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॥शारंसिधि॥ खूणाश्रोमां घवे रेखा करीने कृत्तिका नक्षत्रयी आरंजीने अट्यावीश नक्षत्रोने स्थापन करी तेमां पण वेधनो विचार करबो.
पंच रेखा चक्र कृ रो मृ आ पु पु अ अहीं मूळ श्लोकमां “तत्रापि" ए पदमां "अपि" भVIII.Vम
Ly शब्द आप्यो बे, ते अव्यय मे, अने अव्ययोना अनेक
- अर्थ होवाथी अहीं अपि शब्दनो अर्थ अवधारण एटले - -- निश्चय जेवो करवानो ने, तेथी एवो अर्थ थाय ने के
-चि पूर्वे कहेलो सात रेखावाळो वेध प्रतिष्ठादिक सर्व कार्योमां शास्वा जोवो, अने विवाहमां तो आ पंच रेखावाळो ज वेध जोवो
पू मू ज्ये* ते विषे विवाह वृंदावनमां कह्यु के के-"विवाह सिवाय बीजा कार्यमा सात रेखावाळा यंत्रनो वेध जोवो.” श्रा वेधमां पण पूर्वनी जेम पादांतरितनी व्यवस्था जाणवी. श्रांतरा रहित ग्रहनो वेध होय तो तेनुं फळ श्रा प्रमाणे कडं जे.
"रवि विहवा कुजि कुखखय बुहि वंना निगु अपुतं सणि दासी। ___ गुरुवेहेण तवस्सिणि विलासिणी राहुकेहिं ॥१॥"
"रविना वेधमां लग्न करवाथी स्त्री विधवा थाय ने, मंगळना वेधमां करवाथी कुळनो क्ष्य श्राय, बुधना वेधमां करवाथी वंध्या थाय, शुक्रना वेधमां करवाथी पुत्र रहित पाय, शनिना वेधमां करवाथी दासी थाय, गुरुना वेधमां करवायी तपस्विनी थाय, तथा राहु अने केतुना वेधमां करवाथी विलासवाळी थाय.” ।
आ वेध दीक्षामा पण जोवो एम पूर्णना कहे . ते कहे जे के.__"सूरिपयाश्सु सत्तसलायं वयगहणाश्सु पंचसखायं ।
___ कत्तिनमा विज दु चकं जोअह ससिणो तो गहवेहं ॥१॥" "श्राचार्यपद तथा उपाध्यायपदादिकनी प्रतिष्ठादिकमां कृत्तिकादिक ननोनुं सप्त शलाका चक्र स्थापी ते मध्ये चंञमानो ग्रहोनी साथे वेध जोवो, अने दीक्षामां पांच शलाका चक्र स्थापी चंजमानो ग्रहोनी साथे वेध जोवो.”
हवे लत्ता योग कहे जे.लत्ता वज्र्येष्टनस्यार्कादीनां सानिजिदीयुषाम् । धृत्या १७कृत्यु२५ डु २७ सप्ताहत् २४ पश्चा५ कृत्यं श्२ क एसंख्यनम् ७० अर्थ-श्ष्ट नक्षत्रयी अढारमा नक्षत्रने विषे रहेलो सूर्य इष्ट नक्षत्रने सातवमे हणे
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