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________________ २७४ ॥ श्रारंजसिद्धि। को शंका करे के-"जो जन्मलग्नथीज शुजाशुल फळ थाय ने तो था विवाहादिकना लग्ननुं प्रवळपणुं विचारवानुं शुं प्रयोजन ? अने जो कदाच विवाहादिकना लग्नना वळज प्रमाण होय तो पी जातकादिक शास्त्रोनुं निरर्थकपणुं श्रशे.” था शंकानो जवाव आपतां श्राचार्य महाराज कहे वे के-“एम न बोलवू, कारण के जातकादिकमां जे शुनाशुल फळ कहेलुं ते (फळ )नी विवाहादिकना लग्नना बळथी अधिकता के न्यूनता थाय बे. जेमके जन्मनु (जन्मलग्ननुं ) फळ शुक्ल बतां पण दशा प्रवेशने काळे जे तत्काळचं लग्न श्रावे तेमां दशानो पति ( स्वामी) अने तेना मित्रादिक लग्नादिक स्थानमा रह्या होय तथा चंथी मित्रस्थानमां, उच्च स्थानमां, उपचयस्थानमां अने त्रिकोणादिक स्थानमा रह्या होय तो तेनुं फळ अत्यंत शुल कडं . ते विषे बृहजातकमां या प्रमाणे कडं . “पाकस्वामिनि लग्नगे सुहृदि वा वर्गस्य सौम्येऽपि वा, प्रारब्धा शुनदा दशा त्रिदशषड्लानेषु वा पाकपे । मित्रोच्चोपचयत्रिकोणमदने पाकेश्वरस्य स्थित श्चन्छः सत्फलबोधनानि कुरुते पापानि चातोऽन्यथा ॥१॥" "पाकनो स्वामी एटले दशानो स्वामी लग्नस्थानमां के मित्रना स्थानमा रह्यो होय अथवा पोताना वर्ग संबंधी सौम्य ग्रह साथे रह्यो होय ते वखते श्रारंन श्रयेली दशा शुल फळ आपनारी जाणवी. अथवा दशानो स्वामी श्रीजे, दशमे, बछे के अगीयारमे स्थाने होय तोपण ते शुन बे, तथा दशाना स्वामीनां मित्रस्थानमां, उच्च स्थानमां, जपचयस्थानमां, त्रिकोणस्थानमां के स्त्रीनुवनमां चंज रह्यो होय तो ते सत्फळना बोधने करे , तेनाथी अन्य स्थानमा रह्यो होय तो पापने करे -अशुल फळदायक जे." वळी प्राणीनुं जन्मलग्न अशुन उतां पण तत्काळना विवाहादिक खनना बळथी शुज पण थाय ने, माटे सर्व उपर कहेलुं निर्दोष एटले युक्ति युक्तज . "विवाहादौ स्मृतः सौरः” “विवाहादिक कार्यमा सौर (सूर्य संबंधी) मास कह्यो जे.” ए प्रमाणे रत्नमाळाना नाष्यमां कडं बे, तेथी लग्नमां सूर्यसंक्रांतिथी प्रवर्तेला सौर मासनो नियम कह्यो. हवे चांज (चंड संबंधी) मासनो नियम कहे . माघफाल्गुनयो राधज्येष्ठयोश्चापि मासयोः। लग्नं श्रेयः परे त्वाहुस्तछत्कार्तिकमार्गयोः ॥२॥ अर्थ-माघ अने फागुन मासमां तथा वैशाख अने ज्येष्ठ मासमां पण लग्न शुन बे. वळी बीजा आचार्यो कार्तिक अने मार्गशीर्ष मासमां पण तेज प्रमाणे एटले शुन खमने कहे . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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