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॥ श्ररंजसिद्धि ॥
तुला ने कुंज संक्रांतिमां पश्चिम घारवानुं घर शरु करवाथी संताप विगेरे उत्पन्न याय a. तथा कर्क, वृश्चिक ने मीन संक्रांतिमां उत्तर धारवाळं घर करवाथी कुळनो क्षय थाय बे."
क दिशामा प्रथम खोदवानो आरंभ करवो ? ते कहे बे. - जाडादित्रित्रिमासेषु पूर्वादिषु चतुर्दिशम् ।
जस्तोः शिरः पृष्ठं पुष्ठं कुक्षिरिति क्रमात् ॥ ७७ ॥
अर्थ - नापदादिक ऋण ऋण मासने विषे पूर्वादिक चार दिशाए अनुक्रमे वास्तुनुं शिर, पृष्ठ (पीठ ), पुत्र ने कुक्षि (पेट) होय बे.
वास्तु पुरुष जमणा श्रंगने दबावीने ( जमणे पमखे ) सुतेलो नागने आकारे रहेलो बे. तेमां जाऊपद, आश्विन ने कार्तिक मासमां ते वास्तुनुं मस्तक पूर्व दिशामां बे, दक्षिण दिशामां पृष्ठ बे, पश्चिम दिशामां पुत्र बे ने उत्तर दिशामां कुक्षि बे. मार्गशीर्ष, पोष ने माघ मासमां दक्षिण दिशाए मस्तक, पश्चिम दिशाए पृष्ठ, उत्तर दिशाए पूर्व दिशा कुक्षि होय बे. फाल्गुन, चैत्र अने वैशाख मासमां पश्चिम दिशाए शिर, उत्तर दिशाए पृष्ठ, पूर्व दिशाए पुत्र ने दक्षिण दिशाए कुक्षि होय बे. ज्येष्ठ, sath ने श्रावण मासमां उत्तर दिशाए शिर, पूर्व दिशाए पृष्ठ, दक्षिण दिशाए पुत्र पश्चिम दिशा कुक्षि होय बे. तात्पर्य ए बे जे कुक्षिने विषेज प्रथम खोदवानो आरंभ करवो. बीजी दिशामां करवो नहीं. ते विषे दैवज्ञवल्लनमां कांबे के“शिरः खनेन्मातृपितृन्निहन्यात्, खनेच्च पृष्ठे जयरोगपीमाः । पु खनेत् स्त्री शुजगोत्रहानिः, स्त्री पुत्ररत्नान्नवसूनि कुक्षौ ॥"
"जो प्रथम वास्तुनुं शिर खोदे तो माता पितानो नाश थाय, पृष्ठ खोदे तो जय, रोग पीका था, पुत्र खोदे तो स्त्री, शुभ ने गोत्रनी ( कुळनी ) हानि ( नाश ) थाय, कुहिए खोदे तो स्त्री, पुत्र, रत्न, अन्न छाने धननी प्राप्ति थाय.” केटलाक श्रा वास्तु ठेकाणे वत्स एवं पण नाम कहे बे. या वास्तुना अंग तथा दिशाना कहेवाए करीने खात विगेरेनी दिशानो नियम कह्यो, पण विदिशानो नियम वास्तुशास्त्रमां आ प्रमाणे कह्यो बे. --
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"ईशानादिषु कोणेषु वृषादीनां त्रिके त्रिके । शेष हेराननं त्याज्यं विलोमेन प्रसर्पतः ॥ "
“वृषादिक ऋण त्रण संक्रांतिए ईशानादिक खूपाने विषे विलोम ( उलटा ) पाए करीने चालता शेषनागनुं मुख त्याग करवा लायक बे. अर्थात् विलोमपणाए करीने शेषनाग ऋण ऋण मासे फरे बे, तेथी ज्यारे तेनुं मुख त्रण मास ( वैशाख, ज्येष्ठ, श्रषाम)
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