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॥ दिनशुद्धिः॥
पए सूर्यना नक्षत्रधी उ नक्षत्री बाळक कहेवाय , त्यारपळीनां बार नक्षत्रो जुवान कहेवाय ने अने त्यारपतीनां नव वृष्ठ कहेवाय बे. तेमां वृष्ठ नक्षत्रमा गयेली वस्तु जाय नहीं (पाठी आवे), जुवान नक्त्रमा गइ होय तो गयेली वस्तु जाय (पानी आवे नहीं),अने बाळ नक्षत्रमा गइ होय तो ते पासेज नमे , एटले के बेटे जाय नहीं. ११०.
सर्पदंश विषे.विसाहा-कित्तियाऽसेसा मूलदा जरणी महा।
एयाहिं अहिणा दठो कोणावि न जीव॥ १११॥ विशाखा, कृत्तिका, अश्लेषा, मूळ, बार्ग, नरणी अने मघा, ए नक्षत्रोमां जो सर्पमंश थयो होय तो ते कष्टे करीने पण ( कोइ पण प्रकारे ) जीवे नहीं. १११.
रोगनी शांति जोवा विषे.-. पुण-पुस्स ज-फा ज-ज रोहिणीहिं रोगोवसम सत्तदिणे । मूलऽस्सिणि कित्ति नवमे सवण-नरणि-चित्त-सयनिसेगदसे ११५ धणि-कर-विसाहिं परके मह वीसश्मे ज-खा मिगे मासे।
अणुराह-रेवश चिरं तिपुत्व जिहऽद-सेस-साइ-मिश् ॥ ११३ ॥ पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाट्गुनी, उत्तरानाप्रपद अने रोहिणी, ए नदात्रोमां व्याधि थयो होय तो सात दिवसे तेनी शांति थाय , मूळ, अश्विनी अने कृत्तिकामां अयो होय तो नव दिवसे शांति थाय , श्रवण, नरणी, चित्रा अने शतभिषामां थयो होय तो अगीयार दिवसे शांति थाय बे. ११२. धनिष्ठा, हस्त अने विशाखामां थयो होय तो पखवामीये शांति थाय ने, मघामां थयो होय तो वीश दिवसे शांति थाय , उत्त षाढा अने मृगशिरमां थयो होय तो एक मासे शांति थाय ने, अनुराधा अने रेवतीमां थयो होय तो चिर काळे शांति थाय बे, तथा त्रण पूर्वा (पूर्वाफागुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वानाप्रपद), ज्येष्ठा, आर्मा, अश्लेषा अने स्वातिमां व्याधि श्रयो होय तो ते मरणज पामे . ११३.
औषध शरु करवानां नक्षत्रो.चरलहु मिउमूले रोगनिन्नासदेऊ, दवर खनु पउत्तं उसहं वाहिआणं ।
चर, लघु, मृड तथा मूळ, एटलां नत्रोमां व्याधिवाळाने औषध आप्यु होय तो ते रोगना नाशनो हेतु प्राय .
करा
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