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॥ श्रारंसिद्धि ॥ मित्रादिकने श्रादि शब्दथी स्वामी नृत्यादिक सर्व इंघोने शुल्लकारी ने, परंतु वढु वरने शुन नथी, एटले के जेजेनां जन्मनक्षत्रो अथवा नामनत्रो एक नामीमा रह्यां होय तो ते नामीवेध कहेवाय ने, अने जिन्न जिन्न नामीमा रह्यां होय तो नामीवेध नश्री एम जाणवू.
त्रिनामी चक्र स्थापना
अनहोम अरिपन पर हावस्या विविध स्पर्ड अपशिष्रे
दंपतीना संबंधमां आ नामीवेध शुन नथी. ते विषे हर्षप्रकाशमां कां ने के
"सुश्रसुहिसेवयसिस्साघरपुरदेस सुह एगनामी था।
__ कन्ना पुण परिणीश्रा हणश् परं ससुरं (च) सासुं च ॥१॥" "पुत्र, मित्र, सेवक, शिष्य, घर, नगर अने देश, ए सर्वे एक नामीमां एटले नामीवेधमां होय तो श्रेष्ठ बे, परंतु एक नामीमा रहेली कन्या जो परणी होय तो ते पतिने, ससराने तथा सासुने हणे बे." विशेष ए जे जे-"पुत्र, मित्रादिकने नामीवेध होय तो विरुध योनिवाळा नक्षत्रनो योग पण अशुन नथी.”
वर वहुने नामीवेध होय तो तेनुं फळ श्रा प्रमाणे कां बे."हन्नामिवेधतो जर्तुमध्यनामाव्यधे घयोः। पृष्ठनामीव्यधे नार्या मृत्युः स्यान्नात्र संशयः ॥१॥ समासन्ने व्यधे शीघ्रं वेधे चिरेण च ।
वेधान्तरजमानेऽत्र वर्षे उष्टं प्रजायते ॥२॥" __"हृदयनी नामीनो (पहेला नक्षत्रनी नामीनो) वेध होय तो पतिनुं मरण थाय ने, मध्य (बीजी) नामीनो वेध होय तो बन्नेनुं मरण अने पृष्ठनी (त्रीजी) नामीनो वेध होय तो स्त्रीनु मरण थाय बे. श्रा वात निःसंदेह बे. तेमां पण पासेनो वेध होय तो शीघ्रताश्री अशुज प्राय डे, पूर वेध होय तो चिरकाळे अने वचमां वेध होय तो नदबनी संख्या प्रमाणे ( तेटले ) वर्षे अशुल थाय ."
कदाच नक्षत्रवेधनो त्याग न अश् शके तो पादवेधनो अवश्य त्याग करवो. ते विषे नरपतिजयचर्यामां कडं बे के
"एतच्चक्रं समालिख्य अश्विन्यायंपिंक्तितः। वेधो पापशनामीनिः कर्तव्यः पतिकन्ययोः॥१॥
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