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________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ श्रा शुक्ल प्रतिपद्यी श्रारंजीने चांड मासोज ग्रहण करवा. अहीं कोई शंका करे के ज्येष्ठ मासमां तो मिथुन संक्रांति होय , अने ते संक्रांति तो उपरना (पहेला)श्लोकमां पण ग्रहण करवानी कही ने, तेश्री अहीं फरीथी ज्येष्ठ मासनुं ग्रहण केम कर्यु ? श्रा शंकानो जवाब ए जे जे-अषाढ मासमां कदाचित् मिथुन संक्रांति श्रावती होय तोपण सर्वथा ते अषाढ मासनो निषेध करवा माटे अहीं ज्येष्ठ मासन ग्रहण कर्यु के. केटलाक आचार्योए मिथुन संक्रांति होय तो अषाढ मासनी शुक्ल दशमी सुधीनो प्रथम त्रिनाग ग्रहण करवानो कह्यो बे. ते विषे त्रिविक्रम कहे जे के-"कैश्चिदिष्टस्यंशः शुचेरपीति" "केटलाएके अषाढ मासनो पहेलो त्रिनाग पण श्चयो .” मूळ श्लोकमां कार्तिक तथा मार्गशीर्ष मास पण मतांतरे सीधा , परंतु ते मास अधम होवाथी तेमां हीन जातिना मनुष्योनो विवाह थ शके एम जाणवू. तेमां पण कार्तिक शुक्ल एकादशी पजीज थश् शके एम जाणी लेवू. ते विषे व्यवहारप्रकाशमां कडं वे के "कार्तिकमासे शुधि रोविलोक्या रवेश्च चन्मवलम् (ले)। अक्रूरयुते धिष्ण्ये देवोत्थानाद्दशाहं स्यात् ॥ १॥" "कार्तिक मासमां देव उठ्या (एकादशी) पनी गुरुनी तथा सूर्यनी शुद्धि जोवी. क्रूर ग्रह रहित नक्षत्रमा चंग बळवान् होय तो दश दिवस विवाह अश् शके". श्रा उपर कहेला उ मास सिवाय बीजा बाकीना उ चंड मासमां लग्न ग्रहण करवं नहीं एम सिद्ध थयु. वळी पाकश्रीकार तो या प्रमाणे कहे बे-"कार्तिक विगेरे त्रण त्रण मासमां अनुक्रमे चार स्थिर राशिनां लग्नो अमृतस्वनाववाळां बे. ते आप्रमाणे-कार्तिकादिक त्रण मासमां वृष लग्न शुल ने, माघादिक त्रण मासमां सिंह लग्न शुज , वैशाखादिक त्रण मासमां वृश्चिक लग्न शुक्ल ने, अने श्रावणादिक त्रण मासमां कुंज लग्न शुन वे. श्रा राशिऊना वर्गोत्तमना मध्यम अंशना उदयमां सर्व कार्यनी सिद्धि थाय बे. जे वर्ष मासादिकमां लग्न ग्रहण करवामां आवतुं नथी तेने कहे .जीवे सिंहस्थे धन्वमीनस्थितेऽर्के,विष्णौ निजाणे चाधिमासे च लग्नम् । नीचेऽस्तं वाते लग्ननाथेऽशपे वा, जीवे शुक्रे वाऽस्तं गते वाऽपि नेष्टम्॥३॥ अर्थ-बृहस्पति सिंह राशिमा रहेलो होय, सूर्य धन अथवा मीन संक्रांतिमा रहेलो होय, विष्णु सुतेला होय, अधिक मास होय, लग्ननो स्वामी अथवा अंशनो स्वामी नीच स्थाने रह्यो होय अथवा अस्त पाम्यो होय, तथा गुरु के शुक्र अस्त पाम्या होय त्यारे लग्न खेबु श्ष्ट नथी. सिंह राशिमा रहेखो बृहस्पति होय तो लग्न खेवं श्ष्ट नथी. ते विषे सप्तर्षि कहे जे के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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