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शारजसिधि॥ धवाथी जे शब्द सिख श्रयो . ते श्रव्ययना प्रकरणमां गणावेतो होवायी थ
ने तेनो अर्थ “परमब्रह्मरूप" थाय . आ श्लोकमां मातृकावर्णनी जेम “हैं ए सिद्धमंत्र सख्यो ने तेनुं प्रयोजन विघ्न रहित इष्ट अर्थनी सिद्धि थाय ते समग्र शुन्न आरंजो ( कार्यो)नी सिधिमां विघ्नरहितपणाना उत्पन्न करनार था षणव युक्तिए करीने "श्रारंसिद्धि" एव॒ आ ग्रंथर्नु नाम पण सूचव्यु जे. तथ करवाने योग्य ए पण शंभुर्नु विशेषण बे. त्यां को ठेकाणे "अर्हाणामर्हते" एवं होय तो "पूज्यना पण पूज्य" एवो अर्थ करवो. तथा प्रत्यक्ष ज्ञानवाळा ए: प्रत्यक्ष ज्ञान ने अने जेनाथी अन्यने प्रत्यक्ष ज्ञान थाय बे एवा शंनुने नमस्कार हवे बीजा सूत्र (श्लोक) मां श्रन्निधेय, संबंध अने प्रयोजन कहे -
दैवज्ञदीपकलिका व्यवहारचर्या
मारम्नसिफिमुदयप्रनदेव एताम् । शास्ति क्रमेण तिथि १ वार न ३ योग ४ राशि ५
गोचर्य ६ कार्य ७ गम वास्तु ए विलग्न १० मिः ॥॥ अर्थ-श्रीनदयप्रल श्राचार्य जोशीउने दीपकनी ज्योत जेवी अने शुल व्य कार्योने आचरण करनारी श्रा आरंजसिद्धिने अनुक्रमे तिथि १, वार , योग ४, राशि ५, गोचर ६, विद्यारंजादिक कार्य ७, गम (प्रयाण) , ६ लग्न १० अने मिश्र ११ श्रा अग्यार धारवमे कहे . ___ स्पष्ट श्रर्थने प्रकाश करवाश्री श्रा श्रारंजसिद्धि जोशीने दीपकनी ज्योत सर व्यवहार एटले शिष्ट ( सारा) जननो शुज तिथि, शुल वार श्रने शुन नक्षत्रा शुन कार्य करवारूप सदाचार. आवा सदाचारनी चर्या एटले श्रमक रीते कर ते चर्या अनिधेयपणाए करीने जेमा रहेली बे. श्रा प्रमाणे "व्यवहारचर्या” एम क था ग्रंथर्नु अनिधेय जणाव्यु बे; अने थाम कहेवाथी आ ग्रंथ वाचक थयो अ हारचर्या वाच्य थर, तेथी वाच्य वाचक जाव नामनो संबंध पण सूचव्यो एम तेमज "व्यवहारचयों" एqया ग्रंथर्नु बीजु नाम पण जे एम जाए. अहीं प्रयोजन रनुं -एक श्रनंतर श्रने बीजुं परंपर. तेमां श्रोताउने व्यवहारनी कुशळतानी थाय ए था श्रारंसिधिनुं धनंतर प्रयोजन , तथा यथार्थ रीते व्यवहारनी । करीने धर्म, अर्थ अने काम ए त्रण पुरुषार्थनी सिद्धि थाय, तथा अनुक्रमे म पुरुषार्थनी पण सिद्धि थाय ए परंपर प्रयोजन के. हवे पूर्वोक्त व्यवहारचर्या : अनिधेयने श्रग्यार धारवमे विनाग पामीने बतावे .-प्रतिपद् विगेरे तिथि
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