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________________ ॥ श्ररंजसिद्धि ॥ - वे यवनाचार्ये कहेलो राशिमां रहेला ग्रहोनो परस्पर वेध कहे बे. स्यानोचरेणात्र शुनोऽपि विद्धः खेटोऽन्यखेटैरशुनः क्रमेण । दुष्टोऽपि चेष्टश्च स वामवेधान्मिथो न वेधः पितृपुत्रयोस्तु ॥ ४० ॥ अर्थ - अहीं गोचरवमे शुभ थयेलो ग्रह पण कदेवाशे एवा क्रमे करीने बीजा होए विंधावाथी असुन थर जाय बे, अने गोचरवमे दुष्ट थयेलो ग्रह पण कदेवाशे एवा अनुक्रमे वाम वेधथकी इष्ट ( शुभ ) थाय बे; परंतु पिता ने पुत्रने परस्पर वेध तो नथी. एटले के रवि ने शनि पिता पुत्र बे तथा चंद्र ने बुध पिता पुत्र बे, तेनो परस्पर वेध नथी. ए Maa art विगेरे स्थानमा रहेला सूर्यने नवमा विगेरे स्थानमा रहेला अन्य महोव जे कहेवामां आवशे ते वेध कदेवाय बे, अने नवमा विगेरे स्थानमा रहेला सूर्यने त्रीजा विगेरे स्थानमा रहेला अन्य ग्रहोवने जे कहेवाशे ते वाम वेध कदेवाय बे. एटले के वीजा विगेरे स्थानमा रहेलो सूर्य शुन बे, पण जो नवमा विगेरे स्थानमां रहेला बीजा ग्रहोव तेनो वेध न तो होय तो ते शुज बे. तथा नवमा विगेरे स्थानमा रहेलो सूर्य शुबे, बतां जो त्रीजा विगेरे स्थानमां रहेला अन्य ग्रहोवमे तेनो वेध थाय तो ते शुज बे. ए प्रमाणे बीजा ग्रहो पण जाणवा. यतिवह्नजमां कह्युं बे के"ए निर्वेधैर्विद्या विफलाः स्युर्गोचरे ग्रहाः सर्वे । ― विपरीतवेधविधाः पापा अपि सौम्यतां यान्ति ॥ १ ॥ " "गोवरमा रहेला सर्वे ग्रहो श्र वेधवमे विंधाया दोय तो निष्फळ (अशुभ) बे, विपरीत - वाम ( झावळा ) वेधथी विधायेला पुष्ट ग्रहो होय तो ते सौम्यताने पामे बे-राज थाय बे. " रत्नमाला जाण्यमां क बे के – “जे कोइ स्थाने रहेला ग्रहे इष्ट ग्रहनो वेध कर्यो होय तो ते त्यां रही ने ज पोतानुं शुभ अथवा अशुभ फळ आपे बे. ए खरुं तत्त्व बे. " जे गोचरना फळने ज प्रमाणरूप गणीने वेधना विषयमा मध्यस्थपणा ( उदासीनता )नो आश्रय करे बे, तेमनो मत घणा श्राचार्योंने संमत नथी. ते विषे सारंग कहे बे के "यत्र गोचरफलप्रमाणता तत्र वेधफल मिष्यते न वा । प्रायशो न बहुसम्मतं त्विदं स्थूलमार्गफलदो हि गोचरः ॥ १ ॥ " " जे कार्यमां गोचरना फळनी प्रमाणता बे, ते कार्यमां वेधनुं फळ गणवं अथवा तो न गए. तेमां जेवी इला, परंतु प्राये करीने या वात घणाने संमत नथी, कारण के गोचर तो स्थूल मार्गे फळने आपनार बे. " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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