यदा । रविजादथवा गुरुस्तदा, व्रजतो यान्त्यरयः क्ष्यं रणे ॥ १ ॥” " शुक्रथी अथवा मंगळथी एकांतर राशिमां जो बुध रह्यो होय, अथवा शनिथी एकांतर राशिमां जो गुरु रह्यो होय तो ते समये यात्रा करनारना शत्रु युद्धमां य पामे बे." गुरुर्जयाय लग्न १ स्थः क्रूरैर्लान ११ ननो १० गतैः (१६) तथा चन्द्रेऽष्टमे षष्ठे शुक्रे लग्नगतो गुरुः ( १७ ) ॥ ५८ ॥ अर्थ - लग्नमां (पहेला जावमां ) गुरु होय, अने क्रूर ग्रहो अगीयारमे तथा दशमे स्थाने दोय तो ते जयने माटे बे. (१६) चंद्र आठमा जावमां होय, शुक्र वा जावमां हो ने गुरु लग्नमां होय तोपण ते जयने माटे बे. या सर्वे मळीने कुल १७ योगो यया. हवे योगपिंक ( योगनो समूह ) कहे बे. - सिधी ए धर्म एए केन्द्रेषु बुधवाकूप तिजार्गवैः । १ योगो ऽधियोगो योगाधियोग ३ चैक १ द्विक २ त्रिकैः ३ ॥ ५ ॥ अर्थ- बुध, गुरु ने शुक्र ए त्रणमांथी एक ग्रह जो पांचमा, नवमा के केन्द्रमांना कोइ पण स्थानमां होय तो ते योग कहेवाय बे. तेवी ज रीते ( ते ज स्थानोमां ) जो बुध, गुरु ने शुक्रमांना वे ग्रहो रह्या होय तो धियोग थाय बे, अने ते त्र ग्रहो तेज स्थानोमा रह्या होय तो योगाधियोग थाय बे. या त्रणेनुं फळ दैवज्ञवननमां श्र प्रमाणे कं बे. - "योगेन यो याति नृपोऽरिदेशं, सुखेन सोऽभ्येत्यधियोगयाता । प्राप्नोति कीर्ति विजयं धनं च, योगाधियोगेन महीमशेषाम् ॥ १ ॥” "जे राजा योगे करीने शत्रुना देश उपर प्रयाण करे बे ते सुखेश्री पाबो वे बे, धियोगमां यात्रा करनार ( राजा) कीर्ति, विजय ने धन पामे बे, तथा योगाधियोगे करीने समग्र पृथ्वी पामे बे." अहीं या प्रमाणे आम्नाय बे. जो बीजो कोइ यात्रानो योग मळे अथवा न मळे तोपण जो बुध, गुरु ने शुक्र ए त्रणमांथी कोइ पण ग्रह उपर गणावेलां स्थानोमांथी कोइ पण स्थाने रह्यो होय तो ते ज वखते यात्रा करवी शुज बे, अने वे अथवा त्रणे ग्रहो उक्त स्थानमा रह्या होय तो ते घणाज उत्तम बे. यत्र योगो स्थूल दृष्टिए कह्या बे, पण सूक्ष्म दृष्टिए जोतां तो ऋणसो ने बेंता Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ २३७ लीश ३४२ योगो थाय बे. ( तेर्जुनी त्रे यति आवश्यकता नहीं होवाथी सख्या नथी. ग्रंथनी मोटी टीकामां ते सविस्तर प्यावे. ) ग्रहनी दृष्टिनी अपेक्षा रहित उपरना योगो कह्या. हवे ग्रहनी दृष्टिनी अपेक्षा वे योग थाय बे ते कहे बे. - शुक्रं व्या३या ११ म्बु ४ गं पश्यन् जीवो यात्रासु केन्द्रगः । राज्ञां दत्ते जयं क्रूरैः कलत्रादित्रयान्यगैः ॥ ६० ॥ अर्थ-यात्रालग्नमां केंद्रस्थाने रहेलो गुरु त्रीजा, अगीयारमा अने चोथा स्थानमां रहेला शुक्रने जोतो होय तथा क्रूर ग्रहो सातमा, आठमा अने नवमा सिवायनां बीजां स्थानमा रह्या होय तो ते समये प्रयाण करनार राजानो जय थाय बे. बुधो वपुः १ सुख ४ द्वेषि ६ व्योम १० स्थो वीक्षितः शुनैः । जयाय राज्ञां पापेषु लग्ना १ स्त ७ व्यय १२ वर्जिषु ॥ ६१ ॥ अर्थ - पहेले, चोथे, बछे के दशमे स्थाने रहेलो बुध शुभ ग्रहोए जोयेलो होय तथा पापग्रहो पहेला, सातमा ने बारमा सिवायना वीजां स्थानोमां रह्या होय तो ते प्रयाण करनार राजाने जय प्रापनारा बे. हवे सर्व योगोनो सार कहे बे. - इति सप्तरूपकार्थैः सकल श्लोकत्रयेण चोक्तेषु । योगेषु राजयोगेष्वपि शुभदा नूभुजां यात्रा ॥ ६२ ॥ अर्थ- प्रमाणे सात अर्धा श्लोकोए करीने तथा ऋण श्रखा श्लोकोए करीने योगो कह्या. ते सिवाय राजयोगोमां पण करेली यात्रा राजार्जुने शुभकारक बे. श्रा राजयोगो बृहत् जातकमां कह्या बे. ते पण यात्रामां उपयोगी बे. --- राजयोग सर्वे कार्यमां उपयोगी होवाथी अत्रे कहे बे. - “वक्रार्कजार्कगुरुद्भिः सकलैस्त्रिनिश्च, स्वोच्चेषु षोमश नृपाः कथितैकलने । काश्रितेषु च तथैकतमे विलग्ने, स्वक्षेत्र शशिनि षोमश जूमिपाः स्युः ॥ १ ॥” "शनि, मंगळ, सूर्य ने गुरु ए चारे ग्रहो पोतपोताना उच्च स्थानमां रहीने तेमांनो एक एक ग्रह लग्नमां रह्यो होय त्यारे चार राजयोगो थाय वे, ते चारे ग्रहमांना त्रण ग्रहो पोतपोताना उच्च स्थानमां रद्दीने ते त्रणेमांनो एक एक ग्रह लग्नमां होय त्यारे Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि॥ बार राजयोग श्राय . था वन्ने मळीने सोळ राजयोगो थाय . ते जरीते ते चार ग्रहो मांहेला वे ग्रहो उच्च स्थानमा रहीने तेमांनो एक एक ग्रह लग्नमां रह्यो होय अने चंड कर्कमा रह्यो होय त्यारे वार राजयोगो थाय , तथा ते चार ग्रहोमांथी एक एक ग्रह उच्च स्थानमा रहीने लग्नमां रह्यो होय अने कर्क राशिमां चंज रह्यो होय त्यारे चार राजयोगो थाय . आ वन्ने मळीने पण सोळ राजयोगो थाय ने, अने सर्वे मळीने बत्रीश थाय .” ते नीचे प्रमाणे. मेषमा सूर्य, कर्कमां गुरु, तुलामां शनि अने मकरमा मंगळ, बाकीना ग्रहो गमे ते स्थाने होय, या प्रमाणे ग्रहनी स्थिति होय त्यारे जो मेष लग्न होय तो पहेलो राजयोग थयो, कर्क लग्नमां बीजो राजयोग थयो, तुला लग्नमां त्रीजो अने मकर लग्नमां चोथो राजयोग थयो. हवेत्रण ग्रहो आश्रीने बार राजयोगो आ प्रमाणे -मेपनो सूर्य, कर्कनो गुरु, तुलानो शनि अने वीजा ग्रहो गमे त्यां होय त्यारे मेपना लग्नमां पहेलो, कर्कना लग्नमां बीजो अने तुलाना लग्नमां त्रीजो राजयोग थयो. जपला चार साथे मेळवतां सात राजयोग अया. हवे मेषनो सूर्य, कर्कनो गुरु, मकरनो मंगळ अने बीजा ग्रहो गमे त्यां होय त्यारे मेष लग्नमां पहेलो, कर्क लग्नमां बीजो अने मकर लग्नमां त्रीजो राजयोग थयो. कुल १० श्रया. हवे मेषनो सूर्य, तुलानो शनि, मकरनो मंगळ, बाकीना गमे त्यां होय त्यारे मेष लग्न होय तो पहेलो, तुला लग्न होय तो बीजो अने मकर लग्न होय तो बीजो राजयोग थतां कुल १३ राजयोग थया. हवे कर्कनो गुरु, तुलानो शनि, मकरनो मंगळ अने बीजा ग्रहो गमे त्यां होय त्यारे कर्क लग्न होय तो पहेलो, तुला लग्न होय तो बीजो अने मकर लग्न होय तो बीजो राजयोग थतां कुल १६ राजयोग थाय बे. हवे बे ग्रह तथा एक ग्रहने श्राश्रीने सोळ योगो आ रीते थाय -कर्कनो चंज, मेषनो सूर्य, कर्कनो गुरु अने बाकीना ग्रहो गमे त्यां होय त्यारे मेष लग्न होय तो पहेलो योग अने कर्क लग्न होय तो बीजो योग. हवे मेषनो सूर्य, कर्कनो चंज, तुलानो शनि, बाकीना ग्रहो गमे त्यां होय त्यारे मेष लग्नमां बीजो अने तुला लग्नमां चोथो योग थाय. हवे मेषनो सूर्य, कर्कनो चंज अने मकरनो मंगळ होय त्यारे मेष लग्नमां पांचमो श्रने मकर लग्नमां उसो योग थाय . हवे कर्कमां चं अने गुरु तथा तुलामां शनि होय त्यारे कर्क लग्नमां सातमो अने तुला लग्नमां पाठमो योग थाय . हवे कर्कमां गुरु अने चंड तथा मकरमा मंगळ होय त्यारे कर्क लग्नमां नवमो अने मकर लग्नमां दशमो योग श्राय . हवे कर्कमां चंच, तुलामां शनि अने मकरमां Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ २३ए मंगळ होय त्यारे तुला लग्नमां गीयारमो ने मकर लग्नमां वारमो योग थाय बे. हवे एक ग्रह श्रीने चार योगो या प्रमाणे. – कर्कनो चंद्र ने मेष लग्नमां सूर्य रह्यो होय त्यारे पहेलो, कर्कना लग्नमां चंद्र ने गुरु होय त्यारे वीजो, कर्कनो चंद्र छाने तुला लग्नमां शनि होय त्यारे त्रीजो अने कर्कनो चंद्र तथा मकर लग्नमां मंगळ होय त्या चोथो योग थाय बे. उपरना वार सहित करतां सोळ याय ने प्रथमना सोळ साथे करतां कुल वत्रीश राजयोगो थया. हवे १२० राजयोगो याय वे ते कहे बे.. "वर्गोत्तमगते लग्ने चन्द्रे वा चन्द्रवर्जितैः । चतुराद्यैर्ग्रहैर्दृष्टे नृपा द्वाविंशतिः स्मृताः ॥ २ ॥” “लग्न अथवा चंद्र वर्गोत्तममां रह्या होय, अने ते ( लग्न अथवा चंद्र ) ने चंद्र विनाना चार, पांच के ब ग्रहोए जोयेला होय त्यारे बावीश राजयोग थाय बे." जे राशि लग्नमां होय ते राशिना ज नामनो जे नवांश ते वर्गोत्तम कहेवाय बे, ने तेज नवांश लग्नमां श्राव्यो होय तो ते लग्न वर्गोत्तम कद्देवाय बे. ए ज प्रमाणे चंद्रमां पण जावं. लग्न के चंद्र वर्गोत्तमनो होय ने तेना पर चंद्र सिवाय वीजा चार, पांच के ब ग्रहोनी दृष्टि पकती होय तो दरेक लग्नने याश्री ने बावीश बावीश राजयोगो थाय बे. ते श्रा प्रमाणे. - . - लग्न उपर चार ग्रहोनी दृष्टिपकती होय तो पंदर जेद थाय बे, पांचनी दृष्टिपती होय तो बने बनी दृष्टि पकती होय तो एक जेद ए रीते वावीश भेद थाय बे, एटले के लग्नने रवि, मंगळ, बुध छाने गुरुए चार ग्रहोए जोयुं होय त्यारे पहेलो योग थाय बे. रवि, मंगळ, बुध ने शुक्र जोता होय त्यारे बीजो. रवि, मंगळ, बुध ने शनि जोता होय त्यारे बीजो. रवि, मंगळ, गुरु ने शुक्र जोता होय त्यारे चोथो. रवि, मंगळ, गुरु छाने शनि जोता होय त्यारे पांचमो. रवि, मंगळ, शुक्र अने शनि जोता होय त्यारे बघ. रवि, बुध, गुरु ने शुक्र जोता होय त्यारे सातमो. रवि, बुध, गुरु अने शनिनी दृष्टि हो त्यारे मो. रवि, बुध, शुक्र छाने शनिनी दृष्टि होय त्यारे नवमो. रवि, गुरु, शुक्र छाने शनिनी दृष्टि होय त्यारे दशमो. मंगळ, बुध, गुरु ने शुक्रनी दृष्टि दोय त्यारे यारमो . मंगळ, बुध, गुरु ने शनिनी दृष्टि होय त्यारे वारमो. मंगळ, बुध, शुक्र शनिनी दृष्टि होय त्यारे तेरमो. मंगळ, गुरु, शुक्र अने शनिनी दृष्टि होय त्यारे चौदम. तथा बुध, गुरु, शुक्र ने शनिनी दृष्टि होय त्यारे पंदरमो राजयोग थाय बे. हवे पांच होनी दृष्टिए करीने व योग या प्रमाणे बे- रवि, मंगळ, बुध, गुरु अने शुक्रनी दृष्टि पकती होय त्यारे पहेलो राजयोग थाय बे. रवि, मंगळ, बुध, गुरु छाने शनिनी दृष्टि होय त्यारे बीजो. रवि, मंगळ, बुध, शुक्र छाने शनिनी दृष्टि होय त्यारे Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ॥ आरंजसिदि॥ त्रीजो. रवि, मंगळ, गुरु, शुक्र अने शनिनी दृष्टि होय त्यारे चोथो. रवि, वुध, गुरु, शुक्र अने शनिनी दृष्टि होय त्यारे पांचमो. तथा मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र अने शनिनी दृष्टि होय त्यारे बचो राजयोग थाय . तथा बए ग्रहो एटले रवि, मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र अने शनि ए एनी दृष्टि लग्न उपर पमती होय त्यारे एक राजयोग थाय . श्रा सर्वे मळीने बावीश राजयोग थया. आ बावीश योगो मेष लग्ननो वर्गोत्तम होय त्यारे थया. ए रीते वृष, मिथुन विगेरे वारे राशिना लग्नने आश्रीने वावीश वावीश राजयोगो थतां कुल २६४ राजयोग थाय . ए ज रीते प्रत्येक राशिमां वर्गोत्तम नवांशमा रहेला चंजने आश्रीने पण २६४ राजयोग थाय . ते वन्ने मळीने कुल ५२७ योगो थया. हवे पांच योगो कहे जे."यमे कुनेऽर्केऽजे गवि शशिनि तैरेव तनुगैनृयुसिंहालिस्थैः शशिजगुरुवरैर्नृपतयः। यमेन्यू तुंगेऽङ्गे सवितृशशिजौ षष्ठलवने, तुलाऽजेन्मुक्षेत्रैः ससितकुजजीवैश्च नरपौ ॥ ३ ॥" "कुंचनो शनि होय, मेषमां सूर्य होय, वृषमां चंड होय, मिथुनमां बुध होय, सिंहनो गुरु होय अने वृश्चिकनो मंगळ होय. श्रा रीते ग्रहो रहेला होय अने तेमां वळी कुंज लग्न होय तो पहेलो योग, मेष लग्न होय तो बीजो अने वृष लग्न होय तो त्रीजो राजयोग थाय बे. तथा शनि अने चं पोताना उच्च स्थानना एटले के तुसानो शनि अने वृषनो चंड होय अने वळी खग्नमां रह्या होय तथा कन्या राशिमां सूर्य अने बुध होय, तुलामां शुक्र होय, मेषनो मंगळ होय, अने कर्कनो गुरु होय. आ प्रकारनी ग्रहोनी स्थितिमां तुला लग्न होय तो पहेलो योग अने वृष लग्न होय तो बीजो योग. तेने पूर्वना त्रण साथे गणतां पांच राजयोग थाय बे." ___ हवे त्रण राजयोगो कहे जे."कुजे तुङ्गेऽर्केन्योर्धनुषि यमलग्ने च नृपतिः, पतिमेश्चान्यः दितिसुतविलग्ने सशशिनि । सचन्छे सौरेऽस्ते सुरपतिगुरौ चापधरगे, स्वतुङ्गस्थे नानावुदयमुपयाते क्षितिपतिः॥४॥" "मकरनो मंगळ होय, धनुष राशिमां सूर्य ने चंद्र होय, कोइ पण राशिमा रहेलो शनि लग्नमां होय त्यारे पहेलो राजयोग थाय . आ पहेला योगमां ज जो लग्नमां Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ २४१ मंगळ ने शनि होय तो बीजो योग थाय बे. तुलामां चंद्र ने शनि होय, धनुपमां गुरु होय ने सूर्य पोताना उच्च स्थानमा होइने एटले मे राशिनो होइने लग्नमां रह्यो होय अर्थात् मेष राशिना लग्नमां सूर्य रह्यो होय त्यारे त्रीजो राजयोग जाणवो. " हवे फरीने बे राजयोगोने कहे बे. - वृषे सेन्दी लग्ने सवितृगुरुतीदणांशुतनयैः, सुहृ ४ काया ७ ख १० स्थैर्भवति नियमान्मानवपतिः । मृगेन्दे लग्ने सहज रिपुधर्मव्ययगतैः, शशाङ्काद्यैः ख्यातः पृथुगुणयशाः पुंगणपतिः ॥ ५ ॥ वृष लग्नमां चंद्र होय, सिंहनो सूर्य होय, वृश्चिकनो गुरु होय अने कुंजनो शनि होय त्यारे पहेलो राजयोग थाय छे. मकर लग्नमां शनि होय, मीननो चंद्र होय, मिथुननो मंगळ होय, कन्यानो बुध होय, धनुषनो गुरु होय अने शुक्र तथा सूर्य गमे ते स्थाने होय त्यारे बीजो योग थाय बे. फरीने त्रण राजयोगो कहे बे. - ये सेन्दौ जीवे मृगमुखगते भूमितनये, स्वतुङ्गस्थौ लग्ने भृगुजशशिजावत्र नृपती । सुतस्थौ वार्की गुरुश शिसिताश्चापि हिबुके, कन्वति हि नृपोऽन्योऽपि गुणवान् ॥ ६ ॥ धनुषने विषे गुरु ने चंद्र होय, मकरमां मंगळ होय, श्र प्रमाणे ग्रहनी स्थिति होय त्यारे जो मीन लग्नमां शुक्र होय तो पहेलो ने कन्या लग्नमां बुध होय तो बीजो योग थाय बे. तथा कन्या लग्नमां बुध होय, मकरमां मंगळ छाने शनि होय, धनुषमां गुरु, चंद्र ने शुक्र होय त्यांरे त्रीजो गुणवान् राजयोग थाय बे. - फरीथी त्रण राजयोगो कहे बे. - ऊषे सेन्दी लग्ने घटमृगमृगेन्द्रेषु सहितै - र्यमार्योऽनूत्स खलु मनुजः शास्ति वसुधाम् । जे सारे मूर्त्ते शशिगृहगते चामरगुरौ, सुरेज्ये वा लग्ने धरणिपतिरन्योऽपि गुणवान् ॥ ७ ॥ मीन लग्नमां चंद्र होय, कुंजनो शनि होय, मकरनो मंगळ होय ने सिंहनो अर्क (सूर्य) होय त्यारे ते माणस पृथ्वीनुं शासन करनार थाय बे. अर्थात् ते राजयोग कहेवाय बे. मेष लग्नमां मंगळ होय, चंद्रना गृहमां एटले कर्कमां गुरु होय त्यांरे बीजो योग थाय बे. अथवा कर्क लग्नमां गुरु होय अने मेषनो मंगळ दोय त्यारे बीजो राजयोग थाय बे. भा० ३१ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंभ सिद्धि ॥ कर्क लग्ने तत्स्थे जीवे चन्द्र सितज्ञैरायप्राप्तैः । heads जातं विन्द्याद्दिक्रमयुक्तं पृथिवीनाश्रम् ॥ ८ ॥ कर्क लग्नमां गुरु होय, वृषमां चंद्र, शुक्र ने बुध होय तथा मेषमां सूर्य होय त्यारे पराक्रमव युक्त एवा पृथ्वीनाथने थयेलो जाएवो एटले राजयोग थयो जावो. मृगमुखेऽर्कतनये ननु संस्थे, बगकुलीरहरयोऽधिपयुक्ताः । मिथुन तोलसहित बुधशुक्रौ, यदि ततः पृथुयशाः पृथिवीशः ॥ ए ॥ मकर लग्नमां शनि रहेलो होय, मेषनो मंगळ होय, कर्कनो चंद्र होय, सिंहनो सूर्य होय, मिथुननो बुध होय अने तुलानो शुक्र होय त्यारे मोटा यशने करनारो राजयोग थाय बे. २४२ स्वोच्चसंस्थे बुधे लग्ने गौ मेपूरणाश्रिते । सजीवेऽस्ते निशानाथे राजा मन्दारयोर्मृगे ॥ १० ॥ कन्या लग्नां बुध होय, मिथुननो शुक्र होय, मीन राशिमां गुरु छाने चंद्र होय तथा मकर राशिमां शनि अने मंगळ होय त्यारे राजयोग थाय बे. या सर्वे मळीने ५७ योगो थाय बे. -- प्रथम जांगाना राजयोगोनुं फळ कहे बे. - पि खलकुलजाता मानवा राज्यमाजः, किमुत नृपकुलोत्थाः प्रोक्तनूपालयोगैः । नृपतिकुलसमुत्थाः पार्थिवा वक्ष्यमाणैवति नृपतितु यस्तेष्वनूपालपुत्रः ॥ ११ ॥ या उपर कहेला राजयोगोए करीने सामान्य कुळमां उत्पन्न थयेला माणसो पण राज्यने जोगवनारा थाय बे, तो क्षत्रिय कुळमां उत्पन्न थयेला माणसो राजा थाय तेमां शुं कहे ? तथा हवे पबी कहेवाशे एवा योगोए करीने राजकुळमां उत्पन्न थयेला मास राजा थाय बे, श्रने बीजा कुळमां उत्पन्न थयेला माणसो राजानी तुझ्य ( जेवा ) थाय बे. ते योगो या प्रमाणे बे. - स्वोच्च त्रिकोण गैर्व लिष्ठैत्रयाद्यैर्भूपतिवंशजा नरेन्द्राः । पञ्चादिभिरन्यवंशजा हीनैर्वित्तयुता न जूमिपालाः ॥ १२ ॥ बळवान् एवा त्रण के चार ग्रहो पोताना उच्च स्थानमां, पोताना गृहमां के पोताना त्रिकोणमा रहेला होय तो क्षत्रिय वंशमां उत्पन्न थयेला माणसो राजा थाय बे, अने पांच, ब के सात बळवान् ग्रहो उपरनां त्रण स्थानोमां रह्या दोय तो सामान्य वंशमां Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थों विमर्शः॥ २४३ उत्पन्न श्रयेला माणसो पण राजा श्राय ने, परंतु ते ग्रहो पोताना उच्च विगेरे स्थानमा रह्या बतां पण जो बळहीन होय तो ते धनवान श्राय बे, पण राजा थता नथी. अहीं त्रणथी सात सुधीना पांच राजयोग थाय . सिंहस्थेऽर्केऽजेन्दौ लग्ने नौमे स्वोच्चे कुंने मन्दे।। चापं प्राप्ते जीवे राज्ञः पुत्रं विद्याद्भूमे थम् ॥ १३ ॥ मेष लग्नमां चंज होय, सिंह राशिनो सूर्य होय, मंगळ पोताना उच्च स्थाननो होय, नो शनि होय तथा धनुष राशिनो गुरु होय त्यारे राजवंशमां उत्पन्न श्रयेलो पुत्र नूमिनो नाथ थाय ने एम जाणवू. अर्थात् राजयोग थाय . फरीथी वे राजयोगोने कहे ._स्वर्दै शुक्र पातालस्थे धर्मस्थानं प्राप्ते चन्छ । ऽश्चिक्यांगप्राप्तिप्राप्तः शेषैर्जातः स्वामी जूमेः ॥ १४॥ ज्यारे कुंज खग्न होय त्यारे जो पाताल ( चोथा ) स्थाने एटले वृष राशिमां शुक्र रह्यो होय, धर्मस्थानमां एटले तुला राशिमां चंज रह्यो होय, चने बाकीना एटले रवि, मंगळ, बुध, गुरु अने शनि ए ग्रहो त्रीजा, पहेला अने अगीयारमा स्थानमा एटले मेष, कुंज अने धनुष राशिमा रह्या होय तो राजयोग थाय जे. वळी ज्यारे कर्क लग्न होय त्यारे जो पाताल ( चोथा) स्थाने एटले तुला राशिमां शुक्र होय, मीनमां चंड होय श्रने बाकीना रवि विगेरे ग्रहो कन्या, कर्क अने वृष राशिमां होय तोपण ते राजयोग कहेवाय . सर्व मळीने आठ राजयोग थया. सौम्ये वीर्ययुते तनुसंस्थे वीर्यान्ये च शुले सुकृतस्थे । धर्मार्थोपचयेष्वथ शेषैर्धर्मात्मना नृपजः पृथिवीशः ॥ १५॥ खग्नमां बुध बळवान् होय, नवमा स्थानमा शुक्र के गुरु बळवान् श्रश्ने रह्यो होय अने बाकीना ग्रहो नवमा, बीजा, त्रीजा, बझा, दशमा अने अगीयारमा स्थानमा रह्या होय तो क्षत्रियनो पुत्र पृथ्वीपति प्राय ने, एटले राजयोग श्राय . सर्व मळीने नव राजयोग श्रया. हवे बीजा बे राजयोग कहे .वृषोदये मूर्तिधनारिवानगैः शशांकजीवार्कसुताऽपरैर्नृपः। सुखे गुरौ खे शशितीदणदीधिती यमोदये लाजगतैर्नृपोऽपरैः ॥ १६ ॥ वृष लग्नमां चंड होय, मिथुनमा गुरु होय, तुलानो शनि होय अने मीनमां बीजा एटले रवि, मंगळ, बुध अने शुक्र होय तो राजयोग थाय बे. तथा लग्नमां शनि होय, चोथा स्थानमां गुरु होय, दशमा स्थानमां सूर्य अने चंग होय तथा अगीयारमा स्था Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ॥श्रारंजसिद्धि नमा मंगळ, बुध श्रने शुक्र होय त्यारे पण राजयोग श्राय . सर्व मळीने अगीयार राजयोग थया. फरीने बीजा बे राजयोग कहे .मेषूरणा १० य ११ तनु १ गाः शशिमन्दजीवा, शारौ धने सितरवी हिबुके नरेन्जम् । वक्रासितौ शशिसुरेज्यसितार्कसौम्या, होरा १ सुखा । स्त ७ शुज ए खा १०प्ति ११ गताः प्रजेशम् ॥ १७॥ दशमा स्थानमां चंड होय, अगीयारमे शनि होय, लग्नमां गुरु होय, बीजे बुध अने मंगळ होय तथा चोथे स्थाने शुक्र अने रवि होय त्यारे राजयोग थाय बे. वळी होरामां एटले लग्नमां मंगळ अने शनि होय, चोथे चंड होय, सातमे गुरु होय, नवमे शुक्र होय, दशमे सूर्य होय अने अगीयारमे बुध होय त्यारे पण राजयोग थाय बे. या सर्वे मळीने बीजा नांगामां तेर राजयोग बे. हवे प्रसंगने अनुसरीने बीजा योगो कहे जे.गुरुसितबुधबग्ने सप्तमस्थेऽर्कपुत्रे वियति दिवसनाथे लोगिनां जन्म विद्यात् । . शुन्नबलयुतकेन्ः क्रूरनस्थैश्च पापै व्रजति शबरदस्युस्वामितामर्थनाक् च ॥ १० ॥ खन्नमां गुरु, शुक्र के बुध एमांनो कोइ पण होय अथवा गुरु, शुक्र के बुधनु लग्न होय एटले के धनुष, मीन, वृष, तुला, मिथुन के कन्या राशिनुं लग्न होय, तेमज सातमे शनि होय तथा दशमे सूर्य होय, आ प्रमाणे योग होय त्यारे ते समये उत्पन्न श्रयेला माणसो जोगवाळा थाय बे. वळी शुल ग्रहोनी राशि (उपर कही ते ज) बळवान् होय तथा केंघमां होय अने वळी क्रूर ग्रहो क्रूर ग्रहनी राशिमा रहेला होय त्यारे या प्रकारना योगमां उत्पन्न श्रयेल माणस जीमोनो अने चोरोनो स्वामी थाय ने तथा धनवान् थाय . श्रा प्रमाणे बृहत् जातकमां कहेला राजयोगो कह्या. ___ हवे बीजा पण राजयोगो या प्रमाणे बे.खग्ने शौरिस्तथा चन्छस्त्रिकोणे जीवनास्करौ।। कर्मस्थाने जवेनौमो राजयोगस्तदा नवेत् ॥१॥ लग्नमां शनि तथा चंछ होय, त्रिकोणमां गुरु तथा सूर्य होय अने दशमा स्थानमा मंगळ होय त्यारे राजयोग १ थाय ने. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थों विमर्शः॥ ४५ धने चन्शनी मेषे जीवः खे रादुलार्गवौ । श्रथवा दशमे जीवबुधशुक्रास्तथा शशी ॥२॥ धन राशिमां चंच अने शनि होय, मेषनो गुरु होय अने दशमे स्थाने रादु तथा शुक्र होय त्यारे राजयोग थाय ने. २. अथवा दशमे स्थाने गुरु, बुध, शुक्र अने चंड होय त्यारे पण राजयोग थाय . ३. अथवा दशमे झाौ नौमराहू च षष्ठगौ। राजयोगेष्वेषु जाता राजानः स्युनरोत्तमाः ॥३॥ अथवा दशमे स्थाने बुध अने सूर्य होय तथा मंगळ अने राहु के स्थाने रह्या होय तोपण राजयोग थाय .. आराजयोगोमां उत्पन्न थयेला उत्तम माणसो राजा थाय . श्रादौ जीवः सितः प्रान्ते यथामध्ये निरन्तरम् । राजयोगं विजानीयाः कुटुम्बबलवर्धनम् ॥४॥ प्रथम गुरु श्रने बेमे शुक्र तथा मध्यमां जेम घटे तेम निरंतर ग्रहो होय तो ते राजयोग जाणवो. आ राजयोगमां कुटुंब अने बळनी वृद्धि थाय ने. ___सहजस्थो यदा जीवो मृत्युस्थाने यदा सितः। निरन्तरं ग्रहा मध्ये राजा नवति निश्चितम् ॥ ५॥ त्रीजे स्थाने गुरु होय, आम्मे स्थाने शुक्र होय अने बीजा ग्रहो निरंतर ( अांतरा रहित ) मध्य भागमां होय तो ते अवश्य राजा थाय ने. अर्थात् ए राजयोग कहेवाय जे. आदौ जीवः पञ्चमे वा दशमे चन्द्रमा नवेत् । राज्यवान् स्यान्महाबुधिस्तपस्वी वा जितेन्धियः ॥ ६॥ पहेला अथवा पांचमा स्थानमां गुरु होय अने दशमा स्थानमां चंड होय तो ते राज्यवान् अने बुद्धिमान् श्राय ने, अथवा जितेंजिय तपस्वी थाय ने. स्वदेवस्था यदा जीवबुधसूर्यसुतास्तदा। जातकस्य सुदीर्घायुः संपदश्च पदे पदे ॥ ७॥ ज्यारे गुरु, बुध अने शनि पोतपोताना स्थानमा रह्या होय त्यारे तेवा योगमा उत्पन्न अयेतो माणस दीर्घायुष्य थाय बे तथा तेने स्थाने स्थाने संपत्ति मळे ले. पितृतीये सुते धर्मे कर्मण्यपि यदा ग्रहाः। राजयोगं विजानीया जातस्तत्रोत्कटो नवेत् ॥ ७ ॥ बीजा, त्रीजा, पांचमा, नवमा भने दशमा स्थानमां ज्यारे ग्रहो रहेला होय त्यारे ते राजयोग जाणवो. तेमां उत्पन्न श्रयेलो मनुष्य उत्कृष्ट थाय . Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ॥श्रारंसिधि॥ धने व्यये यदा लग्ने सप्तमे नवने ग्रहाः। उत्रयोगस्तदा नीचकुलोऽपि नृपतिर्नवेत् ॥ ए॥ __ बीजा, बारमा, पहेला अने सातमा लवनमां ग्रहो रहेला होय त्यारे उत्रयोग थाय वे. तेमां उत्पन्न अयेलो नीच कुळवाळो पण राजा थाय बे. सिंहे जीवस्तथा शुक्रः कन्यायां मिथुने शनिः।। स्वदेत्रे हिबुके नौमः स पुमान्नायको नवेत् ॥ १० ॥ सिंह राशिनो गुरु होय, कन्यानो शुक्र होय, मिथुननो शनि होय श्रने चोथा स्थानमा मेष अथवा वृश्चिकनो मंगळ दोय तो तेमां जन्मेलो पुरुष नायक ( राजा) थाय बे. कन्यायां शौरिचन्त्रौ च मृगे नौमो घटे तमः।। ___सिंहे जीवो नवेजातो राजा शत्रुक्षयंकरः॥ ११॥ कन्या राशिमां शनि अने चंज होय, मकरनो मंगळ होय, कुंजनो राहु होय तथा सिंहनो गुरु होय एवा योगमा उत्पन्न श्रयेतो माणस शत्रुनो क्षय करनारो राजा थाय ने. शुक्रो जीवो रविन्नौंमो धने मकरकुंलयोः। मीने च वत्सरे त्रिंशे जातः स्यात्सर्वकर्मकृत् ॥ १२॥ धन, मकर, कुंल अने मीन राशिमां अनुक्रमे शुक्र, गुरु, रवि अने मंगळ होय तो ते योगमा उत्पन्न श्रयेलो माणस त्रीश वर्षनो श्राय त्यारे सर्व कार्यने करनारो (समर्थ ) श्राय . खग्ने सौरिस्तथा चन्प्रश्चाष्टमे नवने सितः। राजमान्यो महाकामी नोगपत्नीरतस्तथा ॥ १३ ॥ लग्नमां शनि अने चंड होय तथा आठमा नवनमां शुक्र होय तो ते योगमां उत्पन्न थयेलो मनुष्य राजाने मान्य थाय ने, मोटी कामनावाळो तथा लोग अने पत्नीमां आसक्त थाय जे. मिथुने च यदा राहुः सिंहस्थो नूमिनन्दनः। वृश्चिके च यदा जीवः स पुमान्नृपतिर्भवेत् ॥ १४ ॥ मिथुनमां राहु होय, सिंहमां मंगळ होय अने वृश्चिकमां गुरु होय त्यारे ते योगमा उत्पन्न अयेलो माणस राजा थाय बे. स्वगृहे च धने जीवस्तुलायां च नवेत्सितः। शौरिर्मकरे मिथुने चन्म: स्यात्राजयोगकृत् ॥ १५॥ पोताना गृहमां के धनराशिमां गुरु होय, तुलामां शुक्र होय, मकरमां शनि होय अने मिथुनमां चंच होय तो ते राजयोग करनारो . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुओं विमर्शः ॥ युग्मे शशी वृषे जीवः सिंहे शौरिर्मृगे कुजः । शुक्रस्तुलायां कन्यायां बुधाक राज्ययोगदाः ॥ १६ ॥ मिथुननो चंड, वृषजनो गुरु, सिंहनो शनि, मकरनो मंगळ, तुलानो शुक्र अने कन्याना बुध तथा सूर्य होय तो ते राजयोगने आपनारा बे. धने शुक्रश्च जौमश्च मीने जीवस्तुले बुधः । नचश्चन्द्र खेर्युक्तो राजयोगोऽनिधीयते ॥ १७ ॥ धननो शुक्र तथा मंगळ होय, मीननो गुरु होय, तुलानो बुध होय तथा नीचनो चंद्र सूर्ये करीने युक्त होय तो ते राजयोग कहेवाय बे. मीने शुक्रो बुधश्वान्ते लग्ने सूर्यो धने शशी । सहजे च नवेौमो राजयोगं प्रचक्षते ॥ १८ ॥ मीनो शुक्र होय, बारमे बुध होय, लग्नमां सूर्य होय, धनमां चंद्र होय तथा त्रीजा स्थानमां मंगळ होय तो ते राजयोग कहेवाय बे. चातृस्थाने यदा जीवो लानस्थाने शशी जवेत् । उच्चेषु वा शुजाः केन्द्रे लग्ने वा जीव एककः ॥ १७ ॥ त्रीजा जवनमां गुरु होय ने गीयारमा जवनमां चंद्र होय, अथवा उच्च स्थानमां शुभ ग्रहो होय ने केंद्रमां के लग्नमां एकलो गुरु होय तो राजयोग थाय बे. अथवा. सिंहे जीवस्तुलाकी धनुर्म करकेषु च । ग्रहाः स्थाने तदा जातो देशजोगी जवेन्नरः ॥ २० ॥ २४७ सिंहनो गुरु होय तथा तुला, वृश्चिक, धनाने मकरमां पोतपोताना स्थानना ग्रहो होय सेवा योगमां उत्पन्न थयेलो मनुष्य देशनो जोक्ता ( स्वामी ) थाय बे. विद्यास्थाने यदा सौम्याः कर्मस्थाने च चन्द्रमाः । धर्मस्थाने पुनः सौम्यास्तदा राज्यं विधीयते ॥ २१ ॥ पांचमा स्थानमां सौम्य ग्रहो होय, दशमा स्थानमां चंद्र होय अने नवमा स्थानमां सौम्य ग्रहो दोय तेवा योगमां उत्पन्न थयेलाने राजयोग कहेलो बे. युग्मे वृषे मेषमीने कुंजे च मकरे ग्रहाः । या गुरुशुक्रेन्डुराहवः स्युश्चतुष्टये ॥ २२ ॥ मिथुन, वृष, मेष, मीन, कुंज ने मकरमां सर्व ग्रहो रहेला होय अथवा बुध, गुरु, शुक्र, चंद्र ने राहु ए ग्रहो चतुष्टयमां एटले पहेला चोथा, सातमा अने दशमा स्थानमा रह्या होय तो राजयोग थाय बे. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ॥ आरंसिद्धि॥ यघा तुर्ये सितारेन्गुर्वकशनयः स्थिताः । योगेष्वेतेषु ये जातास्तेषां स्याप्राजयोगिता ॥ २३ ॥ अथवा चोथा स्थानमा शुक्र, मंगळ, चंज, गुरु, रवि अने शनि रहेला होय तो आ योगोमां उत्पन्न श्रयेला मनुष्योने राजयोग थाय . __ जन्मचतुर्थे नवने नार्गवरविराहुचन्षनौमेषु । जातो बुधयुक्तेषु च पृथ्वीपालो नवेत्पुरुषः ॥ २४॥ जन्मकुंमळीना चोथा नवनमां बुधनी साथे शुक्र, रवि, राहु, चंग के मंगळ रह्या होय तो ते योगमा उत्पन्न श्रयेलो पुरुष पृथ्वीपाळ (राजा) थाय बे. जन्मचतुर्थे नवने लागवगुरुचन्नौमशनियुक्तः। जातं विदधाति रविः पृथ्वीपालं न सन्देहः ॥ २५॥ जन्मकुंमळीना चोथा जवनमा रविनी साथे शुक्र, गुरु, चंज, मंगळ के शनि रह्यो होय तो ते योग पृथ्वीपाळने करनारो बे. एमां कांई संदेह नथी. . धने व्ययेऽष्टमे षष्ठे सौम्यक्रूरा युता यदि।। यत्लात्स पुरुषो रक्ष ईश्वरः कुलवर्षनः॥१६॥ बीजा, बारमा, आठमा अने बहा स्थानमां जो सौम्य तथा क्रूर ग्रहो साथे रह्या होय तो ते योगमा उत्पन्न श्रयेला पुरुषनुं यत्नथी रक्षण करवू, कारण के ते कुळने वृद्धिपमामनार राजा थाय . तृतीये वैकादशे वा त्रिकोणे वा नवेद्यदि। सप्तमे वा नवेजीवः सुरूपो राजमानितः॥ २७॥ त्रीजा, अगीयारमा, त्रिकोण ( नवमा, पांचमा ) के सातमा स्थानमां गुरु होय तो तेमां उत्पन्न थयेखो पुरुष सारा रूपवाळो अने राजानो मानीतो श्राय . गुरुर्खग्ने धने यूरो व्यये क्रूरो नवेत्पुनः। सप्तमे नवने क्रूरो धनसौनाग्यजातकम् ॥ २० ॥ लग्नमां गुरु, धनमां क्रूर, व्ययमां (बारमामां) क्रूर अने सातमा जवनमां क्रूर ग्रह होय त्यारे ते योग धन अने सौजाग्यने वृद्धि करनारो बे.ा प्रमाणे बीजा ग्रंथमां कहेला कुख एकत्रीश राजयोगो थाय . पूर्णजन ज्योतिषमां बे राजयोगो आ प्रमाणे कह्या जे.यदि सर्वग्रहदृष्टिलग्ने परिपतति दैवतवशेन । तनवति नृपतियोगः कट्याणपरंपराहेतुः ॥ २॥ अन्योन्यस्योच्चराशिस्थौ यदि स्यातां ग्रहौ तदा । राजयोगं जिनाः प्रादुर्दर्शने तु महाफलम् ॥ ३० ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ जो लग्नमां नवितव्यताना वशथी सर्व ग्रहोनी दृष्टि पमती होय तो कल्याणनी परंपरानो हेतुरूप राजयोग थाय बे. १. परस्परना वन्ने ग्रहो जो उंच राशिमा रहेला होय तो ते योगने जिनेश्वरो राजयोग कहे जे. तेमनुं परस्पर दर्शन तो महा फळवाळु . २. हवे बीजा ब योगो कहे .रविवर्ज बादशगैरनुफाश्चन्त्राद्वितीयगैः सुनुफाः। उत्जयस्थितैऽरधरा केमद्रुममन्यथैतेन्यः ॥ ३१ ॥ जन्मपत्रिकामा जे स्थाने चंग रह्यो होय ते स्थानथी बारमे स्थाने सूर्य विनानो बीजो कोइ पण ग्रह रहेलो होय तो ते अनुफा नामनो योग कहेवाय जे. चंऽश्री बीजे स्थाने जो रवि सिवाय को पण ग्रह रह्यो होय तो सुनुफा नामनो योग थाय . चंथी बारमा अने वीजा ए बन्ने स्थानोमां जो रवि सिवाय कोइ पण ग्रह रह्या होय तो ते धरधरा योग कहेवाय ने अने अन्यथा एटले चंथी बारमे तथा बीजे स्थाने रवि सिवायनो कोश् पण ग्रह रह्यो न होय तो केमद्रुम नामनो योग थाय जे. सूर्याध्ययगैोशिक्षितीयगैश्चन्वर्जितेर्वेशिः। उन्नयस्थैरुजयचरी राजयोगाः पमप्यमी ॥३॥ जन्मपत्रिकामा सूर्य जे स्थाने रहेलो होय ते स्थानथी बारमे स्थाने चंज सिवाय बीजो कोइ ग्रह रह्यो होय तो वोशि नामनो योग थाय ने, अने एज रीते बीजे स्थाने कोई ग्रह रह्यो होय तो वेशि योग थाय , तथा बारमा, अने बीजा ए बन्ने स्थानमांचं सिवायना कोई ग्रह रहा होय तो उजयचरी योग थाय जे. श्रा नए योगो राजयोग कहेवाय जे. थहीं मूळ श्लोकमांज बनी संख्या वतावी होवाथी सातमो केमद्रुम योग (उपरना श्लोकमां कहेलो चोयो योग) अधम एटले अशुल ने एम जाणवू. चंज उपर सर्व ग्रहोनी दृष्टि पमती होय तो तेज योग नग्न केमद्रुम नामनो राजयोग थाय बे. श्रा साते राजयोगो जातकमां कहेला बे. लस तो कहे जे के-“केंद्रस्थान के चंजनुं स्थान को पण ग्रहवझे युक्त होय तो केमद्रुम योग थतो नश्री." या प्रमाणे कुल ४० राजयोग थाय बे. यात्राना योगो सहितं सर्व योगो मळीने कुल एण्६ योगो थया. हवे मूळ ग्रंथकार चित्तनी शुद्धि सर्व निमित्तो करतां बळवान् ने ते कहे . सकलेष्वपि कार्येषु यात्रायां च विशेषतः। निमित्तान्यप्यतिक्रम्य चित्तोत्साहः प्रगबजते ॥ ३ ॥ अर्थ सर्व कार्योमा तथा विशेषे करीने यात्रामां तो सर्व निमित्ताने उलंघन करीने चित्तनो उत्साहज अधिक फळदायक जे. जो के निमित्त एटखे शरीरना मावा तथा मा० ३२ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ॥श्रारंसिद्धि जमणा अंगर्नु फरक विगेरे कहेवाय ने तथा अंगनो स्पर्श विगेरे इंगित कहेवाय ने, पुर्गा विगेरे शकुन कहेवाय ने अने लग्न विगेरे ज्योतिष कहेवाय ने तोपण श्रहीं अनेद कल्पनाए करीने ते सर्वे निमित्त शब्दयीज जाणी लेवां. हवे यात्रामा दिशानो विजाग बतावे .ऐन्यादि ४ दिनु मातङ्ग १ रथा २ श्व ३ नरवाहनैः ।। व्रजेत्क्रमेण नूपालो दिक्पालोबासिमानसः॥६५॥ अर्थ-राजाए पूर्व दिशामा हस्तीवझे, दक्षिणमां रथवझे, पश्चिममां अश्ववमे श्रने उत्तरमा शिबिकादिकवझे दिक्पाल- मनमां स्मरण करतां प्रयाण करवं. अहीं दिक्पाल एटले जवानी दिशानो पति जाणवो. ते दिक्पति आ प्रमाणे जे.-"पूर्वनो इंज, अग्नि खूणानो अग्नि, दक्षिणनो यम, नैर्ऋत्यनो नैऋत, पश्चिमनो वरुण, वायव्यनो वायु, नत्तरनो कुबेर अने ईशान खूणानो स्वामी ईशान .” आमांनी जे दिशामां जq होय ते दिशाना स्वामीनुं तथा सूर्यादिक ग्रहोर्नु आनंदपूर्वक ध्यान करतां प्रयाण करवू. रलमाळामां पण कडं डे के "ध्यायन्नाशाधीश्वरं हृष्टचेताः, दोणीपालो निर्विलम्ब प्रयायात् ।" "हर्षयुक्त चित्तथी दिशाना स्वामीनुं ध्यान करतांराजाए विलंब विनाज प्रयाण करवं." ॥इति गमघारम् । ॥श्रथ वास्तुधारम् ॥ए श्रा प्रमाणे गमघार ( यात्राघार ) का. हवे वास्तुकार कहे .वास्तु नव्यं विनूत्यायुःकीर्तिकामो निवेशयेत् । ज्ञात्वाऽऽय र व्ययां ३ शां५स्तु चन्छ५ ताराबले थपि॥६॥ अर्थ-संपत्ति, थायुष्य अने कीर्तिनी कामना(श्वा )वाळाए श्राय १, नक्षत्र १, व्यय ३, अंश ४, चंबळ ५ अने ताराबळ जाणीने नवीन वास्तु करवं. ___ घर, हाट (पुकान ) अने प्रासाद विगेरे वास्तु कहेवाय ने. संपत्ति विगेरे शब्दोथी ग्रंथकारे था प्रमाणे सूचव्युं . _ "कार्यसिधिसुखायूंषि निमित्तशकुनादिन्तिः। __ज्ञात्वा प्रष्टुहारले कीर्तयेत् समयं सुधीः ॥" "विधाने (जोशीए ) पूछनार गृहस्थनी कार्यसिद्धि, सुख अने' श्रायुष्यादिकने निमित्त तथा शकुन विगेरेवझे जाणीने गृहने श्रारंन करवानो समय कहेवो.” Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २५१ वहीं "शकुनादिनिः" ए ठेकाणे श्रादि शब्द खखेलो ने तेथी अंगस्पर्शादिक ग्रहण करवा. अहीं को शंका करे के अंगस्पर्श करीने शी रीते निर्णय थाय ? ते उपर लघु जातकमां कडं ने के "शीर्ष १ मुख २ वाहु ३ हृदयो । दराणि ५ कटि ६ वस्ति ७ गुह्य संज्ञानि । ऊरू ए जानू १० जंघे ११ चरणा १२ विति राशयोऽजाद्याः ॥" "शीर्ष १, मुख २, बाहु ३, हृदय ५, नदर ५, कटि ६, वस्ति , गुह्य ७, ऊरू ए, जानु १०, जंघा ११ अने चरण १२ या प्रमाणे मेषथी आरंजीने मीन पर्यंत वारे राशिमां अनुक्रमे अंगो जाणवां." अहीं मेषने श्रारंलीने एम कडं वे तोपण जे तात्काळिक लग्न होय तेज मस्तक जाणवू, अने त्यारपठी अनुक्रमे वीजां अंगो जाणवां. (एटले के कोइ गृहस्थ गृहारंजना समयने पूरवा आवे ते वखते विधाने प्रश्नकुंकळी करवी. तेमां जे लग्न श्रावे ते राशिनेज शिर गणवं अने त्यारपळीनी राशिउने अनुक्रमे मुख विगेरे चरण पर्यत गणवां.) त्यारपी "कालपुंसो यदङ्गं तत्स्प्रष्टा स्पृशति चेच्बुत्नैः। युक्तं विलोकितं वापि सद्मनिर्माणमादिशेत् ॥" "उपर प्रमाणे श्रयेला काळपुरुषना जे कोइ अंगने पूछनार स्पर्श करे ते अंग शुन ग्रहोए युक्त होय अथवा तेनी दृष्टि पमती होय तो ते प्रमाणे तेने गृहप्रारंजनो समय कहेवो.” या प्रमाणे दैवज्ञवल्सनमां कडं . हवे आय विगेरेनेज कहे .ध्वजोर धूमो र हरिः ३ श्वा गौः ५ खरो हस्ती ठिकः क्रमात् । पूर्वादिबलिनोऽष्टाया विषमास्तेषु शोजनाः ॥ ६६ ॥ अर्थ-ध्वज १, धूम २, हरि (सिंह) ३, श्वा ( कूतरो), गो ( गाय-बळद) ५, खर (गधेमो) ६, हस्ती ७ अने विक ( कागमो) आ आठ आयो अनुक्रमे पूर्वादिक दिशाऊमां बळवान् बे. तेमांना विषम थायो (एकी श्रायो) सारा ने. श्रा पाठ श्रायो पूर्व, अग्नि विगेरे अनुक्रमथी आठ दिशामां बळवान् , कारण के ते सर्वदा ते ते दिशामांज रहेला बे. कडं ने के "ईशानान्ते च दिग्नागे पूर्वादिक्रमतः स्थिताः। अन्योऽन्यानिमुखा ह्येते विज्ञेया वास्तुकर्मणि ॥" । "श्रा आयो पूर्व विगेरे दिशाना क्रमश्री ईशान खूणा पर्यंत आने दिशामा रहेका ने, ते वास्तुकार्यमां परस्पर सन्मुख (साम सामा मुखे) रहेखा जाणवा.'' Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रारंसिद्धि॥ थायोनी स्थापना नीचे प्रमाणे. ध्वज ध्वज खर गज काक n | श्री ! श्रा श्रावे आयोमां विषम एटले पहेलो, त्रीजो, पांचमो अने सातमो ए चार श्रायो सारा , तथा विरुष (अशुल) संझाने लीधे विरुष फळ आपनार होवाथी सम आयो एटले बीजो, चोथो, बो अने श्रापमो ए चार सारा नथी. या यावे नामो सार्थक एटले पोतानां नाम प्रमाणे गुणवाळां के. श्रा योने स्थापन (ग्रहण ) करवानी व्यवस्था विवेकविलासमां आ प्रमाणे करी जे. "वृष सिंहं गजं चैव खेटकटकोट्टयोः । विपः पुनः प्रयोक्तव्यो वापीकूपसरस्सु च ॥१॥ मृगेन्जमासने दद्यायनेषु गजं पुनः। . वृषं जोजनपात्रेषु बत्रादिषु पुनर्वजम् ॥२॥ अग्निवेश्मसु सर्वेषु गृहे वह्नयुपजीविनाम् । धूमं नियोजयेत् केचित् श्वानं म्लेबादिजातिषु ॥३॥ खरो वेश्यागृहे शस्तो ध्वांतः शेषकुटीषु च । वृषः सिंहो गजश्चापि प्रासादपुरवेश्मसु ॥४॥" "गाममां तथा किदामां वृष, सिंह अने गजनो श्राय लेवो. वाव, कूवा अने तळावमां गजनो आय लेवो. श्रासनमा सिंहनो आय देवो. शय्यामां गजनो आय देवो. लोजननां पात्रोमां वृषनो आय देवो. उत्र विगेरेमां ध्वजनो आय देवो. अग्निनां सर्व गृहोमां तथा अग्निवमे आजीविका करनारनां गृहोमां धूम श्रआय लेवो. म्लेच विगेरेनां घरोमां श्वाननो श्राय देवो. वेश्याना घरमा खर श्राय देवो सारो बे. नानी फुपमीमां काकनो श्राय सारो बे. प्रासाद (चैत्य-राजमहेल ) तथा नगरनां घरोमां वृष, सिंह ने गज ए त्रणे श्रायो शुल .” । हवे आयोनो विनिमय एटले एक श्रायने ठेकाणे बीजा को आय लश् शकाय के नहीं ? तेनो नियम बतावे . १ वृषः सिंहो गजश्चैव कुण्डे कर्कटकीटयोः । इति मुहूर्त्तचिन्तामणिवृत्तौ । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २५३ ध्वजः पदे तु सिंहस्य तौ गजस्य वृषस्य ते । एवं निवेशमर्हन्ति खतोऽन्यत्र वृषस्तु न ॥६॥ अर्थ-सिंहने स्थाने ध्वज, गजने स्थाने ते बन्ने एटले ध्वज अने सिंह, वृषने स्थाने ते त्रणे एटखे ध्वज, सिंह ने गज, आ प्रमाणे एकने अनावे बीजा आयो स्थापन करवा योग्य , पण वृष आय पोताना स्थानथी बीजे स्थाने लेवो नहीं. जे स्थाने सिंहनो आय प्राप्त थतो होय त्यां ध्वजनो थाय लश् शकाय अने सिंह पण लश् शकाय , तेमां कांश दोष नथी. ए रीते आगळ पण जाणवू. गजनो श्राय प्राप्त थयो होय त्यां गजनो अथवा तो ध्वज अने सिंहनो आय पण देवो. वृषनो श्राय प्राप्त थयो होय तो ते वृषनो अथवा ध्वज, गज अने सिंहनो पण आय दर शकाय बे, पण वृषनो आय प्राप्त थयो होय तोज वृषनो आय देवो. अर्थात् बीजा आय प्राप्त थया होय त्यां वृषनो श्राय देवो नहीं. थायादिक लाववानुं करण (रीत) कहे .आयो दैान्ययोर्णतः फलमष्टहृतेऽधिकः। फलमष्टगुणं ना २७ ते नं तत्राष्टहृते व्ययः॥६॥ अर्थ-वास्तुनी संवा तथा पहोळाश्ने गुणतां जे श्रावे ते फळ कहेवाय बे. फळने श्रावे नाग लेतां जे शेष रहे ते आय जाणवो. फळने आठे गुणीने सत्यावीशे लागतां जे शेष रहे ते नक्षत्र जाणवू, तथा ते नत्रने आवे नाग लेतां जे शेष रहे ते व्यय जाणवो. लंबा अने अन्य एटले पहोळाइ ए बनो गुणाकार करीए त्यारे फळ थाय ने. ते फळने आठे नाग देतां बाकी जे वधे ते आय जाणवो. ए शब्दार्थ थयो. नावार्थ श्रा प्रमाणे-लंबाइ तथा विस्तार (पहोळा) ए बेने परस्पर गुणवा. गुणाकार करवाश्री जे संख्या श्रावे ते फळ कहेवाय वे. आनुं बीजुं नाम क्षेत्रफळ पण कहेवाय बे. तेज फळना आंकने आगे नागतां जे बाकी शेष रहे ते इष्ट वास्तुनो आय जाणवो, एटले के जो श्रावे लागतां एक बाकी रहे तो ध्वज आय अने बे बाकी वधे तो धूम श्राय विगेरे जाणवू, पण जो शून्य शेष रहे तो बेझो ध्वांद ( काक) आय जाणवो. अहीं परंपरा या प्रमाणे बे- जवे करीने एक आंगळ श्राय , चोवीश आंगळनो एक हाण अने चार हाथनो एक दंम थाय जे. तेथी करीने ज्यां दंग के हाथवझे देवर्नु माप कर्यु होय त्यां सर्वत्र अमुक आंगळ वधारीने अथवा योग करीने इठित श्राय खाववो, केमके जो दंग के हाथ उपर आंगळ वधारीए नहीं अथवा तेमांथी उग Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ ॥ श्ररंजसिद्धि ॥ करीए नहीं ने श्राखे आखा दंक के हाथज राखीए तो ते दंग अथवा हाथना श्रांगळ करीने तेने वे जागीए त्यारे शून्यज शेष रहे, तेथी बेलो ध्वांक्ष ( काक) श्रयज वे अने ते श्राय उत्तम जातिनां घरोमां योग्य शुन नथी. अहीं जावना ए बे जेसंबाइना ने पहोळाइना गळनो गुणाकार करवाथी क्षेत्रफळ थाय बे, एटले के ते वास्तुक्षेत्रमां सर्व मळीने तेटलाज अंगुलो होय बे, छाने खाय तो आवज बे, तेथी ते क्षेत्रफळना चंगुलने आवे जागतां जे क शेष रहे तेटलामो ध्वजादिक याय याय बे. ते श्रयमां पण विषम आय श्रेष्ठ बे, पण सम आय शुभ नथी. तेथी करीने दाथनी उपर अमुक गळ वधारीने अथवा अमुक आगळ ठेवा करीने कोइ पण प्रकारे तेवी लंबाई छाने पहोळाइ लेवी के जे प्रकारे क्षेत्रफळने श्रावे जागतां विषम ( एकी) यांक बाकी शेष रहे. ते विषे दैवज्ञवनमां कहां वे के— "न हस्तमानेन गुणान्वितं स्याद्यदा तदा तणितोक्तयुक्त्या । प्रदाय हित्वा यदि वाऽङ्गुलानि प्रसाधयेत् क्षेत्रफलं शुजायम् ॥” "ज्यारे केवळ हाथनाज माने करीने क्षेत्रफळ गुण युक्त न थाय त्यारे तेना गणितनी कहेली युक्तिव ते हाथमां अमुक अंगुल उमेरीने अथवा तेमांथी अमुक अंगुल dar करीने शु श्रयवाळु क्षेत्रफळ साधकुं." अहीं "शुन श्रायवाळु ” एम कह्यं ते उपलक्षण होवाथी नक्षत्रादिक पण ते गृहमां जे प्रकारे अनुकूळ याय ते प्रकारे क्षेत्रफळ साधकुं. नक्षत्रना अनुकूळनो प्रकार आगळ "प्रारब्धं संमुखे चन्द्रे" ए ७४ मा लोकमां कहेवामां आवशे. अहीं वास्तुशास्त्रमां श्रा रीते विशेष कह्युं बे. - "गृहेषु कर्मिहस्तेन मानं स्वामिकरेण वा । देवतानां तु धिष्ण्येषु कर्मिहस्तेन केवलम् ॥” "घरोने विषे कारीगरना हाथे करीने अथवा घरघणीना हाथे करीने मान करवुं, परंतु देवताना घरमां ( देवालयमां ) तो केवळ कारीगरना हाथे करीनेज एटले air करीने मान कर.” तथा देवालयने विषे जींतोनुं जामपणुं क्षेत्रफळनी अंदर एवं ने वीजां घरोमां जींतोने क्षेत्रफळनी बहार गणवी. ते विषे व्यवहारप्रकाशमां कहां वे के "क्षेत्रफलान्तर्जित्ती देवगृहेऽपि प्रकारयेद्विधान् । श्राक्रम्य बाह्यभूमिं क्षेत्रात्तिर्नृणां गेहे ॥” "विधान् पुरुषे देवालयने विषेज जींतोने क्षेत्रफळनी अंदर कराववी ने जु योनां घरने विषे क्षेत्रफळनी बहारनी भूमिने उळंगीने जींतो कराववी.” इति श्रायाः Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ ॥ चतुर्थी विमर्शः॥ हवे वास्तुनुं जन्मनक्षत्र कहे जे. सामान्य रीते वास्तुनुं जन्मनक्षत्र कृत्तिका उ. तेने माटे व्यवहारप्रकाशमां कडं के "नापदतृतीयायां शनिदिवसे कृत्तिकाप्रथमपादे । व्यतिपाते राज्यादौ विष्ट्यां वास्तोः समुत्पत्तिः॥" "नाप्रपद मासनी त्रीज अने शनिवारने दिवसे कृत्तिका नक्षत्रना पहेला पादमां व्यतिपातना योगमां रात्रिनी आदिमां विप्टिमां वास्तुनो जन्म ले." इष्ट वास्तुनुं जन्मनक्षत्र आ प्रमाणे आवे -फळने आठ गुणुं करवू. मूळ श्लोकमां अधिक शब्द ने तेनो सर्वत्र संबंध करवो. फळने आने गुणी सत्यावीशे नाग देतां जे अधिक शेप रहे, तेटला, इष्ट वास्तुनुं जन्मनक्षत्र जाणवू. आ जन्मनक्षत्रथीज घरधणीनी साथे एटले घरधणीना जन्मनदानी साथे षमाष्टक विगेरेनो विचार कराय वे. ___ उपर कहेला नत्रना आंकने एटले इष्ट वास्तुनुं जन्मनक्षत्र जेटलामुं होय तेटल्ली संख्याने आवे नाग लेतां जे बाकी शेष रहे ते (तेटलामो) व्यय जाणवो. जो श्रावे नाग न चाले तो ते नत्रनो श्रांकज व्ययनो अांक जाणवो. ते व्यय त्रण प्रकारनो -पिशाच, यह अने राक्षस. ते विषे सारंग कहे जे के "पैशाचस्तु समायः स्यानासश्चाधिके व्यये। आयातूनतरो यदो व्ययः श्रेष्ठोऽष्टधा त्वयम् ॥ शान्तः १ क्रूरः २ प्रद्योतश्च ३ श्रेयान ४थ मनोरमः । श्रीवत्सो ६ विजवश्चैव ७ चिन्तात्मको व्ययोऽष्टमः ॥" "जे वास्तुमा व्ययनी समान (जेटलो) श्राय होय तो ते पैशाच व्यय कहेवाय ने, अने श्राय करतां व्यय अधिक होय तो ते राक्षस व्यय कहेवाय ने, तथा श्राय करतां व्यय अोगे होय तो ते यत् व्यय कहेवाय . तेमां आ बेझो यह व्यय श्रेष्ठ बे. आ व्यय पण आयनी जेम आठ प्रकारनो बे. तेनां नाम था प्रमाणेशांत १, क्रूर २, प्रद्योत ३, श्रेयान् ४, मनोरम ५, श्रीवत्स ६, विजव ७ तथा श्रापमो चिंतात्मक . नत्रना श्रांकने आगे नागतां जे शेष रहे ते व्यय जाणवो एम उपर कडं, तेमां जो एक शेष रहे तो ते शांत व्यय जाणवो, वे शेष रहे तो क्रूर व्यय जाणवो. एं रीते गणतां शून्य शेष रहे तो बेझो चिंतात्मक व्यय जाणवो. हवे अंशोने लाववानो उपाय कहे .फले व्ययेन वेश्माख्याकरैश्चाढ्ये विनाजिते । अंशाः शका १न्तकश्मापा ३ स्तेषु स्यादधमो यमः॥ ६ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ॥ श्रारंसिधि॥ अर्थ-देत्रफळना आंकमां व्ययनो आंक तथा घरना नामना श्रदरोनो श्रांक उमेरवो. पनी तेने त्रणे नाग देवो. नागतां जो एक शेष रहे तो शक (इं) नामनो अंश जाणवो, वे रहे तो अन्तक ( यम ) अने शून्य शेष रहे तो माप (राजा) नामनो अंश जाणवो. या त्रणे अंशोमां यम नामनो बीजो अंश अधम-अशुन जे. उपर घरना नामना अवरो कह्या, माटे घरोनां नामोने कहे .ध्रुवं १ धन्यं ५ जयं ३ नन्दं ५ खरं ५ कान्तं ६ मनोरमम् । सुमुखं उर्मुखं ए क्रूरं १० सुपदं धनदं १२ क्षयम् १३ ॥१०॥ आक्रन्दं १४ विपुलं १५ चैव विजयं १६ चेति षोमश । सम्प्रत्यमीषां पस्त्यानां प्रस्तारःप्रतिपाद्यते ॥ १ ॥ युग्मम् ॥ अर्थ-ध्रुव १, धन्य २, जय ३, नंद, खर ५, कांत ६, मनोरम ७, सुमुख , धुर्मुख ए, क्रूर १०, सुपद ११, धनद १२, क्षय १३, आनंद १४, विपुल १५ अने विजय १६, ए सोळ घरोनां नामो . अहीं अगीयारमा सुपदने बदले विपक्ष एबुं नाम पण केटलाक कहे . हवे ए घरोना प्रस्तारने कहे जे. श्रा ध्रुव विगेरे नामो सार्थक , तेथी करीने खर १, उर्मुख २, क्रूर ३, हय ४, श्राब्द ५, ए नामवाळां घरो अशुल बे. तेने माटे वास्तुशास्त्रमा कडं ले के "स्थैर्य १ धनं २ जयः ३ पुत्रा ४ दारिद्यं ५ सर्वसंपदः ६। मनोहादः ७ श्रियो यु ए वैपम्यं १० बान्धवा ११ धनम् १ ॥ क्ष्यश्च १३ मृत्यु १४ रारोग्यं १५ सर्वसंपदि १६ ति क्रमात् । ध्रुवादीनां फलं ज्ञेयं” ध्रवादिक सोळ घरोनुं अनुक्रमे या प्रमाणे फळ जाणवू.-स्थिरता १, धन २, जय ३, पुत्रो ४, दारिद्य ५, सर्व संपत्ति ६, मननो आह्लाद (तुष्टि), लक्ष्मी ७, युख ए, विषमपणुं १०, बंधु ११, धन १२, क्षय १३, मृत्यु १४, आरोग्य १५ अने सर्व संपत्ति १६. हवे प्रस्तारनो प्रकार कहे जे.गुरोरधो लघु न्यस्येत् पृष्ठे त्वस्य पुनर्गुरून् । अग्रतस्तूवद्देयाद्यावत्सर्वलघुर्नवेत् ॥ २ ॥ अर्थ-पहेली पंक्तिमां चारे गुरु लखवा. बाकीनी पंक्तिमा पहेला गुरुनी नीचे लघु मूकवो, श्रने त्यारपनी उपरनी जेम एटले गुरु मुकवा, श्रने जे प्रस्तारमा पाजळ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २५७ खाली स्थान रहे ते ते स्थानोमां गुरु स्थापवा. ए रीते करता करतां बेबो नंग सर्व (चारे) लघुनो थाय त्यांसुधी स्थापवा. अर्थात् चार अदरवाळा वृत्तनी जातिनी जेम अहीं सोळ नंग थाय . स्थापना SSS । ss ss s। । । । एss | 9 SIIS । । ३ ६ १३ ऽ ऽ ।। १५७ ।।। - - - - . . .. - - - - v - - - - - - - - - ७ - - - - - - - - rrrr aur parm अहीं प्रस्तारनीज जेम नष्ट आने उद्दिष्ट विगेरे पांच प्रत्यय पण सुगम , परंतु ग्रंथ घणो मोटो थवाना नयथी तथा अहीं तेनो उपयोग नहीं होवाथी लखता नथी. हवे श्रा सोळ नांगाए करीने घरोनां ध्रुवादिक नामो उत्पन्न श्राय , ते कहे जे. पूर्वादितो गृहछारादिवलिन्दैर्लघूदितैः। प्रदक्षिणस्थैर्वेश्मानि स्युर्बुवादीनि षोमश ॥ ७३ ॥ अर्थ-घरना घारथी प्रदक्षिणाने अनुक्रमे पूर्वादिक दिशामा लघुए जाणावेला अलिंदोए करीने ध्रुव विगेरे सोळ घरो श्राय बे. अलिंद एटले शरी, गोजार, श्रोरमी विगेरे घरना नाना नागो जाणवा. जे दिशामां घरनुं घार होय ते ते घरनी पूर्व दिशा जाणवी. त्यांथी जमणी बाजुनी दिशाने दक्षिण समजवी, तेश्री जमणी पश्चिम अने तेथी जमणी उत्तर ए रीते दिशाश्रो जाणवी. ते विषे विवेकविलासमां कडं बे के “पूर्वादिदिग्विनिर्देश्या गृहकारव्यपेक्ष्या । नास्करोदयदिक् पूर्वा न विज्ञेया यथा कुते ॥" _“घरना चारनी अपेदाए करीने पूर्वादिक दिशाश्रो जाणवी, पण सूर्योदयनी दिशाने पूर्व न धारवी. नींकने विषे पण आज प्रमाणे दिशाओ धारवामां आवे ." दैवज्ञवक्षनमां पण कटुंबे के "गृहस्य मुखतः प्राची प्रकटप्य तत्प्रदक्षिणम् । __ पर्यटनिरलिन्दैः स्युः प्रस्ताराधेश्मनां निदाः ॥” __ "घरना मुखथी (कारथी) पूर्व दिशा कटपीने त्यांथी दक्षिण दक्षिण एटले जमणी जमणी बाजु श्रटन करता अलिंदोए करीने प्रस्तारने सीधे घरना प्रकारो थाय ." __श्रहीं पहेला नांगामां चारे गुरु , माटे घरनी पूर्वोदिक चारे दिशाओ आवरण रहित जाणवी, एटले के कोश्पण दिशामा अलिंद नथी एम जाणवू, केमके जे काणे लघ भा०३३ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि॥ होय तेज दिशामा अलिंद होय जे तेथी करीने ज्यां एक पण लघु नथी त्यां मात्र एक श्रोरमारूपज घर . आ घरनुं नाम ध्रुव जे.ज्यां पूर्व दिशामा अलिंद होय ते धन्य नामर्नु घर जाणवू, अने ज्यां दक्षिणमा अलिंद होय ते जय नामनुं घर जाणq. ए रीते ज्यां ज्यां लघु होय ते ते दिशामां लघु होवाने लीधे एक, बे के त्रण अलिंदो होय बे. सोळमा नांगामा तो चार अलिंदो होय . पहेला घरमां तो लघु नहीं होवाने सीधे एक पण अलिंद होतो नश्री. श्रा सोळे घरनी स्पष्ट स्थापनायो आ रीते डे. ध्रुव धन्यर जय३ 5555 1195 -1155 5155 खर५ कान्त मनोरम सुमुख 1 5515 515 दुर्मुख क्रूर १० DIRECIPE विपक्ष११ घनद१२ SS IS । क्षय१३ आक्रन्दा विपुल१५ विजय१६ 850 ISIL Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २५ए श्रा स्थापनाश्रो एक श्रोरमावाळा घरनी बे. बे त्रण विगेरे भोरमावाळां घर करवां होय तो तेना अनेक नेदो थाय जे. एक श्रोरमावाळा धरना पण एकसो ने चार प्रकार संजवे , परंतु अहीं तो मात्र दिग्दर्शनने माटे सोळ प्रकारज कह्या जे. रत्नमालालाष्यमां कडुंबे के "वेश्मनामेकशालानां शतं स्याच्चतुरुत्तरम् । विपञ्चाशविशालानां त्रिशालानां विसप्ततिः॥" "एक शाळा( ओरमा )वाळां घरोना एकसो चार प्नेद थाय . बे शाळाबाळा घरना बावन (एकसो बावन) नेद थाय ने अने त्रण शाळावाळा घरना बोतेर ( एकसो वोंतेर) नेद थाय बे.” हवे वास्तुमां चंजनुं बळ कहे .प्रारब्धं संमुखे चन्डे न वस्तुं वास्तु कल्पते । पृष्ठस्थे खात्रपाताय योस्तेन त्यजेही ॥४॥ अर्थ-सन्मुख चंजने विषे श्रारंजेलुं वास्तु (घर) वसवा (रहेवा )ने लायक नश्री, तथा चंड पारळ ते आरंजेलुं वास्तु खातर पाझवा माटे , तेथी घरधणीए ते बन्ने चंनो त्याग करवो. परिघ चक्रनी जेम कृत्तिकाश्री श्रारंलीने सात सात नक्षत्रो चारे दिशामा स्थापन करवां. पठी घरनुं जे जन्मनक्षत्र आवतुं होय ते विचारवं. तेमां जो ते नक्षत्र घरना धारनी दिशामां आवे तो ते घरनी सन्मुख चं जे एम जाणवू. ते सन्मुख अयेलो चंड अशुल ने, कारण के घरना आरंजमां चंज सन्मुख रहेलो होय तो घर करावनारनो तेमां निवास थतो नथी. तथा जो चं पाबळनी नीतनी दिशाए होय तो ते चं घरनी पाळ जे एम जाएq. ते पण अशुल बे, कारण के घरना आरंलवखते चंग पाबळ रह्यो होय तो ते घरमां चोरो घणां खातरो पामे, परंतु जो बन्ने बाजुनी नीतनी दिशाए चंड श्रावतो होय तो ते सारो बे. अहीं विशेष ए जे जे-प्रासादने विषे सन्मुख चं शुलने माटे जे. ते विषे वास्तुशास्त्रमा कह्यु के "प्रासादनृपसौधश्रीगृहेषु पुरतः शशी।" "प्रासाद (चैत्य ), राजमहेल अने लदमीनां घरोने विषे सन्मुख चं सारो बे.” श्रा कारणथीज मूळ श्लोकमां गृही शब्द लख्यो . ॥ इति चन्जबलम् ॥ प्रीति षमाष्टक विगेरे राशिबळ पण तत्त्वथी चंबळज बे. तारानुं वळ अहीं जूई कडं नथी, परंतु नत्रो कहेवाथी ते ताराबळ पण सारी रीते जणायु होवाथी सूचवन Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ॥ आरंसिद्धि ॥ कर्यु बे एम जाणवू. ते श्रा रीते-गुरु शिष्यनी जेम अहीं पण त्रीजी, पांचमी अने सातमी तारा तजवा लायक बे. मात्र त्यां गुरु शिष्यनी परस्पर ताराओ गणाय ने, अने अहीं तो घरधणीनी ताराथी घरनी तारा सुधी गणवानुं , कारण के घरधणीनीज प्रीति इष्ट ( वांगित). ते विषे सारंग कहे जे के "गणयेत् स्वामिनक्षत्राद्यावद्धिष्ण्यं गृहस्य च। नवनिस्तु हरेजागं शेष तारा प्रकीर्तिता ॥१॥ शान्ता १ मनोरमा २ क्रूरा ३ विजया ४ कलहोनवा ५ । पद्मिनी ६ राक्षसी ७ वीरा - आनन्दा ए चेति तारकाः ॥॥" "घरस्वामीना नक्षत्रथी घरना नक्षत्र सुधी गणवं, जे संख्या आवे तेने नवे लाग लेवो. जे अंक शेष रहे तेटलामी तारा कहेली . ते ताराशोनां नाम आ प्रमाणे-शांता १, मनोरमा २, क्रूरा ३, विजया ४, कलहोद्नवा (कलह उत्पन्न करनारी) ५, पद्मिनी ६, राक्षसी ७, वीरा ,अने थानंदा ए, आ तारा पोतानां नामनी सदृश फळ आपनारी जे." __ हवे आयादिकनुं उदाहरण आपे .-जेम को घरनी लंबाई सात हाथ अने नव अांगळनी होय तथा पहोळा पांच हाथ अने सात आंगळनी होय. अहीं बन्ने हस्तना आंकने आंगळ करवा , माटे चोवीशे गुणवा. पगी तेमां उपरना अंगुल उमेरवा. तेम करवाश्री लंबाश् १७७ आंगळ थर अने पहोळा १२७ अंगुल थर. ए बन्ने अंकनो परस्पर गुणाकार करवाथी २२४७ए श्रांगळy देत्रफळ थयु. श्रा क्षेत्रफळने आवे नाग लेतां शेष ७ रहे , तेथी ते घरनो सातमो आय गज नामनो थयो. १. हवे नक्षत्र कहे -क्षेत्रफळ २२४७ए ने आठे गुणतां १७ए७३२ थया. तेने सत्यावीशे नाग लेतां शेष १२ रह्या, तेथी ते घरनुं अश्विनीथी गणतां बारमुं नक्षत्र उत्तराफाट्गुनी थयु. हवे ते घर कटपनाए करीने पूर्वानिमुख , तेथी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र दक्षिण बाजुनी जीते श्राववाथी ते सारं जे. २. हवे तेनो व्यय श्रा प्रमाणे जे.-नक्षत्रनो क बारनो जे. तेने श्रावे लागतां शेष चार रहे बे. चोथो व्यय श्रेयान नामनोजे, ते शुन बे. ३. तेनो अंश आ प्रमाणे जे.-ते घरनुं कटपनाए करीने ध्रुव नाम , तेथी तेमां वे अक्षर ने अने व्ययनी संख्या चारनी बे, ते बन्ने आंक क्षेत्रफळमां उमेरवाथी २२४०५ थाय ३. तेने त्रणे नाग लेतां शेषमांशून्य रहे , तेथी राजा नामनो अंश थयो, ते शुज .. __ ते घरनुं चंबळ नदन कहेवाने अवसरे कही दीधुं ५, राशिबळ आगळ उपर कहेशे, अने तारावळ या प्रमाणे बे.-घरधणीनुं जन्मनक्षत्र कल्पनाए करीने धनिष्ठा ने, माटे धनिष्ठाश्री गणतां उत्तराफाल्गुनी भाउमी तारा श्रश्. ६. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ हवे वास्तु प्रारंभ करवाना महीना कहे बे. - . वैशाखे श्रावणे मार्गे पौषे फाल्गुन एव च । कुर्वीत वास्तुप्रारंभं न तु शेषेषु सप्तसु ॥ १५ ॥ अर्थ – वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, पोष ने फाल्गुन मासमां वास्तुनो आरंभ करवो, पण बीजा सात मासमां आरंभ करवो नहीं. वास्तुनो आरंभ एटले सूत्रपात ( दोरी नाखवी ते ) तथा खात मुहूर्त्त विगेरे कार्य जाए. दैव -- मां घरना आरंभ विषे मासना फळने या प्रमाणे कहे बे.. " शोकं १ धान्यं २ मृत्युदं ३ पञ्चतां ४ च, स्वाप्तिं ए नैःस्व्यं ६ संगरं वित्तनाशम् । २६१ स्वं ए श्रीप्राप्तिं १० वह्निजीतिं ११ च लक्ष्मीं १२, कुर्युत्राद्या गृहारंभकाले || " “चैत्र मासमां घर चणाववानो आरंज कर्यो होय तो ते शोक करावे बे १, वैशाख मास धान्यवृद्धि करे बे 2, ज्येष्ठ मास मृत्युने पे बे ३, पाम मास पण मृत्युने करे बे ४, श्रावण मास धननी प्राप्ति करावे बे ए, जाइपद मास निर्धनपणुं करे वे ६, आश्विन मास युद्ध करावे, कार्तिक मास धननो नाश करे बे ८, मार्गशीर्ष मास धन प्राप्त करे बे ए, पोष मास पण धननी प्राप्ति करे बे १०, माघ मास अग्निनो जय करे बे ११, तथा फागुन मास लक्ष्मी प्राप्त करे बे १२. " अहीं सर्वे मासो चांद्र एटले शुक्ल प्रतिपदाथी आरंभीने जाणवा. हवे घरना श्रारंजमां संक्रांतिए करीने युक्त एवा सूर्यमासो कहे बे. धामारजेतोत्तरदक्षिणास्यं, तुला लिमेषर्षज़नाजि जानौ । प्राकूपश्चिमास्यं मृगकुंजकर्कसिंह स्थिते व्यंगगते न किञ्चित् ॥ ७६ ॥ अर्थ - तुला, वृश्चिक, मेष छाने वृष ए चार संक्रांतिमां उत्तर धारनुं के दक्षिण धारनुं घर शरु करवुं. मकर, कुंज, कर्क छाने सिंह ए चार संक्रांतिमां पूर्व के पश्चिम घारवाळु घर शरु कर तथा द्विस्वभाव राशि एटले मिथुन, कन्या, धन ने मीन ए चार संक्रांतिमां कोइ पण घरनो आरंभ करवो नहीं, एटले के चारे दिशानां घारवालं पण घर शरु कर नहीं. नाचंनी टिप्पणीमां तो आ प्रमाणे लख्युं बे. - " मेष, धन ने सिंह एत्र संक्रांतिमां पूर्व मुखवाळा घरनो आरंभ करवाथी राजानो जय थाय बे, वृष, कन्या ने मकर संक्रांतिमां दक्षिणाभिमुखवाळा घरनो श्रारंभ करवाथी पुत्रादिकनुं मुत्यु थाय बे. मिथुन, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ॥ श्ररंजसिद्धि ॥ तुला ने कुंज संक्रांतिमां पश्चिम घारवानुं घर शरु करवाथी संताप विगेरे उत्पन्न याय a. तथा कर्क, वृश्चिक ने मीन संक्रांतिमां उत्तर धारवाळं घर करवाथी कुळनो क्षय थाय बे." क दिशामा प्रथम खोदवानो आरंभ करवो ? ते कहे बे. - जाडादित्रित्रिमासेषु पूर्वादिषु चतुर्दिशम् । जस्तोः शिरः पृष्ठं पुष्ठं कुक्षिरिति क्रमात् ॥ ७७ ॥ अर्थ - नापदादिक ऋण ऋण मासने विषे पूर्वादिक चार दिशाए अनुक्रमे वास्तुनुं शिर, पृष्ठ (पीठ ), पुत्र ने कुक्षि (पेट) होय बे. वास्तु पुरुष जमणा श्रंगने दबावीने ( जमणे पमखे ) सुतेलो नागने आकारे रहेलो बे. तेमां जाऊपद, आश्विन ने कार्तिक मासमां ते वास्तुनुं मस्तक पूर्व दिशामां बे, दक्षिण दिशामां पृष्ठ बे, पश्चिम दिशामां पुत्र बे ने उत्तर दिशामां कुक्षि बे. मार्गशीर्ष, पोष ने माघ मासमां दक्षिण दिशाए मस्तक, पश्चिम दिशाए पृष्ठ, उत्तर दिशाए पूर्व दिशा कुक्षि होय बे. फाल्गुन, चैत्र अने वैशाख मासमां पश्चिम दिशाए शिर, उत्तर दिशाए पृष्ठ, पूर्व दिशाए पुत्र ने दक्षिण दिशाए कुक्षि होय बे. ज्येष्ठ, sath ने श्रावण मासमां उत्तर दिशाए शिर, पूर्व दिशाए पृष्ठ, दक्षिण दिशाए पुत्र पश्चिम दिशा कुक्षि होय बे. तात्पर्य ए बे जे कुक्षिने विषेज प्रथम खोदवानो आरंभ करवो. बीजी दिशामां करवो नहीं. ते विषे दैवज्ञवल्लनमां कांबे के“शिरः खनेन्मातृपितृन्निहन्यात्, खनेच्च पृष्ठे जयरोगपीमाः । पु खनेत् स्त्री शुजगोत्रहानिः, स्त्री पुत्ररत्नान्नवसूनि कुक्षौ ॥" "जो प्रथम वास्तुनुं शिर खोदे तो माता पितानो नाश थाय, पृष्ठ खोदे तो जय, रोग पीका था, पुत्र खोदे तो स्त्री, शुभ ने गोत्रनी ( कुळनी ) हानि ( नाश ) थाय, कुहिए खोदे तो स्त्री, पुत्र, रत्न, अन्न छाने धननी प्राप्ति थाय.” केटलाक श्रा वास्तु ठेकाणे वत्स एवं पण नाम कहे बे. या वास्तुना अंग तथा दिशाना कहेवाए करीने खात विगेरेनी दिशानो नियम कह्यो, पण विदिशानो नियम वास्तुशास्त्रमां आ प्रमाणे कह्यो बे. -- "ईशानादिषु कोणेषु वृषादीनां त्रिके त्रिके । शेष हेराननं त्याज्यं विलोमेन प्रसर्पतः ॥ " “वृषादिक ऋण त्रण संक्रांतिए ईशानादिक खूपाने विषे विलोम ( उलटा ) पाए करीने चालता शेषनागनुं मुख त्याग करवा लायक बे. अर्थात् विलोमपणाए करीने शेषनाग ऋण ऋण मासे फरे बे, तेथी ज्यारे तेनुं मुख त्रण मास ( वैशाख, ज्येष्ठ, श्रषाम) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ ॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ सुधी ईशानमां होय जे त्यारे अग्नि खूणामांत्रण मास सुधी नानि होय बे, नैर्शत्यमांत्रण मास सुधी पुत्र होय , अने वायव्य खूणो खाली होय जे. ते खाली खूणो खात विगेरेमा श्रेष्ठ बे. ज्यारे वीजात्रण मास सुधी वायव्यमां मुख होय जे त्यारे ईशानमा नानि, अग्निमां पुत्र अने नैईत्य खाली होय . ए प्रमाणे विलोमपणाए करीने शेषनाग फरे बे. तेमां वृषादिक त्रण संक्रांति सुधी ईशानमां मुख होय मे, सिंहादिक त्रण संक्रांति सुधी वायव्यमा मुख होय , वृश्चिक विगेरे त्रण संक्रांति सुधी नैत्यमा मुख होय , तश्रा कुंजादिक त्रण संक्रांति सुधी अग्निमां मुख होय . ए प्रमाणे “विदित्रयं स्पृशस्तिष्ठेत् स्ववक्त्रनानिपुचकैः । शेषस्तत्रितयं त्यक्त्वा नूखातकार्यमाचरेत् ।। नाजौ च म्रियते नार्या धनं पुछे मुखे पतिः। इति मत्वा शिलान्यासे नूखाते तत्रयं त्यजेत् ॥" "शेषनाग पोतानां मुख, नानि अने पुढे करीने त्रण विदिशानो स्पर्श करीने रहे जे, तेथी ते त्रणेनो त्याग करीने पृथ्वीन खातकर्म करवू, केमके ते शेषनी नानिमां खातकर्म करवाथी घरधणीनी स्त्री मरण पामे बे, पुचमां खोदवाथी धननो नाश थाय जे, अने मुखे खोदवाथी घरधणी मरण पामे बे. या प्रमाणे जाणीने नूखातने विषे शिलास्थापन करती वखते ते त्रणे अवयवोनो त्याग करवो.” . ___ हवे आयादिक कहेवानुं तात्पर्य कहे .समाधिकव्ययं कर्तुः समनाम यमांशकम् । विरुधरा शितारं च विनाऽन्यवेश्म शोजनम् ॥ ७॥ अर्थ-सम अथवा अधिक व्ययवाळु, कर्तानी समान नामवाळु, यम अंशवाळु तथा विरुष्प राशि अने तारावाळु घर मूकीने बीजं घर सारं . __ जे घरमां श्रायनी समान ( जेटलो) अथवा अधिक व्यय आवतो होय तो ते घर त्याग करवा लायक . ए रीते सर्वत्र जाणवू. आम कहेवाश्री व्यय करतां श्राय अधिक होय तो ते श्रेष्ठ , एम जाणवू. ते आय पण विषम (एकी) होय तो ते स्थिर होवाथी अति श्रेष्ठ बे. ते विषे लक्ष कहे जे के-“कुर्यात् स्थिराधिकायं स्वयोनिनं शुचतारांशम्"। "स्थिर अने अधिक आयवाळु पोतानी योनिना नत्रवाळु तथा शुछ तारा श्रने अंशवाळु घर करवं." तथा जे घरनुं नाम एटले तेना अक्षरो कर्ताना नामनी तुट्य होय ते घर पण त्याग करवा लायक जे. जे घरमां यमना अंशनी उत्पत्ति थती होय, जे घरनी राशिनी साथे घरधणीनी राशिनुं शत्रु षमाष्टक के बीयाबारमुं उत्पन्न अतुं होय, तथा जे घरनी तारा घरधणीनी ताराथी त्रीजी, पांचमी के सातमी होय, तेमज मूळ श्लोकमां Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ च शब्द लख्यो बे, माटे जे घरनुं नक्षत्र राक्षसगणमां दोय अथवा तो घरघणीना नदart योनि साथे विरुद्ध के बळवान् योनिवाळु होय तो या सर्व जातनुं घर तजवा लायक बे. ते विषे लल्ल कहे बे के "न्यायविरुद्धे जवने न सुखं परुष्टके स्थिते मरणम् । न धनं दशके नवपञ्चमके त्वपत्यमृतिः ॥ १ ॥ निधनं सप्तमतारे पञ्चमतारे च तेजसो हानिः । विपदस्तृतीयतारे यमांशके गृहपतेर्मृत्युः ॥ २ ॥” "ये करीने विरुद्ध घर होय तो वसनारने सुख उपजे नहीं, षमाष्टक होय तो मरण थाय, बीयाबारमुं होय तो धननो नाश थाय, नव पंचम होय तो पुत्रनुं मरण श्रा, सातमी तारा होय तो घरधणीनुं मरण थाय, पांचमी तारा होय तो तेजनी हानि थाय, त्रीजी तारा होय तो विपत्ति यावे अने यमांश होय तो गृहपतिनुं मरण थाय." वहीं नामी वेध होय तो ते श्रेष्ठज बे, केमके नामीवेध होय तो योनिनी विरुद्धता विगेरे दोषोनी पण अष्टता संभवे बे. हीं को शंका करे के-जे घरमां वे पादनुं के ऋण पादनुं नक्षत्र होय त्यां घरनी राशि शी रीते जाणवी ? श्रने राशि जलाया विना षमाष्टक विगेरेनो विचार शी रीते थाय ? श्रानो जवाब ए बे जे ते वखते नक्षत्रनो पाद लाववो पके बे. तेनी रीत श्र प्रमाणे व्यवहारप्रकाशमां कही बे. - “क्षेत्रफले रद ३२ गुणिते जक्ते वस्वभूमिभिः १०८ शेषात् । व्येकान्नवजिः शेषं पादो लब्धं वृषाङ्गगणः ॥ " "क्षेत्रफळने बत्रीशे गुणी एक सो ने वे जाग लेवो, जे शेष रहे तेमांथी एक बो करी तेने नवे जाग देवो. तेमां शेष रहे ते पाद ने जागमां जे यावे ते ( तेटलामो ) वृष राशिथी राशि समजवो.” दृष्टांत तरीके कहेला घरनुं नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी त्रण पादवाळु बे, तेथी तेमांज श्रानो जावार्थ जावीए प्रथम आलुं क्षेत्रफळ २२४१९ बे, नेत्रशेगुणी त्यारे ७१९३२८ याय. तेने एकसो ने आवे जागतां शेष ४० रहे बे, मांथी एक dat करतां ४७ थाय. तेने नवे जाग देतां जागमां पांच व्या, माटे वृष राशिथी पांचमी राशि कन्या बे. वाकी वे वध्या, माटे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रनो बीजो पाद ते घरनो श्राव्यो. हवे घरधणीनो जन्म धनिष्ठाना उत्तरार्धमां होवाथी तेनी जन्मराशि कुंन थइ. ते कुंभ राशि विषम ( एकी) बे, तेथी कुंजथी गणतां कन्या राशि आमी थइ, माटे ते प्रीति षमाष्टक थयुं, केमके "ओजात्स्यादष्टमे प्रीतिः " विषम राशिथी श्रवमी राशिवाला साथे प्रीति षमाष्टक थाय बे." एम प्रथम कही गया बे. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २६५ हवे ब्राह्मणादिक वर्णोने श्राश्रीने घरना श्राय तथा मुख (धार)नी व्यवस्था कहे जे. क्रमाछिप्रादिवर्णानां विषमायैर्ध्वजादिनिः।। धीमनिर्धाम निर्दिष्टं प्रतीच्यादिमुखं क्रमात् ॥ ए॥ अर्थ-ब्राह्मणादिक चार वर्णोने अनुक्रमे विषम एवा ध्वजादिक आये करीने अनुक्रमे पश्चिम विगेरे दिशाना धारवाळु घर पंमितोए कहेलुं ने, एटले के ब्राह्मणे ध्वज यायवाळु पश्चिम घारवाळु घर करवू, केमके ध्वज पूर्व दिशामां रहेलो , अने तेथी पश्चिमालिमुख घार होवाथी ते ध्वज ब्राह्मणने प्रवेश करती वखते सन्मुख रहेलो ने, तेथी ते शुनने माटे . एज प्रमाणे सिंहना श्रायने विपे उत्तरानिमुख धारवाळ राजाए घर करवू, कारण के सिंह दक्षिण दिशामा रहेलो होवाथी प्रवेश करतां सन्मुख थाय, माटे ते शुल. एज प्रमाणे वीजाउने विषे पण जाणवू, एटले के वैश्योए वृषना आयवाळु पूर्वाभिमुख धारवाडं घर करवू, अने शूजोए गजना आयवाळु दक्षिणाभिमुख धारवालुं करवं. हवे आयादिकनो अपवाद कहे जे. (एटले के कये ठेकाणे आयादिक न लेवा ते कहे जे.) ये गृहेऽविन्दनिह निर्गमाद्याश्चतुर्दिशम् । न तेष्वायादिकं योज्यं बाह्यन्नूषासु वास्तुनः ॥ ७० ॥ अर्थ-घरने विषे जे अलिंद (ओशरी, परसाळ विगेरे नाना खंग ), नियूह एटले नीत विगेरेनी बहार नीकळेल काष्ठ विशेष एटले मर्दलक विगेरे, निर्गम एटले दरवाजो धार विगेरे, तथा श्लोकमां आदि शब्द ने माटे प्रग्रीव एटले फरुखा, गोंख विगेरे जाणवा. या सर्वे वास्तुनी वहार शोलारूप होवाथी तेउने विषे आयादिक ग्रहण करवा नहीं. हवे सूत्रपात विगेरेनुं मुहूर्त कहे जे.सूत्रस्य सिभिर्वसुनाथहस्तक्षेत्र स्थिरखातिशतर्दपुष्यैः । न्यासः शिलायाः करपुष्यमार्गपौष्णध्रुवेषु श्रवणे च शस्तः ॥१॥ अर्थ-धनिष्ठा, हस्त, मैत्र (चित्रा, अनुराधा, रेवती, मृगशिर ), स्थिर (रोहिणी, उत्तराषाढा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तरानाऽपद), स्वाति, शततारका अने पुष्य एटलांनात्रोए करीने सूत्रनी सिद्धि थाय ने, एटले के ते नक्षत्रोमां सूत्रपात करवो. तथा शिलानुं स्थापन हस्त, पुष्य, मृगशिर, रेवती, ध्रुव (रोहिणी, त्रण उत्तरा ) अने श्रवण एटलां नक्त्रोमा प्रशस्त बे. १ खीलीओ. आ. ३४ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ॥ श्रारंलसिद्धि ॥ तिथि तथा वारनी शुद्धि तो रिक्ता विगेरेनो त्याग करवाथी स्पष्टज वे. ते विपे ब्रह्मशंनुटीकामां कडं वे के "एकादशी द्वितीया पञ्चमी सप्तमी तृतीया च । प्रतिपदशमी चेष्टा त्रयोदशी पौर्णमासी च ॥ सूर्येन्ऽजीवसौम्यानां नार्गवस्य च वासरे। सूत्रपातादिकं कार्य निष्पत्तिमनिवाञ्चता ॥" "अगीयारश, वीज, पांचम, सातम, त्रीज, पम्वो, दशम, तेरश अने पूनम तथा रविवार, सोमवार, गुरुवार, बुधवार अने शुक्रवार आटला तिथि वारे समृधिने श्चता पुरुषे सूत्रपातादिक कार्य करवू.” । हवे घरना आरंजमां लग्नवळ कहे .चरादन्यत्र लग्नेन्छोः शुन्नैः संयुक्तदृष्टयोः। कर्म १० स्थितेषु सौम्येषु गेहारं नः शुनावहः ॥७२॥ अर्थ-लग्न तथा चं चर की अन्यत्र स्थाने होय एटले के स्थिर अथवा स्विनाववाळु लग्न होय अने चंज पण स्थिर अथवा विस्वन्नाववाळी राशिमां रह्यो होय, तथा ते बन्ने शुन्न ग्रहोए युक्त अथवा तेना पर शुन्न ग्रहोनी दृष्टि पमती होय, तथा सौम्य ग्रहो कर्म एटले दशमे स्थाने रह्या होय तो ते वखते घरनो आरंन शुलकारक बे. केन्ऽत्रिकोणगैः सौम्यैः क्रूरैः शत्रुत्रिलानगैः। शुजाय नवनारंनोऽष्टमः क्रूरस्तु मृत्यवे ॥ ३॥ अर्थ-केन्प्रस्थाने (पहेले, चोथे, सातमे अने दशमे स्थाने ) तथा त्रिकोणमा (नवमे तथा पांचमे स्थाने) सौम्य ग्रहो रह्या होय, अने क्रूर ग्रहो बचे, त्रीजे के अगीयारमे स्थाने रह्या होय तो ते वखते घरनो श्रारंज करवो शुन्न , परंतु कोश् पण क्रूर ग्रह श्रामे स्याने रह्यो होय तो घरधणीना मृत्युने माटे जे. अहीं आटलो विशेष दैवज्ञवल्सनमा कह्यो ."गुरुर्लग्ने जले शुक्रः स्मरे ज्ञः सहजे कुजः।। रिपौ जानुर्यदा वर्षशतायुः स्यागृहं तदा ॥१॥" "गृहना श्रारंनसमये जो लग्नमां गुरु होय, जळ (१०)स्थाने शुक्र होय, स्मर (७) स्थाने बुध होय, सहज (३) स्थाने मंगळ होय अने शत्रु (६) स्थाने सूर्य होय तो ते घर सो वर्षना आयुष्यवाळु थाय जे." १ वृष, सिंह, वृश्चिक अने कुंभ. २ मिथुन, कन्या, धन अने मीन. ३ चंद्र, बुध, गुरु अने शुक्र. ४ शनि, रवि अने मंगळ. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ "सितो लग्ने गुरुः केन्छे खे बुधो रविरायगः। निवेशे यस्य तस्यायुर्वेश्मनः शरदां शतम् ॥२॥" "जे घरना आरंले लग्नमां शुक्र होय, केंजमां गुरु होय, दशमे स्थाने बुध होय अने श्रय एटले अगीयारमे स्थाने रहेलो रवि होय तो ते घरनुं आयुष्य सो शरदऋतु सुधी ( सो वर्षनुं ) श्राय .” "त्रिशत्रुसुतलग्नस्थैः सूर्यारेज्यसितैनवेत् । . प्रारंजः सद्मनो यस्य तस्यायुः समाशते ॥ ३॥" "त्रीजे स्थाने सूर्य होय, उठे स्थाने मंगळ, पांचमे स्थाने गुरु अने लग्नमां शुक्र रहेलो होय ते वखते जे घरनो आरंन को होय ते घरनुं आयुष्य बसो वर्षनुं थाय ." "व्योम्नि चन्छः सुखे जीवो लाने नौमशनैश्चरौ।। ___ यस्य धाम्नः समाशीति स्थितिस्तस्य श्रिया युता ॥४॥" "जे घरना प्रारंजवखते दशमे स्थाने चंड होय, सुख (४) स्थाने गुरु होय तथा लान (११) स्थाने मंगळ अने शनि होय तो ते घरनी स्थिति लक्ष्मी सहित एंशी वर्ष सुधी रहे बे." "स्वोच्चस्थे लग्नगे शुक्रे १ हिवुकस्थेऽथवा गुरौ । स्वोच्चे मन्देऽथवा लाले ३ धाम्नः सश्रीः स्थितिश्चिरम् ॥ ५॥" "जे घरना प्रारंजवखते शुक्र पोताना उच्च स्थाननो अश्ने लग्नमां रह्यो होय, अथवा गुरु हिबुक (1) स्थाने रह्यो होय, अथवा शनि उच्च स्थाननो श्रश्ने लाल (११) स्थाने रह्यो होय तो ते घरनी स्थिति लक्ष्मी सहित चिर काळ रहे वे एटले अमित स्थिति होय जे." __ जे आ विशेपो गृहारंजना लग्नमां कहेवाय ने ते जिनालय विगेरेना प्रारंजना सग्नने विषे पण जाणवा. तथा "स्वर्दै चन्छे विलग्नस्थ जीवे कंटकवर्तिनि । नवेलदमीयुते धाम्नि नूरिकालमवस्थितिः॥ ६॥" "जे घरना प्रारंने चं पोताना नक्षत्रमा रहीने लग्ने रह्यो होय, तथा गुरु कंटक (१-४-७-१०) स्थाने रह्यो होय तो ते घर लक्ष्मी युक्त श्राय , तथा तेमां चिर काळ स्थिति प्राय बे. अर्थात् तेमां रहेनारा चिर काळ सुधी रहे बे." __ "स्वमित्रोच्चगृहांशस्थै स्तश्याश्चिरमासते । खगैरन्यगतैरन्ये नीचगैश्चापि निर्धनाः ॥ ७॥" "धरना प्रारंजसमये ग्रहो पोतानां स्थानमां, मित्रना स्थानमां तथा उच्च स्थानमा अने वळी पोताना अंशमां, मित्रना अंशमां तथा उच्च अंशमा रह्या होय तो तेमां ते Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ॥ आरंलसिद्धि॥ घरधणीना वंशजो चिर काळ रहे , अने जो तेथी अन्य स्थानोमा रह्या होय तो ते घरधणीना वंशजोथी वीजा जनो चिर काळ तेमां रहे , पण जो ग्रहो नीच स्थानमा रह्या होय तो तेमां वसनारा निर्धन रहे ." "अनस्तगैः सितेज्येन्ऽजन्मराशिविलग्नपैः । स्वोच्चस्वदेवनागस्थैर्नवेच्चीसौख्यदं गृहम् ॥ ७ ॥" ___ "शुक्र, गुरु, चंड, जन्मनो स्वामी, राशिनो स्वामी अने लग्ननो स्वामी आटला ग्रहो अस्त पामेला न होय तथा पोतानां उच्च स्थाने, पोतानां क्षेत्रमा भने पोताना शंशमां रहेला होय तो ते घर लक्ष्मी तथा सुखने थापनारं थाय .” ___ "गृहिणीन्दी गृहस्थोऽर्के गुरौ सौख्यं सिते धनम् । विबले नाशमायाति नीचगेऽस्तंगतेऽपि च ॥ ए॥" "धरना प्रारंजसमये चंड निर्बळ होय, नीच स्थाने रह्यो होय अथवा अस्त पाम्यो होय तो घरधणीनी स्त्री नाश पामे बे. एज रीते सूर्य निर्बळ, नीच के अस्त होय तो घरधणी नाश पामे के. गुरु निर्वळ, नीच के अस्त होय तो सुखनो नाश श्राय यने शुक्र निर्बळ, नीच के अस्त होय तो धननो नाश थाय .” श्रा प्रमाणे दैवज्ञवसनमां कडं . तथा"गृहेषु यो विधिः कार्यों निवेशनप्रवेशयोः। स एव विषा कार्यो देवतायतनेष्वपि ॥१॥" "घरनुं स्थापन करवानो तथा तेमां प्रवेश करवानो जे विधि कहेलो तेज विधि विधाने देवालयोने विपे पण करवो (कहेवो-जाणवो.)" एम व्यवहारप्रकाशमां कडं वे. लग्नने विषे दोषने कहे .वर्णेशो पुर्बलः कुर्यादावर्षादन्यहस्तगम् । एकोऽपि द्यून ७ कर्म १० स्थः परांशे स्याद्यदि ग्रहः ॥ ४ ॥ अर्थ-जो वर्णनो स्वामी उर्बळ होय तथा सातमा अने दशमा स्थानमा रहेलो एक पण ग्रह जो बीजाना नवांशमां होय तो ते घर एक वर्षमां वीजा धणीने हाथ जाय. अहीं श्लोकना उत्तरार्धमां कहेलो एकलोज योग होय तो कहेलुं फळ अनेकांत (अनिश्चित) जाणवू अने पूर्वार्धमा कहेलो योग होय तो अवश्य फळ मळे एन जाणवू, पण बन्ने योगो अन्य ग्रहना नवांशमा रह्या होय तो जलदीथी घरनो नाश थाय ने. यात्रा करीने पाग वळेला राजादिकनो सामान्य रीते घर प्रवेश अग्रवा नवा घरमां प्रवेश करवानो विधि कहे . Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ २६ए गृहप्रवेशं सुविनीतवेषः, सौम्येऽयने वासरपूर्वनागे। कुर्या विधायालयदेवतार्चा, कल्याणधीजूतबलिक्रियां च ॥५॥ अर्थ—सारो विनयवाळो वेष धारण करीने कट्याणवुद्धिवाळा राजादिके सौम्य अयनमां दिवसना पहेला लागने विपे गृहदेवतानी पूजा तथा नूतने बलिदाननी क्रिया करीने गृहप्रवेश करवो. __ अहीं सारो विनयवाळो वेष धारण करवो एटले के अति उत वेष न करवो, पण पवित्र भने नचित वेप पहेरवो. सौम्य अयन एटले उत्तरायण जाणवू. ते विषे कह्यु के __“सौम्येऽयने कर्म शुलं विधेयं, यजर्हितं तत्खलु दक्षिणे च"। सौम्य अयन एटले उत्तरायणमा शुन्न कार्य करवू, अने जे निंदित कार्य ने ते दहिगायनमा करवू. अहीं शुन्न कार्यमां पण याटलो विशेप बे. “मासादिसंख्यानियतं सीमन्तोन्नयनादिकम् ।। . याम्यायनादौ तत्सर्व क्रियमाणं न पुष्यति ॥१॥" "जे शुन्न कार्यमा मासादिकनी संख्यानोज नियम करेलो होय एवां सीमंत विगेरे सर्व कार्यो दक्षिणायनादिकमा करवायी पण दोप नथी” एम त्रिविक्रम कहे . अहीं याम्यादौ-दक्षिणायनादिकमां ए ठेकाणे आदि शब्द लखेलो ने तेथी अधिक मास तथा क्ष्य मास पण श्रावां कार्योमां निंद्य नथी एम जाणवू. __ मूळ श्लोकमां दिवसनो पहेलो नाग कह्यो . तेनो अर्थ चढते दिवसे जाणवो. गृहदेवतानी पूजा एटले वास्तुशास्त्रमा कहेली वास्तुनी पूजा. नूतबळिदान एटले दिशा तथा विदिशाउँमां नूतने वळिदान आपq ते. कड्याणवुद्धिवाळा एटले के गृहप्रवेशसमये चित्तमां सद्बुद्धि राखवी. गृहप्रवेशमा वार तथा नक्षत्रनो नियम कहे . प्रविशेश्म वारेषु हित्वार्कक्षितिनन्दनौ । नैश्च पुष्यध्रुवस्वातिधनिष्ठामृज्वारुणैः ॥ ६ ॥ विधाय वामतः सूर्य पूर्णकुंजपुरस्सरः। गृहं यदिङ्मुखं तदिगघारधिष्ण्ये विशेषतः ॥ ७ ॥ अर्थ-रविवार तथा मंगळवारने वर्जीने वीजा वारोमां पुष्य, ध्रुव संज्ञावाळा (रोहिणी अने त्रण उत्तरा ), स्वाति, धनिष्ठा, मृउ संझावाळा ( मृगशिर, चित्रा, अनुराधा अने रेवती ) तथा शतभिषक् एटलां नत्रोमां सूर्यने मावी वाजुराखीने पूर्ण कुंज सहित घरमा प्रवेश करवो. तेमां पण जे दिशाना मुखवाळु घर होय ते दिशाना घारनुं नछत्र होय तो ते विशेष शुक्ल बे. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि॥ अहीं प्रवेश करती वखते गोचर अने अष्टक वर्गनी विधिए करीने चंग अनुकूळ होय, रिक्ता तिथि न होय तथा विष्कंजादिक कुयोग न होय ए पोतानी मेळे जाणी ले. ते विषे व्यवहारप्रकाशमां कडं ने के ___ "तारेन्योर्बलकाले तियावरिक्तेऽह्नि शुलदस्य।" "तारा अने चंजनुं बळ होय त्यारे रिक्ताने वर्जीने बीजी तिथिमां अने शुलदायक दिवसे गृहप्रवेश करवो.” ___ मूळ श्लोकमां रवि अने मंगळने वर्जवान कारण ए के ते बन्ने वारो रोग तथा रक्त प्रकोपने करनारावे. वयं नक्षत्रनुं फळ दैवज्ञवसजमां था प्रमाणे कडं . "विशाखासु राज्ञी सुतो दारुणेषु, प्रणाशं प्रयात्युग्रनेषु दितीशः। _ गृहं दह्यते वह्निना वह्निधियाये, चरैः प्रिधिष्ण्यैश्च नूयोऽपि यात्रा ॥१॥" "विशाखामां गृहप्रवेश करवाथी राणीनो नाश पाय, दारुण नक्षत्रोमां प्रवेश करवाथी पुत्रनो नाश थाय, नग्र नक्षत्रोमां प्रवेश करवाथी राजानो नाश थाय, अग्निना नक्षत्र (कृत्तिका) मां प्रवेश करवाथी ते घर अग्निवमे वळी जाय, तथा चर बने प्रि नक्षत्रोमां प्रवेश करवाथी फरी यात्रा करवी पझे ." मूळ श्लोकमा पूर्ण कुंल सहित प्रवेश करवानुं कडं एटले के जळथी नरेला कळशोने (कळशवाळी स्त्रीउने) श्रागळ करीने प्रवेश करवो. जे दिशाना मुखवाळु घर होय एम जे कह्यं तेनो अर्थ ए के-पूर्व दिशानी सन्मुख घर होय तो पूर्व धारवाळां कृत्तिकादिक सात नक्षत्रो ने, माटे ते नक्षत्रोमां प्रवेश करवानो अधिकार बे. तेथी करीने पूर्वे कहेला गुणवाळु पण प्रवेश, नक्षत्र जो घरनी सन्मुखनी दिशाना बारवाळु होय तो ते अत्यंत शुन जाणवू. विशेषमां सब कहे डे के "सर्वग्रहैविमुक्तं प्रवेशनं शस्यते प्रयत्नेन । कैश्चित्सौम्यसमेतं शुनप्रदं कीर्तितं मुनिनिः॥१॥" "सर्व ग्रहोने गोमीने प्रयत्नवझे जो प्रवेशनुं नक्षत्र लीधुं होय तो ते वखाणवा लायक बे. केटलाक मुनि कहे जे के ते प्रवेशनुं नक्षत्र सौम्य ( रवि, मंगळ अने शनि वर्जित) ग्रहोए करीने सहित होय तो ते शुन्नकारक जे." नवा घरमा प्रवेश करवो होय तो शुक्रनुं सन्मुखपणुं तजवा योग्य बे. ते विषे त्रिविक्रमे कह्यु बे के "त्यजेत् कुतारां प्रस्थाने शुक्रज्ञौ गृहवेशके । यात्रासु च नवोढस्त्रीवर्ज संमुखदक्षिणौ ॥१॥" "प्रस्थान करती वखते कुताराने वर्जवी, नवीन विवाहेल स्त्रीने गेमीने बीजाने गृहप्रवेशमां तथा यात्रामा सन्मुख के जमणी बाजुए रहेला शुक्र अने बुधने तजवा." Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ ॥ चतुर्थो विमर्शः॥ हवे खग्नवळ कहे .जन्मराशिविलग्नाच्या प्रथमोपचयस्थितम् । लग्नं स्थिरं तदंशश्च प्रवेशे सन्निरिष्यते ॥ ७ ॥ अर्थ-सत्पुरुषोए गृहप्रवेशने विषे जन्मनी राशिथी अने जन्मलग्नथी प्रथम तथा उपचयस्थानमा रहेलुं स्थिर लग्न तथा तेनो अंश ( नवांश ) श्वेलो ने. अहीं प्रथम स्थान एटले जन्मराशि अने जन्मलग्नरूपज लग्न होय तो ते गृहप्रवेशमा प्रशस्य जे. ते विषे लक्ष कहे वे के "स्वनक्षत्रे स्वलग्ने वा स्वमुहूर्ते स्वके तियो । गृहप्रवेशमंगट्यं सर्वमेतत्तु कारयेत् ॥ १॥ कुरकर्म विवादं च यात्रां चैव न कारयेत् ।” "पोताना (जन्मना ) नक्षत्रमां, पोताना लग्नमां, पोताना मुहूर्त्तमां अने पोतानी तिथिमा गृहप्रवेश तथा सर्व मांगलिक कार्य करावयां, परंतु क्षौर कर्म, विवाद तथा यात्रा ए त्रण कार्य करावयां नहीं." जन्मराशि ने जन्मलग्न थकी उपचयस्थानमा (३-६-१०-११) रहेलो पण राशि प्रशस्य रे. ते विषे लह कहे के __ "धारोग्यदो १ धनहरो २ धनदः ३ सुखघ्नः ४, पुत्रान्तको ५ ऽरिंगणहा ६ ऽथ नितम्विनीनः । प्राणान्तकृत् - पिटकदो ए ऽर्थ १० धनौघ ११ नीदो १२, जन्मदतस्तमुदयाच्च विलग्नराशिः॥१॥" "जन्मना नक्षत्रथी तथा तेना उदयथी लग्ननो राशि जो पहेले स्थाने होयतो आरोग्य आपे , वीजे होय तो धननो नाश करे , त्रीजे होय तो धनने आपे चे, चोथे होय तो सुखनो नाश करे , पांचमे होय तो पुत्रनो नाश करे, उठे होय तो शत्रुना समूहनो नाश करे, सातमे होय तो स्त्रीनो नाश करे, आम्मे होय तो पोताना प्राणनो नाश करे, नवमे होय तो व्याधि करे, दशमे होय तो धनने आपे, अगीयारमे होय तो धननो समूह थापे अने बारमे होय तो जयने श्रापे ." मूळ श्लोकमां सामान्य रीते स्थिर लग्न कडं , तोपण ते स्थिर लग्न गामर्नु ले, पण अरण्यनुं लेवू नहीं, एटले के वृष के कुल लग्नमां के तेना नवांशमां गृहप्रवेश करवो श्रेष्ठ ने, केमके ते बे लग्नज ग्रहण करवा लायक (ग्राम्य ) . मूळमां तेनो अंश कह्यो ने ते साथे च शब्द सख्यो , माटे विस्वनाववाळा लग्न तथा अंश ( नवांश) गृहप्रवेशमा सूषित नथी, केमके चर खग्न तथा चर अंशनोज दोप कह्यो . ते विषे सस् कहे वे के Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ॥आरंसिद्धि ॥ "पुनः प्रयाएं मेषे स्यान्मृत्युः कर्के तुले रुजः। धान्यनाशो मृगे लग्नैरंशैश्च फलमीदृशम् ॥ १॥" "मेष लग्नमां के तेना अंश ( नवांश )मां गृहप्रवेश करवाथी फरीने प्रयाण करई पके चे, कर्कमां के तेना अंशमां गृहप्रवेश करवाथी मृत्यु प्राय बे, तुला के तेना अंशमां करवाथी व्याधि थाय ने, अने मकरमां करवाथी धान्यनो नाश पाय जे. श्रा प्रमाणे चर लग्ननु तथा तेना अंशनुं फळ ." __ ग्रहोनी व्यवस्था नवीन घरना स्थापन करवामां जे कही ले तेज गृहप्रवेशमां पण ने, तेथी करीने जूदी पामीने कही नथी. ग्रहोना त्रण प्रकार ज्योतिषसारमां था प्रमाणे कह्या . "कूरा ति उगारसगा सोमा किंदे तिकोणगे सुहया । कूर म अश् सुहा सेसा मज्झिम गिहारं ॥१॥ किंद मंति १२ कूरा असुहा ति गारहा सुहा सधे । कूरा बीया असुहा सेस समा गिहपवेसे अ॥२॥" "नवीन घरनो श्रारंल करवामां क्रूर ग्रहो ( रवि, मंगळ, शनि, राहु) त्रीजे, बछे तथा अगीयारमे स्थाने होय तो ते सारा (उत्तम) . सौम्य ग्रहो केन्द्र (१-४-पु-१०) स्थानमा तथा त्रिकोण (ए-५) स्थानमां होय तो ते सारा जे. क्रूर ग्रहो बाग्मे स्थाने रह्या होय तो ते अत्यंत अशुन (अधम ) . बाकीना ग्रहो श्रापमा स्थानमा रह्या होय तो ते मध्यम बे. (१) गृहप्रवेश करवामां क्रूर ग्रहो केन्द्र (१-४-७-१०) स्थानमा बाग्मे स्थाने तथा बारमे स्थाने होय तो ते अशुल (अधम ) , सर्वे ग्रहो त्रीजे तथा अगीयारमे स्थाने रह्या होय तो ते शुन्न (उत्तम) जे. क्रूर ग्रहो वीजे स्थाने होय तो ते अशुल (अधम ) . बाकीना मध्यम जे.” यंत्र नीचे प्रमाणे.गृहस्थापन अने गृहप्रवेशमां ग्रहोनी व्यवस्था मध्यम अधम ३-६-११ ए ७-१-४-१-१०-१२-२ चंग १-४-४-१०--५-३-११ ७-२-६-१२ ३-६-११ ७-१-४-७-१०-१२-२ १-४-४-१०-ए--३-१ ७-२-६-१२ १-४-४-१०-ए-५-३-११ ७-२-६-१२ शुक्र १-४-१-१०-ए--३-११ ७-२-६-१२ शनि । ३-६-११ ए- ७-१-४-४-१०-१२-२ राहु । ३-६-११ ए-५ ७-१-४-४-१०-१२-५ उत्तम रवि मंगळ बुध गुरु Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ विशेषमां जाकर कहे वे के " रात्रौ विवाहने शस्तः सन्मुहूर्ते स्थिरोदये । वधूप्रवेशो नैवात्र प्रतिशुक्रायं विदुः ॥ १ ॥” " रात्रे विवाहना नक्षत्रमां शुभ मुहूर्ते ने स्थिर लग्नमां वहुनो प्रवेश प्रशस्त बे, तेमां सामा ( सन्मुख ) शुक्रनो जय कह्यो नथी. " तथा रत्नमाळामां आ प्रमाणे कां बे. - "पुनर्वसौ च सूतिकागृहस्य निर्मितिः स्मृता । विरञ्चिविष्णुजान्तरे प्रवेशनं च तत्र तु ॥ १ ॥” " सूतिकागृहनुं निर्माण पुनर्वसु नक्षत्रमां कह्युं वे, ने तेमां प्रवेश करवानुं निजित् तथा श्रवण एबे नक्षत्रोनी वच्चे कह्युं वे. काहीं पुनर्वसु नक्षत्र लेवानुं कारण एजे नो स्वामी देवमाता बे माटे, तथा निजित् अने श्रवणानी बच्चे प्रवेश करवानुं कारण एबे जे तेमना सृष्टिकर्ता (ब्रह्मा) ने पालनकर्ता ( विष्णु ) स्वामी बे माटे. प्रवेश करवामां अति उत्सुकता होय तो बे नक्षत्रोना उदयनी (लग्ननी) बच्चे प्रवेश करवो. ॥ इति वास्तुद्वारम् ॥ ॥ इति श्रीमति आरंभ सिद्धिवार्तिके गम १ वास्तु निवेश प्रवेशपरीक्षात्मकश्चतुर्थो विमर्शः ॥ ४ ॥ IDOGO ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ॥ अथ विलग्नारम् ॥ १० ॥ ed दशमं विलन ( विवाह ) द्वार कहे बे. - लग्नं विवाहे दीक्षायां प्रतिष्ठायां च शस्यते । at मकरकुंजस्थे मेषादित्रयगेऽपि च ॥ १ ॥ २७३ अर्थ-विवाह, दीक्षा ने प्रतिष्ठाने विषे मकर, कुंज ने मेषादिक ऋण (मेष, वृष तथा मिथुन ) संक्रांतिना सूर्य होय त्यारे लग्न ( मुहूर्त्त ) लेवुं ए शुज बे. वहीं दीक्षा करीने उपस्थापना ( वमी दीक्षा ) जाणवी प्रतिष्ठा एटले जिनबिंब, जिनप्रासाद विगेरेनी स्थापना. श्लोकमां च शब्द लख्यो वे ते नहीं कहलाने पण ग्रहण करवा माटे बे, तेथी राज्याभिषेक ने आचार्यपदानिषेकनुं पण ग्रहण कर. शुभ बे एटले अवश्य आदरवावने करीने बहु मानेलुं बे. या विवाहादिक कार्यो शुद्ध लग्नना बळे करीनेज करवा लायक बे, ते सिवाय करवा लायक नथी; अने बीजां कार्यों तो दिवस ाने नक्षत्रनी शुद्धि होय त्यारे मात्र सारा मुहूर्त्तमां पण करवा लायक छे. अहीं आ० ३५ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ॥ श्रारंजसिद्धि। को शंका करे के-"जो जन्मलग्नथीज शुजाशुल फळ थाय ने तो था विवाहादिकना लग्ननुं प्रवळपणुं विचारवानुं शुं प्रयोजन ? अने जो कदाच विवाहादिकना लग्नना वळज प्रमाण होय तो पी जातकादिक शास्त्रोनुं निरर्थकपणुं श्रशे.” था शंकानो जवाव आपतां श्राचार्य महाराज कहे वे के-“एम न बोलवू, कारण के जातकादिकमां जे शुनाशुल फळ कहेलुं ते (फळ )नी विवाहादिकना लग्नना बळथी अधिकता के न्यूनता थाय बे. जेमके जन्मनु (जन्मलग्ननुं ) फळ शुक्ल बतां पण दशा प्रवेशने काळे जे तत्काळचं लग्न श्रावे तेमां दशानो पति ( स्वामी) अने तेना मित्रादिक लग्नादिक स्थानमा रह्या होय तथा चंथी मित्रस्थानमां, उच्च स्थानमां, उपचयस्थानमां अने त्रिकोणादिक स्थानमा रह्या होय तो तेनुं फळ अत्यंत शुल कडं . ते विषे बृहजातकमां या प्रमाणे कडं . “पाकस्वामिनि लग्नगे सुहृदि वा वर्गस्य सौम्येऽपि वा, प्रारब्धा शुनदा दशा त्रिदशषड्लानेषु वा पाकपे । मित्रोच्चोपचयत्रिकोणमदने पाकेश्वरस्य स्थित श्चन्छः सत्फलबोधनानि कुरुते पापानि चातोऽन्यथा ॥१॥" "पाकनो स्वामी एटले दशानो स्वामी लग्नस्थानमां के मित्रना स्थानमा रह्यो होय अथवा पोताना वर्ग संबंधी सौम्य ग्रह साथे रह्यो होय ते वखते श्रारंन श्रयेली दशा शुल फळ आपनारी जाणवी. अथवा दशानो स्वामी श्रीजे, दशमे, बछे के अगीयारमे स्थाने होय तोपण ते शुन बे, तथा दशाना स्वामीनां मित्रस्थानमां, उच्च स्थानमां, जपचयस्थानमां, त्रिकोणस्थानमां के स्त्रीनुवनमां चंज रह्यो होय तो ते सत्फळना बोधने करे , तेनाथी अन्य स्थानमा रह्यो होय तो पापने करे -अशुल फळदायक जे." वळी प्राणीनुं जन्मलग्न अशुन उतां पण तत्काळना विवाहादिक खनना बळथी शुज पण थाय ने, माटे सर्व उपर कहेलुं निर्दोष एटले युक्ति युक्तज . "विवाहादौ स्मृतः सौरः” “विवाहादिक कार्यमा सौर (सूर्य संबंधी) मास कह्यो जे.” ए प्रमाणे रत्नमाळाना नाष्यमां कडं बे, तेथी लग्नमां सूर्यसंक्रांतिथी प्रवर्तेला सौर मासनो नियम कह्यो. हवे चांज (चंड संबंधी) मासनो नियम कहे . माघफाल्गुनयो राधज्येष्ठयोश्चापि मासयोः। लग्नं श्रेयः परे त्वाहुस्तछत्कार्तिकमार्गयोः ॥२॥ अर्थ-माघ अने फागुन मासमां तथा वैशाख अने ज्येष्ठ मासमां पण लग्न शुन बे. वळी बीजा आचार्यो कार्तिक अने मार्गशीर्ष मासमां पण तेज प्रमाणे एटले शुन खमने कहे . Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ श्रा शुक्ल प्रतिपद्यी श्रारंजीने चांड मासोज ग्रहण करवा. अहीं कोई शंका करे के ज्येष्ठ मासमां तो मिथुन संक्रांति होय , अने ते संक्रांति तो उपरना (पहेला)श्लोकमां पण ग्रहण करवानी कही ने, तेश्री अहीं फरीथी ज्येष्ठ मासनुं ग्रहण केम कर्यु ? श्रा शंकानो जवाब ए जे जे-अषाढ मासमां कदाचित् मिथुन संक्रांति श्रावती होय तोपण सर्वथा ते अषाढ मासनो निषेध करवा माटे अहीं ज्येष्ठ मासन ग्रहण कर्यु के. केटलाक आचार्योए मिथुन संक्रांति होय तो अषाढ मासनी शुक्ल दशमी सुधीनो प्रथम त्रिनाग ग्रहण करवानो कह्यो बे. ते विषे त्रिविक्रम कहे जे के-"कैश्चिदिष्टस्यंशः शुचेरपीति" "केटलाएके अषाढ मासनो पहेलो त्रिनाग पण श्चयो .” मूळ श्लोकमां कार्तिक तथा मार्गशीर्ष मास पण मतांतरे सीधा , परंतु ते मास अधम होवाथी तेमां हीन जातिना मनुष्योनो विवाह थ शके एम जाणवू. तेमां पण कार्तिक शुक्ल एकादशी पजीज थश् शके एम जाणी लेवू. ते विषे व्यवहारप्रकाशमां कडं वे के "कार्तिकमासे शुधि रोविलोक्या रवेश्च चन्मवलम् (ले)। अक्रूरयुते धिष्ण्ये देवोत्थानाद्दशाहं स्यात् ॥ १॥" "कार्तिक मासमां देव उठ्या (एकादशी) पनी गुरुनी तथा सूर्यनी शुद्धि जोवी. क्रूर ग्रह रहित नक्षत्रमा चंग बळवान् होय तो दश दिवस विवाह अश् शके". श्रा उपर कहेला उ मास सिवाय बीजा बाकीना उ चंड मासमां लग्न ग्रहण करवं नहीं एम सिद्ध थयु. वळी पाकश्रीकार तो या प्रमाणे कहे बे-"कार्तिक विगेरे त्रण त्रण मासमां अनुक्रमे चार स्थिर राशिनां लग्नो अमृतस्वनाववाळां बे. ते आप्रमाणे-कार्तिकादिक त्रण मासमां वृष लग्न शुल ने, माघादिक त्रण मासमां सिंह लग्न शुज , वैशाखादिक त्रण मासमां वृश्चिक लग्न शुक्ल ने, अने श्रावणादिक त्रण मासमां कुंज लग्न शुन वे. श्रा राशिऊना वर्गोत्तमना मध्यम अंशना उदयमां सर्व कार्यनी सिद्धि थाय बे. जे वर्ष मासादिकमां लग्न ग्रहण करवामां आवतुं नथी तेने कहे .जीवे सिंहस्थे धन्वमीनस्थितेऽर्के,विष्णौ निजाणे चाधिमासे च लग्नम् । नीचेऽस्तं वाते लग्ननाथेऽशपे वा, जीवे शुक्रे वाऽस्तं गते वाऽपि नेष्टम्॥३॥ अर्थ-बृहस्पति सिंह राशिमा रहेलो होय, सूर्य धन अथवा मीन संक्रांतिमा रहेलो होय, विष्णु सुतेला होय, अधिक मास होय, लग्ननो स्वामी अथवा अंशनो स्वामी नीच स्थाने रह्यो होय अथवा अस्त पाम्यो होय, तथा गुरु के शुक्र अस्त पाम्या होय त्यारे लग्न खेबु श्ष्ट नथी. सिंह राशिमा रहेखो बृहस्पति होय तो लग्न खेवं श्ष्ट नथी. ते विषे सप्तर्षि कहे जे के Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ॥ श्ररंजसिद्धि ॥ "गुरुर्मघायां पुरुषं हन्ति जाग्ये स्थितः स्त्रियम् । उत्तराफाल्गुनी पादे घयं हन्ति न संशयः ॥ १ ॥ " " मघा नक्षत्रमा रहेलो बृहस्पति पुरुषने हो बे, पूर्वाफाल्गुनी मां रह्यो होय तो स्त्रीने हणे बे, अने उत्तराफाल्गुनीना पहेला पादमां रह्यो होय तो बन्नेने दणे बे. तेमां कांइ पण संदेह नथी. ( या सवा वे नक्षत्रो सिंह राशिनां बे. ) " "गोदावर्युत्तरतो यावन्नागीरथीतटं याम्यम् । तत्र विवाहो नेष्टः सिंहस्थे देवपतिपूज्ये ॥ २ ॥” "बृहस्पति सिंह राशिमां रह्यो होय त्यारे गोदावरी नदीना उत्तर कांठाथी श्ररंजीने गंगा नदीना दक्षिण कांता सुधीना वचला प्रदेशमां विवाह करवानुं इचचुं नथी. " केटलाएक श्राप्रमाणे कहे बे. ज्यांसुधी बृहस्पति मघा नक्षत्रने उलंघन न करे त्यांसुधी सिंहस्थनो दोष मोटो बे. ते विषे शौनक कहे वे के— "पितृ यदि सुरपूज्यो नीचर्दो वाऽथवाऽरिसंयुक्तः । कन्योढा वैधव्यं प्रयाति संवत्सरैः षङ्गिः ॥ १ ॥ " “जो बृहस्पति मघा नक्षत्रमां होय, अथवा नीच राशिमां होय, अथवा शत्रुस्थानव संयुक्त होय तो तेवा लग्नमां परणेली कन्या व वर्षे विधवा थाय बे. " जो मघा नक्षत्रने उलंघन करी गयो होय तो तेटलो बधो दोष नथी, तेथी करीने कन्याकाळनातिक्रमणथी, वरना लोगथी के देशना उपजव विगेरेना हेतुथी संपूर्ण सिंहस्थनो त्याग करवो अशक्य होय तो ते मघामां रहेला गुरुनोज त्याग करे बे. ते कहे के "बहवोऽप्येवं जगडुः सिंहारूढोऽपि वृत्रशत्रुगुरुः । समतिक्रान्तमर्दो न विरुद्धः सर्वकार्येषु ॥ ॥" "घणा आचार्यो कहे बे के इन्द्रनो गुरु बृहस्पति सिंह पर आरूढ थयो होय तोप मघा नक्षत्रने उलंघन करी गयो होय तो सर्व कार्यमां विरुद्ध नथी." पराशर कहे बे के – “सिंहां रहेला बृहस्पतिए जो सिंहना पहेला पांच नवांशो जोगवी लीधा होय तो अमुक देशमां सिंहस्थनो दोष लागतो नथी. ते या प्रमाणे. - " सिंहस्थे ज्योऽनुसिंहां शाकाह्नवी तीरयोर्द्वयोः । न पुष्टो गंगयोर्मध्यदेशेषु तु स दुःखदः ॥ १ ॥” “सिंहमां रहेलो बृहस्पति सिंहना प्रथम पांच नवांश जोगव्या पबी गोदावरीना दक्षिण कांठे तथा गंगाना उत्तर कांवे पृष्ट नथी. गोदावरी तथा गंगाजीना मध्य जागमां तो दुःखदायक . Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ २७७ वळी सप्तर्षि श्रा प्रमाणे कहे वे.-"अमुक देशमां सिंहस्थ गुरु प्रथमधीज अपुष्ट जे. ते या प्रमाणे. "नागीरथ्युत्तरे तीरे गोदावर्याश्च दक्षिणे । विवाहो व्रतबन्धो वा सिंहस्थे ज्ये न दुष्यति ॥१॥" "सिंहस्थ गुरु होय त्यारे गंगाना उत्तर कांवे तथा गोदावरीना दक्षिण कांठे विवाह अथवा व्रतबंध (दीदा, उपनयन विगेरे ) करवानो दोष नथी.” वळी बीजा श्राचार्यों आ प्रमाणे कहे बे-“मेष राशिमां सूर्य होय त्यारे जो लग्न ग्रहण कर्यु होय तो मघा नक्षत्र जोगवार जवाथी सिंहस्थ गुरुनो दोष नथी.” ते कहे जे के "सिंहन्धि जइ जीवो मह जुत्तं हो अह रवि मेसे । ता कुणह निविसंकं पाणिग्गहणार कसाणं ॥१॥" "सिंहस्थ गुरुए जो मघा नक्षत्र जोगवी लीधुं होय, अने मेष राशिमां सूर्य होय तो निःशंकपणे पाणिग्रहणादिक शुक्ल कार्यो करवा.” अहीं था सर्वे ग्रन्यांतरोना संवादो विवाहना फळने आश्रीने देखाड्या ने, परंतु प्रतिष्ठा अने दीक्षा विगेरे सर्व कार्योमां पण आने अनुसरीनेज फळ कहे. एज प्रमाणे आगळ पण जाणवू. . मूळ श्लोकमां धन अने मीन संक्रांतिमां विवाहनो निषेध कर्यो ने. त्यां विशेष श्रा प्रमाणे जाणवो. "ऊषो न निन्द्यो यदि फागुने स्यादजस्तु वैशाखगतो न निन्द्यः। मध्वाश्रितौ घावपि वर्जनीयौ. मृगस्तु पौषेऽपि गतो न निन्द्यः॥१॥" "जो फागुन मासमां मीनना सूर्य होय तो ते निंद्य नथी, अने वैशाख मासमां पण मेष होय तो ते पण निंद्य नथी, परंतु चैत्र मासमां मीन के मेप संक्रांति होय तो ते बन्ने वर्जवा योग्य वे. तथा पोष मासमां मकर होय तोपण ते निंद्य नथी." था विद्याधरी विलास ग्रंथमां कडं . श्रा श्लोकनेज केटलाएक या प्रमाणे बोले . "ऊषो न निन्द्यो यदि फागुने स्यादजस्तु चैत्रेऽपि गतो न निन्द्यः। मृगस्तु पौषेण च संप्रयुक्तो, वशिष्ठगर्गादिमिरेतऽक्तम् ॥१॥" Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ॥श्रारंसिद्धि। __"फागुन मासमां मीन होय तो ते निंद्य नथी, मेष राशि चैत्र मासमां होय तोपण ते निंद्य नथी, मकर राशि पोष मासमां होय तो ते पण निंद्य नथी, एम वशिष्ठ, गर्ग विगेरे शषि कहे ." आ पाठमां आटलो विशेष जाणवो के चैत्र मासने विषे पण जो मेषना सूर्य होय तो लग्न ग्रहण करवामां दोष नश्री. वळी रत्नमाळालाष्यमां तो श्रा प्रमाणे कडं . "कर्कादि राशिषटुं च पूर्वार्ध पौषचैत्रयोः। अस्तमितं गुरुं शुक्रं त्यजेचूमादिकर्मणि ॥१॥" "कर्कथी श्रारंजीने धन सुधीनी ब संक्रांतिने, पोष तथा चैत्र मासना पूर्वार्ध (पहेला पखावामीया )ने अने गुरु तथा शुक्रना अस्तने चूमादिक कर्ममां वर्जवा." अहीं पोष तथा चैत्र मासना पूर्वार्धने तजवानुं कडं ने तेने नहीं सहन करतो श्रीपति श्राप्रमाणे कहे जे. "सौम्येऽयनेऽप्यविकलौ पौषचेत्रौ परित्यजेत् । पदोऽपरः शुनः कैश्चिन्न चैतद्युक्तिमचः॥१॥" "उत्तरायणने विषे पण पोष तथा चैत्र मास संपूर्ण त्याग करवा लायक , केटलाक श्राचार्योए शुक्ल पदने शुज कह्यो , पण ते वचन युक्तिवाळु नयी.” एम दैवज्ञवलजमां कडं . __ मूळ श्लोकमां "विष्णु सुतेला होय" एम जे कह्यु ते लोकरूढिए करीने जाणवू, एटले अषाढ शुक्ल एकादशीथी कार्तिक शुक्ल एकादशी सुधीनो काळ जाणवो. मूळ श्लोकमां अधिक मास वर्जवानो कह्यो , ते अधिक मास आ प्रमाणे थाय .-को पण मासनी अमावास्याने विषे एक संक्रांति बेठी होय अने बीजी संक्रांति त्यारपीना मासनी प्रतिपदाने दिवसे बेठी होय त्यारे वच्चेनो जे संक्रांति रहित मास रह्यो ते अधिक मास कहेवाय बे. कडं बे के "एकोऽमावास्यायां नवेषवेः संक्रमः परो दर्शात् । ऊर्ध्वं जायेत यदा तदाऽधिमासः शुनेऽनिष्टः॥१॥" “एक सूर्यनुं संक्रमण (संक्रांति) अमावास्याने दिवसे होय श्रने बीजं संक्रमण श्रावती अमावास्या पली होय त्यारे वच्चनो अधिक मास श्राय जे. ते अधिक मास शुल कार्यमां अनिष्ट ने." विशेष श्रा प्रमाणे जे."मासघयेऽब्दमध्ये तु संक्रान्तिन यदा नवेत् । प्राकृतस्तत्र पूर्वः स्यादधिमासस्तथोत्तरः॥१॥" "एकज वर्षमां ज्यारे बे मासने विषे संक्रांति न होय त्यारे पूर्वनो मास प्राकृत श्रने Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ पीनोमास अधिक जाणवो." अहीं प्राकृत एटले प्रकृति-धर्मव्यवहार ते संबंधी अर्थात् विवाह, दीक्षा, प्रतिष्ठा विगेरे शुभ कार्यने योग्य एवो अर्थ जाणवो. एक वर्षमां बे मा अधिक होय त्यारे जो पहेलाने अधिक मास कहीए तो तेमांनो पहेलो मास धर्मकर्मना व्यवहारने योग्य बे, अने बीजो नहीं, पण बीजा मासने जो अधिक गणीए तो ते बेमन बीजो मास धर्मव्यवहारने योग्य जाणवो एम काळनिर्णय ग्रंथमां कह्युं छे. ब्रह्मसिद्धांतांबे के - " वर्षमध्ये मासघयवृद्धौ प्रथममासवृद्धौ कर्मकृदाद्योऽपरस्त्वशु इति" "एक वर्षमां बे मासनी वृद्धि होय त्यारे पहेला मासनी वृद्धि करीए तो पहेलो मास कर्मने लायक बे ने बीजो अशुभ बे. ' ,, मूळ श्लोकमां "अधिमासे च " हीं च शब्द बे तेथी दय मास पण लग्नमां तजवा योग्य बे. ते हय मास या प्रमाणे जाणवो. - ज्यारे एक संक्रांति शुक्ल प्रतिपद्ने दिवसे होय ने बीजी संक्रांति तेज मासनी श्रमावास्याने दिवसे अर्थात् अमावास्या सुधीमां हो त्यारे ते संक्रांतिवाळो दय मास कहेवाय बे. ते दय मास कार्तिक, मार्गशीर्ष के पोष ए मांथी कोइ एक संजवे बे. ते विषे काळ निर्णय ग्रन्थमां कह्युं वे के.. "संक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटं स्यात्, दिसंक्रान्तिमासः क्षयाख्यः कदाचित् । यः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात्, ततो वर्षमध्येऽधिमासद्वयं स्यात् ॥ १ ॥” " जे मासमां संक्रांति न होय ते अधिक मास कहेवाय बे, छाने कोइक वखत एक मासमा बे संक्रांति होय एवो दय मास पण होय छे. ते दय मास कार्तिक विगेरे त्रण मासमज होय बे, तथा ते वर्षमां बे अधिक मास आवे छे." तथा " यस्मिन्मासे न संक्रान्तिः संक्रान्तिघयमेव वा । मलमासः स विज्ञेयः सर्वकार्येषु वर्जितः ॥ १ ॥” "जे मासमां संक्रांति न होय, अथवा जे मासमां वे संक्रांति होय ते मल मास जाणवो. मास सर्व कार्यमा वर्जित बे." या प्रमाणे कावगृह्यमां कह्युं बे. मूळ श्लोकमां "नीचेऽस्तं वेति” एटले लग्ननो तथा अंशनो स्वामी नीच स्थानमां हेलो होय तो ते त्याग करवा योग्य बे. ते विषे प्रश्नप्रकाशमां कंबे के “त्रि १ ले २ कगुणा ३ र्धबलः ४ खग उच्चग १ व २ शीघ्र ३ नीचस्थः ४ ।” " ग्रह उच्च स्थाने रह्यो होय तो तेनुं बळ त्रण गणुं होय बे, वक्र गतिवाळो होय तो तेनुं बळ बम होय बे, शीघ्र गतिवाळो होय तो एक गणुं होय बे, अने नीच स्थानमां रह्यो होय तो तेनुं अर्ध बळ होय बे.” परंतु अस्त पामेलो होय तो तेनुं कांइ पण बळ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंलसिद्धि। नथी. मात्र एक बुध ग्रह अस्त पामेलो के उदय पामेलो होय तो ते विवाहादिकना खनमा समान फळवाळोज बे. कडुं के ___ "रविकिरणमध्यवर्ती चरति सदा सवितृमंझले शशिजः। तस्मान्न दोषकृत्स्यात् सोऽस्तं यातोऽपि नांशपतिः॥१॥" "सूर्यनां किरणोना मध्यमां वर्तनारो बुध सर्वदा सूर्यमंमळमांज गति करे , तेथी करीने ते अस्त पामेलो होय तोपण बुध दोष करनार थतो नथी." ग्रहोना उदय अने अस्तना दिवसनी संख्या सामान्य रीते आ प्रमाणे ज्योतिषसारमा कहेली . "उस्सयस ६६० उतीसा ३६ तिन्निवदुत्तर ३७२ 5एगपन्नासा २५१ । तिन्निवयाला ३४२ अंगारयमाई उदयदिवस कमा ॥१॥ सुन्नरवि १२० सोल १६ दसणा ३५ नंद ए बयालीस ४२ पछिमत्यदिणा। जोमाई तह पुवे बुहसिथ बत्तीस ३६ सगसयरी ७७ ॥२॥" "मंगळनो उदय ६६० दिवस सुधी रहे बे, बुधनो उदय ३६ दिवस रहे बे, गुरुनो उदय ३७५ दिवस, शुक्रनो २५१ अने शनिनो उदय ३४२ दिवस रहे ने (१). मंगळनो श्रस्त १२० दिवस सुधी रहे थे, बुधनो अस्त १६ दिवस रहे , गुरुनो अस्त ३५ दिवस, शुक्रनो ए अने शनिनो अस्त ४२ दिवस रहे बे. या सर्वे पश्चिम दिशामां अस्त पामे तेने श्राश्रीने दिवसोनी संख्या कही , पण पूर्वमा अस्त होय तो बुध ३६ दिवस श्रने शुक्र ७७ दिवस सुधी अस्त रहे . २.” ग्रहोनो उदय श्रने अस्त अवानो प्रकार आ प्रमाणे ."सूर्याः १५ सप्तदश १७ त्रिपरिमिता १३ रुजा ११ नवा एब्धीन्दवः १४, कालांशाः शशिनोऽनृजोईगुरुणः काव्यस्य मन्दस्य च" "सूर्यना १२ त्रिंशाशने मध्ये चं आवे त्यारे तेनो अस्त श्राय , १७ त्रिंशांशने मध्ये मंगळ श्रावे, १३ त्रिंशांशने मध्ये बुध श्रावे, ११ त्रिंशांशने मध्ये गुरु श्रावे, ए त्रिंशांशने मध्ये शुक्र आवे अने १५ त्रिंशांशने मध्ये शनि श्रावे त्यारे तेमनो अस्त थाय वे. तेटला त्रिंशांशनी बहार होय त्यारे तेमनो उदयज होय ." एम खमखाद्यना नाध्यमां कडं बे. मूळ श्लोकमां "अस्तं वाप्ते" "लग्ननो तथा अंशनो स्वामी अस्त पाम्यो होय तो ते वय॑ " एम जे कडं जे ते उपलक्षण जे, तेथी करीने लग्ननो अथवा अंशनो स्वामी क्रूर ग्रहे करीने युक्त होय अथवा क्रूर ग्रहनी तेना पर दृष्टि पमती होय तोपण ते लग्न अशुन जाणवं. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ २०१ मूळ श्लोकमां गुरु अथवा शुक्रनो अस्त होय तो ते लग्न अशुन बे एम कं. से विषे लल कहे वे के— " स्तमिते नृगुतनये नारी म्रियते बृहस्पतौ पुरुषः” । " विवाहना लग्नसमये शुक्रनो अस्त होय तो स्त्री मरण पामे बे, छाने गुरुनो स्त होय तो पुरुषनुं मरण नीपजे बे." केलाएक आचार्यो म प कहे बे. - "निजिवारुणादित्यरेवती संगते सति । तदा लोपगते जीवे विवाहादि विवर्जयेत् ॥ २ ॥ " "निजित् शतनिपक्, पुनर्वसु ने रेवतीए करीने युक्त एवो गुरु होय तो ते लोपगत कहेवाय बे. ते वखते विवाहादिक शुभ कार्यने वर्जवां.” अहीं आ प्रमाणे संप्रदाय बे-वारे महीना एकांतर नक्षत्रना नामे करीने चिह्नवाळा बे. जेमके अश्विनी नक्षत्रे करीने श्रश्विन मास, कृत्तिकाव मे कार्तिक, मृगशिरवने मार्गशीर्ष, पुष्यवमे पौष मास विगेरे. आ रीते एकांतर गणतां पण जे जे नक्षत्र वच्चे अधिक रहेलां वे ते नत्र निजित्, शतभिषक्, रेवती छाने पुनर्वसु बे. या नक्षत्रोमां गुरु रहेलो होय तो ते लोपगत कहेवाय बे. ते वखते लग्न ग्रहण करवुं नहीं. तथा सारंग कहे बे के"अस्तं गते भृगुसुते नवेद्यदि बुधोदयः । पुत्राष्टकस्य जननी तदोढा कन्यका जवेत् ॥ १ ॥” शुक्र अस्त पाम्यो होय ने जो बुधनो उदय होय तो ते वखते विवाहित थ कन्या पुत्रनी माता थाय बे. अर्थात् ते लग्न शुभ बे.” वळी गर्ग कहे बे ፡ - "बुधनो उदय होय ने जो गुरुनो अस्त होय तो ते वखते विवाहित थयेली कन्या पुत्रनी माता थाय बे." आ० ३६ " शशांकजो यदोदेति गुरोरस्तमनं यदि । पुत्राष्टकस्य जननी तदोढा कन्यका भवेत् ॥ १ ॥" " शुक्रना अस्तमां दीक्षानो दोष नथी” एम दिनशुद्धि ग्रंथमां कयुं बे. विशेषमां एम जा के जेम गुरुना अस्तमां लग्न इष्ट नथी तेज रीते गुरु नीच स्थानमा रह्यो होय तो पण ते इष्ट नथी. ते विषे विवाहपटलमां कांबे के "वाक्पतौ मकरराशिमुपेते, पाणिपीरूनविधिर्न विधेयः । तत्र दूषणमुशन्ति मुनीन्द्राः, केवलं परमनीचनवांशे ॥ १ ॥ " Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि ॥ "गुरु मकर राशिमा रहेलो होय त्यारे पाणिग्रहणनो विधि करवा योग्य नथी. तेमां पण मात्र अत्यंत नीच नवांशमांज दूपण जे एम मुनींघो कहे ." "पांचज नीच नवांशोनो त्याग करवो" एम अन्य ग्रंथमां कडं . तेमां लोकरूढिए परम नीच अंश पर्यंत पहेला पांच त्रिंशांशरूप नीचांशो त्याग करेला . जो के लोकमां सर्वत्र मात्र पांचमो त्रिंशांशज परम नीच , उतां पांचमा त्रिंशांश सुधीना पांचे त्रिंशांशो वर्जवानुं कर्तुं ते लोकरूढिने अनुसरीने कर्तुं वे एवं ज्योतिषशास्त्रना वेत्ताउनुं वचन जे. ___ मूळ श्लोकमां “जीवे सिंहस्थे” ए वचनवमे वर्षनी अने “धन्वमीनस्थितेऽर्के' ए वचनवमे मासनी शुद्धि कही. वळी कांक मासनी शुद्धि तथा दिवस अने नत्रनी शुद्धि “ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे" ( मिश्रधार श्लोक ६) तथा "उघाहे मृगपैत्रर्दे" (मिश्रधार श्लोक ७) ए श्लोकमां कहेशे. समयनी शुद्धि था प्रमाणे जाणवी.रात्रिनो मध्य नाग अने दिवसना मध्य जागने विषे लग्न ग्रहण करवू नहीं. ते विषे गदाधर कहे जे के "निवसति मुहूर्त्तकालो महानिशायां च दिनदले यस्मात् । दश पूर्व दश परतस्तस्माघाच्चरपलानि ॥१॥" "मध्य रात्रीए तथा दिवसना मध्य लागे मुहूर्त्तकाळ रहे , माटे ते समये प्रथमना तथा पीना दश दश पळनो त्याग करवो.” ___ कोश् आचार्यो एम कहे जे के-"दिवसना पाबला नागमां एटले के मध्याह्नकाळ पी प्रतिष्ठा, विवाह विगेरेनुं लग्न आवे नहीं (शुन नथी), अने तेथी करीनेज गृहप्रवेशना अधिकारमा “सौम्येऽयने वासरपूर्वनागे" ( वास्तुघार श्लोक ०५ ) र श्लोकमां दिवसनो पूर्व नाग लीधो .” आ तेमनुं कहेवू अयुक्त ने, केमके विवाहमां दिवसना पाग्ला नागे सूत्रकारज लग्न लेवानी आज्ञा आपवाना . ते बाबत "विवाहे त्वर्कार्की त्रिरिपुनिधनायेषु शुलदौ" (मिश्रधार श्लोक ३६) ए श्लोक श्रागळ कहेशे. वळी विवाहना लग्नमां अपराह्न ( दिवसनो पाउलो नाग) न लए तो सूर्य उमा स्थानमा रहेवापणुं संजवतुं नथी, (अने लग्नथी सूर्य आपमे होय तो तेने शुन कहेवामां श्रावशे ते शी रीते घटे ?) परंतु अपराह्नमा प्रतिष्ठादिकना लग्नने ग्रहण करवानो व्यवहार प्राये देखातो नथी अने विवाहनुं लग्न तो अपराह्नमां ग्रहण करता कचित् जोवामां पण आवे . तेथी करीने आ विषे वृघोज प्रमाणजूत बे. जीर्णः शुक्रोऽहानि पञ्च प्रतीच्या, प्राच्या बालस्त्रीण्यहानीद हेयः। त्रिवान्येवं तानि दिग्वैपरीत्ये. पदं जीवोऽन्ये तु सप्ताहमाहुः॥४॥ अर्थ-शुक्रने पश्चिम दिशामां पांच दिवस सुधी वृक्ष जाणवो, अने पूर्व दिशामां Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ २०३ ar दिवस बाळक जाणवो, परंतु दिशाना विपरीतपणाने विषे ते दिवसो ऋण गुणा जावा. या वन्ने अवस्था लग्नमां तजवा योग्य बे. गुरु वन्ने अवस्थामां एक पक्ष ( पंदर दिवस ) त्याग करवा योग्य बे, ने वीजा आचार्यो तो सात दिवस त्याग करवा योग्य कहे बे. विवेचन - श्लोकमां "जी" शब्दे करीने स्तनुं सूचन कर्यु बे, तेथी अस्त पामवानी तैयारीवाळो एवो अर्थ जाणवो. "बाळ" शब्दे करीने उदयनुं सूचन कर्यु बे अर्थात् नवो उदय पामेलो एवो अर्थ जाणवो. दिशाना विपरीतपणाने विषे एटले के जो पूर्व दिशामां अस्त थवानो होय ने पश्चिममां उदय थयो होय तो ते दिवसोने ऋण गुणा एटले पंदर अथवा नव दिवस तजवाना जाएवा, एटले के पूर्वमां उदय पामेलो शुक्र बाळ होवाथी त्रण दिवस त्याग करवो, पण पश्चिममां उदय पामे तो ते नव दिवस बाळ होवाथी तेटला दिवसो वर्जवा तथा जो पूर्वमां अस्त पामवानो होय तो वृद्धपणाने लीधे तेना पंदर दिवस वर्जवा, पण पश्चिममां अस्त पामवानो होय तो पांच दिवस वर्जवा. मूळ श्लोकमां गुरुने पंदर दिवस तजवानुं कह्युं बे, एटले के नवो उदय पामे त्यारे ते बाळक होय बे ने अस्त पामवानी सन्मुख होय त्यारे ते वृद्ध कहेवाय . ते बन्ने अवस्थामां. पंदर दिवस तजवा योग्य वे. "गुरु पण ऋण दिवस वाळक बे ने पांच दिवस वृद्ध बे" एम पण केटलाक कहे बे, परंतु गुरुनो पूर्व दिशामा अस्त पश्चिम दिशामा उदय थतो नथी. बीजार्ज एटले सप्तकृषि विगेरे तो गुरु ने शुक्र ए बन्नेने बन्ने दिशामा अस्त के उदय होय तोपण सात सात दिवसनी बाल्यावस्था तथा वृद्धावस्था कहे बे. या बन्नेनी बाल्यावस्था के वृद्धावस्था होय त्यारे लग्न लेवुं नहीं. ए तात्पर्य बे. “श्रा वास्य तथा वृद्धपणानी अवस्थानी कपना निर्वळपणारूप तेना फळने जणाववा माटेज करेली बे, पण वास्तविक रीते तेमनी अवस्था होती नथी” एम रत्नमाळाजाध्यमां कहां बे. विशेष या प्रमाणे जावो. - "रिगयनीए व अत्यमिए लग्गरासि निसिनाहे । अवले रविगुरुसुक्के सामि यदि चयद लग्गं ॥ १ ॥” "लग्नराशिनो स्वामी तथा चंद्र शत्रुना स्थानमां होय, नीचना होय, वक्र होय के अस्त पामेला होय, तथा रवि, गुरु ने शुक्र निर्बळ होय, तथा स्वामीनी दृष्टि न परुती होय एवं लग्न, सर्वे त्याग करवा योग्य बे.” या जंगने देनारा लग्नना दोषो सर्वत्र वर्ज्य बे. ॥ इति लग्नघारम् ॥ १० ॥ 0000—— ॥ अथ मिश्रारम् ॥ ११ ॥ हवे मिश्र नामनुं श्रगीयारमुं द्वार कहे बे. तेमां प्रथम लग्न ग्रहण करवामां ग्रहगोचरनी शुद्धि कहे बे. - - Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिधि॥ लग्ने गुरोर्वरस्याथ ग्राह्यं चान्द्रबलं बुधैः। शिष्यस्थापककन्यानां जीवेन्छर्कबलानि च ॥५॥ अर्थ-पंमितोए लग्नवखते गुरुनु तथा वरनुं चंजवळ ग्रहण करवं. तथा शिष्य, स्थापक अने कन्याने गुरु, चंज अने सूर्यनां बळ ग्रहण करवां. विवेचन-दीक्षा तथा प्रतिष्ठाना लग्नमां गुरु (आचार्य )ने अने विवाहना लग्नमां वरने चंबळ होवू जोइए. ते चंजवळ पूर्वे कहेला विधिए करीने राशिगोचर १, नवांशगोचर २, अष्टवर्गशुद्धि ३, शुन तारा ४, शुल अवस्था ५, वाम ( माबो) वेध ६, शुक्ल तथा कृष्णपक्षनो प्रारंन ७, मित्र तथा अधिमित्रना घर ( स्थान )मां रहेQ , सौम्य ग्रहना स्थानमा रहेQ ए, मित्र तथा अधिमित्रना अंशमा रहेवू १०, सौम्य ग्रहना अंशमां रहे, ११, मित्र तथा अधिमित्रना ग्रहनी साथे रहेq १२, सौम्य ग्रहनी साथे रहे, १३, मित्र तथा अधिमित्रना स्थाननी दृष्टि १४, अने सौम्य ग्रहनी दृष्टि १५, आ पंदर प्रकारमाथी कोइ पण प्रकारे करीने चंजनी अनुकूळतारूपी बळ अवश्य ग्रहण करवू. ते विषे कह्यु के "सर्वत्रामृतरश्मेबलं प्रकटप्यान्यखेटजं पश्चात् । चिन्त्यं यतः शशाङ्के बलिनि समस्ता ग्रहाः सबलाः॥१॥" "सर्वत्र ( सर्व प्रकारनां लग्नमां अथवा शुन कार्यमां) प्रथम चंजनुं बळ ग्रहण करीने पनी बीजा ग्रहोर्नु बळ चिंतवq,कारण के चंग बळवान् होय तो सर्वे ग्रहो बळवान् होय." मूळ श्लोकमां शिष्य-दीक्षा लेनार अथवा पदवीने विषे जेने स्थापन करवो होय ते. स्थापक-व्यनो व्यय करनार जे श्रावक विगेरे होय ते. तेमणे गुरु, चंड अने सर्यनुं बळ अवश्य ग्रहण करवू. ते विष कह्यु बे के ___ "रविशशिजीवैः सबलैः शुलदः स्याजोचरः" "रवि, चंछ अने गुरु बळवान् होय तो गोचर शुलदायी थाय ." ग्रहोना वळना तरतमपणा विगेरेनो विनाग था प्रमाणे - "पूर्ण २० खेटाष्टकवलमूनं पादेन १५ गोचरं प्रोक्तम् । वेधोत्यमर्धमानं १० पादबलं ५ दृष्टितः खचरे ॥१॥" __ "श्राप ग्रहोनुं बळ होय तो ते पूर्ण एटले २० वसा बळ जाणवू, गोचरनुं बळ एक पाद हीन एटले १५ वसा कहेलुं वे, वेधथी उत्पन्न श्रयेलुं वळ अर्धं एटले १० वसा कडं जे, तथा दृष्टिथी एटले एक ग्रह पर बीजा ग्रहनी दृष्टि पमती होय तेवू बळ एक पाद एटले पांच वसा कहेलुं .” श्रा सामान्यथी सर्व ग्रहोने आश्रीने कडं. तेमां एक चंजने श्राश्रीने विशेष ले ते कहे जे. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ २०५ "एurs गोचरबल १ मष्टक २ तारोत्य २ वेध ४ पदजवम् । क्रमशस्तारा १ वेधज २ पक्षजवानी ३ ह गौणानि ॥ २ ॥” "चंद्रने विषे गोचरवळ १, श्रष्ट वर्गनुं वळ २, ताराथी उत्पन्न थयेलुं बळ ३, वेधनुं ब ने पक्ष ( पखवामीया ) थी उत्पन्न थयेलुं वळ ५. या पांच प्रकारनां वळमांथी अनुक्रमे तारा १, वेध २ ने पक्षश्री ३ उत्पन्न थयेलुं वळ गौण बे, एटले के आ त्रण वळ उत्तरोत्तर हीन, हीनतर ने हीनतम बे." बाकीनां पहेलां वे बळनुंं स्वरूप प्रमाणे बे.. - " ग्रहगोचरा १ टवर्गों २ तुल्यबलौ शुद्धिकारणादनयोः । एकेनापि बलेन प्राप्तेन भवेत्सुशुद्धिरिह || ३ || " " ग्रहगोचर ने अष्ट वर्ग ए बन्ने शुद्धिनुं कारण होवाथी तुझ्य वळवाळा बे. ते वेमांथी एकनुं पण वळ प्राप्त थयुं होय तो तेथी अहीं लग्नमां सारी शुद्धि थाय बे." "चेोचरान्न हि जवेत्तदाऽष्टवर्गाद्विलोक्यते शुद्धिः । गोचरतोऽष्टकवर्गो वलवानुपाहदीदादौ ॥ ४ ॥” " जो गोचरथी शुद्धि न आवती होय तो अष्ट वर्गथी शुद्धि जोवी, छाने विवाह तथा दीक्षादिकमां ग्रहगोचर करतां ष्ट वर्ग वधारे बळवान् बे.” " तस्मादष्टकशुद्धिर्गुरोर्विलोक्या रवेश्च चन्द्रस्य । निधनान्त्या १२ म्बु ४ गतेष्वपि रेखाधिक्यात्सुशुद्धिः स्यात् ॥ ए ॥” " तेथी करीने गुरुनी, सूर्यनी ने चंदनी अष्टवर्गशुद्धि जोवी के जेथी करीने ते (गुरु, सूर्याने चंद्र ) चोथे, आठमे के बारमे स्थाने रह्या होय तोपण रेखाना अधिक की सारी शुद्धि थाय. " " समशुद्धिरपि श्रेष्ठा शुद्धिपतेर्यदि जवेना रेखा । शुद्धीशस्य न रेखा यदा तदा षड्विधादिवीर्यवतः ॥ ६ ॥ " " जो शुद्धि (लग्नशुद्धि ) ना स्वामीनी रेखा शुभ होय तो समान शुद्धि पण श्रेष्ठ बे, अने ज्यारे शुद्धिना स्वामीनी रेखा शुभ न होय तो ब प्रकारादिक वीर्य थकी शुभ जावी.” " मित्रग्रहस्य रेखा समरेखां शुद्धिमुत्तमां कुरुते । तामन्तरेण मुनिभिर्न ह्यधिकाऽपि प्रशस्यते रेखा ॥ ७ ॥ " “मित्रग्रहनी रेखा समरेखावाळी शुद्धीशनी शुद्धिने उत्तम करे बे, ते ( मित्रग्रहनी रेखा ) विना बीजी अधिक रेखाने पण मुनिर्जए वखाणी नथी, एटले के मित्रग्रहनी रेखाज प्रशंसा योग्य बे." १ विमर्श पांचमो श्लोक ३६ थी जुओ. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ॥ आरंनसिधि ॥ "समशुम्ख्यामष्टकतः शुद्धिपते रेखिकामृते वेधात् । शुनदे ग्रहे सति शुजा शुद्धिः स्यात्प्रोच्यते विबुधैः ॥ ॥" "अष्टकथी समशुद्धिने विषे शुधिपतिनी रेखा न आवती होय अने वेधथी शुन्नदायक ग्रह श्रावतो होय तो ते पण पंमितोए शुन शुद्धि कही जे." "नवमहिपञ्चमगतः समरेखोऽप्यधिकशुलफलः सूर्यः। __ संक्रमकालेन्ज्वलात् समोऽपि सर्वत्र शुलदोऽर्कः ॥ ए॥" "नवमा, बीजा अने पांचमा स्थानमा रहेलो समान रेखावाळो पण सूर्य अधिक शुन फळ देनारो ने, अने संक्रांतिने वखते चंजना बळश्री समान एवो पण सूर्य सर्वत्र शुलने देनारो बे." "दशमाज़ केवललग्नबलेन स्त्रिया विवाहः स्यात् । शुद्धि वालोक्या रवीज्ययोः पूजयोषाहः॥ १०॥" "दश वर्षनी वय या पजी कन्याना विवाह मात्र लग्ननाज बळथी थाय बे. तेमां सूर्य तथा गुरुनी शुद्धि जोवानीज नथी, परंतु ते सूर्य अने गुरु अशुद्ध होय तो तेमनी पूजावमे विवाह करवो. अर्थात् तेनी पूजा करवाथी दोपनो नाश श्राय ." श्रा सर्व व्यवहारप्रकाशमां कहेलुं . वळी व्यवहारसारमां आ प्रमाणे कमु - "जन्मदिपञ्चनवमधुनगः खरांशुः, पूजां च वाञ्चति न चाष्टचतुर्व्ययस्थः। ___जीवस्त्रिजन्मदशमारिगतस्तु पूजामिन्छेत् कदाचिदपि नाष्टचतुर्व्ययस्थः ॥ १॥" "सूर्य पहेले, बीजे, पांचमे, नवमे अने सातमे स्थाने रह्यो होय तो ते पूजाने चाहे बे, एटले के पूजा करवाथी तेनी शुद्धि थाय ने, परंतु आपमे, चोथे के बारमे स्थाने रह्यो होय तो ते पूजाने चाहतो नथी, एटले के ते स्थानो अत्यंत अशुन होवाथी तेनी पूजा करवाश्री पण ते अनुकूळ थतो नथी. तेज प्रमाणे गुरु त्रीजे, पहेले, दशमे अने उसे स्थाने रह्यो होय तो ते पूजाने श्छे बे, पण आठमे, चोथे के बारमे स्थाने रह्यो होय तो ते कदापि पूजाने श्वतो नथी.” परंतु गर्गाचार्य तो एम कहे जे के-"गोचरविरुखे जीवे वैधव्यमेव, पूजा त्वप्रमाणम्" "जो गुरु गोचरवके करीने विरुष होय तो ते कन्याने विधवापणुंज श्राय बे, अने तेनी जे पूजा करवी ते तो अप्रमाण ." हवे अवशेष रहेली मासशुद्धि, दिनशुद्धि अने नक्षत्रशुद्धि एक श्लोके करीने कहे . ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे मासि स्यात् पाणिपीमनम् । न पुनस्त्रयमप्येतन्मासादर्नेषु जन्मनः ॥६॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ २०७ अर्थ - मोटा पुत्र-पुत्रीनुं पाणिग्रहण ज्येष्ठ मासमां कर नहीं, तथा यात्रणे कार्यो जन्मना मासमां, जन्मना दिवसमा ( तिथिमां ) ने जन्मना नक्षत्रमां करवां नहीं. विवेचन - मूळ श्लोकमां “ज्येष्ठ अपत्य" कह्यो बे, तेथी पुत्र तथा पुत्री वन्ने समजवां. "पाणिपीन” ( पाणिग्रहण ) ए शब्दनुं उपलक्षण होवाथी वीजां शुभ कार्यो प जावा. ते विषे हर्षप्रकाशमां कह्युं वे के— “सुहक व सबहिं पि जिहस्स जिंहं ति” "सर्व शुभ कार्यमा ज्येष्ठ (मोटा ) अपत्य (पुत्र-पुत्री ) ने ज्येष्ठ मास वर्जवो.” तथा" जेष्ठे न ज्येष्ठयोः कार्ये नृनार्योः पाणिपी मनम् । तयोरेकतमे( रे ) ज्येष्ठे ज्येष्ठोऽपि न विरुध्यते ॥ १ ॥ " “ज्येष्ठ पुरुष ने नारी ( वर - कन्या ) नुं पाणिग्रहण ज्येष्ठ मासमां कर नहीं, परंतु वर कन्यामांथी जो एक ज्येष्ठ होय तो ज्येष्ठ मास पण विरुद्ध ( शुभ ) नथी." मूळ लोकमां त्रणे कार्यों कह्यां बे ते दीक्षा १, प्रतिष्ठा २ ने विवाह ३ समजवां. तथा "मासाहर्जेषु" एटले जन्म संबंधी मास, दिवस ( तिथि ) ने नक्षत्रने विषे विवाह विगेरे वर्जवा. अहीं विवाहमां वर कन्याना, दीक्षामां शिष्यना ने प्रतिष्ठामां स्थापकना मासादिक वर्जवा एम स्वयं जाणी लेवुं. केटलाएक कहे बे के – “जो पक्ष ( पखवामीयुं ) जूदो होय तो जन्ममास पण विरुद्ध नथी. जन्मतिथि पण दिवस ने रात्रिना विजागना विपर्यासे करीने अविरुद्ध बे. ( एटले के जो ( तिथिनी ) रात्री ए जन्म होय तो दिवस विरुद्ध नथी, अने दिवसे जन्म होय तो रात्रि विरुद्ध नथी. ) जन्मनक्षत्र पण राशिनुं भिन्नपणुं होय तो ते शुभज बे, एटले अशुभ (विरुद्ध) नथी. ( जेमके कृत्तिकाना पहेला पादमां जन्म होय तो ते मेष राशि बे, माटे कृत्तिकाना बीजा, वीजा के चोथा पादमां वृष राशि होवाथी ते त्रण पाद शुज बे.) त्रणे बाबत विषे व्यवहारसारमां कंबे के “जन्ममासि विपरीतपक्षयोर्व्यत्यये दिन निशोर्जनु स्तिथ । जन्मनेsपि किल राशिनेदतः, पाणिपीरूनविधिर्न दुष्यति ॥ १ ॥” " जन्ममासमां जो विपरीत ( जिन्न ) पक्ष होय, जन्मनी स्थितिमां जो दिवस रात्रिनो विपर्यय ( उलटपालट ) होय अने जन्मनक्षत्रमां पण जो राशिनो नेद होय तो पाणिग्रहणनो विधि डूषण पामतो नथी." थवा तो एक ( समान ) पक्षमां पण रीते जन्ममास पण विरुद्ध नथी - शुक्ल पंचमीने रोज कार्य करवानी हा बे ने शुक्ल अष्टमी जन्मतिथि बे. या प्रमाणे होय तो दोष नथी, कारण के ते पुरुषनो जन्ममास शुक्ल अष्टमी थी शरु थाय बे, तेथी शुक्ल पंचमी तत्त्वथी जिन्न मासमांज रहेली गणाय, पण जो श्राथी विपरीत होय ( एटले के Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ शुक्ल पंचमीनो जन्म होय ने शुक्ल अष्टमीए कार्य करवुं होय ) तो जन्ममासनो दोष लागेज बे. या प्रमाणे ज्योतिषना विधानो कहे बे. व्यवहारप्रकाशमां तो या प्रमाणे कं बे. - " शुभ ( सौम्य ) ग्रह वळवान् थश्ने केन्द्रस्थानमा रह्यो होय तो जन्मनक्षत्र पण डूषित नथी. ते विषे कां बे के - "नो जन्मनं च कार्य बलिनि शुनं केन्द्रगे सौम्ये” "सौम्य ग्रह बळवान् यइने केन्द्रमां रह्यो होय तो शुभ कार्य करवुं. तेमां जन्मनक्षत्रनो दोष नथी." दिन जूद कहे बे. - सादिमं ग्रहणस्याहः सप्ताहं च तदग्रतः । त्यजेत्रिंशांशमेकैकं प्राक् पश्चाच्चापि संक्रमात् ॥ ७ ॥ अर्थ- श्रादिना दिवस सहित ग्रहणनो दिवस तथा तेनी पीना सात एम नव दिवसो वर्जवा. तेमज संकांतिनी पहेलानो तथा पत्नीनो एक एक त्रिंशांश तजवो. अर्थात् कुल ऋण दिवस वर्जवा. विस्तरार्थ - आदि सहित एटले चतुर्दशी सहित केटलाएक त्रयोदशीने पण वर्जे बे. ते कहे बे के - " त्रयोदशीतो दशाहं सूर्येन्ऽग्रहणे त्यजेत् ।” " सूर्य ने चंदना ग्रहणमां त्रयोदशीथी आरंभीने दश दिवस वर्जवा.” ग्रहणनी पीना सात दिवस वर्जवाना कह्या बे, तोपण तेमां या प्रमाणे विशेष जावो."सर्वस्तेषु सप्ताहं पञ्चादं स्याद्दवग्रहे । त्रिकाला दिनत्रयं विवर्जयेत् ॥ १ ॥” " ग्रहणमां सर्व ग्रास ( खग्रास ) थयो होय तो पठीना सात दिवसो तजवा, अर्ध ग्रा यो होय तो पांच दिवस तजवा, तथा त्रण, बे, एक के अर्धांगळ ग्रास यो होय तो दिवस वर्जवा." आ गिरानुं वचन बे. वी दैवशमां आ प्रमाणे विशेष कह्यो बे. - " राहौ दृष्टे शुभं कर्म वर्जयेद्दिवसाष्टकम् | त्यक्त्वा वेतालसंसिद्धिं पापदंनमयं ( जयदं ) तथा ॥ १ ॥ " "राहूनुं दर्शन थाय त्यारथी व दिवस सुधी शुभ कर्म वर्जवं जोइए, परंतु वेताल ( भूत-प्रेतादिक ) नुं साधन तथा पाप ने दंजमय एवं शुभ कर्म (अथवा पाप देनारुं ने जय देनारुं अशुभ कर्म ) विना, एटले के तेवां कर्ममां वर्जवाना नथी. १ पापदं भयदं पाठांतर. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ՋԵՍ मूळ श्लोकमां त्रिंशांश एटले संक्रांतिना मासनो त्रीशमो जाग एटले सामान्ये करीने एक दिवस. संक्रांतिना दिवसनी पहेलानो अने पीनो एक एक दिवस तथा संक्रांतिनो दिवस एम त्रण दिवस वर्जवा. ते विषे हरिलजसूरि पण कहे जे के ___ “संकंतीए पुर्व संकंतिदिणं तयग्गिमं च दिणं । वजिति" "संक्रांतिनो पूर्व दिवस, संक्रांतिनो दिवस अने तेनी पनीनो दिवस वर्जवो.” नारचंजमां पण कडं बे के ____ “त्यज संक्रमवासरं पुनः सह पूर्वेण च पश्चिमेन च ।” "पूर्वना अने पीना दिवस सहित संक्रांतिनो दिवस तुं तज." "अत्यंत आवश्यक तथा उतावळना कार्यमां जो त्रण दिवसनो त्याग न थक्ष शके तो संक्रमणसमयनी पूर्वनी अने पीनी सोळ सोळ घमी अवश्य तजवी" एम घणा श्राचार्योनो मत . नार्धयामगएमान्तकुलिकोत्पातपूषितम् । दिनं तपसि राकां च स्थापने च कुजं त्यजेत् ॥७॥ अर्थ-जत्रा, अर्ध प्रहर, गंमांत, कुलिक अने उत्पाते करीने भूपित एवा दिवसनो त्याग करवो, तथा दीक्षामां पूर्णिमानो त्याग करवो, अने प्रतिष्ठामां मंगळवारनो त्याग करवो. ____ विवेचन-लजा विगेरे असाध्य दोपोए करीने लग्न पण हणाय ने एटले दूषित थाय बे. ते विषे विवाहवृंदावनमां कडं जे के "गंमान्तेषु सवैधृतावुनयतः संक्रान्तियामध्ये, __ यामार्धव्यतिपातविष्टिकुलिकैर्जग्नं विलग्नं जगुः।" "अर्ध प्रहर, व्यतिपात, विष्टि (ना) अने कुलिके करीने सहित लग्नने तथा गंमांतमां, वैधृतिमां अने संक्रांतिना पूर्वना अने पसीना बे पहोरमां रहेल लग्मने नग्न (नाश ) कहे ." मूळ श्लोकमां उत्पात लख्यो जे ते पूर्वे वर्णन करेला पृथ्वी संबंधी विगेरे उत्पातो जाणवा. सारंग तो उत्पातमां पांच दिवस तजवायूँ कहे . ते आ प्रमाणे "निर्घातोटकामहीकंपग्रहलेदादिदर्शने। श्रा पञ्चवासराथूढा नाशमानोति कन्यका ॥ १॥" ___ "निर्घात, उल्कापात, पृथ्वीकंप अने ग्रहनो नेद ए विगेरे उत्पातो जोवामां आवे त्यारश्री पांच दिवस सुधीमां जो कन्या विवाहित थ होय तो ते मृत्यु पामे जे.” तथा "दम्पत्योः सह मरणं पाणिग्रहणोदिते केतौ ।" भा०३७ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ॥ रंज सिद्धि ॥ " पाणिग्रहणने दिवस जो केतुनो उदय होय तो वर वदुनुं साथेज मरण थाय." दीक्षामां पूर्णिमा तजवानुं मूळ श्लोकमां कहुं बे, पण प्रतिष्ठामां तेनो त्याग नथी. तेने माटे नारचंद्रमां कह्यं बे के - "येक द्वितीयपञ्चमदिनानि पक्षद्वयेऽपि शस्तानि । शुक्लेsन्तिमत्रयोदश दशमान्यपि च प्रतिष्ठायाम् ॥ १ ॥ " "प्रतिष्ठामां बन्ने पहनी त्रीज, एकम, वीज ने पांचम एटला दिवसो शुज बे, तथा शुक्ल पक्षी बेल्ली (पूर्णिमा ), तेरश ने दशम पण शुन बे.” मूळ श्लोकमा स्थापने एटले सर्व प्रतिष्ठामां मंगळवार वर्ज्य बे. ते विषे रत्नमालामां कधुं वे के नन्द ६ "तेजस्विनी १ छेमकृ २ दग्निदाह विधायिनी ३ स्याद्वरदा ४ दृढा च ५ । निवासिनी 9 च, सूर्यादिवारेषु भवेत् प्रतिष्ठा ॥ १ ॥” " रविवारे प्रतिष्ठा करवाथी प्रतिमानुं तथा प्रतिष्ठा करावनारनुं तेज वृद्धि पामे बे. सोमवारे करेली प्रतिष्ठा देम कुशल करनारी थाय बे, मंगळवारे करवाथी अग्निदाह करना थाय बे, बुधवारे वर ( मनवांबित ) ने आपनारी थाय बे, गुरुवारे दृढ थाय बे, शुक्रवारे आनंद करनारी थाय वे छाने शनिवारे करेली प्रतिष्ठा कल्प पर्यंत एटले चंद्र सूर्य हे त्यांसुधी स्थिर रहेनारी थाय ते. रवि विगेरेना लग्नमां तथा षड्वर्गमां पण प्रतिष्ठा करी होय तोपण तेनुं फळ आज प्रमाणे जाणी लेवुं एम रत्नमालाना जाष्यमां कां बे." मूळ श्लोकमां " स्थापने च" ए स्थळे च शब्द बे माटे दीक्षा, विवाह ने राज्याभिषेक विगेरे कार्योमां पण मंगळवारनो त्याग करवो. ते विषे यतिवलमां कां वे के"राजा निषेके वीवाहे सत्क्रियासु च दीक्ष्णे । धर्मार्थकामकार्ये च शुभा वाराः कुजं विना ॥ १ ॥ " "राजाना निषेकमां, विवाहमां, शुभ क्रियामां, दीक्षामां तथा धर्म, अर्थ अने कामना कार्यमा मंगळ सिवायना बीजा वारो शुन बे.” श्रीपतिए तो "विवाहमां रवि, मंगळ छाने शनिवार दारिद्र्य तथा दौर्भाग्यने देनारा बे, ने सोमवार सपत्नी ( शोक ) ने आपनार वे" एम कह्युं बे. दैवज्ञवल्लमां श्र प्रमाणे विशेष को बे. - "कृष्णपदे निषिद्धेषु वारधिष्ण्यक्षणादिषु । संकीर्णानां प्रशंसन्ति दारकर्म न संशयः ॥ १ ॥” " संकर जातिना वर कन्यानो विवाह कृष्ण पक्षमां ने निषेध करेला वार, नक्षत्र तथा णादिकमांशुन बे, तेमां कांइ संशय नथी." हवे नक्षत्रनो नियम कहे बे. - - Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ए? उछाहे मृगपत्र प्रतिष्ठायां तु ते उन्ने। शादित्यपुष्यश्रवणधनिष्ठानिः समं शुग्ने ॥ ए॥ अर्थ-विवाहमां मृगशीर्ष अने मघा ए वे नक्षत्रो शुन्न , अने प्रतिष्ठामा पुनर्वसु, ज्य, श्रवण अने धनिष्ठा सहित ते बे एटले मृगशीर्ष अने मघा पण शुल ने, एटले के नाब नत्रो शुन बे. विवेचन-अहीं प्रतिष्ठा एटले प्रस्तावथी जिनविंव विगेरेनी प्रतिष्ठा जाणवी. वीजा बोनी प्रतिष्ठामा तो नत्रोनो नियम रत्नमालामां आ प्रमाणे कह्यो बे. "रोहिण्युत्तरपौष्णवैष्णवकरादित्याश्विनीवासवानुराधैन्दवजीवनेषु गदितं विष्णोः प्रतिष्ठापनम् । पुष्यश्रुत्यनिजित्सु चेश्वरकयोर्वित्ताधिपस्कन्दयो मैत्रे तिग्मरुचेः करे नितिने मुर्गादिकानां शुजम् ॥ १॥" "विष्णुनी प्रतिष्ठा रोहिणी, त्रणे उत्तरा, रेवती, श्रवण, हस्त, पुनर्वसु, अश्विनी, निष्ठा, अनुराधा, मृगशीर्ष तथा पुष्य, आटलां नक्षत्रोमां शुत्ल कहेली बे. महादेव ने ब्रह्मानी प्रतिष्ठा पुष्य, श्रवण अने अन्निजित् नवमांशुल जे. कुबेर अने कार्तिकमीनी प्रतिष्ठा अनुराधामां शुल के. सूर्यनी प्रतिष्ठा हस्त नक्षत्रमा शुन्न , तथा उर्गा गरे देवतालोनी प्रतिष्ठा मळ नक्षत्रमा शुल." अहीं सूर्यनी प्रतिष्ठा हस्त नक्षत्रमा ही ते संदेपथी कह्यु बे. ते विषे नीमपराक्रम ग्रंथमां विस्तारथी था प्रमाणे कडं . "जगधिष्ण्यचतुष्केण मैत्राहिर्बुध्नपूषनैः । सपुनर्वसुनिः कुर्यात् प्रतिष्ठामुष्णरोचिषः ॥ १॥" "जग नत्रयी चार एटले पूर्वाफागुनी, उत्तराफागुनी, हस्त अने चित्रा, तथा सु सहित अनुराधा, उत्तरानाप्रपद अने रेवती, आ आउ नत्रोमां सूर्यनी प्रतिष्ठा पी." उपरना श्लोकमां अर्गादिकानां ए पदमां आदि शब्द होवाथी नृत, यद, गण ने सर्प विगेरेनी प्रतिष्ठा पण मूळ नदत्रमा करवी. तथा"गणपरिवृढरझोयजूतासुराणां, प्रथमफणिसरस्वत्यादिकानां च पौष्णे। श्रवसि सुगतनाम्नो वासवे लोकपानां,निगदितमखिलानां स्थापनं च स्थिरेषु॥२॥" "गण, परिवृढ, राक्षस, यह, जूत, असुर, शेषनाग अने सरस्वती विगेरेनी प्रतिष्ठा ती नक्षत्रमा करवी. सुगत (बौद्ध)नी प्रतिष्ठा श्रवण नक्षत्रमा करवी, लोकपाळोनी ष्ठा धनिष्ठामां करवी, अने बीजा समग्र इंघादिक देवोनी स्थापना स्थिर (रोहिणी, राषाढा, उत्तराफाल्गुनी अने उत्तरानापद) नक्षत्रोमां करवी.” तथा "सप्तर्षयो यत्र चरन्ति धिष्ण्ये, कार्या प्रतिष्ठा खलु तत्र तेषाम् । श्रीव्यासवाट्मीकिघटोनवानां, तथा स्मृता वाक्पतिने ग्रहाणाम् ॥ ३॥" Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ "सप्तर्षि जे नक्षत्रमां चालता होय तेज नत्रमां तेमनी प्रतिष्ठा करवी तथा श्रीव्यास, वामीकि ने अगस्त्यनी प्रतिष्ठा पण तेज नक्षत्रमां एटले जे नक्षत्रमां सप्तर्षि होय मांज करवी, तथा ग्रहोनी प्रतिष्ठा पुष्य नक्षत्रमां ने पोतपोताना वारमां करवी.” छाहीं सप्तर्षि जे नक्षत्रमां चाले वे एम कहुं तेनो जावार्थ आ प्रमाणे बे. - " श्रासन्मघासु मुनयः शासति राज्यं युधिष्ठिरे नृपतौ । पद्दिपञ्चदि २५२६ मितः शककालस्तस्य राज्ञश्च ॥ १ ॥ एकैकस्मिन् धिष्ये शतं शतं ते चरन्ति वर्षाणाम् । प्रागुत्तरतश्चैते सदोदयन्ते ससाध्वीकाः ॥ २ ॥” श्एश् "युधिष्ठिर राजा राज्य करता हता त्यारे सप्तर्षि मघा नक्षत्रमां हता. ते राजाना शकनो काळ २५१६ वर्षनो हतो, एटले के ते राजानी पनी २५२६ वर्ष गयां त्यारे शालिवाहननो शक प्रवर्त्यो हवे ते सप्तर्षि सो सो वर्षे एक एक नक्षत्रमां चाले बे, एटले के एक नक्षत्रमां तेर्जनी सो वर्ष सुधी स्थिति बे, तेथी करीने शकना प्रारंजे ते पुष्य नक्षत्रमां दता एम सिद्ध थयुं. ए सप्तर्षि अरुंधती सहित निरंतर ईशानमां उदय पामे बे." आ सप्तर्षिना उदयनी व्यवस्था या प्रमाणे बे. - “पूर्वे जागे जगवान्मरीचिरपरे स्थितो वशिष्ठोऽस्मात् । तस्याङ्गिरास्ततोऽत्रिस्तस्यासन्नः पुलस्त्यश्च ॥ १ ॥ पुलहः क्रतुरिति जगवानासन्नानुक्रमेण पूर्वाद्याः । तत्र वशिष्ठं मुनिवरमुपस्थिताऽरुन्धती साध्वी ॥ २ ॥” " पूर्व जागे जगवान् मरीचि रहेला बे तथा पश्चिम जागे वशिष्ठ रहेला बे, तेनी समीपे अंगिरा, तेन समीपे अत्रि, तेनी समीपे पुलस्त्य, तेनी समीपे पुलह ने तेनी समीपे भगवान् क्रतु रहेला बे. या प्रमाणे समीपना अनुक्रमे करीने पूर्व पश्चिम जागे ते रहेला बे. तेमां वशिष्ठ मुनिवरनी समीपे साध्वी ( सती ) अरुंधती रहेली बे." सप्तर्षिनुं स्वरूप वराहसंहितामां कहेलुं बे. तथा "स्वतिथिनचत्रकरणेषु न्यसेत्सुरान् । वापीकूपतमागाद्यं न्यसेघरुणदैवते ॥ १ ॥ अहिर्बुधाधिपे लेप्यमारामाद्यं तथाऽनिले । गृहस्थापन योगा ये तानप्यत्र विचिन्तयेत् ॥ २ ॥” "देवोने पोतानी तिथि, क्षण, नक्षत्र अने करणमां स्थापन करवा, वाव, कूवा, तळाव विगेरेने शतभिषक् नक्षत्रमां स्थापन करवा, लेप्य मूर्तिने उत्तराजाऽपदमां स्थापन करवी, बगीचा विगेरेने स्वाति नक्षत्रमां स्थापन करवा, तेमज घरने स्थापन करवामां जे Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ श्ए३ योगो कह्या ले ते पण अहीं विचारवा." या प्रमाणे दैवज्ञवल्सनमां कडं बे. आ अन्य देवो विगेरेनी प्रतिष्ठा विगेरेनुं स्वरूप ज्योतिषना विधानोने संमत , माटे प्रसंगने लीधे लख्युं . दीक्षायां त्वाश्विनादित्यवारुणश्रुतयः शुजाः। त्रिषु मैत्रं करं खातिर्मूलः पौष्णं ध्रुवाणि च ॥१०॥ अर्थ-अश्विनी, पुनर्वसु, शतन्निषक् अने श्रवण, ए नत्रो दीक्षामां शुन्न . अनुराधा, हस्त, स्वाति, मूळ, रेवती अने ध्रुव (रोहिणी अने त्रणे उत्तरा),ए नत्रो त्रणेमां एटले प्रतिष्ठा, दीक्षा अने विवाहमा शुन्न . विस्तरार्थ-दिनशुधि विगेरे ग्रंथमा पूर्वजाप्रपद अने पुष्यमां पण दीक्षा कही जे. कह्यु के "उत्तररोहिणिहत्थाणुराहसयजिसयपुबजद्दवया। पुस्सं पुणवसुरेव मूलास्सिणि सवणसाश् वए ॥१॥" "त्रणे उत्तरा, रोहिणी, हस्त, अनुराधा, शतनिषक, पूर्वनापद, पुष्य, पुनर्वसु, रेवती, मूळ, अश्विनी, श्रवण अने स्वाति, आटला नक्षत्रो व्रत (दीक्षा )मां शुल .” तथा "मृगचित्राधनिष्ठान्यमृक्षिप्रचरध्रुवैः।। शिष्यस्य दीक्षणं कार्य तथा मूलाजपादयोः ॥१॥" ___ "मृगशिर, चित्रा, धनिष्ठा विना, मृङ, दिन, चर अने ध्रुव संज्ञावाळां नत्रोमां यथामृड (अनुराधा, रेवती), प्रि (पुष्य, अनिजित्, हस्त, अश्विनी ), चर (श्रवण, स्वाति, पुनर्वसु ), ध्रुव (रोहिणी, त्रण उत्तरा) तथा मूळ अने पूर्वनाप्रपद, ए नक्षत्रोमां शिष्यने दीक्षा श्रापबी." मूळ श्लोकमां त्रिषु लख्यु ने तेनो अर्थ प्रतिष्ठा, दीक्षा अने विवाह ए त्रणे कार्यो जाणवां. ते त्रणे कार्योनां नक्त्रोनी स्थापना या प्रमाणेजैनप्रतिष्ठा रो मृ पु० पु मज | ह स्वा० अनु० मूल श्र० धज रे० ___।। ।। फा०] | पाना दीक्षा अरोपुन न ह स्वागअनुमू जश्र शज रे० ० ० विवाह रोमृ म उ ह स्वाअनु मू० ज० उ० रे.. | पा० ना० । । । विवाहनां नक्षत्रोमां विशेष कहे .स्त्रियः प्रियत्वमुछाहे मूलाहिर्बुध्नवैश्वनैः। पौष्णब्राह्ममृगैः पुंसां मिथः शेषैस्तु पञ्चभिः ॥ ११ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ॥ श्रारं सिद्धि ॥ - अर्थ — मूळ, उत्तराजाऽपद के उत्तराषाढा नक्षत्रमां विवाह थया होय तो स्त्रीनुं प्रियपणुं थाय बे, रेवती, रोहिणी ने मृगशिरमां विवाह थया होय तो पुरुषनुं प्रियपणुं थाय बे, तथा बाकीनां पांच नक्षत्रोमां विवाह थया होय तो बन्नेनुं परस्पर प्रियपणुं थाय बे. विस्तरार्थ - स्त्रीनं प्रियपणुं एटले के पुरुषने स्त्री जेटली वहाली लागे तेटलो पुरुष स्त्रीने वहालो न लागे, अर्थात् स्त्रीनुं सारुं सौभाग्य होय. या मूळ विगेरे त्रण नक्षत्रो पूर्वे नक्षत्राधिकारमां चंद्रनी साथे उत्तरार्धना योगवाळां कह्यां बे. पुरुषनुं प्रियपणुं बे एटले स्त्रीने पुरुष वहालो लागे बे, पण पुरुषने स्त्री तेवी बहाली लागती नथी, अर्थात् स्त्रीनं तेनुं सौभाग्य न होय. श्र रेवती विगेरे ऋण नक्षत्रो पूर्वार्धना योगवाळां नक्षत्रमां गणाव्यां बे. बाकीनां पांच एटले मघा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, स्वाति ने अनुराधा, या पांच नक्षत्रो मध्यम योगवाळां कह्यां बे. या गीयार नक्षत्रोज विवाहां होवाथी बाकीनां नक्षत्रो अहीं गणाव्यां नथी. वळी दैवज्ञवसमां कह्युं बे के— "वतजः स्यान्नरो नार्या बलिनिः पुरुषग्रहैः । स्त्रीग्रहैः पुरुषस्य स्त्री सर्वैः प्रेमोजयोरपि ॥ १॥” "विवाहना लग्नमां पुरुषना ग्रहो बळवान् होय तो स्त्रीने पुरुष वधारे प्रिय लागे, स्त्रीना ग्रहो बळवान् होय तो पुरुषने स्त्री वधारे प्रिय लागे, तथा बन्नेना ग्रहो बळवान् होय तो परस्पर प्रेम रहे." वर्षका विवाद कुमार्या वरणं पुनः । स्वातिपूर्वानुराधा निर्वैश्वत्रयहुताशनैः ॥ १२ ॥ अर्थ- वर्णक विगेरे कार्य विवाहनां नक्षत्रमां करवां, अने कुमारीनुं वरण (वेसवाळ ) स्वाति, पूर्वा, अनुराधा, वैश्वत्रय ( उत्तराषाढा, श्रवण अने धनिष्ठा ) तथा कृत्तिका नक्षत्रमां करवुं. विस्तरार्थ - वर्णक एटले जींत विगेरे पर चित्रनुं कर्म करवुं ते, अथवा वर वदुनुं वर्णक नामनुं मंगळकर्म बे ते. वर्णकाद्यं ए पदमां श्रद्य शब्द लख्यो बे, तेथी नीचेना श्लोकमां कलां कुसुंजादिक सर्व विवाहनां कार्यो विवाहनांज नक्षत्रोमा करवां. लग्नादवग्न कुर्वीत त्रिषष्टनवमे दिने । कुसुंनमंमपारंनवेदीवर्णयवारकान् ॥ १३ ॥ अर्थ- - लग्नना दिवसनी पहेलां त्रीजे, बड़े के नवमे दिवसे कुसुंज, मंरुपनो आरंज, वेदिका, वर्णक ने यवारक ( जुवारा वाववा ते ) तथा उपलक्षणथी कन्यानुं वरण दिक कार्यो करवां नहीं. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ Ջա नान्ये प्रतिष्ठां जन्मर्दै दशमे षोमशे च ने। अष्टादशे त्रयोविंशे पञ्चविंशे च मन्यते ॥ १४ ॥ अर्थ-केटलाक आचार्यो प्रतिष्ठा करवा लायक प्रतिमा अने प्रतिष्ठा करावनार ए बन्नेना जन्मनक्त्रमा जन्मनक्षत्रनुं ज्ञान न होय तो नामनक्षत्रमा तथा ते जन्मनत्रयी दशमा, सोळमा, अढारमा, त्रेवीशमा अने पचीशमा नक्षत्रमा प्रतिष्ठाने मानता नधी (प्रतिष्ठा करवानी संमति आपता नथी). श्रीहरिनमसूरि तो आ प्रमाणे कहे ."कारावयस्स जम्मण रिकं दस सोलसं तहजारं तेवीस पंचवीसं बिंबपश्चाइ वजिजा ॥१॥" "प्रतिष्ठा करावनारनुं जन्मनक्षत्र तथा ते जन्मनक्षत्रश्री दशमुं, सोळमुं, अढारमुं, त्रेवीशमुं अने पचीशमुं, एटलां नत्रो बिंबनी प्रतिष्ठामा तजवां." ( अर्थात् बिंबनां जन्मादिक नत्रो तजवानां कह्यां नथी.) विशेषमां श्रा नक्षत्रोनी संज्ञा या प्रमाणे जे."जन्माचं दशमं कर्म संघातं पोमशं पुनः। अष्टादशं समुदयं त्रयोविंशं विनाशनम् ॥१॥ मानसं पञ्चविंशं नमिति पभोऽखिलः पुमान् । जातिदेशाभिषेकैश्च नव धिष्ण्यानि नूपतेः ॥ २॥" “पहेलुं नक्षत्र जन्म नामर्नु बे, दशमुं कर्म नामनु, सोळमुं संघात नाम, अढारमुं समुदय नामनु, त्रेवीशमुं विनाश नामर्नु अने पचीशमुं नक्षत्र मानस नामनुं जे. ए प्रमाणे समग्र पुरुष उ नत्रवाळो बे. तथा जातिनक्षत्र, देशनात्र अने अनिषेकनक्षत्रे करीने राजानां नव नत्रो बे.” । जातिनक्षत्रो आ प्रमाणे बे."विप्राणांकृत्तिकापूर्वा३ राज्ञां पुष्यस्तथोत्तराः ३ । सेवकानां धनिष्ठेन्नचित्रामृगशिरांसि च ॥१॥ उग्राणां नानि वायव्यमूलाशिततारकाः। कर्षकाणां मघाः पौष्णमनुराधा विरचितम् ॥२॥ वणिजामश्विनी हस्तोऽन्निजिता (दा)दित्यमेव च । चंमालानां श्रुतिः सार्प यमदेवं दिदैवतम् ॥ ३॥" "ब्राह्मण जातिनां नत्रो कृत्तिका तथा त्रण पूर्वा ने, राजाऊनां पुष्य तथा त्रण उत्तरा ने, सेवक जातिनां धनिष्ठा, ज्येष्ठा, चित्रा अने मृगशिर , उन जातिनां स्वाति, Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ मूळ, आर्षा ने शततारका बे, कर्षक ( खेरुत ) जातिनां मघा, रेवती, अनुराधा रोहिणी, वणिक् जातिनां अश्विनी, हस्त, अजिजित् श्रने पुनर्वसु बे, तथा काळ जातिनां श्रवण, अश्लेषा, जरणी ने विशाखा बे. " देशनक्षत्रो पद्मचक्रमां प्यां बे ते जाणवां, छाने राज्याभिषेकनुं जे नक्षत्र ते निषेकनक्षत्र जावं. ( ते विषे आगळ १६ मा श्लोकमां कहेशे . ) श्रीं को शंका करे के - " जन्मनक्षत्रादिकनो त्याग शामाटे करवो ?” तेनो जवाब कहे बे-" प्राये करीने नक्षत्रो क्रूर ग्रहादिकवके पीमाय बे, माटे जो इष्ट पुरुषनां जन्मनक्षत्रादिक प्रतिष्ठादिक कार्यने विषे लेवामां आवे तो ते ( जन्मनक्षत्रादिक) क्रूर ग्रहादिकव पीमा पामवाथी ते पुरुषनुं अनिष्ट थाय बें, ने जो ते ( जन्मनक्षत्रादिक ) लेवामां न आवे तो ते नक्षत्र पीमा पाम्यां बतां पण अनिष्ट फळ देवामां समर्थ थतां नथी" एम शी रीते जाणवुं ? ए शंका पर जवाब आपे वे के "विलग्नस्थोऽष्टमो राशिर्जन्मलग्नात् सजन्मजात् । न शुनः सर्वकार्येषु लग्नाच्चन्द्रस्तथाष्टमः ॥ १ ॥” "जन्मलग्नथी के जन्मनक्षत्रथी गणतां आठमो राशि जो लग्नमां रह्यो होय तो ते सर्व कार्योमांशु नथी, तथा लग्नथी श्रवमे स्थाने चंद्र होय तो ते पण शुन नथी. " इत्यादिक दैवज्ञवनमां कह्युं छे. जेम वा प्रकारना लग्नादिक योगो घणीवार मळे बे, परंतु ते कां पण अनिष्ट फळ दइ शकता नथी, पण ज्यारे तेर्ज ( योगो ) यात्रादिकमां आवे छे त्यारे प्राये करीने अवश्य अनिष्ट फळ पे बे. तेज प्रमाणे वहीं पण जाणवुं. जन्मनक्षत्रादिक नवे नक्षत्रनी पीमा तथा तेमनुं फळ या प्रमाणे कह्युं बे. - "केत्वर्कार्कि जिराक्रान्तं जौमवक्रनिदाहतम् । उस्काग्रहणदग्धं च नवधाऽपि न जं शुभम् ॥ १ ॥” "केतु, सूर्य ने शनिए आक्रमण करेलुं नक्षत्र, मंगळे, वक्र ग्रहे ने निदाए ( जिन्न नक्षत्रे ) हलुं नक्षत्र, तथा ब्रह्कानुं नक्षत्र, ग्रहणनुं नक्षत्र छाने दग्ध नक्षत्र, ए नव प्रकारनुं नक्षत्र शुभ नथी." (अर्थात् श्रा नक्षत्रो पीमा पामेलां - हणायेलां कहेवाय बे.) " देह विनाशो जन्मपीमने कर्मणश्च कर्म | उत्सवबांधवनाशौ समुदयसंघातयोर्हतयोः ॥ २ ॥” "जन्मनक्षत्र पीमा पाम्युं होय तो शरीरनो नाश थाय, कर्मनक्षत्र पीमायुं होय तो कर्म ( कार्य )नो नाश थाय, समुदयनक्षत्र दणायुं ( पीमा पाम्युं ) होय तो श्रवनो नाश थाय, अने संघातनक्षत्र हणायुं होय तो बंधुनो नाश थाय. " Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ श्ए "स्वतनुविनाशो वैनाशिके हते मानसे मनस्तापः। कुलदेशस्त्रीनाशो जातिनदेशानिषेकेषु ॥३॥" "विनाशनक्षत्र हणायुं होय तो पोताना शरीरनो नाश थाय, मानसनक्षत्र हणायु होय तो मनमां संताप (जग) थाय, जातिनक्षत्र हणायुं होय तो कुळनो नाश थाय, देशनात्र हणायुं होय तो देशनो नाश थाय , अने अनिषेकनक्षत्र नाश पाम्युं होय तो स्त्रीनो नाश थाय ." अनिषेकनन्त्र तथा देशनात्र आ प्रमाणे वे."राज्याभिषेकदिवसेऽनिषेकधिष्ण्यं च देशनकत्रम् । पद्मविन्नागे शेयं प्रादक्षिण्येन नूमध्यात् ॥४॥" "राज्याभिषेकने दिवसे जे नक्षत्र होय ते अभिषेकनत्र जाणवू, अने पृथ्वीना मध्य नागथी प्रदक्षिणाना क्रमे पद्मचक्रना विनागमा देशनक्षत्र जाणq." (एटखे के पृथ्वीना मध्य नागथी जे दिशा के विदिशामा जे देश होय ते दिशा के विदिशामां पनचक्रने विषे जे नक्षत्रो होय ते देशनकत्रो जाणवां.) .. पद्मचक्रनी स्थापनानी रीत था प्रमाणे जे."कर्णिकाष्टदलैराव्ये पद्मे नानौ दलेषु च । प्राच्यादिस्थेषु नानीह न्यस्याग्निजत्रयादितः ॥५॥" "कर्णिका (नानि) तथा श्राप पांखमी सहित एक पद्म (कमळ ) करवू, तेनी नालिने विष तथा पूर्वादिकना अनुक्रमे रहेली पांखमीउने विषे कृत्तिकाथी आरंजीने त्रण त्रण नक्षत्रो मूकवां." पद्मचक्र यंत्र. (उ.पू-शक रोम-उ-हचि CO भा०३८ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ॥ श्ररंजसिद्धि ॥ “त्रितयैराग्नेय्याद्यैः क्रूरग्रहपीमितैः क्रमेण नृपाः । पाञ्चालो १ मागधिकः २ कालिंगश्च ३ क्षयं यान्ति ॥ ६ ॥ आवन्त्यो ४ ऽथानर्तो ए मृत्युं चायाति सिन्धुसौवीरः ६ । राजा च दारहूरो 9 मत्रेशो ऽन्यश्च कौणिन्दः ॥ ७ ॥ " " कृत्तिकादिक ऋण नक्षत्रो जो क्रूर ग्रहवमे पीमायेल होय तो पांचाल देशनो राजा नाश पामे बे. १ एज प्रमाणे पूर्व दिशा विगेरेना अनुक्रमे रहेलां नक्षत्रो पीमायेला होय तो अनुक्रमे मगध देशनो राजा २, कलिंगनो राजा ३, अवन्तीनो राजा ४, नर्तनो राजा, सिंधुसौवीरनो राजा ६, हारहूरनो राजा ७, मत्र देशनो राजा ने कोशिंद देशनो राजा ए, कय पामे बे." ( एटले के पूर्व दिशामां रहेलां आदिक ऋण नक्षत्रो पीमायां होय तो मगध देशनो राजा नाश पामे बे, अग्नि खूणामां रहेलां अश्लेषादिक त्रण नक्षत्रो पीमित होय तो कलिंग देशनो राजा क्षय पामे बे. ए रीते ईशान सुधी जाणवु. ) श्रा उपर कहेला देशो अनुक्रमे कर्णिका ( नानि ) ने विषे तथा पूर्व, अग्नि, दक्षिण विरे व दिशार्जनी पांखमीउने स्थाने रहेला बे, तेथी ते ते नक्षत्रो पीमायाथी ते ते देशना राजानो दय थाय बे. या देशाधिपना नामनी गणतरी मात्र दिशानेज उद्देशीने करी बे, तेथी उपर प्रमाणे नव खंरुवके कल्पना करेली आ आखी पृथ्वीने विषे जे जे खंरुमां जे जे देशो रहेला होय ते ते देशो ( देशाधिपति ) ते ते नक्षत्रो पीमा पामवाथी पीमाय बे-नाश पामे बे एम जाए। लेवुं. नरपतिजयचर्यामां तो श्र पद्मचक्रने ठेकाणे कूर्मस्थापना करीने पण आज जावार्थ वर्णव्यो बे. केटलाक श्राचार्यो जन्मनक्षत्रनीज जेम ओगणीशमं श्रधान नत्र पण क्रूर ग्रहवमे पीमा पाम्युं होय तो ते प्रवास पार होवाथी तेने वर्जे बे. या सर्व हकीकत लल्ले र चेला रनकोशमां सखेसी बे ग्रहनुं दुष्टपणुं होय तो नवांशे करीने शुद्ध एवं पण लग्न अशुद्ध ( अशुभ )ज बे, एम सप्तर्षिए कहेलुं होवाथी यथोक्त नक्षत्रोना दोषनो प्रकार कहे बे. - · क्रूरेण मुक्तमाक्रान्तं नोग्यं ग्रहणनं तथा । डुष्टं ग्रहोदयास्ताच्यां ग्रहैर्जिनं च मं त्यजेत् ॥ १५ ॥ अर्थ - क्रूर ग्रह मूकी दीधेलुं नक्षत्र, याक्रमण करेलुं नक्षत्र अने जोग्य नक्षत्र, तथा ग्रहणनुं नक्षत्र, ग्रहोना उदय ने अस्तवके दोष पामेलुं नक्षत्र छाने ग्रहोए नेदे नक्षत्र, आटलां नक्षत्रो तजवा योग्य बे. अहीं ग्रहनुं क्रूरपणुं स्वाभाविक जाणवुं, परंतु जेम क्षीणपणाए करीने चंद्रनुं क्रूरपणं पापग्रहनी साथे रहेवाथीज बुधनुं क्रूरपणुं कां बे, एवं उपाधिथी थयेलुं Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ २एए क्रूरपणुं अही जाणवु नहीं, तेथी अहीं ए जावार्थ श्रयो के जे नक्षत्र क्रूर एटले रवि, मंगळ, शनि अने राहुमांधी कोइ पण ग्रहे लोगवीने मूकी दीधेयूँ होय ते नक्षत्र, तथा आक्रमण करेलु एटले तेज क्रूर ग्रहे लोगवातुं नक्षत्र, तथा नोग्य एटले तेज क्रूर ग्रहे हमणां तरतज नोगववानुं होय ते नक्षत्र, या त्रण नक्षत्रो तजवा योग्य कह्यां . तेमनां फळ या प्रमाणे सारंग कहे जे. "ऋराश्रितक्रूर विमुक्तक्रूरगन्तव्यधिष्ण्येषु कुमारिकाणाम् । वदन्ति पाणिग्रहणे मुनीन्जा, वैधव्यमब्दै स्त्रिनिरत्रिमुख्याः॥१॥" "क्रूर ग्रहे आश्रित करेलुं (जोगवातुं), क्रूर ग्रहे लोगवीने मूकी दीधेनुं अने क्रूर ग्रहे गंतव्य एटले हजु हवे नोगववानुं, ए त्रणमांथी कोइ पण नदत्रमा कुमारिकानुं पाणिग्रहण ( विवाह ) कर्यु होय तो ते कन्या त्रण वर्षनी अंदर विधवापणुं पामे ने एम अत्रि विगेरे मुनींजो कहे जे." बीजा आचार्यों कहे वे के"नुक्तं नोग्यं च नो त्याज्यं सर्वकर्मसु सिद्धिदम् । यत्नात्त्याज्यं तु सत्कार्ये नक्षत्रं राहुसंयुतम् ॥ १॥" "क्रूर ग्रहे लोगवेलु तथा जोगववानुं एबे नक्षत्रो सर्व कर्ममां सिद्धिापनार होवाथी तजवा योग्य नथी, परंतु शुन कायेने विपे राहुवझे युक्त एवं नक्षत्र अवश्य यत्नथी त्याग करवा योग्य .” ___ ग्रहणनत्र एटले जे दिननक्तमां (दनश्या नक्षत्रमां) सूर्य के चंजनुं ग्रहण अर्यु होय ते. ग्रहना उदय अने अस्तवमे दोष पामेलुं नक्त्र एटले जे दिननक्षत्रमा ग्रहोनो उदय के अस्त श्रयो होय ते. आगमने विषे वक्र ग्रहे आक्रमण करेलुं (जोगवातुं)नक्षत्र पण तजवा योग्य कडं बे. "विड्डरमवदारियं" "विवर नात्र एटले अपघारित नक्षत्र तजवा योग्य .” अहीं अपधारित एटले वक्र ग्रहे श्राक्रमण करेलुं एवो अर्थ बे. ग्रहोए नेदेखें एटले नौम (मंगळ) विगेरे पांच ताराग्रहो कृत्तिका, रोहिणी विगेरे जे नक्षत्रोनी वच्चे जेदीने जाय ते ग्रहनिन्न कहेवाय बे. ते विषे लग्नशुधिमां कडं बे के"मज्केण गहो जस्स उ गश्तं होश् गहनिन्नं" "ग्रह जेनी मध्ये थश्ने जायचे ते ग्रहनिन्न कहेवाय जे.” नारचं टिप्पणीमां तो एम लख्युं ने के“जेना पर ग्रहोनी माबी तथा जमणी दृष्टि पम्ती होय ते ग्रहनिन्न कहेवाय .” अहीं दृष्टि जाणवाने माटे सात रेखावाळा चक्रनी जेम कृत्तिका नत्रयी आरंनीने सात सात नक्षत्रो चारे दिशामा स्थापवां. ते था प्रमाणे Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ॥ श्रारंसिद्धि॥ कृ० रो० मृ० या पु० पु० श्र० अ.न. ध० श.पू |उ० रे म० पू० ज० हचि स्वावि० oks oko otsas त्यारपी"यस्मिन् धिष्ण्ये स्थितः खेटस्ततो वेधत्रयं भवेत् । ग्रहदृष्टिप्रनावेण वामदक्षिणसम्मुखम् ॥ १॥ वक्रगे दक्षिणा दृष्टिमिदृष्टिश्च शीघ्रगे। जौमादिपञ्चकस्य स्यान्मध्यदृष्टिश्च मध्यमे (गे)॥२॥ राहुकेतू सदा वक्रौ सदा शीघौ विधूष्णगू। क्रूरा वक्रा महाराः सौम्या वक्रा महाशुलाः॥ ३ ॥ वेधध्यं जजति धिष्ण्यमिनारिदंष्ट्रासंस्थानदिग्ष्यगतोफुगतग्रहान्याम् । एकं तथाऽनिमुखसंस्थितमध्यनासापर्यन्तनागधृतधिष्ण्यगतग्रहेण ॥५॥" "जे नक्षत्रमा कोइ पण ग्रह रह्यो होय ते नत्रयी ग्रहनी दृष्टिना प्रनावने लीधे माबो, जमणो अने सन्मुख एवा त्रण वेध थाय ने (१). तेमां जो वक्र गतिवाळो ग्रह होय तो तेनी जमणी दृष्टि पके बे, शीघ्र गतिवाळो होय तो तेनी माबी दृष्टि पमेने, अने मंगळ विगेरे पांचमांथी कोश् मध्य गतिवाळो होय तो तेनी मध्य एटले सन्मुख दृष्टि पमे ले (२.). तेमां राहु अने केतु ए बे ग्रहो निरंतर वक्र गतिवाळाज होय जे, तथा चंड श्रने सूर्य ए वे निरंतर शीघ्र गतिवाळाज होय बे. तेमां जो क्रूर ग्रहो वक्र श्रया होय तो ते अत्यंत क्रूर जाणवा, अने सौम्य ग्रहो वक्र थया होय तो ते अति शुल जाणवा (३ ). जे नत्रयी सिंहनी दाढाना संस्थाननी जेम (तिरबा) बे दिशामां जे बे नत्रो रहेला होय ते बे नत्रो उपर जे बे ग्रहो रहेला होय ते बे ग्रहोए करीने Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ प्रथमर्नु नक्षत्र बे वेधने जजे (पामे ) बे, तथा तेज प्रथमनुं नक्षत्र पोतानी सन्मुख रहेला मध्य नासिकाना पर्यंत नाग उपर रहेला नत्र उपर जे ग्रह होय ते ग्रहे करीने त्रीज़ो सन्मुख वेध थाय ने (४)." श्रा प्रमाणे नरपतिजयचर्यामां कडं जे. श्रानुं उदाहरण आपवाथी बराबर समजाशे, माटे उदाहरण आपे ले के-कोइ कार्य मृगशिर नक्षत्रमा करवा धार्यु ले अने चित्रा नक्षत्रमा मंगळ विगेरे सात ग्रहोमांनो कोइ पण वक्री ग्रह रह्यो होय तो तेना वक्र गतिपणाने सीधे जमणी दृष्टि मृगशिर उपर पमी. तथा रेवती नक्षत्रमा सूर्यादिक सात ग्रहोमांनो कोइ पण अतिचारी ( शीघ्र गतिवाळो) ग्रह होय तो तेना शीघ्र गतिपणाने सीधे माबी दृष्टि मृगशिर उपर पमी. ए प्रमाणे बन्ने तरफथी ग्रहनी दृष्टि पमवाने सीधे ते मृगशिर नत्र ग्रहनिन्न थयुं कहेवाय. वळी उत्तराषाढा नक्षत्रमा मंगळ विगेरे पांच ग्रहोमांनो कोइपण मध्य गतिवाळो ग्रह होय तो सन्मुख दृष्टिए करीने ते मृगशिरनो त्रीजो वेध पण थयो. एज रीते वीजां नत्रोना संबंधमां पण जाणवू, परंतु आत्रीजो सन्मुख नामनो वेध "वेधेनैकार्गलो." ए श्राज विमर्शनां सत्तरमां श्लोकमां कहेशे, अने बीजा बे वेधनो अहीं अधिकार जे. अशुद्ध नक्षत्रनी शुद्धि क्यारे थाय ? ते कहे जे.धिष्ण्यं कार्याय पर्याप्तं चन्जनोगाद्दाहतम् । शुरूं षनिवेन्मासैरुपरागपराहतम् ॥ १६ ॥ अर्थ-ग्रहयी हणायेलुं नक्षत्र चंवमे नोगवाया पली शुल कार्यने माटे पर्याप्त (योग्य )याय बे, अने उपराग (ग्रहण)श्री हणायेलु नत्र उ मासे करीने शुधथाय ने. श्रहीं पर्याप्त एटले योग्य थाय बे एवो अर्थ करवो. ग्रहथी हणायेलुं नक्षत्र एटले क्रूर ग्रहे नोगवीने मूकी देवाथी, नोगवातापणाश्री के नोग्यपणाथी दूषित करेलु, अथवा ग्रहोए उदय के अस्त करवाए करीने दूषित करेलु, अथवा वक्री ग्रहे आक्रमण विगेरे करवावझे करीने ऋषित करेलु जे नक्षत्र ते. चंजना जोगथी एटले ग्रहे करेलो दोष दूर थया पनी जो ते नक्षत्र चंद्रे लोगव्यु होय तो ते आदरवा योग्य -शुल . ते विषे वराह कहे डे के "दोषैर्मुक्तं यदा धिष्ण्यं पश्चाच्चन्छेण संयुतम् ।। ततः पश्चाविशुधं स्यान्नान्यथा शुलदं नवेत् ॥१॥" "दूषित नक्षत्र प्रथम तो दोषथी मुक्त थाय, अने पली ते चंवमे संयुक्त थाय-नोगवाय, त्यारपनी ते शुद्ध थाय ,अन्यथा एटखे ते पहेलांते शुन फळने आपनारुं यतुं नथी." Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ ॥ श्रारंजसिद्धि ॥ लल्ल तो या प्रमाणे कहे बे“तत्सूर्येन्धोर्नोगात्कर्मण्यत्वं प्रयाति नूयोऽपि । free कर्मसु शुद्ध तापनिषेकात्सुवर्णमिव ॥ १ ॥” "ते ( डूषित थयेलुं ) नक्षत्र फरीथी सूर्य ने चंदना जोगव्या पक्षी शुभ कार्यने माटे योग्य थाय बे. जेम अशुद्ध सुवर्ण श्रग्निमां तपावीने जळमां नाख्या पी कार्य (अलंकार ) करवामां शुद्ध थाय बे तेम. अर्थात् ते नक्षत्र प्रथम सूर्यवके तपावाय बे, अने पी चंद्रव शांत कराय बे." उपरागथी एटले चंद्र के सूर्यना ग्रहणथी हणायेलुं एटले डूषित थयेलुं जे नक्षत्र होय ते ग्रहनक्षत्र कहेवाय बे. ते ब मास सुधी शुभ कार्यमां वर्जवा योग्य बे. केटलाक आचार्यो एम कहे बे के—ज्यांसुधी ते नक्षत्रने फरीथी सूर्य न जोगवे त्यांसुधी ते वर्जवा योग्य बे. अहीं विशेष या प्रमाणे बे. - “पक्षान्तरेण ग्रहणघयं स्याद्यदा तदाद्यग्रहणोपगं जम् । पक्षाधिशुद्ध जवति द्वितीयग्रहोपगं शुध्यति मासषङ्कात् ॥ १ ॥” " एक पखवामीयाने श्रांतरेज जो वे ग्रहण थतां होय तो पहेला ग्रहणथी दूषित थयेयुं नक्षत्र एक पखवामीयाए करीने ( बीजुं ग्रहण आवे त्यारे ) शुद्ध थाय बे, अने ग्रहणी दूषित थयेलुं नक्षत्र व महीने शुद्ध थाय बे” एम सप्तर्षि कहे . वळी जे नक्षत्रमां केतुनो उदय थयो होय तेज नजत्रमां व मास सुधी केतु रहे बे, तेथी ते नक्षत्र पण ब मास सुधी तजवा योग्य बे. तथा जे दिननक्षत्रमां मंगळ विगेरे पांच ताराग्रह मांहेना कोइ पण वे ताराग्रहनो परस्पर नेद ( वेध ) थतो होय तो ते नक्षत्र पण ब मास सुधी तजवा योग्य बे. ते विषे विवाहवृन्दावनने विषे कह्युं बे के"यस्मिन् धिष्ये वीक्षितौ राहुकेतू, नेदस्ताराखेटयोर्यत्र च स्यात् । आपएमा साँस्तत्र लग्नेन्दुनाजि, प्राजिष्णु स्यान्नो शुभं कर्म किश्चित् ॥ १ ॥” " जे दिननक्षत्रमां राहु ने केतु जोया होय, छाने जे नक्षत्रमां मंगळादिक बे ताराग्रहनो परस्पर जेद-वेध थतो होय ते लग्नना चंद्रवमे शोजता एवा नक्षत्रमां ब मास कोई पशु कार्य कर्यु होय तो ते शोनावालुं एटले शुभ फळदायक यतुं नथी." जे दिननक्षत्रमां सूर्य के चंद्रनुं ग्रहण यतुं होय ते नक्षत्रमां राहु जोयो कहेवाय बे, छाने जे नक्षत्रमां केतुनो उदय थतो होय ते नक्षत्रमां केतु जोयेलो कहेवाय बे. हीं कोइने शंका याय के केतुना उदयनुं नक्षत्र शी रीते जाणी शकाय ? या शंकाना उत्तरमां त्रिविक्रमशतकनी टीकामां लखेला श्लोको अहीं लखे बे. - ""मेषेऽर्के सति रेवत्यां यदि याति विधुंतुदः । नामासोत्तरार्धे स्यात् पुष्ये केतूदयस्तदा ॥ १ ॥” Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३०३ "मेष संक्रांतिमां जो रेवती नक्षत्रने विषे राहु रह्यो होय तो नादरवा मासना बीजा पखवामीयामां पुष्य नक्षत्रने विषे केतुनो उदय थाय बे. १.” "सूर्ये वृषस्थितेऽश्विन्यां यदि याति विधुतुदः। आश्विनस्योत्तरार्धे तमोहिण्यां केतुरीयते ॥२॥" __ "वृष राशिमां सूर्य रह्यो होय त्यारे जो अश्विनी नक्षत्रमा राहु रह्यो होय तो आश्विन मासना वीजा पखवामीयाने विष रोहिणी नक्षत्रमा केतु देखाय -उदय पामे ..” "जरण्यां मिथनस्थेऽर्के यदि याति विधंतुदः। कार्तिकस्योत्तरार्धे तदायां केतुदर्शनम् ॥ ३॥" “मिथुन राशिमा सूर्य रह्यो होय त्यारे जो नरणी नक्षत्रमा राहुरह्यो होय तो कार्तिक मासना बीजा पखवामीयामां आओ नक्षत्रने विषे केतुनुं दर्शन थाय . ३." "कर्कस्थेऽर्के कृत्तिकायां यदि याति विधुतुदः। मार्गशीर्षापरार्धे तत्केतूदयः पुनर्वसौ ॥४॥" "कर्क राशिमां सूर्य रह्यो होय त्यारे जो कृत्तिका नक्षत्रमा राहु रह्यो होय तो मार्गशीर्ष मासना बीजा पखवामीयामां पुनर्वसु नक्षत्रने विषे केतुनो उदय श्राय बे.." “सिंहेऽर्के सति रोहिण्यां यदि याति विधुतुदः। पौषमासापरार्धे तदश्लेषायां शिखीयते ॥ ५॥" - "सिंह संक्रांति होय त्यारे जो रोहिणी नक्षत्रमा राहु रहेलो होय तो पोष मासना बीजा पखवामीयामां अश्लेषा नक्षत्रने विषे केतु देखाय -उदय पामे बे. ५.” "कन्यास्थेऽर्के मृगशीर्ष यदि याति विधुतुदः। __ माघमासोत्तरार्धे तच्चित्रायां दृश्यते शिखी ॥ ६॥" "सूर्य कन्या राशिमा रह्यो होय त्यारे जो राहु मृगशीर्ष नक्षत्रमा रह्यो होय तो माघ मासना बीजा पखवामीयामां चित्रा नक्षत्रने विष केतु देखाय . ६." "तुलार्के सति आर्जयां यदि याति विधुतुदः।। फागुनस्योत्तरार्धे स्यान्मूले केतूदयस्तदा ॥ ७॥" "तुला राशिमां सूर्य होय त्यारे जो आर्म नक्षत्रमा राहु रहेलो होय तो फागुन मासना बीजा पखवामीयामां मूळ नक्षत्रने विषे केतुनो उदय थाय ने.." "वृश्चिकेऽर्के पुनर्वस्वोर्यदि याति विधुतुदः। चैत्रमासोत्तरार्धे स्यात्स्वातौ केतूदयस्तदा ॥ 6 ॥" "वृश्चिक राशिनो सूर्य होय त्यारे जो पुनर्वसु नक्षत्रमा राहु रहेलो होय तो चैत्र मासना बीजा पखवामीयामां स्वाति नक्षत्रने विष केतुनो उदय थाय बे..." Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४. ॥ श्रारंजसिधि॥ "धनुःस्थिते रवौ पुष्यं यदि याति विधुतुदः। वैशाखस्योत्तरार्धे स्यान्मूले केतूदयस्तदा ॥ ए॥" "धन राशिमां सूर्य रह्यो होय त्यारे जो पुष्य नक्षत्रमा राहु रहेलो होय तो वैशाख मासना बीजा पखवामीयामां मूळ नत्रने विषे केतुनो उदय थाय बे. ए." "अश्लेषां मकरस्थेऽर्के यदि याति विधुतुदः। ज्येष्ठमासोत्तरार्धे तज्येष्ठायां दृश्यते शिखी ॥१०॥" ___ "सूर्य मकर राशिमा रह्यो होय त्यारे जो राहु अश्लेषा नक्षत्रमा रह्यो होय तो ज्येष्ठ मासना बीजा पखवामीयामां ज्येष्ठा नक्षत्रने विष केतु देखाय . १०.” "कुंजस्थेऽर्के मघाधिष्ण्यं यदि याति विधुतुदः। आपाढमासोत्तरार्धे श्रुतौ केतूदयस्तदा ॥११॥" "सूर्य कुंन राशिमा रह्यो होय त्यारे जो राहु मघा नक्षत्रमा होय तो आषाढ मासना बीजा पखवामीयामां श्रवण नक्षत्रने विषे केतुनो उदय होय . ११.” __ “मीनेऽऽपरफटगुन्यां यदि याति विधुतुदः। श्रावणस्योत्तरार्धे तघारुणे दृश्यते शिखी ॥१२॥" __ "मीन राशिमां सूर्य रह्यो होय त्यारे जो राहु उत्तराफाट्गुनी नक्षत्रमा होय तो श्रावण मासना बीजा पखवामीयामां शतभिषक् नत्रने विषे केतु देखाय वे-नदय पामे . १२." __ उहकापात अने चंक सूर्यना परिवेषथी दूषित श्रयेलुं नक्षत्र पण मास सुधी शुल कार्यमां वर्जवा योग्य जे एम केटलाक आचार्यों कहे . वेधेनैकार्गलोत्पातपातलत्तानिधैरपि । दोषैरुपग्रहाद्यैश्च नक्षत्रं पुष्टमुत्सृजेत् ॥ १७ ॥ अर्थ-वेधवमे करीने एटले सात अने पांच रेखावाळा चके करीने बतावेला वेधवमे इक्षित श्रयेलु तथा एकार्गल, उत्पात, पात अने लत्ता नामना दोषे करीने इक्षित थयेवं, तथा उपग्रहादिके करीने दूषित श्रयेलुं नक्षत्र शुक्ल कार्यमा तजवा योग्य . उत्पात एटले जे दिवसे लौम विगेरे उत्पातो थया होय ते दिवसर्नु नत्र उत्पातवमे दूषित कहेवाय जे. श्लोकमां अपि शब्द होवाथी ग्रह युधादिकवमे दूषित थयेलुं नक्षत्र पण तजवा योग्य वे. आ सर्वे दोषोथी ड्रषित थयेलां नक्षत्रो ते ते दोषथी मुक्त थया पनी ज्यारे चंवमे जोगवा जाय त्यारे ते शुद्ध थाय ने एम रत्नमाळाना नाष्यमांकडं . ___ हवे वेळा ( समय )नी शुद्धि कहे जे.अर्कन्छोर्जुक्तांशकराशियुतौ क्रान्तिसाम्यनामाऽयम् । चक्रदले व्यतिपातः पातश्चक्रे च वैधृतस्त्याज्यः॥१७॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३०५ अर्थ-सूर्य अने चंजना नुक्त अंश तथा राशिने एकग करवाथी क्रांतिसाग्य नामनो दोष थाय बे. तेमां जो ते एकग करेला राशिनी संख्या अर्धचक एटले उनी श्रावे तो ते क्रांतिसाम्यनुं नाम व्यतिपात कहेवाय ने, अने जो चक एटले वारनी संख्या आवे तो तेनुं पात तथा वैधृत एबुं नाम कहेवाय . आ बन्ने प्रकारनो क्रांतिसाम्य दोष शुन्न कार्यमां तजवा योग्य . विस्तरार्थ-स्पष्ट करेला सूर्य अने चंपने अयनांशो सहित करवा. पनी तेमां नुक्त अंश तथा राशि नाखवा. तेमां जो राशिना अंकने स्थाने उनी के वारनी संख्या यावे तो क्रांतिसाम्यनो संनव एम जाणवू. ते वेळा तजवा योग्य वे. ते क्रांतिसाम्य नाभनो दोष जो उनी संख्यावमे श्रयो होय तो तेनुं व्यतिपात एq नाम कहेवाय ने, अने जो बारनी संख्यावझे थयो होय तो तेनां पात अने वैधृत एवां वे नाम कहेवाय . अहीं तात्पर्य ए के-श्रा क्रांतिसाम्यनी वेळा निश्चयथी कही शकाती नथी, कारण के वर्षे वर्षे ते वेळा अनियमित वखते थावे . तेने माटे विवाहवृंदावनने विषे कह्यु के “त्रिजागशेषे ध्रुवनानि चैन्धव्यंशे गते सम्प्रति संनवोऽस्य ।" “विष्कंनादिक योगो मांहेना ध्रुव नामना योगनो त्रीजोनाग शेष रहे त्यारे अने ऐं नामना योगना त्रण नाग वीती जाय त्यारे हालना समयमां आ क्रांतिसाम्य नामना दोषनो संजव जे." त्यारपी कोइए श्राम कर्तुं . "पूर्वार्धे पुनरैन्जस्य पश्चिमार्धे ध्रुवस्य च ।" "ऐंजना पहेला अर्ध नागमां अने ध्रुवना पाउला अर्धा नागमां श्रा क्रांतिसाम्यनो संजव जे.” हमणां तो "ब्रह्मणश्चरणे शेषे ध्रुवस्य चरणे गते । तत्संलव इत्याहुः० ॥१॥" "ब्रह्मा नामना योगनो चोथो नाग शेष रहे त्यारे अने ध्रुव योगनो एक पाद (चोयो जाग) जाय त्यारे ते क्रांतिसाम्यनो संजव ने एम ज्योतिषशास्त्र जाणनारा कहे जे." __ या बाबत शी रीते निश्चय करवो ? ते माटे कहे जे के-'ते वखतना सूर्य अने चंने राशि, अंश विगेरे रूपे स्पष्ट करीने ते वर्षना अयनांशोने ते ( स्पष्ट करेला सूर्य अने चंड)मां नाखवा. पगी ते बन्नेने एका करवा. तेमां जो राशिनी संख्या ब अथवा बार श्रावे तो क्रांतिसाम्यनो संलव जे एम जाणवू. तेमां पण आ प्रमाणे विशेष जाणवू.-जो उनी के बारनी संख्या पूरेपूरी एटले के अंश, कळा विगेरेने स्थाने शून्यज १ जे वखते कार्य करवानुं होय ते वखतना. आ० ३९ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ॥ श्रारंसिद्धि ॥ श्रावे अने मात्र राशिने स्थानेज के वारनी संख्या आवे तो तेज वखते क्रांतिसाम्य ले एम जाणवू, परंतु जो के बारनी संख्या उपर अंश, कळा विगेरे कां पण अधिक आवे तो तेटलुं क्रांतिसाम्य वीती गयुं ने एम जाणवू, अने जो उ के वारनी संख्याथी कांक न्यून होय तो हवे परी क्रांतिसाम्य थशे एम जाणवू. क्रांतिसाम्य वीती गयाने केटलो काळ थयो अथवा केटला काळ पठी क्रांतिसाम्य अशे ? ते जाणवानी इच्छा थाय तो या रीते करवं.-सूर्य अने चंजनी गतिने कळा तथा विकळारूपे स्पष्ट करीने ते वन्नेने एकत्र करी ते सर्वनी विकळा करवी. (करी राखवी.) त्यारपती अयनांश सहित सूर्य अने चंपने एकत्र करी अथवा बारनी संख्याथी जे कांश अधिक राशि, अंश विगेरे होय तेमांथी पहेला राशिना अंकने गेमीने वीजा अंश विगेरेनी विकळा करवी. पठी आ विकळारूप करेला अंकने उपर विकळारूप करी राखेला गतिना अंकवझे जाग देवो. नागमा जे आवे तेटला दिवस जाणवा. शेष रहेला धकने सारे गुणीने तेज गतिना यंकवमे नाग देवो. नागमा जे आवे तेटली घटी जाणवी. फरीथी तेज प्रमाणे शेष रहेलाने सारे गुणी तेज गतिना अंकवमे नाग देतां नागमा जे संख्या आवे तेटला पळ जाणवा. एटला दिवस, घटी अने पळ वीती गया एटले के एटला दिवस, घटी अने पळनी पहेलां क्रांतिसाम्य बीती गयु एम जाणवु. परंतु जो उनी के वारनी संख्या कांक न्यून होय तो ते सर्वने उ अथवा बारमाथी बाद करी जे शेष रहे तेनी विकळा करवी. ते विकळाना अंकने प्रथमनीज जेम गतिनी विकळाना अंकवझे नाग देवो. नागमा जे आवे ते दिवस जाणवा. पली पूर्वनीज जेम शेषने सारे गुणी तेने गतिनी विकळावमे नाग देवो. नागमा जे आवे ते घटी जाणवी. एज प्रमाणे फरीथी गुणाकार तथा नागाकार करी पळ काढवा. थाटलो काळ गया पनी क्रांतिसाम्य आवशे, एटले के तेटला दिवस, घटी अने पळ गया पली क्रांतिसाम्य श्रशे एम जाणवू. जो पहेली वार नाग देतां नागमां कां न आवे तो दिवसने स्थाने शून्य जाणवू, एटले के क्रांतिसाम्य वीत्याने अथवा आववामां एक दिवस वा थवानो नथी, परंतु केटलीएक घमी अने पळोज गइ के जवानी, अने जो बीजी वार नाग देतां पण नागमां कां न आवे तो घटीने स्थाने पण शन्य जाणवू, एटले के क्रांतिसाम्य वीत्याने अथवा श्रवाने घमी पण गश् नथी अथवा आववानी नथी, परंतु केटलाएक पळोज वीत्या के वीतवाना बे एम जाणवू. श्रानुं उदाहरण श्रापवाथी था विषय वरावर समजाशे. तेथी प्रथम बनी संख्यान उदाहरण आपे बे. १ घटी. २ पळ. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमी विमर्शः॥ संवत् १५१२ नी सालमां वैशाख सुदि १० गुरुवारे मघा नक्षत्रमा प्रातःकाळे घमी १ पळ ४५ समये ध्रुव योगनो पहेलो पाद पूर्ण थयो . ते वखते क्रांतिसाम्यनो विचार करीए जीए.-ते वखते स्पष्ट सूर्य राशि०, अंश १७, कळा ५० अने विकळा २६ जे. ते वर्षमां अयनांशो १५, कळा ३४ जे. तेने स्पष्ट सूर्यमां नाखवाथी अयनांश सहित सूर्य १-४-२४-२६ थयो. सूर्यनी गति स्पष्ट कळा ५७, विकळा ५८ जे. ते वखते स्पष्ट चंड ४-११-२-३ वे. तेमां अयनांश १५, कळा ३४ नेळववाथी अयनांश सहित चं५-२६३६-३०थयो. चंजनी गति स्पष्ट कळा ७५० . हवे अयनांश सहित सूर्य अने चंने एकत्र करीए त्यारे ६-१-०-५६ थया, माटे आ समये क्रांतिसाम्य बीती गयुं बे. तेने वीत्याने केटलो वखत श्रयो? ते जाणवा माटे अंश (१)ने साठे गुणी कळा करवी एटले ६० थया. तेने फरीथी विकळा करवा माटे सारे गुण। ५६ विकळा नेळववाथी ३६५६ विकळा थइ. त्यारपली उपर कहेली सूर्यनी स्पष्ट गति ५७ कळा अने ५७ विकळा तथा चंजनी स्पष्ट गति कळा ७५० ए बेने एकत्र करवी. एटले कळा 00g, विकळा ५० थ. कळाने विकळा करवा माटे सारे गुणी ५८ विकळा उमरेवाथी ४ विकळा थ. पनी पूर्वना अंक ३६५६ ने था ४७ अंके लाग लेवानो बे, परंतु नाग चालतो नथी, तेथी दिवसने ठेकाणे • आव्यु, त्यारपती ते ३६५६ अंकने साठे गुणवाथी २१ए३६० श्रया, तेने ते ७८ अंके जाग देतां । घटी प्राप्त अश्. शेष २५४४ ने सारे गुणी फरीथी तेज ४७ अंके नाग देतां ३१ पळ लाध्या, तेथी ४ घमी अने ३१ पळ पहेलां क्रांतिसाम्य वीती गयुं बे एम सिद्ध थयुं. ___ हवे बारनी संख्यानुं उदाहरण था प्रमाणे.-संवत् १५१३ नी सासमां लौकिक वैशाख वदि मंगळवारे धनिष्ठा नक्षत्रमा घमी १०, पळ ५४ समये ब्रह्म योगनो बेहो पाद अवशेष रह्यो बे. ते वखते क्रांतिसाम्यनो विचार करीए बीए. ते वखते राशि, अंश, कळा अने विकळारूपे स्पष्ट करेलो सूर्य १-०-४१-१३ जे. तेमां अयनांश १५, कळा ३५ नाखवाथी अयन सहित सूर्य १-१६-१५-१३ यो. रविनी गति स्पष्ट कळा ५७, विकळा ३० बे. ते वखते स्पष्ट चंद्र ए-२५-१०-५३ जे. तेमां अयनांश १५, कळा ३४ नेळववाथी १०-१४-१४-५३ थाय बे. चंजनी गति स्पष्ट कळा ४२, विकळा ६ . हवे श्रयन सहित सूर्य अने चंजने नेळववाथी ०-१-०-६ थाय ने. अहीं पण क्रांतिसाम्य वीती गयुं जे एम जाणवू. वीत्याने केटलो वखत श्रयो ने ? ते जाणवा माटे अहीं पण प्रथमनीज जेम सर्व रीत करवायी घमी ४ श्रावे , तेश्री क्रांतिसाम्य वीत्याने चार धमी थक्ष एम जाणवू. एज प्रमाणे अथवा बारनी संख्या कांइक न्यून होय तो क्रांतिसाम्य केटसा वखत Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ ॥ आरंसिद्धि ॥ पजी श्रावशे ? तेने माटे उपर कहेली रीते दिवस अने घमी विगेरे काढवा. ग्रहो भने ग्रहोनी गतिने स्पष्ट करवानो विधि (रीत) आगळ कहेवामां आवशे. आ क्रांतिसाम्यना संनवर्नु स्थान सूत्रकारे स्थूल प्रमाणथी कह्यु , तेथी श्रमे पण तेने अनुसरीने स्थूल प्रमाण-ज विविरण कर्यु बे, परंतु कोश्ने सूक्ष्म दृष्टिथी जोवु होय, जेमके क्रांतिसाम्यनो आरंन क्यारे थयो ? ते केटला वखत सुधी रहीने क्यारे ते पूर्ण अयुं ? क्रांतिसाम्य शब्दनुं सार्थक नाम शुं ? एटले के एनुं क्रांतिसाम्य एवं नाम केम कहेवायुं ? अने बारनी संख्यानी उत्पत्ति उतां पण क्रांतिसाम्य थतुं नथी ए क्यारे अने शी रीते? क्रांतिसाम्य बतां पण ते क्यारे अने शी रीते दोपकारी न होय ? इत्यादि सूक्ष्म प्रमाणने श्वनारे करणकुतूहल, नास्करसिद्धांत विगेरे ग्रंथो जोवा. अहीं कोई शंका करे ने के-तमे प्रथम एवं कर्वा के क्रांतिसाम्यनुं स्थान मासे मासे अने वर्षे वर्षे फरे चे, तो तेने फरवाना स्थाननी कां पण सीमा के के नहीं ? श्रा शंकानो जवाब आपतां कहे जे के-हा, . ते प्रमाणे. "गएमोत्तरार्धात्रुक्लादेः क्रान्तिसाम्यस्य संनवः । सार्धपञ्चसु योगेषु तत्त्यहं परिवर्जयेत् ॥ १॥" "गंमना उत्तरार्धथी अने शुक्ल योगनी आदियी आरंजीने सामा पांच योग सुधी क्रांन्तिसाम्यनो संन्नव बे. तेना त्रण दिवस वर्जवा योग्य वे. गंम योगना उत्तरार्धथी आरंजीने (एटले गंम योगना वे पाद गया पठी) सामा पांच योग सुधी (एटले वज्र योग पूर्ण थाय त्यांसुधी) तथा शुक्ल योगने पहेलेथीज आरंजीने सामा पांच योग सुधी (एटले प्रीति योगना बे पाद पूर्ण थाय त्यांसुधी) क्रांतिसाम्यनो संजव बे. श्रा सिवाय बीजा योगोमां तेनो संलवज नथी, एम खंमखाद्य नाष्य विगेरेमां कडं बे. अर्थात् आ वे स्थाने सामा पांच योगने विषेज क्रांतिसाम्य फर्या करे , ए सामा पांच योगने उलंघन करीने वीजा कोइ पण योगमां कोई पण वखत क्रांतिसाम्य गयुं (थयुं) नथी तेम जशे (श्रशे )पण नहीं. श्रा क्रांतिसाम्य दोषना त्रण दिवस वर्जवाना कह्या बे, एटखे के हालना समयमां ब्रह्म योगनो अन्त्य पाद अने ध्रुव योगनो श्राद्य पाद ए बे स्थानथी पाबळ चालतुं ( रहेढुं) क्रांतिसाम्य कदाचित् गयेले (पहेले )दिवसे जाय बे (थाय डे )अने आगळ चालतुं ( रहेढुं) क्रांतिसाम्य कदाचित् आगळने ( पनीने) दिवसे जाय , तेथी करीने क्रांतिसाम्यना संनवना स्थानवाळो एक दिवस अने आगळ पाबळनो एक एक दिवस एम त्रण दिवस तजवाना . अथवा बीजी रीते पण त्रण दिवस त्याग करवानुं था प्रमाणे कडं बे “गत १ मेष्य २६र्तमानं ३ सुख १ लदम्या २ युषां ३ क्रमात् । क्रान्तिसाम्यं सृजेशानिं व्यहं तेनात्र वय॑ताम् ॥१॥" Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३०ए “जे दिवसे क्रांतिसाम्य होय ते दिवसथी पहेलानो दिवस सुखनी हानि करे , तेनी पजीनो दिवस सदमीनी हानि करे , अने क्रांतिसाम्यनो दिवस आयुषनी हानि करे ने, माटे या त्रण दिवसो वर्जवा योग्य वे." केटलाक आचार्यों क्रांतिसाम्यवाळो एकज दिवस वर्जवानुं कहे , अने वीजा केटलाक तो ते दिवसे पण क्रांतिसाम्य अवानो समयज मात्र तजवानो कहे जे. ते कहे वे के "विषप्रदिग्धेन हतस्य पत्रिणा, मृगस्य मांसं सुखदं हताहते। यथा तथैव व्यतिपातयोगे, दाणोऽत्र वयो न तिथिर्न वारः॥१॥" __ "जेम विप लगावेला वाणथी हणायेला मृगर्नु छत ( इतना स्थान )विनानुं बीजं सर्व मांस सुखकारक ने तेम व्यतिपात (क्रांतिसाम्य ) योगने विषे पण ते योगनो समयज वर्जवा योग्य बे, परंतु आखी तिथि के आखो वार वर्जवा योग्य नथी." ___ क्रांतिसाम्यनी वेळानो निश्चित समय तया ते क्रांतिसाम्य केटलो वखत रहे ने तेनुं परिमाण करणकुतूहल विगेरे ग्रंथमां कहेला विधिने अनुसारे जाणवू एम प्रथम कही गया जीए. श्रा क्रांतिसाम्य मोटो दोष गणाय . ते विषे लह कहे जे के . “खगाहतोऽग्निना दग्धो नागदष्टोऽपि जीवति। क्रान्तिसाम्यकृतोपाहो म्रियते नात्र संशयः॥१॥" " खगयी हणायेलो, अग्निथी बळेलो अने सर्पथी मसायेलो पुरुष कदाच जीवी शके बे, परंतु क्रांतिसाम्यमां विवाहित थयेलो पुरुष मरीज जाय बे, तेमां कांपण संशय नथी." श्रा विवाहना विषयमा तजवा योग्य अढार दोषोना संग्रहनो श्लोक ा प्रमाणे . "स्युर्वेधः १ पात ५ लत्ते ३ ग्रहमलिनमुमु ४ क्रूरवारा ५ ग्रहाणां, जन्म ६ विष्टि ७ रर्धप्रहरक छ कुलिको ए पग्रह १० क्रान्त्य ११ वस्थाः १२ । कर्कोत्पातादि १३ घंटो १४ विगतबलशशी १५ पुष्टयोगार्गलाख्या १६, गएमान्तो १७ दग्धरिक्ताप्रमुखतिथि १० रश्रो नामतोऽष्टादशैते ॥ १॥" “वेध १, पात २, सत्ता ३, ग्रहवझे मलिन (दूषित ) श्रयेलुं नक्षत्र ४, क्रूर वार ५, ग्रहोर्नु जन्मनक्षत्र ६, विष्टि ७, अर्धप्रहर छ, कुलिक ए, उपग्रह १०, क्रांति ११, अवस्था १२, कर्क, उत्पात विगेरे १३, घंट १४, निर्बळ चंड १५, 5ष्ट योगो तथा अर्गल योग १६, गंगांत १७ तथा दग्ध अने रिक्ता विगेरे तिथि १७, श्रा नामना अढार दोषो जाणवा." अहीं ग्रहवमे मलिन श्रयेलुं नक्षत्र एटले क्रूरेण मुक्तमाक्रान्तं० (विमर्श ५. श्लोक १५) ए श्लोकमां कहेला दोषयी दूषित श्रयेवं अने वळी चंजना जोगववावमे हजु सुधी शुछ श्रयेलुं न होय एवं नक्षत्र. क्रूर वारे करीने क्रूर होरा पण Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ॥आरंनसिधि॥ अहीं जाणवी ( दोषमां गणवी ). ग्रहोर्नु जन्मनक्षत्र नरचितुत्तरे ए पूर्वोक्त श्लोकमां तथा विशाखाकृत्तिके० ए पूर्वोक्त श्लोकमां कहेढुं जाणवू. अर्धप्रहर अने कुलिकना दोष माटे सारंग कहे जे के-"यामार्धेन नवेलोपः कुलिकेन तनुश्यः "-"अर्धप्रहरमां कार्य करवायी शरीरनो शोष थाय ने अने कुलिक योगमां करवाथी शरीरनो क्षय (नाश) थाय बे.” तथा "लग्नं पञ्चचतुर्वर्ग इष्यते क्रूरहोरया । अपि षड्वर्गसंशुझं कुलिकेन विहन्यते ॥ १॥" "लग्न पांच के चार वर्ग करीने शुष होय तो ते क्रूर होराए करीने सूषण पामे के, अने ब वर्गे करीने शुद्ध होय तोपण ते कुलिके करीने हणाय -दूषित थाय " एम रलमालाना नाष्यमां कडं बे. ___ अहीं अर्धप्रहर अने कुलिक कहेवाए करीने काळवेळा, कंटक अने उपकुलिक पण जाणवा, तेथी ते पण शक्ति प्रमाणे त्याग करवा. उपग्रहे करीने मुष्ट रवियोगो पण अहीं जाणवा. क्रांतिए करीने सूर्यसंक्रांति तथा क्रांतिसाम्य ए बन्ने समजवा. अवस्थाए करीने चंजनी प्रोषित विगेरे दुष्ट अवस्था जाणवी. कर्क, उत्पात विगेरे, अहीं आदि शब्द ने माटे तिथि अने नत्रने आश्रीने तथा तिथि अने वारने आश्री उत्पन्न थता जे मृत्यु, काण, संवर्तक श्रने वज्रपात विगेरे योगो कहेला ते सर्वे अहीं जाणवा. घंट शब्दे करीने नामाए करीने सत्यनामानी जेम यमघंट योग जाणवो. अहीं यमघंटने जे जूदो पामीने गणाव्यो ते तेनुं अति दुष्टपणुं जणाववा माटे गणाव्यो बे. ते विषे लल्ल कहे के __ "यमघण्टे गते मृत्युः कुलोछेदः करग्रहे। कर्तुर्मृत्युः प्रतिष्ठायां शिशुर्जातो न जीवति ॥ १॥" "यमघंट योगमां जो प्रयाण कर्यु होय तो ते प्रयाण करनारनुं मरण थाय ने, विवाह कर्या होय तो कुळनो नाश थाय ने, प्रतिष्ठा करी होय तो प्रतिष्ठा करनार, मरण थाय ने, अने जो बाळकनो जन्म थयो होय तो ते बाळक जीवतो नथी एटले मरण पामे ले." निर्बळ चंखे करीने गोचरादिकवझे विरुष्प (अशुल ) चंने पण दूषित जाणवो, तथा कृष्णपक्षमां विरुष्ठ तारा पण दूषित जाणवी. उष्ट योगो विष्कल विगेरेमांना जाणवा. अर्गल एटले एकार्गल, श्रा योग विष्कंल विगेरे योगोमांना कुयोगोमांज संनवे , तेथी तेनी साश्रेज लण्यो . गंमांते करीने विवाहवृंदावन विगेरे ग्रंथोमां कहेलो तिथ्यादिकनो संधिदोष पण जाणवो. "दग्धरिक्ताप्रमुख" आ पदमां प्रमुख-आदि शब्द सख्यो ने तेथी पक्षविज, क्रूर तिथि, अवम तिथि तथा फटगु तिथि पण जाणवी. ते विषे सारंग कहे जे के Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३११ "सूर्योदये यथा तारा विनश्यन्ति समन्ततः। यथाग्निरम्बुना लग्नं तथा वृधिक्षये तिथिः (थे)॥१॥" "जेम सूर्यनो उदय थाय त्यारे चोतरफथी तारा नाश पामे , तथा जेम जळवमे करीने अग्नि लवाजाय ने तेम तिथिनी वृद्धि अथवा क्य थवाथी लग्न विनाश पामे बे." ___आ उपर कहेला अढार दोषो शुद्ध नत्रना बळे करीने गया लग्न विगेरेमां ज्यारे प्रतिष्ठा के दीदा विगेरे कार्य करवामां आवे ने त्यारे पण अवश्य वर्जवा योग्य मे, तो पठी घटिका लग्नने विषे त्याग करवामां तो शुं कहेवू ? अर्थात् अवश्य वर्जवाज जोशए. श्रा दोषोने मध्ये केटलाक दोषोनो नंगविधि पूर्वाचार्योए था प्रमाणे कह्यो बे. _ "लग्ने गुरुः सौम्ययुतेक्षितो वा, लग्नाधिपो लग्नगतस्तथा वा । कालाख्यहोरा च यदा शुना स्यानवेधदोषस्य तदा हि नङ्गः॥१॥" "विवाह समये गुरु सौम्य ग्रहे युक्त होय, अथवा सौम्य ग्रहनी तेना पर दृष्टि पमती होय, अथवा लग्ननो स्वामी होय अथवा लग्नमां रहेलो होय, तथा ज्यारे काळहोरा शुन (सारी) होय त्यारे नक्षत्रवेध नामना दोषनो नंग थाय बे, एटले के था दोष लागतो नथी." अहीं नत्रवेधनोज जंग कह्यो ने, तेथी नवना पाद वेधरूप दोषनो जंग थतो नथी एम जाणवू. वळी व्यवहारप्रकाशमां तो वेधने उलटो शुन पण कह्यो बे, ते या रीते. "सौम्यैश्चरणान्तरितः शुनः शुनैः केन्गैर्वेधः।" “पादोना अांतरामा रहेला सौम्य ग्रहोए करीने वेध शुक्ल ने तथा शुल (सौम्य) ग्रहो केंजस्थानमा रह्या होय तो वेध शुल बे." ॥ इति वेधदोषनंगः ॥१॥ "एकार्गलोपग्रहपातलत्ताजामित्रकर्तर्युदयादिदोपाः। लग्नेऽर्कचन्ज्य वले विनश्यन्त्यर्कोदये यमदहो तमांसि ॥१॥" "एकार्गल, उपग्रह, पात, लत्ता, जामित्र अने कर्तरीनो जदय ए विगेरे दोषो सूर्य, चंड अने गुरुए करीने बळवान् लग्न होय तो नाश पामे जे. जेम सूर्यना उदये अंधकार नाश पामे ने तेम." आ प्रमाणे सप्तर्षि कहे जे. तथा केटलाक आचार्यो कहे जे के "अंगेषु बंगेषु वदन्ति पातं, सौराष्ट्रयाम्ये खचरस्य सत्ताम् । उपग्रहं मालवसैन्धवेषु, गएकान्तयुक्तिं सकले पृथिव्याम् ॥१॥" "अंग तथा बंग देशमां पात दोष वर्जवानो कह्यो बे, सौराष्ट्र देश तथा दक्षिण देशमा ग्रहनी लत्ताने वर्जवानी कही बे, मालव अने सिंध देशमां उपग्रहने वर्जवानो कह्यो ने, तथा पृथ्वी पर सर्व स्थाने गंमांतने वर्जवानो कह्यो बे." वळी वामदेव तो आ प्रमाणे कहे . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ॥ आरंभसिद्धि ॥ " लत्तां बंगालदेशे च पातं कौशलिके त्यजेत् । उपग्रहं गौमदेशे वेधं सर्वत्र वर्जयेत् ॥ १ ॥” " बंगाल देशमां लत्तानो त्याग करवो, कोशल देशमां पातनो त्याग करवो, गौम देशमां उपग्रहनो त्याग करवो, छाने वेधनो सर्व देशमां त्याग करवो.” ॥ इति पात २ लत्तो ३ पग्रहै ४ कार्गलानां ए जंगः ॥ ५ ॥ "होराः क्रूराः सौम्यवर्गाधिके स्युर्लने भोघाः सौम्यवारे च रात्र्याम् । पापारिष्टं निष्फलं शक्तिजाजां, स्यात् षड्वर्गे लग्नगे सहाणाम् ॥ १ ॥” “लग्नमां सौम्य ग्रहोनो वर्गाधिक होय तो तथा सौम्य वारोमां छाने रात्रिमां क्रूर होरा निष्फळ या वे. लग्नमां सौम्य ग्रहोनो पडू वर्ग होय तो पुण्यवंताने पापी ग्रहोनुं अरिष्ट निष्फळ थाय बे. त्रिविक्रम प कहे बे के " क्रूरस्य कालहोरां च क्रूरवारे दिवा त्यजेत् ।" " क्रूरनी काळहोरा क्रूर वारने विषे दिवसे तजवी,” एटले के जो दिनवार क्रूर होय दिवसे कार्य कर होय तो क्रूर होरा तजवी, परंतु जो सौम्य ( शुज ) काळहोरा होय तो ते क्रूर वारना दोषनो नाश करे बे, माटे ते ग्रहण करवा योग्य बे, श्रने जो वारज सौम्य होय तो दिवसे अथवा रात्रिए होरा जोवानी कांइ जरुर नथी. ॥ इति सूर्येन्दुग्रहणवर्जग्रहम लिनोकु १ क्रूरवार होरा २ दोपयोगः ॥ ७ ॥ जन्मनक्षत्रना दोषनो जंग आगळ कहेवाता कर्कादिकना जंगनी जेमज जाणवो. ८. विष्टि दोषनो जंग बे नहीं. जो कदाच तेनो जंग होय तो "विष्टिपुत्रे ध्रुवं जयः " "विष्टिना पुमां कार्य करवाथी निश्चे जय थाय बे." इत्यादि जाणवु. ए. अवस्था दोषो जंग गळ शिवचक्रवमे कहेवाता निर्बळ चंद्रना दोषना जंगनी जेम जावो. १०. कर्क, उत्पात विगेरे दोषोनो जंग श्री रीते बे. - "योगास्तिथिवार जाता येऽमी प्रकीर्तिताः । लग्ने ग्रहबलोपेते प्रजवन्ति न ते क्वचित् ॥ १ ॥ यत्र लग्नं विना कर्म क्रियते शुजसंज्ञकम् । तत्रैतेषां हि योगानां प्रजावाजायते फलम् ॥ २ ॥ " " तिथि, वार ने नदत्रथी उत्पन्न थयेला जे कुयोगो कहेला बे ते ग्रहना बळे करीने युक्त एवा लग्नने विषे कोइ पण वखत समर्थ थता नथी - बाध करी शकता नथी, परंतु ज्यां लग्न विनाज शुभ कार्य करवामां आवे त्यांज श्रा योगो समर्थ होवाथी तेनुं फळ थाय बे" एम व्यवहारसारमां कह्युं बे. ॥ इति कर्कोत्पातादिदोषजंगः ॥ ११ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ यमघंटनी डूषित घमी प्रमाणे जाणवी - " पनरस १ तेर २ द्वारस ३ एगा ४ सग ए सत्त ६ छह घमिश्रा । जमघंटस्स उ पुछा रविमाइसु सत्तवारेसु ॥ १ ॥ " "रविवारथी श्ररंजीने सात वारोने विषे यमघंटनी दुष्ट घमी श्र प्रमाणे जाणवी - रविवारे पंदर घमी, सोमवारे तेर घमी, मंगळवारे अढार घमी, बुधवारे एक घमी, गुरुवारे सात घमी, शुक्रवारे सात घमी ने शनिवारे या घी तजवा योग्य बे." आ प्रमाणे श्रीहरि सूरिए कयुं छे. बीजा तो एम कहे बे के “ तिथि १९ रस ६ रुषा ११ म्बरगुण ३० सार्धया || चर्तु ६० खगुण ३० मितघटिकाः । त्याज्या घंटे व्यादिष्वाद्या उत्तरास्तु शनिबुधयोः ॥ १ ॥ " " रविवारे यमघंटनी पहेली पंदर घमीन तजवी, सोमवारे पहेली बघमी तजवी, मंगळवारे पहेली गीयार घमी, बुधवारे बेली त्रीश घमी, गुरुवारे पहेली सामीसात घमी, शुक्रवारे पहेली साठ घमी ने शनिवारे बेल्ली त्रीश घमी तजवा योग्य बे. " बाकीनी घमी दुष्ट एटले अशुभ नथी. ॥ इति यमघंटदोषजंगः ॥ १२ ॥ निर्बळ चंनो दोष "लग्ने गुरोर्वरस्य ० " ( विमर्श ए श्लोक ५ ) ए श्लोकमां कहेला पंदर प्रकार मांदेला कोइ पण प्रकारे करीने चंदनी अनुकूळता सर्वथा न थाय तो शिवचक्रना बळे करीने हणाय बे, केमके शिवचक्र चंद्रादिकना प्रतिकूळपणाने दो बे एम कह्युं बे. १३. विष्कंज विगेरे योगोमां जे दुष्ट योगो बे तेमनी दुष्ट घमीज श्रवश्य तजवानी बे, बीजी घमीर्ज तजवामां जेवी इला एम कह्युं बे, माटे ते दोषनो जंग प्रगटज बे. १४. गंगांत तो लग्न, तिथि अने नक्षत्रना त्रीजा त्रीजा जागने श्रांतरे थाय बे, तेथी ते दोषनी जंग नथी तथा सर्वे तिथि, नक्षत्रो ने योगोनी संधिमां जे संधि नामनो दोष कह्यो बे तेनो जंग श्र प्रमाणे बे. - आ० ४० "धिष्ण्यस्यादावन्ते त्यजेच्चतस्रो घटीः करग्रहणे । यदि शुद्धे धिष्ये विवाहयोग्ये तदा श्रेष्ठे ॥ १ ॥ " " पाणिग्रहणमां नक्षत्रनी आदिनी तथा अंतनी चार घमीठे तजवी, तेमां जो ते बन्ने नक्षत्रो विवाहने योग्य होय तो ते श्रेष्ठ बे. ( अर्थात् तेनी घमीर्ज तजवानी जरुर नथी. ) " एम व्यवहारप्रकाशमां कह्युं बे. तथा ३१३ "गुरुर्भृगुर्वाकेन्द्रे वा त्रिकोणे वा यदा भवेत् । सन्धिस्तिथिसन्धिश्च योगसन्धिर्न दोषदः ॥ १ ॥ येsये सन्धिकृता दोषास्ते सर्वे विलयं ययुः । इति प्रोक्तं तु गर्गेण वशिष्ठात्रिपराशरैः ॥ २ ॥” Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ॥ श्रारंसिधि॥ "गुरु के शुक्र जो केन्म के त्रिकोणस्थानमां होय तो नक्षत्रसंधि, तिथिसंधि श्रने योगसंधि ए दोषने देनारा थता नथी, तथा संधिए करेला जे बीजा दोषो होय ते पण नाश पामे , एम गर्गे, वशिष्ठे, अत्रिए अने पराशर शषिए कहुं बे." ॥ इति नतिथियोगादिसन्धिदोपलंगः ॥ १५॥ तिथिदोषनो नंग “तिथिरेकगुणा प्रोक्ता" (तिथि- फळ एक गुणुं बे) ए वचनधी स्पष्टज बे. अथवा “दिने बलवती तिथिः” (तिथि- बळ दिवसे होय ), "तिथ्यधै तिथिफलं समादेश्य" (तिथिना अर्धा लागमां तिथिचें फळ कहेवू)विगेरेटी जाणवू.१६.तथा “सर्वेषां तु कुयोगानां वर्जयेद् घटिकाध्यम् । उत्पातमृत्युकाणानां सप्त षट् पञ्च नामिकाः॥१॥" "सर्वे कुयोगोनी बबे घमी वर्जवी, उत्पात योगनी सात घमी, मृत्यु योगनी उ अने काण योगनी पांच घमी वर्जवी" एम नारचंजनी टिप्पणीमां कडं बे. केटलाएक मृत्यु योगनी बार घमी त्याग करवान कहे . तथा ___"यमघंटे नवाष्टौ च कालमुख्यां विवर्जयेत् । ___ दग्धे तिथौ कुवारे च नामिकानां चतुष्टयम् ॥ १॥" "यमघंटनी नव घमी अने काळमुखीनी भाउ घमी वर्जवी, तथा दग्ध तिथिमां अने कुवारमा चार चार धमी तजवी" एम पण केटलाएक कहे . तथा "कुतिहि कुवार कुजोगा विजी विश्र जम्मरिरक दहतिही। मन्नएहदिणा परं सर्व पि सुलं नवेऽवस्सं ॥१॥" __ "कुतिथि, कुवार कुयोग, विष्टि, जन्मनक्षत्र अने दग्ध तिथि ए सर्वे मध्याह्न पली अवश्य शुज थाय " एम हर्षप्रकाशमां कडं बे. लस पण कहे जे के "विट्यामङ्गारके चैव व्यतीपातेऽथ वैधृते । प्रत्यरे जन्मनक्षत्रे मध्याह्नात्परतः शुलम् ॥ १॥" “विष्टि, अंगारक, व्यतीपात, वैधृत, प्रत्यर ( सातमी तारा) अने जन्मनक्षत्र, श्रा दिवसोने विषे मध्याह्न पठीनो काळ शुल." अहीं "प्रत्यर" शब्दनो अर्थ सातमी तारा बे, श्रने तेना उपलहणथी त्रीजी, पांचमी अने श्राधान तारा पण जाणवी, तेथी करीने ते ताराउने विषे पण मध्याह्न पनीनो काळ शुन जाणवो. या प्रमाणे सामान्य रीते प्रतिष्ठामा घणा दोषोनो जंग कह्यो. . ॥इति सामान्येन प्रतिष्ठायां बहुदोषनंगः॥ हवे प्रतिष्ठामां बनना अंशनो नियम कहे जे.लग्नं श्रेष्ठं प्रतिष्ठायां क्रमान्मध्यमथावरम् । ध्यङ्ग स्थिरं च नूयोनिर्गुणैराढ्यं चरं तथा ॥ १५ ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३१५ अर्थ-जिनेश्वरनी प्रतिष्ठाने विषे विस्वलाव लग्न श्रेष्ठ बे, स्थिर खग्न मध्यम ने श्रने चर खग्न कनिष्ठ ने, परंतु ते चर लग्न जो अत्यंत बळवान् घणा शुल ग्रहोए करीने सहित होय तो ते पण त्रीजा नांगे ग्रहण करवा लायक . स्थापना नीचे प्रमाणे | दिस्वजाव । ३ । ६ । ए | १२ | उत्तम स्थिर ५ ५ ० ११ मध्यम चर १४७ १० थधम बीजा देवोनी प्रतिष्ठामां श्रा प्रमाणे लग्नो जाणवां. "सिंहोदये दिनकरो घटले विधाता, नारायणस्तु युवतौ मिथुने महेशः। देव्यो दिमूर्तिजवनेषु निवेशनीयाः, कुप्राश्चरे स्थिरगृहे निखिलाश्च देवाः ॥१॥" "सिंह लग्नमां सूर्यनी स्थापना करवी, कुंल लग्नमां ब्रह्मानी स्थापना करवी, कन्या लग्नमां विष्णुनी, मिथुन लग्नमां महादेवनी, विस्वन्नाववाळां लग्नमां देवीनी, घर लग्नमां कुष ( व्यंतर विगेरे ) देवोनी अने स्थिर लग्नमां बीजा सर्व देवो (इंसादिक)नी प्रतिष्ठा करवी" एम रत्नमाळामां कडं जे. वळी लत तो आम कहे जे. "सौम्यैर्देवाः स्थाप्याः करैर्गन्धर्वयदरक्षांसि ।। गणपतिगणाँश्च नियतं कुर्यात्साधारणे लग्ने ॥१॥" "सौम्य लग्नमां देवोनी प्रतिष्ठा करवी, क्रूर लग्नमां गंधर्व, यक्ष अने राक्षसनी प्रतिष्ठा करवी, तथा गणपति अने गणोनी स्थापना अवश्य साधारण लग्नमां करवी." अंशास्तु मिथुनः कन्या धन्वाद्यार्धं च शोजनाः । प्रतिष्ठायां वृषः सिंहो वणिग्मीनश्च मध्यमाः॥२०॥ अर्थ-प्रतिष्ठाने विष मिथुन, कन्या अने धननो प्रथम अर्ध एटला अंशो सारा (उत्तम ) , तथा वृष, सिंह, तुला अने मीन एटता अंशो मध्यम ले. धन अंशनो प्रथम अर्ध एटले ते लग्ननो अढारमो अंश जाणवो. वृष विगेरे अंशोने मध्यम कह्या तेनुं कारण ए जे जे देवर्नु अत्यंत पूज्यपणुं बतां पण ते अंशो देवालयना कर्ता तथा प्रतिष्ठा करनारने हानि करनारा बे. एम मध्यम कहेवाथीज सिद्ध थाय ने. बाकीना एटले मेष, कर्क, वृश्चिक, मकर अने कुंनना अंशो तथा धन अंशनो बेझो अर्ध नाग अधमज . ते विषे नारचंपनी टिप्पणीमां कडं जे के Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ॥ श्रारंसिद्धि "मेषांशे स्थापितो देवो वह्निदाहलयावहः ।। वृषांशे म्रियते कर्ता स्थापकश्च शतुत्रये । मिथुनांशः शुलो नित्यं जोगदः सर्वसिद्धिदः ३ ॥१॥ षट्पदी ॥" ___ "मेषांशमां देवनी प्रतिष्ठा करवाथी अग्निना दाहरूप जय उत्पन्न थाय ने १, वृषांशमां स्थापना करवाथी प्रतिष्ठाना कर्ता गुरु तथा स्थापना करनारनुं त्रण शतुमां एटले मासनी अंदर मृत्यु थाय डे २, अने मिथुनांश निरंतर शुन्न ने, नोगने श्रापनार बे, अने सर्व सिधिने करनार डे ३.” "कुमारं तु हन्ति कर्कः कुलनाश तुत्रये । विनश्यति ततो देवः षभिरब्दैन संशयः ॥२॥" "प्रतिष्ठामा जो कर्काश लीधो होय तो ते कुमारने ( प्रतिष्ठा करनारना पुत्रने ) हणे बे, अने त्रण ऋतुमां एटले उ मासमां तेना कुळनो नाश थाय बे. त्यारपती उ वर्षनी अंदर देव (प्रतिमा )नो पण नाश थाय , तेमां संशय नथी.” । "सिंहांशे शोकसंतापः कर्तृस्थापकशिपिनाम् ।। संजायते पुनः ख्याता लोकेऽर्चा सर्वदैव हि ५॥३॥" "सिंहांशमां स्थापना करवाथी प्रतिष्ठाकारक गुरु, स्थापना करनार श्रने शिल्पी ( कारीगर )ने शोक संताप उत्पन्न थाय ने, परंतु ते प्रतिमा सर्वदा लोकमां प्रसिधिने पामे बे-पूजाय ." "लोगः सदैव कन्यांशे देवदेवस्य जायते । धनधान्ययुतः कर्ता मोदते सुचिरं नुवि ६॥४॥" "कन्यांशमा प्रतिष्ठा करवाथी सर्वदा देवाधिदेवने नोग ( पूजा ) प्राप्त थाय ने, श्रने प्रतिष्ठा करनार धन धान्यश्री युक्त अश्ने चिर काळ सुधी पृथ्वी पर श्रानंद पामे ." "उच्चाटनं नवेत् कर्तुबंधश्चैव सदा नवेत् । __स्थापकस्य नवेन्मृत्युस्तुखांशे वत्सरघये ७ ॥५॥" ___ "तुलांशमां प्रतिष्ठा करवाथी प्रतिष्ठाकारक गुरुर्नु उच्चाटन (नाश ) थाय ने, श्रने निरंतर तेनो बंध थाय , तथा बे वर्षनी अंदर प्रतिष्ठा करनार, मरण थाय ने." "वृश्चिके च महाकोपं राजपीमासमुनवम् । अग्निदाहं महाघोरं दिनत्रये विनिर्दिशेत् ॥ ६॥" १ 'मेषांशे स्थापितं बिम्बं वह्निदाहभयावहं ।' इत्यपि प्रत्यन्तरे. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३१७ "वृश्चिकांशमां प्रतिष्ठा करी होय तो त्रण दिवसमां राजपीमाथी उत्पन्न थयेलो महाकोप तथा महा भयंकर अग्निनो दाह थाय एम कहेवू." “धन्वांशे धनवृधिः स्यात् सनोगं च सदा सुरैः। प्रतिष्ठापककर्तारौ नन्दतः सुचिरं नुवि ए॥७॥" "धनांशमां प्रतिष्ठा करवाथी धननी वृद्धि थाय ने, अने निरंतर देवो पासेथी सारा लोग प्राप्त थाय , तथा प्रतिष्ठा करनार अने आचार्य चिर काळ सुधी पृथ्वी पर आनंद पामे ." "मकरांशे नवेन्मृत्युः कर्तृस्थापकशिपिनाम् । वज्रास्त्राचा विनाशस्त्रिनिरब्दैन संशयः १०॥७॥" "मकरांशमां प्रतिष्ठा करी होय तो प्रतिष्ठापक आचार्य, प्रतिष्ठा करावनार तथा शिल्पीनुं मृत्यु श्राय , तथा त्रण वर्षनी अंदर वज्रश्री के शस्त्रधी तेनो (बिंबनो) नाश थाय बे, तेमां कां पण संशय नथी." । “घटांशे निद्यते देवो जलपातेन वत्सरात् ।। जलोदरेण कर्ता च त्रिनिरन्दैर्विनश्यति ११॥ए॥" "कुंलांशमां प्रतिष्ठा करी होय तो एक वर्षनी अंदर जळना पम्वाथी देव (प्रतिमा) जेदाय बे-नाश पामे ,अने प्रतिष्ठा करनार त्रण वर्षमां जलोदरना व्याधियी नाश पामे ." “मीनांशे त्वच॑ते देवो वासवाद्यैः सुरासुरैः।। मनुष्यैश्च सदा पूज्यो विना कारापकेन तु १२॥१०॥" "मीनांशमां प्रतिष्ठा करवाथी ते देव (प्रतिमा) इं विगेरे सुर असुरोए पूजाय , तथा करावनार विना बीजा सर्व मनुष्योए पण सदा पूजाय ,अर्थात् करावनार मरण पामे ." रतमाळामां तो मंगळने वर्जीने बीजा सर्वे ग्रहोना ब वर्गो प्रतिष्ठामा शुन्न कह्या . हवे दीक्षाने विष लग्नांशो कहे जे.व्रताय राशयो ट्यगाः स्थिराश्चापि वृषं विना । मकरश्च प्रशस्याः स्युर्खग्नांशादिषु नेतरे ॥१॥ अर्थ-दीक्षाने विषे, खग्नमां तथा नवमांशमां विस्वन्नाव राशि, वृष विनानी स्थिर राशि अने मकर राशि, एटली राशि शुन्न . ते सिवायनी बीजी राशि शुन नथी. अर्थात् मिथुन, सिंह, कन्या, वृश्चिक, धन, मकर, कुंल अने मीन, ए श्राउ राशि शुन बे, बीजी मेष, वृष, कर्क थने तुला ए चार राशि लग्नमां, नवांशोमां अने “आदि" शब्द कह्यो माटे वादशांशमां पण त्याग करवा लायक . ते विषे नारचंडमां कडं ने के Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ॥ श्रारंसिद्धि। "नृगोरुदय १ वारां ५ श ३ नवने पक्षण ५ पञ्चके । चन्नांशो १ दय ३ वारे च ३ दर्शने च ४ न दीदयेत् ॥१॥" "शुक्रनो उदय एटले शुक्र लग्नमां रह्यो होय १, शुक्रवार २, लग्नमां शुक्रनो नवांशो ३, शुक्रर्नु नवन वृष अने तुला ध, तथा शुक्रनुं ईक्षण एटले संपूर्ण दृष्टिवमे शुक्र लग्नने के सातमा स्थानने जोतो होय ५, था पांच वखते दीक्षा देवी नहीं. तथा चंजनो अंशचंधनो नवांशो १, चंजनो उदय एटले चं लग्नमां रह्यो होय २, चंनो वार-सोमवार ३, तथा चंनुं दर्शन , आ चार वखते दीक्षा लग्न देवू नहीं.” ए प्रमाणे उ वर्गनी शुद्धि जाणवी. तथा जीवमन्दबुधार्काणां षड्दर्गो वारदर्शने। ___शुजावहानि दीक्षायां न शेषाणां कदाचन ॥ १॥" "गुरु, शनि, बुध अने सूर्यनो षड्वर्ग, वार अने दर्शन एटले दृष्टि, एटलां दीक्षाने विषे शुन्न ने, श्रने बीजा (चंड, मंगळ अने शुक्र )ना षड्वर्गादिक कदापि शुल नथी."वळी हर्षप्रकाशमां तो वृषांश शुक्रवारे होय तोपण ते वर्गोत्तम होवाश्री शुक्ल कह्यो . कहुं ने के "मेसविसाणं मुत्तूण सेसरासीण पंचमे अंसे ।। न य दिस्किज ज सो विणसइ तह तह पउँगाउँ ॥१॥" "मेष धने वृषना पांचमा अंश विना बीजी राशिना पांचमा अंशमां दीक्षा देवी नहीं, कारण के ते तथा तथा प्रयोगथी नाश पामे." हवे विवाहमा लग्न अने अंश विगेरे कहे .विवाहे नाग्रहः कोऽपि लग्नानामिह केवलम् । नवांशा धनुराधार्धयुग्मकन्यातुलाः शुन्नाः॥१२॥ अर्थ-विवाहने विषे लग्ननो कां पण श्राग्रह नथी. अहीं तो केवळ धननो पूर्वार्ध, मिथुन, कन्या अने तुला एटली राशिना नवांशोज शुन्न . श्राग्रह एटले अमुक .लग्नो ग्रहण करवां अने अमुक खन्नो त्याग करवां एवो जे नियम ते * आग्रह कहेवाय जे. जेम प्रतिष्ठा अने दीक्षामां लग्न संबंधी नियम के तेम विवाहमां खास नियम नथी. केवळ था विवाहना विषयमा गमे ते लग्न हो, परंतु नवांशो तो उपर कहेलाज मनुष्य जाति होवाथी ग्रहण करवा. बीजा ग्रहण करवा नहीं. रत्नमाळानाष्यमां कडं वे के-“मनुष्यांशेन्योऽन्यत्रासती दरिजा च स्यात्" "मनुष्य जातिना अंशोथी अन्य अंशोमां विवाह करवाथी ते स्त्री असती अने दरिन थाय ने." वळी केटलाक कहे जे के-"धनुषि परानवयुक्ता" "धनांश खन्न करवायी Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३१ए परलेली स्त्री पराजवे करीने युक्त थाय बे," परंतु ग्रंथकारना मतमां तो धननो उत्तरार्धज विरुद्ध बे ने पूर्वार्ध तो मनुष्य जाति बे, तेथी शुज बे. वळी रत्नमाळामां तो लग्ननो पण नियम या प्रमाणे कह्यो बे. - "कन्या नृयुग्मं च वणिग्विलग्ने, स्थितो विवाहः शुजमादधाति ।” "जो लग्नमां कन्या, मिथुन के तुला राशि रही होय तो तेमां करलो विवाह शुभकारक बे." आ लग्नोमां पण नवांशानो नियम उपर कह्या प्रमाणेज जाणवो. ते विषे जास्कर कहे बे के— "निन्द्येऽपि लग्ने दिपदांश इष्टः, कन्यादिलग्नेष्वपि नान्यजागः । " "लग्न निंद्य (अशुभ) होय तोपण मनुष्यना नवांशाज इष्ट बे, अने कन्यादिक लग्नमां पण बीजो ( मनुष्य सिवायनो ) अंश इष्ट नथी.” वळी व्यवहारप्रकाशमां तो या प्रमाणे कहे बे. - "धन्वांशो न बुधास्ते जौमास्ते नो तुलांशकः कार्यः । न तुलांशश्वरलग्ने देयस्तुलमकरसंस्थेन्दौ ॥ १ ॥ " "बुधनो अस्त होय तो धननो नवांशो लेवो नहीं, मंगळनो अस्त होय त्यारे तुलनो देवो नहीं, ने तुल तथा मकरनो चंद्र होय त्यारे चर लग्नमांतुलनो अंश देवो नहीं." वे सर्व (त्रणे ) प्रकारनां लग्नने विषे साधारण नियम कहे बे. - क्रूरमध्यस्थ शुक्रकूराश्रितनौ । - ष्ट लग्नविधू केन्द्रस्थितसौम्यौ तु तौ मतौ ॥ २३ ॥ अर्थ - (प्रतिष्ठा, दीक्षा ने विवाह ) ने विषे बे क्रूर ग्रहनी मध्यमां ( वच्चे ) जो लग्न के चंद्र रहेलो होय तो ते इष्ट ( शुज ) नथी. तथा लग्न के चंद्रथी सातमुं स्थान शुक्र के क्रूर ग्रहे आश्रित कर्यु होय तो ते पण इष्ट नथी, परंतु जो लग्न के चंद्रथी केंद्रनां चारे स्थानमां सौम्य ग्रहो रह्या होय तो ते ( लग्न अने चंद्र ) इष्ट बे. ने विषे एटले प्रतिष्ठा, दीक्षा ने विवाहने विषे बे क्रूर ग्रहनी मध्यमां रहेला जो लग्न के चंद्र होय एटले के लग्ननी बन्ने बाजुए एटले बीजा ने बारमा स्थानने विषे क्रूर ग्रहो होय, ने तेज रीते चंद्रनी पण बन्ने बाजुए क्रूर ग्रहो होय तो श्रा बन्ने प्रकारे क्रूर कर्तरी कदेवाय बे. या प्रत्येक क्रूर कर्तरी ऋण ऋण प्रकारनी बे- अति दुष्टा १, टाप दुष्टा ३. तेमां जो धन एटले बीजा स्थानमा रहेलो क्रूर ग्रह वक्री होय, अने व्यय ( बारमा ) स्थानमा रहेलो क्रूर ग्रह मध्यम गतिवाळो होय तो Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ॥ श्रारंसिधि॥ बन्ने बाजुश्री संघट्टो थवाथी (लग्ननी साथे अथमावाथी ) ते क्रूर कर्तरी अति दुष्ट कहेवायचे. तेनी स्थापना या प्रमाणे. २मं. १२श. ज्यारे व्यय (बारमा )स्थानमा रहेलो क्रूर ग्रह अतिचारवाळो ( शीघ्र गतिवाळो) होय त्यारे ते क्रूर कर्तरी विशेषे करीने अति उष्ट जाणवी, केमके तेनो संघहो शीघ्रपणे थाय ने माटे. १. ज्यारे धन (२) अने व्यय (१२) बन्ने स्थानमा रहेला क्रूर ग्रहो मध्य गतिवाळा होय, अथवा ते बन्ने स्थानमा रहेला क्रूर ग्रहो वक्र गतिवाळा होय तो ते क्रूर कर्तरी मध्यम उष्ट बे, कारण के लग्नने एक बाजुश्रीज संघट्टो थाय बे. २. परंतु ज्यारे धन (२) स्थानमा रहेलो क्रूर ग्रह मध्यम गतिवाळो होय आने व्यय (१३) स्थानमा रहेलो वक्री होय त्यारे ते क्रूर कर्तरी अटप पुष्ट जाणवी, कारण के ते बन्ने बाजुनी कर्तरीनो वियोग थाय बे. तेमां पण जो धन (२) स्थानमा रहेखो क्रूर ग्रह अतिचारी (शीघ्र गतिवाळो) होय तो ते विशेषे करीने अटप 5ष्ट बे, कारण के तेनो शीघ्रपणे वियोग थाय जे. ३. आनी नावना उपर आपेली स्थापनाने विषे स्वयं करी खेवी. एज प्रमाणे चंजनी बन्ने बाजुए क्रूर ग्रहो रहेला होय तो तेनी पण त्रणे प्रकारनी क्रूर कर्तरी जाणी लेवी. अहीं आ प्रमाणे विशेष - "क्रूरग्रहस्यान्तरगा तनुज़वेन्मृतिप्रदा शीतकरश्च रोगदः । शुलैर्धनस्थैरथवाऽन्त्यगे गुरौ, न कर्तरी स्यादिह नार्गवा विपुः ॥१॥" "त्रिकोणकेन्गो गुरुस्त्रिलानगो रविर्यदा।। तदा न कर्तरी नवेजगाद बादरायणः ॥२॥" "बे क्रूर ग्रहनी मध्ये लग्न रह्यु होय तो ते ( कर्तरी ) मृत्युने करे , अने चंड रह्यो होय तो ते रोगने करे , परंतु धन (२) स्थानमा शुन ग्रह रह्या होय अथवा बारमा स्थानमा गुरु रह्यो होय तो कर्तरी थती नथी एम नार्गव कहे . (१). ज्यारे त्रिको मां के केंजमां गुरु रह्यो होय, अनेत्रीजा तथा अगीयारमा स्थानमा रवि रह्यो होय त्यारे पण कर्तरी अती नथी एम बादरायण (व्यास ) कहे . २." वळी जो कदाच बीजु लग्न नहीं मळवाथी क्रूर कर्तरीनो त्याग थर शके तेम न होय तो खननी बन्ने बाजुना पंदर पंदर त्रिंशांशोनी अंदर जो क्रूर ग्रहो श्रावता होय तो ते Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३२१ क्रूर कर्तरी अवश्य तजवा योग्य बे. एज रीते चंडना विषयमां पण जावं. ते विषे व्यवहारप्रकाशमां कहां बे के " पूर्व पश्चात् पापातिथ्यंशा १५ घाटमध्यगश्चन्द्रः । वर्जयितव्या योगे यस्माषाश्यंशरश्मियुतिः ॥ १ ॥” "चंदनी पूर्वे ने पीना पंदर अंशोनी अंदर जो पाप ग्रहरूपी कर्तरी होय तो ते वर्जवी, कारण के ते राशि ने शनी कळानी युति कहेवाय बे. " मूळ श्लोकमां शुक्रक्रूर० एम कह्युं वे तेनो अर्थ या प्रमाणे बे-लग्नथी के चंद्रथी जो सातमा स्थानमां शुक्र के क्रूर ग्रह होय तो ते जामित्र नामनो दोष कहेवाय बे. विषे सारंग हेबे के "उदयात्सप्तमसंस्थे शुक्रे सूर्येऽथवा शनौ राहौ । वैधव्यं क्षितितनये सप्तमगे कन्यका म्रियते ॥ १ ॥ " “लग्नथी सातमे स्थाने शुक्र, सूर्य, शनि के राहु रह्यो होय तो ते स्त्रीने विधवाप प्राप्त थाय बे, छाने सातमे स्थाने मंगळ रह्यो होय तो ते विवाहित कन्या मरण पामे बे." तथा " सुकं १ गारय २ मंदा ३ सत्तमे ससहरे गहियादिरको । पीजिए वस्सं सत्थ कुसलत्त २ वाहीहिं ३ ॥ १ ॥ " "शुक्रथी सातमे स्थाने चंद्र होय तो तेवा लग्नमां दीक्षित थयेलो शस्त्रवने अवश्य पीमा पामे बे, मंगळथी सातमो चंद्र होय तो कुशीळपणाथी पीमाय बे, अने शनिथी सातमो चंद्र होय तो व्याधिथी पीकाय बे" एम लग्नशुद्धि मां कह्युं बे. तथा “शुक्रार्कशनिनौमानां सप्तमेन्दौ विवाहिता । ससापल्या १ च विधवा २ निष्पुत्रा ३ स्वैरिणी ४ क्रमात् ॥ १ ॥” "शुक्रथी सातमे चंद्र होय तेवे समये कन्यानो विवाह कर्यो होय तो ते सपत्नी ( शोक्य )वाळी थाय बे, सूर्यथी सातमो चंद्र होय तो ते विधवा थाय बे, शनिथी सातमो चंद्र होय तो ते पुत्ररहित थाय बे, छाने मंगळथी सातमे स्थाने चंद्र होय तो ते कुलटा थाय बे" एम दैवज्ञवल्लजमां कह्यं बे. अहीं कोई ठेकाणे राहुने माटे कां विशेष कां नथी, तेथी। तेनुं फळ शनिनी प्रमाणे जाणवुं विशेष ए बे के " ग्रहौ यदि जामित्रे क्रूरौ सौम्यौ च संस्थितौ । छन्दत्रयेण दारिद्र्यं कन्या पाप्नोति दारुणम् ॥ १ ॥ "जो जाभित्र स्थानमां वे क्रूर ग्रहो अने वे सौम्य ग्रहो रहेला होय तो ते कन्या त्रण वर्षमां जयंकर दारिद्र्य पामे बे” एम दैवज्ञवलमां कह्युं बे. आ० ४१ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ॥आरंलसिद्धि ॥ __ मूळ श्लोकमा जे शुक्रक्रूर० कडं ने तेनो अपवाद मूळ श्लोकमांज केन्द्रस्थित ए विगेरे पदोथी कहे .-लग्नथी अने चंथी जो चारे केन्षस्थानमा सौम्य ग्रहो होय तो शुक्र के क्रूर ग्रहे श्राश्रय करेखा सातमा स्थानवाळा लग्न अने चंग शुल मानेला , एटले के कोश्क वखत आदर करवा लायक पण जे. वळी सारंग तो चंथी केन्छस्थानमा रहेला क्रूर ग्रहनो दोष या प्रमाणे कहे बे. "खन्ना १ म्बु ५ सप्त ३ व्योम ४ स्थो नवेत्क्रूरग्रहो विधोः। आपीमा १ चैव संपीमा २ नृग्वाद्या ३ वर्तिताः ४ क्रमात् ॥ १॥ श्रात्मनो १ बन्धुवर्गस्य २ जायायाः ३ कर्मणः ४ क्रमात् । विनाशो जायते नूनं तपेवाकार्यकारिणः ॥२॥" __चंथी पहेले १, चोथे २, सातमे ३ अने दशमे ४ स्थाने जो क्रूर ग्रह रह्यो होय तो ते अनुक्रमे आपीमा १, संपीमा २, ऋग्वादिक ३ अने वर्तिता । एवे नामे कहेवाय जे. ते वेळाए कार्य करवाथी अनुक्रमे पोतानो १, बंधुवर्गनो २, स्त्रीनो ३ अने कर्मनो ४ नाश थाय बे." एटले के चंथी पहेले स्थाने क्रूर ग्रह होय तो ते आपीमा कहेवाय बे, अने तेनुं फळ आत्मानो नाश . विगेरे. अहीं कोस्ने शंका थाय के-आ स्थळे लग्न अने चंजना गुण तथा दोष सरखा केम कह्या ? श्रा शंकानो जवाब ए जे जे "लग्नबलाचारीरं चन्बलान्मानसं ग्रहाः सर्वे । दधुलोवाश्रयजं शुन्नमशुलं वा फलं नियमात् ॥१॥" "सर्वे ग्रहो लग्नना बळथी शरीर संबंधी अने चंजना बळथी मन संबंधी जावना श्राश्रयश्री उत्पन्न थतुं शुज अथवा अशुल फळ अवश्य आपे " एम व्यवहारप्रकाशमां कडं बे. हवे चंथी सातमा स्थानमा रहेला क्रूर ग्रहथी उत्पन्न थता जामित्र नामना दोषनो जंग कहे . गुरुर्बुधश्च शीतांशुसप्तमक्रूरदोषहृत् । पुष्टयेन्दु हशा पश्यन् लग्न रखा १० म्बु त्रिकोण ए-५गः॥२४॥ अर्थ-लग्नमां, दशमा स्थानमां, चोथा स्थानमां के त्रिकोण (ए-५)मां रहेलो गुरु अथवा बुध जो पुष्ट दृष्टिए करीने चंधने जोतो होय तो ते चंथी सातमा स्थानमा रहेला क्रूर ग्रहथी उत्पन्न थता दोषने हरण करे बे. अहीं पुष्ट दृष्टिए करीने एटले संपूर्ण दृष्टिए अथवा त्रिपाद दृष्टिए करीने एम जाणवू. हवे दीक्षासमये चंनी साथे रहेला बीजा ग्रहोगें फळ कहे जे. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ दीक्षायां कुरुते चन्छः क्रमानौमादिनिर्युतः। कलिं १ नियं २ मृतिं ३ नैःस्व्यं प्रतिपदं ५ नूमिभृनयम् ६ ॥२५॥ अर्थ-दीक्षासमये जो चंज मंगळनी साथे रह्यो होय तो ते क्लेशने करे , बुधनी साथे रह्यो होय तो नयने करे , गुरुनी साथे रह्यो होय तो मृत्युने करे , शुक्रनी साथे होय तो निधनपणुं करे ने, शनिनी साथे होय तो विपत्तिने करे बे, अने सूर्यनी साथे रह्यो होय तो ते राजनय उत्पन्न करे . मंगळथी श्रारंजीने सूर्य सुधी अनुक्रमे क्लेश विगेरे उपर कहेला फळो जाणवां. विशेष ए जे जे "नीचेऽस्तं वाप्ते" (विमर्ष ५, श्लोक ३) ए ठेकाणे ग्रहोना अस्तमयना विपयमां जे काळांशो कहेला तेमना अर्ध नागमां जो ग्रहोनो योग होय तो ते योग इषित बे, अने जो ते ग्रहो ते काळना अर्ध विनागने पाम्या न होय अथवा तेने उलंघन करी गया होय तो कहेला दोषो उत्पन्न थाय खरा, परंतु ते दोषो पाग निवृत्ति पण पामे बे. ते विषे शौनक कहे डे के "योगा यथोक्तफलदाः कालार्धविनागसंश्रितानां तु । . अप्राप्तातीतानामिलामात्रं फलं तेषाम् ॥१॥" "काळना अर्ध विनागने आश्रय करेला (पामेला ) ग्रहोना योगो कह्या प्रमाणे फळने आपनारा होय बे, परंतु ते अर्ध विनागने पाम्या न होय अथवा तेने उलंघन करी गया होय तो ते योगोनुं फळ श्लामात्रज बे." हवे विवाह श्रने दीक्षा ए बन्नेनो साधारण नियम कहे .विवाहदीदयोलग्ने यूनेन्यू ग्रहवर्जितौ।। शुनौ केचित्तु जीवझयुक्तमिन्दं शुनं विपुः॥१६॥ अर्थ-विवाह तथा दीक्षाना लग्नमांसातमुं स्थान तथा चंग ए बन्ने स्थान ग्रहे करीने रहित होय तो ते शुल बे. केटलाएक तो गुरु अने बुधे करीने युक्त एवो चंच होय तो तेने शुल कहे . सातमुं स्थान ग्रहे करीने रहित होय तो ते शुन बे. तेने माटे सप्तर्षि कहे जे के "वैधव्यं १ सापत्न्यं २ वन्ध्यात्वं ३ निष्प्रजत्वं ४ दौ ग्यम् ।। __वेश्यात्वं ६ गर्नच्युति ७ रर्काद्या लग्नतोऽस्तगाः कुर्युः ॥१॥" "लग्नथी सातमे स्थाने सूर्य रहेलो होय तो ते विवाहित श्रयेली कन्याने विधवापj करे , चंज रह्यो होय तो सपत्नी (शोक्य )ने करे , मंगळ रह्यो होय तो वंध्यापर्यु करे , बुध रह्यो होय तो प्रजारहितपणुं (वंध्यापऍ)करे ,गुरु रह्यो होय तो उर्लाग्यपणुं करे , शुक्र रह्यो होय तो वेश्यापणुं करे , अने शनि रह्यो होय तो गर्नपात करे जे." Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ॥श्रारंसिद्धि॥ चंड पण एकलोज रह्यो होय तो ते शुन्न . केटलाएक बुध अने गुरु सहित एवा चंजने शुन कहे चे, कारण के ते बुध श्रने गुरु सिवायना बीजा ग्रहोनी साथे रहेला चंजनुं फळ आ प्रमाणे कहे . "रविणा १ सणि २ नोमेहिं ३ सुक्क । केऊहिं ५ राहुणा ६। एगरासिगए चंदे जुझ्दोसो पवुच्चश्॥१॥ दरिद्दा १ समणी २ चेव मरणं ३ ससवत्तिा ।। कवालिणी अ५ पुस्सीला ६ कमा नारी विवाहिया ॥२॥" ___“चं जे राशिमा ( स्थानमां ) रह्यो होय तेज राशिमां जो रवि १, शनि २, मंगळ ३, शुक्र ४, केतु ए के राहु ६ रह्यो होय तो ते युति दोष कहेवाय जे. ते युति दोषमां विवाहित थयेली नारी अनुक्रमे या प्रमाणे फळ पामे .-रविनी युति होय तो ते स्त्री दरिख थाय ने १, शनिनी युति होय तो ते साध्वी थर जाय बे २, मंगळनी युति होय तो ते मरण पामे डे ३, शुक्रनी युति होय तो ते सपत्नीवाळी थाय डे ४, केतुनी युति होय तो ते कापालिनी (परिव्राजिका ) थाय ने ५, अने राहुनी युति होय तो ते कुशीळवाळी ( कुलटा) थाय ने ६.” शुक्र श्रने चंजनी युति विवाहने विष सर्वथा त्याग करवा योग्य वे एम व्यवहारसारमा कडं बे, पण सत्यसूरि तो आ प्रमाणे कहे . "अन्यतेऽन्यगृहे वा कुजबुधगुरुशुक्रशौरिलिः सार्धम्। न नवति दोषाय शशी प्रदक्षिणं याति यदि चैषाम् ॥१॥" "अन्य नक्षत्रमा के अन्य स्थानमा मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र के शनिनी साथे चंजमा रह्यो होय, अने वळी जो ते चं ते मंगळादिकनी दक्षिण ( जमणी ) बाजुए चालतो होय तो ते चंग दोषने माटे नथी." विशेषमां दैवज्ञवसन कहे जे के-"ध्याद्यैः क्रूरैर्युते चन्छे व्यसुः प्रव्रजितः शुलैः।" "बे अथवा तेथी अधिक क्रूर ग्रहोए करीने अथवा सौम्य ग्रहोए करीने युक्त एवो चंड होय त्यारे जो दीक्षा सीधी होय तो ते मरण पामे बे." ___ उपर त्रेवीशमा श्लोकमां लग्नथी के चंथी सातमा स्थानमां शुक्र के क्रूर ग्रह रह्यो होय तो तेने जामित्र दोष कह्यो बे, ते दोषनो मतांतरे करीने अपवाद (जंग) कहे जे. पञ्चपञ्चाशमेवांशं जामित्रं परमं परे। अंशाज्फन्ति लग्नेन्छोर्गर्हितग्रहदूषितम् ॥ ७ ॥ अर्थ-केटलाक आचार्यों कहे जे के लग्न अने चंजनो जे अंश कार्य वखते अधि Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३२५ कार कर्यो होय ते अंशथी पंचावनमोज अंश निंदित ( शुक्र के क्रूर ) ग्रहे करीने दूषित होय तो ते परम जामित्र नामनो दोष बे, माटे तेनो त्याग करवो. लग्न ने चंना अधिकार करेला अंशथी पंचावनमोज अंश निंदित ग्रहे करी युक्त होय तो ते निंदित ग्रहनाज कारणथी परम जामित्र नामनो दोष थाय बे, माटे तेनेज केटलाक आचार्यो तजे बे-तजवानुं कहे बे. जावार्थ ए बे जे-जेटलामो नवांश लग्नने विषे अधिकार ( स्वीकार ) कर्यो होय तेटलामोज सातमा स्थाननी राशिमा रहेलो नवांशो पंचावनमो होय बे. तेज रीते चंद्र पण जे राशिमां जेटलामा नवांशामां होय ते राशिथी सातमी राशिनो तेटलामो नवांशो चंद्रना नवांशाथी पंचावनमो होय बे, तेथी लग्नना अंशथी अथवा चंद्रना अंशथी पंचावनमा नवांशामां जो क्रूर ग्रह के शुक्र होय तो ते परम जामित्र नामनो दोष थाय बे. जेम मेष राशिना पहेला शमां लग्न अथवा चंद्र होय अने तुलाना पहेला अंशमां क्रूर ग्रह के शुक्र होय, अथवा मेषना बीजा अंशमां लग्न के चंद्र होय अने तुलाना पण बीजा अंशमां क्रूर ग्रह के शुक्र होय, अथवा एज रीते त्रीजा, चोथा विगेरे अंशोमां ते ते प्रमाणे होय तो ते अवश्य तजवा योग्य बे. कह्युं बे के "लग्नेन्डुसंयुतादंशात् पञ्चपञ्चाशदंशके । ग्रहोऽन्यो यद्यसौ दोषो न गुणैरपि हन्यते ॥ १ ॥ " "लग्न के चंद्रना अधिकार करेला अंशथी पंचावनमा अंशने विषे जो कोइ ग्रह श्रावतो होय, अने जो ते दोषरूप यतो होय तो ते दोष बीजा गुणोए करीने प हणतो नथी” एम दैवज्ञवजमां कह्युं बे, परंतु जो पंचावनमा शंथी न्यून अथवा अधिक शुक्र के क्रूर ग्रह होय तो ते जामित्र नामनोज दोष कहेवाय बे, पण ते परम जामित्र थतो नथी. जेमके मेष राशिना त्रीजा अंशमां लग्न के चंद्र होय, अने तुलाना पहेला के बीजा श्रंशमां शुक्र के क्रूर ग्रह होय त्यारे ते त्रेपनमो के चोपनमो शथयो, अने ज्यारे मेषना पहेला अंशमां लग्न के चंद्र होय, अने तुलाना बीजा, त्रीजा के चोथा अंशमां क्रूर ग्रह के शुक्र होय त्यारे ते मेषना पहेला अंशथी बप्पनमो, सत्तावन के घावनमो अंश थयो. विगेरे स्थळे केवळ जामित्र दोष थाय बे, श्रने दोष अत्यंत दुष्ट नथी एवो तेनो मत बे. आ मत घणाने पण संमत बे. वे प्रतिष्ठाने श्रीने ग्रहोनी युति ने दृष्टिनुं फळ कहे बेस्थापने स्युर्विधौ युक्ते दृष्टे चाऽऽरादिनिः क्रमात् । अमिनी १ रुद्धि २ सिद्धार्चा ३ श्री ४ पञ्चत्वा ५ ग्निजीतयः ६ ॥ २८ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ॥ आरंसिधि॥ अर्थ-प्रतिष्ठाने विषे जो चंड मंगळे करीने युक्त अथवा दृष्ट (जोयेलो) होय तो अग्निनो नय थाय १, बुधे करीने युक्त के दृष्ट होय तो समृद्धि प्राप्त थाय २, गुरुए करीने युक्त के दृष्ट होय तो सिद्धार्चा एटले प्रतिमा अधिष्ठायक देव सहित (प्रनाववाळी) थाय ३, शुक्रे करीने युक्त के दृष्ट होय तो लदमी प्राप्त थाय , शनिए करीने युक्त के दृष्ट होय तो मृत्यु थाय ५, अने रविए करीने युक्त के दृष्ट होय तो अग्निनो जय थाय ६. वळी "गुरुणा सर्वपूजिता-" "चं जो गुरुए करीने युक्त के दृष्ट होय तो ते प्रतिमा सर्वने पूजवा लायक श्राय " एम दैवज्ञवसनमां कडं बे. आ श्लोकमां सामान्यथी दृष्टि शब्द कह्यो , तोपण पुष्ट एटले संपूर्ण अथवा त्रिपाद दृष्टि जाणवी. हवे सर्व शुन्न कार्यनां लग्नोमां साधारण रीते तजवा योग्य समय श्लोके करीने कहे . जन्मराशिं जनेर्लग्नं तान्यामन्त्यं तथाऽष्टमम् । लग्नलग्नाशयोश्चेशौ लग्नात् षष्ठाष्टमौ त्यजेत् ॥ए ॥ अर्थ-जन्मनी राशिने, जन्मना लग्नने, ते बन्नेथी वारमा तथा आठमा (खग्न )ने, तथा लग्न अने लग्नांशना स्वामी जो लग्नथी बछे के आग्मे होय तो तेने तजवा. जन्मनी राशिने तजवी एटले जन्मनी जे राशि होय ते राशि लग्नकुंमळीमां पहेला नुवनमा श्राववी न जोइए, अने ते जन्मराशि दीक्षामा शिष्यनी, प्रतिष्ठामां स्यापक अने शिक्ष ए बन्नेनी तथा विवाहमा वर अने कन्या ए बन्नेनी तजवानी जे. ए प्रमाणे श्रागळ पण सर्वत्र जाणवू. जन्मनुं लग्न अहीं वर्जवानुं कर्तुं , परंतु नारचंजमां ते वयु नयी. जन्मराशि अने जन्मलग्नथी बारमा तथा आठमा लग्नने अहीं वर्जवानां कह्यांचे ते प्रमाणे कोइए चोथाने पण वर्जवानुं कर्वा . ते विषेव्यवहारप्रकाशमां कडंडे के "दम्पत्योरुपचयनं जन्मोदयतश्च शुनलग्नम् । निधनं व्ययं च हिबुकं नेष्टं शेषाणि मध्यानि ॥१॥" "वर वहुनी जन्मराशिथी तथा जन्मलग्नथी उपचय (३-६-११ स्थानमा रहेली राशि जो विवाहसमये लग्नमां होय तो ते शुल लग्न , अने आठमा, बारमा के चोथा स्थाननी राशि जो लग्नमां होय तो ते अशुल बे, अने बाकीनां लग्नो मध्यम ." तथा "चतुर्थघादशे कार्ये लग्ने बहुगुणे यदि। अष्टमं तु न कर्तव्यं यदि सर्वगुणान्वितम् ॥१॥" "जो चोथु अने बारमुं लग्न घणा गुणवार्छ होय तो ते करवा लायक -शुल ने, परंतु जो आवमुं लग्न सर्व गुणे करीने युक्त होय तोपण ते करवा लायक नथी" एम गर्ग कहे . विशेष ए जे जे "अष्टमोदयोद्भूतदोषो नश्यति लावतः। लग्नेशाष्टमराशीशी मिथो मित्रे यदा तदा ॥१॥" Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३२७ "जो लग्ननो स्वामी अने आग्मी राशिनो स्वामी परस्पर मित्र होय तो आग्मी राशिथी अने लग्ननी राशिथी उत्पन्न श्रयेलो दोप लावधी नाश पामे डे" एम बृहस्पति कहे बे. "तथा चतुर्थ रिष्पं वा मित्रत्वेन शुनं स्मृतम् । गुरुणा नृगुणा केन्ऽत्रिकोणस्थेन चेक्षितम् ॥ १॥" "तथा चोथु अने वारमुं लग्न परस्पर मित्रपणाए करीने युक्त होय, अने केन्द्र के त्रिकोणमा रहेला गुरु के शुक्रनी तेना पर दृष्टि पमती होय तो ते शुल कहेलु " एम सारंग कहे . तथा "होराष्टमं जन्मगृहाष्टमं वा, लग्नं शुनं झेज्यसितेक्षितं चेत् ।" "जो आठमी होरानुं लग्न होय के जन्मना स्थानथी आउमा स्थाननी राशिनु लग्न होय, अने तेना पर जो बुध, गुरु के शुक्रनी दृष्टि पमती होय तो ते लग्न शुन्न " एम केशव कहे . तथा "जन्मगृहजन्मन्नाच्यामष्टमजवनं मृतिप्रदं लग्ने। व्ययहिबुककेन्जसंस्थैः शुन्नग्रहैः शोजनं वलिनिः॥१॥" "जन्मनी राशिथी के जन्मना ग्रहथी श्रापमुं नवन जो लग्नमां होय तो ते मृत्यु आपनाएं , परंतु जो बारमा, चोथा के केन्प्रस्थानमां बळवान् शुन्न ग्रहो होय तो ते शुल " एम व्यवहारप्रकाशमां कडं बे. मूळ श्लोकमां लग्नलग्नाशयोश्च ए पदमां च शब्द लख्यो बे, तेथी जेष्काणनो स्वामी पण लग्नश्री बछे के बाग्मे होय तो ते पण तजवा योग्य वे. ते विषे लक्ष कहे के _ "लग्नस्थेऽपि गुरौ पुष्टः पष्ठस्थो लग्ननायकः।" "लग्नमां गुरु रह्यो होय तोपण जो लग्ननो स्वामी बघा स्थानमा रह्यो होय तो ते मुष्ट-अशुन बे." लदमीधर पण कहे जे के "विलग्नाधिपतौ षष्ठे वैधव्यं स्यात्तथांशपे। श्रेष्काणाधिपतौ मृत्युर्विलग्ने बलवत्यपि ॥१॥" "लमनो स्वामी तथा नवांशानो स्वामी जो स्थाने रह्यो होय तो विधवापj प्राप्त थाय ने, अने जेष्काणनो स्वामी बछे होय तो लग्न बळवान उतां पण मृत्यु थाय बे." खननो स्वामी आउमे स्थाने होय तो ते अशुजज बे, तेथी पण ( ते करतां पण ) जो आठमा नवनमा रहेलो लग्ननो स्वामी लग्नना जेष्काणथी बावीशमा जेष्काणमां होय तो ते घणोज अशुल . वळी जो लग्ननो स्वामी अने आठमा नवननो स्वामी एकज जेष्काणमा रह्या होय तो ते करतां पण अत्यंत वधारे अशुन बे. लग्नना, नवमांशना Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० अने प्रेष्काणना स्वामी जो बहे के या प्रमाणे कां बे. - ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ वमे रह्या होय तो तेनुं फळ रत्नमालाजाध्यमां "वर्षमास दिनैर्गे हद्वेष्काणनवमांशपाः । राशिमानेन दास्यन्ति फलमित्याह शौनकः ॥ १ ॥” "ब के आमे स्थाने रहेलो लग्ननो स्वामी राशिने अनुसारे एटले जेटलामी राशि होय तेटली संख्यावाळा वर्षे करीने तेनुं फळ आपे वे, एज प्रमाणे प्रेष्काणनो स्वामी तेले मासे ने नवमांशनो स्वामी तेटला दिवसे करीने फळ पे वे एम शौनक कहे बे." मूळ श्लोकमां षष्ठाष्टौ कयुं छे. तेना उपलक्षणथी वारमा स्थानमा रहेलो लग्ननो स्वामी पण शुन नथी, तेथी करीने लग्ननो ने लग्नांशनो स्वामी बहे, आमे के बारमे होय तो ते शुन नथी एम सिद्ध थयुं तेनो अपवाद या प्रमाणे बे - वृश्चिक लग्न के वृश्चिकनो नवमांश ग्रहण कर्यो होय तो तेनो स्वामी मंगळ जो मेष राशिमां रह्यो होय तो कां पण दोष नथी, केमके ते बन्नेनो स्वामी ( मंगळ ) एकज बे. एज रीते वृषनुं लग्न अथवा तेनो अंश ग्रहण कर्यो होय त्यारे तेनो स्वामी शुक्र जो तुलामां रह्यो होय, तथा कुंज लग्न अथवा तेनो अंश ग्रहण कर्यो होय त्यारे तेनो स्वामी शनि जो मकरमा रह्यो होय तो बन्नेनो स्वामी एक होवाथी कांइ पण दोष नथी. कह्युं बे के"न वृश्चिकं हन्ति कुजोऽजवर्ती, वृषं न शुक्रोऽपि तुलाधरस्थः । तथैव कुंनं रविजो न हन्ति, मृगस्थितो वा तनुगं व्ययस्थः ॥ १ ॥” "मेष राशिना लग्नमां रहेलो मंगळ वृश्चिकने हणतो नथी, तुला राशिना लग्नमां रहेलो शुक्र वृषने हणतो नथी, तथा मकर राशिरूप व्यय ( १२ ) स्थानमा रहेलो मंगळ पहेला स्थानमा रहेला कुंजने होतो नथी." वळी आज युक्तिए करीने मेष के तुला राशिमां जन्मलग्न के जन्मराशि होय तो ते मेष ने तुलार्थी आवमा रहेला वृश्चिक ने वृष पण लग्नपणे ग्रहण करवामां आवे तो ते दोषने माटे नथी. ते विषे विवाहवृंदावनमां कह्युं बे के “व्यलिवृषं जननई विलग्नयोर्भवनमष्टममन्युदितं त्यजेत् ।” "जन्मराशि अने जन्मलग्नने विषे ( मध्ये ) वृश्चिक ने वृष सिवाय बीजा श्रावमा जवनरूप लग्न तजवा योग्य बे. अर्थात् वृश्चिक ने वृष ए बेज आवमा स्थानमां रहेला सारा बे." तथा "जन्मराशिजन्मलग्नाच्यां द्वादशमष्टमं च लग्नेशं त्यजेत् ।” " जन्मराशि छाने जन्मलग्नथी बारमो अने आम्मो लग्ननो स्वामी तजवा योग्य बे" एम पण रत्नमालाजाध्यमां कं बे. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ इन्डक्रूरयुतं लग्नं तथा लग्नोदितांशकान् । थधिकांशग्रहं दूष्यगृहादागपि त्यजेत् ॥ ३० ॥ अर्थ-लग्नमां चंज के कोइ पण क्रूर ग्रह होय तो ते लग्न तजवं, तथा लग्नमां कहेला नवांशो जो चंछ के क्रूर ग्रहे करीने युक्त होय तो ते पण तजवा, तथा लग्नना श्ष्ट अंशथी अधिक अंशमा रहेला ग्रहने (चंड अथवा क्रूर ग्रहने)क्षित स्थानथी पहेला पण तजवो. सग्नमां चंड तथा क्रूर ग्रहने तजवा माटे खल्स पण कहे जे के “सौम्यग्रहयुक्तमपि प्रायः शशिनं विवर्जयेबग्ने । क्रूरग्रहं न लग्ने कुर्यान्नवपञ्चमधने वा ॥१॥" "लग्नमां चंड जो सौम्य ग्रहे करीने युक्त होय तोपण ते प्राये करीने तजवा सायक जे, (अर्थात् क्रूर ग्रहे करीने युक्त होय तो अवश्य तजवा योग्य ,) तथा खग्नमां क्रूर ग्रहने करवो नहीं एटले तजवा योग्य वे, तेज प्रमाणे नवमा स्थानमां, पांचमा स्थानमा अने बीजा स्थानमां पण क्रूर ग्रह तजवो.” तथा "लग्नस्थे तपने व्यालो १ रसातलमुखः कुजे । .. यो मन्दे ३ तमो राहो । केतावन्तकसंझितः ५॥१॥ योगेष्वेषु कृतं कार्य मृत्युदारियशोकदम् ।” "लग्नमां सूर्य रह्यो होय तो ते व्याल योग कहेवाय ने १, मंगळ रह्यो होय तो ते रसातलमुख नामनो योग कहेवाय ने १, शनि होय तो य योग ३, राहु होय तो तम योग । श्रने केतु होय तो ते अंतक नामनो योग कहेवाय बे ५. श्रा योगमां करेलुं कार्य मृत्यु, शोक अने दारिद्य आपनाएं थाय बे" एम दैवज्ञवसन कहे जे. ___ "लग्नोदितांशकान्" एटले लग्नने विषे उदित एटले कहेला जे कन्यादिक नवांशो नेते पण चंद्र के ऋर ग्रहे युक्त होय तो तजवा लायक बे, एटले के जे राशिमां चंड के क्रूर ग्रह होय ते राशिना नामवाळो लग्नेशनो (लग्नना स्वामीनो) नवांशक पण तजवा योग्य जे. ते विषे गदाधर कहे जे के "यस्मिन् राशौ नवेञ्चन्प्रस्तमंशं परिवर्जयेत् । तस्मातवेच्च वैधव्यमावर्षान्मुनयो जगुः॥१॥ यस्मिन् राशौ नवेत् क्रूरस्तमंशं परिवर्जयेत् । खग्ने मृत्युं विजानीयात् पञ्चमेऽब्दे न संशयः॥॥" ___ “जे राशिमां चंछ होय ते अंशने लग्नमां वर्जवो, कारण के तेथी एक वर्ष सुधीमां कन्याने विधवापणुं प्राप्त थाय ने एम मुनि कहे . वळी जे राशिमां क्रूर ग्रह होय भा०४२ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ॥आरंसिधि॥ ते अंशने पण लग्नमां वर्जवो, कारण के तेथी पांचमे वर्षे मृत्यु थाय ने एम जाणवू. तेमां कां पण संशय नथी." तथा अधिकांशग्रहं एटले लग्नमां अधिकार करेलो जे अंश उदय पामेलो होय ते अंशश्री अधिक एटले थागळना अंशोमां जे ग्रह रह्यो होय ते ग्रह नावरीतिए करीने आगळना स्थानमांज रहेलो कहेवाय बे, कारण के ते श्रागळना स्थानचेंज फळ श्रापे ने, तेथी था रीतिए करीने पण ते ग्रहे ते स्थान आश्रय करातुं तुं जो दोषने पामतुं होय तो ते पहेलाना स्थानमा रहेला ग्रहने पण तजवो जोइए. अर्थात् ते ग्रहे ते स्थान प्राप्त नथी कर्यु तोपण ते (स्थान) शूषित बे. ते विषे नास्कर कहे जे के __"खग्नोदितांशान्यधिको ग्रहो यो, नावेऽग्रिमे नावफलेन स स्यात् । ग्रहो यदा नावफलेन याति, स्थाने निपिछे तमपीह जह्यात् ॥१॥" "खग्नमां कहेला अंशथी अधिक अंशमा रहेलो जे ग्रह होय ते नावफळे करीने आगळना स्थानमां एम गणवो, तेथी जो कोइ पण ग्रह (क्रूर ग्रह ) नावफळे करीने निषिद्ध (दूषित ) स्थानमा गयो होय तो तेने पण अहीं (लग्नमां ) तजवो." श्रहीं ए लावार्थ ने के-खनना जे ( जेटला) अंशो कहेला होय ते ( तेटला) अंशोमां जे ग्रह रह्यो होय ते ग्रह तेज स्थानना फळने आपे बे, अने जे ग्रह तेटला अंशोने उबंधन करीने रह्यो होय ते ग्रह श्रागळना स्थानना फळने आपनारो होय जे. एज रीते. बीजा, त्रीजा, चोथा विगेरे सर्वे स्थानोमां जाणवं. ते विषे लास्करेज कडं ने के "लग्नस्य येडशा उदिता ग्रहो यस्तेषु स्थितः स्थानफलं स दत्ते। यस्तानतीतः सलवेद्वितीयः, स्थानेष शेषेष्वपि चिन्त्यमेतत ॥१॥" "खनना जे (जेटला) अंशो कहेला होय ते (तेटला) अंशो सुधीमा जे ग्रह रहेलो होय ते ग्रह तेज स्थानना फळने आपे , अने जे ग्रह ते अंशोने उलंघन करी गयो होय ते ग्रह बीजो (बीजा स्थानमा रहेलो) थाय बे. एज रीते बीजां सर्वे स्थानोमां जाणवू." दैवज्ञवाजमां पण कर्तुं डे के "खानस्थः प्रोच्यते सोऽत्र ग्रहो य नदितांशगः । वितीयोऽनुदितांशस्थः सर्वराशिष्वयं क्रमः ॥ १॥" "जे ग्रह कहेला अंशोमांरहेलो होय ते ग्रह अहीं लग्नमां रहेलो कहेवाय , अने जे ग्रह कहेला अंशोमा रहेलो न होय अर्थात् तेने उलंघन करी गयो होय ते ग्रह बीजा स्थानमां रहेलो कहेवाय बे.आज क्रम सर्व राशिने विषे जाणवो." अहीं सर्व राशिउने विषे एम जे कह्यं तेनुं तात्पर्य ा प्रमाणे जे.-सग्नमां रहेलो जेटलामो अंश कार्य वखते वर्ततो होय तेटलामोज अंश बारे स्थानोने विषे वर्ते जे एम जाणवू, तेथी करीने जे कोई स्थानने विषे जे ग्रह वर्तमान अंशने ओळंगीने रह्यो होय ते (ग्रह) तेनी आगळना स्थानमांज Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३३१ रहेलो जाणवो. तेथी करीने "दूषितगृहादगिपि त्यजेत्" "इषित स्थानथी पहेला पण वर्जवो" एम जे मूळ श्लोकमां कहुं तेनो श्राज नावार्थ ( तात्पर्य) थयो. था रीते पण श्रागळना स्थानमा रहेलो आ ( वर्तमान ) ग्रह तजवानो कह्यो होय तो तेवू लग्न से नहीं. जेम को प्रतिष्ठामां कन्या लग्न , अने कार्य वखते बो मिथुनांश ग्रहण को बे, तेथी जो कुंन (लग्नथी बी) राशिमां सातमा, आठमा विगेरे अंशोमां मंगळ रह्यो होय तो ते (ग्रह) नावरीतिए करीने मीनमा रहेलो होवाथी सातमा स्थानमांज गणाय, (अने सातमुं स्थान वl ने,) तेथी करीने ते खग्न (कन्या सन्न) पण त्याग करवा लायक बे. तेनी स्थापना या प्रमाणे. में.अ. / आज प्रमाणे सर्वत्र जाणवू. अहीं कोई शंका करे के-"ज्यारे था जावरीतिए करीने दूषित श्रयेलु स्थान तजवा योग्य कर्तुं त्यारे एज रीतिए जे स्थान ग्रहे करीने शोजित होय ते स्थान आदरवा लायक पण थशे." श्रावी शंका करवी नहीं, केमके श्रावा (नावरीतिथी श्रयेखा) गुणोनुं कृत्रिमपणुं होवाथी अनादर करवानेज योग्य जे. कडं के "नाङ्गीकारो नावजानां गुणानां, तद्दोषाणां तत्त्वतस्त्याग एव ।। नावव्यक्तावष्टमत्वं गतोऽपि, त्याज्यो लग्नात्सप्तमः सप्तसप्तिः॥१॥" "लावरीतिथी उत्पन्न थयेला गुणोनो अंगीकार करवो नहीं, थने तेना (नावरीतिश्री उत्पन्न श्रयेला) दोषोनो वास्तविक रीते त्यागज करवानो बे, तेथी करीने जावनी स्पष्टताने विषे (जावरीतिए करीने ) सूर्य लग्नथी श्रापमा स्थानमा गयो होय तोपण ते खन्नश्री सातमा स्थानमांज , माटे तेनो त्याग करवो." तश्रा "सप्तमस्थो यदा चन्जो नवेज्ञावफलाष्टमः। न तदा दीयते लग्नं शुजैः सर्वग्रहैरपि ॥१॥" "सातमा स्थानमा रहेलो घं जो नावफळे करीने पाठमो थतो होय तो ते वखते सर्व ग्रहो शुन्न होय तोपण सम देवू नहीं.” तथा “प्रत्याख्येयः पाक्षिकोऽपीह दोषः, सम्यग्व्यापी यो गुणः सोऽनुगम्यः । ___ यस्मादशैर्देहनावाधिकः सन्न स्याद्भूत्यै जार्गवः पञ्चमोऽपि ॥१॥" "आ विवाहादिकना लग्नमां एक पक्षनो दोष पण निषेध-अनादर करवा खायक बे, Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ॥श्रारंसिधि॥ श्रने जे गुण सारी रीते व्यापीने रह्यो होय तेज अनुसरवा योग्य बे, जेथी करीने अंशोए करीने लग्नना नावधी अधिक श्रयेलो पांचमो शुक्र पण आबादीने माटे नयी (शुल नथी ). अर्थात् चोथा स्थानमा रहेलो शुक्र जो अंशोए करीने लग्नना लावधी अधिक स्थानमां एटले पांचमा स्थानमा जतो होय तोपण ते शुन्न नथी.” श्रा सर्व हकीकत विवाहने आश्रीने विवाहवृंदावनादिक ग्रंथोमां कही बे. नवेजन्मनि जन्मान्मृत्युधामनि यो ग्रहः। शुनोऽपि लग्नवत्यैष सर्वकार्येषु नो शुजः ॥३१॥ अर्थ-जन्मसमये जन्मराशिथी अथवा जन्मलग्नथी आउमा स्थानमा जे ग्रह रह्यो होय ते जो कदाच शुज होय तोपण विवाहादिक सर्व शुन्न कार्यमां लग्नने विषे वर्ततो ते ग्रह शुन्न नथी. जन्मने विषे एटले जन्मसमये. जन्मात् एटले शव शब्दना बे अर्थ होवाथी जन्मराशिथी अथवा जन्मलग्नथी. शुन्न होय तोपण अर्थात् क्रूर ग्रहनुं तो शुं कहेवू ? वळी नास्कर तो था प्रमाणे कहे . "जन्मजन्मलग्नान्यां यौ रन्ध्रेशावथाष्टमे । लग्ने ताँश्च तदंशाँश्च तत्राशीनपि च त्यजेत् ॥१॥" "जन्मराशिथी तथा जन्मलग्नथी जे श्रापमा स्थानना स्वामी लग्नने विषे उमा स्थानना स्वामी लग्नने विषे श्राग्मे होय ते श्राठमाना स्वामी तथा तेना अंशो तथा ते आठमी राशिनो त्याग करवो." शनि स्त्रिकोणकेन्द्रस्थो बलीयान् सुहृदादितः। कुजः केन्जान्त्यधर्माष्टस्थितो वा नजञ्जनः ॥३॥ अर्थ-त्रिकोणमां के केन्प्रस्थानमा रहेलो शनि अति बळवान् अने तेना मित्रवमें जोवायेलो (तेना पर तेना मित्रनी दृष्टि पमती) होय अथवा केन्मस्थानमां, बारमा स्थानमां, नवमा स्थानमां के आठमा स्थानमा रहेलो मंगळ पण अत्यंत बळवान् अने तेना मित्रवझे जोवायेलो होय तो नमनंजन नामनो योग थाय . आ कुयोगनी सार्थक संज्ञा बे. अर्थात् अशुन .थाउमा स्थानमा रहेला मंगळचें फळ गर्गे था प्रमाणे कडं . _ "लग्नानौमेऽष्टमगे दम्पत्योर्वह्निना मृतिः समकम् ।। __ जन्मनि यो वाऽष्टमगस्तस्मिनग्नं गते वाऽपि ॥१॥" __ "मंगळ जो लग्नथीभाउमा स्थानमा रह्यो होय अथवा जन्मसमये जे ग्रह श्राठमो होय ते ग्रह जो विवाहना खग्नमां रह्यो होय तोपण ते वर वहुनुं एक साज अग्निथी मृत्युथाय ." रविः कुजोऽर्कजो राहुः शुक्रो वा सप्तमस्थितः। हन्ति स्थापककर्तारौ स्थाप्यमप्यविलम्बितम् ॥ ३३॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३३३ अर्थ-रवि, मंगळ, शनि, राहु अथवा शुक्र जो सातमा स्थानमा रह्या होय तो प्रतिष्ठा करनार गुरुने, प्रतिमा स्थापन करनारने अने बिंबने पण शीघ्रपणे हणे . श्रा श्लोक प्रतिष्ठाने आश्रीने जाणवो. लग्ना एम्बुध स्मर ७ गो राहुः सर्वकार्येषु वर्जितः। त्रिषडेकादशः शस्तो मध्यमः शेषरा शिषु ॥ ३४॥ अर्थ-पहेला, चोथा अने सातमा स्थानमा रहेलो राहु सर्व कार्यमां वयं . त्रीजा, बना अने अगीयारमा स्थानमा रह्यो होय तोते शुलने,अने ते सिवाय बीजां स्थानोमां रह्यो होय तो ते मध्यम जे. सर्व कार्यमां एटले दीक्षा, प्रतिष्ठा विगेरे ( विवाह ) कार्यमां. केतुने माटे नारचंत्रमा कडं ले के-“पहेला अने सातमा स्थानमा रहेको तथा चंजे करीने युक्त एटले चंनी साथे रहेलो केतु तजवा योग्य , त्रीजा, बज अने अगीयारमा स्थानमा रह्यो होय तो ते ग्रहण करवा योग्य (शुन्न), अने बाकीनां स्थानोमां रह्यो होय तो ते मध्यम जे." श्रा उपरथी ए सिद्ध थयु के-राहु जो नवमे के बारमे रह्यो होय तो ते पण श्रेष्ठ ने. अन्यथा (जो श्रेष्ठ न होय तो) केतुने त्रीजा के बम स्थाननी प्राप्तिनो असंभव थाय. श्रा रीते सामान्यथी घटिका लग्नने विषे वयं दोषो कह्या. हवे प्रतिष्ठादिक सर्व कार्यना घटिका लग्नमां साधारण नंग आपनारी (अशुल) ग्रहोनी संस्था ( व्यवस्था) या प्रमाणे .-शनि, रवि, चंग बने मंगळ लग्नमां रह्या होय तो ते अशुन्न , चंज, मंगळ, बुध, गुरु अने शुक्र आठमा स्थानमा रह्या होय तो ते अशुन चे, चं, शुक्र, लग्ननो स्वामी थने तेना अंशनो स्वामी के स्थाने रह्या होय तो ते अशुल ने, तथा सातमा स्थाने रहेखा सर्वे ग्रहो अशुन . ते विषे त्रिविक्रम कहे जे के "त्याज्या लग्नेऽब्धयो ४ मन्दात् षष्ठे शुक्रेन्ऽलग्नपाः। रन्ध्रे चन्मादयः पञ्च सर्वेऽस्तेऽजगुरू समौ ॥१॥" "खग्नने विषे शनिथी श्रारंजीने चार ग्रहो (शनि, रवि, चंड, मंगळ ) वर्ण्य , उहा स्थानने विषे शुक्र, चंज अने लग्ननो स्वामी वर्ण्य , आठमा स्थानमां चंथी आरंजीने पांच ग्रहो (चंज, मंगळ, बुध, गुरु, शुक्र) वर्ण्य , तथा सातमा स्थानने विपे सर्वे ग्रहो वयं ने, परंतु केटलाकना मते चंद्र अने गुरु एबे ग्रहो सातमा स्थानमा सम एटले उदासी ( मध्मय ) जे. अहीं राहुने शनि जेवो जाणवो.” Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ॥श्रारंसिद्धि। सर्व कार्योमा शुल ग्रहनी संस्था दैवज्ञवश्वजमां या प्रमाणे कही जे."लग्नाऽपचयस्थे ३-६-१०-११ऽर्केऽन्त्या १२ स्त ७ कर्मा १० य ११गे विधौ । दोणीपुत्रेऽर्कपुत्रे च मुश्चिक्य ३ रिपु ६ लान ११ गे॥१॥ त्यक्तरिष्या १२ ष्टमे 0 सौम्ये जीवेऽष्टा रि ६ व्ययो १२ जिते । सर्वकार्याणि सिध्यन्ति त्यक्तषट्सप्तमे सिते ॥२॥" "लग्नथी उपचय (३-६-१०-११) स्थानमां सूर्य रह्यो होय, बारमा, सातमा, दशमा अने श्रगीयारमा स्थानमां चंपरह्यो होय, मंगळ अने शनि त्रीजा, बजने श्रगीयारमा स्थानमा रह्या होय, बुध बारमा थने आठमा सिवाय बीजा कोर पण स्थानमा रह्यो होय, गुरु आवमा, बा अने बारमा सिवाय बीजा कोश पण स्थानमा रह्यो होय, तथा शुक्र बहा अने सातमा स्थान सिवाय बीजा कोइपण स्थानमा रह्यो होय तो सर्व कार्यो सिख थाय बे." था उत्तम अने अशुन (अधम ) ए बे प्रकारनी संस्थाधी जे ग्रहो बाकी रह्या होय ते मध्यम संस्थामां जाणवा. यंत्र या प्रमाणे| उत्तम. मध्यम. अधम. रवि |३-६-१०-११ ३-४-५-0-0-१२ चंड ३-३-४-५-ए मंगळ | ३-६-११ ३-४-५-ए-१०-१५ बुध |१-३-३-४-५-६--ए-१०-११।। गुरु १-३-३-४-ए-3-ए-१०-११ ६-१२ शुक्र ११-३-३-४-५-0-0-१०-११-१२ ६-७ शनि ३-६-११ | २-५-५-७-ए-१०-१२ १-७ राहु ३-६-११ | २-५-1-ए-१०-१२ १-४-9 केतु ३-६-११ २-५-७-ए-१०-१२ १-४-७ श्रा रीते सर्व कार्यमा सामान्य रीते ग्रहोनी संस्था जे. हवे दीक्षाना खग्नमां असाधारण (विशेष) शुन्न ग्रहोनी संस्थाने कहे .दीक्षायां तरणिर्धन त्रि३तनया परिस्थिः शशी विशत्रि३ षट्६व्योम १० स्थः क्षितिनूस्त्रि३षदशमगोरण्ञज्यौ व्यया ११ष्टोणज्जितौ १-२-३-४-५-६--ए-१०-११। शुक्रोऽन्त्या १५ रिसुत ५ त्रि३धर्म एधन श्गो मन्दो धन श्ञातृ३षट्दपुत्रपछि गतश्च शोजनतमः सर्वे च लाजस्थिताः॥ ३५॥ अर्थ-दीक्षानी सन्मकुंमळीमां जो सूर्य वीजे, त्रीजे, पांघमे के ब स्थाने रह्यो होय तो ते अत्यंत शुन्न , चंग बीजे, त्रीजे, बछे के दशमे स्थाने रह्यो होय तो ते शुलने, ローカー G Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३३५ मंगळ त्रीजे, बके के दशमे स्थाने रहेलो शुन बे, बुध तथा गुरु बारमा तथा आठमा सिवायना १-२-३-४-५-६ - १-०-१०-११ स्थानोमां रहेला शुभ बे, शुक्र बारमे, , पांच, त्रीजे, नवमे के बीजे स्थाने रहेलो शुभ वे, तथा शनि बीजे, त्रीजे, बड़े, पांच के श्रावमे रहेलो शुज बे. वळी सर्वे ग्रहो गयार मे स्थाने रह्या होय तो ते शुन बे. आ सर्वे ग्रहो उपर कहेलां स्थानोमां रह्या होय तो दीक्षाना लग्नमां श्रेष्ठ होवाथी ते रेखा आपनारा वे एम जाणवुं. हर्षप्रकाश विगेरे ग्रंथोमां तो ग्रहोनी उत्तमादिक ऋण प्रकारनी रचना या प्रमाणे कही बे. - "पण बरविति 5 बससी कुज ति व दह वुह ति 5 ब पण दसमो । किंद तिकोणे य गुरू सुक्को ति छा व नव बारसमो ॥ १ ॥ मंद 5 मो सुक्क विणा सविगारसदा सुहया । चंदा कर सत्तम सुहादिरकसमयम्मि ॥ २ ॥ रवि ति ३ ससि सत्त दसमो बुदेग च सत्त नव गुरुति व दो । सुक्को 5 पंच स िति मज्जिम सेसा असुह सबे ॥ ३ ॥ " " दीक्षाने समये रवि बीजे, पांचमे अने ब रह्यो होय, चंद्र त्रीजे, बीजे के ब रह्यो होय, मंगळ त्रीजे, बछे के दशमे होय, बुध त्रीजे, बीजे, बहे, पांचमे के दशमे होय, गुरु केंद्र के त्रिकोण ( १-४ - १ - १० - ९ - २ ) स्थाने होय, शुक्र त्रीजे, ab, नवमे के बार होय, शनि बीजे, पांचमे, बछे के आठमे होय तथा शुक्र विना बीजा सर्वे हो गयारमे स्थाने होय तो या सर्वे शुभ ( उत्तम ) बे. तेमज चंद्रथी सातमे स्थाने क्रूर ग्रह रह्या होय तो ते अत्यंत अशुन बे. तथा रवि त्री जे स्थाने रह्यो होय, चंद्र सातमे के दशमे स्थाने होय, बुध पहेले, चोथे, सातमे के नवमे स्थाने होय, गुरुत्री, ब के बीजे स्थाने होय, शुक्र बीजे के पांचमे होय अने शनि त्रीजे स्थाने होय तो ते सर्वे मध्यम बे. बाकीना सर्वे शुन बे." स्थापना नीचे प्रमाणे . - मध्यम. उत्तम. रवि २-९-६-११ चंद्र २-३-६-११ मंगळ ३-६-१०-११ ३ ५- १० ० बुध ३-२-६-५-१०-११ 1१-४-५ - ए गुरु १-४-१-१०-०-५-११ ३-६-२ शुक्र ३-६-०-१२ 2-4 ३ शनि २-५-६-०-११ राहु ३-६-११ केतु अधम. |१-४-१-८ - ए - १०-१२ १-४-५-८-- ए-१२ १-२-४-५-१-८-०-१२ ८-१२ ८-१२ १-१-४-०-१०-११ ११-४-१-७-१०-१२ |२-१-८-ए-१०-१२ १-४-9 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ॥आरंलसिद्धि ॥ अहीं था रहस्य जे."अहवावि मज्झिमबलं काऊण सणिं गुरुं च बलवंतं । अबलं सुकं लग्गे तो दिरकं दिजा सीसस्स ॥ १॥" "अथवा तो लग्नमां शनिने मध्यम बळवाळो करीने, गुरुने बळवान् करीने तथा शुक्रने बळरहित करीने शिष्यने दीक्षा देवी" एम श्रीहरिला सूरि कहे जे. आ ग्रहो अनुक्रमे मध्यम बळवान्, उत्कृष्ट वळवान् अने हीन बळवाळा आ प्रमाणे श्राय . बीजे, पांचमे, श्रारमे अने अगीयारमे स्थाने रहेलो शनि ए स्थानो पणफरनां होवाथी मध्यम बळवान् बे, अने बहुं स्थान आपोक्लिमनु ने तोपण दिग्रबळ सहित होवाथी मध्यम बळवान् , गुरु केन्जमां के त्रिकोणमां होय त्यारे ते बळवानज होय बे ए प्रगटज . गुरुने अगीयारमा हर्षस्थान आगळ कहेवाशे, तेथी ते स्थानमां पण ते बळवान् बे. तथा त्रीमुं, उई, नवमुं अने बारमु ए स्थानो आपोक्लिमनां होवाश्री त्यां रहेलो शुक्र हीन बळवाळो . ते विषे त्रैलोक्यप्रकाशमां कडं जे के “रूपा २० ध १० पाद ५वीर्याः स्युः केन्वादिस्था ननश्चराः।" "केन्द्रमा रहेला ग्रहो पूर्ण एटले वीश वसा बळवान् होय बे, पणफर स्थानमां रहेखा ग्रहो मध्यम एटले दश वसा बळवान् होय , अने आपोक्सिम स्थानमा रहेला ग्रहो हीन बळवान् एटले पांच वसा बळवान् होय जे." तेथी करीनेज श्रा नपरना ग्रहो उत्तम लंगमा स्थापन कर्या . बाकीना ग्रहो जे स्थानमा रहीने सर्वनी संमतिए रेखाने आपनारा ले ते पण उत्तम लंगमां दाखल कर्या ने. जे ग्रहो रेखाने आपनार बतां पण ग्रंथांतरमा तेमनो विसंवाद तेजने मध्यम नंगमां गण्या बे. सातमा स्थाने रहेलो चंग प्रस्तुत (उपरनीत्रण) गाथाने अनुसरवा माटेज मध्यम नंगमां लख्यो . आ बन्ने नंगथी बाकी रहेला ग्रहोने अधम नंगमां गण्या के. अगीयारमे स्थाने रहेलो शुक्र सूत्रमा (मूळ श्लोकमां) रेखा आपनार कह्यो ने तोपण नारचंड, लग्नशुद्धि विगेरे ग्रंथोमां तेनो निषेध होवायी अधम नंगमां लख्यो . हवे विवाहना लग्नमां रेखा आपनारी ग्रहोनी संस्था कहे जे.विवाहे त्वर्कार्की त्रि३रिपुदनिधनान्येषु ११ शुनदौ, विधुः स्वरच्या ३ येषु ११ दितितनय आय ११त्रिरिपु ६ गः। बुधेज्यौ सप्ता ष्ट व्यय १२ विरहितावास्फुजिदरि ६स्मरा ष्टान्त्या १२ मुक्त्वा वितनु रसुख ४ कामे वथ तमः ॥३६॥ अर्थ-विवाहनी लग्नकुंमळीमां सूर्य अने शनि जो त्रीजा, बन, श्रापमा के अगीया Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३३७ रमा स्थाने रह्या होय तो ते शुभ फळ आपनारा बे. चंद्र बीजा, त्रीजा के गीयारमा स्थाने रह्यो होय तो ते शुभ बे. मंगळ अगीयारमे, त्रीजे के बहे रहेलो शुभ बे. बुध अने गुरु सातमा, आवमा अने वारमा स्थान सिवायनां ( १-२-३-४-५-६ - ९-१०-११ ) स्थानोमा रहेला होय तो ते शुभ बे. शुक्र बघा, सातमा, आवमा छाने वारमा स्थान सिवानां ( १-२ - ३ - ४ - ५ - ए - १०-११ ) स्थानोमा रहेलो होय तो ते सारो बे, ने शनि पहेला चोथा श्रने सातमा स्थान सिवायनां ( २-३-५-६-८-०-१०११-१२ ) स्थानोमा रहेलो सारो बे. चंद्रनुं बीजुं, त्रीजुं अने गीयारमुं स्थान शुन कह्युं छे. ते विषे लन क वे के"यत्रेन्दुर्नायगतो न तृतीयो न द्वितीयगश्चापि । अनुकूलैरपि शेषैस्तलनं वर्जयेन्मतिमान् ॥ १ ॥” " जे लग्न कुंकळी मां चंद्र अगीयारमे स्थाने रह्यो न होय अथवा त्रीजे स्थाने रह्यो न होय, अथवा वीजे स्थाने पण न रह्यो होय तो वीजा ग्रहो अनुकूल होय तोपण ते लग्न बुद्धिमाने वर्जवुं. " मूळ सूत्रमां "सप्ताष्टव्यव०" एम जे कयुं वे तेने माटे शौनक कहे वे के"सप्तमगते बुधे सति सप्ताब्दान्मारयेत् पतिं कन्या । मात्र कन्या निधनगते पञ्चतां याति ॥ १ ॥ श्रायुःसौभाग्ययोर्जङ्गः पुंसां द्यूनगते गुरौ । तु पितामाह विवाहे देवलो मुनिः ॥ २ ॥” “विवाहकुंरुळीमां जो बुध सातमे स्थाने रह्यो होय तो ते कन्या पोताना पतिने सात वरस सुधीमां मारे बे, ( अर्थात् तेनो पति मरण पामे बे, ) ने जो बुध आ स्थाने रह्यो होय तो ऋण मासनी अंदर कन्या मरण पामे बे. १. वळी सातमा स्थानमां गुरु रह्यो होय तो पुरुषनां त्र्यायुष्य ने सौभाग्यनो नाश थाय बे, अने जो शुक्र सातमे स्थाने रह्यो होय तो कन्यानां आयुष्य तथा सौभाग्यनो नाश थाय बे एम देवल मुनि कहे बे. " मूळ लोकमां "स्फुजित् ” शब्द लख्यो बे तेनो अर्थ "शुक्र" बे. वळी मूळमां "रिस्मराष्ट०" विगेरे कयुं बे तेने माटे दैवज्ञवनमां कां वे के "लग्नस्थेऽपि गुरौ ष्टो नृगुः षष्ठोऽष्टमः कुजः " "गुरु लग्नमां होय तोपण बो शुक्र तथा आग्मो मंगळ दुष्ट बे." मूळ श्लोकमां " वितनु०" विगेरे कां वे ते विषे शौनक कहे बे के — "लग्नस्थो वरमरणं राहुर्दिशति धुने कनी मरणम् ।” आ० ४३ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ॥ श्रारंसिधि॥ "राहु लग्नमा रह्यो होय तो ते वरचें मृत्यु कहे जे, अने सातमे स्थाने रह्यो होय तो ते कन्यानुं मरण कहे ." ___ "त्याज्या लग्नेऽब्धयो मन्दात्" लग्नने विषे शनिथी श्रारंजीने चार ग्रहो (शनि, रवि, सोम, मंगळ) वर्ण्य बे. श्रा श्लोकनां अपवादस्थानो कद्दे बे.' चोथा विना बाकीनां पांचमा, सातमा, नवमा, दशमा स्थानमांथी कोश् सौम्य स्थानमा रहेलो शुल ग्रहोए जोयेलो चं रेखाने आपवावाळो वे. हवे बा, आठमा अने वारमा स्थान- अशुलपणुं होवाथी ते स्थानोमां ग्रहोनी स्थितिना निश्चयनो संग्रह कहे . ( अर्थात् आ स्थानो अशुल डे तोपण अमुक अमुक ग्रहो ते स्थानोए शुज जे. ए वात कहे . ) विवाहे नाष्टमाः श्रेष्ठाः पञ्च सूर्यशनी विना। षष्ठौ चेन्ऽसितौ तदन्त्येऽन्त्य इति केचन ॥ ३ ॥ अर्थ-विवाहमा सूर्य अने शनि विनाना पांच ग्रहो आपमे स्थाने श्रेष्ठ नथी, एटले के सूर्य तथा शनि ठमे स्थाने श्रेष्ठ बे, बीजा ग्रहो श्रेष्ठ नथी. बठे स्थाने रहेला चंड श्रने शुक्र पण तेज प्रमाणे जाणवा, एटले के चंग अने शुक्र बठे स्थाने श्रेष्ठ नथी, अने बाकीना पांच ग्रहो श्रेष्ठज बे. वळी केटलाक कहे जे के अन्त्य एटले बारमा स्थानमा रहेलो अन्त्य ग्रह एटले केतु श्रेष्ठ नश्री. आ उत्तम नंगमां ग्रहोनी संस्था जाणवी. विशेष श्रा प्रमाणे बे. "नौमे लग्नकलत्रनैधनगते शुक्रेऽरिसप्ताष्टगे, चन्छे रन्ध्रविलग्नषष्ठनिरते लग्नास्तगे नास्वति । तघनानुसुते गुरौ निधनगे सौम्येऽष्टजामित्रगे, जायाम्लोनिधिलग्ननाजि तमसि प्राहुर्न पाणिग्रहम् ॥१॥" “पहेला, सातमा अने आवमा स्थानमा मंगळ रह्यो होय, शुक्र बहे, सातमे के बाग्मे स्थाने होय, चं आठमे, पहेले के उठे स्थाने होय, सूर्य पहेले के सातमे स्थाने होय, शनि पण तेज प्रमाणे एटले पहेले के सातमे स्थाने होय, गुरु बाग्मे स्थाने रह्यो होय, बुध आग्मे के सातमे स्थाने रह्यो होय, तथा राहु सातमे, चोथे के पहेले स्थाने रह्यो होय तो ते वखते पाणिग्रहण ( विवाह ) कर्वा नथी.” आ स्थानोए आ ग्रहो अधम बे एम यतिवखनमां कडं जे. था बन्ने नंगथी बाकी रहेलां ग्रहो तथा स्थानो मध्यम जंगमां जाणवां. तेनी स्थापना नीचे प्रमाणे Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्र शनि ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३३ए विवाहकुंभळीनी ग्रहसंस्थाउत्तम. मध्यम. अधम. रवि ३-६-७-११ २-४-५-ए-१०-१२ १-७ चंड २-३-१९ ४-५-४-ए-१०-१२ १-६-७ मंगळ |३-६-११ --ए-ए-१०-१२ बुध १-३-३-४-५-६--१०-११ -८ गुरु १-३-३-४-५-६-ए-१०-११ 9-१२ १-२-३-४-ए-ए-१०-११ ६-१-७ ३-६-७-११ २-४-५-ए-१०- १-७ राहु-केतु २-३-५-६-७-ए-१०-११ । १-४हवे चार श्लोके करीने विवाहना लग्नने विषे विशेष कहे जे.चन्हे च लग्ने च चरेऽङ्गानाग्रहैदृष्टे च केन्छे बलिनिः श्रिते चरैः। युग्मर्दगे वाऽथ विधौ विलोकिते,पापग्रहैः स्यायुवतेः पतिघ्यम् ॥३०॥ अर्थ-चर एवा चं अने लग्न स्त्रीना ग्रहोए जोयेल होय श्रने वळवान् चर ग्रहोए केन्प्रस्थाननो आश्रय कर्यो होय तो. १. अथवा मिथुन राशिमां रहेलो चंग पाप ग्रहोए जोयेल होय तो. २. ते स्त्रीने बे पति थाय .. ___ चं चर राशिमा रह्यो होय अने लग्न पण चर होय, तथा ते चं श्रने खन्नने विषे स्त्रीना ग्रहोनी दृष्टि पम्ती होय, तथा केन्द्र एटले एक पण केन्न स्थान बळवान् चर ग्रहोए एटले यायि संज्ञावाळा सूर्य, चंज, मंगळ अने शुक्र अधिष्ठित होय तो एक (पहेलो) योग थाय बे. १. अथवा मिथुन राशिमां रहेलो चं पाप ग्रहोए संपूर्ण दृष्टिवमे जोवायेल होय तो बीजो योग श्राय . २. आ बेमांथी एक पण योग होय तो ते स्त्रीने वे पति थाय . ते विषे दैवज्ञवसनमां कडं ने के "चरराशौ विलग्नेन्छोरङ्गनाग्रहदृष्टयोः । बलिनिर्यायिलिः केन्छे नजेन्नारी पतिष्यम् ॥ १ ॥ चन्छ युग्मस्थिते पापैदृष्टेऽन्यो योषितः पतिः।" "चर राशिमा रहेला लग्न तथा चंड स्त्रीना ग्रहोए जोयेला होय अने वळी केन्छस्थानमां बळवान् यायि सूर्य, चंज, मंगळ के शुक्र होय तो ते स्त्री वे पतिने नजे . १. श्रथवा मिथुन राशिमा रहेलो चंज पाप ग्रहोए जोयेल होय तोपण ते स्त्रीने बीजो पति थाय जे.” तथा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ॥ श्रारंसिधि॥ रविचन्मकुजैर्नीचै १ लग्नेशे शत्रुरा शिगे। निर्वीर्ये चापि जामित्रे ३ युवत्या निरपत्यता ॥३॥ अर्थ-रवि, चंग अने मंगळ नीचना होय तो एक योग. १. लग्ननो स्वामी शत्रुनी राशिमा रह्यो होय तो बीजो योग. २. अथवा सातमुं स्थान वीर्य रहित होय तो बीजो योग. ३. ा त्रणमांथी कोइ पण योग होय तो ते स्त्री संतति रहित थाय . अहीं स्वामी, सौम्य ग्रहनी युति के दृष्टिनो अनाव तथा ते ग्रहोगें क्रूर होवापणुं ए विगेरे वझे सातमा स्थाननुं वीर्य रहितपणुं जाणवू. तथाजामित्रेशः पतिः स्त्रीणां श्वशुरौ गुनास्करौ । तैरुच्चादिस्थितस्तेषां श्रेयः स्यादन्यदन्यथा ॥४०॥ अर्थ-जे ग्रह सातमा स्थाननो स्वामी होय ते स्त्रीनो पति जाणवो, तथा शुक्र श्रने सूर्य स्त्रीना सासु अने ससरो जाणवा. श्रा ग्रहो उच्च विगेरे स्थाने रह्या होय तो तेश्रोनुं (पति विगेरेनुं ) श्रेय-शुन पाय , अने अन्यथा एटले उच्चादिक स्थाने न रह्या होय तो तेउनु अश्रेय-अशुल्न थाय ने. ___ "श्वशुरौं" एटले शुक्र सासु अने सूर्य ससरो ए वेनो एकशेष समास करवाथी "श्वशुरौ" अयुं . "तैः” एटले ते सातमा स्थाननो स्वामी विगेरे. "उच्चादि" एटले पोताना उच्च स्थाने रह्यो होय तो दीप्त १, पोतानी राशिमां होय तो स्वस्थ २, मित्रना स्थानमां होय तो मुदित ३, पोताना वर्गमा रह्यो होय तो शांत ध, प्रगट किरणोने धारण करतो होय तो शक्त ५, पोताना नीच स्थानने नवंघन करीने पोताना उच्च स्थाननी सन्मुख थयो होय तो प्रवृधवीर्य ६, पोताना अंशमा रह्यो बतो सौम्य ग्रहोए जोयेल होय तो अधिवीर्य , सूर्यश्री हणायेलो होय तो विकल , पोताना शत्रुना स्थानमां होय तो खळ ए, ग्रहे जीतायेलो होय तो पीमित १०, अने नीच राशिमा रह्यो होय तो दीन ११. आ प्रमाणे लल्ले कहेली ग्रहोनी अगीयार अवस्थामांनी शुल अवस्थामा रहेला सातमा स्थानना स्वामी, शुक्र अने सूर्ये करीने ते पति, सासु श्रने ससरानुं श्रेय-शुल थाय ने, अने अन्यथा एटले था अवस्थामांनी अशुल अवस्थामा रहेला सातमा स्थानना स्वामी, शुक्र अने सूर्ये करीने अनुक्रमे ते पति, सासु श्रने ससरानुं अश्रेय थाय . तथालग्नोदितांशः स्वेशेन युतो दृष्टोऽथवा नृणाम् । तम्जामित्रगः स्त्रीणामिष्टोऽनिष्टो विपर्यये ॥४१॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३४१ अर्थ-खननो उदितांश जो पोताना स्वामीए युक्त अथवा दृष्ट होय तो ते पुरुषो ( वर )ने इष्ट-शुन बे. वळी सातमा स्थानमा रहेलो पण तेज प्रमाणे होय तो ते स्त्रीउने इष्ट-शुन्न , अने तेथी विपरीत होय तो अनिष्ट-अशुल बे. लग्नमां अधिकार करेलो जे उदयी नवांशो होय ते लग्नोदितांश कहेवाय बे. ते नवांशाना नामनी राशि कुंमळीमां कोइ पण स्थाने रही होय, परंतु जो ते पोताना स्वामीए युक्त अथवा दृष्ट होय तो ते लग्नोदितांश स्वेशयुतदृष्ट कहेवाय वे. ते पुरुषोने एटले वरने इष्ट . तथा लग्नमां रहेलो जेटलामो अंश उदयी ने तेटलामो सातमा स्थाननो अंश जो प्रथमनीज जेम एटले स्वेशयुतदृष्ट होय तो स्त्रीने एटले एटले कन्याने शुल फळदायी बे, परंतु तेथी विपरीत एटले उदयी लग्नांश जो स्वेशयुतदृष्ट न होय तो पति, मरण थाय , अने तेटलामो सातमा स्थाननो अंश जो स्वेशयुतदृष्ट न होय तो वहुनुं मरण थाय वे. अहीं तात्पर्य श्रा प्रमाणे जे.-श्रा एक नदय अने अस्तनो प्रकार जे. ते विषे यतिवक्षनमां कडं ने के "लग्नोदिते तत्प्रन्नुणा नवांशे, दृष्टे युते वोदयशुधिरुक्ता। तत्सप्तमांशे तु कलत्रलाजि, स्वस्वामिनैवं कथितास्तशुद्धिः॥१॥" ___ "लग्ननो उदयी नवांशो जो तेना स्वामीए दृष्ट अथवा युक्त होय तो ते उदयशुद्धि कही चे, श्रने स्त्रीना ( सातमा) स्थानने नजनारो तेनो सातमो अंश पोताना स्वामीए दृष्ट के युक्त होय तो ते अस्तशुद्धि कही जे." अहीं “तत्सप्तमांशे” तेनो सातमो एम जे कडं ने तेनो अर्थ था प्रमाणे वे.-लग्नमां जेटलामो अंश उदय पामेलो होय तेटलामो कलत्र (स्त्री) नामना सातमा स्थाननो अंश लग्नना उदितांशथी गपीए तो सातमोज थाय . आ एक प्रकारनी उदयशुद्धि अने अस्तशुधिनी रीत , अने बीजी रीत आगळ कहेशे, अने ते उदयास्तशुधिना बन्ने प्रकारो विवाहना लग्नमां अवश्य ग्रहण करवा योग्य बे. वळी नास्कर नामना आचार्य तो तेटलामो ( जेटलामो लग्नोदितांश होय तेटलामो) पांचमा स्थानमा रहेलो पुत्र नवांशो पण स्वेशयुतदृष्ट होवो जोइए एम श्छे वे. ते कहे जे के "नाथायुक्तेहिता लग्नलार्यापुत्रनवांशकाः। __ क्रमात् पुंस्त्रीसुतान् नन्ति न नन्ति युतवी दिताः॥१॥" "लग्नना, स्त्रीना ( सातमा स्थानना ) अने पुत्रना (पांचमा स्थानना ) नवांशो पोत Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ॥श्रारंसिद्धि॥ पोताना स्वामीए युक्त के दृष्ट न होय तो ते अनुक्रमे पुरुष (वर)ने, वहुने अने पुत्रने हणे बे, परंतु जो युक्त के दृष्ट होय तो ते तेने हणता नयी.” हवे नव श्लोकवझे सर्व कार्यमा साधारण एवा ग्रहसंस्थारूप शुन्नाशुन योगोने कहे जे. खानेऽरौि शुना धर्मे श्रीवत्सो यद्यरौ शनिः । अर्धेन्मुर्विक्रमे मन्दो रविाने रिपौ कुजः ॥४२॥ अर्थ-जो अगीयारमा स्थानमा रवि अने मंगळ होय, नवमा स्थानमा शुल ग्रहो (सौम्य ग्रहो) होय अने बना स्थानमां शनि होय तो ते श्रीवत्स योग कहेवाय जे. १. अहीं "यद्यरौ" एटले "जो अरि ( शत्रु) स्थानमां" एम “जो" शब्द लखवानुं था तात्पर्य जे. जे जे ग्रहो जे जे स्थाने नियमित कर्या बे ते ते ग्रहो ते ते स्थानेज होवा जोश्ए, अने बीजा ग्रहो गमे ते स्थाने होय तोपण आ योग थाय . ए प्रमाणे सर्व योगोमां जेम संनवे तेम जाणवू. विक्रम (३) स्थानमां शनि होय, लान (११) स्थानमा रवि होय अने रिपु (६) स्थानमा मंगळ होय तो बीजो अर्धेन्दु नामनो योग थाय . २. शंखः शुनग्रहैबन्धुधर्मकर्म स्थितैर्नवेत् ३।। ध्वजः सौम्यैर्विलग्नस्थैः कुरैश्च निधनाश्रितैः ४ ॥ ३ ॥ गुरुर्धर्मे व्यये शुक्रो लग्ने ज्ञश्चेत्तदा गजः ५। कन्यालग्नेऽलिगे चन्छे हर्षः शुक्रेज्ययोम॑गे ६ ॥४४॥ अर्थ-बंधु (४) स्थानमां, धर्म (ए) स्थानमां अने कर्म (१०) स्थानमां शुन ग्रहो रहा होय तो शंख योग थाय बे. ३. लग्नमां सौम्य ग्रहो रह्या होय अने निधन (0) स्थानमां क्रूर ग्रहो रह्या होय तो ध्वज योग श्राय . ४. धर्म (ए) स्थानमां गुरु रह्यो होय, व्यय (१२) स्थानमां शुक्र होय अने लग्नमां बुध होय तो गज योग थाय . ५. कन्या राशिनुं लग्न होय, अने वृश्चिक (6) राशिमां चंड रह्यो होय, तथा मकर राशिमां शुक्र अने गुरु रहेला होय तो हर्ष योग थाय . ६. अहीं हर्ष योगमां कन्या लग्ननो नियम करवाथी एवं जणावे बे के बीजा योगोमां खननो कांश पण नियम नथी. हर्ष योगनी स्थापना नीचे प्रमाणे. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३४३ धनुरष्टमगैः सौम्यैः पापैर्व्ययगतैनवेत् । कुठारो नार्गवें षष्ठे धर्मस्थेऽर्के शनौ व्यये ॥४५॥ मुशलो (लं ) बन्धुगे नौमे शनावन्त्येऽष्टमे विधौ ।। चक्रं च प्राचि चक्रार्धे चन्मात् पापशुनैःक्रमात् १०॥४६॥ ___ अर्थ-आवमा स्थानमां सौम्य ग्रहो रह्या होय, अने बारमा स्थानमा पाप ग्रहो रह्या होय तो धनुष् योग थाय . ७. बम स्थाने शुक्र होय, धर्म (ए) स्थाने सूर्य होय अने बारमे स्थाने शनि होय तो कुगर योग थाय . ७. बंधु (४) स्थाने मंगळ होय, बारमे स्थाने शनि होय अने आपमे स्थाने चंज होय तो मुशळ योग थाय बे. ए. चं (कुंमळी)ना पूर्व अर्ध नागमां प्रथम चंज अने त्यारपती पाप ग्रह अने शुल ग्रह एवा क्रमश्री चं योग श्राय बे. १०. एटले के लग्नना जेटला नवांशो नदित होय तेटला दशमा स्थानना नवांशोनी पी प्रदक्षिणाने क्रमे गमन करतां (जतां ) चोथा स्थानना तेटलाज अंशो सुधी चक्र (कुंमळी )नो पूर्वार्ध कहेवाय बे. ते पूर्वार्धमा प्रथम चंज मूकवो, अने त्यारपतीनां स्थानोमा प्रथम पाप ग्रह अने त्यारपीना स्थानमा शुन्न ग्रह मूकवो. ए अनुक्रमे ग्रहोनी संस्थाने विषे चक्र योग थाय ने. चक्र योगनी स्थापना सौ. २/ १२ सौ. MAN ११ सौ. कूर्मः पुत्रार्थ श्रन्ध्रान्त्ये १२वारमन्देन्दुत्नास्करैः ११ वापी पापैस्तु केन्ऽस्थै १ योगाः स्यु दशेत्यमी ॥४॥ अर्थ-पांचमा स्थानमा मंगळ, बीजा स्थाने शनि, आठमा स्थाने चंड श्रने बारमा स्थाने सूर्य होय तो कूर्म योग थाय . आ प्रमाणे या कूर्म योगमां स्थानोनो अने ग्रहोनो अनुक्रम जाणवो. ११. तथा केन्जमां पाप ग्रहो रह्या होय तो वापी नामनो योग थाय बे. १२. आ रीते आ बार योगो थाय बे. रत्नमालामां गज विगेरे चार योगोनुं लक्षण आ प्रमाणे कडं जे."तनुनवनवगैः क्रमेण योगो, बुधविबुधार्चितपङ्गुनिर्गजः स्यात् ।। व्ययरिपुहिबुकेषु वक्रशुक्रद्युमणिसुतैः क्रमशः कुठार एषः ॥ १ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ॥श्रारंसिधि॥ रविकविरविजेन्मुनिः क्रमेण, व्ययधनपनिधनेषु कूर्म एपः ३।। व्ययनिधनतनूषु मन्दचन्तारण किरणैर्मुशलं जगुर्मुनीन्त्राः । ॥२॥" __"पहेला स्थानमा बुध, नवमा स्थानमा गुरु श्रने अगीयारमा स्थानमा पंगु (शनि) रह्यो होय तो गज योग थाय बे. १. बारमा स्थानमां शनि, बजा स्थानमा शुक्र अने चोथा स्थानमां बुध रह्यो होय तो कुठार योग थाय बे. २. बारमा स्थानमा सूर्य, वीजा स्थानमा शुक्र, बा स्थानमां शनि अने आठमा स्थानमां चंड होय तो कूर्म योग थाय . ३. वारमा स्थानमां शनि, आठमा स्थानमां चं अने पहेला स्थानमां सूर्य होय तो मुशळ योग थाय बे. ४. एम मुनींजो कहे ." एज्यः श्रीवत्सपूवोः षट् पूर्व सर्वेषु कर्मसु । श्रेयस्तमा धनुर्मुख्यास्त्वन्यथा स्युः पमुत्तरे ॥ ४ ॥ अर्थ-श्रावारे योगमांना श्रीवत्सादिक पहेला उ योगो सर्व कार्यमा अत्यंत शुन्न , अने . धनुष् विगेरे बाकीना योगो अन्यथा एटले अत्यंत अशुल . विशेष प्रा प्रमाणे . "उदयमगे मम्मं १ नवपंचमि कूरकंटयं नणियं । . दसमचलत्थे सनं ३ कूरा उदयस्थितं बिदं ॥१॥ मम्मदोसेण मरणं कंटयदोसेण कुलक्ख हो। सोण रायसत्तू बिदे पुत्तं विणासेश् ॥२॥" . "क्रूर ग्रहो पहेले अने आपमे स्थाने रह्या होय तो मर्म नामनो दोप थाय . १. नवमे अने पांचमे स्थाने रह्या होय तो क्रूरकंटक कह्यो . २. दशमे अने चोथे स्थाने रह्या होय तो शट्य थाय बे. ३. अने पहेले तथा सातमे स्थाने रह्या होय तो विष दोष थाय . प. मर्म दोषे करीने पोतानुं मरण थाय ने, कंटक दोपे करीने कुलनो क्ष्य थाय ने, शट्य दोषे करीने राजा शत्रुरूप श्राय बे, अने विज दोष होय तो पुत्रनो विनाश थाय बे" एम पूर्णन कहे जे. श्रानन्द जीवश्नन्दन ३जीमूतवजय५ स्थिरा ६ मृता योगाः । गुरुसितैः प्रत्येकं ठिकत्रिकैश्चापि लग्नगतैः ॥ ४ ॥ अर्थ-बुध, गुरु अने शुक्र ए दरेक दरेक, बवे अने त्रणे लग्नमां रह्या होय तो तेणे करीने अनुक्रमे आनंद १, जीव २, नंदन ३, जीमूत , जय ५, स्थिर ६ अने अमृत ७, ए सात योग थाय बे. लग्नमा रहेला दरेक बुध, गुरु अने शुक्रे करीने अनुक्रमे आनंदादिक त्रण योग थाय बे, (एटले के लग्नमां बुध होय तो आनंद १, गुरु होय तो जीव २, अने शुक्र होय Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३४५ तो नंदन ३ योग थाय ने,) लग्नमां बुध अने गुरु रह्या होय तो जीमूत ४ योग प्राय बे, बुध अने शुक्र होय तो जय ५ योग थाय , गुरु अने शुक्र होय तो स्थिर ६ योग थाय ने, तथा लग्नमां बुध, गुरु अने शुक्र त्रणे रह्या होय तो अमृत ७ योग श्राय . अहीं किनो अर्थ बबे अने त्रिकनो अर्थ त्रण थाय . योगा यथार्थनामानः सर्वेषूत्तमकर्मसु । ऐश्वर्यराज्यसाम्राज्यविधातारः क्रमादमी ॥५॥ अर्थ- साते योगो सर्व उत्तम कार्यमा यथार्थ नामवाळा होवाथी शुन्न , तथा श्रा योगो अनुक्रमे ऐश्वर्य, राज्य अने साम्राज्यने करनारा . राजाने जे शासन करे ते सम्राट् कहेवाय ने, तेथी साम्राज्यनो अर्थ चक्रवतीपणुं थाय बे. अनुक्रमे ऐश्वर्या दिकने करनारा बे एटले के एक एक ग्रहवाळो योग होय तो ऐश्वर्य आपे, बबे प्रहनो योग होय तो राज्य आपे, अने त्रणे ग्रहनो योग होय तो साम्राज्य आपे. आरीते सर्व (१२-४-७) मळीने त्रेवीश योग थाय जे. हवे प्रतिष्ठाना लग्नमां रेखाने आपनारी ग्रहसंस्था कहे .प्रतिष्ठायां श्रेष्ठो रविरुपचये ३-६-१०-११ शीतकिरणः, खधर्माब्ये तत्र५-३-६-५-१०-११ क्षितिजरविजौत्र्यायरिपुगौ३-११-६। बुधवाचार्यों व्ययनिधनवर्जी १-२-३-४-५-६-७-८-१०-१९भृगुसुतः, सुतं यावद्वग्नान्नवमदशमायेष्वपि तथा?-२-३-४-५-ए-१०-११ ॥५१॥ अर्थ-प्रतिष्ठामां सूर्य जो उपचय (३-६-१०-११)स्थानमा रह्यो होय तो ते श्रेष्ठ बे. चं धन (२) अने धर्म (ए) स्थान सहित पूर्वनां स्थानोमां (२-३-६-ए१०-११) रह्यो होय तो ते श्रेष्ठ बे. मंगळ अने शनि त्रि, आय अने रिपु (३-११-६) स्थानमा श्रेष्ठ बे. बुध अने गुरु व्यय (१२) तथा निधन (७) ए बे स्थान सिवाय बाकीनां (१-३-३-४-५-६--ए-१०-११) स्थानोमां श्रेष्ठ बे. तथा शुक्र लग्नथी सुत (पांचमा) नवन सुधी (१-२-३-४-५) तथा नवमा, दशमा अने अगीयारमा स्थाने रहेलो श्रेष्ठ बे. वळी त्रिविक्रमे नंग देनारा ग्रहो या प्रमाणे कह्या बे."लग्नमृत्युसुतास्तेषु पापा रन्ध्रे शुन्नाः स्थिताः। त्याज्या देवप्रतिष्ठायां लग्नषष्ठाष्टगः शशी ॥१" आ०१४ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ॥धारंसिधि॥ ___“पाप ग्रहो एटले रवि, मंगळ, शनि अने राहु जो पहेला, श्रापमा, पांचमा भने सातमा स्थानमा रह्या होय, शुन ग्रहो आठमा स्थानमा रह्या होय, अने चंज पहेला, बहा के श्रापमा स्थानमा रह्यो होय तो श्रा रीतनी ग्रहसंस्था देवनी प्रतिष्ठामा तजवा योग्य ते." आथी करीने एक पण ग्रह जंग देनारा स्थानमा रह्यो होय तो रेखाए करीने अधिक एवा पण लग्नने विषे प्रतिष्ठा करवी नहीं, परंतु नंग देनार स्थान एक पण न होय श्रने केटलाक ग्रहो श्ष्ट होय तथा केटलाक ग्रहो अनिष्ट होय तोपण रेखाए करीने अधिक एवा लग्मने विषे प्रतिष्ठा करवी. वळी केटलाक आचार्योए "उको चंड प्रतिष्ठामां रेखा आपनार " एम कडं चे, ते अमुक प्रकारना योगने श्राश्रीनेज कह्यु , अन्यथा प्रकारे ते रेखा थापनार थतो नथी एम जाणवू. या प्रमाणे त्रिविक्रमशतकनी टीकामां कडं बे. वळी नारचंजमां तो उत्तम १, मध्यम २, विमध्यम ३ अने अधम ४ ए रीते ग्रहोनी चार जंगी कही जे. ते आ प्रमाणे. "त्रिरिपा १ वासुतखे २ स्वत्रिकोणकेन्ले ३ विरैस्मरेऽत्रा ४ म्यर्थे ५। लाने ६ क्रूर १ बुधा २ र्चित ३ नृगु ४ शशि सर्वे ६ क्रमेण शुक्लाः॥१॥" "क्रूर ग्रहो ( रवि, मंगळ, शनि, राहु)त्रीजे तथा बछे स्थाने शुल बे. बुध पहेखेथी सुत स्थान सुधी (१-३-३-४-५) तथा ख (१०) स्थानमा शुल बे. गुरु स्व (२), त्रिकोण (ए-५) अने केन्द्र (१-४-४-१०) स्थानमां शुल बे. शुक्र उपरनां सात स्थानो (२-ए-५-१-४-१-१०)मांथी धन (२) अने स्मर (७) स्थान रहित एटले ए-ए-१-४-१० ए पांच स्थानोमां शुन्न . चंद्र अग्नि (३) अने थर्थ (२) स्थानोमां शुल . तथा सर्वे ग्रहो लाल (११) स्थानमां शुक्ल .” वळी "खेऽर्कः केन्जारिधर्मेषु शशी शोऽरिनवास्तगः।। षष्ठेज्यः स्वनिगः शुक्रो मध्यमाः स्थापनक्षणे ॥२॥ श्रारेन्धर्काः सुतेऽस्तारिरिष्ये शुक्रस्त्रिगो गुरुः।। विमध्यमाः शनिीखे सर्वे शेषेषु निन्दिताः ॥३॥" "दशमे स्थाने रहेलो सूर्य, केन्द्र (१-४--१०), अरि (६) अने धर्म (ए) स्थाने रडेलो चं, बछे, सातमे अने नवमे स्थाने बुध होय, बछे स्थाने गुरु होय, शुक्र बीजे के बीजे स्थाने होय तो ते प्रतिष्ठाने समय मध्यम बे. मंगळ, चंज अने सूर्य पांचमे स्थाने रह्या होय, शुक्र उछे, सातमे के बारमे स्थाने होय, गुरु त्रीजे स्थाने होय, शनि पांचमे के दशमे स्थाने होय तो ते विमध्यम जाणवा. शेष स्थानोमां सर्वे ग्रहो अधम ." Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > Dm २-३ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३४ प्रतिष्ठाने विषे ग्रहसंस्थानो यंत्र. उत्तम. मध्यम. विमध्यम. अधम. रवि | ३-६-११ १-२-४-9--ए-१२ चं |२-३-११ १-४-६-७-८-१० मंगळ ३-६-११ १-२-४-9--ए-१०-१२ बुध । १-२-३--५-१०-११ ६-७-ए ७-१२ गुरु १-२-४-५-ए-9-१०-११ ७-१२ शुक्र |१--५-ए-१०-११ शनि ३-६-११ ५-१० १-२-४-----१२ रा.के. ३-६-११ २-४-ए-G-ए-१०-१२ ० १-७ पूर्णला ग्रहसंस्थाना फळने या प्रमाणे कहे जे."प्रासादलंग १ हानी २ धनं ३ स्वजन ४ पुत्रपीम ५ रिपुघाताः ६। स्त्रीमृति ७ मृति धर्मगमाः ए सुख १० दि ११ शोका १२ स्तनोःप्रति सूर्यात्॥१॥" "प्रतिष्ठा लग्नमां जो सूर्य पहेले स्थाने रह्यो होय तो प्रासादनो नाश थाय १, बीजे होय तो हानि थाय २, त्रीजे होय तो धन मळे ३, चोथे होय तो स्वजनने पीमा थाय ४, पांचमे होय तो पुत्रपीमा थाय ५, बछे होय तो शत्रुनो नाश थाय ६, सातमे होय तो स्त्रीनु मरण थाय ७, ठमे होय तो पोतानुं मरण थाय , नवमे होय तो धर्मनो नाश थाय ए, दशमे होय तो सुख मळे १०, अगीयारमे होय तो शधि मळे ११ अने बारमे होय तो शोक थाय १२." "कर्तृविनाश १ धनागम २ सौलाग्य ३ घन्छ । दैन्य ५ रिपुविजयाः ६। शशिनोऽसुख ७ मृति - विघ्ना ए नृपपूजा १० विषय ११ वसुहानी १२॥॥" "चंड पहेले स्थाने होय तो प्रतिष्ठा करनारनो नाश थाय १, बीजे होय तो धननी प्राप्ति श्राय २, बीजे होय तो सौलाग्य थाय ३, चोथे होय तो युष थाय ४, पांचमे होय तो दीनता थाय ५, बछे होय तो शत्रुनो जय थाय ६, सातमे होय तो असुख थाय ७, आठमे होय तो मरण थाय , नवमे होय तो विघ्न थाय ए, दशमे होय तो राजाथी सन्मान मळे १०, अगीयारमे होय तो विषयविकारनी हानि थाय ११ श्रने बारमे होय तो धननी हानि थाय १२.” । "दहनं १ सुरगृहलंगो २ नूलालो ३ रोग । पुत्रशस्त्रमृती ५। रिपु ६ नारी स्वजन गुणत्रंशा एरोगा १० र्थ ११ हानयो १२नौमात् ॥३॥" "मंगळ पहेले स्थाने होय तो प्रासाद बळी जाय १, बीजे होय तो देवनो प्रासाद नांगी जाय २, त्रीजे होय तो पृथ्वीनो लाल थाय ३, चोथे होय तो रोग थाय ४, Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ॥ श्ररं सिद्धि ॥ पांच होय तो पुत्रनुं शस्त्रथी मरण याय ५, बहे होय तो शत्रुनो नाश थाय ६, सात होय तो स्त्रीनो नाश थाय 9, आवमे होय तो स्वजननो नाश थाय छ, नवमे होय तो गुणनो नाश थाय ए, दशमे होय तो रोग थाय १०, गीयारमे होय तो धन प्राप्ति थाय ११ ने बारमे होय तो हानि थाय १२. " " चिरमहिम १ धन २ रिपुक्ष्य ३ सुख ४ सुत ५ परिपन्थिमरण ६ वरकन्याः ७ । शशिजेन सूरिमृत्यु र्वसु ए कर्मा १० जरण ११ रैनाशाः १२ ॥ ४॥” "बुध पहेले स्थाने होय तो ( प्रतिमानो ) घणा काळ सुधी महिमा रहे १, बीजे होय तो धननो लाज थाय १, त्रीजे होय तो शत्रुनो दय थाय ३, चोथे होय तो सुख मळे ४, पांच होय तो पुत्रप्राप्ति थाय ५, बहे होय तो शत्रुनो नाश थाय ६, सातमे होय तो श्रेष्ठ स्त्रीनी प्राप्ति याय 9, आठ होय तो आचार्यनुं मरण थाय, नवमे होय तो धन मळे ए, दशमे होय तो कार्यसिद्धि थाय १०, अगीयारमे होय तो आभूषण मळे ११ ने बारमे होय तो धननो नाश थाय १२. " "कीर्ति १ वृद्धिः २ सौख्यं ३ रिपुनाशः ४ सुतसुखं ५ स्वजनशोकः ६ । स्त्रीसुख गुरुमृति धन ए लान १० इयो ११ हानि १२ रमर गुरोः ॥ ५ ॥ " "गुरु पहेले स्थाने होय तो कीर्ति वधे १, बीजे स्थाने होय तो वृद्धि याय २, चीजे होय तो सुख मळे ३, चोथे होय तो शत्रुनो नाश थाय ४, पांच होय तो पुत्रनुं सुख मळे ए, बहे होय तो स्वजननो शोक थाय ६, सातमे होय तो स्त्रीनुं सुख मळे 9, आठ होय तो गुरुनुं मरण थाय छ, नवमे होय तो धन मळे ए, दशमे होय तो लाज थाय श्रीयारमे होय तो शद्धि प्राप्त थाय ११ अने बारमे होय तो हानि ( मरण) थाय १२. " “सिद्धि १ धन २ मान ३ तेजः ४ स्त्रीसुख ५ पुष्कीर्तयः ६ सुताप्ति युता । १०, चैत्यादिसर्वहानि 9 वासुख ८ मितरेषु ए-१०-११-१२ पूज्यता शुक्रात् ॥ ६ ॥ " "शुक्र पहेले स्थाने होय तो कार्यसिद्धि थाय १, बीजे होय तो धन मळे २, बीजे होय तो मान पामे ३, चोथे होय तो तेज वधे ४, पांचमे होय तो स्त्रीनुं सुख मळे ए, होय तो अपयश मळे ६, सातमे होय तो पुत्रनी प्राप्ति तथा चैत्य विगेरे सर्वनो विनाश थाय प्र, ठमे होय तो असुख थाय तथा नवमे, दशमे, अगीयारमे के बारमे होय तो पूज्यपणुं प्राप्त थाय.” " पूजा १ कर्तृविघात १ जूरिविजव ३ प्रासादबन्धुयाः ४, पुत्राम ए विपक्षरोगविलय ६ ज्ञातिप्रियाव्यापदः ७ । गोप्राणविपत्ति पातकपरिष्वङ्गौ ए च कार्यक्षतिः १०, कान्ताकाश्ञ्चनरत्नजीवितधनं ११ मन्देन मान्द्योदयः १२ ॥ ७ ॥" Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३४ए "शनि पहेले स्थाने होय तो (प्रतिमानी ) पूजानो नाश थाय १, बीजे होय तो प्रतिष्ठा करनारनो नाश थाय २, त्रीजे होय तो घणो वैजव प्राप्त थाय ३, चोथे होय तो प्रासाद अने बंधुनो नाश थाय ४, पांचमे होय तो पुत्रनुं अकट्याण (मरण) थाय ५, बछे होय तो शत्रु अने रोगनो नाश थाय ६, सातमे होय तो ज्ञाति (सगा संबंधी) श्रने स्त्री, मरण थाय 9, बाग्मे होय तो गोत्रना (पित्राश्ना) प्राणनो नाश थाय , नवमे होय तो पाप कर्म बंधाय ए, दशमे होय तो कार्यनी हानि थाय १० अगीयारमे होय तो स्त्री, सुवर्ण, रत्न, जीवित अने धननी प्राप्ति थाय ११ तथा बारमे होय तो मांदगीनो उदय थाय १५.” ____ "सकलकुंमलिकासु विधुतुदः, शनिसमानफलो हि विचार्यताम् ।" “सर्व लग्नकुंमळीमा राहुने शनिनी जेवा फळवाळो जाणवो.” वळी लस तो था प्रमाणे कहे जे. "बलवति सूर्यस्य सुते बलहीनेऽङ्गारके बुधे चैव । ___ मेषवृषस्थे सूर्ये पाकरेऽचर्चाहती स्थाप्या ॥१॥" "सूर्यनो पुत्र (शनि) बळवान् होय, मंगळ अने बुध बळहीन होय श्रने मेष तथा वृष राशिमां सूर्य तथा चंज रह्या होय त्यारे अरिहंतनी प्रतिमानी स्थापना करवी." अहीं “मेषवृषस्थे"ने बदले केटलाएक आचार्यों "मेषमृगस्थे” एटले "मेष अने मृग राशिमां" एम कहे बे. "बलहीने त्रिदशगुरौ बलवति चौमे त्रिकोणसंस्थे वा। असुरगुरौ चायस्थे महेश्वरार्चा प्रतिष्ठाप्या ॥२॥" “गुरु बळहीन होय, मंगळ बळवान् होय अथवा त्रिकोणमा रह्यो होय तथा शुक्र अगीयारमे स्थाने रह्यो होय त्यारे महेश्वर ( महादेव )नी प्रतिमा स्थापन करवी." "बलहीने त्वसुरगुरौ बलवति चन्मात्मजे विलग्ने वा।। त्रिदशगुरावायस्थे स्थाप्या ब्राह्मी तथा प्रतिमा ॥३॥" __ "शुक्र बळहीन होय, चंनो पुत्र (बुध) बळवान् होय अथवा लग्नमां रह्यो होय तथा गुरु अगीयारमे स्थाने रह्यो होय त्यारे ब्रह्मानी प्रतिमा स्थापन करवी." “शुक्रोदये नवम्यां बलवति चन्ने कुजे गगनसंस्थे। त्रिदशगुरौ बलयुक्ते देवीनां स्थापयेदर्चाम् ॥ ४॥" "नवमीने दिवसे शुक्रनो उदय होय, चंड बळवान् होय, मंगळ दशमे स्थाने रह्यो होय अने गुरु बळवान् होय त्यारे देवीनी प्रतिमा स्थापवी." "बुधलग्ने जीवे वा चतुष्टयस्थे नृगौ हिबुकसंस्थे । वासवकुमारयन्छिनास्कराणां प्रतिष्ठा स्यात् ॥ ५॥" Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ॥श्रारंजसिद्धि॥ ___"बध लग्नमां रह्यो होय, अथवा गुरु चतुष्टय (१-४-७-१०) स्थानमा रह्यो होय अने शुक्र हिबुक (1) स्थानमा रह्यो होय त्यारे इन्छ, कार्तिकस्वामी, यक्ष, चंच अने सूर्यनी प्रतिष्ठा करवी." “यस्य ग्रहस्य यो वर्गस्तेन युक्ते निशाकरे। __प्रतिष्ठा तस्य कर्तव्या स्वस्ववर्गोदयेऽपि वा ॥ ६॥" __जे ग्रहनो जे वर्ग होय ते वर्ग करीने युक्त चंड होय त्यारे ते ग्रहनी प्रतिष्ठा करवी, अथवा पोतपोताना वर्गनो उदय होय त्यारे करवी.” । "अस्मात्कालाअष्टास्ते कारकसूत्रधारकर्तृणाम् । दयमरणबन्धनामय विवादशोकादिकर्तारः॥ ७॥" "श्रा उपर कहेला समयथी रहित काळे प्रतिष्ठा करी होय तो ते तेदेवो करावनार, सुथार अने करनारना क्य, मरण, बंधन, व्याधि, विवाद अने शोक विगेरेने करनारा थाय ने." विशेष ए ने जे-रेखा आपनारा दरेक ग्रहोए करीने सर्व कार्योमां वीश विशोपकवाळु बग्न थाय बे. ते या प्रमाणे. "अछुत विसा रविणो पण ससिणो तिन्नि दुति तह गुरुणो। दो दो बुहसुकाणं सहा सणिनोमराहूणं ॥१॥" "सूर्यना सामा त्रण वसा, चंधना पांच वसा, गुरुना त्रण, बुधना तथा शुक्रना बबे श्रने शनि, मंगळ तथा राहुना दोढ दोढ वसा होय जे." आ सर्व मळीने वीश वसा एटखे विशोपक थाय बे." हवे प्रतिष्ठाना लग्नमां विशेष कहे . बलहीनाः प्रतिष्ठायां रवीन्डुगुरुजार्गवाः । गृहेश १ गृहिणी सौख्य ३ खानि हन्युर्यथाक्रमम् ॥५॥ श्रर्थ-जो प्रतिष्ठामां सूर्य, चंद्र, गुरु श्रने शुक्र वळहीन होय तो ते अनुक्रमे घरना स्वामीने, तेनी स्त्रीने, सुखने तथा धनने हणे , एटले के सूर्य बळहीन होय तो घरना स्वामीनो नाश थाय बे, चं बळहीन होय तो तेनी स्त्रीनो नाश थाय ने विगेरे. अहीं बळहीन एटले पहेलां अढार प्रकारे अथवा नव प्रकारे ग्रहोनी निर्बळता कही ते जाणवी. अथवा तो नीच, क्रूर ग्रहे युक्त के अस्त पामेलो जे ग्रह होय ते निर्बळज कह्यो. तथातनु १ बन्धु सुत ५ यून धर्मेषुए तिमिरान्तकः । सकर्मसु १० कुजार्की च संहरन्ति सुरालयम् ॥ ५३ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३५१ अर्थ - पहेला चोथा, पांचमा, सातमा के नवमा स्थानमां जो सूर्य रह्यो होय ने उपरना (पांच) स्थानोमां के दशमा स्थानमां मंगळ के शनि रह्यो होय तो ते देवालयनो नाश करे बे. सर्व कार्यांशु ग्रहोनी शक्ति तथा तेना फळने कहे बे.. सौम्यवाक्पतिशुक्राणां य एकोऽपि बलोत्कटः । क्रूरैरयुक्तः केन्द्रस्थः सद्योऽरिष्टं पिनष्टि सः ॥ ५४ ॥ -- अर्थ – बुध, गुरु ने शुक्रमांनो कोइ पण एक बलोत्कट ( बलिष्ठ ) होय तेमज क्रूर तेनी साथ रहेलो न होय अने ते पोते केंद्रस्थानमा रह्यो होय तो ते तत्काळना रिष्ट योगनो नाश करे बे. ग्रह श्रीं बलोत्कट को बे, तेथी ग्रहोने विषे वीश प्रकारे बळ कहेलुं बे. ते या प्रमाणे. - "स्व १ मित्र २ र्दो ३ च ४ मार्गस्थ ए स्व ६ मित्रवर्गगो ७ दितः । जयी चोत्तरचारी च १० सुहृ ११ त्सौम्यावलोकितः १२ ॥ १ ॥ त्रिकोणा १३ यगतो लग्नात् १४ हर्षी १७ वर्गोत्तमांशगः १० । शिलं १० शरिफं २० यदि सौम्यैर्ग्रहैः सह ॥ २ ॥ सर्वयोगे वेदेवं बलानां विंशतिग्रहे । यावद्वलयुताः खेटास्तावद्विशोपकाः फलम् ॥ ३ ॥” " ग्रह पोताना स्थानमा रहेलो होय १, मित्रना स्थानमा रहेलो होय २, पोताना नक्षत्रमां रहेलो होय ३, उच्च स्थाने रहेलो होय ४, मार्गमा रहेलो ( मार्गी) होय ए, पोताना वर्गमा रहेलो होय ६, मित्रना वर्गमा रहेलो होय 9, उदय पामेलो होय, जयवाळो होय ए, उत्तरचा होय १०, मित्रे जोयेलो होय ११, सौम्य ग्रहे जोयेलो होय १२, त्रिकोणमा रहेलो होय १३, लग्नथी गीयारमे स्थाने रहेलो होय १४, ऋण प्रकारनो हर्षी होय १७, वर्गोत्तमना नवांशकमां रहेलो होय १८, सौम्य ग्रहनी साथे मुथुशिल योग होय १९, सौम्य ग्रहनी साथे भूशरिफ योग होय २०, या सर्व योग थाय तो ग्रहने विषेवीश वसा बळ थाय. जेटला बळवाळा ग्रहो होय तेटला विशोपका (वसा) फळ जाणवुं.” उपर त्रण प्रकारनो हर्षी ग्रह कह्यो बे. तेमां ग्रहोनुं हर्षस्थान चार प्रकारे कहेलुं बेते या प्रमाणे. - "गो एत्र्य ३ है ६ का १य ११ धी ए रिष्य १२ स्थानानि जास्करादिषु । हर्षस्थानमिदं पूर्व १ सर्वेषु स्वोच्चनं परम् ॥ १ ॥ १ 'मुथुशिल, २ मूशरिफ, आ बे योगनुं स्वरूप चतुर्थ प्रकाशना ४७ खोकना अर्थमां छे. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि॥ निशि सायं १ दिने ५ योषित् १ पुंग्रहैश्च ५ परं क्रमात् ३ । तुर्य व्योम्नस्तनुं यावत्तुर्याद्यावच्च सप्तमम् ॥२॥ पुंग्रहेषु तनोयोवत्तुर्य सप्तमतो ननः। स्त्रीग्रहेषु मुदः स्थानं । फलं तदनुमानतः ॥३॥" "सूर्यादि साते ग्रहोने विषे अनुक्रमे नवमुं,त्रीजुं, ब, पहेलुं, अगीयारमुं, पांचमुं श्रने बारमुं, आ स्थानो प्रथम हर्षस्थान के १. साते ग्रहोनां जे उच्च स्थान ने ते बीजुं हर्षस्थान ने २. स्त्रीरूप एवा चंड तथा शुक्र रात्रि तथा संध्याए होय, रवि, मंगल, गुरु आदि पुरुषरूप ग्रहो दिवसे होय तो था ग्रहोर्नु त्रीजें हर्षस्थान ३ ३. पुरुषरूप रवि, मंगळ, गुरु श्रादि ग्रहोने विषे चोथु दशमाथी लग्न सुधी (१०-११-१२-१), चोथेथी सातमा (५-५-६-७) स्थानो तथा सूर्य, चंड तथा शुक्रादिक ग्रहोने विषे लग्नथी चोथा सुधी (१-३-३-४), सातमाथी दशमा सुधी (७-७-ए-१०),आ स्थानो चोडुं हर्षस्थान डे ४,तेनुं फळ ते स्थानोना अनुसारे जाणवू." । आमां उच्च हर्षस्थान पूर्वे कहेढुंचे, तेथी अहीं गएयु नथी. ए रीते अहीं त्रण प्रकार- हर्षस्थान कडं. पूर्वे कहेली अगीयार अवस्थार्जने मध्ये जे ग्रह शुन अवस्थावाळो होय अथवा ब प्रकार आदि बळे करीने युक्त होय ते बळी (बळवान् ) जाणवो. ए रीते अन्य स्थळे पण ग्रहोनी सबळता जाणवी. मूळ श्लोकमां सद्यो रिष्टं एटले तत्काळनो रिष्ट योग, एटखे के ते वखते (कार्य वखते) जे लग्न, तिथि, वार विगेरे होय तेमना योगे करीने जे रिष्ट योग उत्पन्न भयो होय ते. जेम मध अने घीना समान योगे करीने विष योग थाय बे. श्रावा रिष्ट योगनो नाश करे ने एम जाणवं. ते रिष्ट योग आ प्रमाणे थाय . "उदयाजतलग्नमिति (ति) संक्रान्तेनुक्तदिवसमितियुक्ताम् । सैकां च विधाय बुधः पृथक् पृथक् पञ्चधा न्यसेत् ॥ १॥ क्षिप्त्वा तत्र क्रमशःतिथि १५ रवि १२ दश १० वसु मुनीन् ७ नजेन्नवनिः। शेषाङ्कः शरसङ्ख्यो यदि नवति तदा वदेनिपुणः॥२॥ कलह १ कृशानुनीति नूपनयं ३ चौरविवो । मृत्युः ।। क्रमशो नवेत् प्रतिष्ठापरिणयनादौ तदा रिष्टम् ॥ ३ ॥" "उदयश्री गयेला लग्नना प्रमाणने संक्रांतिना नुक्त (जोगवायेला ) दिवसना प्रमाणवझे युक्त करी तेमां एक नाखवो. पनी बुधने जूदो जुदो पांच प्रकारे स्थापन करवो. तेमां दरेकमां अनुक्रमे १५-१२-१-७ अने ७ उमेरवा. पळी तेने नवे नाग देवो. शेषमां जो पांच वधे तो निपुण पुरुषे रिष्ट योग कहेवो. प्रतिष्ठा अने विवाहादिकमां Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३५३ तेनुं फळ आ प्रमाणे जे.-जो एक शेष रह्यो होय तो कलह थाय, बे शेष रह्या होय तो अग्निथी नय थाय, त्रण रह्या होय तो राजाथी जय थाय, चार रह्या होय तो चोरनो उपजव थाय अने पांच रह्या होय तो मरण थाय." आ प्रमाणे ज्योतिपसार विगेरेमां कडं जे. अथवा. "तिथिवारनलग्नाङ्कान् संमीट्य न्यस्य पश्चशः। रसा ६रामा ३ मही १ नागा वेदा ४ स्तेपु क्रमाद्भुवाः॥१॥ क्षेप्यास्ततो ग्रहै एर्नागे पञ्चशेपे फलं क्रमात् । रुजा १नि क्षितिनृ ३ च्चोरलयं । मृत्युजयं ५ तथा ॥॥ राशिपञ्चकशेषाणां योगे तु नवनिहते। पञ्चशेषे नवेन्नागनीतिलग्ने निशागते ॥३॥" "तिथि, वार, नक्षत्र अने लग्नना अंकने एका करीने तेने पांच वार स्थापन करवा. तेमां अनुक्रमे उ, त्रण, एक, आठ अने चार नाखवा. त्यारपती तेने नवे नाग देवो. नाग देतां एकथी पांच सुधी जो शेष रहे तो अनुक्रमे या प्रमाणे फळ जाणवू. एक शेष रहे तो व्याधि थाय, बे रहे तो अग्निश्री जय थाय, त्रण रहे तो राजाथी जय थाय, चार रहे तो चोरथी नय थाय अने पांच शेष रहे तो मत्यनय थाय. रात्रिना लग्नमां पांचे राशिमां जे शेष रहेल होय तेने एका करीने पठी नवे नाग लेतां जो पांच शेष रहे तो सर्पनो जय थाय. ॥इति बुधपञ्चकदोषः॥ मूळ श्लोकमां “पिनष्टि" एटले "( तत्काळ रिष्ट योगनो) नाश करे " एम कडं. ते विषे जातकवृत्तिमां पण एमज लख्यु डे के-"बुध, गुरु अने शुक्रना उत्कृष्ट बळे करीने तथा रिष्ट योग करनारा ग्रहो उपर तेमनी (बुध, गुरु बने शुक्रनी) पुष्ट (पूर्ण) दृष्टि पमवाथी सर्वे रिष्ट योगोनी निवळता श्राय " एम कर्दा बे, तेथी यहीं पण तेज प्रकारे का. हवे ते (बुध, गुरु श्रने शुक्र )नाज उच्चपणाने विपे शक्तिनुं फळ कहे जे. बलिष्ठः खोच्चगो दोषानशीति शीतरश्मिजः। वाकूपतिस्तु शतं हन्ति सहस्रं चासुरार्चितः॥५५॥ अर्थ-बलिष्ठ अने पोताना उच्च स्थानमा रहेलो बुध एंशी दोषोने हणे ने, (एवोज) गुरु सो दोषोने हणे जे अने ( एवोज ) शुक्र हजार दोषोने हणे वे.. __ बलिष्ठ एटले सूर्यना विबनी साथे रहेलो न होय ए आदिए करीने अत्यंत बळवान्. श्रा (बखिष्ठ ) तथा पोताना उच्च स्थानमा रहेलो ए वन्ने विशेषणो गुरु अने शुक्रने आ०४५ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ॥श्रारंसिद्धि। पण जोमवां-जाणवां. दोषो एटले पादगत वेध, क्रांतिसाम्य विगेरे असाध्य दोषो सिवायना बीजा दोषोने हणे ने एम पोतानी मेळे जाणवू. वळी एंशी, सो अने हजार एवा शब्दो अहीं सख्या रे ते घणा, अतिघणा अने तेथी पण घणा जाणवा, परंतु कहेली संख्यावाळाज न जाणवा. अभिप्राय ए ले के बुध, गुरु अने शुक्र बलिष्ठ अने पोताना उच्च स्थानमा रहेला होय तो प्रतिष्ठादिक कार्य करवू शुन बे. एज प्रमाणे वागळ पण जाणवू. श्रा त्रणे ग्रहो केंजमा रह्या होय तो तेनी केटली शक्ति होय ते कहे .बुधो विनार्केण चतुष्टयेषु, स्थितः शतं हन्ति विलग्नदोषान् । शुक्रः सहस्रं विमनोनवेषु, सर्वत्र गीर्वाणगुरुस्तु लदम् ॥ ५६ ॥ अर्थ-सूर्यनी साथे नहीं रहेलो बुध चारमांधी कोइ पण केंप्रस्थानमा रह्यो होय तो ते लग्नना सो दोषोने हणे , सूर्य विनानो शुक्र सातमा सिवाय बाकीना कोइ पण केंषस्थानमा रह्यो होय तो ते लग्नना हजार दोषोने हणे ने अने सूर्य विनानो गुरु सर्वत्र एटले चारमांना कोइ पण केंजस्थानमा रह्यो होय तो ते लग्नना लाख दोषोने हणे ने. विनाऽर्केण सूर्य विना ए पद त्रणेनी साथे जोमवं. विमनोनवेषु एटले सातमा स्थानने वर्जीने बाकीनां केन्प्रस्थानोमां. सर्वत्र एटले केंजनां चारे स्थानोमां. रत्नमालाना नाष्यमां विमनोनवेषु ए पद त्रणे ग्रहोने विषे जोड्युं बे. ते विवाह अने दीक्षाने श्राश्रीने श्रहीं 'पण अवश्य जोमवं, केमके “विवाहदीक्ष्योलग्ने छूनेन्ग्रहवर्जितौ ।” “विवाह अने दीक्षाना लग्नमां सातमुं तथा चंजनुं स्थान ए वे स्थान ग्रहरहित होवां जोए" एम कडं जे. मूळमां लाख दोषोने हणवानुं कडं. ते विषे कह्यु ने के "तिथिवासरनक्षत्रयोगलग्नदणादिजान् ।। सबलान् हरतो दोषान् गुरुशुक्रौ विलग्नगौ ॥१॥ त्रिकोणकेन्जगा वाऽपि नङ्गं दोषस्य कुर्वते । वक्रनीचारिगा वाऽपि शजीवनृगवः शुन्नाः॥२॥" "लग्नमा रहेला गुरु अने शुक्र तिथि, वार, नक्षत्र, योग, लग्न अने मुहूर्त्तथी उत्पन्न श्रयेला बळवान् दोषोने (पण) हणे . बुध, गुरु अने शुक्र जो त्रिकोण के केंजमा रह्या होय तो ते दोषनो नाश करे , तथा ते बुध, गुरु अने शुक्र वक्र होय नीचना होय अथवा शत्रुना स्थानमा रहेला होय, परंतु शुन्न होय, तो ते पण दोषनो नाश करे बे." श्रहीं "शुज होय तो” एम जे कडं तेनो नावार्थ आ प्रमाणे . "वकारिनीचराशिस्थः शुन्जकृत्प्रोच्यते गुरुः।। स्वोच्चांशस्थः स्ववर्गस्थो नृगुणा शेन वा युतः॥१॥" Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३५५ "जो गुरु वक्री होय, नीच स्थानमा रह्यो होय अथवा शत्रुना स्थानमा रह्यो होय, परंतु पोताना उच्च अंशमा रह्यो होय, पोताना वर्गमा रह्यो होय अने शुक्र के बुधनी साथे रह्यो होय तो ते शुज कहेवाय " एम व्यवहारप्रकाशमां कडं बे. विशेष ए ले के-अहीं दोषो बे प्रकारना जाणवा. तेमां केटलाक दोषोपोते एकखाज ने हणे -दूषित करे , अने केटलाक बेत्रण मळीनेज लग्नने हणे , पण एकला हणी शकता नथी. तेमां एकला दोपो श्रा प्रमाणे बे. दीक्षामां पूर्णिमा तिथि १, प्रतिष्ठामा मंगळवार २, प्रतिष्ठादिकमां गुरुने चंपनुं बळ न होय ते ३, शिष्य अने स्थापकने गुरु, चंज अने सूर्य ए त्रणेनां वळ होवां जोइए ते न होय ते ५, विवाहमां वरने चंजनुं वळ न होय ते ५, कन्याने गुरु, चंड अने सूर्य ए त्रणेनां बळ होवां जोइए ते न होय ते ६, शिष्य, स्थापक, वर अने कन्याने जन्मनी राशिनु लग्न १०, ते चारेने जन्मलग्न, लग्न होय ते १४, तथा ते चारेने जन्मराशिथी श्रापमं लग्न १७, जन्मलग्नथी श्रावमं लग्न २२, जन्मराशिथी वारमं लग्न २६, थने जन्मलग्नथी बारमुं लग्न ३०, तेज शिष्यादिक चारेने जन्मनी राशिथी आठमा स्थानमा रहेला ग्रहोर्नु तात्कालिक लग्नमां (लग्नकुंमळीमां) पहेला नवनमा रहेवापणुं ३४, अथवा जन्मलग्नथी थाउमा स्थानमा रहेला ग्रहोगें तात्कालिक लग्नमां पहेला नवनमां रहेवापणुं ३७, ते चारेनां जन्मनक्षत्रो ४२, प्रतिष्ठादिक सर्व कार्यना लग्नमां क्रूर ग्रहोए जोगवीने मूकेलु ४३, नोग्य (जोगववानुं ) , अने आक्रमण करेलु नत्र, ४५ अथवा ग्रहविध नक्षत्र ४६, ग्रहन्निन्न (ग्रहे नेदेखें ) नक्षत्र ४७, ग्रहोना उदयवमे भूषित श्रयेलु ४७, तथा अस्तवमे ऽषित श्रयेलु पए, वक्र ग्रहे आक्रमण करेलु ५०, उटकापात विगेरे उत्पातथी इषित थयेलु नत्र ५१, लग्नगंमांत ५१, तिथिगंमांत ५३, नक्षत्रगंमांत ५५, एकार्गल ५५, विष्टि ५६, व्यतिपात ५७, वैधृत ५७, क्रांतिसाम्य एए, संक्रांतिनी पूर्वनी तथा पनीनी सोळ घमी ६०, अर्धयाम ६१, कुलिक ६१, ग्रहणनक्षत्र ६३, ग्रहणथी पित थयेला दिवसो ६४, लग्नथी ६५ चंथी ६६ के ते बन्नेथी ६७ सातमे स्थाने रहेलो क्रूर ग्रह, ते त्रणेथी सातमे स्थाने रहेलो शुक्र ७०, अशुन वार तथा होरा ७१, श्रशुल स्थाने रहेला ग्रहो ७२, नावरीतिथी पण निषि स्थानमां श्रावता ग्रहो ७३, खननी ७४, चंजनी अथवा ते वन्नेनी ७६ आगळ पाबळना पंदर त्रिंशांशनी मध्ये बे क्रूर ग्रहो आववाथी क्रूर कर्तरी थाय ने ते, लग्ननो स्वामी ७७, नवांशानो स्वामी ७ अथवा ते बन्ने ए नावे करीने उन होय ते, अथवा ते त्रणे नावे करीने आठमा होय ते ७२, नहीं कहेलो नवांशक ७३, आश्रितपणाए करीने १ जे वखते कार्य कर होय तेज वखते. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ॥ श्रारंसिद्धि। चंथी अशुद्ध थयेडं लग्न , के क्रूर ग्रहथी अशुद्ध थयेलं लग्न ७५, अथवा तेमनो नवांशक ७, उदयनी अशुद्धि तथा अस्तनी अशुद्धि ए.. "एषां मध्यादेकेनापि हि दोषेण इष्यते खग्नम् । निर्दोषैमिलितैन शुलं तानथो वक्ष्ये ॥१॥" "श्रा उपर गणावेला दोषोमांना एक दोषे करीने पण लग्न ऋषित थाय बे. हवे जे वे त्रण दोषो मळीने लग्नने अशुल करे ये ते दोषोने हुँ कहीश-कहुं ." । "चन्जस्य मृतावस्था १ यमाहिरदोऽग्निपः क्षणो यत्र । अवमं त्रिदिनस्पृग्वा ३ नवेत्तदा लग्नमशुनाय ॥२॥" "जे लग्नने विषे चंनी मरणावस्था होय १, जे मुहूर्त्तनो यम, सर्प, राक्षस के अग्नि स्वामी होय २, तथा अवम (क्य ) अथवा त्रण दिवसने स्पर्श करनारी (फटगु) तिथि होय तो ते लग्न अशुजने माटे ३." । _ "पापग्रहलत्ता १ चेउपग्रहः २ स्याघरायुधः पातः ३ । ज्ञात्वैवं त्रिनिरेतैर्नवेत्तदा लग्नमशुन्नाय ॥३॥" "जो पाप (5ष्ट ) ग्रहनी लत्ता होय १, उपग्रह होय २ तथा श्रेष्ठ आयुधवाळो पात होय ३, श्रा प्रमाणे श्रा त्रण कुयोगोवमे दूषित श्रयेलु लग्न होय तो ते अशुनने माटे बे." "दिव्ययगाश्चेत्क्रूराः १ सौम्यानां केन्जसंस्थितिन नवेत् । लग्नपति ष्टयुतो ३ नवेत्तदा लग्नमशुजाय ॥४॥" ___“जो क्रूर ग्रहो बीजा के बारमा स्थानमा रह्या होय १, सौम्य ग्रहो केंषस्थानमा रहेला न होय २ श्रने लग्ननो स्वामी 5ष्ट (क्रूर ) ग्रहनी साधे रहेलो होय ३ तो ते बन्न अशुजने माटे ." "शुलहगहीनं लग्नं १ प्रसूतिनं नो शुजैर्युतं दृष्टम् । केन्प्रस्थाश्चेन्न शुला ३ नवेत्तदा लग्नमशुनाय ॥ ५॥" "जो शुल ग्रहनी दृष्टि रहित लग्न होय १, जन्मनी राशि शुल ग्रहोए सहित के दृष्ट न होय २ तथा केंप्रस्थानमा शुन ग्रहो न होय ३ तो ते लग्न अशुनने माटे ३." अहीं प्रसूतिनं एटले शिष्य, स्थापक, कन्या अने वरनी जन्मराशि शुन ग्रहोए युक्त अथवा दृष्ट न होय एम जाणवू. . . "रविजीवौ समरेखौ शुद्ध्यां १ खग्नेऽपि मध्यनावफतौ । केन्जगतौ नो सौम्यौ ३ नवेत्तदा लग्नमशुनाय ॥६॥" Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३५० " जो सूर्य ने गुरु शुद्धिने विषे सम रेखावाळा होय १ छाने लग्नने विषे पण मध्यम फळवाळा होय २, तथा केंद्रमां वे सौम्य ग्रहो रहेला न होय ३ तो ते लग्न अशुनने माटे बे." "व्ययगः सौरो १ नवमे पापखगः सम्रदैर्वियुक्तः स्यात् २ | गुसुतयुक्तश्चन्द्रो ३ जवेत्तदा लग्नमशुजाय ॥ ७ ॥ " "जो बारमा स्थानमां शनि होय १, नवमा स्थानमां शुभ ग्रह रहित एकलो पाप ग्रहज रह्यो होय २ ने चंद्र शुक्रे करीने युक्त होय ३ तो ते लग्न अशुजने माटे बे.” प्रतिठामां शुक्र छाने चंद्रनो योग श्रेष्ठ बे, तेथी विवाहादिकमां आ योग छाशुन जाणवो"अन्त्यचतुर्थ लग्नं १ जन्मतिथि २ र्मास एव जन्माख्यः ३ । फागुन मी नार्कयुति ४ र्जवेत्तदा लग्नमशुजाय ॥ ८ ॥ " "बारमुं के चोथुं लग्न होय १, जन्मनी तिथि होय २, जन्मनो मास होय ३ तथा फाल्गुन मासमां मीन संक्रांति होय ४ तो ते लग्न शुजने माटे बे." या सर्वे समुदायवाळा दोषो बुध, गुरु छाने शुक्र केंद्रादिक स्थानमा रह्या होय तो हाय बे. ते विषे व्यवहारप्रकाशमां कहां बे के " हन्ति शतं दोषाणां शशिजः समुदायिनां हि केन्द्रस्थः । शुक्रो हन्ति सहस्रं बली गुरुर्लक्षमेकं हि ॥ १ ॥ " "कें मां रहेलो बुध समुदायवाळा सो दोषोने दो बे, बळवान् शुक्र हजारने हणे बे ने गुरु लाख समुदायी दोषोने इसे बे." जे एकला दोषो बे ते बे प्रकारना बे-साध्य छाने असाध्य तेमां गंगांत, विष्टि, परम जामित्र वेध विगेरे दोषो असाध्य बे. या दोषो होय त्यारे सर्व ग्रहोनुं बळ विगेरे विविध गुणो बतां पण लग्न ग्रहण करवा लायक नथी. कह्युं बे के" एकोsपि षयेद्दोषः प्रवृद्धं गुणसंचयम् । सम्पूर्ण पञ्चगव्येन मद्यबिन्दुर्घटं यथा ॥ १ ॥” " जेम दुध, दही, घी विगेरे पंच गव्ये करीने संपूर्ण नरेला घमाने एकज मदिरानुं बिंडु डूषित करे बे तेम वृद्धि पामेला गुणसमूहने एकज दोष डूषित करे बे. " जे साध्य दोषो बे तेमना प्रतिकारने वे श्लोकवके कहे बे. - लग्नजातान्नवांशोत्थान् क्रूरदृष्टिकृतानपि । हन्या वस्तनों दोषान् व्याधीन् धन्वन्तरिर्यथा ॥ ५७ ॥ अर्थ - लग्नथी उत्पन्न थयेला, नवांशकथी उत्पन्न थयेला छाने क्रूर दृष्टिए करेला पण दोषोने पहेला स्थानमा रहेलो गुरु हणे बे. जेम शरीरमां रहेला व्याधिउने धन्वंतरि दणे बे तेम. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ ॥श्रारंसिद्धि॥ तनौ एटले मूर्ति (पहेला ) स्थानमा रहेलो अति बलिष्ठ गुरु श्रा दोषोने हणे . सन्नथी उत्पन्न थयेला एटले "जन्मराशिं जनेलग्नं" (विमर्श ५, श्लोक श्ए)ए श्लोकमां कहेला दोषोने. नवांशकथी उत्पन्न श्रयेला एटले जे नवांशकनो अधिकार कर्यो न होय अर्थात् निषेध को होय ए विगेरेथी उत्पन्न श्रयेला दोषोने. क्रूर दृष्टिए करेला एटले "स्थापने स्युर्विधौ दृष्टे युक्त च" (विमर्श ५, श्लोक २०) ए श्लोकमां कहेला डे ते दोषोने हणे जे. आधी करीने “दर्शने यदि स्यादंशधादशकमध्यगः क्रूरः।। इन्दोर्खग्नस्य तथा न शुजः सर्वेषु कार्येषु ॥१॥" "चज भने लमनी दृष्टिए जो बार अंश सुधीमां क्रूर ग्रह रहेलो होय तो ते कोइपण (शुन) कार्यमा शुल नथी.” श्रा श्लोकनो लावार्थ था प्रमाणे बे.-पोतपोताना त्रिंशांशमा रहेता लग्न, चं श्रने बीजा सर्वे ग्रहो तात्कालिक (जे काळे कार्य करवानुं होय ते काळना) स्पष्ट करवा. पनी जे ग्रहोए लग्न अने चंड देखाता होय एटले लग्न अने चंज उपर जे ग्रहोनी दृष्टि पमती होय ते ग्रहोना श्रने खग्न तथा चंजना लोगवायेखा त्रिंशांशो वाद कर जो बाकी बार सुधी रहे तो क्रूर ग्रह अशुन जाणवो, अने सौम्य ग्रह होय तो ते शुन जाणवो. जेमके-चीशमा अंशमा रहेलो शनि आठमा अंशमा रहेला लग्न के चंजने जुवे , तेथी वीशमांथी थाउने बाद करतां बाकी बार रहे बे, माटे ते अशुल बे. ए प्रमाणे अगीयार, दश विगेरे बाकी रहे तो ते पण वर्जवा योग्य ने, परंतु वार करतां वधारे अंशमा रहेला क्रूर ग्रहनी दृष्टि दोषवाळी-वर्ण्य नथी. ___ मूळ श्लोकमां "क्रूर दृष्टिए करेला पण" एम पण एटले अपि शब्द सख्यो ने तेथी क्रूर ग्रहनी साथे रहेवाथी पण उत्पन्न थयेला दोषो अहीं जाणवा. ते विषे "दीदायां कुरुते चन्न" (विमर्श ५, श्लोक २५) ए श्लोकमां कडं . व्याधीन एटले जेम शरीरमा रहेला व्याधिने धन्वंतरि हणे बे. हवे शुल ग्रहोनी दृष्टिनी केटली शक्ति होय ले ? ते कहे जे. लग्नात् क्रूरो न दोषाय निन्द्यस्थान स्थितोऽपि सन् । दृष्टः केन्ऽत्रिकोणस्थैः सौम्यजीवसितैयेदि ॥५॥ अर्थ-क्रूर ग्रह लग्नथी निंद्य स्थानमा रहेलो होय तोपण जो ते केंद्र के त्रिकोणमां रहेला बुध, गुरु अने शुक्रे जोयेखो होय (था ग्रहोनी तेना पर दृष्टि पड़ती होय ) तो ते दोषने माटे नथी. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३एए निंद्य स्थान एटले श्रा पांचमा विमर्शमां "त्रिष्वपि क्रूरमध्यस्थौ” (श्लो० १३), "नवेजन्मनि जन्मात्" (३१), "शनिस्त्रिकोणकेन्द्रस्थ" (३२), "रविः कुजोऽर्कजो राहुः" (३३), "तनुबन्धुसुतधून" ( ५३ ), इत्यादि श्लोकोमां कहेला ते ते दोषोनो श्रा अपवाद बे. "दृष्टः" एटले जोयेलो एम सामान्य रीते कडं , तोपण अहीं पुष्ट दृष्टि जाणवी. वळी जो ते क्रूर ग्रहने बुध, गुरु अने शुक्र साथे स्वानाविक अथवा तात्कालिक मैत्री होय तो दृष्टिथी अधिक विशेष श्रयो एम जाणवु. कें अने त्रिकोणमा रहेला एटलुं कर्तुं ने तेना उपलक्षणथी पोताना उच्च स्थानमा रहेला ए विगेरे वझे अत्यंत बलिष्ठ होय ते पण जाणवा. कह्यु बे के ___ "कूरा हवंति सोमा सोमा गुणं फलं पयति । ___ जश् पास किंदविन तिकोणपरिसंवि वि गुरू ॥ १॥" "जो केंजमा रहेलो अथवा त्रिकोणमा रहेलो गुरु क्रूर ग्रहोने जोतो होय तो ते क्रूर ग्रहो सौम्य अश् जाय , अने सौम्य ग्रहोने जोतो होय तोते बमणा शुन्न फळने थापे ." हवे शुल ग्रहोनी संस्थाने कहे .त्रिकोणकेन्डायगतैः शुनग्रहैर्विसप्तमेनासुरपूजितेन च । स्युः क्रूरचन्ह रिपुदविक्रमाश्य ११ गैः,कर्तुःश्रियः सन्निहिताश्च देवताः॥५॥ अर्थ-शुन्न ग्रहो त्रिकोण, केंज अने अगीयारमा स्थाने रह्या होय, तेमां पण शुक्र सातमा सिवाय बीजां स्थानोमा रह्यो होय, तथा क्रूर ग्रहो अने चं उजा, त्रीजा अने श्रगीयारमा स्थाने रह्या होय. श्रावी ग्रहसंस्था समये कार्य कर्यु होय तो कर्ताने लदमी मळे वे श्रने प्रतिमानी सांनिध्यमां देवता रहे . सातमा स्थानने वर्जीने केंज अथवा त्रिकोणमा रहेलो शुक्र जाणवो. क्रूरचन्ः एटले क्रूर ग्रहो अने चंड. ते चं श्रने क्रूर ग्रहो प्रतिष्ठादिक लग्नमां त्रीजे, उठे अने श्रगीयारमे स्थाने रह्या होय तोज ते शुल बे. अहीं था प्रमाणे अपवाद जे. "पापोऽपि कर्तृजन्मेशः केन्प्रस्थः शस्यते ग्रहः। शून्यानि च केन्जाणि मूर्ती जीवशनार्गवाः॥१॥" "कर्ताना जन्मनो स्वामी पापी-क्रूर होय तोपण जो ते ग्रह केंजमा रह्यो होय तो ते शुन्न ने, अने केंजस्थान श्रशून्य होय तो ते वखाणवा लायक , तथा पहेला स्थानमा रहेला बुध, गुरु अने शुक्र शुक्ल ले." नावार्थ ए डे के-कर्ता एटले प्रतिष्ठा करावनार, श्रावक, दीक्षा लेनार शिष्य अथवा दीक्षा देनार गुरुना जन्मने विषे अथवा नामने विषे जे राशि होय तेनो स्वामी पापी होय तोपण जो ते केंजमा रह्यो होय तो शुज ने, अने केंप्रस्थाने शुल ग्रहो सहित होय तो ते श्रेष्ठ , पण शून्य होय तो ते श्रेष्ठ नथी. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ॥श्रारंसिद्धि ॥ मूळ श्लोकमां “संनिहिता" एटले प्रतिमाने विष देवता सांनिध्य करे बे एटखे रहे वे. धावा प्रकारना लग्न वखते प्रतिष्ठा करवी. ए तात्पर्य जे. अहीं प्रतिष्ठाने आश्रीने था ग्रहसंस्था कही बे, परंतु श्रावी ग्रहसंस्था सर्व शुन कार्यमां सिद्धिापनारी जे एम जाणवू. हवे उदय अने श्रस्तनी शुद्धि कहे .- . पश्यन्नंशाधिपो लग्नं नवेमुदयशुरुये। अंशास्ते ७ शस्तु लग्नास्तमस्तशुष्यै विलोकयन् ॥ ६ ॥ अर्थ-जो अंशाधिपति लग्नने जोतो होय तो ते उदयशुधिने माटे , परंतु अंश (नवमांश लग्न )थी सातमा स्थाननो स्वामी जो लग्नथी सातमा स्थानने जोतो होय तो ते अस्तशुद्धिने माटे थाय बे. अहीं अंशाधिप अंश शब्दे करीने यहीं सर्वत्र नवांशकज ग्रहण करवो, केमके ते नवांशने विषेज उदय अने अस्तनी शुद्धि जोवाय बे. वळी “प्रनुरिद नवांशः" अहीं नवांशोज प्रनु बे एम कडं बे, परंतु बादशांश के त्रिंशांशने विषे श्रा शुद्धि जोवाती नथी. "उदयशुपये" अहीं चतुर्थी विन्नक्ति तादर्थ्य-तेने अर्थे एवा अर्थमा जे. एज प्रमाणे श्रागळ पण जाणवू. तेथी करीने-उदय पामेलो नवांशनो स्वामी पोताना स्थानमा रहीने जो लग्नने जोतो होय तो उदयशुद्धि थाय ने, केमके लग्नने जोवामां त्यां रहेला नवांशकनु पण तेनाथी अपृथक् (अनिन्न )पणाए करीने जोवापणुं बे. अंशाधिपः ए उपलक्षण ने, तेथी करीने प्रश्नादिकना लग्नने, विषे लग्ननो स्वामीज खन्नने जोतो होवो जोइए. कह्यु बे के-"शिरःशून्यं तदा लग्नं यदा स्वामी न पश्यति।" "ज्यारे लग्ननो स्वामी लग्नने जोतो न होय त्यारे ते लग्न मस्तक रहित जे एम जाणवू." अंशास्तेशः-अस्त एटले सातमुं स्थान, तेथी करीने आवो अर्थ जाणवो के-लग्नने विषे जे राशिना नामनो नवांशक होय ते राशिथी जे अस्त-सातमुं स्थान, ते सातमानो स्वामी जो लग्ननी अपेक्षाए सातमा स्थानने जोतो होय तो अस्तशुद्धि जाणवी. जावार्थ ए ने जे-कर्क लग्मनो त्रीजो कन्या नवांशक ग्रहण कर्यो होय त्यारे जो नवांशनी कन्या राशिथी सातमा स्थानमा रहेली मीन राशिनो स्वामी गुरु मेष, वृश्चिक, वृष, कन्या, तुल, मिथुन अने कमांना कोइ पण स्थानमा रहीने कर्क लग्नथी सातमी मकर राशिने जोतो होय तो कर्क लग्नना कन्या नवांशकमां अस्तशुद्धि थर जाणवी. ए रीते बीजे ठेकाणे पण जाणवू. केटलाक श्राचार्यों कहे के-"लग्नना नवांशकनी समान नामवाळी राशि कोइ पण स्थाने रहीने पोताना स्वामीवमे जोवाती होय त्यारे उदयशुद्धि कहेवाय जे." ते विष हरिना सूरि पण कहे जे के १ पोताने स्थाने. २ लग्नथी. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३६१ "उदयत्यसुधिमिएिंद जणामि उद नवंसगो इत्य । तम्मि श्र लग्गविश्मे सनाहदि उदयसुधी ॥१॥" __ "हवे हुँ उदय अने अस्तनी शुधिने कहुं बुं-शहां उदयशुद्धि नवमांशमा रही . ते उदयशुधिमां लग्नमां अंगीकार करेल नवमांशने नवमांशनो स्वामी जोतो होय तो उदयशुद्धि जाणवी." _श्रानुं उदाहरण एजे-मिथुन लग्ननो मीन नवांशक लीधो होय त्यारे ते (मीन )ना स्वामी गुरुए जो मीन राशि जोवाती होय तो जदयशुद्धि जाणवी. एरीते सर्व काणे जाणवं. स्थापना नीचे प्रमाणे. व्यवहारप्रकाशमां तो श्रा बन्ने प्रकारनी शुधिने घणी मानी . एटलुं तेनुं फळ उत्तम कडं . ते आ प्रमाणे. "अंशाधिपतेदृष्टिर्यदांशशास्तपस्य नागास्ते १। नागपतेर्लग्ने वाऽप्यंशास्तपतेर्विलग्नास्ते ॥१॥ उदयास्तस्य च यदि दृष्टेः शुद्धिर्जवेदिखनेऽत्र । कान्ताया मङ्गट्यान्यतनूनि तनौ प्रजायन्ते ॥॥" "खग्नमां ग्रहण करेल नवमांशना स्वामीनी जो नवमांश उपर दृष्टि होय तो उदयशुद्धि नवमांशथी सातमा स्थानना स्वामीनी दृष्टि नवमांशथी सातमा स्थान उपर होय तो अस्तशुद्धि. अथवा नवमांशना स्वामीनी लग्न उपर दृष्टि होय तो उदयशुद्धि. नवमांशथी सातमाना स्वामीनी लग्नथी सातमा स्थान उपर दृष्टि होय तो अस्तशुद्धि. अहीं लग्नने विष जो दृष्टिथी उदय अने अस्तनी शुद्धि होय तो स्त्रीना शरीरमां घणां मांगलिक थाय जे." यतिवसनमा तो या प्रमाणे पण कडं जे."उदयास्तांशतुझ्याख्यराश्योरपि विलोकने । योगेऽथवा परे प्रादुरुदयास्तविशुद्धताम् ॥ १॥" • "उदयांश श्रने अस्तांशनी तुट्य नामवाळी बन्ने राशिना जोवामां अथवा योगमां केटसाक श्राचार्यो उदय अने अस्तनी शुद्धि कहे बे.” अहीं विलोकने एटले पोत भा०४६ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ॥ श्रारं सिद्धि || पोताना स्वामीए ( ते बन्ने राशिने ) जोयेल होय तो. योगे-उदयांश अने अस्तांशना नामवाळी बन्ने राशि पोतपोताना स्वामीए अधिष्ठित होय तो. उदय ने अस्तनी शुद्धिना प्रकरणथी मात्र दृष्टिनुंज काम बे, तेथी ते दृष्टि पुष्ट अथवा अपुष्ट गमे ते होय तेमां कांइ पण विशेष जाणवो नहीं. विवाहेषु द्वयोर्ग्राह्या विशुद्धिरुदयास्तयोः । प्रतिष्ठादी दयोस्तावानस्तशुद्धौ तु नाग्रहः ॥ ६१ ॥ अर्थ - विवाहने विषे उदय ने अस्त बन्नेनी शुद्धि अवश्य ग्रहण करवी, परंतु प्रतिष्ठा ने दीक्षामां अस्तनी शुद्धि माटे एटलो वधो आग्रह नथी. ग्राह्या ए शब्दमां आवश्यक अर्थमां ध्यण प्रत्यय थयेलो होवाथी " अवश्य ग्रहण करवी " एवो अर्थ थाय छे. अस्तशुद्धि माटे आग्रह नथी एटले के उदयशुद्धि तो सर्व कार्यना लग्नमां होवीज जोइए ए अभिप्राय बे. - बाबतमां हरिजन सूरि तो आ प्रमाणे कहे बे. "वयगहणपश्धासु उदयत्य विवि पि सुहं । मन्नति के लग्गं तं च मयं वहुमयं नेयं ॥ १ ॥ " "केटलाएक आचार्यो व्रतग्रहण ( दीक्षा ) अने प्रतिष्ठामां उदय रहित लग्नने पण शुभ माने वे श्र मत घणाने संमत बे एम जाणवुं." ते ग्रहण करवा लायक लग्ननो ने तेना नवांशादिकनो गुण दोषनी चिंता (विचार) करवा पूर्वक निर्णय कर्या बतां पण ते समय क्यारे आवे बे ? ते जाणवा माटे लग्न काळ लाववानो प्रकार कहेवानो बे. तेमां प्रथम लग्ननुं मान (प्रमाण) कहे बे. - मध्ये मेषऊषौ पलैर्जनयनै २२७ मतङ्गतत्वे २५० वृषः, कुम्नो वा मिथुनः पुनर्मकरव त्तर्काचधूमध्वजैः ३०६ । कर्की धन्विवदम्बराम्बुधिगुणै ३४० रत्राब्धिरामैरलिः ३४०, सिंदश्चाथ कनीघटौ ग्रहरदै ३१५ रुद्यन्त्यमी राशयः ॥ ६२ ॥ अर्थ - मध्य देशमां मेष ने मीन राशि २२७ पळोए करीने उदय पामे बे, वृष कुंन २५० पळोए करीने उदय पामे बे, मिथुन ने मकर ३०६ पळो करीने उदय पामे बे, कर्क ने धन ३४० पळे, सिंह ने वृश्चिक ३४० पळे तथा कन्या ने तुला ३२ पळोए करीने उदय पामे बे. ने अस्तनी शुद्धि मध्ये एटले "हिमवदिन्ध्ययोर्मध्यं” “हिमालय ने विंध्याचल पर्वतनो मध्य” इत्यादि निघंटुमां कहेवाथी मध्य देशमां श्रा या राशि आटला आटला पळो करीने Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३६३ उदय पामे वे. पळ एटले एक घमीनो साउमो नाग. एक पळनुं प्रमाण साठ गुरु अदरोए करीने थाय . ते साठ गुरु अदरवाळो कामक्रीमा नामनो बंद (श्लोक) होय बे. ते आ प्रमाणे. "देवः श्रीसर्वज्ञो विश्वश्रीशः सिधिस्त्रीकान्तः, काममोहाग्निर्मायादोषान्नास्वान्नीरागः । चन्ऽश्वेतश्लोकः स्याघादारामाब्दो लोकार्यो, वीतापायः शान्तो लोकेन्योऽसंख्यं सौख्यं देयात् ॥१॥" "विश्वनी लक्ष्मीना स्वामी, सिद्धिरूपी स्त्रीना पति, कामदेवरूपी वृक्षनो नाश करवामां अग्नि समान, मायारूपी रात्रीनो नाश करवामां सूर्य समान, राग रहित, चं जेवा उज्वळ कीर्तिवाळा, स्याहादरूपी आराम (वाग )ने नवपल्लवित करवामां मेघ समान, त्रिजुवनना लोकने पूज्य, कष्ट रहित अने शांत एवा श्रीसर्वज्ञ देव लोकोने असंख्य सुख आपो.” __ एक पळना मानवाळो आवो श्लोक साठ वार वोलवाथी एक घमी थाय जे. अहीं कोई शंका करे के-“पळना प्रमाणवाळा श्लोकचं बोलतुं शीघ्र शीघ्रतरपणे अथवा मंद मंदतरपणे पण संलवे बे, तेश्री आ कहेलुं पळy मान शी रीते मळतुं आवे?" श्रानो उत्तर ए जे जे-"शीघ्रता अने मंदता रहित मध्यमपणे बोलवू एज अहीं जेलं , केमके सर्व व्यवहारो लोकमां मध्यम प्रमाणे करीनेज प्रवर्ते बे. अथवा सूक्ष्म दृष्टिवाळाने या बीजी रीते पण जाणवू के-संगीतशास्त्रमा प्रसिद्ध एवा पंचमातृक नामना ताळने अविछिन्नपणे ( एक धाराए) चोवीश वार हाथ अने मुखवमे सम्यक् प्रकारे स्पष्ट करवायी सर्वथा प्रकारे विसंवाद विनाज एक जळपळ थाय ." ताळर्नु स्वरूप तया तेने स्पष्ट करवानो विधि संगीतशास्त्रने जाणनारा पासेथी जाणवो. मूळ श्लोकमां जनयनैः २२७ कह्या बे. तेमां आ प्रमाणे संप्रदाय बे."लकोदया नागतुरङ्गदम्रा २७०, गोऽङ्काश्विना श्एए रामरदा ३१३ विनाड्यः। क्रमोत्क्रमस्थाश्चरखंमकैः स्वैः, क्रमोत्क्रमस्थैश्च विहीनयुक्ताः॥१॥ मेषादिषणामुदयाः स्वदेशे, तुलादितोऽमी च पमुत्क्रमस्थाः।" "लंका नगरीना उदयन-लग्न, मान २७०-२एए अने ३२३ पळोनुं . आ पळोने अनुक्रमे तथा उत्क्रमे स्थापन करवा. ( तेथी करीने मेषथी कन्या सुधीना लग्ननुं मान श्रयु. हवे तेज पाग उत्क्रमे करीने तुलाथी मीन सुधीनुं मान जाणवू. ते नीचेनी स्थापनाथी स्पष्ट समजाशे.) पी जे देशना लग्ननुं मान करवं होय ते देशना पोताना चरखंमोए करीने अनुक्रमे रहेला नपरना (२७०-२एए-३२३ ) त्रण अंकने अनुक्रमे १चरखंडनी समजुती हमणांज नीचे कहेशे. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ॥श्रारंसिधि॥ करीनेज रहित करवा ( बाद करवा), अने उत्क्रमे रहेला ( ३५३-२एए-२७० ) त्रण अंकने उत्क्रमे करीने युक्त-सहित करवा, तेथी ते 7 अंको पोताना देशमां मेषादिक राशिनां लग्न थयां एम जाणवू, अने तेज 3 अंको उत्क्रमे स्थापन करवाथी तुलादिक ब राशिनां लग्न जाणवां." खंकाना लग्नना पळोना माननी स्थापना क्रम अने उत्क्रमवमे था प्रमाणे - मेष २७० मीन वृष एए कुंन मिथुन ३२३ मकर कके ३१३ धन . सिंह एएए वृश्चिक कन्या ७० तुल श्रा सनमानना पळोमांधीज "अयनलव" इत्यादि नीचे कहेला करणकुतूहलनी रीते करीने प्राप्त थयेला पोतपोताना देशना चरखमोने अनुक्रमे बाद करवाथी तथा सहित करवाश्री पोतपोताना देशनां लग्नमान आवे जे. ते रीत आ प्रमाणे . "श्रयनलवदिनैः प्राग्मेषसंक्रान्तिकालाजवति दिवसमध्ये या प्रत्नाऽपना सा। दश १० गज ७ दश १० निघ्नी सा प्रनाऽन्या विलक्ता, प्रतिगृहचरखंमानीति तज्ज्ञा वदन्ति ॥१॥" "जे दिवसे सूर्य मेष राशिमा संक्रमे बे ते दिवसनी पहेलाना अयनांशना दिवसो मूकीने पीना दिवसे मध्याह्नसमये जे देशमां जेटली देहनी गया थती होय ते बाया विषुववाया अने अक्षप्रना एवे नामे कहेवाय जे. ते गयाने (अंगुलनी संख्याने) त्रण वार स्थापन करी तेने अनुक्रमे १०- अने १० वझे गुणवी. पनी बेबी संख्याने त्रणवमे जाग देवो. तेम करवाथी त्रणे ठेकाणे जे संख्या श्रावी ते चरखंमो कहेवाय जे." रोश्री करीने मध्य देशमा ५१-४१-१७ चरखंमो आवे बे. पली उपर लंका लग्नना १ एम धारो के मध्य देशमां मध्याह्ननी छाया अंगुल ५ अने व्यंगुल ८ नी छे. तेने त्रण वार स्थापन करतां ५-८, ५-८, ५-८. प्रथमने १० वडे गुणतां ५०-८० आव्या. ८० व्यंगुलने ६० वडे भाग देतां भागमां एक आव्यो, ते ५० मां उमेरतां ५१ थया. एज रीते बीजी ५-८ संख्याने आठे गुणतां ४०-६४. ६४ मांथी एकने उपर नाखतां ४१ थया. त्रीजी संख्याने तेज रीते दशे गुणतां ५१ आव्या. तेने त्रणे भाग देतां १७ आव्या, तेथी ५१-४१-१७ ए चरखंडो थया. आ देहछायानुं प्रमाण ग्रंथमा आप्युं नथी. समजुतीने माटे अनुमाने लख्युं छे. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंन्न ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३६५ श्लोकमां “क्रमोत्क्रमस्थाश्चरखंमकैः स्वैः” “अनुक्रमे अने उत्क्रमे रहेला ते लंका लग्नना पळो अनुक्रमे तथा उत्क्रमे स्थापन करेला चरखंमोवमे रहित अने सहित करवा' एम कडं ने, माटे जेम लंका लग्ननी त्रण राशिने अनुक्रमे (२७०-२एए-३५३) तथा उत्क्रमे ( ३५३-शएए-२७०) करीने स्थापन करी , तेज रीते चरखमोनी त्रण राशिने पण अनुक्रमे (५१-४१-१७) तथा उत्क्रमे (१७-१-५१) स्थापन कावी. पती प्रथमनांत्रण लंकालनोमांथी प्रथमनीत्रण चरखंमोनी राशिने बाद करवी. अने पजीनां त्रण लग्नोमां पीनी त्रण राशि नाखवी-नेळववी. तेम करवाश्री मध्य देशमा मेषथी कन्या सुधीनी बराशिनां लग्नो थयां. तेज उ लग्नो उत्क्रमे स्थापन करवाश्री तुलाने आरंजी मीन पर्यंतनां लग्नो थाय . तेनी स्थापना नीचे प्रमाणे. मध्य देशमा लग्नना माननी स्थापना मेष २७ मीन वृष मिथुन ३०६ मकर कर्क ३४० सिंह ३४० वृश्चिक कन्या ३२ए तुला तेज रीते अणहिलपुर पाटणमा ५३-४३-१७ चरखंको श्राय जे. केवी रीते श्राय ? ते बतावे . "अणहिलपुरे तस्मिन् दिने मध्याह्नसंन्नवा । गया विषुवती पञ्चाङ्गुला व्यङ्गुलविंशतिः ॥ १ ॥ दशादिघ्ने ये षष्ट्या हृतेऽथ व्यङ्गुलाङ्कके। लब्धं चोपरि संयोज्यं मानमेवं ततो नवेत् ॥ २॥" "अणहिलपुर पाटणमा ते दिवसे मध्याह्नसमये विषुवती नामनी देहगया अंगुल ५ अने व्यंगल २० नीचे. या वन्ने (५-२० )ने दश, आठ अने दशवमे गणवा. व्यंगुलना अंकने साठे जाग देतां नागमां आवेला अंकने उपर अंगुलना अंकमां चमाववो. तेम करवायी उपर कहेलु ( ५३-३३-१७) चरखंमोनुं मान अशे.” आ सर्व रीत मुहूर्त्तसारमा कही बे. __ त्यारपती आ (५३-५३-१७) चरखंमोवझे बकानां लग्नोनो संस्कार करवाश्री श्रणहिमपुर पाटणनां लग्नो थाय ने, ते बाबत कहे जे. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ॥ श्रारंलसिधि॥ श्रीमौर्जरपत्तने त्वजऊषौ तत्वादिनि २२५ घटौ, षट्तत्त्वैः२५६ शरखाग्निनिश्च ३०५ मिथुनो मार्गाननो वा पलैः। कर्की दमातिशय ३४१ धनुर्वदलिवत्सिंहो द्विवेद त्रिकैः ३३५, कन्येन्छत्रिदशै ३३१ स्तुलावजुदयं यान्तीति मेषादयः ॥ ६३ ॥ अर्थ-श्रीमत् गुर्जर देशना पाटणमा मेष अने मीन लग्न २२५ पळोए करीने उदय पामे बे, वृष श्रने कुंज २५६ पळोए करीने, मिथुन अने मकर ३०५ पळोवमे, कर्क श्रने धन ३४१ पळोवके, सिंह अने वृश्चिक ३४२ पळोवमे तथा कन्या अने तुला लग्न ३३१ पळोवमे उदय पामे , एटले के आटला आटला (जपर कहेला) पळोवमे ते ते मेषादिक खनो उदय पामे . तेनी स्थापना नीचे प्रमाणे. मेष २५ मीन वृष २५६ कुंल मिथुन ३०५ मकर कर्क ३४१ धन सिंह ३४२ वृश्चिक कन्या ३३१ तुला हवे खग्नोनुं उदय संबंधी घमीनुमान श्रने होरादिक, पळमान प्रसंग होवाश्री लखे .लग्नानां मानं होराणां मानं प्रेष्काणानां नवांशानां मानं बादशांशानां त्रिंशांशानां मानं मानं मानं घटी-पल पल-अदर पल-अक्षर पल-अझर-व्यदर पल-अक्षर पल-अक्षर मेष ३-४५ ११५-३० ७५ २५ १०-४५ | ७-३० वृष ४-१६ १२० -ए-२०२०-२६-४० २१-२० मिथुन ५- ५ १५५-३० | १०१-४३३-२३-२० २५-२५ १०-१० कक ५-४१ १७०-३० ११३-०३७-५३-२० २०-२५ ११-२५ सिंह ५-४२१७१ ११४ २०-३० ११-२४ कन्या ५-३१ १६५-३० ११०-२०३६-४६-४० २७-३५ । ११- २ तुला -३१ १६५-३० ११०-२०३६-४६-४० २७-३५ वृश्चिक ५-४२१७१ ११४३७ २०-३० ११-२४ धन ५-४१ १७०-३० ११३-४०३७-५३-२० ११-१२ मकर ए-ए|१५२-३० १०१-४०३३-५३-२० २५-२५ १०-१० कुंन ४-१६ | १२० ५-२०२०-२६-४० | २१-२०७-३२ मीन ३-४५ ११५-३० । ७५ २५ १०-१५ -३० २०-२५ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३६७ विशेष श्रा प्रमाणे बे."रेवत्युदयादव्यादीन्युजवन्ति जलपलैः क्रमशः। चित्रान्तान्यतुनन्दै ए६ दिखरूपै १०२ रष्टखावनिनिः १०० ॥१॥ शरकुकुन्तिः ११५ खनिकुन्नि १२० युगगुणरूपै १३४ र्वसूदधिमृगांकैः १४। शशिपञ्चकुलि १५१ स्त्रिशरदमानिः १५३ करविषयवसुधानिः १५२ ॥२॥ त्रीषुकुन्नि १५३ रष्टयुगकुन्नि १४ रगचतुरेकैः १५७ पब्धिकुनि १५६रेवम् । हस्तादेः प्रतिलोमं स्वात्याद्युदये क्रमान्मानम् ॥३॥ अनिजिच्च वसुजिनै रिति शहाणामुदयपलसंस्था ।" "रेवतीनो उदय श्रया पठी अश्विनीथी आरंलीने चित्रा पर्यंतनां नक्षत्रो अनुक्रमे नीचे खखेला जळपळोए करीने उदय पामे के. अश्विनी ए६, नरणी १०२, कृत्तिका १०७, रोहिणी ११५, मृगशिर १२०, आळ १३५, पुनर्वसु १४७, पुष्य १५१, अश्लेषा १५३, मघा १५२, पूर्वाफाल्गुनी १५३, उत्तराफाल्गुनी १४०, हस्त १४७ अने चित्रा १४६ जळपळोए करीने उदय पामे . हस्तादिकना उत्क्रमे करीने स्वाति, विशाखा विगेरेना उदयनुं मान जाणवु. तथा अनिजित् नक्षत्र २४७ जळपळोए करीने उदय पामे वे. या प्रमाणे नक्षत्रोना उदयना पळोनी संस्था जाणवी." स्थापना नीचे प्रमाणे. ११५ १२० १३४ १४ १५१ १५३ १५२ १५३ १४ १४७ १४६ अन्निजित् २४० श्रा नक्षत्रोमां अनिजितने वर्जीने अश्विनीथी सवा बबे नक्षत्रोनुं मान मेळववाथी नपर कहेढुं राशिनुं मान श्राय . (जेमके-अश्विनी ए६, जरणी १०२ अने कृत्ति Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ॥श्रारंजसिद्धि काना पहेला पादना पळो २७ मेळववाथी २२५ पळ थया, तेथी घमी ३ पळ ४५ मेष राशिना लग्ननुं मान थयु. कृत्तिकानां पाउला त्रण पादना पळो ७१, रोहिणीना ११५ अने मृगशिरनां वे पादना पळो ६० मेळववाथी कुल पळो २५६ थया, तेथी घमी ४ पळ १६ वृष राशिनुं मान थयु. ए रीते सर्वत्र जाणवू.) हवे राशिउनी विशेष संज्ञाने तथा तेना प्रमाणने कहे .छादशराशि गणो राशिस्तु त्रिंशता नवति नागैः । नागे षष्टिलिप्ता लिप्ता षष्ट्या विलिप्तानिः ॥ ६४ ॥ अर्थ-बार राशि मळीने एक जगण ( नदत्रोनो समूह ) कहेवाय . ( एटले के बार राशि अने नगण ए बे नाम समान ,) त्रीश नागे करीने एक राशि थाय ने, एक नागमा ६० लिप्ता होय जे, अने एक लिप्ता ६० विलिप्ताए करीने थाय बे. लागनुं बीजु नाम त्रिंशांश पण कहेवाय जे. तेनुं मान या रीते जे.__ "लग्नानां सर्वदेशेषु यन्मानं घटिकादिकम् । तच्च विघ्नं पलाद्यं स्यान्मानं त्रिंशांशकस्य हि ॥१॥" "सर्व देशोमां लग्नोनुं जे घटिकादिक मान कडं ने ते बमणुं करवायी जे संख्या श्रावे तेटला पळादिक त्रिंशांशनुं मान थाय .” ( कारण के एक घमीना बे त्रिंशांश होय बे, तेथी घमीने बमणी करीए तो तेटला पळ एक त्रिंशांशना थाय बे.) लिप्तानुं बीजुं नाम कळा अने विलिप्तान बीजुं नाम विकळा पण बे. विशेष एकेएक विलिप्ता ( विकळा )नी साठ परम विकळा होय . ते परम विकळानुं बीजं नाम अक्षर कहेवाय जे. एक अदना पण साठ व्यहरो होय , परंतु ते ( व्यझर ) अत्यंत सूक्ष्म काळ होवाथी व्यवहारने योग्य नथी. लग्नोनुं मान कह्यु. हवे सूर्यने स्पष्ट करवा माटे वारे संक्रांतिउनी अंतराल ( वच्चेनी) घमीउँने कहे जे. सङ्कान्त्यन्तरनामिका अथ धृति १७ मेषादितोऽश्वेषुनिः५७, जूतेनेज्य मुनिगोनि एरष्टवसुनि नेत्रर्तुनि ६ २७ स्तथा। अत्यष्टिश्च १७ समन्विता त्रिनवनिः ए३ खेटर्तुनिःपए खर्तुनिः ६०, सप्ताङ्गै ६७निधिकुञ्जरैदए रथ धृति १७ श्चन्छेक्षणैश्च १क्रमात् ॥६५॥ अर्थ-हवे संक्रांतिनी अंतराल घमी मेष राशिथी अनुक्रमे था प्रमाणे जे.-मेष अने वृष संक्रांतिनी वच्चे १०५७ घमी होय , एटले के मेष संक्रांति बेसे त्यारथी १८५७ घमीन जाय त्यारे वृष संक्रांति बेसे, अने त्यारपती १००५ घमी जाय त्यारे मिथुन संक्रांति बेसे. अर्थात् मेष संक्रांति १०५७ घमी सुधी रहे , वृष संक्रांति १०५ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुला ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३६ए घमी सुधी होय जे. एज रीते मिथुननी घमी १०एजे, कर्कनी १८, सिंहनी १७६२, कन्यानी १७२७, तुलानी १७ए३, वृश्चिकनी १७६ए, धननी १७६०, मकरनी १७६७, कुंजनी १७ए अने मीननी १७२१ घमी बे. सूर्यनी संक्रांति-संक्रमण बार राशिउने विषे होय . तेमना श्रांतरामा एटली एटली घमी होय बे. मूळ श्लोकमां "धृति" शब्द लख्यो , ते अढार अक्षरनी बंदोजाति , तेथी अढारनी संख्या जाणवी, अने “अत्यष्टि" शब्द सत्तर अक्षरनी बंदोजाति होवाथी तेनो अर्थ सत्तरनी संख्या जाणवी. मेषादिक थकी एटले मेष अने वृष संक्रांतिनी वच्चे धृति एटले १० अश्वेषुनिः एटले ५७ वझे सहित एटले के अढारसोने सतावनवमे युक्त करवा तेटली घमी होय . ए रीते आगळ पण जाणवू. संक्रांतिउंना अंतरनी नुक्तिनो यंत्र.मेष १८५७ १७ए३ वृश्चिक वृष १५ मिथुन वृश्चिक १७६ए धन मिथुन १न्ए७ कके धन १७६० मकर कर्क १० सिंह मकर १७६७ कुंज सिंह . १७६२ कन्या कुंन १७नए मीन कन्या १२७ तुला । मीन १२१ मेष हवे सूर्यने स्पष्ट करवा माटे आ उपर कहेली घमीए करीने सूर्यने स्पष्ट करवानी रीत बतावे .स्फुटोऽथ नानुगतनामिकाभ्यः, संक्रान्तितः खज्वलना ३० हतान्यः । जागादिनिः स्वान्तरजुक्तिलब्ध, राश्यादिकःस्याजतराशियुक्तैः ॥६६॥ अर्थ-चालती संक्रांतिनी वीती गयेली घमीने त्रीशे गुणवी, पनी तेने उपर कहेली पोतानी अन्तरनुक्तिवझे नाग देवो. तेम करवाथी नागादिक (अंश विगेरे) श्रावे , अने गयेली राशिए युक्त करवाथी राशि विगेरेरूप सूर्य स्पष्ट थाय . इष्ट (कार्य) समये चालती संक्रातिनी जेटली घमी गश् होय ते सर्वने एकत्र करी त्रीशे गुणवी. स्वान्तरजुक्ति-पोतानी अंतरजुक्ति अने संक्रांतिनी अंतराल घमी ए बन्नेनो एकज अर्थ जे. पनी पोतानी अंतरनुक्तिवझे नाग दश्ने अंश, कळा अने विकळारूप त्रण प्रकारचं फळ ग्रहण करवु ( काढq ). पी गयेली राशिए एटखे जेटली आ०४७ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ॥श्रारंसिधि॥ राशि सूर्ये लोगवी लीधी होय तेनो अंक जपर मूकवो. एम करवाथी राशि विगेरे एटले राशि, अंश, कळा अने विकळारूप सूर्य स्पष्ट थाय बे. उदाहरण-विक्रम संवत् १५१५ वर्षे वैशाख सुदि 9 सोमवारे पुष्य नक्षत्रमा मेष राशिमां सूर्यनी संक्रांति थया पठी सत्तरमे दिवसे कर्क लग्ननो कन्या नवांशक कार्य करवामां लीधेलो बे. ते वखते मेष संक्रांतिनी एए। घमी, व्यतीत श्रश् . ते या प्रमाणे. सोळथी कांक अधिक दिवसो निर्गमन थया ने, तोपण प्रथम स्थूळ दृष्टिथी जोतां सूर्ये मेषना सोळ त्रिंशांशो नोगवी दीधा . शेष चौद त्रिंशांशो रह्या. तेना पळ १०५ श्रया. वृषनुं मान २५६ पळ, मिथुन- मान ३०५ पळो तथा कर्कना पहेला वे नवांशाना पळो ७५ अने अक्षर ४६ मे, ते ४६ अर्धा उपर होवाथी एक पळ गणतां कुल पळ ७६ श्रया. ते सर्व पळो एकत्र करवाथी ७५ थया. तेने ६० वझे नाग देतांनागमा १२ श्राव्या. ते (१२) खनना दिवसनी घमी थश्. शेष पळो २२ रह्या, तथा मेष संक्रांतिना दिवसनी शेष घमी २२ जे. वळी संक्रांतिना दिवस श्रने लग्नना दिवसनी अतराले सोळ दिवस होवाथी तेनी घमी ए६० थर. ते सर्वने एकत्र करतां एए। घमी अने २२ पळ मेष संक्रांतिनी गत घमी अश्. श्रा गत घमी एएच ने त्रीशे गुणतां ए७२० थया. तेने मेष अने वृष संक्रांतिनी अंतरजुक्ति जे उपर १८५७ घमीनी कही ले तेनावमे नाग देतां सोळ साध्या. ते (१६) जाग एटले अंश कहेवाय बे. नाग देतां शेष १०७ रहे , तेने ६० वझे गुणी उपरना २२ पळो नाखवाथी ६५०५ श्रया. तेने फरीश्री १०५७ वझे नाग देतां नागमां ३ लाध्या ते कळा थर. शेष ए३१ रह्या, तेने पण ६० वझे गुणीए त्यारे ५५०६० थाय. तेने पण १८५७ वझे नाग देतां नागमां आवेला ३० विकळा श्रश्. शेष १५० वध्या तेनो त्याग कर्यो. श्रा प्रमाणे नाग (अंश), कळा अने विकळाए करीने अंशादिक सूर्य स्पष्ट थयो. पनी मूळ श्लोकमां बीती गयेली राशिए युक्त करवानुं कर्तुं , तेथी वृष विगेरे संक्रांति होत तो गयेसी राशि पूर्वे मूकात, अने राश्यादिक पण थात, परंतु अहीं तो नुक्त राशि एके नथी, तेथी राशिने स्थाने । शून्य मूकवू, तेथी करीने कार्यने समये स्फुट सूर्य राशि, अंश १६, कळा ३ अने विकळा ३० थयो. हवे स्पष्ट थयेला सूर्यथी अयनांश सहित सूर्यनुं नोग्य मान लाववानी रीत कहे . १ एक त्रिंशांशाना ७॥ पळ छे तेथी, जुओ उपर त्रिंशांशाना माननो कोठो. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ गणित विपदेशात्तत्र दत्त्वाऽयनांशान् " पुनरपि जगणार्धं ६ रात्रिलग्ने तु दद्यात् । अथ हत उदयस्त्रिर्मुक्तशेषैर्ल वाद्यै रुपरि च खगुणा ३० तः स्यात्पलात्मार्कजोग्यम् ॥ ६७ ॥ अर्थ- गणितना जाणनारना उपदेशथी आवेला अयनांशोने ते स्पष्ट करेला सूर्य मां नाखवा, परंतु जो रात्रिनुं लग्न होय तो तेमां फरीथी जगणार्थ एटले ६ ळवा. (ते करवायी अयनांश सहित सूर्य थाय बे. ) ( हवे सूर्यनुं नोग्य मान लाववानी रीत कहे बे.) अथ एटले सायनांश सूर्य कर्या पक्षी ( करवाथी ) जे राशिनो उदय होय तेना पळोने ऋण वार स्थापन करी ते दरेकने मुक्तथी शेष रहेला लव ( ) विगेरेव गुणवा. ( पढ़ी बेला बे अंकने उत्क्रमथी साठे जाग दइ दइने उपर ahaar. ) उपर जे अंक यावे तेने त्रीशे जागतां जे लाघे तेटला पळो सूर्य जोग्य कवाय . ३७१ तत्र एटले स्पष्ट करेला सूर्यमां ते वर्षना अयनांशो नाखवा. अहीं एकला अयनांशोज काबे, तोप कळादिक पण नाखवी एम समजवुं, केमके ते कळादिक पण अयनांशरूपज बे. ए रीते सर्वत्र जावं, पण जो रात्रिने विषे लग्न होय तो ते राशिमां फरीथी र उमेरवा. आम करवाथी उपर जे राशि ( मेषादिक ) यावे ते नुक्त जाणवी, जे राशि तेनी पबीनी होय ते उदय कदेवाय बे. ते उदय राशिनुं जे पळरूप मानक होय ते पळोने ऋण वार स्थापन करवा. हवे ते मुक्त राशिनी उपरांत जे श, कळा विकळा होय ते मुक्त कदेवाय बे, माटे तेने वाद करतां जे अंश, कळाने विकळा श्रावे तेथे करीने त्रण वार स्थापन करेलुं ते लग्ननुं मान ( उदय राशिनुं पळरूप मान ) अनुक्रमे गुणवुं. बेल्ला वे अंकने साठे जाग दइ दइने पहेला पहेलानी संख्यामां नाखवाथी जे संख्या पहेला कमां थाय तेने त्रीशे नाग देतां जेटला लाधे तेटला पळवाळु अर्क जोग्य थाय बे. बाकी रहेला अंकने साठे गुणी त्रीशे जाग देतां उपरना पळ उपरांत अरोप वे बे. वे उदाहरणमां घटावतां पलां प्रथम अयनांश लाववा माटे गणितना ज्ञानवाळानो उपदेश बतावे बे. - विक्रम संवत् ९१५ मा वयी आरंजीने तथा शालिवाहन ना ४४४ मा वर्षी आरंजीने १४०४ वर्ष सुधी दरेक वर्षे एक कळा, एक विकळा अने वीश परम विकळा वृद्धि पामे बे. ६० कळाए करीने एक छायनांश थाय बे, तेयी करी ने Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ॥ आरंसिद्धि ॥ १५०४ वर्षे करीने २३ अंशो, ५५ कळा अने वार विकळा वधे जे. ए प्रमाणे अयनांशनी वृद्धि श्छली . पनी तेज क्रमे करीने हानि पामता ते अयनांशो तेटलांज एटले १४०४ वर्षे करीने खाली अश् जशे. ए प्रमाणे वारंवार ते अयनांशोनी वृद्धि अने हानि जाणवी. लग्नमां, क्रांतिसाम्यमां अने चर लाववामां आ अयनांशोनो उपयोग बे. कडंडे के __ "अयनांशाः सदा देया लग्ने क्रान्तौ चरागमे ।" "लग्नमां, क्रांतिसाम्यमां अने चर लाववामां हमेशां अयनांशो देवा.” हवे उदाहरणमां लीधेला इष्ट काळने विषे अयनांशो लाववा माटे या रीत जे. "आषाढे विक्रमं नन्दसप्तेषू ५७ए नं त्रिधा कु १ नू । नखै २० निघ्नं नजेत् षष्ट्या लब्धे स्युरयनांशकाः ॥१॥" "अपाम मासथी शरु थता विक्रम संवतमांयी ५७ए वाद करी बाकी रहे तेने त्रण वार स्थापन करवा. पनी ते त्रणेने अनुक्रमे १-१-२० वझे गुणवा. पठी तेने बेक्षा अंकथी साठे नाग दश् दश्ने पूर्व पूर्व अंकमां नाखवाथी अयनांशो श्राय बे." नावार्थ ए ले के-चैत्र मासथी शालिवाहननो शक शरु थाय बे. तेमां १३५ नाखवाथी विक्रम संवत् थाय बे. ते संवत् अषाम मासथी शरु थाय बे. ते स्थापन करवो. ते संवत् प्रकृत उदाहरणमा १५१२ जे. तेमांथी ५७ए बाद करतां शेष ए३३ रहे . था अंकने त्रण वार स्थापन करी तेने अनुक्रमे १-१-२० वझे गुणवा. ( तेथी ए३३ए३३-१७६६० श्राय ) तेने बेनेथी साठे नाग दश् दश्ने उपर उपर चमाववाश्री १५ अंश, ५३ कळा अने ४ विकळा थ. आ अयनांशनुं मान १५१५ मा वर्षमा सूक्ष्म दृष्टिथी आवे , परंतु दरेक वर्षे कांक अधिक एवी एक एक कळाज वधे जे. एवं स्थळ मानज घणा ज्योतिर्विदोने संमत ने, तेथी अभे पण स्थळ मानज अहीं लाए बीए, तेथी करीने १५१५ मा वर्षे १५ अंश अने ३४ कळा आवे बे. आ अयनांशने स्पष्ट करेला सूर्यमां नाखवायी अंश ३१, कळा ३७ अने विकळा ३० थाय बे. हवे दरेक राशिनुं मान ३० अंशज होय बे, तेथी आ अयनांशनी अपेक्षाए करीने जोतां सूर्ये श्राखी मेष राशि तुक्त थ गइ, अने वृष राशिनो १ अंश, ३७ कळा अने ३० विकळा पण नुक्त थइ एम सिघ थयु. स्थापना-१-१-३७-३०. आ सायन अथवा सायनांश एटले अयनांश सहित सूर्य थयो. हवे प्रकृत उदाहरणमां वृषनो उदय बे. तेनुं मान २५६ पळो ले. तेने त्रा वार स्थापना करवा-२५६-२५६-२५६. पनी सूर्ये लोगवेला मानमांथी अंशादिकनी अपेछाए शेष अंशादिक काढीए (एटले के अंश १, कळा ३० श्रने विकळा ३० काढीए) Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३७ त्यारे अंश २७, कळा २२, विकळा ३० रहे. आ त्रण अंकवझे उपरनी त्रण राशिल अनुक्रमे गुणतां ११६७-५६३५-७६०० थाय ने. तेने साठे नाग दर दश्ने पूर्व पूर्वन राशिमां नाखवाथी ७२६४ थाय बे. तेने ३० वमे नाग देतां २४२ पळो लाध्या. थ सूर्य नोग्य पळमान आगळ पर उपयोगमां श्रावशे, माटे स्थापी राखg. हवे इष्ट लग्ननुं नुक्त लाववावमे करीने इष्ट समयने स्पष्ट करवा माटे कहे जे. श्ष्टामुक्तनवांशकैर्दशगुणैस्याप्तैलवाद्यं फलं, लग्नं सायनमूर्ध्वराशिसहितं सैकप्रवृत्त्यंशकम् । तमुक्तेन लवादिना तऽदयः क्षुण्णो हृतस्त्रिंशता, नावद्भोग्यवदान्तरोदययुतः कालः पलात्मा नवेत् ॥ ६७ अर्थ-इष्ट लग्नना नुक्त नवांशोने दशे गुणी त्रणे नाग देतां जे अंशादिक फा आवे ते लग्न जाणवू. तेने अयन सहित करवू. पनी उपर (पहेलां) राशि सहिद (गयेली राशि सहित) करवू. पनी एक प्रवृत्त्यंश सहित करवं. तेटला अंशादिक जुत्त थया, ते नुक्तव ते (लग्न)ना उदयने गुणवो. पठी तेने त्रीशे नाग देवो. पडी ते सूर्य जोग्य अने आंतरोदय सहित करीए त्यारे तेटला पळरूप श्ष्ट समय स्पष्ट थाय . | लग्नमां जे नवांशक इष्ट होय तेनी पहेला जेटला नवांशक गया होय तेने दशे गुण त्रणे नागवा. जे लाधे ते अंश, कळा अने विकळारूप त्रण प्रकारचें फळ थाय जे. तेनेड खग्न जाणवू. ते लग्नने अयन सहित तथा व्यतीत श्रयेसी राशि सहित करीने तेमां एवं प्रवृत्त्यंश एटले अधिकार करेला नवांशकनो त्रीजो नाग नाखवो, परंतु प्रतिष्ठा अ विवाहमां जो धनुष राशिनो नवांशक लीधो होय तो तेमां नवांशकना त्रीजा नाग पण अर्ध नाखवं, केमके ते कार्यमा धनुषना नवांशकनो पहेलो अर्ध नागज श्छेलो के आ रीते करवायी जेटला अंश, कळा अने विकळा थाय तेटला नुक्त जाणवा. ते नुत्त एवा अंश, कळा अने विकळावमे करीने इष्ट लग्न, पळरूप मान त्रण वार स्थापर करीने गुणवं. पठी तेने प्रथमनी जेम साठे नाग दश दश्ने पूर्व पूर्वमां नाखी उपरन (पहेलो) जे एक आवे तेने त्रीशे जाग देतां जे पळ अने अदररूप मान आवे ते इष्ट लई नुक्त (जोगवेलु) कहेवाय बेतेनी अंदर पूर्वे आणेलुं सूर्य नोग्य नाखवू, तथा सूर्ये आक्रमण करेली राशिनी अने श्ष्ट लग्ननी अंतराले जेटलां लग्नो रह्यां होय तेनां पळरूप मानोनेपा तेमां नाखवा. या रीते करवायी जे अंक आवे तेटला पळोए करीने सूर्योदय पनी । लग्मनो श्ष्ट अंश आवे बे. उदाहरण-प्रकृत उदाहरणमां कर्क लग्ननो त्रीजो कन्या नवांशक ग्रहण कर्य बे, तेथी इष्ट एवा कन्या नवांशकनी पहेलां वे नवांशो व्यतीत थया ने, मा Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ॥ आरंसिधि॥ बेने दशे गुणतां वीश थया. तेने त्रणे नागतां ६ त्रिंशांशो लाध्या अने शेष ३ रह्या, एटले के जेटला त्रण लागे करीने एक त्रिंशांशक थाय तेटला बे नाग, तेथी करीने अंश ६ अने कळा ४० थाय बे, कारण के एक एक (दरेक) त्रिंशांशनी ६० कळा होवाथी बे त्रिजागे करीने १० कळाउंज थाय बे. या लग्न थयु. तेने अयन सहित करतुं बे, माटे अयनांश १५ अने कळा ३४ नेळववी. (१२-१४ थाय .) तथा जेटली राशि व्यतीत थ होय तेटलो अंक राशिने स्थाने मूकवो. ते अहीं कर्क लग्न ग्रहण करेलु होवाथी त्रणनो अंक आवशे, तथा अंशना अंकमां एक प्रवृत्यंश अने ७ कळा नाखवी, कारण के दरेक नवांशकमांत्रण त्रिंशांशो अने वीश कळा होय . तेनो त्रीजो नाग तेटलोज (१-५) थाय , तेथी करीने त्रण राशि व्यतीत अश् अने चोथी कर्क राशिना २३ अंशो अने २१ कळा पण व्यतीत थइ, तेथी (३-२३-२१) एटलु नुक्त थयु. अहीं नुक्त (व्यतीत श्रयेली) राशिनो उपयोग नश्री, तेथी तेणे नुक्त एटले चालता कर्क लग्नवमें नुक्त एवा अंश २३ कळा २१ वझे तेनो उदय एटले अहीं प्रकृत होवाथी कर्कनो उदय ३४१ पळना स्वरूपवाळो ने तेने बे वार स्थापन करीने गुणवो. जो विकळा होत तो त्रण वार स्थापन करीने त्रीजो अंक विकळावमे पण गुणात, पण अहीं तो विकळा नथी, तेथी वे वार स्थापन करवानुं कर्वा . आ रीते करवाथी (३४१ ने बे वार २३ अने २१ वझे गुणवाथी) ७०४३-४१६१ थाय बे. बीजा अंकने ६० वमे नाग देतां नागमा ११ए श्राव्या. तेने प्रथमना अंकमां नाखवाथी ए६२ थया. तेने त्रीशे नागतां २६५ पळो लाधी. शेष १२ रह्या तेने ६० वझे गुणी ३० वझे नाग देतां अदर २४ लाध्या. या पळ २६५, अदर २४ कर्क लग्नतुं नुक्त थयुं. तेने सूर्यना नोग्य सहित तथा आंतरोदयना लग्नना पळो सहित कर, चे, तेथी अहीं सूर्यना नोग्य पळो २४२, अने अांतरोदय तो मिथुनज . तेनुं मान ३०५ पळो . ते त्रणेने एकत्र करवाथी १२ पळो एटले के १३ घमी अने ३२ पळो थया. आटलो वखत सूर्योदयथी जाय त्यारे कर्क लग्ननो कन्या नवांशक आवे बे. अहीं विशेष आ प्रमाणे जे."योनवांशयोः शुद्धिः प्रतिष्ठायां विलोक्यते । श्राद्येऽधिवासना बिम्बे दितीये च शलाकिका ॥१॥ संस्थाप्य लग्नमानं गुणयेन्मध्यनवांशकैः। नवन्निस्तु हृते नागे लब्धेऽन्तरपलागमः ॥२॥" "प्रतिष्ठामां बे नवांशकनी शुद्धि होती जोश्ए. तेमां पहेला नवांशकमां बिंबनी १बे त्रिंशांशनी १२० कळा थइ तेनो बीजो भाग ४० थाय. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३७५ " धिवासना करवी ने बीजामां अंजनशलाका करवी. ते शुद्धि जोवानी रीत आ प्रमाणे - लग्ननुं मान स्थापन करीने तेने मध्य ( बच्चे ) ना नवांशकोव गुणवं. पनी तेने नवव नाग देवाथी जे लाधे ते अंतर पळो खावे बे. " हीं मात्र कति उदाहरण या प्रमाणे जाणवुं. - प्रतिष्ठामां आज कर्क लग्ननो त्रीजी कन्या नवांशक ने आठमो कुंज नवांशक ग्रहण करवाना बे, तेथी कुंज नवांशकनी पहेलां कन्यादिक पांच नवांशको बे, माटे कर्क लग्ननुं मान जे ३४१ बे तेने पांचे गुणी त्यारे १७०५ थाय बे. तेने नवे जाग देतां जागमां १८५ पळो ( एटले घमी ३ पळ ए ) वे बे. तेने त्री जो कन्या नवांशक ग्रहण करवा माटे स्पष्ट करेला १३ घमी ने ३२ पळरूप काळमां नाखवाथी घमी १६, पळ ४१ थया. आटलो वखत जाय त्यारे कुंजना नवांशकनी वेळा श्रावे बे. हवे लग्नना अंश ( नवांशक )नो समय स्पष्ट करवा माटे अयनांशनी अपेक्षा विना बीजो प्रकार कहे बे. अथवा तो. - संक्रान्तिराशेर्गतनामिकान्ने, माने दिवा निश्यथ सप्तमस्य । संक्रान्तिनोगेन हृते तदीयत्र्यंशान्विते शेषमिदार्कजोग्यम् ॥ ६० ॥ अर्थ-दिवसे लग्न होय तो संक्रांतिनी राशिनुं मान गयेली घमी व गुणवु, छाने रात्रिए लग्न होय तो सातमी राशिनुं मान गयेली घमीर्जवके गुणवुं. पनी तेने संक्रांतिनी जुक्तिव जाग दइ तेमां तेज राशिनो त्रीजो जाग नाखवो. शेष रहे ते अहीं सूर्य जोग्य जावं. दिवसनुं लग्न होय तो सूर्य संक्रांतिनी राशिनुं मान संक्रांतिना समयथी आरंभीने लग्नना समय सुधीमां जेटली घमी गइ होय तेटली घमीजवमे गुणवुं. रात्रिनुं लग्न होय तो सूर्य संक्रांतिनी राशिथी जे सातमी राशि होय तेनुं मान गुणवं. त्यारपवी पोतानी ( संक्रांतिनी ) अंतरजुक्तिव तेने जाग देवो. जागमां जे आवे तेमां प्रस्तुत राशिनो बीजो जाग जूदो पामीने नाखवो. तेम करवाथी जे थाय ते सूर्य मुक्त कहेवाय बे. सूर्य ने सूर्य संक्रांतिनी राशिमांथी बाद करवुं. जे शेष रहे ते सूर्य जोग्य कहेवाय बे. जेमके प्रकृत उदाहरणमांज दिवसना लग्नमां सूर्य संक्रांतिनी राशि मेष बे. तेनुं मान २२५ बे. संक्रांतिना समयनी पछी छाने लग्ननी पहेलां जे गयेली घमी ए४ बे ते बन्नेनो गुणाकार करतां २२३६५० थया. तेने पोतानी अंतरनुक्ति १०५७ वमे जाग लेतां १२० पळ लाध्या. त्यारपती सूर्यसंक्रांतिनी राशिना माननो त्रीजो जाग तेमां नाखवो, एटले के हीं मेनुं मान २२५ बे, तेने त्रणे जागतां १५ लाध्या. ते पूर्वना १२० मां Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ॥आरंजसिद्धि नाखवाथी १एए थया. आ सूर्य नुक्त थयु. सूर्यसंक्रांतिनी राशि मेषना मानरूप २२५ पळमाथी ते १ए५ बाद करीए त्यारे बाकी ३० पळो रहे. आ सूर्य नोग्य अयु. श्रा प्रमाणे दिवसना लग्नमां जाणवू. हवे रात्रिनुं लग्न होय त्यारे सूर्यसंक्रांतिनी राशिथी सातमी राशिनो सूर्य नुक्त घमी साथे गुणाकार, तेनी अंतरन्नुक्तिवमे नागाकार विगेरे सर्व सूर्यसंक्रांतिनी राशिनी प्रमाणेज करवं. नुक्तेऽथ लग्नस्य तदंशकाच्च, दद्याजिनागावुदयप्रवृत्त्योः। तबग्नजुक्तं च तथाऽर्कनोग्यं, कालोऽन्तरालोदययुक् पलात्मा ॥ ७० ॥ अर्थ-त्यारपजी तेना अंशनी (इष्ट नवांशक )नी पहेलां लग्नना नुक्तमा उदय श्रने प्रवृत्तिना त्रिनागो नाखवा. ते लग्न नुक्त कहेवाय बे. त्यारपळी ते लग्न नुक्त तथा सूर्य जोग्यने अंतराखना उदय सहित करवाथी जे आवे तेटला पळोवाळो काळ इष्ट लग्ननो जे एम जाणवू. अश्र-त्यारपनी तदंशकात् एटले श्ष्ट नवांशकनी, पहेला लग्नना नुक्तने विषे उदय अने प्रवृत्तिना त्रिनागो नाखवा एवो संबंध . नावार्थ या प्रमाणे जे.-अधि करेला नवांशकनी पहेला जेटलं खनन नुक्त होय तेने स्पष्ट करीने तेने विषे तेज लग्ननो त्रिनाग अने प्रवृत्त्यंश नामना तेज नवांशकना त्रिनागने नाखवा. त्यारपती ते लग्न नुक्त, पूर्वे आणेलुं सूर्य नोग्य अने अंतराल लग्नर्नु पळमान ए त्रणेने एकत्र करवां. जेटला पळो श्रावे तेटला पळोए करीने सूर्योदय पगी इष्ट लग्ननो इष्ट नवांशक श्रावे .. जेमके-अहीं कर्कनुं मान ३५१ जे. तेने नववमे नाग देवाश्री ३० पळो एक नवांशकनुं मान थयु. हवे अहीं इष्ट नवांशक ( कन्या नामनो)त्रीजो , तेनी पहेलां वे नवांशो गया बे, तेथी ३० ने वमणा करतां ७६ पळो श्रया. आटलुं ते लग्न नुक्त थयुं. त्यारपजी तेमां कर्क लग्नना मान ३४१ ने त्रणे नाग देतां ११४ पळो लाध्या. या उदयनो त्रिनाग थयो. तेने लग्न नुक्त ७६ पळोमा नाखवाथी १५० थया. त्यारपती जे नवांकश ग्रहण कर्यो तेनुं मान ३० पळy , तेनो त्रिनाग १५ पळ थाय . ते पण तेमां ( १ए मां ) नाखवाथी २०५ थया. पठी सूर्य जोग्य पळो ३०, तथा सूर्यसंक्रांतिनी (मेष ) राशिने अने इष्ट लग्न (कर्क )ने अंतराले वृष अने मिथुन बे. तेमनुं मान २५६-३०एब.सर्वना स्थापना-२०२-३०-२५६-३०५ या सवे एकत्र । करवाथी ए३ पळो थया. तेने ६० वमे नाग देतांघमी १३ पळ १३ खाध्या. आटलो काळ सूर्योदयथी जाय त्यारे कन्या नवांशक आवे . आ वीजी रीत होवाथी पळोमां पूर्वनी करतां फारफेर आव्यो तेमां का दोष नथी. एम बीजे ठेकाणे पण जाणवु. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३७७ श्रा प्रमाणे लग्नने श्राश्रीने समय लाववानी रीत कही. हवे तेनी प्रतीतिने माटे बे श्लोके करीने समयने श्राश्रीने लग्न लाववानी रीत बतावे ओ.त्यक्त्वार्कनोग्यं च पलात्मकालानागादिनोग्यं तरणौ निदध्यात् । क्रमेण शेषानुदयान् विशोध्य, राशीन्यसेत्तत्प्रमिताँश्च जानौ ॥१॥ अर्थ-पळरूप करेला काळमांथी सूर्य नोग्य बाद करवं. पछी अंशादिक नोग्यने सूर्यमां नाखवु. पनी अनुक्रमे शेष उदयोने शोधी ( बाद करी) तेटली राशिने सूर्यमां नाखवी. कोश्क माणस घमी, पळ विगेरे इष्ट काळ बोलीने प्रश्न करे के-“ए वखते कयुं लग्न, अंश विगेरे बे." ते वखते तेणे कहेली घमी विगेरे सर्वना पळो करवा. पड़ी ते पळरूप करेला काळमाथी सूर्य नोग्य जेटला पळो होय तेटला बाद करवा. पठी अयनांशो सहित स्पष्ट करेला सूर्ये जे राशि आक्रांत करी होय ते राशिनुं शेष रहेलुं जे अंश, कळा अने विकळारूप सूर्य नोग्य होय तेने सूर्यमां अने सायनांश स्पष्ट करेला सूर्यमांज नाखवू, एटले के ते राशि संपूर्ण करीने लखवी. त्यारपनी ते पळरूप करेला काळमाथी सूर्ये आक्रांत करेली राशिनी पतीनां पळरूप लग्नो (पीनां लग्नोना पळो) जेटलां नीकळे तेटलां काढीने तेटली राशिनो अंक सूर्यना अंकमां नाखवो. शेषादथ खगुण ३० गुणाद विशुद्धोदयहृतादवातेन । जागादिना सनाथो दिननाथो निरयनांशको लग्नम् ॥ २ ॥ अर्थ-त्यारपती शेषने ३० वझे गुणवा. पी तेने अशुछ उदय ( लग्न )वमे नाग देतां प्राप्त श्रयेला (लाधेला) अंशादिकवमे सूर्यने सहित करवो. पनी ते सूर्यने अयनांश रहित करवो. एम करवाथी लग्न आवशे. त्यारपती ( एटले पळरूप लग्नो काढ्या परी) शेष रहेला एटले के जे शेषमाथी लग्न शोधी न शकाय (राशि काढी न शकाय) तेवा शेषने ३० वझे गुणवा. तेने अशुद्ध (नहीं शोधेला-नहीं बाद करेला ) लग्नना मानवमे नाग देतां जे अंश, कळा अने विकळा लाधे तेने सूर्यमां नाखवा. पनी तेमांथी अयनांशो बाद करवा. शेष रहे ते श्ष्ट काळे स्पष्ट लग्न अने नवांशक थया. आ उदाहरण पहेला प्रकारमा नावे बे.-कोइए घमी १३, पळ ३१ कह्या. तेना पळो कर्या त्यारे ०१२ पळो थया. तेमांश्री सूर्य नोग्य २४३ पळो बाद को. शेष ५७० रह्या. हवे अयनांशो सहित करेखो स्पष्ट सूर्य राशि १-१-३७-३० जे. तेमां वृष राशिनुं आ.१८ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ॥ आरंभसिद्धि ॥ शेष मान अंश २८, कळा २२, विकळा ३० नाखवं, तेथी सूर्य राशि २-०-०-० थयो. पक्षी पळरूप करेलो काळ ९७० बे, तेमांथी सूर्याक्रांत वृष राशिनी पठीनी मिथुन राशिनुं ३०५ पळोनुं मान काढी शकाय वे, तेथी एक राशि सूर्यमां नाखवाथी ते सूर्य राशि ३-०-०-० थयो. पी ए१० मांथी ( मिथुनना पळो ) ३०५ काढी लेतां शेष २६५ रहे. तेमांथी कर्क राशिनुं मान ३४१ पळो काढी शकाता नथी, तेथी ते शेषने ३० व गुणवाथी १९५० यया. तेने अशुद्ध ( नीकळी नहीं शकेला वाद करी शकाया नहीं एवा ) कर्कना मानपळो ३४१ वमे जाग देतां अंश २३, कळा १०, विकळा ४९ एम त्रण प्रकारनुं फळ लाभ्युं. तेने सूर्यमां नाख्युं, तेथी राशि ३ - २३ - १८-४९ थया. तेमांथी अयनांशो १५ अंश, ३४ कळा वाद करवाथी शेष लग्न ३-१-४४-४९ रयुं, एटले के कर्क राशिना 9 अंश, ४४ कळा छाने ४५ विकळा मुक्त-जोगवाया बे एम सिद्ध थयुं. हवे एक एक नवांशकमां त्रण त्रिंशांश ने चोथा त्रिंशांशनी २० कळा होय बे, तेथी ६ शो ने ४० कळा काढी लेवाथी वे नवांशो गया कहेवाय. बाकी एक अंश अने सात कळ प्रवृत्तिने माटे आपेली दती, ते बे एम जाणवुं. वे ऋण कळार्ड वधारे होय तेमां कांइ दोष नथी, केमके लग्ननी कळा अत्यंत सूक्ष्म बे, तेथी तेटलो फेर आवेज. विशेषमां स्थूळ दृष्टिथी दिवसे काळने श्रीने लग्न अने अंश ( नवांशक ) लाववानी रीत श्री प्रमाणे बे. - "अष्टांशं प्रति धीवेदाः ४९ संक्रान्तेर्गतवासराः । तदैक्यादरामा ३० तं लग्नमाक्रान्तराशितः ॥ १ ॥ शेषे षष्टिते ते विशत्या लब्धमंशकः । होराद्युक्ाङ्कनकेsत्र होराद्यमपि लभ्यते ॥ २ ॥” "अष्टांश (याम ) प्रत्ये ४५ पळोनो एक ध्रुवक थाय बे. हवे इष्ट काळने ध्रुवके गुणी मां संक्रांतिना गयेला दिवसो उमेरवा. पनी तेने ३० वमे नाग देवो. जे लाधे ते संक्रांतिनी राशिथी लग्न जावं. पटी शेषने ६० व गुणी २०० वमे जाग देतां जे लाधे ते नवांश जावो, तथा ६० व गुणेला अंकने होरादिकना कवके जाग देवाथी होरादिक पण प्राप्त थाय बे. " अष्टांश एटले याम (प्रहर - पहोर ) दरेक याम प्रत्ये ४५ पळोनो ध्रुवक होय बे, तेथी पहेलो यामपूर्ण याय त्यारे ४५ ने बीजो याम पूर्ण थाय त्यारे ए०, ए प्रमाणे ध्रुवकी उत्पत्ति . जे वखते जेटलुं दिनमान होय ते वखते ते दिनमाननो जे चोथो जाग थाय ते एक एक यामनुं मान जाणवुं, तेयी एक यामना माननी घमीर्जए विनक Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३७ए ४५ ध्रुवकथी जे प्राप्त थाय तेज दरेक घमी प्रत्ये ध्रुवक जाणवो. जेमके अहीं मेष संक्रांतिमां सूर्य आव्या पली सत्तरमे दिवसे दरेक याम पोणी आठ आठ घमीनो ने, तेनी दरेक घमी प्रत्ये लगनग व पळनो एक ध्रुवक त्रिराशिनी रीते आवे , ते आ रीते.-ते दिवसे एक यामनुं मान घमी ७ अने पळ ५२ . तेना पळ करीए त्यारे ४६५ थाय ने, तेथी जो ४६५ पळोए करीने ४५ पळोनो एक ध्रुवक होय तो एक घमी एटले ६० पळे करीने केटलो ध्रुवक थाय ? ए त्रिराशिनी स्थापना-४६२-४५-६०. अहीं मध्य राशिने नेहा राशि साथे गुणतां २७०० थया. तेने पहेली राशिए नाग देतां पळो ५ अने अदर ५० थया. जो के आटलुं प्रमाण थयुं, तोपण ६ पळमां जराकज उनु होवाथी परिपूर्ण ६ पळ जाणवा, तेथी चालता उदाहरणमां १३ घमी , तेने ६ वने गुणतां ७० थाय. तेमां उपरना ३१ पळो ने, माटे तेनी अपेक्षाए त्रण पळो नाखवाथी ७१ थया. तेमा संक्रांतिना गत (वीतेला) दिवसो १६ नाखवाथी ए थया. तेने ३० वमे नाग देतां नागमां ३ आव्या, शेष ७ रह्या, माटे ३ लग्न वीती गयां अने चोथा कर्क लग्नना ७ त्रिंशांश पण गया. हवे नवांशक लाववानी श्वा थाय तो ७ ने ६० वमे गुणतां ४२० थया. तेने २०० वझे नाग देतां ५ लाध्या, अने शेष १० रह्या, तेथी नवांशक २ गया, अने त्रीजा कन्या नवांशकनी २० कळालं पण गश्, एम जाणq. "होरादि." एटले ६० वझे गुणेला अंकने होरादिकना अंक जे ए०-६००-१५०-६० तेवमे पृथक् पृथक् नाग देवाथी होरा, प्रेष्काण, बादशांश अने त्रिंशांश पण पाय . नवांशंकनुं प्रनुपणुं (बळवानपणुं) होवाथी तेने जूदो कह्यो . आ रीते करवाश्री कळा सुधीनुज मान स्पष्ट थाय ने, पण विकळा श्रावी शकती नथी, अने तेथीज श्रारीत स्थूळ कही जे. अहीं कोश्ने शंका थाय के-"जो सर्वत्र नवांशकनुंज प्रनुपणुं होय तो शामाटे लग्नोना अने ग्रहोना त्रिंशांशो स्पष्ट कर्या ?' आनो उत्तर ए जे जे-"त्रिष्वपि क्रूरमध्यस्थौ” (५-२३) ए श्लोकमां लग्न अने चंजने विषे पंदर त्रिंशांशनी मध्ये क्रूर ग्रह रह्या होय तो क्रूर कर्तरी थाय , ए विचार कह्यो , तेथी करीने "दर्शने यदि स्यादंशवादशकमध्यगः क्रूरः” (५-५७ अर्थमां) ए श्लोकमां लग्न अने चंजनी उपर क्रूर ग्रहनी दृष्टिनो विचार कह्यो ने, माटे त्रिंशांशनो आवे स्थाने उपयोग कहेलोज जे. (निष्फळ नथी). तेमज खग्नने विषे जे षड्वर्ग होय ते क्रूर ग्रह संबंधी के सौम्य ग्रह संबंधी ने १ श्रा ग्रह स्ववर्गमा रहेलो ने के अन्य वर्गमा रहेलो बे? इत्यादि विचारमां पण तेनो उपयोग के. शंका-कळा विगेरेने जे स्पष्ट करवानी रीत कही तेनो क्या उपयोग ? Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ॥ आरंजसिद्धि ॥ उत्तर-ज्यारे कळानो अंक साउनी अपेक्षाए अर्ध (३०) करतां वधारे होय त्यारे ते आखो गणीने त्रिंशांशमां नेळवाय अने एज प्रमाणे विकळा पण त्रीशथी अधिक होय तो कळामां एक नाखवामां आवे रे तथा जातक विगेरे ग्रंथोमां अंशायु, पिंमायु, दशा अने अंतर्दशा विगेरे लाववामां कळा विगेरेनी स्पष्टतानो विशेष उपयोग , माटे अहीं तेनो वधारे विस्तार करता नथी. श्रा प्रमाणे दिवसे लग्नना अंशो लाववानी रीत कही. हवे रात्रिने विषे ते लाववानी रीत बतावे . "रात्रौ तु मूर्ध्नि यधिष्ण्यं तस्मान्नक्षत्रमष्टमम् । उदेति पूर्वस्यां तेन लग्नोदयविनिर्णयः॥१॥" "रात्रिए जे नक्षत्र माथे (मध्यमां ) होय तेनाथी आग्मुं नक्षत्र पूर्व दिशामां उदय पामे , तेणे करीने लग्नना उदयनो निर्णय करवो.” तथा रेवतीनो उदय श्रया पठी अश्विनीनो उदय थाय त्यांसुधी अश्विनीनाज चारे पाया उदय पामे जे. एज रीते अश्विनीनो उदय श्रया पठी नरणीनो उदय थाय त्यांसुधी नरणीनाज चारे पायानो उदय थाय . ए प्रमाणे मस्तक पर रहेखा नक्षत्रना पायानी कल्पनाए करीने उदय पामेलो नवांशक पण निश्चय करवो. आ प्रमाणे समर्नु स्पष्टीकरण कयु. ___ हवे प्राये करीने दिवसे काळर्नु ज्ञान शंकु याने आधीन बे, तेथी करीने काळ थकी गया अने गयाथी काळ आणीने बतावे . तेमां प्रथम सूक्ष्म रीते दिनमान लाववानी रीत या प्रमाणे बे. "दत्तायनांशा रविनुक्तनागाः, पलेन गुण्या दिनवृधिहान्यो। षष्ट्यानिलब्धं घटिकाद्यमेतत्स्यादाढ्यमूनं प्रथमामानात् ॥ १॥" ___"सूर्ये जोगवेला अंशोमां अयनांशो नाखवा. पनी तेने दिवसनी वृद्धि अथवा हानिना पळोवझे गुणवा. तेने ६० वमें नाग देवाथी जे घमी विगेरे लाधे ते संक्रांतिना पहेला दिवसना मानमां नाखवा अथवा उंग करवा." इष्ट दिवसने विषे सूर्ये पोते आक्रमण करेली राशिना जेटला त्रिंशांशो नोगव्या होय तेमां ते वर्षना अयनांशो नाखी तेने उपर (प्रथम ) जे राशि आवी होय ते राशि संबंधी पूर्वे कहेला कर्केत्यादि (पत्र १७)ने श्राधारे दिननी वृद्धि अथवा हानिना जे पळो होय तेवमे गुणी सावे लागतां जे साधे ते घमी विगेरेने रसधिनाड्य (१-१५ ना अर्थमां पत्र १७) इत्यादि श्लोकमां कहेला मुख्य अहान ( दिनमान )मां मकरादिक Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३०१ ब राशिमां सूये होय तो नाखवा, अने कर्कादिक राशिमां सूर्य होय तो तेमांथी बाद करवा. एम करवाथी स्पष्ट दिनमान श्रावशे. ते दिनमानने सा घमीना प्रमाणवाळा रात्रि दिवसना मानमांथी शोधीए त्यारे शेष रहेलुं रात्रिमान स्पष्ट थाय बेथा दिनमान तथा रात्रिमान कुलिकने स्पष्ट करवो ए विगेरेमा उपयोगी बे. उदाहरण-अहीं-इष्ट दिवसे मेष राशिनो सूर्य अया पली सत्तरमे दिवसे प्रातःकाळे घमी १३ पळ ३५ समये "स्फुटोऽथ जानुः" ( ५-६६) इत्यादि रीतिए करीने स्पष्ट करेला सूर्यवझे नोगवायेला अंशो १६, कळा ३, विकळा ३० अश्वे.तेमां अयनांश १५, कळा ३४ नाखवाथी राशि १. अंश १, कळा ३७. विकळा ३० थायचे. अहीं अयनांश सहित करेला सूर्ये मेष राशि संपूर्ण नोगवी, तथा वृष राशिनो अंश १, कळा ३७, विकळा ३० पण नोगवी एम सिद्ध थयु, तेथी वहीं वृष राशि संबंधी दिवसनी वृद्धि पळ २, श्रदर ५२ बे, तेथी अंशादिक अंको गोमूत्रिकानी रीते बे स्थाने स्थापन करी एक स्थाने २ वझे अने बीजे स्थाने ५५ वझे गुणवाना बे. स्थापना- । ५२ १ ३७ m DD ३० गुणवाथी ६० ५२ १ए२४ १५६०॥ बेला ( १५६०) अंकने ६० वझे नाग देतां नागमा २६ श्राव्या, तेने उपर (१९२४) मां नाख्या त्यारे १९५० श्रया. या राशिने पहेली राशिना नीचला अंक ६० मां नाखवाथी २०१० थया. तेने ६० वझे नाग देतां ३३ खाध्या. तेने उपरना (५५) अंकमां नाखवाथी ०५ पळ थया. तेमां पहेली राशिमां सम पंक्तिए रहेला अंक १४ मां नाखवाथी १५ए थया. तेने ६० वमें नाग देतां शेष ३ए अक्षर रह्या, अने नागमा पळ श्राव्या, तेने उपरना बे पळमां नाखवाथी पळो । थया. तेने ६० वमे नाग देतां नाग चालतो नथी, माटे घमीने स्थाने शून्य श्रावी. स्थापना-घमी , पळो , अक्षर ३ए. श्रा राशिने वृषना पहेला दिवसना अहान घमी ३१, पळ ४६ मा नाखवाथी घमी ३१, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रारंसिद्धि। पळ ५०, अक्षर ६ए थया. या ते दिवसनुं स्पष्ट मान थयु, तथा ते दिवसनी रात्रिनं मान घमी २०, पळो ए, अक्षर २१ थाय बे. (६० मांथी ३१-५०-३ए बाद करवाथी.) हवे एज मानथी मध्य गया लाववानी रीत कहे . "ज्येष्ठादिनाद्दिनं शोध्यं शेषाद्दशगुणात्स्वतः। ___ त्यजेत्सप्तशरै ५७ लब्धं सूर्यै १५ मध्यिायः स्मृताः॥१॥" "मोटा दिनमानमांथी इष्ट दिवसवें दिनमान बाद करवं. बाकी रहेलाने दशे गुणवा. मी तेने ५७ वझे नाग देवो. जे लाधे तेने १२ वझे नाग देवो. जे लाधे ते मध्याह्नना पाद (पारैया-पगलां ) जाणवा.": । इष्ट दिवसर्नु अहर्मान ( दिनमान ) मोटा अहर्मानमांथी दूर करवू. शेष रहे तेने दशे गुणवा. त्यारपठी “स्वतः” एटले तेज अंकने नीचे मूकी ५७ वझे नाग देतां जे साधे ते मुख्य अंकमांथी बाद करवं. जो नाग न चाले अने ५७ नी अपेदाए उपरनो अंक अर्धथी अधिक होय तो एक आखो ग्रहण करीने मुख्य अंकमांथी बाद करवो. त्यारपती तेने १५ वझे नाग देवो. जे लाधे ते मध्याह्ननी गयाना पाद जाणवा, अने शेष रहे ते अंगुल जाणवा. । जेमके-अहीं इष्ट दिनमान (घी ३१, पळ ५०, अक्षर ३ए) ने मोटा दिनमान धमी ३३, पळ ४ मांथी बाद कर्यु त्यारे घमी १, पळ ५७, श्रदर २१ रह्या. आ शेष होवाथी तेने दशवमे गुणी ६० वझे नाग दश दश्ने उपर नपर नाखवाथी नीचे (शेष) |३३ रह्या अने उपर (नागमां ) १ए श्राव्या. या (१ए)ने ५७ वझे नागी शकाशे नहीं. तेमज ५७ नी अपेक्षाए अर्धथी अधिक पण नथी, तेथी ते रीत कर्या विनाज ते (१ए)ने बारे नाग देतां १ पाद लाध्यो. शेष अंगुल ७ अने ३३ व्यंगुल थया. या प्रमाणे इष्ट दिवसनी मध्याह्न गया थ. हवे या मध्याह्न बायाश्री इष्ट काळनी गया लाववानी रीत कहे जे. "खमही कर २१० हतदिवसे विहृते वाञ्चितपक्षघुगतशेषैः। लब्धं मध्यपदैर्युगू नग ७ रहितं स्यात् पदबाया ॥१॥ शेषमर्क १२ गुणं कृत्वा वाछितैस्तु पहृतम् । लब्धमङ्गुलसंझं स्यादेवं गयाङ्गुखागमः ॥२॥" "इष्ट दिनमानने २१० वझे गुणवं. तेने वांवित दिनना ( मध्याह्न पहेलां होय तो) गयेला पळोए अथवा (मध्याह्न पनी होय तो) शेष पळोए नाग देवो. जे लाधे तेने १ वांछित ( इष्ट ) दिवसनी जेटली घडी तथा पळ होय ते सर्वना पळ करवा. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ॥ श्ररंज सिद्धि ॥ १०० अंगुल थया. तेमां उपर वधेला अंगुल १० नाखवाथी ११० थया. हवे मध्याहनी बाया पाद १, अंगुल ७ बे, तेना अंगुल करवाथी १९ थया. ते १७ ने ११० मांधी बाद करता रह्या. हवे ते दिवसना दिनमानना ऋण अंकने पृथक् पृथक् ४२ व गुणी ६० व जाग दइ दइने उपर उपर नाखवायी नीचे ४२, तेनी उपर २०, ने तेन पण उपर १३३७ श्रावे बे. तेने एए वडे जाग देतां १३ घमी लाधी. शेष ५० रह्या. तेने ६० व गुणी तेमां नीचेना २० जेळववाथी ३०२८ थया. तेने एए. व जाग देतां पळ ३० लाध्या. शेष ५० रह्या. तेने ६० वमे गुणी नीचेना ४२ नाखवाथी ३५२२ यया. तेने पण व जाग देतां अक्षर ३५ लाध्या. शेष ५७ रह्या. ते ( 29 ) ए नी अपेक्षा अधिक होवाथी अरमां एक वधार्यो, तेथी अक्षर ३६ थया. (३६) पण ६० नी अपेक्षाए अर्धाधिक होवाथी पळमां एक वधार्यो, तेथी पळ ३१ थया, करीने २ पाद, १० अंगुल ने २४ व्यंगुलनी बाया होय त्यारे १३ घमी अने ३१ पळ जेटलो दिवस चमेलो होय एम सिद्ध थयुं, अने दिवसना पाबला भागमां जो या बाया लइए तो तेटला घमी, पळ दिवस बाकी रह्यो बे एम जाणवुं. या बीजी रीत होवाने ली एक बे पळनो फरक परे तेमां कांइ पण दोष नथी एम जाणवुं श्रा रीते प्रसंगने ली बाया ने काळ लाववानी रीत कही. हवे प्रकृत होवाथी महोनुं छाने तेमनी गतिनुं स्पष्टीकरण कहे बे. - - “गतेष्टनाढ्यो गुणिताः खखेनैः, ८००-६००-४००-२०० सर्व ईनामी विहृताः कलाद्यम् । मुक्तयुक्तं सकला ग्रहाः स्युः, षष्ट्या हतेष्वष्टशतेषु मुक्तिः ॥ १ ॥ " " इष्ट दिवसे ने ग्रह होय तेनी गयेली घमी ८००-६००-४०० के २०० व गुणवी. त्यारपढी तेने नक्षत्रनी सर्व घमीजवमे जाग देवो. जे आवे ते कळादिक जाणवा. पी तेमां जोगवाई गयेली नक्षत्रोनी कळा नाखवी. ते कळा पण ०००-६००-४०० के २०० होय बे. पनी तेने ६० वमे जाग देतां जे यावे ते शादिक जाणवा. ( या रीते ग्रहो स्पष्ट थाय बे.) पछी ८०० विगेरेने साठे गुणी नक्षत्रनी सर्व धर्मीवके जाग देवाथी ग्रहोनी गति वे बे." १ उपर दिनमान घडी ३१, पळ ५०, अक्षर ३९ लखेला छे. गणितनी रीते पण तेटलाज थाय छे, परंतु अहीं घडी ३१-५०-४१ लइने गणित कर्यु होय तेम जणाय छे. अन्यथा गणित मळतुं आवतुं नथी. प्रथमना गणितमां ३९ ने बदले अर्धाधिक वधेला करीने ४० तो थइ शके छे. तेने बदले ४१ अक्षर लीधा, तेनुं कारण बीजी रीत होवाथी तेटलो फरक लेवामां अडचण नथी एम धावुं योग्य छे. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ३८५ श्रा श्लोकनुं नाष्य था प्रमाणे जे."इष्टात्माग्गतनाड्योऽष्टशताद्यैर्गुणितास्ततः । सर्वघटिकाजक्ताः कलाद्याः स्युरिति स्फुटम् ॥ १॥ नुक्तऋक्षाष्टशत्यादिप्रमाणसहितास्ततः । पष्टिनक्तेऽशकादि स्यालेषे षष्टिगुणे ततः ॥ ५ ॥ सर्वघटिकालक्ते लब्धं स्यादिकलादिकम् । एवं स्पष्टा ग्रहाः सर्वे कर्तव्या गणकोत्तमैः ॥ ३ ॥" "इष्ट ग्रहनी पहेलां जेटली घमी गइ होय तेने श्रावसो विगेरे वझे गुणवी. त्यारपी नत्रनी सर्व घमीवमे नाग देवो, नाग देतां जे यावे ते कळादिक स्पष्ट रीते आवे वे. त्यारपनी नोगवायेलां नक्षत्रोचं जे आपसो विगेरे प्रमाण जे तेने ते कळामां नाखवू. पजी तेने ६० वझे नाग देतां जे लाधे ते अंशादिक जाणवा. तथा ते ७०० विगेरेने ६० वझे गुणी नक्षत्रनी सर्व घमीवमे नाग देवो. जे लाधे ते कळा अने शेष रहे ते विकळारूप ते ग्रहोनी गति स्पष्ट थाय . आ रीते गणित जाणनाराउँए सर्वे ग्रहो स्पष्ट करवा.” अहीं अाउसो विगेरे कडं ने तेनो अर्थ आ प्रमाणे वे.-आखा नक्षत्रनी गत नामीवमे गुणवा होय तो ते शाखा नक्षत्रनो लोगवटो आउसो कळानो, माटे आपसो. वझे गुणाकार करवो, अने ज्यां नत्रना त्रण पादनी, बे पादनी के एक पादनी गत नामी इष्ट होय त्यां अनुक्रमे बसो, चारसो अने बसोवमे गुणाकार करवो एम जाणवू. नदत्रनी सर्व घमीवमे नाग देवानुं कडं त्यां पण आखा ( चार पादवाला) नक्षत्रनी, त्रण पादवाळा, वे पादवाळा के एक पादवाळा नदतनी सर्व घमीवमे ते ते ठेकाणे नागाकार जाणवो. एज प्रमाणे लोगवायेलां नक्षत्रोना आउसो विगेरे प्रमाणे करीने सहित करवानुं कडं बे, त्यां पण एक, वे के त्रण पाद लोगवाइ गयानो संनव होय त्यारे पण अनुक्रमे २००-४०० के ६०० कळाऊनो लाधेली कळाठमां प्रक्षेप करवो एम जाए. "ऋत" शब्दनो अर्थ "राशि" पण थक्ष शके चे, तेथी ते ग्रहे जेटली राशि जोगवी होय ते राशिनो अंक पण माथे (उपर ) लखवो. आज अर्थ स्पष्टपणे कहे ."इन्दोर्गुण्या गता घट्योऽष्टशत्या प्रतिनं सदा । नौमसूर्यज्ञशुक्राणां गुण्या अष्टशतादिनिः ॥१॥ शनिवाक्पतिराहूणां विशत्या पादगत्वतः। गता घट्यो हता नांहिंघव्याप्तं स्यात्कलादिकम् ॥ २॥ आ. १९ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ॥ आरंलसिधि॥ राहोमगतित्वेन लब्धा या विकलाः कलाः । शोध्यास्ता दिशतीमध्यालेषं नोग्यकला इह ॥ ३ ॥" ___ "चंनी गत घमीने 100 वझे गुणवी. मंगळ, सूर्य, बुध अने शुक्रनी गत घमी 000 विगेरे वझे गुणवी. एक पादमा रहेला होवाथी शनि, गुरु अने राहुनी गत घमी २०० वझे गुणवी. पछी तेने नक्षत्रना पादनी सर्व घमीवसे नाग देवाथी जे लाधे ते कळादिक नुक्त थाय बे, परंतु राहु वाम गतिवाळो होवाथी जे कळा विकळा लाधे ते बसोमांथी बाद करवी. जे बाकी रहे ते नोग्य कळादिक थाय ." चंनी गत घमी ७०० वमे गुणवानी कही तेनुं कारण ए जे जे सर्वत्र चंजनो चार (गति ) नक्षत्रनी अपेदाए करीनेज टीपणामां लख्यो होय . मंगळ विगेरेने सो विगेरेथी गणवानं का तेनं कारण ए के-लीमादिकनो चार टीपणामां नवअनी अपेक्षाए तेमज राशिनी अपेक्षाए पण लखेलो होय बे, तथा शनि विगेरेनो चार तो नक्षत्रना एक पादनीज अपेक्षाए लखेलो होय जे, तेथी एक पादनी अपेक्षाएज तेउंनी वर्तना करवी, एटले के नाना एक पादनी गयेली इष्ट धमी २०० वो गुणतां जे श्रावे तेने नत्रना एक पादथी बीजा पादमां जतां वच्चे जेटली घमी होय ते सर्व घमीवके नाग देवो. जे कळादिक साधे ते नुक्त थाय , परंतु राहुनी वाम गति होवाथी जे लाधे ते २०० मांथी बाद करवी. शेष रहे ते राहुए ते पादनुं लोग्य अयुं एम जाणवू. पळी तेमां नोग्य नक्षत्रनी ७०० विगेरे घमी नाखवी. अहीं राशि पण जेटली नोग्य होय तेज उपर लखवी. या प्रमाणे सूर्यादिक ग्रहोनी वर्तना कोश वखत एक पादनी अपेक्षाए अने को वखत बेत्रण पादनी अपेक्षाएपण करवामां आवे बे. मात्र आज रीतिए करीने सूर्यादिक सात ग्रहो नुक्तनी अपेक्षाए स्पष्ट थाय , अने राहु तो लोग्यनी अपेक्षाए स्पष्ट थाय . जो राहुनी राशिना अंकमां नाखीए तो केतु पण नोग्यनी अपेक्षाएज स्पष्ट थाय बे. - (ग्रहोनी गति लाववानी रीत-) उपरना प्रथम श्लोकमां “षष्ट्या हतेष्वष्टशतेषु नुक्तिः” (श्राउसोने सारे गुणतां नुक्ति आवे बे.) या ठेकाणे "सर्वईनामीविहतेषु" (नक्षत्रनी सर्व घमीवमे नाग दीधेला एवा आठसो) एटलुं अध्याहार , तेथी करीने तेनो श्रावो अर्थ थाय .-आउसोने अथवा संलव प्रमाणे उसो, चारसो के बसोने सारे गुणी नक्षत्रनी सर्व घमीवमे अथवा संजव प्रमाणे त्रण, बे के एक पादनी घमीवमे नाग देवाश्री जे बे फळ आवे तेटली कळा विकळारूप ग्रहोनी दिवस संबंधी गतिनुं मान जाणवू. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ हवे अहीं तत्काळ (इष्ट काळ )ना नव ग्रहोने स्पष्ट करीने उदाहरण बतावे . तेमां सूर्य तो प्रथमज स्पष्ट करी बताव्यो बे, परंतु तेनी गति कही नयी, तेथी तेनुं वारे संक्रांतिमां अनुक्रमे कळा विकळारूप दिवसनी गतिनुं मान प्राये करीने था प्रमाणे होय . "वस्वर्था निधयो ५७-ए नवेषुसधृति एए-१० विपदशरं ५६-५६ त्र्यूनिका, षष्टिर्वादश ५७-१२ कुञ्जरेषुगगनं ५-० चैकोनषष्टिहयाः एए-७ । पष्टिविश्वयुता ६०-१३ कुषट् च सगुणा ६१-३ क्वङ्गं नियुग्विंशतिः ६१-२२, क्वङ्गं सन्निधि ६१-ए षष्टिका युगयुगं ६०-२२ खेटेषु धृत्या युतम् एए.१० ॥१॥" "मेप राशिनी संक्रांतिमां सूर्यनी गति कळा ५८, विकळा ए होय , एज रीते वृषएए-१७, मिथुन-५६-५६, कर्क-५७-१२, सिंह-५०-०, कन्या-एए-9, तुला६०-१३, वृश्चिक-६१-३, धन-६१-२२, मकर-६१-ए, कुंज-६०-२१, मीन-ए-१७." ते दिवसे चं पुष्य नक्षत्र ( तथा कर्क राशि )मां जे. तेनी गत घमी कार्य वखते १७. तेने ७०० वझे गुणतां १३६०० थया. तेने पुष्यनी सर्व घमी ६६ वझे नाग देतां लाधेली कळा २०६,विकळा ३, शेष ४२. श्रा (४२) ६६ नी अपेक्षाए अर्धाधिक होवाथी विकळा । थइ. पनी पुनर्वसुना झा पादनी २०० कळा उपरनी कळा (१०६) मां नाखवाथी कळा ४०६ थर. तेने ६० वझे नाग देतां लाध्या अंश ६, कळा ४६, विकळा ४. नुक्त राशि त्रण होवाथी तेने उपर लख्यो, तेथी ते वखते स्पष्ट चंच राशि ३-६-४६-४ थयो. तेनी गति कळा ७२७, विकळा १६ जे. ते दिवसे मंगळ उत्तरनाउपदमां ( तथा मीन राशिमां ) बे. ते वखते गत घमी १४ए जे. ते आ रीते-उत्तरनाउपदमां मंगळ . ते दिवसनी शेष घमी १६, कार्यना दिवसनी घमी १३ अने वच्चेना वे दिवसनी घमी १२० मे, ते सर्व मळवाथी १४ए थाय बे. तेने ७०० वमे गुणवाथी ११ए२०० थाय . तेने नक्षत्रनी सर्व घमी १०२२ वझे नागवाथी कळा ११६, विकळा ३७ थाय . पूर्वलाप्रपदना बेला पादनी २०० कळाऊ उपरनी कळाऊमां नाखवाथी ३१६ श्राय . तेने ६० वझे नाग देतां अंश ५, कळा १६, विकळा ३० थइ. गत राशि ११ नो अंक उपर मूकवाथी स्पष्ट मंगळ राशि ११-५-१६-३७ थयो. तेनी गति कळा ४६, विकळा ५७ . ते दिवसे बुध वृष राशिमां कृत्तिका नक्षत्रमा ने. ते वखते गत घी १७० जे. ते श्रा रीते.-वृषमां बुध २३. ते दिवसे शेष घमी, ३७, कार्यना दिवसनी धमी १३, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ॥ आरंभ सिद्धि ॥ वना वे दिवसनी घमीठे १२०, सर्व मळी ११० थाय बे. तेने कृत्तिकाना त्रण पादज वृषमां रहेला होवाथी ६०० वमे गुणतां १०२००० थया. त्यारपवी तेने वृषे बु० थी आरंजीने रोहि० ० त्यांसुधीना त्रण पादनी जे घमी बे ते सर्व घमी ४७ बे. तेवमे जाग देतां कळा २२३, विकळा ११, शेष ३१३ रह्या. ते ४५७ नी अपेarr धिक होवाथी विकळा १२ थइ. कळाउने ६० वमे जाग देतां अंश ३लाध्या. तेनी उपर मुक्त राशि १ मूकवाथी स्पष्ट बुध १-३-४३ - १२ थया. तेनी गति ६०० ने ६० व गुणी त्रण पादनी घमीन ४९७ वजे जाग देतां कळा ७८, विकळा ४६ वे बेते दिवसे गुरु ना पहेला पादमां बे. ते वखते गत घमीट २७६ बे. रीते. - रौधे प्र० गु० ३७. ते दिवसनी शेष घमीट २३, कार्यना दिवसनी घमी ने वच्चेना चार दिवसनी घमी २४० मळीने २७६ थाय बे. तेने गुरु एक पादमां रहेल होवाथी २०० व गुणतां ९९२०० थया, तेने आना पहेला पादनी सर्व जोग घमी ११२ वजे जाग देतां कळा ४६, विकळा १० थ‍. कळामां अर्धा मृगशिरनी कळा ४०० नाखवाथी ४४६ कळा थइ. तेने ६० वमे जाग देतां अंश 9 लाध्या. उपर मुक्त राशि मूकवाथी स्पष्ट गुरु २-१-२६-१० थयो. तेनी गति लाववा माटे २०० ने ६० व गुणी आना एक पादनी सर्व घमी ( ११०२ ) व जाग देतां कळा १०, विकळा ४ थर. ९४१ बे. ते आ ४०, इष्ट दिन घमी रीते . - १३ तथा ण पाद ते दिवसे शुक्र पूर्वापदमां बे. ते वखते गतः घमी "पू. ज. सित” पूर्वजापद शुक्र १२. ते दिवसनी शेष घकी ना व दिवसनी घमी ४०० मळी ए४१ थाय बे. तेने पूर्वजाsपदना कुंजना होवाथी ६०० व गुणतां ३२४६०० थाय बे. तेने “मीने सि० " मीनना शुक्र तेनी पहेलांनी सर्व घमी ९८२ वमे जाग देतां कळा ५९७ विकळा ४४ थइ. कलामां बक्त नवांशकनी कळा १२०० नाखवाथी कळा १७५७, विकळा ४४ थइ. तेने ६० व जाग देतां शोश‍ लाध्या. उपर १० राशि देवाथी स्पष्ट शुक्र राशि १०-२९१७- ४४ थयो. तेनी गति कळा ६१, विकळा ५१ थाय बे. ते श्रा १३ १४७७ बे. ते ते दिवसे वक्र शनि अनुराधाना चोथा पादमां बे. ते वखते गत घमी ते. - " पुनरनु० च श०" ३६. ते दिवसनी शेष घमी २४, इष्ट दिन घमी १३ ने वच्चेना २४ दिवसनी घमी १४४० मळवाथी १४७७ थाय छे. तेने शनि एक पादमा रहेलो होवाथी २०० व गुणतां २०५४०० तेने चोथा पादनी सर्व जोग घमी ४१०२ व जाग देतां कळा १०, विकळा ३० अइ. तेने शनि वक्र होवाथी २०० मांधी Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३नए वाद करतां कळा १२ए, विकळा २२ रही. तेमां चार नवांशकनी कळा 600 नाखवाथी कळा एए थइ. तेने ६० वझे नाग देतां अंश १५ लाध्या. उपर ७ राशि देवाथी स्पष्ट शनि राशि -१५-२५–२५ अयो. तेनी गति कळा २, विकळा ५२ जे. ते दिवसे राहु चित्राना वेसा पादमां बे. ते वखते गत घमी, १२७३ जे. ते आ रीते.-चित्रा० च रा० ५०. ते दिवसनी शेष घमी १०, कार्य दिन घमी १३ अने वच्चेना २१ दिवसनी घमी, १२६० मळी १२७३ थाय . तेने राहु एक पादमा रहेलो होवाथी २०० वझे गुणतां २५६६०० थया. तेने चित्राना बेडा पादनी सर्व नोग घमीन ३७७४ वझे नाग देतां कळा ६७, विकळा एए थश्. तेने २०० मांथी बाद करतां कळा १३२, विकळा १ रही. कळामां कन्या राशिमां रहेला चित्राना त्रीजा पादनी २०० कळा नाखवाथी ३३२ कळा श्रश्. तेने ६० वझे नाग देतां अंश ५ लाध्या. उपर ६ राशि देवाथी नोग्यनी अपेक्षाए स्पष्ट राहु ६-५-३२-१ अयो. तेनी गति कळा ३, विकळा ११ आवे बे. राहुनी राशिना अंकमां ६ नाखवाथी स्पष्ट केतु राशि ०-५-३२-१ थाय ने. तेनी गति राहु प्रमाणे जाणवी. ते काळना स्पष्ट करेला नव ग्रहोनी तथा तेमनी गतिनी स्थापना. रवि चंज मंगळ | बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु و ير له مه سه مه १६ ६ ५ ३ ७ ए १५ ५ ५ ३ ४६ १६ ४३ २६ १७ २५ ३२ ३२ ३०४ ३० १२ १७४४ २२ ५ ७२७६ ० १०६१ २ ३ ३ ए १६ ५० ४६ ४ ५१ ५२ ११ अहीं कोच्ने शंका थाय के ग्रहोने अने तेनी गतिने स्पष्ट करवानुं शुं फळ ? तेनो जवाब था .-प्रश्रम कार्यने समये स्पष्ट करेला ग्रहना काळ पनी अने वीजें कार्य जे वखते करवू होय ते वखतनी पहेलां जेटली घमी गइ होय ते घमीने वे वार स्थापन करवी. पी तेने कळा विकळारूप प्रतिदिननी गतिवमे अनुक्रमे गुणवी. पनी तेने साठे लागतां जे कळादिक साधे तेने प्रथमना कार्यनी वेळाए स्पष्ट करेला ग्रहोने मध्ये नाखवा, पण जो वक्री ग्रह होय तो तेमाथी अने नोग्यनी अपेक्षाए स्पष्ट करेला राहुमांथी बाद करवा. तेम करवाथी बीजा कार्यनी वेळाए ग्रहो स्पष्ट थाय बे. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ आरंभ सिद्धि ॥ उदाहरण - पूर्वे कलाज वर्ष, मास ने पहनी ( १९५२ ना वैशाख सुदि) १३ ने दिवसे हस्त नक्षत्रमां सूर्य बते घमी दिवस चमे ते समये कोइए कार्य करवा धा बे, तेथी या वेळाने पूर्वे कहेली वेळानुं अंतर ३५५ घमीनुं बे. ते आ रीते - पूर्वे वैशाख सुदि 9 ने दिवसे १३ घमी कहेली बे, माटे ते दिवसनी शेष घमी ४७ रही, तथा हस्तना सूर्यवाळा दिवसनी (सुदि १३ नी ) घमीठे बे, तथा वच्चेना पांच दिवसनी घमी ३०० इ. ते सर्व मळी ३५५ घमी थइ. हवे मेषमां रहेला सूर्यनी गति कळा ९०, विकळा ए बे. तेवमे बे वार स्थापन करेला ३५५ ने गुणवा. स्थापना - ३६६ । ३६५ गुणतां ३१९६० नीचेना अंकने ६० वमे नाग देतां ९३ लाध्या, तेने उपरना कमां नाखवाथी २०६४३ थया. तेने ६० वमे जाग देतां कळा ३४४ लाधी. शेष विकळा ३ रही. एज प्रमाणे बीजा चंद्रादिक ग्रहोनी कळा विकळा लावीए त्यारे ते या प्रमाणे थाय बे. - गुरु | शुक्र | शनि | राहु | केतु रवि चंद्र मंगळ बुध ३४४४३०२२७७ ४६६ ३६५ १६ १८ १८ विकळा ३ ए ५३ २ ३३ ५६ ५७ कळा ५० ५० ३० कळा विकळाव संस्कारं करेला पूर्वना ग्रहो बीजा कार्य रना थाय बे. - रवि | चंद्र | मंगळ | बुध ם ա ११ १ ११ २‍ २५ ३३ ३ ३१ १४ ५१ २१ १८ ४७ २ ५४ U गुरु शुक्र | शनि| राहु 2 ११ ६ G ए ५ ५ २३ १३ ४० ११ १५ १२ १३ १५ ११ समये छावा प्रका केतु दवे जे ग्रहो तरतज वक्र थया होय अथवा वक्र थवानी तैयारीमां होय, तथा मार्गी - जूत ( मार्गे रहेला ) होय अथवा मार्गनी सन्मुख होय तेमनुं स्पष्टीकरण कहे . “वाग्रपश्चिमे मुक्ता जोग्या मार्गायपश्चिमे । अन्तरांशकला ग्राह्यास्तासां सीमा च सर्वजम् ॥ १ ॥ वक्रादूर्ध्व फलं लब्धं नुक्तनागौघतस्त्यजेत् । सनोग्यमुक्तमागौघाच्त्याज्यं मार्गादितः फलम् ॥ २ ॥ " १- ३४४ ने ६० वडे भाग देतां ५ अंश आव्या ते १६ मां नाखवाथी २१ थया. शेष ४४ कळा. रही ते ३ मां नाखता ४७ थइ. शेष रहेली ३ विकळा ३० मां नाखवाथी ३३ विकळा भइ. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३ ए १ "वक्र थयेला ग्रहनी पीनी ने पहेलांनी मुक्त एवी ने मार्गी थयेला ग्रहनी बनी तथा पहेलांनी जोग्य एवी अंतरांश कळाने ग्रहण करवी अने ते सर्व कळार्जुनी जे सीमा ते सर्वज कदेवाय बे. १. वत्री थया पनी लाधेलुं जे फळ ते मुक्त अंश-कळाना समूहमांथी वाद कर, छाने मार्गी थया पबी ते साधेलुं फळ जोग्य सहित करेला जुत अंश- कळाना समूहमांथी बाद करवुं." आबे श्लोकोनुं जाष्य आ प्रमाणे बे. - “वक्रात् पूर्वगता नाड्यो हताः स्वर्दकलादिनिः । सीमान्तसर्वजघटी विजक्ताः स्युः स्फुटं कलाः ॥ ३ ॥ शेषे षष्टिगुणे सर्व लब्धे विकलागमः । मुक्तयुक्ते तत्राङ्के षष्टिक्तेऽंशकादिकम् ॥ ४ ॥ वक्रपश्चादपीत्थं स्यात्सी माधीष्ण्येऽग्रतः स्थिते । लब्धं फलं पुनस्त्याज्यं नुक्तजागौघतस्तदा ॥ ५ ॥ मार्गात् पूर्वगता घट्यो गुण्या जोग्यकलादिनिः । शेषं प्राग्वनौग्ययुक्तमुक्तांशेभ्यः फलं त्यजेत् ॥ ६ ॥ मार्गपश्चात्तु रूयेति वक्रमार्गिग्रहाः स्फुटाः ।” "वक्रीनी पहेलां गयेली कळा पोताना नक्षत्रनी कळार्जए गुणवी. तेने सीमान्तनी सर्व नक्षत्रनी घर्मीर्जए जाग देवाथी स्फुट कळा थाय बे. शेषने ६० व गुणी सर्व नक्षत्रनी घमीde जाग देतां विकळा आवे छे. पठी ते अंकने मुक्त नक्षत्रनी घमी सहित करीने ६० व जाग देतां शादिक आवे छे. हवे वक्री थया पी पण एज प्रमाणे सीमा नक्षत्र आगळ रहे बते करवुं, परंतु ते वखते मुक्त शोना समूहथी खासा फळने बाद करवुं. हवे मार्गी ययानी पूर्वे गयेली घमीउ जोग्य कळादिके करीने गुणवी. बीजुं प्रथमनी जेम जोग्य सहित करेला मुक्त शोमांथी फळने बाद , परंतु मार्गी यया पढी तो रूढिथी जाणवुं श्र प्रमाणे वक्री अने मागीं ग्रहो चाय ते." कोनी व्याख्या या प्रमाणे बे. - वक्राग्रपश्चिमे एटले ग्रदनुं वऋपणुं थवा पहेलां. मार्गाद्यपश्चिमे एटले मार्गी थया पी ने पहेलां. अन्तरांशकला ग्राह्याः स्वाभाविक गतिवाळा ग्रहने स्पष्ट करवा माटे गयेली इष्ट घमीर्जने ८०० "गुणवानुं कथं बे तेम काहीं ( गयेली इष्ट घमीने ) वक्री अने मार्गी थवाना १ आनी रीत आगळ टीकाना विस्तारथी जणाशे. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए ॥श्रारंसिधि॥ समये टीप्पणमां सखेला जुक्त अंशो अने कळाए करीने गुणवी. विशेष ( तफावत ) ए के वक्री श्रयेला ग्रहनी बन्ने तरफनी (पीनी श्रने पहेलांनी) नुक्त कळाए करीने अने मार्गी श्रयेला ग्रहनी बन्ने तरफनी नोग्य कळाए करीने गुणाकार करवो. तासां सीमा च सर्वनं एटले प्रस्तावने लीधे तासां-ते सर्व नामी (घमी)ने. नावार्थ ए ले जे-जेम बीजे ठेकाणे सर्वे नक्षत्रनी घमीवमे नाग देवानो कह्यो तेम इष्ट समये ते ग्रहे आक्रमण करेलु नक्षत्र के तेनो पाद जे वखते स्पयर्यो होय त्यारथी आरंजीने वक्री के मार्गी थाय त्यांसुधीनी अथवा वक्री के मार्गी थवाना समयथी श्रारंनीने बीजा नक्ष मां के तेना पादमा संक्रमण थाय त्यांसुधीनी जे सर्व घमी, होय ते घमीवमे नाग देवो. त्यारपती वक्रादूर्ध्व एटले जो वक्री थया पठी ग्रहने स्पष्ट करवानो होय तो जे कळादिक फळ साधेलुं होय ते वक्री थवाना समये टीप्पणमा लखेला नुक्त अंश अने कळादिकमांथी बाद करवू, अने वक्री थया पहेलां ग्रह स्पष्ट करवानो होय तो गयेली इष्ट धमीने कहेली रीत प्रमाणे नुक्त कळाव; गुणी तथा सर्व घमीवझे नाग द जे साधे तेने नुक्त नक्षत्रनी कळाए युक्त करवू, ए रीत सुगमज . मार्गादितः एटले के जो मार्गी श्रया पहेलां ग्रहने स्पष्ट करवानो होय तो मार्गी अवाने समये टिप्पनकमां लखेला नुक्त अंशो अने कळाठमां तेनीज लोग्य कळादिक मेळवीने पढ़ी ते एकंदर श्रयेला अंकमांथी साधेली कळादिक बाद करवी, श्रने मार्गी श्रया पनी ग्रहने स्पष्ट करवो होय तो रूढिए करीने करवो. एटले के-जेम स्वानाविक गतिवाळा ग्रहोनी कळा लावीने तेमां नुक्त नक्षत्रनी कळा मेळवाय ने तेज रीते ते मेळवणी अहीं पण करवी. आ प्रमाणे वक्री अने मार्गी श्रयेला तथा वक्री अने मार्गी श्रवानी सन्मुख श्रयेला ग्रहो स्पष्ट थाय बे. यानुं उदाहरण बुध अने शुक्रने आश्रीने लखे , कारण के प्राये करीने था बे ग्रहो घणी वार वक्री अने मार्गी थाय ने. तेमां वक्री श्रया पनीनी रीत आ प्रमाणे करवी.वृष राशिमां वक्री श्रयेला बुधनुं गणित आ प्रमाणे .-वक्री श्रयेला दिवसनी शेष पनीट २६, खनना दिवसनी घमी १० तथा अंतराळना ( वच्चेना) चार दिवसोनी ही २५० ए सर्व मळीने २७६ थर. आ अंक जूदो राखी मूकवो. हवे बुध जे दिवसे वक्र भयो ते दिवसे वृष राशिनुं नुक्त काढवा माटे टिप्पनकमां जोयुं तो अंश RM, कळा धबे. ते सर्वने कळारूप करतां १५४४ कळा श्रश्. तेमांथी कृत्तिकाना त्रण पाद श्रने रोहिणीना चारे पादनी मळी १४०० कळा बाद करीए त्यारे शेष १४४ रहे .ा मृगशीर्षन सुकाव्यु.वाटतावमे "वक्रारपश्चिमेऽन्तरांशकला नुक्ता ग्राह्याः" Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३८३ "वक्रीनी पीनी तथा पहेलांनी जुक्त अंश कळा ग्रहण करवी.” एटलानी व्याख्या पूरी थर. त्यारपती श्रा १४४ मृगशिरना नुक्तवझे पूर्वे आणेली २७६ गत इष्ट घमीउने गुणवाथी ३ए थाय बे. त्यारपनी टिप्पनकमां जोवू, अने वकीना दिवसथी आरंजीने रोहिणीमां बुध ७ घमी होय त्यांसुधीनी सर्व घमी एकत्र मेळववी. ते श्रारीते.वक्रीना दिवसनी शेष घमी २६, रोहिणीमां श्रावेलो बुध घमी , तथा अंतराळना ६ दिवसनी घमी ३६० मळी ३५३ थर. या सर्व नक्षत्रनी घमीवझे पूर्वे कहेला अंक ३७७४४ ने जाग देतां नागमां कळा १०१ आवी अने शेष विकळा ७ रही. श्राने पूर्वे कहेला मृगशिरना नुक्त १४४ मांथी बाद करीए त्यारे कळा ५२, विकळा ५२ रहे बे. श्राटलाए करीने "वक्रादूचं फलं लब्धं नुक्तनागौघतस्त्यजेत्-" "वक्रीनी पी जे फळ लाध्युं तेने नुक्त अंशना समूहमांथी बाद करवं." एटलानी व्याख्या पूरी था. 5. पीते कळा ४२, विकळा ५२ ने कृत्तिकाना त्रण पादनी अने रोहिणीना चारे पादनी मळी १४०० घमीमां नाखवाथी १४४२ कळा अने ५२ विकळा अश्. कळाने ६० वझे नाग देतां नागमा २५ अंशो श्राव्या. ते उपर नुक्त राशि एक देवाश्री स्पष्ट बुध राशि १२४-३-२२ थयो. __ हवे ते बुधनी गति या प्रमाणे लाववी.-आउसोने ठेकाणे अहीं १४४ नो अंक , तेने ६० वझे गुणी सर्व नत्रनी घमी ३५३ वमे नाग देतां कळा २१, विकळा एए थश्. श्रा वक्र थया पगी लग्नने दिवसे बुधनी गति आवी. गतिने स्पष्ट करवानुं फळ प्रथमनी जेमज जाणवू. विशेष ए के-आ गतिवमे गत इष्ट घमीटने पूर्वे कहेली रीत प्रमाणे गुणवाथी जे कळादिक फळ लाधे ते बीजा कार्यसमये पूर्व कायना समयना ग्रहोमांथी बाद करीए त्यारे बीजा कार्यसमयना ग्रहो स्पष्ट थाय .. __ हवे वक्र या पहेलांनी वर्तना या प्रमाणे.-पुनर्वसुमां शुक्र घमी एए बे. ते दिवसनी पनीने बीजे दिवसे १० घमी पठी लग्न लीधेलुं , तेथी लग्नना दिवसनी घमी १० श्रने पुनर्वसुमां शुक्र आव्यो ते दिवसनी शेष घमी १ मळी ११ घमी थ. त्यारपती शुक्र क्यारे वक्र थशे ? ते माटे टिप्पनकमां जोवू. त्यारे लग्नना दिवसनी पी वक्री शुक्र घमी पए, अंश २१, कळा १० ए प्रमाणे टिप्पनकमां लखेलुं जोयुं. तेमां अंश विगेरेनी कळा करवाथी १२७० श्रश्. तेमांथी मृगशिरना वे पादनी अने आर्भाना चारे पादनी मळी १२०० कळाठे बाद करतां शेष कळा ७० रही. आ पुनर्वसुनुं नुक्त थयु. आटलावझे "वक्रादग्रे पूर्व चान्तरांशकला नुक्ता ग्राह्याः"-"वक्रनी पीनी अने पहेलांनी नुक्त अंतरांश कळा (वच्चे रहेला अंश-कळा) ग्रहण करवी.” एटलानी व्याख्या भर. त्यारपी था पुनर्वसुनी नुक्त कळा ७० वझे गत इष्ट घमी ११ ने गुणतां भा. ५. Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए। ॥श्रारंजसिद्धि॥ ७७० थर. त्यारपळी फरीथी टिप्पनकमां जोवाथी पुनर्वसुमां शुक्र श्राव्यो ते दिवसनी शेष घमी १, वक्र दिवसनी घमी ४ए अने अंतराळना पांच दिवसनी घमी, ३०० मळीने ३५० श्रश्. आ सर्व नक्षत्रनी घमी श्रश्. तेवझे पूर्वे कहेला १७० ने लाग देतां कळा २ अने विकळा ११२ श्रावी. आटलु लग्नसमये शुक्रे पुनर्वसुनुं नुक्त अयुं, तेथी तेने मृगशिरना बे पादनी तथा आना चारे पादनी मळी १२०० कळामां नाखवाथी कळा १२०२ अने विकळा १२ अश्. कळाने ६० वझे नाग देतां नागमा २० अंशो लाध्या. तेनी नपर बे राशि देवाथी लग्नवेळाए स्पष्ट शुक्रराशि २-२०-२-१२थयो. हवे तेनी गति या प्रमाणे.-श्रावसोने स्थाने अहीं ७० नो अंक जे, तेने ६० वमे गुणी सर्व नक्षत्रनी कळा ३५० वझे नाग देतां कळा १२, विकळा - श्रावी. श्रा वक्र श्रया पहेला लग्नने दिवसे शुक्रनी गति थर. आ गतिवझे गुणवाथी जे कळादिक फळ आवे ते पूर्व काळना ग्रहोमा मेळवq. हवे मार्गी या पहेलांनी वर्तना था प्रमाणे.-रोहिणीमां बुध घमी ७ ए प्रमाणे खखेलुं होवाथी जणाता दिवसनी पनी आग्मे दिवसे पांच घमी गया पी लग्न सीधेटुं बे, तेथी लग्नना दिवसनी घमी ५, रोहिणीमां बुध आव्यो ते दिवसनी शेष घमी ५३ अने अंतराळना सात दिवसनी घमी ४२० मळीने ७० घमी थप ते गत इष्ट घमी जाणवी. त्यारपनी टिप्पनकमां जोयुं तो लग्नना दिवसनी पजी सातमे दिवसे मार्गी बुध घमी ४५, अंश १३, कळा १३, विकळा ० ए प्रमाणे खखेलूं जोयु. त्यारपरी ते अंशादिकने कळारूप करवाथी ७ए३ कळा श्रने छ विकळा थर. श्रा टिप्पनकमां लखेलुं अंशादिक बुधे वृष राशिनुं नुक्त थयुं एम जाणवू, श्रने नोग्य तो कळा १००६, विकळा ५२ , माटे श्रा नोग्यवझे गत इष्ट घमी ४० वे स्थाने स्थापन करी अनुक्रमे गुणवी. स्थापना-४९१६. आटलाए करीने "नोग्या मार्गाग्रपश्चिमे"-"मार्गीनी पहेलांनी अने पीनी नोग्य कळा गुणवी” एम कहेलु होवाथी नोग्य कळाज गत इष्ट घमी साथे गुणवा माटे ग्रहण करी बे. तेने अनुक्रमे गुणवाथी ४६१४६६ थयु. नीचेना अंकने ६० वझे नाग देतां नागमां श्रावेला ४१४ उपरना अंकमां नाखवाथी ४७१२८२ थया. त्यारपती रोहिणीमां बुध आव्यो ते दिवसनी शेष घमी ५३, मार्गी बुध थयो ते दिवसनी शेष घमी ४५ तथा अंतराळना चौद दिवसनी घमी ४० ए सर्व मळीने ए३० श्रइ. आ सर्व नक्षत्रनी घमी थर, तेना व पूर्वे कहेला ४०१२०१ ने नाग देतां कळा ५१३ लाधी. शेष विकळा ६ रही. पाटबुं फळ लाध्यु. त्यारपनी लग्नना दिवसथी आउमे दिवसे टिप्पनकमां लखेलो मार्गी १ बाकी रहेला ७० ने ६० वडे गुणी ३५० वडे भाग देतां १२ विकळा आवे छे. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३ए५ बुध १३, कळा १३, विकळा ८ बे, तेनी कुल कळा ७७३, विकळा रूप वृष राशिनुं जे मुक्त थयुं वे तेने जोग्य कळा १००६, विकळा ८ सहित करवाथी १८०० कळा थाय बे, तेमांथी पूर्वे साधेलुं फळ कळा ५१३, विकळा ६ वाद करवी, केमके "सनोग्यनुत्तमागौघात्त्याज्यं मार्गादितः फलं " - "जोग्य सहित करेला मुक्त अंशादिना समूहथी मार्गांना लाधेला फळनो त्याग करवो” एम कहेलुं बे, तेथी ते बाद करतां कळा १२८६ अने विकळा ९४ रही. कळाने ६० वमे जाग देतां अंश २१, कळा २६, विकळा ९४ वी. आटलं मार्गी थया पहेला लग्नने दिवसे बुधे वृष राशिनुं नुक्त थयुं. तेना उपर एक राशि देवाथी स्पष्ट बुध राशि १ -२१-२६ - ५४ थयो. तेनी गति या प्रमाणे - १००६ - ५२. तेमां पहेला अंकने ६० व गुणी सर्व नक्षनी घमी ७३८ वमे जाग देतां कळा ६४, विकळा १३ यावी. आ रीतवमे प्राप्त लुं कळादिक पूर्वना ग्रहोमांथी वाद करवुं. हवे मार्गी या पी च्या प्रमाणे वर्तना करवी. - मार्गी बुध जे दिवसे थयो ते दिवसे ४२ घमी येलो होवाथी ते दिवसनी शेष घमी १५, लग्नना दिवसनी and 9 तथा अंतराळना व दिवसनी घमी ३६० सर्व मळीने ३०२ थइ. श्र गत इष्ट घमी थइ, तेने बे वार स्थापन करवी. पबी मार्गी बुध घमी ४५ अंश १३, कला १३, विकळा, ए प्रमाणे टिप्पनकमां लखेलुं बे, अने तेथी शेष रहेली जोग्य कळा १००६, विकळा ५२ बे, तेने उपरनी गत इष्ट घमी ३८२ व गुणवी, केमके "जोग्या मार्गापश्चिमे " " मार्गीनी पहेलांनी तथा पाबळनी जोग्य घमी ग्रहण करवी " एम कह्युं बे, तेथी तेने गुणतां ३८४६२३ - ४ थया. त्यारपबी फरीथी टिप्पनकमां जोतां मार्गी या पी १४ दिवसे मृगशिरमां बुध ४७ लखेलो जोयो, तेथी करीने बुधना मार्गी थवाना दिवसनी शेष घमी १५, मृगशिरमां बुधना श्राववाना दिवसनी घमी ७ तथा अंतराळना तेर दिवसनी घमी १०० ए सर्व मळी ८४२ घमी यश. या सर्व नक्षत्रनी घमी थ. खाना व पूर्वे कला अंक ३८४६२३ ने जाग देतां कळा ४५६, विकळा ४० थइ. कळाने ६० वजे जाग देतां अंश 9 लाध्या. शेष कळा ३६ अने विकळा ४० रही. या अंकमां मार्गी थवाना दिवसे लखेला अंश १३, कळा १३ अने विकळा उमेरवी, केमके " मार्गपश्चात्तु रूढ्या " - " मार्गी थया पठीनी वर्तना होय तो रूढि प्रमाणे करवुं एटले के उमेरवा" एम कह्युं बे, माटे ते उमेरतां अंश २०, कळा ४, विकळा ९६ या बे. आटलुं प्रमाण लग्नसमये बुधे वृष राशिनुं मुक्त थयुं. तेना पर एक राशि देवाथी स्पष्ट बुध राशि १ -२०-४० - ९६ थयो. तेनी गति या प्रमाणे. - १००६-२२. तेमां पहेला कने ६० वमे गुणी सर्व नक्ष Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ॥ आरंसिद्धि॥ बनी घमी ४२ वझे नाग देवाथी कळा ७१ तथा विकळा ३३ श्रावी. या रीते श्रावेलुं कळादिक फळ पूर्वे आणेला ग्रहोमां नेळवq. या रीते बीजा ग्रहोनी वर्तना पण - उपर कह्या प्रमाणे पोतानी बुद्धिथी करवी. आ सर्व गणित ज्योतिर्विदोने निरंतर उपयोगी होवाथी तथा प्रसंग होवाथी देखाड्युं बे. __ हवे विवाहमां गोधूलिक लग्न कहे .सन्ध्यालग्नमपि श्रेयो गोखुरोत्खातधूलिनिः। गोपानां हीनवर्णानां प्राच्यां च स्यात्करग्रहे ॥७३॥ अर्थ-गोवाळना, नीच वर्णना अने पूर्व देशमा रहेनारना विवाहमां गायनी खरीए उमामेली धूळवमे जणातुं संध्या लग्न पण श्रेय (शुन्न) जे. सूर्यना अस्त वखते सूर्य- अर्ध बिंब देखातुं होय त्यारथी आरतीने गायनी खरीथी उमेली धूळ ज्यांसुधी शांत न थइ होय त्यांसुधी गोधूलिक लग्ननो समय होय , तेथी करीनेज अहीं श्लोकमां"धूलिनिः"एम कथु बे. अर्थात् ज्यांसुधी तारा न देखाय त्यांसुधी जाणवू. जो सूर्य वादळांथी ढंकायेल होय तो प्रपन्नाट नामनी उपधिना पत्रनुं मळी जवू, पक्षीउना समूहनो कोलाहल श्रवो तथा तेमनुं पोतपोताना माळा तरफ जवा माटे उत्सुकपणुं ए विगेरे चिह्नोवमे लग्नसमयनो निर्णय करवो. मूळ श्लोकमां "श्रेयो"-शुल एम कडं ते लोकरूढिथी कह्यु बे. तथा "हीनवर्णानां" एटले नीच वर्ण ए शब्द सामान्य रीते कह्यो बे, कारण के गदाधर कहे जे के _ “घटिकालग्नाजावेऽङ्गीकार्य गोरजोऽपि विप्रैश्च ।" "घटिका लग्नने अन्नावे ब्राह्मणोए गोरज (गोधूलिक ) लग्न पण अंगीकार करवू.' हवे गोधूलिक लग्नमा केटली शुद्धि होवी जोइए ते कहे जे. शीतद्युतिं षष्ठमथाष्टमं च, नार्धयामौ कुलिकं च हित्वा । विनाऽपि लग्नांशखगानुकूल्यं, गोधूलिकं प्राग्रहरं वदन्ति ॥ ४ ॥ अर्थ-उने तथा आठमो चंड, जत्रा, अर्धयाम अने कुलिकने गेमीने लग्ननो नवांशक अने नत्रनी अनुकूळता न होय तोपण गोधूलिक लग्नने श्रेष्ठ कहे जे. लग्नथी बछे के आवमे चंज होय तो ते कन्याना मृत्युने देनार ने तथा "मंगळ पण पहेला के आउमा स्थानमा रह्यो होय तो ते पतिना मृत्युने करनार होवाथी तजवा योग्यज " एम सारंग कहे . अर्धयाम तथा कुलिकने तजवाना लख्या , तेथी Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ३ए एवं सूचवन थाय बे के गोधूलिक लग्नमां गुरु अने शनिवार तजवाना , कारण के ते दिवसे अनुक्रमे अर्धयाम अने कुलिकनी उत्पत्ति के. (गुरुवारे अर्धयाम अने शनिवारे कुलिक थाय .) केशवार्क तो आ प्रमाणे कहे जे. ___ "सार्क शनौ चिरविचित्रशिखएिमसूनौ, तत्केवलं कुलिकयामदलोपलम्नात् ।" __ "शनिवारे सूर्य उतां गोधूलिक लग्न करवं, केमके सूर्यास्त पजी कुलिक योग थाय ने, तथा गुरुवारे सूर्यास्त पठी करवू, कारण के ते पहेला अर्धयाम योग थाय बे." मूळमां खग शब्द लख्यो ने तेनो अर्थ ग्रहो श्राय जे. तेमनी अनुकूळता विना पण एम मूळमां लख्युं ने तोपण क्रांतिसाम्य विगेरे मोटा दोषो अवश्य त्याग करवा योग्य वे. तेने माटे व्यवहारप्रकाशमां कडं बे के "क्रूरैर्युतनत्रं व्यतिपातं वैधृतिं च संक्रान्तिम् । हीणं चन्ध्र ग्रहणनशनिगुरुदिनक्रान्तिसाम्यानि ॥१॥ दम्पत्योरष्टमन्नं लग्नात् षष्ठाष्टमं च शीतांशुम् । रविजीवयोरशुद्धिं विवर्ण्य गोधूलिकं शुन्नदम् ॥२॥ गोधूलिकापरिणयने येषां केन्प्रोपगः शुनो न मृतौ । जौमो नोदयनिधने तेषां सौख्यानि नान्येषाम् ॥३॥" "क्रूर ग्रहवमे युक्त नत्र, व्यतिपात, वैधृति, संक्रांति, क्षीण चंड, ग्रहण नक्षत्र, शनिवार, गुरुवार, क्रांतिसाम्य, लग्नथी स्त्री पुरुषने आठमुं नक्षत्र, बो के आठमो चंज तथा रवि अने गुरुनी अशुद्धि, आटलांने वर्जीने गोधूलिक लग्न शुलदायक . गोधूलिकना विवाहमा जेने केन्द्रमा शुल ग्रह होय अने मृत्यु (1) स्थानमा शुन ग्रह न रह्यो होय, तथा उदय (१) अने निधन (1) स्थानमा मंगळ रहेलो न होय तेमने सुख के, बीजाने नथी." मूळ श्लोकमां "प्राग्रहरं" एटले बीजा दोषोए श्रा(गोधूलिक) जीती शकाय तेवू नथी, माटे प्रधान-श्रेष्ठ बे. ते विषे सारंग कहे जे के "जामित्रं न विचिन्तयेद्युत लग्नाबशाङ्कात्तथा, नो वेधं न कुवासरं न च गतं नागामि नं पाप्मतिः। नो होरां न नवांशकं न च खगान्मूर्त्यादिनावस्थितान् , हित्वा चन्द्रमसं षष्टमगतं गोधूलिकं शस्यते ॥ १॥" । __"जामित्र (७) स्थाननो विचार करवो नहीं, लग्नथी तथा चंथी ग्रहवझे युक्तपणुं १ जामित्र स्थान शुद्ध के अशुद्ध छे ? तेनो विचार करवो नहीं. ए रीते सर्वत्र जाणवू. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए ॥ आरंसिद्धि ॥ विचार नहीं, वेधनो विचार करवो नहीं, अशुन दिवसनो विचार करवो नहीं, क्रूर ग्रह साथे रहेला अने रहेशे एवा नक्षत्रनो विचार करवो नहीं, होरानो विचार करवो नहीं, नवांशकनो विचार करवो नहीं, तथा मूर्ति (१०) आदिक स्थानोमा रहेला ग्रहोनो पण विचार करवो नहीं. मात्र बना अने आठमा चंजनो त्याग करवाश्रीज गोधूलिक लग्न प्रशस्य-शुक्ल ." आ श्लोकमां जो के बहा श्रापमा चंजनो त्यागज अपेक्षित ने, बीजुं कां पण अपेक्षित नथी एम कडं , तोपण आ प्रमाणे जाणवू.-गोधूलिक लग्न लीधुं होय तोपण विवाहनुज नक्षत्र अने तेनी शुद्धि होवी जोइए, तथा वर्ष, मास, पद अने दिवसनी शुद्धि पण अवश्य होवी जोश्ए. अहीं कोई शंका करे के-जो बीजा दोषोए नहीं जीती शकाय एवं होवाथी गोधूलिक लग्न प्रधान ने तो पूर्वे कहेला लग्नादिकनां फळोनुं अप्रधानपणुं थशे ? उत्तर-खरी वात ने, केमके उलंघन न करी शकाय एवा कुळ अने देशना धर्मने श्रनुसरवाथी कोई वार ते लग्नादिक फळोने अप्रधानपणानी प्राप्ति आवे तोपण ते अनिष्ट नथी-इष्टज बे. कडं बे के "न शास्त्रदृष्ट्या विषां कदाचिउलंघनीयाः कुलदेशधर्माः। देशे गतोऽप्येकविलोचनानां, निमीट्य नेत्रं निवसेन्मनीषी ॥ १॥" "विधानोए को वखत पण शास्त्रनी दृष्टिने सीधे कुळ, देश अने धर्मर्नु उलंघन करवू नहीं, केमके माह्यो माणस एक नेत्रवाळाना देशमा गयो होय तो तेणे त्यां पोतानुं एक नेत्र बंध करीनेज वसवू जोइए." श्रा रीते अमुक कुळ अने देशमां गोधूलिकनुंज प्रधानपणुं चे, परंतु लग्नादिकना फळर्नु प्रधानपणुं नथी, तेथी कां पण दोष आवतो नथी. वळी अमुक कुळ अने देशना धर्म मात्र गोधूलिकनाज विषयवाळा जे एम नथी, परंतु ग्रहगोचरादिक विषयवाळा पण जे. जेमके-विवाहमा नागरलोको बम आठमा विगेरेने गणता (अपेक्षा राखता) नथी, नार्गवना वंशजोमां नाप्रपद शुक्ल दशमने दिवसेज विवाह करवानी रीत बे, आ कुळधर्म . देशधर्मो या प्रमाणे जे. जेमके-गौम देशना लोको गोचरवमे श्रेष्ठ एवा सूर्यनी अपेक्षा राखे ने अने गुरुनी अष्टक वर्गे करीने अपेक्षा करे बे. दक्षिणना लोको गुरुने गोचरवमे करीने श्रेष्ठ श्छे ने अने सूर्यने अष्टक वर्गे करीने श्रेष्ठ श्छे . लाट देशना लोको सूर्यने तथा गुरुने अष्टक वर्गे करीने तथा गोचरवमें Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३ एए करीने श्रेष्ठ इसे बे. मालव देशना लोकोने गोचर प्रमाणरूप नथी, परंतु अष्टक वर्गज प्रमाण बे. बीजा देशोमां गोचर तथा अष्टक वर्ग बन्ने प्रमाण बे. ed पूर्वे कला बाया लग्ननी जेवाज बळवाळा ध्रुव लग्नने कहे बे. - स्युदास्थापनादीनि ध्रुवचक्रे तिरः स्थिते । ऊर्ध्वे खातध्वजोच्छ्रायप्रायाणि प्रायशः श्रिये ॥ ७५ ॥ - ध्रुवचक्र तिर रधुं होय त्यारे दीक्षा, स्थापना विगेरे कार्यो शुभदायक बे, खात, ध्वजारोपण विगेरे उंचाइ जेवां कार्यो ध्रुवचक्र ऊर्ध्व रयुं होय त्यारे प्राये करीने कल्याणने माटे बे. : स्थापना एटले प्रतिष्ठा आदि शब्दथी बीजुं पण स्थिर कर्म जाणवुं तिरः एटले तिरडं. ऊर्ध्वे एटले उंचुं रहे बते. ध्रुवनी चोतरफ रहेलुं श्रृंखलक ( चक्र ) मावुं जमतुं म एक रात्रि दिवसमां बेवार तिरनुं छाने बे वार ऊर्ध्व आवे बे. तेथी करीने" तिर्यगूर्ध्व स्थिते चक्रे तत्प्रान्तगततारके । समसूत्रे यदा स्यातां ध्रुवलग्नं जवेत्तदा ॥ १ ॥ ” “ध्रुवचक्र तिरनुं ने ऊर्ध्व रहे बवे ज्यारे तेना बेमा पर रहेला वे तारा सरखी लाइनमां आवे त्यारे ध्रुव लग्न थाय बे.” ते ध्रुव लग्नना समयनो अतिसूक्ष्म दृष्टिए करीने अथवा ध्रुवने फरवाना यंत्रव करीने निश्चय करवो, छाने स्थूळ दृष्टिए तो पूर्वाचार्योए या प्रमाणे निर्णय कर्यो बे. - "उदए महाधपिठाण नहुं अराह कित्ति धुव तिरित्ति" " मघा ने धनिष्ठानो उदय होय त्यारे ध्रुव ऊर्ध्व होय बे, अने अनुराधा तथा कृत्तिकानो उदय होय त्यारे ध्रुव तिरनुं होय बे. " परंतु नक्षत्रनुं उदयप्रमाण बराबर स्पष्ट रीते दृष्टिगोचर थइ शकतुं नथी, तेथी मस्तक पर ( माथे - आकाशना मध्यमां) रहेला नक्षत्रनी अपेक्षाए ध्रुव लग्ननुं स्वरूप कहेवाय बे, ते प्रमाणे – अश्लेषा ने श्रवण नक्षत्र मस्तक परथी उतरतां होय त्यारे ध्रुव तिरनुं होय वे, तथा जरी अने विशाखा नक्षत्र मस्तक परथी उतरतां होय त्यारे ध्रुव ऊर्ध्व होय बे. तथा “स्यादूर्ध्वा मृगकर्के तु समस्तिर्यक् तुलाजयोः । यथा तथा तु शेषेषु लग्नेषु स्याध्ध्रुवं ध्रुवः ॥ १ ॥ " " मकर कर्क राशिनुं लग्न होय त्यारे ध्रुव ऊर्ध्व होय वे, तथा तुला छाने मेष राशिनुं लग्न होय त्यारे ते तिरनुं होय बे, अने बीजां लग्नो होय त्यारे ते अवश्य गमे से रीते - नियमित होय बे." Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ॥ श्रारंसिद्धि । ___"ते ध्रुव लग्ननो समय ते काळे जे खग्ननो उदय होय तेना नवांशक जेटलोज होय चे," एम केटलाक कहे बे. वळी बीजा कहे जे के-"ते नवांशकनो मात्र मध्यना त्रिलाग जेटलोज होय ." आ ध्रुव लग्ननुं तिरगपणुं तथा ऊर्ध्वपणुं रात्रिने आश्रीनेज कहेवाय ने, परंतु दिवसने आश्रीने कहेवातुं नथी, कारण के दिवसे तो ते सूर्यनां किरणोथी लुप्त थाय . मूळ श्लोकमां "प्रायाणि" एम प्राय शब्द लखेलो होवाथी यात्रादिक कार्य पण ग्रहण करवं. ते माटे कडं बे के " "पृष्ठतो वा रविं कृत्वा गच्छेद्दक्षिणगं तथा । उत्तानपादपुत्रस्य शेखरे चोर्ध्वसंस्थिते ॥ १॥" __ "उत्तानपादना पुत्र (ध्रुव)नुं शेखर (मस्तक) ऊर्ध्व रहेलुं होय त्यारे सूर्यने पाबळ करीने अथवा दक्षिण (जमणो) करीने प्रयाण करवू.” । हर्षप्रकाशमां पण ध्रुव लग्न कडं वे ते आ प्रमाणे. "ज पुण तुरियं कां हविज लग्गं न लप्नए सुद्धं । ता गयाधुवलग्गं गहिब सयलकोसु ॥१॥" "जे कार्य जलदी करवा लायक होय अने शुद्ध लग्न न मळतुं होय तो समग्र कार्यमां गया लग्न अने ध्रुव लग्न ग्रहण करवां." हवे अहीं प्रसंगोपात्त राजादिकना अनिषेकनुं मुहूर्त कहे जे.थनिषिक्तो महीपालः श्रुतिज्येष्ठा लघुध्रुवैः । मृगानुराधापौष्णैश्च चिरं शास्ति वसुन्धराम् ॥ ७६ ॥ अर्थ-श्रवण, ज्येष्ठा, लघु (पुष्य, अनिजित्, हस्त, अश्विनी), ध्रुव (रोहिणी, त्रण उत्तरा), मृगशिर, अनुराधा अने रेवती नक्षत्रमा राजाने अभिषेक कर्यो होय तो ते चिर काळ सुधी पृथ्वीनुं राज्य करे . आ तेर नक्षत्रो अनिषेकनां वे. सबलत्वे जन्मदशालग्नेशानां कुजार्कयोरपि च । राज्ञां शुजोऽनिषेकः सितगुरुश शिनां च वैपुल्ये ॥ ७ ॥ अर्थ-जन्मेश, दशेश, लग्नेश, मंगळ अने सूर्य आटला ग्रहोर्नु सबळपणुं होय, तथा शुक्र, गुरु अने चंजनुं विपुलपणुं होय त्यारे राजानो अनिषेक करवो शुल वे. जन्मवखते जे राशिमां चंड होय ते राशिनो ईश जन्मेश कहेवाय बे, अनिषेकने वखते जे ग्रहनी दशा होय ते दशेश कहेवाय जे, तथा जन्मवखते लग्ननो जे पति होय ते लग्नेश कहेवाय बे. विपुलपणुं एटले घणा दिवसथी उदय श्रयेलो होवाश्री मोटां बिनु होवापणुं तथा सारां-घणां किरणवाळापणुं. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ४०१ नूत्यै स्वस्खत्रिकोणो १ च ५ गृह ३ मित्र ४ गैहैः। अनिषेको न नीचारिक्षेत्रगास्तमितैः पुनः ॥ ७ ॥ अर्थ-पोताना त्रिकोणमा, पोताना उच्च स्थानमां, पोताना स्थानमा भने पोताना मित्रना स्थानमां ग्रहो रहेला होय त्यारे अभिषेक करवो ए नूति-श्रावादीने माटे ने (शुज ), परंतु ग्रहो नीच के शत्रुना स्थानमा रहेला होय के अस्त पामेला होय तो ते शुज नथी. । श्रहीं "स्वस्व" पोतपोतार्नु" ए शब्द त्रिकोण विगेरे चारे शब्दमां जोमवो. श्रा ग्रहो श्रावी रीतना होय तोज अनिषेक करवो श्रेष्ठ जे. ते विषे कर्वा ने के "सुहृत्रिकोणस्वगृहोच्चसंस्थाः, श्रियं च कीति च दिशन्ति खेटाः। अस्तंगताः शत्रुननीचगा वा, जयाय शोकाय नवन्ति राझाम् ॥ १॥" "मित्र, त्रिकोण, स्वगृह अने उच्च स्थानमा रहेला ग्रहो खदमीने तथा कीर्तिने आपे ने, अने अस्त पामेला होय के शत्रुना स्थानमा रह्या होय के नीच स्थानमा रह्या होय तो ते राजाने जयने माटे तथा शोकने माटे श्राय जे." __ मूळ श्लोकमां (त्रिकोण विगेरेमा रहेखा ) "ग्रहो होय" एम सामान्य रीते कई तोपण विशेषे करीने गुरु, चंज थने शुक्र, तथा जन्मवार, दशानो वार, लग्नेशनो वार श्रने दिनवार ग्रहण करवा. ते माटे लव कहे जे के “विशेषाङान्मलग्नेशदशेशदिनचर्तृषु । यस्मात्तस्मात्प्रयत्नेन सौस्थ्यमेषां प्रकल्पयेत् ॥ १॥" "जे कारण माटे जन्मनो स्वामी, लग्ननो स्वामी, दशानो स्वामी अने दिननो स्वामी (अनिषेकने विषे ) विशेष उपयोगी ने ते कारण माटे ते ग्रहोगें सुस्थपणुं (सारां स्थानोमा रहेवापj) प्रयत्नवमे करवू.” ताराबले शशिबले शुकौ तिथिवारधिष्ण्ययोगानाम् । विषमायस्थैः पापैः सौम्यैस्त्रयायत्रिकोणकेन्प्रगतैः ॥ ए॥ अर्थ-तारानुं बळ अने चंजनुं बळ होय त्यारे तथा तिथि, वार, नक्षत्र अने योगनी शुद्धि होय त्यारे, त्रीजे, बछे अने अगीयारमे स्थाने पाप ग्रहो रह्या होय, अने सौम्य ग्रहो त्रीजे, अगीयारमे, त्रिकोणमां अने केन्द्रमा रह्या होय त्यारे राज्याभिषेक करवो शुल के. तारा अने चंडए बन्नेनुं बळ राज्याभिषेकमा अवश्य ग्रहण करवं, तेथी करीने शुक्स आ० ५१ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ ॥ आरं सिद्धि ॥ पक्ष तथा कृष्णपक्षनी अपेक्षाए बन्नेनुं बळ लेवुं एवो अर्थ करवो नहीं. दग्धा अने रिक्ता विगेरेने त्याग करवाथी तिथिनी शुद्धि कहेवाय बे, सौम्य वार सेवाथी वारनी शुद्धि थाय बे, क्रूर ग्रहे आक्रमण करेला नक्षत्र विगेरेनो त्याग करवाथी नक्षत्रनी शुद्धि जावी, तथा दुष्ट योग ने उपयोगने वर्जयाथी योगनी शुद्धि थाय बे. "न्याय""श्रीजे, बहे" अहीं उपलक्षणथी धन ( बीजुं ) स्थान पण सौम्य ग्रहोवरेज सहित हो जोइए. सामर्थ्यथी एम पण जाय बे के श्रावमं ने बारमुं ए स्थान शून्य होय तो ते सारांबे, कारण के ते बे स्थानोमां शुभ के अशुभ कोइ पण ग्रह रह्यो होय तो ते निष्ट आपनारज बे. जन्मर्काडुपचयने स्थिरेऽथ शीर्षोदयेऽथवा जवने । सौम्यैर्विलोकितयुते न तु पापैर्जूपमनिषिश्चेत् ॥ ८० ॥ अर्थ - जन्मनी राशिथी उपचयस्थानमां, अथवा स्थिर लग्नमां, अथवा शीर्षोदयी ( माथी उदय पामनार ) लग्नमां, अने ते लग्न सौम्य ग्रहोए जोयेल तथा युक्त होय, पण क्रूर ग्रहोए दृष्ट के युक्त न होय तेवा लग्नमां राजानो अभिषेक करवो शुभ बे. जे पुरुषने निषेक करवानो होय तेनी जन्मनी राशिश्री उपचयस्थानमा रहेलुं लग्न होय, अथवा स्थिर राशिनुं लग्न होय, अथवा शिर्षोदयी राशिवालुं लग्न होय. " न तु पापैः " एटले के क्रूर ग्रहोए जोयल अथवा युक्त न होय. मार्कयोख्या ३ य ११ गयोर्गुरौ तु सुखा ४ म्बर १० स्थे नृपतिः स्थिरश्रीः । या त्रिकोणो-५दयगे १ सुरेज्ये, शुक्रे नमः १०स्थे क्षितिजे रिपु ६ स्थे ॥ ८१ ॥ अर्थ - शनि ने सूर्य त्रीजे के गीयारमे स्थाने रह्या होय, छाने गुरु चोथे के दशमे स्थाने रह्यो होय तो ते ( राज्यानिषिक्त ) राजानी लक्ष्मी स्थिर थाय बे, अथवा तो गुरु नवमा, पांचमा के पहेला स्थानमा रह्यो होय, शुक्र दशमा स्थानमां होय ने मंगळ हे स्थाने होय तोपण ते राजा स्थिर लक्ष्मीवाळो थाय बे. अहीं यमनो अर्थ शनि बे. निषितो बलीयो जिर्महैः केन्द्र त्रिकोणगैः । पापैः शुभैः सौम्यो मित्रैः साधारणो जवेत् ॥ ८२ ॥ क्रूरः अर्थ – केन्द्र ने त्रिकोणमां रहेला बळवान् क्रूर ग्रहोए अभिषेक करायेलो राजा कर थाय बे, तेवाज शुभ ग्रहोए करीने सौम्य ने मिश्र ग्रहोए करीने साधारण थाय बे. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ४.३ जो त्रिकोण अने केन्जमा रहेला वळवान् ग्रहो सर्वे क्रूर होय तो राजा क्रूर थाय बे, सर्वे शुन ग्रहो होय तो राजा सौम्य थाय ने, अने जो मिश्र होय एटले के केटलाक ग्रहो क्रूर होय अने केटलाक सौम्य होय तो साधारण एटले अत्यंत क्रूर के सौम्य न घाय. वळी "विधुगुरुशुक्रः सार्केः" आ श्लोक जे उपनयनना अधिकारमा कह्यो जे ते अहीं पण जाणवो. हवे अनिषेकमां मोटा दोषने कहे . चन्ने सौम्येऽपि वाऽन्यस्मिन् रिपु ६ रन्ध्र ७ स्थिते है। क्रूरैर्विलोकिते मृत्युरनिषिक्तस्य निश्चितः ॥ ३ ॥ अर्थ-चंड अथवा बीजो कोइ पण सौम्य ग्रह बजे के आपमे स्थाने रह्यो होय अने तेना पर क्रूर ग्रहोनी पूर्ण दृष्टि पमती होय ते वखते अनिषेक करेला राजानु अवश्य मरण थाय . अहीं "विलोकिते" एटले पुष्ट (पूर्ण) दृष्टिए जोयेलो एवो अर्थ बे.. । अनिषेकनी वेळाए तनु (१)विगेरे स्थानोमांपाप ग्रहो रहेला होय तेनुं फळ कहे जे.रोगी तनु १ स्थैरधनो धनाश्न्त्यगैःखी च पापैर्नृपतिस्त्रिकोण ए–५ गैः । पदच्युतोऽस्ता एम्बु ४ गतैर्मृति जस्थितैररूपायुराकाश१० गते स्त्वकर्मकृत्य अर्थ-अभिषेक वखते पाप ग्रहो जो पहेला स्थानमा रह्या होय तो ते राजा रोगी रहे बे, बीजा अने बारमा स्थानमा रह्या होय तो निर्धन थाय बे, त्रिकोण (ए-५) मां रह्या होय तो दु:खी श्राय बे, सातमे के चोथे रह्या होय तो पदन्रष्ट (राज्यघ्रष्ट) थाय बे, बाग्मे रह्या होय तो अप आयुष्यवाळो थाय बे, अने दशमा स्थानमा रह्या होय तो ते अकर्मकर थाय जे. अकर्मकर एटले अकिंचित्कर अर्थात् उद्यम रहित थाय बे. इति वक्तव्यता येयं नूपालस्यानिषेचने । थाचार्यस्यानिषेकेऽपि सा सर्वाप्यनुवतेते ॥५॥ अर्थ-या प्रमाणे राजाना अनिषेकमां जे श्रा वक्तव्यता ( व्यवस्था ) कही ले ते सर्वे आचार्यना अनिषेकमां पण जाणवी. श्लोकमां अपि शब्द होवाथी बीजा पण ( उपाध्यायादिक) पदना स्थापनने विषे पण श्रा व्यवस्था जाणवी, तेश्री करीने राज्याभिषेक अने सूरिपदादिकमां था प्रमाणे कुंमळी सिद्ध थाय . Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ॥श्रारंसिधि॥ उत्तम मध्यम रवि ३-११. |१-२-४-५-६--0--१०-१५ चंड १-२-३-४-ए--ए-१०-११ ६-७-१३ मंगळ ३-६-११ १-३-५---6-ए-१०-१२ बुध १-३-३-४-ए-9-ए-१०-११ ६-७-१२ गुरु १-३-३-४--9-ए-१०-११|६--१२ शुक्र १-३-३-४-५-g-ए-१०-११ ६--१२ शनि ३-११ १-२-४-५-६-g-0--१०-१२ राहु ।३-६-११ |१-२-४-ए-9-0-0-१०-१२ दैवज्ञवक्षनमा विशेष ए ने जे. "राजयोगाः खयोगाश्च चन्मयोगास्तथायुषः। सर्वेऽप्यत्र विकहप्याः स्युर्वास्तुलग्नगुणाश्च ये ॥ १॥" "राजयोगो, खयोगो, चंयोगो तथा आयुष्यना योगो अने वळी जे वास्तु लग्नना गुणो ने ते सर्वे अहीं विचारवा-ग्रहण करवा," एटले के पूर्वे कहेला राजयोगो, खयोगो एटले सूर्यने बीजा ग्रहो साथे जे संयोग श्रवो ते खयोगो, चंजने बीजा ग्रहो साथे जे संयोग थवो ते चंयोगो कहेवाय , आयुष्यना योगो एटले पूर्वे जे अरिष्ट योगो कहेला बे तेमने नाश करनारा जे योगो ने ते आयुष्यने हितकारक होवाथी आयुप्यना योगो कहेवाय बे. आ सर्वेनुं स्वरूप जातकथी जाणवू. अत्र एटले अनिषेकना लग्नमां विचारवा. वास्तु लग्नना गुणो पूर्वे कहेला डे ते जाणवा. वळी सर्व ग्रहोना बळे करीने युक्त एवं लग्न न मळे तो सर्वे कार्योमां श्रा प्रमाणे जाणवू. "पञ्चलिः शस्यते लग्नं ग्रहैर्बलसमन्वितैः। चतुर्निरपि चेत्केन्छे त्रिकोणे वा गुरुर्तृगुः॥१॥" "बळे करीने युक्त एवा पांच ग्रहोए करीने लग्न वखाणवा लायक बे. अथवा जो केंचमां के त्रिकोणमां गुरु अने शुक्र होय तो बळे करीने युक्त एवा चार ग्रहोए करीने पण ते लग्न प्रशस्य ." अहीं "पांच ग्रहोए करीने" एम कर्तुं ने तोपण आ प्रमाणे विशेष जाणवो.गुरु, सूर्य अने चंग ए त्रणमांथी एकनुं पण वळ न होय अने बीजा पांच बळवान् होय तोपण ते लग्न श्रादर करातुं नथी, एटले प्रशस्य नश्री एम रत्नमालानाष्यमां कडं ने. वळी केटलाएक कहे जे के Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ४०ए "त्रयः सौम्यग्रहा यत्र लग्ने स्युर्वलवत्तराः । बलवत्तदपि शेयं शेीनबलैरपि ॥१॥" "जे लग्नमां त्रण सौम्य ग्रहो अत्यंत बळवान् होय ते लग्न पण बीजा ग्रहो हीन बळवाळा उतां पण बळवान् बे एम जाणवू." ॥इति एकादशं मिश्रघारम् ॥ ११ हवे समग्र ग्रंथना अर्थनुं समर्थन करे जे. इत्युक्तखेटबलशालिनि दोषमुक्ते, लग्ने शुन्नैश्च शकुनैः शशिनः प्रवाहे। कार्याणि नूमिजलतत्त्वगतौ कृतानि, निर्दनमाञ्युदयिकी प्रथयन्ति लक्ष्मीम् ॥ ६ ॥ अर्थ-या प्रमाणे कहेला ग्रहोना बळे करीने शोजता अने दोपे करीने रहित एवा लग्नने विषे शुल शकुन जोश्ने चंड नामी वहेती होय त्यारे तेमां पण पृथ्वी तत्त्व के जळ तत्त्वनी गति होय त्यारे ( तेवा समये) करेखां कार्यो दंन रहित बन्युदयनी लक्ष्मीने विस्तारे बे. खेऽटन्ति-आकाशमां गति करे ते खेट कहेवाय , अहीं अट् धातुश्रकी अचू प्रत्यय थयो बे, अने "तत्पुरुषे कृति" ए सूत्रथी सप्तमी विनक्तिनो अलुक् थवायी खेट शब्द सिख थयो बे. खेट एटले ग्रहो, तेमनुं बळ. आम कहेवाथी तिथि विगेरेनुं बळ पण जाणवं. दोषमुक्ते एटले मोटा दोष रहित, कारण के सर्वथा निर्दोष लग्न घणा दिवसोए करीने पण मळी शकतुं नथी, तेथी थोमा दोषवाळु अने घणा गुणवाळु लग्न ग्रहण करीने कार्यों करवां, परंतु सर्वथा निर्दोष लग्न श्रावशे त्यारे कार्य करशुं एम धारीने घणो विलंब करवो नहीं, कारण के धन, यौवन अने आयुष्यनी स्थिरता ले नहीं. एवो अहीं अभिप्राय बे. कडं बे के “यस्मादशेषगुणसंपदहोनिरस्पैर्होरा विदाऽपि गणकेन न लन्यतेऽत्र । तस्मादनहपगुणसंयुतमट्पदोष, लग्नं नियोज्यमखिलेष्वपि मङ्गलेषु ॥१॥" । "जेथी करीने समग्र गुणनी संपदावाळु लग्न होराने जाणनार गणक (जोशी) पण थोमा दिवसमा मेळवी शकतो नथी तेथी करीने सर्व शुल कार्यमां घणा गुणवाळु तथा अस्प दोषवाळु लग्न ग्रहण करवं” । "स्वट्पो नानर्थकृदोषो लग्ने बहुगुणे नवेत् । तोयबिन्दुरिव दिप्तः समिधे कृष्णवर्त्मनि ॥२॥" Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्ररं सिद्धि ॥ "सळगता श्रग्निमां नाखेला जळना विंदुनी जेम घणा गुणवाळा लग्नने विषे योको दोष नर्थ करनार थतो नथी. " ४०६ मूळ श्लोकमां शकुन जोवानुं कह्युं बे ते शकुन जांघिक - जासुद विगेरे बे. शकुननुं प्रधानपणुं व्यवहारप्रकाशमां आ प्रमाणे कां बे. - “नक्षत्रस्य मुहूर्त्तस्य तिथेश्च करणस्य च । चतुर्णामपि चैतेषां शकुनो दरकनायकः ॥ १ ॥” “नक्षत्र, मुहूर्त्त, तिथि अने करण, ए चारेनो दंकनायक शकुन बे.” वहीं शकुनना संबंधमां गर्नु फरकवुं, मननी प्रसन्नता ए विगेरे निमित्त प जावा. या शुभ शकुनादिके करीने लग्ननी शुद्धिनो निर्णय करी तेवा लग्नने ग्रहण करवाथी कार्य करनारनो जय थाय बे लल पण कहे वे के "पि सर्वगुणोपेतं न ग्राह्यं शकुनं विना । लग्नं यस्मान्निमित्तानां शकुनो दएकनायकः ॥ १ ॥ " "लग्न सर्व गुणोए करीने युक्त होय तोपण शकुन विना ते ग्रहण करवुं नहीं, कारण के सर्व निमित्तनो दंकनायक शकुन बे. " मूळ श्लोकमां "शशिनः प्रवाहे - " " चंद्र नामी वहेती होय त्यारे” एम कहुं बे. ते विषे अध्यात्म शास्त्रमां माबी ने जमणी नासिका अनुक्रमे चंद्र ने सूर्य नामनी बे, तेथी करीने " सार्धं घटी घयं नामिरेकै कार्कोदयावहेत् । घट्टघटीचान्तिन्यायान्नाड्योः पुनः पुनः ॥ १ ॥ शतानि तत्र जायन्ते निःश्वासोश्वासयोर्नव । खखषट्कुकरैः २१६०० सङ्ख्याऽहोरात्रे सकले पुनः ॥ २ ॥ षट्त्रिंशगुरुवर्णानां या वेला जाने भवेत् । सा वेला मरुतो नाड्या नाड्यां सञ्चरतो लगेत् ॥ ३ ॥ " " जेम घट्ट ( रेंट ) नी घमी अनुक्रमे एक पढी एक फर्या करे बे तेम श्र सूर्य नामीमांनी एक एक ( दरेक ) नामी सूर्योदयश्री आरंजीने अढी अढी घमी वहेती रहे बे. ( एटले सूर्योदयने आरंजीने अढी घमी सुधी चंद्र नामी वहे बे, पटनी ढी घमी सुधी सूर्य नामी वहे बे, पबीनी अढी घमी चंद्र नामी वहे बे विगेरे. ) ते दरेक नामीमां नवसो उवास निःश्वास थाय बे, तेथी करीने एक रात्रि दिवसमां थइने कुल २१६०० उल्लास निःश्वास थाय बे. बत्रीश गुरु अक्षरो बोलतां जेटलो वखत खागे बे तेटलो वखत एक नामीमांथी बीजी नामीमां संचार करता वायुने लागे बे. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ४.७ ( एटले के एक नामीमांधी बीजी नामीमां जतां वायुने तेटली वार लागे , अर्थात् तेटलो वखत बन्ने नासिकामां समान वायु रहे बे.)" तेमा वाम ( माबी ) नासिका पेसता वायुए करीने पूर्ण श्राय त्यारे सर्वे शुल कार्यनो आरंन करवो. कडं वे के "साने दानेऽध्ययने गुरुदेवान्यर्चने विषविनाशे । पुरमन्दिरप्रवेशे गमागमादौ शुला वामा ॥१॥" "लाजमां, दानमा, नणवामां, गुरु अने देवनी पूजामां, विष उतारवामां, नगर अने घरमा प्रवेश करती वखते तथा जवा श्राववामा वाम नामी शुन बे." तथा "पूजापव्यार्जनोघाहे उर्गाजिसरिदाक्रमे ।। गमागमे जीविते च गृहक्षेत्रादिसंग्रहे ॥१॥ क्रये विक्रयणे दृष्टौ सेवायां विद्विषो जये। विद्यापट्टानिषेकादौ शुजेऽर्थे च शुनः शशी ॥२॥" “पूजामां, अव्य उपार्जन करवामां, विवाहमां, तथा किहो, पर्वत अने नदीने उदवंघन करवामां, जवा आववामां, जीवितमां, घर क्षेत्र विगेरे लेवामां, क्रय विक्रयमां, दृष्टिमां, सेवामा ( नोकरी रहेवामां), शत्रुनो जय करवामां, विद्याना आरंजमां श्रने राज्याभिषेकमां ए विगेरे शुन्न कार्यमां चंड एटले चंड नामी ( वाम नामी ) शुन्न ." मूळ श्लोकमां “नूमिजलतत्त्वगतौ-" "पृथ्वी तत्त्व अने जळ तत्त्वनी गति होय त्यारे" एम कडं बे. ते विषे कह्यु के : "वायोर्वहेरपां पृथ्व्या व्योम्नस्तत्त्वं वहेत्क्रमात् ।। ____ वहन्त्योरुनयोर्नाड्योतिव्योऽयं क्रमः सदा ॥१॥" "वहन थर (चालती ) बन्ने नामीमां वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी अने श्राकाशनुं तत्त्व अनुक्रमे वहे बे-चाले . आवो क्रम निरंतर जाणवो.” ए पांचे तत्त्वोनो प्रवाह (गति-वहेवू ते ) आ प्रमाणे बे. "ऊर्ध्वं वह्निरधस्तोयं तिरश्चीनः समीरणः। पृथ्वी मध्यपुटे व्योम सर्वगं वहते पुनः ॥ १॥" "अग्नि तत्त्व उंचे वहे , जळ तत्त्व नीचे वहे , वायु तत्त्व तिरबुं वहे , पृथ्वी तत्त्व मध्य पुटमां वहे जे अने आकाश तत्त्व सर्वव्यापक श्रश्ने वहे ." तेनुं प्रमाण श्रारीते बे. "पृथ्व्याः पलानि पञ्चाश ५० च्चत्वारिंश ४० तथाम्नसः। अग्नस्त्रिंश ३० त्तथा वायोर्विंशति २० नैजसो दश १०॥१॥" Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ॥आरंसिधि॥ “पृथ्वी तत्त्वतुं प्रमाण पळ ५० बे, जळ तत्त्वर्नु ४० , अग्नि- ३०, वायुन २० श्रने आकाश तत्त्वनुं प्रमाण १० पळy बे." श्रा रीते एक एक नामीनुं प्रमाण १५० पळो थाय ने. या प्रमाणे वाम नामी वहेती होय त्यारे पण ज्यारे पृथ्वी तत्त्व के जळ तत्त्व होय त्यारे शुन्न कार्य करवू, परंतु अग्नि, वायु अने आकाश तत्त्वमां करवू नहीं. कर्वा बे के "तत्त्वान्यां नूजलाच्यां स्यान्चान्ते कार्ये फलोन्नतिः। दीप्तास्थिरादिके कृत्ये तेजोवाय्वम्वरैः शुनम् ॥१॥ पृथ्व्यप्तेजोमरुध्योमतत्त्वानां चिह्नमुच्यते । आद्ये स्थैर्य स्वचित्तस्य शैत्यकामदयौ परे ॥२॥ तृतीये कोपसंतापौ तुर्ये चञ्चलता पुनः। पञ्चमे शून्यतैव स्यादथवा धर्मवासना ॥३॥" "पृथ्वी अने जळ तत्त्ववमे शांत कार्य कर्यु होय तो फळनी उन्नति थाय ने. ( शांत कार्यमां था बे तत्त्व शुन बे.) दीप्त, अस्थिर विगेरे कार्य अग्नि, वायु अने आकाश नववके करवंशल . हवे पृथ्वी, जळ, तेज, वायु अने आकाश ए पांच तत्त्वोर्नु चिह्न कहे बे-पहेला पृथ्वी तत्त्वमां कार्य करवाथी पोताना चित्तनी स्थिरता थाय बे, बीजा जळ तत्त्वमां शीतळता अने कामदेवनो क्ष्य थाय ,त्रीजा तेज तत्त्वमा क्रोध अने संताप थाय ने, चोथा वायु तत्त्वमां मननी चंचळता थाय ने तथा पांचमा श्राकाश तत्त्वमां मननी शून्यताज थाय ने अथवा तो धर्मनी वासना थाय बे." तथा"श्रुत्योरङ्गुष्ठको मध्याङ्गब्यौ नासापुटधये । सृक्वणोः प्रान्त्यकोपान्त्याङ्गुली शेषे दृगन्तयोः॥१॥ न्यस्यान्तस्तु पृथिव्यादितत्त्वज्ञानं नवेत् क्रमात् । पीत १ श्वेता २ रुण ३ श्यामै ४ बिन्ऽन्निर्निरुपाधि खम् ॥२॥ पीतः कार्यस्य संसिद्धिं बिन्छः श्वेतः सुखं पुनः। जयं सन्ध्यारुणो ब्रूते हानि नृङ्गसमद्युतिः ॥३॥ जीवितव्ये जये लाने सस्योत्पत्तौ च कर्षणे । पुत्रार्थे युधप्रश्ने च गमनागमने तथा ॥४॥ पृथ्व्यप्तत्त्वे शुने स्यातां वह्निवातौ च नो शुनौ । अर्थसिद्धिः स्थिरो| तु शीघ्रमम्नसि निर्दिशेत् ॥ ५॥" "बे कानमां बे अंगुग, बे नासापुटमां बे मध्य (वचली) आंगळी, बे उष्ठ उपर Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ४०ए (हमपचीमां) टचसी तथा तेनी पासेनी ए बबे आंगळी तथा नेत्रना प्रांत लागमां शेष (अंगुठा पासेनी ) वेश्रांगळी राखीने अंतःकरणमां ध्यान करवाथी पृथ्व्यादिक तत्त्वोर्नु ज्ञान अनुक्रमे था प्रमाणे थाय बे.-पीत-पीळो-वर्ण नासे तो पृथ्वी तत्त्व, श्वेत लासे तो जळ तत्त्व, अरुण-रातोनासे तो तेज तत्त्व, श्याम नासे तो वायु तत्त्व अने बिंदु एटले कांइ पण न नासे तो उपाधि रहित आकाश तत्त्व जे एम जाणवू. पीत वर्ण कार्यनी सिधिने कहे , बिंदु तथा श्वेत वर्ण सुखने कहे , संध्या जेवो रातो वर्ण जयने कहे , जमरा सरखी कांतिवाळो श्याम वर्ण हानिने कहे . जीवितमां, जयमां, लालमां, धान्यनी उत्पत्तिमां, खेतीमां, पुत्रने अर्थे, युधना प्रश्नमां तथा जवा आववामां पृथ्वी अने जळ तत्त्व शुल, अग्नि अने वायु तत्त्व शुक्ल नथी. पृथ्वी तत्त्वमां कार्य करवाथी अर्थनी सिद्धि स्थिर थाय बे, अने जळ तत्त्वमा कार्य जलदी सिद्ध थाय ने, एम जाणवू. वळी"पोमशाङ्कलिका पृथ्वीर जलं तु बादशाङ्गलम् । तेजश्चाष्टाङ्गुलं ३ वायुश्चतुरङ्गलको मतः ॥१॥ नैकमप्यङ्गलं व्योम ५ वहतीति विनिर्णयः।" " पृथ्वी तत्त्व सोळ बांगळ वहे ने १, जळ तत्त्व बार श्रांगळ वहे जे २, तेज तत्त्व आठ आंगळ वहे ने ३, वायु तत्त्व चार आंगळ वहे । अने आकाश तत्त्व एक श्रांगळ पण वहेतुं नथी. ए प्रमाणे निर्णय करेलो ." एटले के ज्यारे नासिकानो वायु नासिकानी बहार वहतो बतो सोळ आंगळ सुधी आकाशने व्यापे ने त्यारे पृथ्वी तत्त्व बे एम सर्वत्र जाणवू. अथवा तो आ वाक्यनी बीजी रीते पण व्याख्या थर शके , ते आ प्रमाणे-दोष रहित लग्नने विषे पृथ्वी अने जळ तत्त्वनी गति होय त्यारे एवो संबंध करवो, एटले के शुद्ध लग्न होय तोपण ज्यारे पृथ्वी के जळ तत्त्व होय त्यारे शुन्न कार्य करवू, परंतु अग्नि, वायु के आकाश तत्त्वमां करवू नहीं. कडं बे के" पृथ्वी राज्यं १ जलं वित्तं २ वह्निर्हानिं ३ समीरणः। नगं गगनं दत्ते पञ्चतां ५ सर्वलग्नतः॥१॥" "सर्व कार्यना लग्नने विषे पृथ्वी तत्त्व लीधुं होय तो ते राज्यने श्रापे १, जळ तत्त्व धनने आपे बे २, अग्नि तत्त्व हानि करे ३, वायु तत्त्व जग उपजावे धने आकाश तत्त्व मरण आपे बे ५. श्रा तत्त्वोनी उत्पत्तिनो प्रकार था प्रमाणे बे.१ पीत वर्ण पृथ्वी तत्त्व छे, तेमां कार्य करवाथी ते कार्य सिद्ध थाय छे एम सर्वत्र जाणवू. आ० ५२ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ॥आरंसिद्धि॥ "त्रिंशांशं पञ्चधा हन्याद्दशा १० ष्ट पडू ६ युगा । श्वि २ निः। नू १ जला २ ग्य ३ नित ४ व्योम्नां ५ समते जायते मितिः॥१॥ व २ बध्य ४ ङ्ग ६ वसु ७ दशनि १० स्तत्रिंशांशकाहतिः । खा १ निला २ ग्नि ३ जले ४ लाना ५ मोजराशौ मितिः स्मृता ॥२॥" "सम राशिमां त्रिंशांशने पांच प्रकारे स्थापीने ते दरेकने अनुक्रमे १०-७-६-४- वझे गुणवाथी अनुक्रमे पृथ्वी, जळ, अग्नि, वायु अने आकाश तत्त्वनुं प्रमाण थाय के. तेज रीते विषम राशिमां त्रिंशांशने २-४-६-८-१० वझे गुणवाथी अनुक्रमे आकाश, वायु, अग्नि, जळ अने पृथ्वी तत्त्वनुं प्रमाण थाय एम कर्दा बे. श्रा बे श्लोकनो अर्थ था प्रकारे वे.-लग्नना पळोनो जे त्रीशमो नाग ते त्रिंशांश कहेवाय जे. जेमके मेष लग्नना पळो २२५ चे, तेनो त्रिंशांश पळ ७ अक्षर ३० श्रावे . श्रा त्रिंशांशने पांच वार स्थापन करी विषम राशि होवाश्री तेने २-४-६-७-१० वो गुणवाथी अनुक्रमे आकाश विगेरे तत्त्वोनुं मान आवे के अने सम राशि होय तो १०७-६-४-२ वमे गुणवाथी अनुक्रमे पृथ्वी विगेरे तत्त्वोनुं मान आवे . अथवा तो जे लग्नना जेटला पळो होय ते पळोने प्रथम १५ वझे नाग देवो. नागमा जे आवे तेने विषम राशि होय तो अनुक्रमे १-२-३-४-५ वमे गणवाथी आकाश विगेरे तत्त्वोनं मान आवे , अने सम राशि होय तो ५-४-३-२-१ वझे गुणवाथी अनुक्रमे पृथ्वी विगेरे तत्त्वोनुं मान श्रावे . एम करवाश्री जे थाय ते नीचे स्थापनावमे स्पष्ट करी बतावे .मेषमान पळ १२५ | वृषमान पळ २५६ त्रिंशांश पळ ७ अक्षर ३० त्रिंशांश पळ ८ अक्षर ३२ आकाश तत्त्व पळ १५ पृथ्वी तत्त्व घमी १ पळ २५ अदर २० वायु तत्त्व पळ ३० जळ तत्त्व घमी १-०-१६ अग्नि तत्त्व पळ ४५ तेज तत्त्व पळ ५१-१२ जळ तत्त्व घमी १ वायु तत्त्व पळ ३४-७ पृथ्वी तत्त्व घमी १ पळ १५ आकाश तत्त्व पळ १७-४ मिथुनमान पळ ३०५ कर्कमान पळ ३४१ त्रिंशांश पळ १० श्रदर १० त्रिंशांश पळ ११ अक्षर २२ श्रआकाश पळ २०-३० पृथ्वी घमी १-५३-४० वायु पळ ४०-४० जळ घमी १-३०-५६ तेज घमी १-१ तेज घमी १-०-१२ जळ घमी १-११-२० वायु पळ ४५-२० पृथ्वी घमी १-४१-४० आकाश पळ १२-१४ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ४११ सिंहमान पळ ३४५ कन्यामान पळ ३३१ त्रिंशांश पळ ११ अक्षर २४ त्रिंशांश पळ ११-२ याकाश पळ २२- पृथ्वी घमी १-५०-२० वायु पळ ४५-३६ जळ घमी १-३०-१६ तेज घमी १-०-२४ तेज घमी १-६-१२ जळ घमी १-३१-१२ वायु पळ ४४- पृथ्वी घमी १-२४ आकाश पळ २२-४ तुलामान पळ ३३१ वृश्चिकमान पळ ३४२ त्रिंशांश पळ ११-२ त्रिंशांश पळ ११-२४ आकाश पळ २२-४ पृथ्वी घमी १-५४ वायु पळ - जळ घमी १-३१-१२ तेज घमी १-६-१२ तेज घमी १-७-२४ जळ घमी १-२७-१६ वायु पळ ४५-३६ पृथ्वी घमी १-५०-२० आकाश पळ २३- धनमान पळ ३४१ मकरमान पळ ३०५ त्रिंशांश पळ ११-२२ त्रिंशांश पळ १०-१० थाकाश पळ १२-१४ पृथ्वी घमी १-४१-४० वायु पळ ४५-१७ जळ घमी १-११-२० तेज घमी १-०-१२ तेज घमी १-१ जळ घमी १-३०-५६ वायु पळ ४०-४० पृथ्वी घमी १-५३-४० आकाश पळ २०-२० कुंजमान पळ २५६ मीनमान पळ १२५ त्रिंशांश पळ ७-३२ त्रिंशांश पळ ७-३० आकाश पळ १५-६ पृथ्वी घमी १-१५ वायु पळ ३४-0 जळ घमी १ तेज पळ ५१-१२ तेज पळ ४५ जळ घमी १--१६ वायु पळ ३० पृथ्वी घमी १-२५-२० आकाश पळ १५ श्रा रीते दरेक लग्नमां पांच पांच तत्त्वो अनुक्रमे तथा उत्क्रमे होय जे. विशेष ए ने जेपृथ्वी अने जळ तत्त्वना पळो पण जो वर्गवमे शुद्ध के पांच वर्गवमे शुद्ध होय तो ते अत्यंत शुक्ल ने. ते आ प्रमाणे-मेष लग्नमां सातमा तुला अंशना पहेला १० पळोमां बननी अशुद्धि होवाथी पांच वर्गनी शुद्धि के अने पृथ्वी तत्त्व , तथा मेष लग्नमां नवमा धन अंशना बेला १० पळोमां पांच वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व बे. १. वृष Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ॥ श्रारंसिधि॥ लग्नमां त्रीजा मीन अंशना पहेला ७ पळोमां ब वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व , तथा वृष लग्नमां पांचमा वृष अंशना पहेला १४ पळोमां ब वर्गनी शुद्धि अने जळ तत्त्व .. २. मिथुन लग्नमां बन मीन अंशना पहेला - पळोमां व वर्गनी शुद्धि अने जळ तत्त्व जे, अने पांच वर्गनी शुद्धि तो वादशांशनी अशुद्धि होवाथी आखा नवांशकमां ने. ३. कर्क लग्नमां पहेला कर्क अंशना पहेला २७ पळोमांब वर्गनी शुछि अने पृथ्वी तत्त्व , तथा कर्क लग्नमां त्रीजा संपूर्ण कन्या अंशमा उ वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व . ४. सिंह लग्नमां बजा कन्या अंशमां दश पळ पठी २० पळोमां लग्ननी अशुद्धि होवाथी पांच वर्गनी शुद्धि अने जळ तत्त्व बे. ५. कन्या लग्नमां त्रीजा मीन अंशमां नव पळ पजीनी २७ पळोमांउ वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व . ६. तुला लग्नमां आठमा वृष अंशमां पहेला १० पळोमां 3 वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व बे, तथा तुला लग्नमां नवमा मिथुन अंशमां बेला २७ पळोमांउ वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व बे. ७. वृश्चिक बग्नमां चोथा तुला अंशमां पहेला २७ पळोमां लग्ननी अशुद्धि होवाथी पांच वर्गनी शुद्धि अने जळ तत्व बे. . धन लग्नमां बना संपूर्ण कन्या अंशमा जेष्काणनी अशुद्धि होवाथी पांच वर्गनी शुद्धि अने जळ तत्त्व, तथा धन लग्नमां सातमा तुला अंशमां बेला ए पळोमां घादशांशनी अशुद्धि होवाथी पांच वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व , तथा धन लग्नमां नवमा धन अंशमां पहेला ए पळोमां द्वादशांशनी अशुद्धि होवाश्री पांच वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व के. ए. मकर लग्नमां पांचमा वृष अंशमा पहेला १६ पळोमां लग्ननी अशुद्धि होवाथी पांच वर्गनी शुद्धि अने जळ तत्त्व वे. १०. कुंज लग्नमां बच वृष अंशमां बेला २० पळोमां लग्ननी अशुद्धि होवाथी पांच वर्गनी शुद्धि अने जळ तत्त्व बे, तथा कुंज लग्नमा यातमा वृष अंशन बेला १४ पळो अने नवमा मिथुन अंशना पहेला ७ पळो कुल २१ पळोमां लग्ननी अशद्धि होवाथी पांच वर्गनी शुद्धि श्रने पृथ्वी तत्त्व . ११. मीन लग्नमां पहेला कर्क अंशमां पहेला १० पळोमां 3 वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व , तथा मीन लग्नमां त्रीजा २५ पळवाळा संपूर्ण कन्या अंशमां ब वर्गनी शुद्धि अने पृथ्वी तत्त्व जे. १२. मूळ श्लोकमां “कृतानि"-"करेलां कार्यो" एम लख्युं . ते विषे वृयो कहे ले केदीक्षा, प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, पदवी आरोपण विगेरे कार्योने मध्ये जे कोश्कार्यमांजे नक्षत्र, जे वार श्रने जे तिथिनो अधिकार को होय ते सर्व सारी रीते शुद्ध जोड्ने रवियोग अने सिद्धि योगादिक सहित प्रथम दिनशुद्धि अने पळी लग्नशुद्धि अने त्यारपजी नवांशशुद्धि जोवी. सर्वथा प्रकारे शुद्ध लग्न न मळी शके अने कार्य अवश्य करवान होय तो शुल दिनशुधिमां, गया लग्नमां, ध्रुव लग्नमां, विजय मुहूर्त्तमां के शुक्ल चोघमीयामां कार्य करवू ए समग्र ग्रंथर्नु रहस्य . Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रशस्तिः ॥ ४१३ . मूळ श्लोकमां "प्रथयन्ति" खख्यु ने, एटले के या प्रमाणे करेलां कार्यो सर्व प्रकारना उदयने विस्तारे बे. इति श्रीमति श्रारंसिद्धिवार्तिके विलग्न १ मिश्र २ वारपरीक्षात्मकः __ पञ्चमो विमर्शः संपूर्णः॥५॥ श्रा रीते श्री आरंसिधिना वार्तिक-टीकामां विलग्न १ अने मिश्र २ वारनी परीक्षावाळो पांचमो विमर्श संपूर्ण थयो. "श्रीसूरीश्वरसोमसुन्दरगुरोनिःशेषशिष्याग्रणीगन्धः प्रनुरत्नशेखरगुरुर्देदीप्यते सांप्रतम् ।. तविष्याश्रवहेमहंसरचितस्यारंसिझेः सुधी शृङ्गारानिधवार्तिकस्य वुधनाः ५ सङ्ख्यो विमर्शोऽनवत् ॥ १॥" "हालमा सूरीश्वर श्री सोमसुंदर गुरुना सर्व शिष्योमा मुख्य अने गबना स्वामी प्रनु -पूज्यरत्नशेखर गुरु अत्यंत देदीप्यमान वर्ते . तेमना आज्ञाधीन शिष्य श्री हेमहंसे रचेला श्रा श्रारंसिधिना सुधीभंगार नामना वार्तिकनो पांचमो विमर्श संपूर्ण थयो. __ “विमर्शः पञ्चतिः प्रेष्ठविषयैरिव संवृतम् । न कस्याहाददायीदं सुधीशृङ्गारवार्तिकम् ॥२॥" __ "उत्तम पांच विषयोनी जेम पांच विमर्शोए करीने संवरेलुं आ सुधीभंगार नामर्नु वार्तिक कोने श्राहाद थापनार न होय ? अर्थात् सर्वने हर्ष उत्पन्न करनारं." "बहुज्योतिःशास्त्रात्मकमणिसुवर्णापणगणात् , मया सारं सारं द्युतिमयमुपादाय किमपि । सुधीशृङ्गारोऽयं व्यरचि रुचिरः सैष सुधियां, करे कण्ठे कर्णे हदि च सुषमां पसवयतु ॥३॥" "घणां ज्योतिःशास्त्ररूप मणि अने सुवर्णनी जुकानोना समूहथकी कांइक कांतिमय सार सार वस्तु लश्ने था मनोहर सुधीभंगार (विधानोनो अलंकार ) रच्यो बे, तेथी ते श्रा विधानोना हाश्रमां, कंठमां, कानमां अने हृदयमां सुख उत्पन्न करो." ॥अथ प्रशस्तिः ॥ "श्रीमञ्चन्त्रकुले पुराऽजनि जगच्चन्यो गुरुय॑स्तपाचार्यख्यातिमवाप तीव्रतपसा तस्यान्वयेऽजायत । प्रौढः श्रीवरदेवसुन्दरगुरुस्तत्पट्टपूर्वागिरेः, शृङ्गे श्रीमनुसोमसुन्दरगुरु नुर्नवीनोऽनवत् ॥४॥" Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्ररं सिद्धि ॥ "पहेलां श्रीमान् चंद्र कुळने विषे श्री जगच्चंद्र नामना गुरु ( आचार्य ) उत्पन्न या हता के जे तीव्र तपवने तपाचार्यनी ख्याति पाम्या हता. तेमना वंशमां मोटा प्रजाववाळा श्री वरदेवसुंदर नामना गुरु ( श्राचार्य ) थया, अने तेनी पाटरूपी उदयाचळ पर्वतना शिखर उपर श्री सोमसुंदर नामना गुरु नवीन सूर्यरूप थया," कारण के"जानोर्जानुशतानि षोमश वसन्त्येकत्र मास्याश्विने, तु ततोsधा यपि महीमुद्योतयन्ते सदा 1 तस्याहं चरणावुपासिषि चिरं श्रीमत्तपागनुपकोणी विश्रुतसोमसुन्दरगुरोश्चारित्रि चूकामणेः ॥ ए ॥” ४१४ " सूर्य मात्र एक आश्विन मासमांज सोळसो किरणो विलास पामे बे, परंतु जेमना तेथी पण वधारे शिष्यो निरंतर पृथ्वीने उद्योत करे बे ते साधु मां चूकामणि समान, श्री तपा गहना नायक ने पृथ्वी पर प्रख्यात थयेला श्री सोमसुंदर गुरुना वे चरणोनी में चिरकाळ सेवा करी बे." " मारिर्येन निवारिताऽसुरकृता संसूत्र्य शान्तिस्तवं, सूरिः श्रीमुनिसुन्दराजिधगुरुदीक्षागुरुः सैष मे । यस्य श्यामसरस्वतीतिबिरुदं विख्यातमुवींतले, गुर्वी श्रीजयचन्द्रसूरिगुरुरप्याधात्प्रसत्तिं स मे ॥ ६॥" "जेमणे असुरे उत्पन्न करेली मरकी शांतिस्तव रचीने निवारी, तेर्ज या श्री मुनिसुंदर सूरि नामना गुरु मारा दीक्षागुरु बे, तथा जेमनुं श्याम - काळी सरस्वती नामनुं बिरुद पृथ्वी पर प्रसिद्ध बे ते श्री जयचंद्र सूरि नामना गुरुए पए मारा पर मोटी प्रसन्नता धारण करी बे." "साम्प्रतं तु जयन्ति श्री - रत्नशेखरसूरयः । नानाग्रन्थकृतस्तेऽपि पूर्वाचार्यानुकारिणः ॥ ७॥” "हम तो पूर्वना श्राचार्योनी सदृश तथा विविध ग्रंथोने रचनारा ते प्रसिद्ध श्री रत्नशेखर नामना सूरि जयवंता वर्ते बे.” “एतानाचार्यहर्यक्षान्, प्रत्यक्षानिव गौतमान् । वीतमायं स्तुवे स्फीत-श्रीतपागवनायकान् ॥८॥ " जाणे प्रत्यक्ष गौतमस्वामीज होय एवा ने आचार्योने मध्ये सिंह समान श्रा वृद्धि पामेला श्री तपा गहना नायकोनी हुं निष्कपटपणे स्तुति करूं बुं." Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रशस्तिः ॥ ४१५ वळी."एकोऽप्यनेक शिष्याणां, यश्चित्ताजान्यबोधयत् । तं श्रीचारित्ररत्नं नो ! ननोरत्नसमं स्तुमः॥ ए॥" "जेणे एकलाएज अनेक शिष्योनां चित्तरूपी कमळो विकसित कर्या ने ते सूर्य समान श्री चारित्ररत्नने अमे स्तवीए बीए." “चिन्मयानां मयाऽमीषामृषीणां सुप्रसादतः। हेमहंसानिधानेन वाचनाचार्यतायुजा ॥ १० ॥ श्रीमविक्रमवत्सरे मनुतियौ १५१४ शुक्लपितीयातियो, नक्षत्रे गुरुदैवते गुरुदिने मासे शुचौ सुन्दरे । आशापल्सिपुरे पुरः प्रतिनिधेः श्रीमद्युगादिप्रनो ग्रन्थः सैष समर्थितः प्रथयतादाद्यं पुमर्थ सताम् ॥ ११॥" "ज्ञानवाळा या ऋषि (मुनि)नी अत्यंत कृपाथी हेमहंस नामना में वाचनाचार्य श्रीमविक्रम संवत् १५१४ ना सुंदर एवा अषाम मासमां शुक्ल पक्ष्नी बीज ने गुरुवारे पुष्य नक्षत्रमा आशापति नामना नगरमां श्रीयुगादि प्रनुनी प्रतिमानी पासे श्रा ग्रंथ रच्यो बे, ते सत्पुरुषोना पहेला पुरुषार्थ-धर्मनो विस्तार करो." __ "इति श्रीतपागलपुरन्दरश्रीसोमसुन्दरसूरिश्रीमुनिसुन्दरसूरिश्रीजयचन्द्रसूरिप्रमुखश्रीगुरुसाम्प्रतविजयमानश्रीगठनायकश्रीरत्नशेखरसूरिचरणकमलसेविना महोपाध्यायश्रीचारित्ररत्नगणिप्रसादप्राप्त विद्यालवेन वाचनाचार्यश्रीहेमहंसगणिना स्वपरोपकाराय संवत् १५१५ वर्षे थाषाढशुक्लन्तिीयायां निर्मितमिदं सुधीशृङ्गाराख्यं श्रीथारंसिद्धिवार्तिकं सर्वश्रा सावधवचनविरतैः सुविहिताचार्यवर्यैर्वाच्यमानं चिरं नन्दतात् ॥" श्रा प्रमाणे श्री तपा गबना इंश श्री सोमसुंदर सूरि, श्री मुनिसुंदर सूरि, श्री जयचं सूरि विगेरे श्री गुरु महाराजाले अने हालमा विजय पामता श्री गबनायक श्री रत्नशेखर सूरिना चरणकमळने सेवता अने महोपाध्याय श्री चारित्ररत्न गणिना प्रसादथी जेने विद्यानो लेश प्राप्त थयो ने एवा वाचानाचार्य श्री हेमहंसगणिए स्व-परना उपकार माटे संवत् १५१४ आषाढ सुदि बीजने दिवसे रचेलुं आ सुधीभंगार नामर्नु श्रारंजसिदिनुं वार्तिक सर्वथा प्रकारे सावध वचनथी विरति पामेला श्रेष्ठ सुविहिताचार्योए वंचातुं चिर काळ आनंद पामो. हवे ग्रंथकार पोताना अलिप्रायने प्रगट करे . "विद्यारम्लतपःक्रियाप्रतिकप्रारम्नवर्ज समेऽप्यारम्ना अशुजाः शुलाश्च नियतं सावद्यतादूषिताः। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ॥आरंसिद्धि॥ सर्वारम्नविधेश्च सिधिकरणादारम्नसिद्ध्याहयो, ग्रन्योऽयं तत एव चाप्रकटनायोग्यो विशूकात्मसु ॥१॥" "विद्यारल अने तपस्यानी क्रिया विगेरे आरंजोने वर्जीने बीजा सर्वे शुल अने अशुल आरंलो अवश्य पापव्यापारवमे दोष पामेलाज , तेथी करीनेज सर्वे श्रारंलोनी सिद्धि करवाश्री वा आरंसिद्धि नामनो ग्रंथ निर्दय हृदयवाळा मनुष्यो पासे प्रगट करवो योग्य नथी." "येन श्रीप्रन्नुसोमसुन्दरगुरोः काले कलौ जङ्गमश्रीमतीर्थकरस्य चारु सुचिरं सेवा कृता तस्य मे । एतज्योतिषवार्तिकप्रणयनं नो युज्यते सर्वथा, ग्रन्थोऽयं तदपीह येन विधिना जातस्तदाकय॑ताम् ॥२॥" "श्रा कलि काळने विषे जंगम तीर्थकररूप पूज्य श्री सोमसुंदर गुरुनी जेणे सारी रीते चिर काळ सुधी सेवा करी बे एवा मारे आ ज्योतिष शास्त्रना वार्तिकनी रचना करवी ए सर्वथा प्रकारे योग्य नथी, तोपण आ ग्रंथ जे विधिए करीने उत्पन्न थयो ने ते सांजळो." "केचित्केचिदपि क्वचित्क्वचिदपि ग्रन्थे विशेषा मया, दृष्टा ज्योतिषगोचराः किल समुच्चेतुं च ते चिन्तिताः। प्रक्रान्तश्च समुच्चयो रचयितुं संवर्धमानः पुनः, सोऽथैरेव शनैः शनैः समनवदन्थानुरूपाकृतिः॥३॥" "ज्योतिष संबंधी केटलाक विशेषो कोश्क ग्रंथमां तथा केटलाक विशेषो बीजा कोइक ग्रंथमां में जोया, अने ते विशेषोने एकत्र करवानो में विचार कर्यो, भने पनी समूहरूप करवाने आरंन कर्यो, त्यारे ते अर्थवमे वृद्धि पामीने धीमे धीमे एक ग्रंथने श्राकारे थर गयो.” "प्राप्तः सोऽयमचिन्तितामपि यदा ग्रन्थस्य रीतिं तदा, चित्तेऽचिन्ति मया धिया निपुणया सम्यग्विचार्यायतिम् । निःशूकैर्यतिनिस्तथा गृहिलिरप्यादास्यतेऽसौ यदा, सावधप्रथितेर्बताधिकरणं संपत्स्यतेऽलं तदा ॥४॥" .. "ज्यारे श्रा ग्रंथ नहीं चिंतवेली ग्रंथनी पद्धति (आकार )ने पाम्यो त्यारे में चित्तमां निपुण बुद्धिथी सारी रीते परिणाम ( उत्तरकाळ )नो विचार कर्यो के निःशूक एवा मुनिए तथा गृहस्थीउए ज्यारे था ग्रंथ ग्रहण कराशे त्यारे था ग्रंथ सावद्यना विस्तार (समूह)ना अधिकरणने अत्यंत पामशे ए खेदकारक . Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥पञ्चमो विमर्शः॥ ४१७ " तेनैतस्य जलावमऊन विधिम्रन्थस्य निर्माप्यते, . नोत्सर्पत्यधिकाधिकाधिकरणस्फातिर्यथाऽस्मादिति । तत्कर्तुं तु न शक्यते स्म विविधग्रन्योवृत्त्या हृता, गोऽत्र स्थितिमावहन्तु कश्रमप्येते विशेषा इति ॥ ५॥" " तेथी करीने या ग्रंथनो जळने विपे मऊन विधि कर के जेथी करीने या ग्रंथ थकी अधिकाधिक अधिकरणनी वृद्धि न थाय, परंतु तेम करवू पण शक्य नश्री, कारण के या विषयो विविध ग्रंथोमांधी जंग वृत्तिए करीने एकत्र करेला, तेथी आ विशेषो कोइ पण प्रकारे श्रा गनमांज स्थितिने करो." . " एतस्मादजिसन्धितः परिहताम्लोमऊनः सजनाः, सोऽयं ग्रन्थ उपागमत्करतले युष्माकमायुष्मताम् । सत्याप्योऽथ तथा कथञ्चन यथाऽऽरम्नप्रथाकारणं, धाणामपि कर्मणां प्रणयने जात्वेष नो जायते ॥ ६॥" " हे सऊनो! या अभिप्रायथी त्याग कर्यु ने जळने विषे मजन जेनुं एवो या ग्रंथ तमारा आयुष्यवंतना हाथमां प्राप्त भयो बे, तेथी को पण रीते तथा प्रकारे या ग्रंथ सफळ करवो के जेथी कोइ पण वखत या ग्रंथ धर्म संबंधी कार्यों करवामां पण श्रारंजना विस्तारनुं कारण न थाय. " खगः खएमनहेतवे खलजनस्यादीयते धीयते, मो सम्यग्यदि सोऽपि सौवधनिकोछेदाय तजायते । वेतालोऽपि विधेयतामपि गतो यत्रापि तत्रापि चेत् , संयोज्येत यथा तथा ननु तदा स्वं साधकं बाधते ॥ ७॥ एवं ज्योतिषशास्त्रमेतदखिलं सावद्यसकात्मनां, चैत्यादेरपि चेन्मुहूर्त्तकथने व्यापार्यते साधुनिः । तत्तेषामनवद्यनाषणमयं याति व्रतं सर्वथा, . लिप्यन्तेऽपि च पातकेन महता ते शास्त्रका समम् ॥ ७॥" "खळ पुरुषोना नाशने माटे खड्ग ग्रहण करवामां आवे . तेने जो सारी रीते धारण न कर्यु होय तो ते पण पोताना स्वामी (धारण करनार )नाज नाशने माटे थाय . वळी वश श्रयेलो पण वेताळ जो ज्यां त्यां (जे ते कार्यमां) जेम तेम जोमवामां आवे तो ते पोताना साधकनेज वाध (पीमा) करे बे. तेज रीते आ समग्र ज्योतिष शास्त्र जो सावध व्यापारमा सङ श्रयेला गृहस्थीउने चैत्यादिकनां मुहूर्त आ. ५३ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ ॥ आरंनसिधि॥ कहेवामां पण साधुए व्यापार कराय तो तेनुं सत्य नाषणमय बीजुं व्रत सर्वथा। प्रकारे नाश पामे , अने ते शास्त्रकार सहित मोटा पापवझे पण लींपाय ." " नन्वेवं यदि जैनचैत्यरचनाश्रीतीर्थयात्रादिनः, पुण्यस्यापि मुहूर्त्तमात्रमृषिनिनों देयमित्युच्यते । तत्पुण्योपचयः कथं नु नविता गार्हस्थ्यनाजां नृणां, नानाग्रामनिवासिनामय यतेः स्यात्पुण्यलानः कथम् ॥ ए॥" " अहीं कोई शंका करे के-जो जिनेश्वरनु चैत्य वनावq, तीर्थयात्रा करवी विगेरे पुण्य कार्यन मुहूर्त मात्र पण साधुर्जए न देवं एम तमोए कहेवाय बे, तो निन्न भिन्न गामोमां वसनार गृहस्थाश्रमी माणसोने पुण्यनी वृद्धि शी रीते थशे ? अने साधुने पण पुण्यनो लाल शी रीते थाय ?" उत्तर. " पुण्यं स्यादनुमोदनैव यतिनां चैत्यादिनिर्मापणे, मौहूर्ताः पुनरर्पयन्ति गृहिणामुघाहनादाविव । चैत्याद्येऽपि मुहूर्त्तमद्भुततरं संवादमेषां पुन ज्योतिझ यतयो दिशन्त्यखिलमप्येवं सुयुक्तं भवेत् ॥ १०॥" “ चैत्यादिक कराववामा यतिनने अनुमोदनावमेज पुण्य थाय ने, परंतु गृहस्थीजने विवाहादिकनी जेम चैत्यादिकने विष पण अत्यंत अद्लुत (शुल) मुहूर्त तो जोशीज आपे , किंतु ए जोशीउना समग्र संवादने ज्योतिष जाणनारा यति बतावी शके . आ रीते करवाथी सर्व युक्तियुक्त याय बे." " एवं सत्यपि कर्मगौरववशाद्यः पातकालीलुकः, शास्त्रस्यास्य बलेन वदयति जने मूढो मुहूर्तादिकम् । तस्यैवैतदघं पतिष्यति शिरस्यारम्नसंजारजं, नैतद्न्थविधायिनस्तु मम तत्संवन्धलेशोऽपि हि ॥ ११॥" " आम उतां पण नारे कर्मना वशथी पापना जय रहित जे कोश् मूढ ( यति ) श्रा शास्त्रना बळे करीने लोकमां मुहूर्तादिकने कहेशे तो आरंजना समूहथी उत्पन्न अतुं श्रा पाप तेनाज मस्तक पर पमशे, परंतु आ ग्रंथने करनारा मने ते पापना अथवा श्रारंजना संबंधनो लेश पण नथी.” " तस्मात्तत्त्वमिदं वदामि तदिदं शास्त्रं रहो नएयतां, शिष्याणामपि नाण्यतामवगतास्ते चेदघानीरवः । पर्यायान् परिवर्धयन्तु च बुधाः सर्वेऽपि वोधस्य ते, यस्मात्केवलमेतदेव हि फलं मेऽनीष्टमेतत्कृतेः ॥ १२॥" Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ४१ए " तेथी हुँ श्रा रहस्यने कई नु के-शास्त्र एकांतमा वांचो-जणो, तथा पोताना शिष्योने पण जो तेमने पापथी जीरु जाण्या होय तो सुखेथी नणावो, अने ते सर्वे पंमितो ज्ञानना पर्यायोने वृद्धि पमामो, कारण के था कृतिनुं मात्र एज फळ मने इष्ट ." तेथी करीने “ज्ञानांशोपचयैकपेशलफलप्रस्फुर्तये वार्तिक, कुवोणेन मया शुनाशयवशाद्यत्पुण्यकर्मार्जितम् । दिष्टया तेन नवे नवे नवतु मे सज्ज्ञानलानोदयो, यस्मादद्भुतधाम शाश्वतचिदानन्दं पदं प्राप्यते ॥ १३॥" ज्ञानना पर्यायोनी वृधिरूप एक सुंदर फळनी स्फुर्तिने माटेज आ वार्तिकने रचतां में शुन परिणामना वशथी जे कां पुण्य कर्म उपार्जन कर्यु होय ते पुण्यवझे मने जव जवने विषे सत् ज्ञानना लाजनो उदय अजो, के जे ज्ञानथी अनुत धामवाळु शाश्वतुं चिदानंद (मोक्ष) पद मने प्राप्त थाय." श्रा प्रमाणे ग्रंथकारना पोताना अभिप्रायने सूचवनारां आ काव्यो (श्लोको) वांचीने तत्त्वज्ञानीए उपदेश करेला मार्गना अनुष्ठान माटे यत्न करवो. इति शम्. ॥इति प्रशस्तिः॥ ॥ इति आरंजसिद्धिः सटीका समाप्ता ॥ CAP ARTAINM Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ इति आरंसिद्धिः सटीका समाप्ता॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री हरिजप्राचार्यकृता ॥ | लग्नशुद्धिः । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री हरिजप्राचार्यकृता ॥ | लग्नशुद्धिः । वितसवाएसं नमिनं चोवीसमं जिणवरेसं । छामि समासेणं लग्गं सुगुरूवएसेणं ॥ १ ॥ जेनो सर्व आदेश सत्य बे एवा श्री चोवीशमा जिनेश्वरने नमीने सद्गुरुना उपदेशथी संक्षेपमां लग्ननी शुद्धि कहुं बुं. १. करूं कुणंतयाणं सुदावहो जोइसम्मि जो नपि । काल विसेसो लग्गं क पुण बहुविहं जइ वि ॥ २ ॥ तह विहु इह लोगुत्तर दिएको वहावणापहा । हिगिच्च लग्गसुधिं जणितमाणं निसामेह ॥ ३ ॥ कार्य करनारने माटे ज्योतिष शास्त्रमां जे काळविशेष सुखकारक कहेलो बे ते लग्न वा. जो कार्य घणां प्रकारनां बे, तोपण अहीं दीक्षा, उपस्थापना अने प्रतिष्ठा एत्रण लोकोत्तर कार्यने श्रीने हुं लग्ननी शुद्धि कहुं हुं ते तमे सांजळो ॥२- ३. सा पुण इह विनेया गोयरसुद्धीइ दिवससुद्धीए । तस्समयउदयपत्तस्स तह वि लग्गस्स सुद्धीए ॥ ४ ॥ ४२३ अने ते लग्नशुद्ध अहीं गोचरनी शुद्धिथी तथा दिवसनी शुद्धिश्री जाणवी, तथा ते समयमां उदय पामेला लग्ननी शुद्धिथी पण लग्नशुद्धि थाय बे. (अर्थात् गोचरशुद्धि, विशुद्ध शुद्धि ए त्रण द्वार बे ) ४. इति घारम् गुरु सिर वो बो दिरकोवद्वावणासु सीसस्स । जइ तो गोवरसुद्धी गुरुणो विदु ससिबले संते ॥ ५ ॥ जो दीक्षा तथा उपस्थापनामां शिष्यने गुरु, चंद्र ने रवि वळवान् होय ने आचार्यने पण चंद्र बळवान् होय तो गोचरशुद्धि जावी. ए. पाइ पुणो कारावयसावयस्स बलिएसु । गुरुससिसूरेसु जवे गोयरसुद्धि त्ति बिंति बुहा ॥ ६ ॥ प्रतिष्ठामां प्रतिष्ठा करावनार श्रावकने गुरु, चंद्र ने रवि वळवान् होय तो गोचरशुद्धि थाय एम पंकितो कहे बे. ६. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लग्नशुद्धिः ॥ दो २ पंच ५ सत्त ७ नवमि एक्कारसमो ११ जम्मरासिलो जीवो । पढम १ त ३ ब ६ सत्त ७ दसमे १० कारसमो ११ ससहरो बलवं ॥ ॥ जन्मनी राशिथी गुरु बीजे, पांचमे, सातमे, नवमे छाने गीयारमे होय तो ते बळवान् जाणवो, चंद्र बन्ने पक्षमां पहेले, त्रीजे, बड़े, सातमे, दशमे ने गीयार मे होय तो ते बळवान् जावो. ७. दो पंच नवमगोविदु सियपरकेसो रवी उति व दसमो । इक्कारसमो वली सेसठाणेसु ते अबला ॥ ८ ॥ ravi जन्मराशिथी चंद्र वीजे, पांचमे अने नवमे होय तो बळवान् बे, जन्मराशिथी सूर्य त्रीजे, बछे, दशमे अने अगीयारमे होय तो वळवान् बे अने वाकीनां स्थानोमां होय तो ते निर्वळ बे. प. सियपरके चंदवलं सिए ताराबलं पि गहियवं । तं पुणति ३ पंच सत्तम 9 तारा मुत्तु सेसा न ॥ ए ॥ शुक्लपक्षमां चंद्रनुं बळ लेवुं, अने कृष्णपक्ष्मां तारानुं वळ पण ग्रहण कर. तेमां पण त्रीजी, पांचमी ने सातमी ताराने मूकीने वाकीनी ताराने लेवी. ए. पढमा जम्मणि रिरके तत्तो दसमम्मि इगुणवीसे । ४२४ बीया तप्परसुं तिसु एवं जाव नव तारा ॥ १० ॥ पहेली तारा जन्मनक्षत्रमां मूकवी, एटले के जन्मनुं नक्षत्र ए पहेली तारा गणवी. तेन नीचे दशमी तारा मूकवी ने तेनी नीचे जंगलीशमी तारा मूकवी. पठी पहेली तारानी पछी बीजी, त्रीजी एम अनुक्रमे नव सुधी मूकवी, दशमीनी पत्नी गीयार, बार म ढार सुधी मूकवी ने जंगणशमीनी पासे वीश, एकवीश एम सत्यावीश सुधी मूकवी. एत्रो लाइननी त्रीजी त्रीजी, पांचमी पांचमी ने सातमी सातमी तारान अशुभ होवाथी शुभ कार्यमां लेवी नहीं. १०. जम्मं १ संपइ २ विप्पइ ३ खेमा ४ पच्चरय ५ साहणा ६ निहणा ७ । मित्ता इमित्ता एवा तारा नेया असि परके ॥ ११ ॥ ते कृष्णपक्ष्मां तारार्जुनां नाम अनुक्रमे या प्रमाणे जाएवां. - जन्म १, संपद् २, विपद् ३, मा ४, प्रत्ययरा ( यमा ) ५, साधना ६, निधना ७, मित्राने तिमित्रा ए. एज प्रमाणे दशमी ताराथी ने उगणीशमी ताराथी पण अनुक्रमे श्रा नामोज जाएवां. ११. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लग्नशुधिः ॥ रवि, बुध, बृहस्पति (गुरु ) अने शनि एटला वार व्रतग्रहणमा ( दीक्षामां ) शुन तथा बिंबप्रतिष्ठामां बृहस्पति, सोम, बुध अने शुक्रवार शुक्ल ने. १६. इति वाराः। मुत्तुं चदसि पनरसि नवमहमि बहिबारसि चउत्थी। सेसा उ वयग्गहणे गुणावहा उसु वि पकेसु ॥ १७ ॥ बन्ने पक्षनी चौदश, पूर्णिमा अने अमावास्या, नोम, श्राउम, उस, बारश अने चोण टली तिथि वर्जीने बीजी तिथि व्रतग्रहणमा शुन्न . १७. सियपके पमिवय बीथ पंचमी दस मि तेरसी पुन्ना । कसिणे पमिवय बीया पंचमि सुहया पश्चाए ॥ १७ ॥ पांतष्ठामां शुक्लपक्षनी एकम, बीज, पांचम, दशम, तेरश अने पूनम तथा कृष्णपक्षनी एकम, बीज अने पांचम एटली तिथि शुक्ल ने. १७. सवे वि वारतिहि सुहया सइ सिकिजोगसनावे । चंदमि उवचयंमि न जण नहम्मि जीमे वा ॥ १७ ॥ सर्वे वारो अने तिथि सिद्धियोग होय तो शुन्न ने, परंतु चंड नपचय होय श्रने नष्ट के हीण न होय तो. १ए. सियपभिवयाउ दस दिण चंदो मनिमबलो मुणेयवो। तत्तो अ उत्तमबलो अप्पबलो तश्य दसमम्मि ॥२०॥ शुक्लपक्षनी एकमथी दश दिवस सुधी चंग मध्यम बळवाळो जाणवो, त्यारपजीना दश दिवस उत्तम बळवाळो जाणवो अने त्रीजा दश दिवस सुधी अटप बळवाळो जाणवो. २०. इति तिथयः। उत्तर रोहिणि हत्थाणुराह सयनिसय पुवनदवया । पुस्स पुणवसु रेव मूलस्सिणि सवण सा वए ॥१॥ त्रणे उत्तरा, रोहिणी, हस्त, अनुराधा, शतभिषक्, पूर्वानाप्रपद, पुष्य, पुनर्वसु, रेवती मूळ, अश्विनी, श्रवण अने स्वाति, आटलां नवत्रो व्रतग्रहणमा (दीदामां) शुल बे. २१. मह मियसिर हत्थुत्तर अणुराहा रेवई सवण मूलं। पुस्स पुणवसु रोहिणि साइ धणिहा पश्चाए ॥२२॥ मघा, मृगशिर, हस्त, त्रणे उत्तरा, अनुराधा, रेवती, श्रवण, मूळ, पुष्य, पुनर्वसु, रोहिणी, स्वाति अने धनिष्ठा, एटलां नक्षत्रो प्रतिष्ठामा शुन्न . . Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ग्मशुद्धिः ॥ जइ नो नइ जम्मण रासी तो गणह नामरासी । तं पुण पसिद्धं ॥ १२ ॥ अवकहमाचक्का सा नऊ जो जन्मराशि जाणवामां न होय तो नामराशिथी गणवु, अने ते नामराशि अ कदमा चक्रथी जाणवी. ते चक्र प्रसिद्ध बे. १२. ॥ इति गोचरशुद्धिः ॥ १ ॥ ॥ अथ दिनशुद्धिः ॥ २ ॥ हमास १ वार तिहि ३ रिश्क ४ जोग ५ करणे ६ दिएम्मि सगुणंमि । निदोसे तह निद्दोस ए सगुण रिस्कंमि १० दिसुद्धी ॥ १३ ॥ दिनमांप्रमाणे दश घार बे-शुभ मास १ शुभ वार २, शुभ तिथि ३, शुभ नक्षत्र ४, शुभ योग ए, शुभ करण ६, सगुण दिवस 9, निर्दोष दिवस ण्, निर्दोष नक्षत्र सगुण नक्षत्र १०. १३. मग सराई मास चित्त पोसाहिए वि मुत्तु सुदा । जन गुरू सुक्को वा बालो वुड्डो य अत्थ मिर्च ॥ १४ ॥ मार्गशीर्ष मासथी आरंभीने आठ मास शुन बे, तेमां पण चैत्र, पोष अने अधिक मास वर्जीने सारा बे. तेमां पण जो गुरु के शुक्र बाळक, वृद्ध के अस्त पामेलो न होवो जोइए. १४. दस १० तिन्नि ३ दिणे बालो पण दिए ५ परकं १५ च जिगुसु वुड्डो । पश्चिमवासु कमा गुरु वि जहसंजवं एवं ॥ १५ ॥ शुक्र पश्चिम दिशामां उदय पाम्यो होय तो उदयथी दश दिवस सुधी बाळ जाणव पूर्व दिशामां उदय पाम्यो होय तो त्रण दिवस बाळ जाणवो तथा पश्चिम दिशामा अस्त पामे तो अस्त पाम्या पहेलाना पांच दिवस वृद्ध जाणवो, अने पूर्व दिशामां अस्त पामवानो होय तो ते पहेलां पंदर दिवस वृद्ध जावो. एज रीते गुरु पण जेम संजवे तेम जावो. १५. । इति मासाः । आच बुह विफ सणिवारा सुंदरा वयग्गणे । पुणो विष्फई सोम बुह सुक्का ॥ १६ ॥ बिंब आ० ५४ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ समशुधिः ॥ | ४२७ कारावयस्स जम्मण रिकं दस सोलसं तहऽहारं । तेवीसं पंचवीसं बिंबपश्हा वजिजा ॥२३॥ बिंबप्रतिष्ठाने विषे प्रतिष्ठा करावनारनुं जन्मनक्षत्र, दशमुं, सोळमुं, अढारमुं, त्रेवीशमुं अने पचीशमुं नक्षत्र वर्जq. २३. इति नक्षत्राणि । पढमो को नवमो दसमो तह तेरसो अ पन्नरसो। सत्तरसेगुणवीसो सत्तावीसो असुर जोगो ॥२४॥ विष्कंनादिक २७ योगोमांथी पहेलो, बनो, नवमो, दशमो, तेरमो, पंदरमो, सत्तरमो, लंगणीशमो अने सत्यावीशमो एटला योगो अशुल . २५. बहो ६ दसमो पण ५ पढमो नवमो अ पंच ५ घमिया । तीसं ३० सत्तावीसो नव ए तेरसमो अ पन्नरसो ॥ २५॥ सवं ६० सत्तरसेगुणवीसो वजो अवस्समन्ने छ। जोगा सवे वि सुहा नायवा सबकोसु ॥ २६ ॥ बना योगनी प्रथमनी उ घमी शुन कार्यमा अवश्य तजवी, दशमा योगनी पांच घमी, पहेलानी अने नवमानी पांच घमी, सत्यावीशमानी त्रीश घमी, तेरमा अने पंदरमानी नव घमीन. २५. तथा सत्तरमा. अने जंगणीशमा योगनी सर्व एटले साठे घमी अवश्य वर्जवी. बाकीना सर्व योगो सर्व कार्यमां शुनकारी जाणवा.२६. इति योगः। विहिं विवजिऊणं पाएण सुदाई सबकरणा। एक विष्टिने वर्जीने बाकीनां सर्वे करणो प्राये शुलकारी बे. इति करणानि । आणंदयरं च दिणं सगुणं तद सिफिजोगजुअं॥२७॥ सगुण दिवस होय अने सिद्धि योगवझे युक्त होय तो ते आनंदकर जाणवो. २७. हवे सिद्धि योगनुं स्वरूप कहे जे. सिथ १ बुह ५ कुज ३ सणि ४ गुरुणो ५ पंचसु पढमासु बहिकुजसुका ६ । सत्तमि बुदे ७ अहमि सूरमंगला नवमि सणिससिको ए ॥२७॥ दसमि गुरु १० कारसि गुरुसुक्का ११ वारसी बुहो अ सुदो १५ । तेरसि मंगलसुक्का १३ चोदसि सणि १४ पंचदसि जीवो १५ ॥२॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥बनशुधिः ॥ ___ एकम ने शुक्रवार होय, बीज ने बुधवार होय,त्रीज ने मंगळवार होय, चोथ ने शनिपार होय, पांचम ने गुरुवार होय, बस ने मंगळ के शुक्र होय, सातम ने बुध होय, श्राधम ने रवि के मंगळ होय, नोम ने शनि के चंग होय. २. दशम ने गुरु होय, अगीयारशने गुरु के शुक्र होय, बारश ने बुध होय, तेरश ने मंगळ के शुक्र होय, चौदश ने शनि होय तथा पूनम ने गुरु होय तो ते सिद्धि योग कहवाय जे. ते सर्व कार्यमां शुन्न . २ए. इति तिथिवारसिधियोगाः।। हत्थुत्तर ४ मूलाई ५ रविणो सिकाई पंच रिकाई। रोहिणि १ मिथसिर २ पुस्सा ३ णुराह ४ सवणाई ५ सोमेणं ॥३॥ रविवारे हस्त, त्रण उत्सरा अने मूळ ए पांच नक्षत्रोमांचें कोई होय तो सिद्धि योग थाय जे. सोमवारे रोहिणी, मृगशीर्ष, पुष्य, अनुराधा अने श्रवण होय तो सिद्धि योग प्राय जे. ३०. उत्तरनदवय १ स्सिणि २ रेवश्३ रिकातिनि नोमेणं । कित्तिय १रोहिणि मिथसिर ३ पुस्सअणुराहा उ ५ पंच बुहे ३१ मंगळवारे उत्तरालाजपद, अश्विनी अने रेवती एत्रण नक्षत्र होय, बुधवारे कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिर, पुष्य, अनुराधा ए पांच नक्षत्र होय तो सिद्धि योग जाणवो. ३१. अस्सिणि १ पुस्स २ पुषवसु ३ अणुराहा ४ रेवई थ ५ गुरुवारे । सत्तम पढमिकारस रेवश् अणुराह सवण सिए ॥ ३ ॥ गुरुवारे अश्विनी, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा अने रेवती होय, शुक्रवारे पुनर्वसु, अश्विनी, पूर्वाफाल्गुनी, रेवती, अनुराधा अने श्रवण होय तो सिद्धि योग थाय जे. ३५. रोहिणि १ सवणं २ साई ३ सणिणा श्य रिकवार सुह जोगा। अन्ने वि एवमा वित्थरगंथेसु जाणिजा ॥ ३३ ॥ शनिवारे रोहिणी, श्रवण के स्वाति होय तो सिद्धि योग थाय बे. या प्रमाणे नक्षत्र अने वारथी थता शुन्न योगो के. श्रा विगेरे बीजा पण योगो विस्तारवाळा ग्रंथोथी जाणी सेवा. ३३. ॥ इति नत्रवारसिघियोगाः ॥ इति सिघियोगाः॥ __ हवे कुमार योग कहे जे. अस्सिणि १ रोहिणि श्मूलं ३ हत्थ पुणवसु ५ विसाह ६मह सवणा। जद्दवया विश्र पुवा ए मंगल १ सिय २बुह ३ ससी ४ वारा ॥३४॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ समशुधिः ॥ दसमी १ हि कारसि ३ पमिवय ४ पंचमि ५ तिहीणमन्नयरा । एसो कुमारजोगो रिकतिहीवारजोगम्मि ॥ ३५ ॥ अश्विनी, रोहिणी, मूळ, हस्त, पुनर्वसु, विशाखा, मघा, श्रवण अने पूर्वानाजपद ए नक्षत्रोमांचें कोई एक नक्षत्र होय अने मंगळ, शुक्र, बुध अने सोम एमांनो कोइ पण वार होय तथा दशम, ब, अगीयारश, एकम अने पांचम एमांनी को एक तिथि होय तो श्रारीते नक्षत्र, तिथि अने वारना योगश्री कुमार नामे योग श्राय बे. ३५. इति कुमारयोगः। घरवेसमित्तयाधम्मसिप्पविजाश्या सुहा नावा। कायवा एएणं विरुकजोगं विवजित्ता ॥ ३६ ॥ गृहप्रवेश, मित्रता, धर्म, शिल्पविद्या विगेरे शुन्न कार्यों विरुष्ठ योगने वर्जीने श्रावा शुन योगमां करवां. ३६. ।इति सगुणदिनम् । ७ रयन्नया १ संकेतिगदणदाश्था य दिणदोसा । तह दिवसवारनकत्त असुहजोग ३ रूपहराई ४ ॥३७॥ रजउन्नादिक १, संक्रांति, संक्रांतिदग्ध अने ग्रहणदग्ध तिथि विगेरे दिवसना दोष २, दिवस, वार अने नत्रयी थता अशुल योग ३, तथा अर्धप्रहरादिक ४, ए चार वयं घार कहे . ३७. रयान्न १ मनबन्नं २ पयंडपवणं ३ तहा समुग्घायं ।। सुरधणु ५परिवेस ६ दिसादाहा७ जुनं दिणं मुहं॥३०॥ रजश्बन्न एटले आकाश रजथी-धूळथी जरा गयुं होय १, आकाश वादळांथी बवाइ गयुं होय २, प्रचंग पवन वातो होय ३, समुद्घात एटले मोटा मोटा पमबंदा जेवा अवाज अता होय ४, आकाशमां इंधनुष देखातुं होय ५, परिवेस एटले चंड तथा सूर्यनी फरतुं जे कुंमाळु थाय ने ते ६, तथा दिशादाह एटले सर्व दिशा बळत होय एवो देखाव श्रतो होय, आ विगेरे उत्पातवझे युक्त एवो दिवस दुष्ट-अशुज ने ३८. इति रजश्वन्नघारम् । (१) संकंतीए पुवं संकंतिदिणं तयग्गिमं च दिणं । वजिजा तह संकंति दकृतिदिउँथ एथा ॥३॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ॥ लग्नशुधिः ॥ ___ सूर्य संक्रांति जे दिवस बेसती होय तेनी पहेलांनो एक दिवस, तेनी पनीनो एक दिवस थने तेज एक दिवस एम ए त्रण दिवस तथा संक्रांतिए करीने दग्ध तिथियो था आगल गाथामां कहे जे तेने शुन्न कार्यमां वर्जवी. ३ए. दग्ध तिथि कहे बे. धणुमीणगए बीआ विसे अ कुंने श्र तह चनत्थीए । ककममेसे बही अहमि मिहुणो श्र कन्ने अ॥ ४० ॥ विछियसीहे दसमी तुले अमयरे अ बारसी नणिया। एथा दकृतिही वोथवा पयत्तेणं ॥४१॥ धन के मीननी संक्रांतिमां बीज दग्ध तिथि कहेवाय बे. वृष के कुल संक्रांतिमां चोथ, कर्क के मेष संक्रांतिमां बस, मिथुन के कन्या संक्रांतिमां आम ४०. वृश्चिक के सिंह संक्रांतिमां दशम तथा तुला के मकर संक्रांतिमां बारश ए तिथि दग्ध तिथि कहेवाय बे. ते शुन्ज कार्यमा प्रयले करीने वर्जवी. ४१. ससिसुराणं गहणं जंमि दिणं मि तमाश् काजं । सत्तदिणा वजाह ताज गदणदाई॥४२॥ चंड अथवा सूर्यनुं ग्रहण जे दिवस अयुं होय ते दिवसभी श्रारंजीने सात दिवस वर्जवा, कारण के ते ग्रहण दग्ध कहेवाय . ४२. । इति संक्रांतिदग्धग्रहणदग्धतिथयः॥ इति दिनबारम् । (२) सूरे बारसि सोमे गारसी दसमि मंगले वजा। नवमि बुहे गुरु अहमि सत्तमि सुकम्मि सणि बही ॥४३॥ __ बारश ने रविवार होय, अगीयारश ने सोमवार होय, दशम ने मंगळ होय, नोम ने बुध होय, आम ने गुरु होय, सातम ने शुक्र होय तथा ब ने शनिवार होय तो ते वर्य ने, कारण के ते कर्क योग कहेवाय जे. ४३. । इति कर्कयोगः। ससिसूरदिणे सत्तमि तश्या सुक्कम्मि कि गुरुवारे। पडिवय तश्या य बुहे विवजिया सुहे कळे ॥ ४ ॥ सोम के रविवारे सातम होय, शुक्रवारे त्रीज होय, गुरुवारे बह होय, बुधवारे पझवो के बीज होय तो ते शुल कार्यमा वर्ण्य , केमके ते संवर्तक योग कहेवाय है. प. इति संवर्तकयोगः। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ ॥ लग्नशुद्धिः॥ जिहा महा विसाहा अणुराहा रविदिणम्मि वजिजा। श्रासाढा उन्निय तह य विसाहा उ सोमम्मि ॥ ४५ ॥ रविवारने दिवसे जो ज्येष्ठा, मघा, विशाखा के अनुराधा होय तो ते वर्ण्य , सोमवारे पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा के विशाखा होय तो ते वय॑ बे. ४५. सयनिस अद्द धणिहा मंगलवारम्मि पुवनदवया । मूलऽस्सिणि नरणी रेवळ वजिऊ बुहवारे ॥ ४६॥ मंगळवारे शतभिषक्, श्रा, धनिष्ठा के पूर्वालाजपद होय, बुधवारे मूळ, अश्विनी जरणी के रेवती होय तो ते पण वर्ण्य . ४६. रोहिणि मिथसिर अद्दा सयनिसया विहप्फदिणम्मि । रोदिणिमहथसिलेसापुस्साई सुहाई नो सुक्के ॥४७॥ गुरुवारे रोहिणी, मृगशिर, श्रा6 के शतभिषक् होय, शुक्रवारे रोहिणी, मघा, अश्लेषा के पुष्य होय तो ते सुखकारक नथी. . उत्तरफग्गुणि हत्थो चित्ताऽऽसाढा उगं च एयाई। पंच वि नरकत्ता सणिवारे वङिवा ॥ ४ ॥ शनिवारे उत्तराफाटगुनी, हस्त, चित्रा, पूर्वाषाढा के उत्तराषाढा ए पांच नक्षत्रमांनुं कोइ एक होय तो ते वर्जवा योग्य . ४७. इति वारनदत्राशुनयोगाः। वजिऊ नरणि चित्ता उत्तरसाढा तहेव य धणिहा। उत्तरफग्गुणि पुस्सं रेवर सुराश्सु कमेणं ॥ ४ ॥ रविवारे जरणी होय, सोमवारे चित्रा होय, मंगळवारे उत्तराषाढा होय, बुधवारे धनिष्ठा होय, गुरुवारे उत्तराफाल्गुनी होय, शुक्रवारे पुष्य होय अने शनिवारे रेवती होय तो ते वर्जवा योग्य वे. ४ए । इति ग्रहजन्मनक्षत्राशुनयोगः । इति अशुनयोगबारम् । (३) अप्पहरो कुली उवकुलि असुहकालहोरा य । एए वि हु दिणदोसा वोयबा सुहे कजो ॥५०॥ अर्धप्रहर, कुलिक, उपकुलिक अने अशुल काळहोरा ए पण दिवसना दोषो ने, ते शुल कार्यमा तजवा योग्य . ५०. Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ समशुद्धिः ॥ कुजसि रवि बुह सपि ससि गुरुवारेसु विवकषिको य । पहरो बि२ति ३ च ४ पंच ५ ब ६ सत्त मो कमसो ॥५१॥ मंगळवारे बीजो अर्धप्रहर तजवा योग्य वे, शुक्रवारे त्रीजो, रविवारे चोथो, बुधवारे पांचमो, शनिवारे बो, सोमवारे सातमो ने गुरुवारे श्रमो अर्धप्रहर (अर्धी पोर ) तजवा योग्य वे. ५१. ४३२ दिवारा जश्मा सपिगुरुणो तश्यमपहरेसु | कुलि तह उवकुलि जहसंखेणं मुणेयवो ॥ ५२ ॥ इष्ट दिवसना वारथी जेटलामो शनिवार होय तेटलामा अर्धप्रहरने कुलिक योग जावो ने इष्ट दिवसना वारथी जेटलामो गुरुवार होय तेटलामा अर्धप्रहरने उपकुलिक जावो. श्री बन्ने योग अशुभ बे. ५२. प्र सु बुसोस गुमंतंवलयं जाणाहि कालहोर ति । अढाइका घडिया दिण्वारा गणसु पढमं ॥ ५३ ॥ रविवारे पहेली होरा रविनी, बीजी शुक्रनी, त्रीजी बुधनी, चोथी सोमनी, पांचमी शनिनी, बडी गुरुनी, सातमी मंगळनी ए रीते वलयाकारे बड़े बजे वारे गणतां दरेक वारे चोवीश चोवीश होरा होय बे. जे वारे गणवी होय ते वारे पहेली पोतानीज होरा गावी. ते दरेक होरा अढी घमीनी होय बे. ३. इति श्रप्रहरादिधारम् । (४) । इति मूलघारेषु निर्दोषमिति द्वारम् । संप्रागयं १ धूमिय२ मालिंगिय ३ दढ ४ विद्ध ५ सोवगर्ह ६ । लत्ता उपाए क्कग्गल एडूसि इा कुछ रिस्काई ॥ ५४ ॥ संध्यागत १, धूमित २, लिंगित ३, दग्ध ४, विश्व ए, सोपग्रह ६, लता 9, पात अने एकार्गल ए, नव योगथी डूषित थयेलां दुष्ट नक्षत्र तजवा योग्य वे. ५४. नागयं १ र विगयं २ विड्डेरं ३ सग्गहं ४ विलंबं च ५ । राहु ६ गढ़ जिन्नं विवकए सत्त नरकत्ते ॥ ५५ ॥ संध्यासमये उदय पामेलुं नक्षत्र १, सूर्य साथे रहेलुं २, विवर ३, ग्रह सहित ४, विलंबी, राहुथी हणायेतुं ६, ग्रहंथी नेदायेलुं 9, ए सात नक्षत्रो शुभ कार्यमां जवा योग्य बे. ए. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लग्नशुद्धिः ॥ संप्रागमि कलहो आइचगए न होइ निव्वाणी । विड्डेरे पर विजन सगहंमि विग्गहो होइ ॥ ५६ ॥ दोसो संगयत्तं होइ कुनुत्तं विलंबिनरकत्ते । राहुम्म मरणं गढ़निन्ने सोशिअग्गालो ॥ २७ ॥ संध्यागत नक्षत्रमां कार्य करवाथी कलह थाय, सूर्यगतमां करवाथी निवृत्ति थाय नहीं, विरम करवाथी सामानो विजय बे, ग्रह सहितमां करवाथी विग्रह ( लगाइ ) थाय ५६ । सूर्ये जोगवीने मूकेल एवा विलंबी नक्षत्रमां करवाथी संगतिपएं ( विवाद ) बे, राहुथी हायेला नक्षत्रमां कार्य करवाथी मरण थायाने ग्रहथी जेदायेला नक्षत्रमां कार्य करवाथी लोहीनुं वमन थाय. २७. अत्थमणे संप्रागय १ रविगय जहि वि उ आइचो २ । विड्डेरमवारिय ३ सग्गहं कूरग्गदविश्रं तु ४ ॥ ५८ ॥ रविरिक पिठ जं विलंबि ५ राहुहयं जहिं गहणं ६ | म जस्स गहो वच्च तं होइ गहनिन्नं ॥ ५७ ॥ सूर्यास्तसमये जे नक्षत्र पूर्व दिशामां जगतुं होय ते संध्यागत कहेवाय बे १, जे नक्षत्रमां सूर्य रहेलो होय ते नक्षत्र रविगत कहेवाय बे २, जे नक्षत्र वक्री ग्रहे अधिठित होय ते विवर कहेवाय वे ३, जे नक्षत्र क्रूर ग्रहे अधिष्ठित होय ते ग्रह सहित कवाय बे ४, ८ । सूर्यना नक्षत्रनी पाबळ जे नक्षत्र होय ते विलंबी नक्षत्र कहेवाय बे, जे नक्षत्रमां ग्रहण थयुं होय ते नक्षत्र राहुथी हणायेलुं कहेवाय बे ( आ ग्रहणनुं नक्षत्र ज्यांसुधी सूर्यवके न जोगवाय त्यांसुधी अशुभ वे ) ६, तथा जे नक्षत्रनी मध्ये कोइ पण ग्रह रहेलो होय ते ग्रह जिन्न – ग्रहथी जेदायेतुं नक्षत्र कहेवाय वे 9 एए । इति संध्यागतादीनि ७ । सणिमंगला पुरो धूमिय २ मालिंगियं च तत्तं ३ | लिंगियस्स पचा जं रिकं तं जवे दऊं ४ ॥ ६० ॥ शनि ने मंगळनी सन्मुख जे नक्षत्र होय ते धूमित कहेवाय बे २, ने शनि के मंगळथी युक्त जे नक्षत्र होय ते लिंगित कदेवाय बे ३, तथा श्रलिंगितनी पाबळ जे नक्षत्र होय ते दग्ध कहेवाय बे ४. ६०. तिरियं सत्तसलाया उड्डार्ड सत्त ताप मत्रेणं । उवरिमपढमसलागाण कित्तिया तयणु से सापि ॥ ६१ ॥ आ० ५५ ४३३ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ॥ लग्नशुद्धिः॥ दा नरकत्ता दिज गहे तदिणंमि जो जत्थ । तो जोश्जा वेहं गणयवरो य चंदरिकस्स ॥ ६ ॥ ज एगसलागाए एकदिसि हुआ चंदनरकत्तं । बीअदिसाए हुजा को विगहो तो नवे वेहो ॥ ३ ॥ तिरजी (आमी ) सात शलाका-लींटी करवी, तथा उनी पण सात शलाका करवी, तेनी मध्ये उपरनी प्रथम शलाकाने मे कृत्तिका मूकवू, त्यारपती बाकीनां नक्षत्रो अनुक्रमे मूकवां. ६१. पनी जे दिवसे कार्य करवानुं होय ते दिवसे जे ग्रहो जे नदत्रमा होय ते ग्रहो ते नदत्रमा मूकवा. पी चंड नत्रनो (इष्ट नत्रनो) वेध गणकवरे ( जोशीए) जोवो. ६२. ते आ रीते-जे चंड नक्षत्र (इष्ट नक्षत्र ) एक शलाका पर एक दिशामां होय तेनी सामी दिशाए तेज शलाका पर कोइ पण ग्रह होय तो ते वेध कहेवाय बे. ६३. उत्तरसाढापाए चउत्थए सवणपढमघमियासु । चजसु य अनिई तत्थ हिए गहे रोहिणी वेहो ॥ ६४ ॥ उत्तराषाढाचें चोथु पाद अने श्रवणनी प्रथमनी चार घमी, आटलो समय अनिजित् नत्र , तेमां कोई ग्रह रह्यो होय तो रोहिणी नक्षत्रनी साथे तेनो वेध थाय . ६४. पंच उचजदस हार गुणवीस मुवीस तेवीसे। चवीसमे अ रिके उवग्गहो सूररिस्का ॥६५॥ सूर्यना नक्षत्रयी पांचमुं, श्रावमुं, चौदमुं, अढारमुं, उंगणीशमुं, बावीशमुं, त्रेवीशमुं श्रने चोवीशमुं जे नक्षत्र होय ते उपग्रह कहेवाय जे. ६५ ॥इति उपग्रहघारम् ।। रवि मंगल गुरु सणिणो मुवालसं १२ तश्य ३ ब ६ अहमयं । निअरिका कमेणं रिकं लत्तंति अग्गिमयं ॥६६॥ रवि पोताना नक्षत्रयी आगळना बारमा नक्षत्रने लात मारे बे, मंगळ त्रीजाने, गुरु बाने अने शनि श्रापमाने लात मारे बे. ६६. बुह सुक्क राहु पुन्निमससिणो विहेण निययरिकस्स। ___ सत्तम पंचम ५ नवमं एबावीसश्मंश्च लत्तंति ॥ ६७॥ बुध पोताना नक्षत्रथी पाळना सातमा नक्षत्रने लात मारे बे, शुक्र पांचमाने, राहु नवमाने अने पूर्णिमानो चंद्र पोताना नहाथी पाळना बावीशमा नक्षत्रने सात मारे Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शुद्धिः ॥ ४३५ बे, अर्थात् बुध पोताना नक्षत्रथी आगळना त्रेवीशमा नक्षत्रने, शुक्र पचीशमाने, राहु कवीशमाने चंद्र आठमा नक्षत्रने लात मारे बे. ६७. इति लत्ताधारम् । अस्सेस महा चित्ता अणुराहा सवण रेवई हो जश्मा रविरिकार्ड पार्ट अस्सिणी तश्मंमि ॥ ६८ ॥ । सूर्यना नक्षत्रथी अभ्लेषा, मघा, चित्रा, अनुराधा, श्रवण अने रेवती, या नक्षत्रो जेटलामां होय, अश्विनी नक्षत्रथी गणतां तेटलामुं नक्षत्र पात नामे कहेवाय बे. जेमके सूर्यनुं नक्षत्र कृत्तिका बे. तेनाथी अश्लेषा सातमुं बे, तो अश्विनीथी सातमुं नक्षत्र पुनर्वसु, माटे ते पुनर्वसु पात कहेवाय बे. तथा मघा श्रमुं बे, चित्रा बारमुं बे, अनुराधा पंदरमुं बे, श्रवण वीशमुं बे ने रेवती पचीशमुं बे, माटे अनुक्रमे पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, स्वाति, पूर्वाषाढा अने पूर्वाभाषपद ए नक्षत्रो पात कदेवाय बे. ए रीते सर्वत्र जाणवु. ६०. बीजी रीत नीचे प्रमाणे बे. याच्चो जत्थ वि तत्तो श्रणुराह जइमिया हो । तत्तो बडे बडे दस बीए पंचमे पार्ट ॥ ६ए ॥ सूर्य जे नक्षत्रमां रह्यो होय ते नक्षत्रथी अनुराधा जेटलामुं होय, अश्विनीथी गणतां तेटलामुं नक्षत्र पात जाणवुं. त्यांथी पानुं जे बहुं होय ते पात जाणवुं. त्यांथी वळी जे बहुं होय ते पात, त्यांथी दशभुं होय ते पात, त्यांथी जे बीजुं होय ते पात ने त्यांथी जे पांचमुं होय ते पात जावं. जेमके कृत्तिका नक्षत्रनो सूर्य होय तो कृत्तिकाश्री अनुराधा पंदरमुं बे, तेथी अश्विनीथी गणतां पंदरमुं जे स्वाति ते पात ययुं. स्वातिथी बहु पूर्वाषाढा पात थयुं. पूर्वाषाढाथी बहुं पूर्वाजाऽपद पात थयुं. तेथी दशमुं पुनर्वसु, तेथी बीजुं पुष्य अने तेथी पांचमुं उत्तराफाल्गुनी पात थयुं. एटले उपली रीत प्रमाणेज मळतुं व्यं. ६. अहीं निजित् गणवानुं नथी एटले सत्यावीश नक्षत्र गएवां. पढमो बहो नवमो दसमो तह तेरसो अ पन्नरसो । सत्तर से गुंणवीसो सत्तावीसो एयाणं ॥ ७० ॥ जो जोगो तस्संखं रिकं जइमं हविक रविरिका । इमे सिरके सिणी इट इक्कग्गलो होइ ॥ ७१ ॥ विष्कंaादिक सत्यावीश योगमांनो पहेलो, बघो, नवमो, दशमो, तेरमो, पंदरमो, सत्तरमो, उगणीशमो ने सत्यावीशमो एटला योगमांनो जे योग ( शूळ ) जेटलामो (ए) होय अश्विनीथी तेटलामी ( ए ) संख्यावाळु नक्षत्र ( अश्लेषा ) रविना नक्ष Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ॥ ग्नशुद्धिः ॥ art (पूर्वाषाढाथी ) गणतां जेटलामुं ( १० ) थाय तेटलामुं ( १० ) अश्विनीथी चंद्रनुं नक्षत्र ( ज्येष्ठा ) होय तो एकार्गल थाय बे. ७०-७१. एकार्गलनी वीजी रीत या प्रमाणे बे. - तिरियं तेरस रेहा एक्का तम्मनगामिणी ननुं । काऊ चक्क मिणं सिर रिकं दिऊ तस्स सिरे ॥ २ ॥ विसमे जोगे इकं अहावीसं समंमि दिजाहि । श्रद्धी कयंमि तंमि उ जं तं इह मुणसु सिर रिकं ॥ ७३ ॥ सिराहा व य मियसिर मूलो पुण्वसू पुस्लो । असलेस महा चित्ता विरकंनासु सिररिरका ॥ ७४ ॥ मी तेर रेखा करवी, तेमनी मध्ये एक उभी रेखा करवी, ए प्रमाणे चक्र करीने ना मस्तक पर शिर नक्षत्र देवुं, पबी वीजां नक्षत्रो अनुक्रमे मूकवां शिर नक्षत्र कयुं समजवुं ? तेनी रीत या प्रमाणे – विष्कंनादिक (अशुभ) योगोमांनो जे योग इष्ट दिवसे होय ते योग जो विषम ( एकी) होय तो तेमां एक उमेरवो छाने बेकी होय तो मां श्रठ्यावीश उमेरवा. पी तेने अर्धा करवा. जे शेष रहे तेटलामुं नक्षत्र शिर नक्षत्र जाएवं एटले के तेटलामुं नक्षत्र मस्तक पर मूकवुं तेनां नाम या प्रमाणे बे. - विष्कंज योग होय तो मस्तक पर अश्विनी आवे, अतिगंग होय तो अनुराधा आवे, शूळ होय तो मृगशिर, गंग होय तो मूळ, व्याघात होय तो पुनर्वसु, वज्र होय तो पुष्य, व्यतिपात होय तो अश्लेषा, परिघ होय तो मघा ने वैधृति होय तो चित्रा नक्षत्र मस्तक पर वे बे. ( शुभ योगमां एकार्गल थतोज नथी. ) १२-१३ - १४. सिररिरका कमेणं सत्तावीसं पि दिऊ रिकाई । रेहासु तासु कमसो रिकेसु ा ठवसु ससिसूरे ॥ ७५ ॥ एक्काए रेहाए जइ पुन्नि वि हुंति चंद आच्चा । एक्कग्गलो हु एवं जायइ नरकत्तदोस त्ति ॥ ७६ ॥ पछी मस्तकना नक्षत्रथी अनुक्रमे ते रेखा उपर अनुक्रमे सत्यावीश नक्षत्रो मूकवां. बी ते नक्षत्रो उपर ज्यां संजवे त्यां सूर्य ने चंद्र मूकवा. ७५. हवे जो एकज रेखा पर सामसामा सूर्याने चंद्र बन्ने श्राव्या होय तो ते एकार्गल योग थयो जावो. श्रा नो दोषरूप बे. ७६. इति एकार्गलद्वारम् । । इति मूलधारेषु निर्दोषनक्षत्रद्वारम् । ए Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ग्नशुद्धिः ॥ सगुणं पुण विनेयं रिकं रविजोगसंजु तं च । रवि रिकार्ड चत्थं ४ ब ६ न्नव ए दस १० तेरस १३ वीसं २० ॥ ७७ ॥ सूर्यना नक्षत्रथी चोथुं, बहुं, नवमुं, दशमुं, तेरमुं ने वीशमं नक्षत्र जो होय तो रवि योग जावो. ते रवि योगवसे युक्त एवा नक्षत्रने सगुण नक्षत्र जाणवुं. 99. ॥ इति सगुणनक्षत्रघारम् ॥ १० ॥ इति दिनशुद्धिः ॥ २ इत्तो वि लग्गसुद्धी सा पुणे वग्गसुद्धि होइ १ । उदयत्थसुद्धि २ तद् जहुत्त गहबलगुणं च ३ ॥ ७८ ॥ हवे ग्नशुद्धि कहीए बीए. ते ( लग्नशुद्धि ) ब वर्गनी शुद्धिवमे होय बे १, उदय स्तनी शुद्धि होय बे २, तथा यथोक्त ग्रहवळना गुणवमे गिe १ होरा २ दिक्काणा ३ नव ४ बारस ५ तीस ६ सोमग्गहाण तणावग्गसुद्धी तहिं लग्गे ॥ ७ लग्नना गृह १, होरा २, प्रेष्काण ३, नवांश ४, द्वादशांश ए ने त्रिंशांश ६, ए ना स्वामी जो सौम्य ग्रह होय तो ते षड्वर्गशुद्धि कहेवाय बे. १९. जर पुण बवग्गसुद्धी संजवइ न चेत्र कह विलग्गम्मि । तो पंचवग्गसुद्धी विसुद्धिहेऊ वि लग्गस्स ॥ ८० ॥ प्रथम लग्ननुं प्रमाण कहीने पबी आ लग्नशुद्धि वार बे ते हुं कहीश. ०१. ४३७ होय बे. ३. ७०. सया य जहिं । ॥ जो कदाच कोइ पण प्रकारे लग्नमां व वर्गनी शुद्धि न संजवे तो पांच वर्गनी शुद्धि पण लग्ननी शुद्धिनुं कारणरूप बे. ८०. एसा य बारसन्हं लग्गाणं जंमि तीस विनागे । संजवs तयं छं लग्गपमाणं कऊणं ॥ ८१ ॥ लग्नोमां जे त्रिंशांशमां संनवे दोगुणवीस दोएगवन्न सय तिन्नि तिजु सगयाल सत्ततीसा मेसाइ पला कमुक्कम मेष लग्नना २१७ पळबे, वृषना २५१ पळ बे, मिथुनना ३०३, कर्कना ३४३, सिंहना ३४७ अने कन्याना ३३७ पळ बे, तेथी उत्क्रमे बीजी ब राशिना जाणवा, एटले के तेत्राला । ॥ ८२ ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ॥ सनशुद्धिः॥ तुलाना ३३७, वृश्चिकना ३७, धनना ३४३, मकरना ३०३, कुंजना २५१ अने मीनना १ए पळ . ०२. विस १४ मयराण १४ चउदसे अहमए मीण कक कन्नाणं । नायम्मि बारसे विछियस्स १२ कुंनस्स बबीसे २६ ॥७३॥ चवीसमे तुलाए २४ मेसस्सिगवीसमंमि नागम्मि १। सीहस्स हारसमे रन्धणमिहुणाणं च सत्तरसे १७ ॥ ४ ॥ श्य तीसश्नागेसु डवग्गो हुँति पंचवग्गो वा । सोमग्गहाण तण दियशठियकङसिछिकरो ॥ ५॥ वृष अने मकर- लग्न होय तो तेनो १४ मो त्रिंशांश, मीन, कर्क अने कन्या लग्न होय तो तेनो पाठमो त्रिंशांश, वृश्चिक लग्ननो वारमो त्रिंशांश, कुंन लग्ननो ग्वीशमो, तुला लग्ननो चोवीशमो, मेष लग्ननो एकवीशमो, सिंह लग्ननों अढारमो अने धन तथा मिथुनर्नु लग्न होय तो तेना सत्तरमा त्रिंशांशमां ब वर्गनी अथवा पांच वर्गनी शुद्धि होय बे. तेमां जो सौम्य ग्रहो स्वामी होय तो ते हृदयना इचित कार्यनी सिद्धि करनार थाय . ०३-०४-०५. अन्ने नवंसगं चिय एगं चित्तूण सोमगहतणयं । पत्नणंति लग्गसुहिं विणा वि बवग्गसुखीए ॥ ६ ॥ केटलाएक श्राचार्यो उ वर्गनी शुद्धि न होय तोपण सौम्य ग्रह जेनो स्वामी होय एवा एक नवांशनेज ग्रहण करीने लग्ननी शुद्धि कहे . ७६. गिह होराई लग्गे गहस्स जं जस्स संतिथं हो। तं संप पयमत्थं वुद्धं अबुदाण बोहत्थं ॥७॥ लग्नने विषे गृह तथा होरा विगेरेने तथा जे लग्ननो जे स्वामी होय तेने हवे अज्ञात जनना बोधने माटे हुं प्रगटपणे कहुँ खं. ७७. कुजसुक्कबुहिंऽरविबुदसियकुजगुरुसणीसणीगुरूणं । मेसाश्या उ बारस लग्गाण घराशे जहसंखं ॥ ७ ॥ मंगळ १, शुक्र २, बुध ३, चं ध, रवि ५, बुध ६, शुक्र , मंगळ ७, गुरु ए, शनि १०, शनि ११ श्रने गुरु १३ ए मेष श्रादिक बार लग्नना ग्रहो अनुक्रमे . ०७. ।शति गृहम् । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लग्नशुद्धिः ॥ लग्गस्स होरा सा पढमा दिएयरस्स विसमम्मि । बाय तहिं ससिणो विवकएणं समे लग्गे ॥ ८५ ॥ लग्ननो अर्ध जाग होरा कहेवाय बे. तेमां मेष, मिथुन विगेरे विषम ( एकी) राशिमां पहेली होरा सूर्यनी ने बीजी होरा चंद्रनी बे, छाने वृष, कर्क विगेरे सम राशिमां ते विपरीत एटले पहेली होरा चंद्रनी ने बीजी सूर्यनी बे. ए. इति होरा । दिक्काणो तिजागो सो पढमो निययरासिा दिवइणो । बी पंचमपणो त पुण नवम गिवणो ॥ sorry ए लग्ननो त्रीजो जाग बे. तेमां पहेलो प्रेष्काण पोतानी राशिना स्वामीनो होय, बीजो तेथी पांचमी राशिना स्वामीनो अने त्रीजो नवमा स्थान ( राशि ) ना स्वामीनो होय . ए० इति द्रेष्काणः । ० ॥ मेसे मेसाई विसंमि मयराइया नवसा । मिम्मि तुलाईया कक्के कक्काश्या हुंति ॥ १ ॥ पुण मेसमय तुलकक्कडाश्या चउसु सीहमाईसु । एवं धनुहाईसु वि नवंसया हुंति नायवा ॥ २ ॥ मेष लग्नमां मेष यदि लइने नव नवांशो गणवा, वृषमां मकरथी गएवा, मिथुन मां तुला कर्क कर्कश्री गणवा. ए१. एज रीते सिंह विगेरे चार राशिमां ने धनु विगेरे चार राशिमां अनुक्रमे मेष, मकर, तुला ने कर्कथी श्रारंभीने नव नव नवांशो गणवा. ए२. इति नवांशाः । बारसजागो पयको सो पढमो निरासिणो दोइ । ad बीयस्स उ जाव बार बारसस्स जवे ॥ ३ ॥ ४३ दरेक राशिमां बार बार द्वादशांश होय बे. तेमां पहेलो दादशांश पोतानी राशिनोज होय, बीजो पबीनीज राशिनो होय, एम अनुक्रमे गणतां बारमो द्वादशांश पोतपोतानी राशिथी बारमी राशिनो आवे बे. ए३. इति द्वादशांशाः । कुजसणिगुरुबुदसुक्का पण ५ पण ५ छाड सत्त ७ पंच ५ अंसाणं । विसमे ती संसं पहू विवएणं समे लग्गे ॥ ए५ ॥ दरेक राशिमां त्रीश त्रीश त्रिंशांश होय बे. तेमां विषम राशिमां पदेला पांच त्रिंशांशोनो स्वामी मंगळ बे, बीजा पांचनो शनि बे, त्यारपबीना श्रावनो गुरु बे, त्यार Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୫୪୭ ॥ लग्नशुद्धिः ॥ पीना सानो बुध श्रने त्यारपबीना ( बेला ) पांच त्रिंशांशोनो स्वामी शुक्र बे, अने सम राशिमां एथी विपरीत जाए, एटले के ५-५-८-१-५ अंशोना स्वामी अनुक्रमे शुक्र, बुध, गुरु, शनि ने मंगळ जावा. ए४. इति त्रिंशांशाः । ससदर गुरुबुह सुक्का सोमा सामन्नर्ड मुणेयब्वा । सेसा य हुंति कुरा त बुह खीएस सिणो ॥ ५ ॥ चं, गुरु, बुध छाने शुक्र ए चार ग्रहो सामान्य रीते सौम्य जाणवा, अने बाकीना ( रवि, मंगळ, शनि ) क्रूर जाणवा, तथा ते क्रूर ग्रहे सहित बुध होय तो ते क्रूर जावो अक्षीण चंद्रने पण क्रूर जावो. एए. । इति षड्वर्गशुद्धिः । उदयत्थसुद्धिमिन्हिं जणामि उदर्ज नवंसगो इत्थ । तम्मिय लग्ग विन्ने सनाददिहे उदयसुद्धी ॥ ए६ ॥ उदयास्तनी शुद्धि कहुं बुं. इहां ते लग्नमां वर्त्ततो जे नवमांश होय तेनो स्वामी लग्नने देखे ते उदयशुद्धि जाणवी. ए६. लग्गे नवसगो जो तस्सत्तमठाण लग्गा सत्तमवाणं जइ तो इह लग्नमां जे नवांशक होय तेनाथी सातमा स्थाननो स्वामी जो लग्नथी सातमा स्थानने जुए तो वहीं ते स्तशुद्धि कहेवाय बे. दिवई पिछे । त्यसुद्धिति ॥ ए ॥ वयगढ्णपश्ठासु उदयत्थ विसुद्धि वतियं पिसुहं । मन्नति के लग्गं तं च मयं बहुमयं नेह ॥ ए८ ॥ व्रतग्रहण ( दीक्षा ) तथा प्रतिष्ठादिकमां उदयास्तनी विशुद्धि विना पण केटलाएक लग्नने शुभ माने बे, पण ते मत घणाने संमत नथी. ए. इह उदयत्थविसुद्धी गहदिडीए विणा न संजवइ । संगे गहदिठी संपवरकामि ॥ ए७॥ एए उदयास्तनी शुद्धि ग्रहनी दृष्टि जाण्या विना संजवती नथी, तेथी या प्रसंगे हुं ग्रहनी दृष्टि कहुं बुं. एए. सहाणा दसमं ठाणं तश्यं च पायदिठीए । पिठंति गद्दा नवमं सपंचमं श्रद्ध दिडीए ॥ १०० ॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥समशुद्धिः ॥ ४४१ पजणाए दिछीए चउत्थयं अहमं च पिछति । सवाए सत्तमयं सुहासुहफलं च दिहिसमं ॥ १०१ ॥ सर्व ग्रहो पोताना स्थानथी दशमा तथा त्रीजा स्थानने एक पाद दृष्टिए जुए बे, नवमा तथा पांचमा स्थानने बे पाद दृष्टिए जुए चे, चोथा तथा आठमा स्थानने पोणी एटले त्रण पाद दृष्टिए जुए के, अने सातमा स्थानने सर्व एटले चार पाद दृष्टिए जुए बे. या सर्वन शुजाशुन फळ दृष्टिनी जेवं जाणवु. १००-१०१. इति उदयास्तशुद्धिः। लग्गस्स गहा बलियो हवंति ते जत्थ संठिया गणे। तं वुद्धं दिकाए पढमं पछा पश्चाए ॥ १२ ॥ ते लग्नना ग्रहो जे स्थाने रहीने बळवान् होय रे ते प्रथम हुँ दीक्षाने आश्रीने कहूं , अने पछी प्रतिष्ठाने श्राश्रीने कहीश. १०२. दिका लग्गे दो पंच 3 कारसो रवि सुदउँ । चंदो बीउ तर्ज बहो कारसो तहय ॥ १०३॥ दीक्षा लग्नमां रवि बीजे, पांचमे, बछे के अगीयारमे होय तो ते शुल ने, चंग बीजे, त्रीजे, के के अगीयारमे शुज बे. १०३. ता हो दसमो श्कारसमो कुजो बुहो असुहो। लग्गगर्ड चउ पंच सत्तम नव दसमगो थ गुरू ॥ १०४ ॥ मंगळ अने बुध लग्नथी त्रीजे, ब, दशमे के अगीयारमे होय तो शुलने, गुरु पहेले चोथे, पांचमे, सातमे, नवमे के दशमे शुल . १०४. त हो नवमो वालसो सुंदरो नवे सुक्को। बी पंचम अहमो अश्कारसो असणी ॥ १५ ॥ शुक्र त्रीजे, ब, नवमे के बारमे होय तो सारो, अने शनि बीजे, पांचमे, श्रावमे के अगीयारमे होय तो शुक्ल ने. १०५. उपर कहेलानेज संदेपथी कहे .उपणछो उतिबके तिबदसि तिबदसि तिकोणकिंदेसु । तिबनवबारसि उपण सविगारेसियं मुत्तुं ॥ १०६ ॥ लग्नथी रवि बीजे, पांचमे, बछे सारो, चं बीजे, त्रीजे, उठे शुल, मंगळ त्रीजे, बने, दशमे सारो, बुध त्रीजे, बछे, दशमे सारो, गुरु त्रिकोण एटले नवमे, पांचमे तथा केंज भा०५६ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ - ॥ लमशुद्धिः ॥ एटले पहेले, चोथे, सातमे अने दशमे सारो, शुक्र त्रीजे, उ, नवमे श्रने बारमे सारो, तथा शनि बीजे, पांचमे अने आपमे सारो. शुक्रने गेमीने सर्वे ग्रहो अगीयारमे स्थाने सारा. १०६. गुरु बुह संसिसूराणं बवग्गो श्द सुहो न सेसाणं । जा उण वग्गसुकी पुवुत्ता सा पश्चाए ॥ १० ॥ गुरु, बुध, चंज (शनि ) अने रविनो उ वर्ग ( उ वर्गनी शुद्धि) अहीं (दीक्षामां) शुन्न , पण बीजा ग्रहोनी शुद्धि शुल्न नथी. तथा पूर्वे जे ब वर्गनी शुद्धि कही ने ते प्रतिष्ठा आश्रीने बे. १०७. अहवा वि मनिमबलं काऊण सणि गुरुं च बलवंतं । अबलं शुकं लग्गे तो दिकं दिऊ सीसस्स ॥ १७ ॥ अथवा तो लग्नमां शनिने मध्यम बळवाळो करीने, गुरुने बळवान् करीने तथा शुक्रने निर्बळ करीने शिष्यने दीक्षा देवी. १०७. उ पण अकारस ठाणे मनिमबलो सणी हो । लग्गग चल सत्तम दसमो अ गुरू नवे बलवं ॥ १०॥ बीजे, पांचमे, बछे, आग्मे अने अगीयारमे स्थाने रहेलो शनि मध्यम बळवाळो होय , अने गुरु पहेले, चोथे, सातमे तथा दशमे होय तो ते बळवान बे.१०ए बहो मुवालसो तह अबलो सुको सुहो वयग्गहणे। दो तश्य पंच हिकारसमो तह बुहो सुहर्ज ॥ ११० ॥ तथा बो अने बारमो शुक्र निर्बळ बे. ते व्रतग्रहणमां शुन बे, तथा बुध बीजे, त्रीजे, पांचमे, के के अगीयारमे होय तो ते शुल बे. ११०. तश्ए बछे दसमे श्कारसमम्मि मंगले लग्गे । दिवं पत्तो सत्तो जायज्ञ बहुनाण तव जुत्तो॥ १११॥ त्रीजे, उसे, दशमे के अगीयारमे मंगळ होय एवा लग्नने विषे दीक्षित श्रयेस सत्त्व (साधु ) बहु ज्ञान अने तपवमे युक्त थाय . १११. सुकंगारयमंदाण सत्तमे ससहरे गहियदिको। पीमिजाए अवस्सं सत्थपुसीलत्तवाहीहिं ॥ १९॥ शुक्र, मंगळ अने शनिथी सातमे चं होय अने जो दीक्षा लीधी होय तो शस्त्र, शीलपणुं अने व्याधिवमे अवश्य ते पीमाय बे. ११२. १ गुरु बुह सणि सूराणं इति प्रत्यन्तरे. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लग्नशुद्धिः ॥ ४४३ श्य दिकाकुंमलिया दिसिमित्तं दंसिया मए एवं । वुद्धं च पश्ठाकुंमलियमहं समासेणं ॥ ११३॥ श्रा प्रमाणे दीक्षानी कुंमळी में दिग्मात्र देखामी बे. हवे प्रतिष्ठाकुंमळीने संदेपथी कई बु. ११३. गुरुबुदसुक्का सुदया लग्गगया मनिमो ससी लग्गे । सूरंगारयसणिणो वोयवा पयत्तेणं ॥ ११४ ॥ गुरु, बुध अने शुक्र लग्नमां रह्या होय तो ते शुल्ल बे, चंड रह्यो होय तो ते मध्यम ने श्रने रवि, मंगळ अने शनिने लग्नमां प्रयत्नथी वर्जवा, एटले के ते अशुल बे. ११५ गुरुबुइस सिणो सुहया बीए गण म्म मालमो सुक्को। कास्स विणासयरा दियरसणिमंगला बीया ॥११५॥ बीजा स्थानमा गुरु, बुध अने चंज रह्या होय तो ते शुन्न , शुक्र होय तो ते मध्यम अने सूर्य, शनि अने मंगळ कार्यनो विनाश करनारा बे, एटले के ते श्रशुल . ११५. तश्य म्मि सुहा रविससिबुहनोमस णिचरा न संदेहो । मनिम सुरमंती सुक्को उ असुंदरो तल ॥ ११६ ॥ ___त्रीजा स्थानमा रहेला रवि, चंज, बुध, मंगळ अने शनि शुल , तेमां कां पण संदेह नथी. गुरु होय तो ते मध्यम जे अने शुक्र अशुल . ११६. लग्गा चउत्थगया गुरुबुहसुक्का सुहावहा नणिया । मनत्थो श्र चजत्थो चंदो सेसा गहा असुहा ॥ ११७ ॥ खग्नथी चोथा स्थानमा रहेला गुरु, बुध अने शुक्रने शुजावह कह्या चे, चोथे स्थाने रहेलो चंग मध्यम ने अने बाकीना एटले रवि, मंगळ अने शनि अशुल बे. ११७. रविस सिकुजसुक्कसणी पंचमगणम्मि मनिमा ने। बुहगुरुणो पुण सुन्नि वि सवत्थपसाहया तत्थ ॥ १७ ॥ लग्नथी पांचमे स्थाने रवि, चंड, मंगळ, शुक्र अने शनि होय तो ते मध्यम जाणवा, अने बुध तथा गुरु ए बे ग्रहो पांचमे स्थाने होय तो सर्व अर्थना साधक बे. ११७. रविससिकुजगुरुसणिणो के ठाणम्मि संठिया सुहया। सुक्कबुहा पुण बहा मनिमया हुँति नायवा ॥ ११ ॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ लग्नशुधिः ॥ उठे स्थाने रहेला रवि, चंड, मंगळ, गुरु अने शनि शुलकारक , अने शुक्र तथा बुध बडे स्थाने होय तो ते मध्यम जाणवा. ११ए. सत्तमगणम्मि गुरु सुहर्ज सियस सिबुहा य मनत्था । सणिसूरमंगला पुण वोअवा पयत्तेणं ॥ १० ॥ सातमे स्थाने गुरु शुक्ल , शुक्र, चं अने बुध मध्यम , तथा शनि, सूर्य अने मंगळ सर्व प्रयत्ने वर्जवा योग्य -अशुल बे. १२०. श्राश्च सोममंगल बुहगुरुसुका विवणिजाउँ । अहमगणम्मि पिया (गया) सणिछरो मनिमो नणि ॥११॥ श्रापमा स्थाने रहेला सूर्य, चंज, मंगळ, बुध, गुरु अने शुक्र वर्जवा योग्य श्रने शनिने मध्यम कह्यो बे. १२१. नवमम्मि सुहा नणिया सुक्कगुरू मनिमा य बुढ्ससिणो। वङोयवा य सया सविमंगल दियरा नवमा ॥ १२ ॥ नवमे स्थाने शुक्र अने गुरु शुक्ल कह्या बे, बुध अने चंड मध्यम कह्या बे, अने नवमे स्थाने रहेला शनि, मंगळ अने रवि वर्जवा योग्य वे. १२२. बुहगुरुसुका तिन्नि वि दसमम्मि हवंति कासिकिकरा। ससिसणिणो मनत्था असुहा रविमंगला पुन्नि ॥ १२३ ॥ दशमे स्थाने रहेला बुध, गुरु अने शुक्र ए त्रणे कार्यनी सिद्धि करनारा , चं श्रने शनि मध्यम बे, अने रवि तथा मंगळ ए वे अशुल बे. १५३. सूराश्या सत्त विश्कारसगा कजासिफिकरा । बारसमा पुण सत्वे विन्नेया अत्थहाणिकरा ॥ १२४ ॥ रवि विगेरे साते ग्रहो अगीयारमा होय तो कार्यनी सिद्धि करनारा , अने बारमे स्थाने होय तो ते सर्वे कार्यनी हानि करनारा . १२४. हवे रवि विगेरे साते ग्रहोना शुन स्थाननो संग्रह अनुक्रमे कहे .ब उगे अबछे आश्म पण दसमयम्मि अति अहे। चन नव दसगे ति बगे सवेगारे न बारसमे ॥ १५॥ रवि बछे स्थाने होय तो सारो , चं बीजे स्थाने, मंगळ बछे स्थाने, बुध पहेला पांच एटले पहेले, बीजे, त्रीजे, चोथे, पांचमे अने दशमे, गुरु त्रीजुं अने आग्मुं मूकीने Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ए ॥ लग्नशुधिः ॥ अर्थात् पहेले, बीजे, चोथे, पांचमे, ब, सातमे, नवमे अने दशमे स्थाने शुन, शुक्र चोथे, नवमे अने दशमे, अने शनि त्रीजे अने बछे सारो ने. सर्वे ग्रहो अगीयारमे स्थाने सारा ने अने बारमे स्थाने अशुल बे. १२५. अथवा. अहवा ग उग चन पंच नवम दसमा सुहा सोमा । कूरा हा चंदो बी सवे विश्कारा ॥ १२६ ॥ अथवा तो सौम्य ग्रहो ( चंड, बुध, गुरु, शुक्र ) पहेले, बीजे, चोथे, पांचमे, नवमे अने दशमे स्थाने शुज , क्रूर ग्रहो ( रवि, शनि, मंगळ ) बठे स्थाने शुज , चंग बीजे स्थाने शुल बे, तथा सर्व ग्रहो अगीयारमे स्थाने शुक्ल . १२६. . श्य बिंबपश्ठा सूरिहवण रायानिसेथ वीवाहे। अन्ने वि य सुहकोसुं कुंमतिया कासिफिकरा ॥ १२ ॥ श्रा प्रमाणेनी कुमळी बिबप्रतिष्ठा, सूरिपदनी स्थापना, राजाभिषेक, विवाह भने बीजां पण शुल कार्योमां कार्यनी सिद्धि करनारी जे. १२७. जर पुण तुरियं कऊं हविज लग्गं न ललए सुई। तो धुवपयछायाई निच्चं लग्गं गहेयत्वं ॥ १२ ॥ जो कदाच शीघ्रताथी कार्य करवं होय अने शुध लग्न न मळतुं होय तो ध्रुव श्रने पदगयादिके करीने हमेशनु लग्न ग्रहण करवू. १२८. तिरियं ठियम्मि धुवए करिऊ दिरका पश्माश्यं । जहियम्मि तम्मि य कुणसु धयारोवणप्पमुहं ॥१॥ ध्रुवने तिरगे (आमो) राखीने दीक्षा अने प्रतिष्ठादिक कार्य करवां, अने ते ध्रुव ऊर्ध्व (उत्नो) रह्यो होय तो ध्वजारोपण आदि कार्य करवां. १२ए. इति ध्रुवलग्नं । तणुबायाश्पया सणिससिसुक्केसु अमनव लिजा । अरु बुहे नव नोमे सत्तिकारस गुरुरवीसु ॥ १३० ॥ शनि, सोम अने शुक्रवारे शरीरनी गयाना सामाआठ पगला लेवां, बुधवारे श्राप, मंगळवारे नव, गुरुवारे सात अने रविवारे अगीयार पगलां लेवां. ते वखते शुज कार्य करवं. १३०. एयं बायालग्गं बुहेहिं सवत्तमं समरकायं । सबविसुके वि दिणे सुहावहं सबकजोसु ॥ १३१॥ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ॥लनशुद्धिः ॥ श्रा गया लग्नने विधानोए सर्वोत्तम कडं , अने सर्व विशुद्ध दिवसे पण या लग्न सर्व कार्यमा सुखकारक बे. १३१. श्य सुंदरे वि लग्गे सुहसजणबलेण कुणसु किच्चाई। अहव निमित्तबलेणं वयणमिणं हारिज ति ॥ १३ ॥ श्रा प्रमाणे सुंदर लग्नने विषे पण शुल शकुनना बळे करीने अथवा शुल निमित्तना बळे करीने कार्यो करवां. ए प्रमाणे चौदसो चुमाळीश ग्रंथकर्ता श्री हरिना सूरिमहाराजनुं वचन . १३२. श्य तिविहसुकिजुत्तं तीए विउत्तं च संसियं लग्गं । जं किंचि श्ह अजुत्तं वुत्तं सोहिंतु तं विउसा ॥ १३३ ॥ श्रा प्रमाणे त्रण प्रकारनी शुद्धिथी युक्त तथा त्रण अशुद्धियी वियुक्त ( रहित ) एवं लग्न कर्वा. अहीं जे कांश अयोग्य कडं होय ते विधानोए शोध. १३३. ॥ इति श्रीहारिजजीयं लग्नशुधिप्रकरणम् ॥ ॥ इति श्रीहारिननीयं लग्नशुद्धिप्रकरणम् ॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नशेखरसूरिविरचिता ॥ दिनशुद्धिः। प्रल्हाRSIM WANANENANCY जयजयजय ७७७७७७७७७७७७७. Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୫୯ ॥ दिनशुद्धिः॥ ॥ अथ रत्नशेखरसूरिविरचिता ॥ ॥ दिनशुद्धिः॥ जोश्मयं जोश्गुरुं वीरं नमिऊण जोश्दीवाउ । दिणसुद्धि दीवियमिणं पयमत्थं चेव पयडेमि ॥१॥ ज्योतिषमय अने ज्योतिषना गुरुरूप श्रीमहावीर खामीने नमस्कार करीने ज्योतिषरूपी दीवा की आ प्रगट अर्थवाळा दिनशुद्धि नामना दीपकने हुं प्रगट करुं बु. १. प्रथम वारना अधिपतिउने तथा तेनी सौम्य विगेरे संझाने कहे . रविचंदजोमबुहगुरुसुक्कसणीया कमेण दिणनाहा । चं सु [ सोमा मं स र कूराय बुहो सहायसमो ॥२॥ रवि, चंड, नौम, बुध, गुरु, शुक्र अने शनि ए अनुक्रमे वारोना स्वामी जे. तेमां चंग, शुक्र अने गुरु एत्रण सौम्य बे, मंगळ, शनि अने रवि ए त्रण क्रूर , तथा बुध सहायनी जेवो डे, एटले के सौम्य ग्रह साधे रह्यो होय तो सौम्य , अने क्रूर साथे रह्यो होय तो क्रूर ने, तथा एकलोज होय तो ते सौम्यज . २. हवे वारने विषे होराउँने कहे जे.चं स गु मं र सु बु वलयकमसो दिणवारमाश् उ किच्चा। सघमी दोमाणा होराहिव पुन्नफलजणया ॥३॥ अढी घमीनी एक होरा होवाथी एक रात्रि दिवसमां चोवीश होरा श्रावे . ते होराऊना स्वामी या प्रमाणे बे.-चंत्र, शनि, गुरु, मंगळ, रवि, शुक्र अने बुध श्रा वलयाकारना अनुक्रमथी दिवसना वारने प्रथम करीने अढी घमीना प्रमाणवाळी होराना अधिपति ने, एटले के सोमवारे पहेली होरा चंजनी, बीजी शनिनी, त्रीजी गुरुनी, चोथी मंगळनी, पांचमी रविनी, बनी शुक्रनी अने सातमी बुधनी. पनी आठमी चंपनी, नवमी शनिनी एम अनुक्रमे चोवीशे होराना स्वामी जाणवा. एज रीते शनिवारे पहेली होरा शनिनी, बीजी गुरुनी, त्रीजी मंगळनी एम गणतां सातमी चंजनी, पनी फरीने आवमी शनिनी विगेरे. ए रीते जे दिवसे जे वार होय ते वारना नामनी पहेली होरा गणीने त्यारपीना भी पहेली होरा गपीने त्यारपतीना आ वलयमां गणावेदा अनुक्रमे स्वामी जाणवा. आ होराना स्वामी वारना पूर्ण फळने श्रापनारा , एटले के सौम्य ग्रहनो भा० ५७ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ॥ दिनशुधिः॥ वार अने सौम्य ग्रहनी होरा ए बन्नेमां करेलु कार्य संपूर्ण शुल फळ श्रापे . ( होरानो अधिपति सारो न होय तो वारनुं फळ मळे , एम अन्य ग्रन्थोमां कडं बे.)३. हवे वारनी प्रवृत्ति क्यारे थाय बे ? ते कहे .विविधकुंजाइतिए निसिमुहि विसधणुहि ककितुलिमले । मकमिहुण कन्नसिंहे निसि अंते संकम वारो ॥४॥ वृश्चिक अने कुंलादिक त्रण एटले कुंल, मीन अने मेष था चार संक्रांतिमां वारनी प्रवृत्ति रात्रिना प्रारंले थाय ने, वृष, धन, कर्क अने तुला ए चार संक्रांतिमां रात्रिना मध्य समये वारनी प्रवृत्ति थाय , तथा मकर, मिथुन, कन्या अने सिंह ए चार संक्रांतिमां रात्रिने अंते वार प्रवर्ते . ४. हवे वारने आश्रीने सुवेळाने कहे .चउघमिश्र सुवेला एग दो बच्च सूरे, पण ग अम सोमें अचऊ सत्त नोमे। बतियश्रमबुहंमी पंच दो सत्त जीवे, अडिग चल सुक्के तिन्नि सत्तह पंच॥ __ रविवारे पहेलुं, बीजं अने बहुं ए त्रण चोघमीयां सुवेळा कहेवाय जे, सोमवारे पांचमुं, पहेलुं श्रने आउM चोघमीयु सुवेळा , मंगळवारे श्रापमुं, चोयुं अने सातमुं, बुधवारे उडु, त्रीजुं श्रने आग्मुं, गुरुवारे पांचमुं, बीजुं अने सातमुं, शुक्रवारे बहु, श्रामुं, पहेलुं अने चोथु, तथा शनिवारे त्रीजुं, सातमुं, आग्मुं अने पांच, चोघमीयु सुवेळा बे. . ___ हवे कुलिक, कंटक, उपकुलिक तथा काळवेळाने कहे जे.रविबुदसुक्का सत्तउ हायंता कुलिअ कंट उवकुलिया। श्रम तिबग चउ सग दो सूराश्सु कालवेला ॥६॥ रविवारे सातमो अर्धप्रहर (चोघमीयु ) कुलिक योग कहेवाय बे, बुधवारे सातमो अर्धप्रहर कंटक योग कहेवाय बे, अने शुक्रवारे सातमो अर्धप्रहर उपकुलिक योग कहेवाय जे. त्यारपीना वारे एक एक अर्धप्रहरनी हानि करीने कुलिक, कंटक अने उपकुलिक योग कहेवा. ते नीचेना यंत्रथी जाणवा. योग रवि | सोम | मंगळ बुध गुरु शुक्र | शनि | ___ कुलिक । । ६ । ५ | ४ | ३ | २ | १ | अधप्रहर. कंटक | ३ | २ | १ | ७ । ६ ५ | ४ | अर्धप्रहर.. उपकुलिक ५ ४ | ३ | २ १ ७. ६ । अर्धप्रहर. Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ ४२१ रविवारे आम प्रहर काळवेळा कहेवाय बे, सोमवारे त्रीजो अर्धप्रहर, मंगळवारे बो, बुधवारे पहेलो, गुरुवारे चोथो, शुक्रवारे सातमो अने शनिवारे बीजो अर्धप्रहर काळवेळा कहेवाय बे. ६. वे व अर्धप्रहर तथा गमनादिकमां वर्ज्य दिशाने कहे बे. - ता चउजु अरूपद्दा तेसिं सोलमडती सडुएगचऊ | चनसठी मनपाला देया पुवान दिसि बड़ी ॥ ७ ॥ उपर कहेली काळवेळामां चार नेळवीए तो ते वर्ज्य अर्धप्रहर थाय बे, अने ते वर्धप्रहरना मध्यना रविवारथी अनुक्रमे सोळ, आठ, बत्रीश, बे, एक, चार, चोस पळो पूर्वादिक बडी बही दिशाए यात्रादिकमां वर्जवा योग्य बे. ते नीचेना यत्री जाणवुं. 9. रवि | सोम | मंगळ बुध Ե ३ ६ १ 9 ‍ काळवेळा ४ १६ अर्धप्रहरना मध्य पळो ८ ३२ २ १ ४ ६४ यात्रादिकमां वर्जवा. पूर्व वायव्य दक्षिण ईशान पश्चिम अग्नि उत्तर बडी रित मी बारसी बुतिदि कूरदा व गुरु | शुक्र शनि ย ए G ३ ६ ॥ इति वाराः ॥ ed तिथिवार कहे बे. तेमां प्रथम तिथिनां नंदादिक नामो कहे बे. नंदा जाय जया रिता पुन्ना य तिदि सनामफला । पमिव बहि इगारसि पमुद्दा उ कमेण नायवा ॥ ८ ॥ नंदा, जत्रा, जया, रिक्ता ने पूर्णा ए नामनी तिथि पोतानां नामने सदृश फळ पनारी बे. तेमां परुवो, बघ ने अगीयारश ए नंदा कद्देवाय बे. एज अनुक्रमे जादिक संज्ञा पण जाणवी. ते यंत्रथी जावी. ८. ४ ५ नंदा | जा | जया | रिक्ता | पूर्णा तिथि १ ‍ ३ तिथि ६ བུ तिथि ११ १२ Ե १३ १४ शुभ कार्यमा वर्ण्य तिथि - 6 U १० १५ अमावसा गयतिही उ । सुसु कम्मेसु ॥ ए ॥ प्र. - Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ॥ दिनशुधिः॥ बस, रिक्ता (५-ए-१४ ), आठम, बारश, अमावास्या, क्षय तिथि, वृद्धि तिथि, क्रूर तिथि अने दग्ध तिथि, बाटली तिथि शुक्ल कार्यमा वर्जवा योग्य वे. ए. मेसा चउसु चउरो तिही कमेणं च पुन्न सवेसु । एवं परउ सकूररासि असुहा तिही वजा ॥ १० ॥ मेषादिक चार संक्रांतिमां को क्रूर ग्रह होय तो अनुक्रमे पहेली चार तिथि पूर्णा तिथि सहित वर्ण्य . ए रीते श्रागळ पण जाणवू, एटले के मेष संक्रांतिमां क्रूर ग्रह होयतो एकम अने पांचम वर्जवा योग्य , वृप संक्रांतिमां क्रूर ग्रह होय तो बीज अने पांचम, मिथुन संक्रांतिमां क्रूर ग्रह होय तो त्रीज अने पांचम तथा कर्क संक्रांतिमां क्रूर ग्रह होय तो चोथ अने पांचम वर्जवा योग्य बे. एज रीते सिंह, कन्या, तुला अने वृश्चिक संक्रांतिमां क्रूर ग्रह होय तो अनुक्रमे उ, सातम, आठम अने नोम ए तिथि पूर्ण तिथि दशम सहित वर्ण्य . एज प्रमाणे धन, मकर, कुंन अने मीन संक्रांतिमां पण क्रूर ग्रह होय तो अनुक्रमे अगीयारश, बारश, तेरश अने चौदश ए तिथि पूर्णिमा सहित वर्जवा योग्य वे. एवी रीते क्रूर ग्रहो सहित राशिऊनी अशुल तिथि शुज कार्यमां वय॑ बे. १०.। सूर्यदग्धा तिथि.बग चल अहमि बही दसमहमि बार दस मि बीया उ । बारसि चउत्थि बीया मेसासु सूरददिणा ॥११॥ मेष राशिनी संक्रांतिमा बस दग्धा तिथि, वृष संक्रांतिमां चोथ, मिथुनमां श्रावम, कर्कमां , सिंह संक्रांतिमां दशम, कन्या संक्रांतिमां पाउम, तुला संक्रांतिमां बारश, वृश्चिक संक्रांतिमां दशम, धन संक्रांतिमां बीज, मकर संक्रांतिमां बारश, कुंन संक्रांतिमां चोथ अने मीन संक्रांतिमां बीज ए सूर्यदग्धा तिथि कहेवाय बे. ११. ।यंत्रम् । धन मीन संक्रांतिमां ३, वृष कुंल संक्रांतिमां । मेष कर्क संक्रांतिमा ६, कन्या मिथुन संक्रांतिमा त वृश्चिक सिंह संक्रांतिमा १०, मकर तुला संक्रांतिमा १५ ॥इति तिथिघारम् ॥ __ हवे करणार कहे जे.सनणि चप्पय नागा किंत्थुग्या किण्ह चउद्दसि निसा। थिरकरण तीस घमिआ पर चलकरण एयाई॥१२॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥दिनशुद्धिः॥ ४५३ बव-बालव-कोलव-तेतिलक गर-वणिश्र-विहिनामाणो । पायं सवे वि सुहा एगा विही महापावा ॥ १३ ॥ शकुनि, चतुष्पाद, नाग अने किंस्तुघ्न ए चार करणो स्थिर बे. ते दरेक त्रीश त्रीश घमीनां होय बे. तेमां पहेलुं शकुनि कृष्ण चतुर्दशीनी रात्रे होय बे, बीजुं चतुष्पाद अमावास्याने दिवसे होय , त्रीजुं नाग अमावास्यानी रात्रिए होय जे अने चोथु किंस्तुघ्न शुक्लपदना प्रतिपद्ने दिवसे होय , त्यारपनी चर करणोनां नाम था प्रमाणे वे.-बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज अने विष्टि. प्राये था सर्वे (स्थिर अने चर) करणो शुक्ल बे, पण एक विष्टि महा पापा-महाअष्ट . १२-१३. विष्टि क्यारे होय ने ते कहे .किण्हे परके दिणे नदा सत्तमी अ चउद्दसी । रत्तिं दस मि तीथाए सुके एगदिणुत्तरा ॥ १४ ॥ कृष्णपक्षमा सातम अने चौदशना दिवसने विषे जत्रा (विष्टि ) होय ने अने दशम तथा त्रीजनी रात्रिए नत्रा (विष्टि ) होय बे. अने शुक्लपक्षमा एक दिवस पी आवे जे, एटखे के आवम अने पूनमना दिवसे तथा श्रगीयारश अने चोथनी रात्रिए लजा होय . १४. जना का तिथिए कया पहोरमां का दिशाए सन्मुख होय ते कहे जे.चउद्दसी अहमि सत्तमीए राका चनत्थी दसमी जहा। एगारसी तीश कमा दिसाहिं तस्संखजामे निमुहाऽतिपावा॥१५॥ यंत्र चौदशे पहेला पहोरमां पूर्व दिशाए ना सन्मुख होय , तिथि | प्रह र दिशा | श्राम्मे अग्नि खूणामां बीजे पहोरे सन्मुख होय बे, सातमे १४ । १ पूर्व | अग्नि त्रीजा पहोरे दक्षिण दिशामां, पूर्णिमाए चोथा पहोरे नैर्ऋत्य - | ३ दक्षिण खूणामां, चोथे पांचमे पहोरे पश्चिम दिशामां, दशमे बछे १५ नैत्य पहोरे वायव्य खूणामां, अगीयारशे सातमे पहोरे उत्तर ४ ५ पश्चिम दिशामां अने त्रीजे श्रावमे पहोरे ईशान खूणामां जना सन्मुख होय . श्रा सन्मुख नत्रा अति उष्ट बे. १५. | ३| | | वायव्य Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ॥दिनशुद्धिः॥ नजानां अंग तथा तेनुं फळ कहे .पण मुग दस पण पण तिथ विहिघडी वयण कंठ उरु नाही। कमि पुछगा य सिकी खय निस्स कुबुकि कलह विजयकरा॥१६॥ विष्टि (ना) पहेली पांच घमी सुधी पोताना मुखमां रहे , त्यारपती वे घमी कंठमां रहे , त्यारपनी दश घमी ऊरुमा रहे , त्यारपनी पांच घमी नानिए रहे ने, त्यारपजी पांच घमी कटीए रहे जे अने बेसी त्रण घमी पुचमां रहे . जो जत्रा मुखमां रही होय ते वखते यात्रादिक शुन्न कार्य करवामां आवे तो कार्यनी सिद्धि थाय केले रही होय तो क्षय ( नाश ) करनारी थाय ने. ऊरुमां रहेली होय तो निर्धन करे , नानिमां रही होय तो खराब बुद्धि करे , कटीमां रही होय तो क्लेश करावे ने अने पुछे रही होय तो विजयने करनारी श्राय जे. १६. हवे करणनी अवस्था बतावे .किंत्थुग्ध सउणि कोलव उन्करण तिन्नि तिनि सुत्ता। तेश्ल नाग चप्पय पण सेस निविठकरणा॥ १७ ॥ किंस्तुघ्न, शकुनि अने कौलव ए त्रण करणो नलेला होय , तैतिल, नाग अने चतुष्पद ए त्रण करणो सूतेलां होय , तथा बाकीनां पांच करणो (बव, बालव, गर, वणिज अने विष्टि ) बेठेलां . १७. ॥ इति करणघारम् ॥ हवे नक्षत्रो कहे .अश्विनी १, नरणी २, कृत्तिका ३, रोहिणी ४, मृगशीर्ष ५, आर्षा ६, पुनर्वसु ७, पुष्य , अश्लेषा ए, मघा १०, पूर्वाफाल्गुनी ११, उत्तराफाल्गुनी १२, हस्त १३, चित्रा १५, स्वाति १५, विशाखा १६, अनुराधा १७, ज्येष्ठा १७, मूळ १ए, पूर्वाषाढा २०, उत्तराषाढा ११, अनिजित् २२, श्रवण २३, धनिष्ठा २४, शतभिषक् २५, पूर्वाजापपद २६, उत्तरालाप्रपद २७ श्रने रेवती २७. था अठ्यावीश नत्रो ने. हवे दरेक नक्षत्रनी केटली तारा होय ? ते कहे जे.तिति पण ति एग चऊ ति ब पण फुपु पणिग एग चल चउरो। ति गार चल चल तिगं ति चउ सयं 5 फुग बत्तीसं ॥ १७ ॥ श्व रिकाणं कमसो परिभरतारामिई मुणेयवा। तारासमसंखागा तिही वि रिकेसु वजिजा ॥ १ ॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ मूळ ॥दिनशुद्धिः॥ नीचेना यंत्र परथी तारानी संख्या जाणवी. नत्र तारा नक्षत्र तारा | नत्र तारा नत्र तारा अश्विनी ३ पुष्य स्वाति अनिजित नरणी ३ अश्लेषा विशाखा श्रवण कृत्तिका मघा अनुराधा धनिष्ठा रोहिणी ५ पूर्वाफागुनी ५ ज्येष्ठा शतनिषक १०० मृगशीर्ष ३ । उत्तराफागुन | पूर्वानाप्रपद २ श्राओं १ । पूर्वाषाढा उत्तरानाजपद ५ पुनर्वसु प चित्रा १ | उत्तराषाढा ।। रेवती ३२ श्रा प्रमाणे अनुक्रमे नक्षत्रोना परिवारजूत तारानुं प्रमाण जाणवू. तारानी समान संख्यावाळी तिथि पण श्रा नक्षत्रोमां वर्जवा योग्य , एटले के अश्विनी नक्षत्र त्रीजने दिवसे होय तो ते वय॑ने. रोहिणी नक्षत्र पांचमने दिवसे होय तो ते वय॑ ते. इत्यादि. अहीं शतनिषकनी सो तारा तथा रेवतीनी बत्रीश तारा ने, तेथी तेने तिथिनी संख्या पंदरे नाग लेतां बाकी दश अने बे रहे , माटे शतभिषा नक्षत्र दशमने दिवसे होय अने रेवती नक्षत्र बीजने दिवसे होय तो ते वय॑ बे एम समजवु. १०-१ए. अभिजित् नत्रनी समज तथा तेनी आवश्यकताज-खा अंतिमपायं सवणपढम घमिश्र चन अनीशविई। लत्तोवग्गहवेहे एगग्गलपमुहकजोसु ॥ २० ॥ उत्तराषाढानो बेझो ( चोथो) पाद अने श्रवणनी पहेली चार घमी थाटला समय सुधी अनिजित् नत्रनी स्थिति होय , अने लत्ता, उपग्रह, वेध तथा एकार्गल ए विगेरे कार्योमा तेनी जरुर पसे बे. २०. नक्षत्रोना अक्षरोनो यंत्र.चु चे चो ला अश्विनी मि मे मो अश्लेषा लि लु ले लो नरणी म मि मु मे मघा श्रइ उ ए कृत्तिका मोट टि टु पूर्वाफाल्गुनी व वि वु रोहिणी टे टो प पि उत्तराफाल्गुनी वे वो क कि मृगशिर पु ष ण ठ हस्त कु घ ङ आओ पे पो र रि चित्रा के को ह हि पुनर्वसु रु रे रो ता स्वाति. हु हे हो मा पुष्य ति तु ते तो विशाखा. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ न नि नु ने अनुराधा. नो ययि यु ज्येष्ठा. ये योजि मूळ. धफ ढ पूर्वाषाढा. ने जो ज जि उत्तराषाढा. जे जो ख निजित् ॥ दिनशुद्धिः ॥ खि खु खे खो श्रवण. ग गि गु गे धनिष्ठा. गोस सि सुशत षिक् से सोद दि पूर्वाजा पद. 5 शऊथ उत्तराजाऊपद. दे दो चचि रेवती. ॥ इति नक्षत्रपादाक्षराणि ॥ हवे कर राशिमां केटलां नक्षत्रो आवे ? ते कहे बे. - कित्ति मिग पुसेसा उ-फ चि विसा जिउ-ख धणी पूना । रेव अ एग डुति चन पायंता बार रासि कमा ॥ २१ ॥ कृत्तिकाना पहेला पादनात सुधी मेष राशि होय बे, मृगशीर्षना बे पादनात सुध वृष राशि होय बे, पुनर्वसुना त्रीजा पादनात सुधी मिथुन ने श्लेषाना चोथा पादनात सुधी कर्क राशि होय वे. एज प्रमाणे उत्तराफाल्गुनीना एक पाद सुधी सिंह, चित्राना बे पाद सुधी कन्या, विशाखाना त्रण पाद सुधी तुला, ज्येष्ठाना चार पाद सुधी वृश्चिक, उत्तराषाढाना एक पाद सुधी धन, धनिष्ठाना बे पाद सुधी मकर, पूर्वाजाsपदना ण पाद सुधी कुंज छाने रेवतीना चार पाद सुधी मीन राशि होय बे. २१. तेनुं यंत्र. - १ मेष - अश्विनी ४, जरणी ४, कृत्तिका १. २ वृष – कृत्तिका ३, रोहिणी ४, मृगशीर्ष २ . - ३ मिथुन - मृगशीर्ष २, ४, पुनर्वसु ३. ४ कर्क - पुनर्वसु १, पुष्य ४, अश्लेषा ४. चित्रा २. ए सिंह - मघा ४, पूर्वाफाल्गुनी ४, उत्तराफाल्गुनी १. ६ कन्या– उत्तराफाल्गुनी ३, हस्त ४, 9 तुला - चित्रा २, स्वाति ४, विशाखा ३. वृश्चिक - विशाखा १, अनुराधा ४, ज्येष्ठा ४. एए धन - मूळ ४, पूर्वाषाढा ४, उत्तराषाढा १. १० मकर - उत्तराषाढा ३, श्रवण ४, धनिष्ठा २. ११ कुंज - धनिष्ठा २, शतभिषक् ४, पूर्वाभाषपद ३. १२ मीन - पूर्वाभाद्रपद १, उत्तराजा पद ४, रेवती ४. ॥ इति नक्षत्रराशयः ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः॥ ४७ हवे चंजनी बार अवस्था कहे .गय हरिष मया मोया हासा किड्डा रई सयणमसणं । तावा कंपा सुत्था ससिवत्था बार नामफला ॥२२॥ दरेक राशिमा रहेला चंजनी वार अवस्था होय जे ते आ प्रमाणे-गता १, हता २, मृता ३, मोदा ४, हासा ५, क्रीमा ६, रति ७, शयन ७, अशन ए, तापा १०, कंपा ११ अने स्वस्था १२. आ बार चंनी अवस्था पोतपोताना नामनी सदृश फळने थापनारी जे. २२. चंपनी बार अवस्था होवाथी दरेक राशिना बार बार अंशो थया. तेने श्राश्रीने शुनाशुल फळ कहे . परासि बारसंसा असुदा उ चए ज सुहो वि ससी। एयाहिं हव असुहो सुदाहिं असुहो वि हो सुहो ॥२३॥ दरेक राशिना बार बार अंशो बे. तेमां जे अशुन्न अंशो ले ते शुज चंड होय . तोपण वर्जवा, कारण के ए अशुल अंशोए करीने सारो चंड पण अशुन थाय ,अने अशुज चं पण शुन अंशोए करीने शुल बाय बे. २३. दाहिणुच्चो समो चंदो उत्तरुच्चो हलोवमो। धणु वको अ सुखानो नेसासु कमुकमा ॥ २४ ॥ सूर्य संक्रांतिमां नवीन उदय श्रयेल चंड अनुक्रमे करीने तथा उत्क्रमे (उलटा क्रमे) करीने दक्षिण दिशामां उंचो होय, सम होय, उत्तर दिशामां ऊंचो होय, हळ सदृश होय, धनुष जेवो वांको होय शूळ सदृश होय ते श्रेष्ठ , अर्थात् मेष तथा मीन संक्रांतिमां दक्षिण दिशामां ऊंचो होय, वृषन्न अने कुंलमा सम होय, मिथुन अने मकरमा उत्तर तरफ उंचो होय, कर्क अने धनमां हळ समान होय, सिंह अने वृश्चिक संक्रां तिमां धनुष समान वांको होय, कन्या अने तुला संक्रांतिमां नवीन उदय श्रयेल चंग शूळ सदृश होय ते श्रेष्ठ जाणवो. बीजा काळमां अशुन बे. २४. ॥इति चन्अबलम् ॥ हवे ताराबळने कहे बे.जम्मा कम्मं च श्राहाणं तारा अहह अंतरे । सस्सनामफला सवा अंतरा श्थ नामिया ॥२५॥ ५८ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥दिनशुद्धिः॥ संपई आवई खेमा जामा साहण निकणा। मित्ती परममित्ती अपुछा ति सग पंचमा ॥२६॥ जम्मादाणा विवजिजा गमे एयाहिं वाहिजे । कोण जीवई किण्हे परके चंदुत्तरा श्मा ॥२७॥ सत्यावीश ताराने त्रण लाइनमां मूकवी. तेमां पहेली लाश्नमा प्रथम जन्म, बीजी इनमा प्रथम कर्म अने त्रीजीमां प्रथम आधान एम आठ आठ ताराउने श्रांतरे रानी संज्ञा जाणवी. ते पोतपोताना नामनी सदृश फळ आपे बे. हवे आंतरानी व आठ ताराऊनी संझा आ प्रमाणे (२५)-संपद् १, आपद् २, हेमा ३, माप, साधना ५, निर्धना ६, मैत्री ७ अने परम मैत्री . ( नपरनी एक एकने ये गणीए त्यारे नव नव थाय बे.) तेमांत्रीजी, सातमी भने पांचमी तारा दुष्ट २६. तेनो यंत्र नीचे प्रमाणे.जन्म संपद् | श्रापद् क्षेमा । यामा साधना निर्धना मैत्री परम मैत्री __॥ ॥ - श्राधान | ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ आमांथी जन्म अने श्राधान ए बे तारा गमनमा तजवा योग्य बे..त्रीजी, पांचमी, मी, जन्म श्रने आधान आ तारामां व्याधि थर होय तो ते महाकष्टे जीवी शके जे, के प्राये मरणज थाय. कृष्णपक्षमां आ ताराउनुं वळ चंज करतां अधिक होय .२७. ॥इति ताराबलम् ॥ हवे रवि योग कहे .चन बह नवम दसमं तेरस वीसं च सूर रिका। ससिरिकं होश तया रविजोगो असुइसयदलणो ॥॥ पुर्यना नदत्रयी चंघनुं नक्षत्र जो चोथु, बटुं, नवमुं, दशमुं, तेरमुं के वीशमुं होय रवि योग कहेवाय जे. श्रा योग सेंकमो अशुनने नाश करनार बे.२०.इति रवियोगः कुमार योगसोमे नोमे बुहे सुके अस्सिणाई बिरंतरा। पंचमी दसमी नंदा सुहो जोगो कुमारउ ॥ ए॥ सोम, मंगळ, बुध के शुक्रवारे अश्विनी, रोहिणी विगेरे बबे अांतरावाळां (अ. रो. म. ह. वि. मू. श्र. पू-ला.) नक्षत्रमांनुं को एक होय तथा पांचम, दशम के नंदा | कम, बस अने अगीयारश )मांनी को पण तिथि होय तो कुमार योग . ते शुन . . Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः॥ एए राज योगसूरे सुके बुहे नोमे जहा तीया य पुन्निमा। बिंतरा जरणीमुरका राजजोगो सुहावहो ॥ ३० ॥ रवि, शुक्र, बुध के मंगळवारे जत्रा (बीज, सातम अने बारश ), त्रीज के पूर्णिमा होय तथा जरणी, मृगशिर विगेरे बवे अांतरावाळां (न. मृ. पुष्य. पू-फा. चि. अनु. -पा. ध. उ-ना..) नक्षत्रोमांथी को पण होय तो ते राज योग कहेवाय जे. ते खकारक बे. ३०. स्थविर योगथविरो गुरु सणि तेरसि रित्तहमि कित्तिया पुगंतरिया। रुअाणसणाई अपुण(णो)करणं हं कुजा ॥३१॥ गुरुवारे के शनिवारे तेरश, रिक्ता ( चोथ, नोम अने चौदश) के आग्म होय ने कृत्तिकाथी आरंजीने बबे अांतरावाळां (कृ.श्रा. अश्ले.ज-फा. स्वा.ज्ये. उ-पा. . रे.) नक्षत्रोमांथी कोइ पण होय तो ते स्थविर योग कहेवाय . आ योगमां व्याधिनो द (नाश ) श्रने अनशन विगेरे फरीश्री नहीं करवानां कार्यो करवामां आवे . ३१. ____ हवे यमल तथा त्रिपुष्कर योग कहे जे.मंगल गुरु सणि जद्दा मिग चित्त धणिज्यिा जमलजोगो। कित्ति पुण उ-फ विसाहा पू-न उ-खाहिं तिपुकर ॥३२॥ | मंगळ, गुरु के शनिवारे ना तिथि (२-७-१२) होय तथा मृगशिर, चित्रा अने निष्ठा नक्षत्र होय तो ते यमल नामनो योग पाय . तथा तेज वार अने तेज तिथिए हो कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, पूर्वानाप्रपद के उत्तराषाढा होय तो विपुष्कर योग थाय . ३२. पंचक योगः पंचग धणिक अझा मयकिअवजिजा जाम दिसिगमणं । एसुतिसु सुहं असुहं विहिथं पुति पण गुणं हो ॥ ३३॥ धनिष्ठाना अर्ध नागथी रेवति पर्यत (ध. श.पू-ला. उ-ला. रे.) पंचक कहेवाय ने. प्रा योगमां मृतक कार्य तथा दक्षिण दिशामां गमनने वर्जवं. ा त्रणे योगमां करेलु गुज तथा अशुन कार्य अनुक्रमे बम', त्रण गुणुं अने पांच गुणुं थाय . ३३. Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० १ विष्कंन २ प्रीति ३ श्रायुष्मान् १४ सौनाग्य ए शोजन ६ अतिगंग सुकर्मा पण बस्सग नव परिदिएं व ॥ दिनशुद्धिः ॥ विष्कंजादिक २७ योगो धृति ए शूल १० गंग ११ वृद्धि १२ ध्रुव १ १३ व्याघात २० शिव १४ २१ सिद्ध वर्जवाना योंगो - १५ वज्र १६ सि १७ व्यतीपात १० वरीयान् २२ साध्य २३ शुभ २४ शुक्ल २५ ब्रह्मा २६ ऐन्द्र २७ वैधृति. घमिश्रा विकंन डुगंम सूल वाघारं । विदिश विईपाय सयलदिणं ॥ ३४ ॥ विष्कंजनी पांच घमी शुभ कार्यमां वर्ज्य बे, गंग अने छतिगमनी व घमीन, शूळनी सात घी छाने व्याघातनी नव घमीठ वर्ज्य बे. परिघनो अर्ध दिवस वर्ज्य वे तथा वैधृति ने व्यतीपातनो खो दिवस वर्ज्य वे. ३४. नंदादिक २० उपयोगनी उत्पत्ति तथा तेनुं फळ. - सिणि मिग प्रस्सेसा हत्य पुरादाय उत्तरासाढा । सय जिसमे एए सूराइस हुंति मुहरिका ॥ ३५ ॥ निवारे निरिके मुहग लिए जत्तिमं ससी रिकं । तावं तिमोवगो आनंदाई सनामफलो ॥ ३६ ॥ अश्विनी, मृगशिर, अश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढा छाने शतभिषक् या नक्षत्रो अनुक्रमे रवि आदि वारोने विषे मुख नक्षत्रो होय बे, एटले के रविवारे अश्विनी, सोमवारे मृगशिर, मंगळवारे अश्लेषा, बुधवारे हस्त, गुरुवारे अनुराधा, शुक्रवारे उत्तरापाढा ने शनिवारे शतभिषक् मुख नक्षत्र कहेवाय वे. ३५. हवे पोताने वारे पोतानुं नक्षत्र मुख नक्षत्रथी गएवं गणतां जेटलामुं चंद्र नक्षत्र ( पोतानुं नक्षत्र ) आवे तेटलामो आनंदादिक उपयोग जाणवो. ते उपयोगो पोताना नामनी सदृश फळ आपनारा d. उदाहरण - रविवारे रोहिणी नक्षत्र होय तो ते अश्विनीथी गणतां चोथुं वे बे, तेथ आनंदादिकनो चोथो शुभ उपयोग थयो विगेरे. ३६. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥दिनधिः॥ ४६१ आनंदादिक २० उपयोगनां नाम. १ आनंद | श्रीवत्स | १५ बुंपक ।२५ मुशळ ५ काळदंग | ए वज्र १६ प्रवास २३ गज ३ प्राजापत्य १० मुद्गर १७ मरण २५ मातंग पशुन ११ बत्र १० व्याधि २५ श्य ५ सौम्य १२ मित्र १एसिधि २६ क्षिप्र ६ ध्वांक्ष |१३ मनोज्ञ २० शूळ २७ स्थिर ७ ध्वज १५ कंप १ अमृत २० वर्धमान __ हवे वारने श्राश्रीने शुज तिथि कहे .नवमेगहमी सूरे सोमे बीया नवमिया। जोमे जया य बही अ बुहे जद्दा तिही सुहा ॥३७॥ गुरु एगारसी पुन्ना सुके नंदा य तेरसी। सणि मि अहमी रित्ता तिही वारेसु सोहणा ॥ ३० ॥ रविवारे नोम, एकम अने श्राम ए तिथि शुक्ल के. सोमवारे बीज अने नोम शुन वे. मंगळवारे जया (३-७-१३) अने उस शुल बे. बुधवारे नातिथि (२--१२) शुल बे. ३७. गुरुवारे अगीयारश अने पूर्णा ( ५-१०-१५) शुन बे. शुक्रवारे नंदा (१-६-११) अने तेरश शुन्न . तथा शनिवारे श्रापम अने रिक्ता तिथि (ध-ए-१४) शुन . ३७. __ हवे वारने श्राश्रीने शुल नक्षत्रो कहे जे.रेवस्सिणी धणिहा य पुण पुस्स तिउत्तरा। सूरे सोमंमि पुस्सो थ रोहिणी अणुराहया ॥ ३५ ॥ नोमे मिगं च मूलं च अस्सेसा रेवई तहा। बुदे मिगसिरं पुस्सा सेसा सवण रोहिणी ॥४०॥ जीवे हत्थ स्सिणी पू-फ विसाहाग रेवई। सुक्के ज-फा ज-खा हत्थं सवणाणु पुणस्सिणी ॥४१॥ सणि मि सवणं पू-फा महा सयनिसा सुहा । पुवत्ततिदिसंजोगे विसेसेण सुहावहा ॥ ४२ ॥ १ मुहूर्त चिंतामणिमां त्रीजो धूम्र अने चोथो प्राजापत्य एटलो आ साथे फरक छे. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ॥ दिनशुद्धिः ॥ रविवारे रेवती, अश्विनी, धनिष्ठा, पुनर्वसु, पुष्य के ऋण उत्तरा (उत्तराफागुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद ) होय, सोमवारे पुष्य, रोहिणी के अनुराधा होय. ३८. मंगळवारे मृगशिर, मूळ, अश्लेषा के रेवती होय, बुधवारे मृगशिर, पुष्य, अश्लेषा, श्रवण के रोहिणी होय. ४०. गुरुवारे हस्त, अश्विनी, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा धिक ( विशाखा ने अनुराधा ) के रेवती होय, शुक्रवारे उत्तराफागुनी, उत्तराषाढा, हस्त, श्रवण, अनुराधा, पुनर्वसु के अश्विनी होय. ४१. तथा शनिवारे श्रवण, पूर्वाफागुनी, मघा के शतभिषक् होय तो ते शुन बे. तेमां पण उपर कहेली शुभ तिथिनो संयोग होय तो विशेषे करीने शु . ४२. मृत सिद्धि योग - इत्थं मिग सिणी चेवारादा पुरुस रेवई । रोहिणी वारजोगेणा मिश्र सिद्धिकरा कमा ॥ ४३ ॥ रविवारे दस्त नक्षत्र होय, सोमवारे मृगशिर होय, मंगळवारे अश्विनी, बुधवारे अनुराधा, गुरुवारे पुष्य, शुक्रवारे रेवती ने शनिवारे रोहिणी होय तो ते अमृतसिद्धि योग थाय बे. ते अत्यंत शुन बे. ४३. उत्पात, मृत्यु, काण छाने सिद्धि योग विषे. - वारेसु कमसो रिका विसादाइ चऊ चऊ | उपायमच्चुकांणारक सिद्धिजोगावा जवें ॥ ४४ ॥ रवि आदिक वारोमां अनुक्रमे विशाखा विगेरे चार चार नक्षत्रो मूकवां. तेम करवायी अनुक्रमे उत्पात, मृत्यु, काण छाने सिद्धि योगो थाय बे. ते नीचेना यंत्रथी जाणवु. ४. रवि सोम मंगळ बुध गुरु शुक्र शनि उत्पातविशाखा पूर्वाषाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उत्तराफाल्गुनी मृत्यु अनुराधा उत्तराषाढा शतभिषक् अश्विनी मृगशिर अश्लेषा हस्त काण ज्येष्ठा अनिजित् पूर्वाभाषपद चरणी आर्द्रा मघा चित्रा सिद्धि | मूळ श्रवण उत्तराजा कृत्तिका पुनर्वसु पूर्वाफाल्गुनी स्वाति. यमघंट तथा ग्रह जन्मनक्षत्र. मविया मू कि रो द सूराइसु वऊपिऊ जमघंटा । जचि उ-ख ध उ-फा जे रे इ सुदा जम्मरिरका य ॥४५॥ रविवारे मघा, सोमवारे विशाखा, मंगळवारे आर्षा, बुधवारे मूळ, गुरुवारे कृत्तिका, शुक्रवारे रोहिणी ने शनिवारे हस्त होय तो यमघंट थाय बे. ते अशुभ बे. तथा जरणी, चित्रा, उत्तराषाढा, धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, ज्येष्ठा अने रेवती ए सात रवि आदिक Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः॥ ४६३ वारना जन्मनक्षत्र ने ते पण अशुल बे, एटले के रविवारे जरणी नक्षत्र होय तो ते दिवसे शुन्न कार्य करवू नहीं विगेरे.४५. __ कर्क योगगुरि सयनिस सणि उत्तरसाढा एया विवझाए पायं । बारसि एगेगहीणा सूराश्सु ककजोगु चए ॥४६॥ गुरुवारे शतभिषक् होय अने शनिवारे उत्तराषाढा होय तो ते प्राये वर्ण्य . तथा बारशश्री एक एक तिथि हीन करी रविश्रादिक वारने विषे होय तो ते कर्क योग थाय बे. ते श्रशुन ने, एटखे के रविवारे बारश होय, सोमवारे अगीयारश होय, मंगळवारे दशम होय, एम गणतां बेवटे शनिवारे होय तो कर्क योग थाय . ते त्याग करवो. ४६. हवे वारने आश्रीने अशुल तिथि कहे जे.बहि सत्तमि गार चउद्दसी सूरि सोमि सग बार तेरसी। मंगले ग गारसी बुहे वजाए ग चन्दसी जया ॥४॥ बहिचउत्थि सहनदया गुरु सुकि बीथ सह ती रित्तया । पुन सत्तमि सणि मि सबदा वजाए इथ तिही विसेसः ॥ ४ ॥ रविवारे बछ, सातम, अगीयारश अने चौदश अशुन बे. सोमवारे सातम, बारश अने तेरश, मंगळवारे एकम अने अगीयारश, बुधवारे एकम, चौदश अने जया (३-७-१३) ए तिथिलं वर्जवा योग्य जे. ४७. गुरुवारे बक, चोथ अने नपा (२-४-१२), शुक्रवारे बीज, त्रीज ने रिक्ता (-ए-१४) तथा शनिवारे पूर्णा (५-१०-१५) अने सातम ए तिथि विशेषे करीने सर्वथा वर्ण्य . ४७. ॥इति योगाः॥ ___ हवे अण प्रकारचं गंमांत तथा तेनुं फळ कहे बे.चरमाश्मतिहिलग्गरिक मलेगदोघमिश्रा। तिऽसत्तंतरि मुत्तुं पुणो पुणो तिविद गंमंतं ॥ ४ ॥ न न लनए अत्थं शहिदहो न जीवई। जा वि मरई पायं पत्थि न निअत्तई ॥५०॥ नेही अने पहेली तिथिने मध्ये ( वच्चे ), बेला अने पहेला लग्नने मध्ये तथा बेला अने पहेला नक्षत्रने मध्ये अनुक्रमे एक, अर्ध अने बे घमीनुं गंगांत आवे . त्यारपी तिथिमा त्रण त्रणने श्रांतरे, लग्नमां बबेने अांतरे अने नदनमा सात सातने अांतरे बबे तिथ्यादिकनी वच्चे तेटलाज प्रमाणवाळु गंमांत होय , तेथी दरेकने आश्रीने त्रण Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ॥ दिनशुद्धिः॥ त्रण वार गंमांत श्रावे . ते नीचेना यंत्रथी जाणवू. ए. गंमांतमां नाश पामेली वस्तु फरी प्राप्त अती नथी, सर्पथी मसायो होय तो ते जीवतो नथी, कोश बाळकनो जन्म थयो होय तो ते प्राये जीवतो नथी तथा परदेश गयो होय ते पागे धावतो नथी. ५०. त्रण प्रकारना गंमांतनुं यंत्र.नाम | बेनी वच्चे । वेनी वच्चे । वेनी वच्चे । घमी. तिथि गंमांत १५- १ ५ -६ १०-११ एक घमी. लग्न गंमांत | मीन-मेष । कर्क-सिंह | वृश्चिक-धन अर्ध घमी. नक्षत्र गंमांत रेवती-अश्विनी अश्लेषा-मघा ज्येष्ठा-मूळ । बे घमी. | __वज्रपात योगबीआणुराह तीथा तिगुत्तरा पंचमी महरिकं । रोहिणि बही करमूल सत्तमी वजपा यं ॥५१॥ बीजने दिवसे अनुराधा होय, त्रीजने दिवसे त्रण उत्तरा (उत्तराषाढा, उत्तराफागुनी अने उत्तरानापद )मांथी को एक होय, पांचमने दिवसे मघा नक्षत्र होय, उच्ने दिवसे रोहिणी होय तथा सातमे हस्त के मूळ होय तो वज्रपात योग थाय ने. ते योग अशुन वे. ५१. हवे मृतक अवस्थावाळां नक्षत्रोने कहे .मूलदसाइचित्ता असेससयजिसय कित्तिरेवश्या। नंदाए नहाए नदवया फग्गुणी दो दो ॥५॥ विजयाए मिग सवणा पुस्सस्सिणि नरणि जिक रित्ताए । आसाढग विसाहा अणुराद पुणवसु महा य ॥ ५३॥ पुन्नाश्करधणिहा रोहिणि श्थ मयगवत्थरिका। नंदिपश्ठापमुहे सुहको वजए मश्मं ॥५४॥ नंदा तिथिए मूळ, आर्जा, स्वाति, चित्रा, अश्लेषा, शतभिषक्, कृत्तिका के रेवती होय, ना तिथिए बे लाजपद (पूर्वा तथा उत्तरा) अने बे फागुनी (पूर्वा तथा उत्तरा) होय. ५२. विजया (जया)तिथिए मृगशिर, श्रवण, पुष्य, अश्विनी, नरणी के ज्येष्ठा होय, रिक्ता तिथिए बे आषाढा (पूर्वा तथा उत्तरा), विशाखा, अनुराधा, पुनर्वसु के मघा होय. ५३. अने पूर्णा तिथिए हस्त, धनिष्ठा के रोहिणी होय तो श्रा सर्व १ नारचंद्रमा चोथने रोहिणी वअपात कहेल छे. २ पुव्व इति प्रत्यंतरे. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः॥ ४६५ मृतक अवस्थावाळा नक्षत्रो कहेवाय , माटे तेमां मतिमान पुरुषे दीक्षा, नंदी, प्रतिष्ठा विगेरे शुल कार्य वर्जवा योग्य वे. ५४. नक्षत्रोनी तीक्ष्ण उग्र विगेरे संज्ञा तथा तेनुं फळ कहे .जिदाऽसेस मूलं च तिरका रिका विवाहिआ। मिळणि मिग चित्ता य रेवई अणुराया ॥ ५५ ॥ पुस्सो श्र अस्सिणी हत्थं अनिई लहुश्रा श्मे । जग्गाणि पंच रिकाणि तिपुवा जरणी महा ॥ ५६ ॥ चरा पुणवसू साई सवणाशतिरं तहा। धुवाणि पुण चत्तारि उत्तराणि श्र रोहिणी ॥५॥ विसाहा कित्तिथा चेव दो अ मिस्सा विश्राहिया। तिरके ति गिळं कारिजा मिऊ गहणधारणे ॥ ५ ॥ लहू चरे सुहारंजो उग्गरिके तवं चरे। धुवे पुरपवेसाई मिस्से संधिकिअं करे ॥५॥ ज्येष्ठा, श्रा, अश्लेषा अने मूळ एटलां नक्षत्रो तीदण कह्यां . मृगशिर, चित्रा, रेवती श्रने अनुराधा एटलां मृऽ कह्यां बे. ५५. पुष्य, अश्विनी, हस्त अने अन्निजित् श्रा नक्षत्रो लघु . त्रण पूर्वा (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वानापपैद ), नरणी श्रने मघा ए पांच नक्षत्रो उग्र . ५६. पुनर्वसु, स्वाति अने श्रवणादि त्रण (श्रवण, धनिष्ठा भने शतभिषक् ) ए चर बे. त्रण उत्तरा (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा ने उत्तराजापद) अने रोहिणी ए चार ध्रुव . ५७. विशाखा अने कृत्तिका ए बे मिश्र कह्यां जे. तेमां तीक्ष्ण नक्षत्रोमां औषध शरु करवू सारं बे. वस्तुनुं ग्रहण तथा धारण मृड नक्षत्रमा कराय ने. ५७. लघु नक्षत्रमा शुन्न कार्यनो आरंन करवो. उग्र नक्षत्रमा तप करवो. ध्रुव नक्षत्रमा नगरप्रवेशादिक करवा. तथा मिश्र नक्षत्रमा संधिनुं कार्य करवू. एए. प्रस्थान करवा विषेदसधणु जवरं सयपंच मनि पत्थाणि जाव दिण तिचऊ। थायवं लग्गतिहीखणरिकससीबलं घित्तुं ॥६०॥ लग्न, तिथि, क्षण, नक्षत्र श्रने चंधनुं बळ ग्रहण करीने दश धनुषधी उपर अने पांचसो धनुषनी अंदर प्रस्थान स्थापवू. ते प्रस्थान त्रण चार दिवस सुधी रही शके बे.६०. प्रयाणमां शुज लग्नादिकनुं फळ कहे . आ०५९ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ॥दिनशुधिः॥ पहि कुसलु लग्गि तिहि कऊ सिछि लानं मुहूत्त हो। रिकेणं आरोग्गं चंदेणं सुरक संपत्ती ॥१॥ सन्न सारुं होय तो मार्गमां कुशळता रहे , तिथि सारी होय तो कार्यनी सिद्धि थाय ने, मुहूर्त सारुं होय तो लाल थाय ने, नत्र सारूं होय तो शरीरे आरोग्यता रहे जे अने चंग सारो होय तो सुख संपत्ति मळे बे. ६१. प्रयाणमां शुन्न तिथि तथा तेनुं फळ कहे .पाभिवए पमिवत्ती नस्थि विवत्ती नणंति बीयाए । तश्या अत्थ सिद्धी विजयंगी पंचमी जणिश्रा ॥ ६॥ सत्तमिश्रा बहुलगुणा मग्गा निकंटया दस मियाए। आरुग्गिया गारसि तेरसि रिजणो निविजिण॥३॥ परवाने दिवसे प्रयाण करवाथी मार्गमा प्रतिपत्ति थाय, बीजने दिवसे प्रयाण करवाथी विपदा न श्रावे, त्रीजे प्रयाण करवाथी अर्थनी सिद्धि थाय बे, पांचमे विजय थाय . ६२. प्रयाणमा सातम बहु गुणवाळी कही बे, दशमे प्रयाण करवायी मार्ग निष्कंटक (शत्रु रहित) थाय ने, अगीयारशे प्रयाण करवायी श्रारोग्यता रहे डे तथा तेरशे प्रयाण करवायी शत्रुने जीते जे. ६३. प्रयाणमां वर्ण्य तिथिळ.चाउदसिं पन्नरसिं वजिजा अहमि च नवमि च। बहिं चउत्थिं बारसिं च पुन्हं पि परकाणं ॥ ६४॥ बन्ने पखवामीयांनी चौदश, पूनम (अमास ), आठम, नोम, बस, चोथ श्रने बारश एटवी तिथि प्रयाणमां वयं . ६४. तिथि अने नक्षत्रने योगे प्रयाणमां शुज वार कहे .दसमि पंचमि तेरसि बीअगो निगुसु गमणेऽतिसुहावहो । गुरु पुणवसु पुस्स विसेस सयजिसा अणुराद बुहे तहा॥६५॥ शुक्रवारे दशम, पांचम, तेरश के बीज होय तो ते दिवस प्रयाणमां अति सुखावह के. गुरुवारे पुनर्वसु के पुष्य नक्षत्र होय तो ते प्रयाणमा विशेष सुखावह वे. तथा बुधवारे शतभिषक् के अनुराधा होय तो ते पण सुखावह बे. ६५. प्रयाणमां सामान्य शुन्न दिवस कहे .सबदिसि सबकालं सिकिनिमित्तं विहारसमयं मि। पुस्सस्सिणि मिग हत्था रेवश्सवणा गहेयवा ॥६६॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥दिनशुधि॥ सर्व दिशामां सर्व काळे सिधिने निमित्ते विहार (प्रयाण ) समये पुष्य, अश्विनी, मृगशिर, हस्त, रेवती के श्रवण एटलां नत्र ग्रहण करवां. ६६. हवे प्रयाणमां अशुल दिवसो कहे बे.वो वारतियं कूरं पमिवाय चउद्दसी। नवमहमी माहिं तु बुहो वि न सुहो गमे ॥ ६ ॥ प्रयाणमां रवि, मंगळ अने शनि ए त्रणे क्रूर वारने तजवा, तथा बुधवारने दिवसे जो पम्वो, चौदश, नोम के श्रापम होय तो ते बुधवार पण गमनमां शुनकारक नथी. ६७. हवे प्रयाणमां शुन, मध्यम अने अशुज नदत्रो गणावे बे.पुस्सस्सिणिमिगसिररेवश्यं हत्था पुणवसू चेव । अणुराहजिम्मूलं नव नकत्ता गमण सिझा ॥ ६ ॥ रोहिणी तिन्नि उ पुवा सवणधणिहा य सयनिसा चेव । चित्ता साई एए नव नकत्ता गमणि मज्जा ॥ ६ए । कित्तिअनरणिविसाहा अस्सेसमह उत्तरातिअं अदा । एए नव नरकत्ता गमणे अश्दारुणा नणिया ॥ ७० ॥ पुष्य, अश्विनी, मृगशिर, रेवती, हस्त, पुनर्वसु, अनुराधा, ज्येष्ठा अने मूळ, ए नव नक्षत्रो गमनमां सिद्धिदायक . ६७. रोहिणी, त्रण पूर्वा (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वालाप्रपैद), श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक्, चित्रा अने स्वाति, ए नव नत्रो गमनमां मध्यम जे. ६ए. कृत्तिका, नरणी, विशाखा, अश्लेषा, मघा, त्रण उत्तरा ( उत्तराफागुनी, उत्तराषाढा, उत्तरानामपद ) अने आओ, ए नव नक्षत्रो गमनमां अत्यंत दारुण कहां ले. . प्रयाणमां नक्षत्रने आश्रीने अशुल समयधुवेहि मिस्से हि पनायकाले, जग्गेहि मन्दि लहू परन्हे। मिऊ पउँसे निसिमनि तिरके, चरे निसंते न सुहो विहारो ॥७॥ ध्रुव श्रने मिश्र नदत्रोमां प्रजातकाळे, उग्र नवमां मध्याह्नकाळे, लघु नक्षत्रमा अपराहकाळे, मृउ नक्षत्रमा प्रदोषकाळे, तीक्ष्ण नक्षत्रमा मध्यरात्रिए अने घर नक्षत्रमा रात्रिने अंते (परोढीए) विहार (प्रयाण ) करवो ते शुल नथी. ७१. हवे परिघनुं स्वरूप तथा तेनो उलंघननो निषेध कहे . पुवाइसु सग सग कित्तिा दिसि रिक सदिसि हुँति सुहा। घरदिसि मला वायरिंग परिहरेहा न लंघिजा ॥ २॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ पूर्वादिक चार दिशामां अनुक्रमे कृत्तिकाथी आरंजीने सात सात नक्षत्रो मूकवां ते दिशानां नक्षत्रो कहेवाय बे. हवे प्रयाणमां स्वदिशिनुं नक्षत्र शुभकारक बे. पूर्व दिशान नक्षत्रोमां उत्तरमां गमन करवुं, तथा उत्तर दिशानां नक्षत्रोमां पूर्वमां गमन करवुं ए घरदिशि कहेवाय बे. तेमज दक्षिण दिशानां नक्षत्रोमां पश्चिम तरफ गमन कर पश्चिम दिशानां नक्षत्रोमां दक्षिण तरफ गमन करवुं ते पण घरदिशि कहेवाय बे. ते घरदिशिनां नक्षत्रोमां गमन करवुं ते मध्यम बे. वायु खूणाथी आरंजीने अग्नि खूणा सुधी मी परिघनी रेखा बे ते परिघ रेखानुं उल्लंघन करवुं नहीं. ७२. परिघ यंत्र - पूर्व कृ. रो. मृ. आ. पुन. पु. अश्ले. ४६० उत्तर धनि. शत. पूजा. उ-ना. रे. अ. जर. म.पू. फा. उ-फा. ह. चि. स्वा. विशा. दक्षिण अनु. ज्ये. मू. पू- पा. - पा. नि. श्रव पश्चिम वे दिक्शूळ तथा विदिक्शूळ कहे बे. - सूलं पुत्रं सणी सोमो दाहिणाए दिसा गुरू । पश्चिमा रवी सुक्को उत्तराए कुजो बुहो ॥ ७३ ॥ ईसा छ बुहो मंदो अग्गीई अ गुरू रवी । नेरइएससी सुक्को भूमो वाए विवऊए ॥ ७४ ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ ४६ए शनिवारे ने सोमवारे पूर्व दिशामां शूळ होय बे, गुरुवारे दक्षिणमां शूळ होय बे, रवि ने शुक्रवारे पश्चिम दिशामां, मंगळ ने बुधे उत्तर दिशामां शूळ होय ते. ७३. बुधवारे ने शनिवारे ईशान खूणामां शूळ होय बे, गुरुवारे अने रविवारे अग्नि खूणामां शूळ होय बे, सोम ने शुक्रवारे नैर्ऋत्य खूणामां तथा मंगळवारे वायव्य खूणामां शूळ दोय बे. ते बन्ने शूळ वर्जवा योग्य बे, एटले के जे दिशामां अथवा विदिशामां शूळ होय ते दिशा अथवा विदिशामां प्रयाण करवुं नहीं. ७४. कारणे दिक्शूळमां अथवा विदिक्शूळमां जवुं पके तो नीचेना पदार्थोनुं तिलक करीने जवाथी शूळनो दोष नथी. ते कहे बे. - चंदणं दहि मही अ तिलं पिठं तदा पुणो । तिनं खलं च चंदिका सूराई सूलमुत्तरो ॥ ७५ ॥ रविवारे चंदन, सोमवारे दहीं, मंगळवारे माटी, बुधवारे तेल, गुरुवारे पिष्ट (आटो), शुक्रवारे तेल ने शनिवारे खोळनुं तिलक करीने प्रयाण करवुं. तेम करवाथी शूळ उत्तम (शु) थाय बे. अर्थात् शूळनो दोष लागतो नयी. १५. दिशाने श्रीने नक्षत्रशूळ कहे बेउदय दिसि जसूलं दो असाढा य जिठा, धणिसवणविसाहा प्रूव नद्दा जमाए। द वरुण दिसाए रोहिणीपुस्समूलं, सुरगिरि दिसिहत्थो फग्गुणी दो विसादा अषाढा ( पूर्वाषाढा अने उत्तराषाढा ) तथा ज्येष्ठा नक्षत्र होय तो पूर्व दिशामां नक्षत्रशूल थाय बे. धनिष्ठा, श्रवण, विशाखा ने पूर्वाजापद नक्षत्र होय तो दक्षिण दिशामां नक्षत्रशूळ थाय बे. रोहिणी, पुष्य अने मूळ नक्षत्र होय तो पश्चिम दिशामां नक्षत्रशूळ होय बे, तथा हस्त, वे फाल्गुनी (पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी) ने विशाखा होय तो उत्तर दिशामां नक्षत्रशूळ होय बे. श्र नक्षत्रशूळ पण प्रयाणमां शुज नथी. ७६. वे वत्स कहे बे. - -- मीणाइतिसंकंती पश्चिमासु उग्गइ। वो गमे पवेसे विन सुद्दो पिहि संमुहो मीन वगेरे संक्रांतिमां पश्चिमादिक दिशामां वत्स उगे बे, एटले के मीन, मेष ने वृष संक्रांतिमां पश्चिम दिशाए उगे बे, मिथुन, कर्क ने सिंह संक्रांति होय त्यारे उत्तरमां उगे बे, कन्या, तुला अने वृश्चिक संक्रांति होय त्यारे पूर्वमां उगे बे, तथा धन, मकर ने कुंज संक्रांति होय त्यारे वत्स दक्षिणमां उगे बे. ते वत्स प्रयाणसमये तथा प्रवेशसमये पण सन्मुख के पवाने होय तो ते सारो नथी, अर्थात् वाम ( काबे ) तथा दक्षिण ( जमणे ) जागे होय तो ते सारो बे. 99. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ ed योगिनी (जोगणी ) कहे बे. इगनवगाइकमा तिहि पुबुत्तरग्गिनेरदा दिए । पमिवाईसाणो जोइणि सा वामपिठि सुहा ॥ ७८ ॥ एकम ने नोम विगेरे तिथिना क्रमे करीने पूर्व, उत्तर, अग्नि, नैर्ऋत्य, दक्षिण, पश्चिम, वायव्य ने ईशानमां योगिनी होय बे. ते प्रयाणसमये वाम जागे अथवा पनवामे होय तो शुभ बे. ७०. ४१० योगिनी यंत्र. - दिशा | पूर्व | उत्तर | अग्नि नैर्ऋत्य | दक्षिण पश्चिम | वायव्य | ईशान हवे तत्काळनी योगिनी कहे बे. - दिदिसि धुरि चउघडिया पर पुत्तदिसिहि कमसो । तक्कालजोइणी सा वोयवा पयत्तेण ॥ ७९ ॥ (अमास) | जे दिशाए जे दिवसे योगिनी होय ते दिवसे ते दिशाए पहेली चार घमी तत्काळ योगिनी रहे बे. त्यारपवी पूर्वनी गाथामां कहेली दिशाना अनुक्रमे दरेक दरेक दिशाए चार चार घमी फरती फरे बे. ते तत्काळ योगिनी प्रयत्ने करीने एटले अवश्य वर्जवा योग्य बे. ७ ए. राहुविचार. - उदयत्थमणा चउ च घडियाई राहु पुवदिसि तत्तो । सिद्धीए दिसि बहिं गर्न सुदो पुछिदाहिए ॥ ८० ॥ दररोज सूर्यना उदयसमये छाने अस्तसमये राहु पहेली चार चार घकी पूर्व दिशामां होय . त्यापी सिद्धिने माटे बडी बही दिशाए चार चार घमी रहे बे, एटले के सूर्योदयथी पहेली चार घमी सुधी पूर्वमां, बीजी चार घमी वायव्यमां, त्रीजी चार घमी दक्षिणमां, चोथी चार घमी ईशानमां, पांचमी चार घमी पश्चिममां, बही चार घमी अग्नि खूणामां, सातमी चार घमी उत्तरमां ने श्रमी चार घमी नैईत्यमां. त्यारपबी पाठी बी दिशाए एटले पूर्वमां अस्तसमये आवे बे. या राहु प्रयाणसमये पवा तथा दक्षिण (जमणी ) बाजुए रह्यो होय तो ते सारो बे. ८०. शिवविचार. - चित्तुत्तरिगडुमासा दिसि विदिसि विसिहि सिवु तर्ज उदया । सिहि ढाई पण घडि दिसि विदिसिं पुठिमुहि सुहो ॥ ८१ ॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ ४७१ चैत्र मासथी उत्तर दिशाने आरंजीने संहारवमे ( उत्क्रमवमे) दिशामां एक विदिशिमां बे मास ए प्रमाणे सूर्योदयसमये होय बे, एटले के चैत्रमां उत्तर , वैशाख अने ज्येष्ठमां वायव्य खूणे, अषाढ मासमां पश्चिम दिशाए, श्रावण भाऊपदमां नैईत्य खूणाए, आश्विन मासमां दक्षिण दिशाए सूर्योदयसमये होय दि. जे मासमां जे दिशा विदिशामां कहेल बे त्यांथी आवे दिशामां क्रमे करी दिशामां छाढी घमी ने विदिशामां पांच घमी ए प्रमाणे फरे बे. तात्पर्य एबे के आसमां सूर्योदयसमये प्रथम अढी घमी उत्तरमां, पबी पांच घमी ईशानमां, पी मी पूर्वमां इत्यादिक्रमे फरे बे. वैशाख तथा ज्येष्ठ मासमां प्रथम पांच घमी वायव्य पी श्रढी घमी उत्तरमां ए क्रमश्री सदा फरे बे. या शिव प्रयाणसमये पाबळ 'जमणो दोय ते शुभकारक बे. ०१. शिवयंत्र या प्रमाणे वायव्य वैशाक ज्येष्ठ घमी ए पश्चिम अषाढ घमी शा श्रावण भाद्रपद घमी नैत्य उत्तर चैत्र घमी || शिवचक्र श्रश्विन घमी ॥ दक्षिण रविविचार. - ईशान माघ फाल्गुन घडी ए पूर्व पोष घमी शा अनि कार्तिक मार्गशीर्ष घमी रवि रत्तिनंतपाठे पुवाइ पुन्नि पुन्नि पहर कमा । दादिपुडि विहारे वामो पुछि पवेसि सुहो ॥ ८२ ॥ त्रिना बेला पहोरथी बबे पहोर सुधी रवि पूर्वादिक चार दिशाउंमां होय बे, के रात्रिनो बेलो तथा दिवसनो पहेलो ए वे पहोर सुधी रवि पूर्वमां होय बे. बीजो तथा त्रीजो प्रहर दक्षिणमां, चोथो तथा पांचमो प्रहर पश्चिममां, बहो तथा मो प्रहर उत्तरमां, पी श्रावमो प्रहर रात्रिना तनो होवाथी पूर्वमां आवे छे. श्र प्रयाणमां दक्षिण ( जमणो ) तथा पाबळ सारो बे, अने प्रवेशमां माबो तथा छ सारो बे. ०२. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः॥ चंडविचार.उदयवसा अहवा दिसिदारजवस हवे ससीउद। सो अनिमुहो पहाणो गमणे अमिआई वरसंतो ॥ ३ ॥ उदयना वशथी अथवा दिशि घारना नत्रना वशथी ( सवा बे दिवसे जे चं दी जूदी राशिमां जाय बे ते) चंजनो उदय कहेवाय जे. अमृतने वरसावतो ते चंग याणमां सन्मुख होय तो ते प्रधान ( सारो) . ७३. शुक्रविचार.जहिं जग्ग जहिं दिसि नम जहिं च दारनिहा। . तिहुँ परिसंमुह सुक्क पुण उदज जि श्क्कु गम ॥ ४ ॥ । शुक्र जे दिशामां उगे जे, जे दिशामां जमे अने जे धारनी सन्मुख रहे जे ते त्रणे कारे शुक्र सन्मुख कहेवाय ने, परंतु एक उदयने आश्रीनेज गणाय जे. अर्थात् उदने श्राश्रीने शुक्रनी सन्मुखता प्रयाणसमये वर्जवी. ध. पाश तथा काळ विषे.सियपडिवयाउ पुवाश्सु पासु दसदिसिहिं कालु तयनिमुहो । कुजा विहारि वामो पासो कालो उ दाहिण ॥५॥ शुक्लपक्षना पमवाथी श्रारंजीने अनुक्रमे पूर्वा दिक दश दिशामां पाश होय , टले के सुदि पवाए पूर्वमां, बीजे अग्निमां, त्रीजे दक्षिणमां ए रीते गणतां बाठमे शानमां, नोमे ऊर्ध्व दिशामां अने दशमे श्रधो दिशामां, पनी अगीयारशे पूर्वमां, एम रीने गणतां वद पांचमे अधो दिशामां पाश आवे, थने त्रीजी वार वद बने पूर्वमा रीते गणतां वद अमावास्याए अधो दिशामां आवे. जे दिशाए पाश होय तेनी सन्मुनी दिशाएज काळ होय . प्रयाणसमये पाशने वाम (माबो) करवो अने काळने क्षिण (जमणो ) करवो. ८५. हंस (नामी) विचार.पुन्ननाडिदिसापायं अग्गे किच्चा सया विऊ। पवेसं गमणं कुजा कुणंतो साससंगहं ॥ ६ ॥ | पूर्ण नामीनी दिशाना पगने श्रागळ करीने एटले नसकोरानी जे बाजुमां श्वास परिपर्ण वहेतो होय ते बाजुना पगने श्रागळ करीने विधान पुरुषे श्वासने रुंधीने सदा विश भने गमन करवं. ७६. ॥ इति प्रस्थानम् ॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ हवे चैत्य संबंधी मुहूर्त्तो कहे बे. - चेसु धुवमिन करपुस्स धडिसयनिसासाई । पुस्स तिउत्तर - रे-रो कर मिगसवणे सिलनिवेसो ॥ ८७ ॥ -- चैत्यनुं खात ध्रुव, मृदु, हस्त, पुष्य, धनिष्ठा, शतभिषक् ने स्वाति नक्षत्रमां करवु, तथा पुष्य, त्रण उत्तरा (उत्तराफागुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद), रेवती, रोहिणी, हस्त, मृगशिराने श्रवण एटलां नक्षत्रोमां शिलास्थापन करवुं. ८७. ॥ ८८ ॥ सतसिपुस्सधषिठा मिगसिरधुवमिन एहिं सुवारे । ससि गुरुसिए उइए गिहे पवेसित पडिमा शतभिषक, पुष्य, धनिष्ठा, मृगशिर, ध्रुव ने मृदु, ए नक्षत्रोमा शुभ वारे तथा चंद्र गुरु ने शुक्रनो उदय होय त्यारे प्रतिमाने घरमा प्रवेश कराववो. ८८. तिपुवमूलनरणी विसाहा, सेसा मद्दा कित्ति होमुहाई । रेसिपी हत्यपुषाणु चित्ता, जिहामिगं साइ तिरिठगा ॥ ८‍ ॥ तिउत्तरदासवण तिथं च उमुद्दो रोहिणिपुस्सजुत्ता । भूमीदराई गमागमाई धयावरोवाइ कमेण कुद्धा ॥ ० ॥ ४७३ त्रण पूर्वा (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाषपद), मूळ, जरणी, विशाखा, अश्लेषा, कृत्तिका, आटलां नक्षत्रो अधोमुख कहेवाय बे. रेवती, अश्विनी, हस्त, पुनर्वसु, अनुराधा, चित्रा, ज्येष्ठा, मृगशिर अने स्वाति, एटलां नक्षत्रो तिरवां कहवाय बे. ८. त्रण उत्तरा ( उत्तराफागुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद ), आर्द्रा, श्रवणत्रिक ( श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा ), रोहिणी ने पुष्य, एटलां नक्षत्रो ऊर्ध्वमुख कद्देवाय बे. मां भूमिगृह (जयरा ) विगेरे अधोमुख नक्षत्रमां करवा लायक बे, गमन आगमन विगेरे तिरा नक्षत्रमां करवालायक बे ने ध्वजरोपण विगेरे कार्यो ऊर्ध्वमुख नदत्रोमा करवा लायक बे. ए०. ॥ इति चैत्य निवेशः ॥ हवे प्रतिमानुं नाम पारुती वखते शुं शुं जोवानुं बे ? ते कहे बे. - मत्तं तह रिस्कजोणी, वग्गड नामीगय रिकनावं । विसोवगा देवगणा एवं, सवं गणिका पडिमा जिहा ॥ १ ॥ षमाष्टक, नक्षत्रयोनि, वर्गाष्टक, नामीगत नक्षत्रजाव, विंशोपक ने देवगणादिक, सर्वे प्रतिमानां नाम पारुवामां जोवानां बे. ए१. आ० ६० Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ॥ दिनशुद्धिः ॥ प्रथम षमाष्टक कहे बे. - विसमा मे पीई समान श्रहमे रिक । समं नामरा सिद्धिं परिवए ॥ २ ॥ बी बारसंमि व नवपंचमगं तहा । सेसेसु पीई निद्दिा जइ दुच्चागहमुत्तमा ॥ ए३ ॥ विषम राशि १-३-५-०-०-११ श्री आठमी राशिना स्वामी ने प्रीति होय . सम राशि २-४-६-८ - १०-१२ यी आठमी राशिने शत्रुजाव बे. ते शत्रुजाव जगवंतनी राशिथी प्रतिमा कारापकनी नामराशि सुधी गणीने वर्जवो. ए२. बीजी अने बारमी राशिना तथा नवमी ने पांचमी राशिना स्वामीने परस्पर प्रीति न होय तो ते पश्य वर्जवी. शेष राशिमां प्रीति कहेली बे. ए३. ed त्रयोनि वेर कहे बे. - श्रयमे सपा सप्पासविकाल मेर्समरा । श्रीग में हिसीवग्धो महिंसी पुणो वो ॥ ४ ॥ मिर्गे मिर्गे कुर्केर वनर नलगं वानरो रितुरंगी । हैंरिपसुँ कुर्जर एए रिका कमेण जोणी ॥ एए ॥ अश्विनी विगेरे नक्षत्रोनी अनुक्रमे श्रा प्रमाणे योनिट बे. - अश्विनीनी योनि श्व बे, जरणीनी योनि हाथी बे, कृत्तिकानी मेष, रोहिणीनी सर्प, मृगशिरनी पण सर्प, वर्षानी श्वान, पुनर्वसुनी बिलामो, पुष्यनी मेष, अश्लेषानी बिलामो, मघानी उदर, पूर्वाफाल्गुनीनी नंदेर, उतराफाल्गुनीनी गांय, हस्तनी मेंश, चित्रानी वाघ, स्वातिनी श, विशाखानी वाघ, अनुराधानी मृग, ज्येष्ठानी मृग. ए४. मूळनी कूतरो, पूर्वा- पाढानी वानर, उत्तराषाढानी 'नोळीयो, अभिजितनी 'नोळीयो, श्रवणनी वानर, धनिष्ठानी सिंह, शतभिषकनी अव, पूर्वाजाऽपदनी सिंह, उत्तराजात्रपदनी पशु-गो ने रेवतीनी योनि हाथी बे. एए. समस्सम दिसं कपिमेसं सापरिणादिनउलं । गोवग्घ बिडालुंदर वेरं नामेसु वाि ॥ ९६ ॥ हाथी ने सिंह, अश्व छाने पाको, वानर अने मेष, श्वान ने हरण, सर्प ने नोळीयो, गाय छाने वाघ तथा बिलाको अने बंदर, आउने परस्पर वेर होय बे, माटे Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ वेर वर्जवुं, एटले के प्रतिमाना नामनी नाम पावामां नामनी जे योनि होय ते बन्नेने जो परस्पर वेर होय तो तेनुं नाम वर्ज. ए६. ॥ इति नक्षत्रयोनिवैरम् ॥ ed वर्गाष्टक कहे बे. - रुको बिमालसी हो कुक्कुरसप्पो ा मूसगो हरिणो । मेसो naurus कमेण पुण पंचमे वेरं ॥ ७ ॥ वर्ग (सर्वे स्वर ) नो पति गरुम बे । क वर्गनो पति बिलामो बे । च वर्गनो पति सिंह | ट वर्गनो पति कूतरो छे । त वर्गनो पति सर्प बे । प वर्गनो पति जंदर बे वर्ग ( यरलव) नो पति हरण बे । तथा श वर्ग ( श प स ह )नो पति मेष ( घेटो) । अकारादि व वर्गना गरुमादि व स्वामी के तेमने क्रमे करीने पोताना वर्गपतिथी पांच पांच वेर बे. ते वर्गवेर पण वर्जवुं. एg. हवे नाममां रहेलां नक्षत्रना जावने कहे बे. - सिणाइतिनामीए इगनाडिगयं सुहं नवे रिकं । गुरुसी साणं तारा वजित तिपंचसत्तत्या ॥ ए८ ॥ ने प्रतिमा जरावनारना ४७५ श्व विगेरे नव नव नक्षत्रोनी त्रण नामी ( लाइन ) करवी, तेमां गुरु ने शिष्यनुं नक्षत्र एकज नामीमां आव्युं होय तो ते शुज बे. वळी गुरु ने शिष्यनी त्रीजी, पांचमी ने सातमी तारा आवती होय तो ते वर्ज्य बे. एन्. नामीयंत्र स्थापना. - मपूर हे चि स्वावि अज्ये पूज् वे विंशोपक कहे . - सिद्धसागधुररकर वग्र्गके कमुकमिण अविजत्ते । सेस श्रद्धकय लग्नविसो पछिमा खलु अग्गगणं ॥ ए‍॥ सिद्ध (गुरु) ने साधक ( शिष्य ) ना नामना पहला अक्षरनो जे वगाक होय ते बन्ने त्रांकने क्रमे तथा उत्क्रमे ( उलटा सुलटा ) मूकवा, पक्षी तेने वे जाग देवो. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ . ॥ दिनशुद्धिः॥ वाकी जे शेष रहे तेने अर्ध करतां जे संख्या आवे तेटला विंशोपक ( वसा ) पहेखा वर्गाकवाळा पासे बीजो वर्गाकवाळो मागे. जेमके गुरुना नामनो पहेलो अदर द एटले पांचमो वर्ग, अने शिष्यना नामनो पहेलो अदर प एटले बो वर्ग बे. तेने क्रमे करीने मूकवाथी ५६ श्राय, तेने आठे नाग देतां शेष कां पण रहेतुं नथी, माटे पहेला वर्गाकवाळा गुरु पासे बीजा वर्गाकवाळो शिष्य कां पण मागतो नथी एम समजबुं. हवे तेज आंकने उत्क्रमे मूकवाथी ६५ थाय , तेने आये नाग देतां बाकी एक शेष रहे , तेने अर्ध करतां अ? विंशोपक आवे , माटे पहेला आंकवाळा शिष्य पासे बीजा आंकवाळा गुरु अर्ध विंशोपक मागे एम समजवु. एए. हवे देवगणादिक कहे .देवस्सिणिपुणपुस्सा करसामिगाणुसवणरेवश्था । मणुष तिपुवतिउत्तर रोहिणि नरणी अ अदा य ॥ १० ॥ कित्तिाविसादचित्ता धणिजिहाउसेसतिन्नि पुग रका । सगणे पीई नरसुर मता सेसा पुणो असुदा ॥ ११ ॥ अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाति, मृगशिर, अनुराधा, श्रवण अने रेवती, श्रा नव नत्रो देवगण जे. त्रण पूर्वा, त्रण उत्तरा, रोहिणी, जरणी अने आओ, श्रा नव नक्षत्रो मनुष्यगण बे. १००. तथा कृत्तिका, विशाखा, चित्रा, धनिष्ठादिक एटले धनिष्ठा श्रने शतनिषा, ज्येष्ठाधिक एटले ज्येष्ठा अने मूळ तथा अश्लेषाधिक एटले अश्लेषा अने मघा, श्रा नव नक्षत्रो राक्षसवर्ग बे. तेमां गुरु शिष्यादिकनां बन्ने नामोनां नक्षत्रो एकज गणमां होय तो परस्पर घणी प्रीति रहे, एकनो मनुष्यवर्ग अने बीजानो देववर्ग होय तो मध्यम प्रीति रहे, ते सिवायना वर्ग होय तो ते अशुल बे. १०१. ॥इति प्रतिमाधारणागतिः शिष्यनामकरणं च ॥ हवे विद्यारंन विषे कहे जे.गुरू बुहो अ सुक्को अ सुंदरा मज्झिमो रवी । विजारंने ससी पावो सणी नोमा य दारुणा ॥ १० ॥ मिगसिर-अदा-पुस्सो तिनि उ पुवा उ मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता तहा दस वुढिकराई नाणस्स ॥ १०३ ॥ विद्यारंजमां गुरु, बुध श्रने शुक्र सुंदर बे, रविवार मध्यम , सोमवार पापी (5ष्ट) ने अने शनि तथा मंगळ श्रतिजयंकर (अति उष्ट) . १०२. मृगशिर, आओ, पुष्य, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥दिनधिः ॥ त्रण पूर्वा (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाजाप्रपद), मूळ, अश्लेषा, हस्त अने चित्रा, श्रा दश नक्षत्रो ज्ञाननी वृद्धि करनारां बे. १०३. ___ लोचकर्म विषे.पुणवसु श्र पुस्सो थ सवणो अ धणिज्यिा। एएहिं चनहिं रिकेहिं लोअकम्माणि कारए ॥ १४ ॥ कित्तिाहिं विसाहाहिं महाहिं नरणीहि अ। एएहि चाहिं रिकेहि लोअकम्माणि वजाए ॥ १०५॥ पुनर्वसु, पुष्य,श्रवण अने धनिष्ठा, आ चार नक्षत्रोमां लोचकर्म करवू शुन . १०४. कृत्तिका, विशाखा, मघा अने नरणी, या चार नक्षत्रोमां लोचकर्म वयं . (अर्थात् था श्राप सिवायनां बीजां नक्षत्रो मध्यम बे.) १०५. __कर्णवेध तथा राजाना दर्शनना नक्षत्रो.मिग-अणु-पुण-पुस्ता जिह-रेवऽस्सिणीया, सवण-कर-सचित्ता सोहणा कन्नवेहे। कर-सवणऽणुराहा-रेव-पुस्सास्सिणीआ, मिग-धणि-धुव-चित्ता दंसणे नूवईणं ॥ १०६ ॥ मृगशिर, अनुराधा, पुनर्वसु, पुष्य, ज्येष्ठा, रेवती, अश्विनी, श्रवण, हस्त अने चित्रा, एटलां नत्रो कर्णवेधमां सारां बे. हस्त, श्रवण, अनुराधा, रेवती, पुष्य, अश्विनी, मृगशिर, धनिष्ठा, ध्रुव (रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरालाजपद ) थने चित्रा, ए नक्षत्रो राजाना दर्शनमां शुक्ल . १०६. वस्त्रधारण.सूरे जिन्नं ससी अई मलिणं सणि धारिशं । लोमे पुरकावहं होइ वत्थं सेसेहि सोहणं ॥ १०७॥ नवं वस्त्र रविवारे धारण करवाथी (पहेरवाथी) जलदी जीर्ण थाय ने, सोमवारे पहेरवाथी आर्ष (जीनु ) रहे बे, शनिवारे धारण करवाश्री मलिन रहे जे, मंगळवारे पहेरवाश्री पुःखकारक थाय बे, अने बीजा (बुध, गुरु अने शुक्र) वारे नवं वस्त्र पहेरवु सारु . १०७. Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ឧទច ॥दिनशुधिः॥ नवां पात्र वापरवा विषे.मिग-पुस्सऽस्सिणी हत्थाऽणुरादा चित्त-रेवई । सोमो गुरु अ दो वारा पत्तवावारणे सुदा ॥ १० ॥ मृगशिर, पुष्य, अश्विनी, हस्त, अनुराधा, चित्रा अने रेवती, ए नक्षत्रो तथा सोम अने गुरु, ए वे वारो नवां पात्र वापरवामां सारां बे. १०७. गयेली वस्तु पानी श्राववा विषे.जामाश्मुहा चउ चउ असिणाई काण चिबम सांधा। उसु वत्त जा सके अंधे लप गयं वत्थु ॥ १० ॥ दक्षिण दिशाने श्रारंजीने चार दिशामा अश्विनीथी आरंजीने चार नक्षत्रो अनुक्रमे मूकवां. ए रीते अठ्यावीश नत्रो मूकवा. ते अनुक्रमे काणां, चीवमां, सज ( देखतां) श्रने बांधळां कहेवाय बे. तेमां काणां अने चीबमां नत्रमा वस्तु गइ होय तो तेनी वातो थया करे अर्थात् मळवानी आशा रहे के न रहे, सजा नक्षत्रमा गइ होय तो ते वस्तु जायज अर्थात् पाठी आवे नहीं, अने आंधळां नदत्रमा गइ होय तो ते पाठी श्रावे . जे दिशानुं नत्र होय ते दिशामां ते वस्तु गइ एम पण जाणवू. १.ए. नक्षत्रोनो यंत्र.काणां चीबां देखतां अांधळां अश्विनी जरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिर आमो पुनर्वसु पुष्य अश्लेषा मघा पूर्वाफागुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त चित्रा स्वाति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूळ पूर्वाषाढा उत्तराषाढा अनिजित् श्रवण धनिष्ठा शतनिषा पूर्वानापद | उत्तरानापद रेवती वस्तु दक्षिणमां गश्ने वस्तु पश्चिममां गश्ने वस्तु उत्तरमांगने वस्तु पूर्वमां गश्. गयेली वस्तु जोवानी बीजी रीत.रविरिका बब्बाला बारस तरुणा नव परे थेरा। थेरे न जा तरुणेहिं जा बाले जम पासे ॥ १९० ॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः॥ पए सूर्यना नक्षत्रधी उ नक्षत्री बाळक कहेवाय , त्यारपळीनां बार नक्षत्रो जुवान कहेवाय ने अने त्यारपतीनां नव वृष्ठ कहेवाय बे. तेमां वृष्ठ नक्षत्रमा गयेली वस्तु जाय नहीं (पाठी आवे), जुवान नक्त्रमा गइ होय तो गयेली वस्तु जाय (पानी आवे नहीं),अने बाळ नक्षत्रमा गइ होय तो ते पासेज नमे , एटले के बेटे जाय नहीं. ११०. सर्पदंश विषे.विसाहा-कित्तियाऽसेसा मूलदा जरणी महा। एयाहिं अहिणा दठो कोणावि न जीव॥ १११॥ विशाखा, कृत्तिका, अश्लेषा, मूळ, बार्ग, नरणी अने मघा, ए नक्षत्रोमां जो सर्पमंश थयो होय तो ते कष्टे करीने पण ( कोइ पण प्रकारे ) जीवे नहीं. १११. रोगनी शांति जोवा विषे.-. पुण-पुस्स ज-फा ज-ज रोहिणीहिं रोगोवसम सत्तदिणे । मूलऽस्सिणि कित्ति नवमे सवण-नरणि-चित्त-सयनिसेगदसे ११५ धणि-कर-विसाहिं परके मह वीसश्मे ज-खा मिगे मासे। अणुराह-रेवश चिरं तिपुत्व जिहऽद-सेस-साइ-मिश् ॥ ११३ ॥ पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाट्गुनी, उत्तरानाप्रपद अने रोहिणी, ए नदात्रोमां व्याधि थयो होय तो सात दिवसे तेनी शांति थाय , मूळ, अश्विनी अने कृत्तिकामां अयो होय तो नव दिवसे शांति थाय , श्रवण, नरणी, चित्रा अने शतभिषामां थयो होय तो अगीयार दिवसे शांति थाय बे. ११२. धनिष्ठा, हस्त अने विशाखामां थयो होय तो पखवामीये शांति थाय ने, मघामां थयो होय तो वीश दिवसे शांति थाय , उत्त षाढा अने मृगशिरमां थयो होय तो एक मासे शांति थाय ने, अनुराधा अने रेवतीमां थयो होय तो चिर काळे शांति थाय बे, तथा त्रण पूर्वा (पूर्वाफागुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वानाप्रपद), ज्येष्ठा, आर्मा, अश्लेषा अने स्वातिमां व्याधि श्रयो होय तो ते मरणज पामे . ११३. औषध शरु करवानां नक्षत्रो.चरलहु मिउमूले रोगनिन्नासदेऊ, दवर खनु पउत्तं उसहं वाहिआणं । चर, लघु, मृड तथा मूळ, एटलां नत्रोमां व्याधिवाळाने औषध आप्यु होय तो ते रोगना नाशनो हेतु प्राय . करा Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ॥ दिनधिः ॥ रोगथी मुक्त थयेलाना स्नान विपे.निगु-ससि पुण-जिहाउसेस-साश्-महाहिं, न य कहवि विहेयं रोगमुत्ते सिणाणं ॥ ११४ ॥ शुक्रवारे के सोमवारे तथा पुनर्वसु, ज्येष्ठा, अश्लेषा, स्वाति अने मघा, एटलां नक्षत्रमा रोगथी मुक्त श्रयेला मनुष्ये कोश् पण प्रकारे स्नान करवू नहीं. ( एटले माथे पाणी रेम नहीं.) ११४. ___ मृत्यु जोवा विषे.नामनकत्तमकिंकू एकनाडीगया जया । तया दिणे नवे मञ्च नन्नहा जिणनासिकं ॥ ११५ ॥ नामराशिनुं नक्षत्र, सूर्य अने चंड ए त्रणे ज्यारे एक नामीमां आवे त्यारे तेज दिवसे मृत्यु प्राय जे. एम जिनेश्वरनुं वचन डे ते कदापि अन्यथा न होय. ११५. आई अदा मिगं अंते मने मूलं पहिअं। रविंदूजम्मनकत्तं तिविझो न हु जीवई ॥ ११६ ॥ प्रथम श्रा नक्षत्र मूकबु, बेस्टुं मृगशिर मूकवू अने मध्यमां मूळ मूकबु. पनी सूर्य, चंज अने जन्मनुं नक्षत्र ए त्रणेनो वेध थाय तो ते जीवे नहीं. ११६.. स्थापना. अपार धन उहानिकारक ज्वमा उमप शारे रेगिम्य मृतकार्यमां वयं नत्रो.धुवमिस्सुग्गनकत्ता मूलऽहा अणुराहया । पंचगाई रवी जोमा मयको विवजिया ॥ ११७ ॥ ध्रुव, मिश्र अने उग्र नदत्रो, तथा मूल, आर्म अने अनुराधा ए नक्षत्रो, तथा पंचकादिक (पंचक, यमल अने त्रिपुष्कर ) ए योग, तथा रवि अने मंगळ ए वारो मृतकार्यमां वर्दी . ११७. दो पणयालमुहुत्ते तीसमुद्वत्तेगपुत्तलं काउं । नेरश्य दाहिणाए महा परिछावणं कुजा ॥ १२७ ॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥दिनशुधिः॥ ४१ पीस्तालीश मुहूर्त्तनां संजोगीयां नक्षत्रमा बे श्रने त्रीश मुहूर्त्तनां संजोगीयां नक्षत्रमा एक पुतळु करीने नैत्य के दक्षिण दिशामां ते पुतळानी महा परिष्ठापना करवी, एटखे अग्नि संस्कार करवो. ११७. तिन्नेव उत्तराई पुणवसु रोहिणी विसाहा य । एए उनकत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥ ११ ॥ सयनिस-नरणी साई अस्सेस-जिहाद बच्च नरकत्ता । पनरस-मुहुत्तजोगा तीसमुहुत्ता पुणो सेसा ॥ १० ॥ त्रण उत्तरा (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरालापद ), पुनर्वसु, रोहिणी, विशाखा, ए उ नत्रो पीस्तालीश मुहूर्त्तनां संयोगीयां कहेवाय . ११ए. शतभिषा, जरणी, स्वाति, अश्लेषा, ज्येष्ठा अने आओ, ए उ नत्रो पंदर मुहूर्त्तनां संयोगीयां कहेवाय ने, बाकीनां पंदर नक्षत्रो त्रीश मुहूर्त्तनां संयोगीयां कहेवाय बे. १२०. ॥ इति मृतक्रिया ॥ हवे दीक्षा तथा प्रतिष्ठा विषे कहे .मास-दिण-रिकसुधिं मुणिऊणं सिबायधुवलग्गे । बारंगुलम्मि सुके दिकपाश्वं कुजा ॥ ११ ॥ मास, दिवस अने नक्षत्र ए त्रणेनी शुद्धि जाणीने सिख गया अथवा ध्रुव लग्न होय त्यारे अथवा बार आंगळना शंकुनी बाया शुद्ध होय त्यारे दीदा तथा प्रतिष्ठा विगेरे शुन्न कार्यो करवां. १२१. हरिसयण अकम्मण अहियमास गुरिसुकि अस्थि सिसुवुके । ससि नठे न पश्हा दिरका सुक्कस्थि वि न उठा ॥ १२ ॥ हरि शय्यामां सुता होय एटले चतुर्मासमां, अधिक मासमां, गुरु शुक्रनो अस्त होय त्यारे, गुरु शुक्रनी बाल्यावस्था के वृक्षावस्था होय त्यारे तथा चंजनो नाश ( अस्त) होय त्यारे प्रतिष्ठा तथा दीक्षा करवी नहीं. तेमां शुक्रना अस्तमां दीक्षा इष्ट नथी, एटले के मात्र शुक्रनो अस्त होय तो दीक्षा देवामां दोष नथी. १२२. अवजोगकुलिअनदा उक्काई जत्थ तं दिणं वजे । संकंति सादिणतिह गहणे श्गु आश् सग पछा ॥ १३ ॥ भा०६१ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ एम वजोग, कुलिक, जा (विष्टि ) तथा उल्कापात विगेरे जे दिवसे होय ते दिववर्जव. संक्रांतिनो दिवस, तेनी पहेलानो एक दिवस ने तेनी पीनो एक दिवस दिवस वर्जवा. तथा ( सूर्य चंडना ) ग्रहणमां पहेलानो एक दिवस, एक ग्रहनो दिवसाने त्यारपबीना सात दिवस एम नव दिवस वर्जवा. १२३. सुतिही सुवारे सिद्धाऽमियराजजोगपमुहाई । ४८२ जत्य हवंति सुाई सुहको तं दिशं गिऊं ॥ १२४ ॥ वने दिवसे ज्यारे सिद्धि योग, अमृत योग अने राज योग विगेरे शुभ योगो होय ते दिवस शुभ कार्यमां ग्रहण करवो. १२४. दत्थऽणुराहा-साई सवणुत्तर - मूलरोहिणी पुस्सा । as-goat दिकपा सुहा रिका ॥ १२५ ॥ सु, हस्त, अनुराधा, स्वाति, श्रवण, त्रण उत्तरा, मूळ, रोहिणी, पुष्य, रेवती ने पुननत्र दीक्षा ने प्रतिष्ठामां शुज बे. १२५. सिसिय जिस-पू-ना एसु वि दिरका सुहा विणिद्दिया । मह - मिग-धणि- पहा कुका वजित सेसाई ॥ १२६ ॥ उपर कह्यां उपरांत अश्विनी, शतभिषा अने पूर्वाभाषपद, एटलां नक्षत्रोमा प दीक्षा श्रपवी सारी कही बे. तथा मघा, मृगशिर ने धनिष्ठा, ए नक्षत्रोमां पण प्रतिष्ठा करवी, बाकीनां नक्षत्रो वर्ज्य बे. १२६. कारावगस्स जम्मे दसमे सोलसमेार से रिके । वीसे पणवीसे न पहा कह वि कायवा ॥ १२७ ॥ प्रतिष्ठा करावनारना जन्मनुं, दशमुं, सोळमुं, अढारमुं, त्रेवीशमं श्रने पचीश, sarai नक्षत्रो सारा होय तोपण तेमां सर्वथा प्रतिष्ठा करवी नहीं. १२७. संजागयं रविगयं विड्डेरं सग्गदं विलंब च । गर्दा जिन्नं वजए सत्त नरकत्ते ॥ १२८ ॥ राहु शुभ नक्षत्र पण संध्यागत होय, सूर्यगत होय, विड्वर होय, ग्रह सहित होय, विलंबित होय, राहुथी हणायुं होय के ग्रहथी नेदायुं होय, या सात प्रकारनां नक्षत्रो वर्जवा लायक बे. १२८. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ अत्थमणे संकागय रविगय जत्थ हि श्र श्रइचो । विड्डेरमवारिय सग्गह क्रूरग्गदविखं तु ॥ १२७ ॥ श्राच्च पिन ऊ विलंबि राहुदयं जहिं गढ़णं । मने गहो जस्स उ गइ तं होइ गह जिन्नं ॥ १३० ॥ संकायम्मि कलहो होइ विवार्ड विलंबि नरकत्ते । विड्डेरे पर विज आश्चगए अनिवाणं ॥ १३१ ॥ जं सग्गहम्मि कीर नरकत्ते तत्थवि गगहा होइ । राहुम्म मरणं गह जिन्ने सोपि जग्गालो ॥ १३२ ॥ सूर्यास्तसमये जे नक्षत्र पूर्वमां उगे वे ते संध्यागत कहेवाय बे. जे नक्षत्रमां सूर्य रह्यो होय ते र विगत ( सूर्यगत ) नक्षत्र कहेवाय बे. जे नक्षत्र वक्री ग्रहे अधिष्ठित होय ते विवर कदेवाय बे. जे नक्षत्र क्रूर ग्रहे अधिष्ठित होय ते सग्रह कहेवाय बे. १२. जे नक्षत्र सूर्यनी पाबळ होय ते विलंबी कहेवाय बे. जे नक्षत्रमां ग्रहण थयुं होय ते राहत हेवाय बे. जे नक्षत्रनी मध्यमां थइने कोई ग्रह जतो होय ते ग्रहजिन्न कवाय वे. १३०. या संध्यागत विगेरे नक्षत्रोमां कार्य करवाथी शुं फळ याय बे? ते कहे बे-संध्यागत नक्षत्रमां कार्य करवाथी कलह थाय बे, विलंबी नक्षत्रमां करवाथी विवाद थाय बे, विरमां करवायी शत्रुनो जय थाय ब्रे, सूर्यगतमा करवाथी निर्वाण (अशांति ) थाय बे. १३१. जे सग्रह नक्षत्रमां कार्य करे बे तेनो पण ग्रह या वे एटले ते काय बे, राहुहतमां कार्य करवाथी मरण थाय बे ने ग्रह जिन्न नक्षत्रमां कार्य करवाथी लोहीनुं वमन थाय बे. १३२. रविरिकार्ड हेया जवग्गदा पंचमsa - चउदसमा । अहारस उगुंणीसा बावीसा तेवीस चवीसा ॥ १३३ ॥ सूर्य नक्षत्र पांच, आठमुं, चौदमुं, ढारमुं, जंगलशमुं, बावीशमुं, त्रेवीशमुं छाने चोवीश, एटलां नक्षत्रो उपग्रह कहेवाय बे. ते शुभ कार्यमां तजवा योग्य बे. १३३. ॥ इति उपग्रहाः ॥ एकॉर्गल योग विषे. - सेगविसमजोगऊं सम छाऊ चउदसंख सिरिरिकम् । दानं च दस सिलाए ससिरवि इक्कग्गलं वजे ॥ १३४ ॥ ४०३ प्रथम ३७ मी गाथामां विष्कंन १, अतिगंक ६, शूळ ए, गंक १०, व्याघात १३, वज्र १५, व्यतीपात १७, परिघ १५, वैधृति २७, ए नव अशुभ योगो कह्या बे. मां जे Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिनशुद्धिः ॥ विषम ( एकी) संख्यावाळो योग होय तेमां एक वधारीने तेना अर्ध करवा श्रने सम (बेकी ) संख्यावाळो होय तेना अर्ध करी पी चौद वधारवा. जे संख्या श्रावे तेटसामुं नक्षत्र एकार्गव यंत्रने माथे मूकी त्यारपतीनां नक्षत्रो अनुक्रमे मूकवां. ते यंत्र तेर खींटी श्रामी अने एक नजी एम चौद लींटीन कर. पठी सूर्य अने चं जे नहत्रमा होय ते नक्षत्र उपर सूर्य थने चंछ मूकवा. जो ते बन्ने सामसामा आवे तो ते एकागेल वर्जवा योग्य जे. जेमके विष्कंन योग पहेलो . ते विषम , माटे एक उमेरवाथी बे थया. तेने अर्ध करवाथी एक श्राव्यो, तेथी पहेलु अश्विनी नक्षत्र माथे मूकबु. ए रीते गंम योग दशमो . ते सम ले तेने अर्ध करवाथी पांच आवे. तेमां चौद उमेरवाथी उंगणीश श्राय, तेथी उंगणीशमुं मूळ नक्षत्र माथे मूकबुं. शूल योग नवमो ने ते विषम , तेथी तेमां एक उमेरवाथी दश थाय, तेनुं अर्ध पांच थाय, तेथी पांचमुं नक्षत्र मृगशिर माथे मूकवू. १३४. मृगशिर रोहिणीकृत्तिका पुनर्वसु नरणी पुष्य अश्विनी अश्लेषा रेवती मघा उत्तरा पूर्वा उत्तरा शतनिषा धनिष्ठा -चित्रा श्रवण स्वाति अन्निजित् -विशाखा उत्तरा अनुराधा ज्येष्ठा श्रा पूर्वा पूर्वा मळ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ दिनशुचिः॥ हवे पात योग कहे .अस्से म चि अणु सव रे विसमारेदा उ सेसमनिलहिलं ।। • रविरेहस्सिणि गणिए छे रिके विसमि पाउ ॥ १३५ ॥ अश्लेषा १, मघा २, चित्रा ३, अनुराधा , श्रवण ५, रेवती ६, श्रा नक्षत्रोथी उत्क्रमे रेखा करी तेमां शेष नक्षत्रो स्थापन करी ज्यां सूर्य नक्षत्र होय त्यांसुधी थान नक्षत्रोथी गणवं. जे जे संख्या आवे अश्विनीथी उत्क्रमे गणतां ते ते संख्यावाळां नदत्रमा पात जाणवो. तात्पर्य ए जे सूर्य कृत्तिकानो ने तो अश्लेषादिक उ नक्षत्रथी सूर्य २५–२१-१७-१४-ए-1 श्राय तो अश्विनीथी उत्क्रमे बावीशमुं विगेरे पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, स्वाति, पूर्वाषाढा बने पूर्वानाप्रपद श्रादि ब नक्षत्रमा पात जाणवो. १३५. रविमुरका निथरिका बार हम तिथ तिवीसं च । पणवीस अभिगवीसं कुणं ति अत्ताहचं रिकं ॥ १३६ ॥ सूर्य जे नक्षत्रमा रहेल होय ते नक्षत्रथी बारमा नक्षत्रने, चं श्रावमा नक्षत्रने, मंगळ त्रीजा नक्षत्रने, बुध त्रेवीशमा नक्षत्रने, गुरु बम नक्षत्रने, शुक्र पचीशमा नक्षत्रने शनि आठमा नक्षत्रने श्रने राहु एकवीशमा नक्षत्रने सत्ता दोषधी हणेलु करे . १३६. ___हवे वेधने कहे जे.सत्त सिलाए कित्तियमाई रिके वित्तु जोएह । गहवेहमिहरिके उवरि अहो वा पयत्तेण ॥ १३ ॥ सात शलाका (लीटी) श्रामी तथा उन्नी करवी. पळी मथाळे कृत्तिकाथी अनुक्रमे २७ नक्षत्रो मूकीने इष्ट नक्षत्रने विषे प्रयत्ने करीने ग्रहनो वेध जोवो, एटले के सप्त शलाका यंत्रमा जे नक्षत्रो मूक्या होय त्यां जे ठेकाणे संजवे ते काणे सर्वे ग्रहो मूकवा. तेमां जो सौम्य ग्रह अने पाप ग्रह सामसामा आवे तो ते वेध समजवो. ते वेध अशुज ने. १३७. Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ज.. श्र. G.. पू.. श. ध. कृ. श्र. अनि. नं. ॥ दिनशुद्धिः ॥ सप्त शलाका यंत्र. श्रा. पुन. पुष्य. - मू. ज्ये. अनु. पंच शलाका यंत्र के ग्रहवेध. - कृ. रो. मृ. आ. पु. पु. अ. भ. भ. रे. 3.. पू.. म. .पू. .उ. पंच सिलाए दो दो रेहा कोणेसु रोहिणी मुरका | दिसि धुरि रिस्का उ कमा वए विलोश्त वेह मिहं ॥ १३८ ॥ पांच शलाकानो यंत्र उपर प्रमाणे करी खूणामां बबे रेखार्ज करवी. पी दिशाने माळे रोहिणीथी अनुक्रमे नक्षत्रो मूकवां पबी उपर प्रमाणे ग्रह मूकीने तेनो वेध दीक्षा विषे जोवो. यंत्र नीचे प्रमाणे. – १३८. - ह. -चि. स्वा, वि. श्रले. श. ध./ श्र. अभि. उ. पू. मू. ज्ये, अनु. मघा पूर्वा -उत्तरा हस्त - चित्रा स्वाति - विशाखा Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया खा विषे.. - सिमलायालग्गं रविकुजबुहजीव संकुपायकमा। एगारस नव श्रम सग अक्षा (नव) सेसवारेसु ॥ १३ ॥ गया खग्न या प्रमाणे सिद्ध थाय .-शंकुना श्रांक अथवा पोतानी गयानां पगलां रविवारे अगीयार, मंगळवारे नव, बुधवारे थाठ अने गुरुवारे सात थाय तथा बीजा वारोमा सामा आठ सामा आव थाय ते वखते गया लग्न कहेवाय जे. ते सर्व कार्यमां शुज जे. १३ए. ध्रुव चक्रनुं फळ.तिरिवगे धुवे दिरका पश्चा सुहकरे। उहिए धयारोव खित्तगाई समायरे ॥ १४० ॥ वरिलो होय त्यारे दीक्षा, प्रतिष्ठा विगेरे कार्य शुभंकर , श्रने ध्रुव ऊर्ध्व रह्यो होय त्यारे ध्वजारोपण तथा क्षेत्र वास्तु विगेरे करवा. अहीं एम समजवु के-ध्रुवना तारानी पासे बे नाना तारा होय जे ते तारा तिरा होय तो ध्रुव तिरगे कहेवायचे, श्रने ते तारा उपर नीचे होय तो ध्रुव पण ऊर्ध्व कहेवाय .. १४०. शंकु गया, लग्न विषे.वीसं सोलस पनरस चउदस तेरस य बार बारेव । रविमाश्सु बारंगुलसंकुलायंगुला सिझा ॥ १४१॥ बार श्रांगळनो शंकु करवो. पनी रविवारे ते शंकुनी गया वीश श्रांगळनी थाय, सोमवारे सोळ आंगळ, मंगळवारे पंदर आंगळ, बुधवारे चौद आंगळ, गुरुवारे तेर आंगळ, शुक्रवारे बार बांगळ तथा शनिवारे पण बार पांगळनी गया थाय त्यारे ते सिझ गया कहेवाय . १४१. प्रथम गोचरी, नंदी विगेरे विषे.तिरकुग्गमिस्स रिकाणि चिच्चा जोमसणिरं । पढमं गोधरं नंदी पमुहं सुहमायरे ॥ १४ ॥ तीदण, उग्र अने मिश्न नक्षत्रोने तथा मंगळ अने शनि ए बे वारने तजीने पहेली गोचरी तथा नंदी (मांद) विगेरे शुन्न कार्य करवां. १५२... Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // दिनशुधिः॥ श्व जोगपश्वा पयमत्थपएहिं विहिश्र उजोथा। मुणिमणनवणपयासं दिणमुछिपईविश्रा कुणउ // 13 // श्रा रीते योगरूपी प्रदीप थकी प्रगट अर्थवाळां पदोए करीने जेनो उद्योत कर्यो / एवी या दिनशुधिरूपी दीपिका मुनिनां मनरूपी नवनना प्रकाशने करो. 153. - सिरिवयरसेणगुरुपट्टनाह सिरिहेमतिलयसूरीणं / __ पायपसाया एसा रयणसिहरसूरिणा विहिबा // 14 // ___ श्री वज्रसेन गुरुनी पाटना स्वामी श्री हेमतिलक सूरिना पादप्रसादथी था दिन शुद्धि रत्नशेखर सूरिए रची जे. // इति श्रीरत्नशेखरसूरिविरचिता दिनशुध्रिप्रदीपिका //