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॥ श्रारंसिधि॥ चतुष्पद कहेवाय , मिथुन, कन्या, तुला, कुंज अने धनुषनो पहेलो अर्ध नाग, श्राटला मनुष्य , कर्क, मीन अने मकरनो पालो अर्धनाग, आटलांजळचर , अने एक वृश्चिक सरीसृप एटले वृश्चिक. हवे श्लोकना अर्थ था प्रमाणे -सिंह सिवायनां चतुष्पदो मनुध्यने वश्य ने, वृश्चिक अने जळचरो मनुष्यना नदय (नक्षण करवा लायक ) बे. वृश्चिक विनाना सर्वे सिंहने वश ने, बीजु मनुष्यमां कहेला व्यवहारथी जाणवू एटले के वृश्चिकने सिंह पण वश्य बे. सर्वे पुरुष राशि कन्याने वश्य बे, तथा धनुषने सर्वे वश्य ने विगर (१). जो बन्ने राशि परस्पर स्थळचर, जळचर के वृश्चिक होय त्यारे ते बन्नेनी मध्ये जे बळवान् होय तेने बीजो एटले दुर्बळ वश्य होय . जेम मेष वृषने वश्य , मीन अने कर्क मकरने वश्य जे. वृश्चिकने वीजो निर्बळ वृश्चिक वश्य होय . वन्ने मेष के बन्ने वृष विगेरे बन्ने एक ज होय तोपण वृश्चिकनी जेम वळर्नु अधिकपणुं विचारीने वश्यपणुं जाणवू. श्ष्ट लग्न दिवसे के रात्रिए होय . तेमां जो दिवस होय तो सम राशि विषम राशिने वश्य होय अने रात्रि होय तो विषम राशि सम राशिउँने वश्य होय . श्रानुं फळ आगळ कहेशे."
जन्मकाले शुर्युक्ता द्वितीयास्तरणेश्च ये।
निष्क्रूरा निर्विकाराश्च ते लग्ने राशयः शुजाः ॥३॥ अर्थ-जे राशि जन्मकाळे शुन ग्रहोए युक्त होय, तथा जे राशि रविथी बीजी होय, श्रा सूर्यथी बीजी राशिनी जातकमां “वेशि” एवी संज्ञा ( नाम ) कही जे. “सूर्याद्वितीयमृदं वेशिः" "सूर्यथी बीजुं लग्न वेशि कहेवायचे,” एम कडं ने, तथा जे राशि निष्कर एटले जन्मकाळे जे राशिमां कर ग्रह न होय एवी होय, तथा जे निर्विकार होय एटखे के क्रूर ग्रहे लोगवेली राशि सविकार श्रने चं लोगवेली होय ते निर्विकार कहेवाय जे. जन्मकाळे आवी राशिर्ड होय तो ते यात्राना लग्नमां शुल जाणवी.
यञ्च वश्यं स्खलनेन्छोर्न च वश्यं हिषस्तयोः ।
शत्रोरेवाष्टमं ताच्या लग्नं यातुर्जयावहम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-जे यात्रानुं लग्न पोताना जन्मलग्नने तथा जन्मराशिने वश्य होय, अने शत्रुना जन्मलग्नने तथा जन्मराशिने वश्य न होय, वळी ते यात्रालग्न शत्रुना जन्मलग्न अने जन्मराशिथी आम्मे होय, तो ते लग्न यात्रा करनारने जय श्रापनारुं .
श्रा प्रमाणे आठ श्लोकोवझे यात्राने योग्य लग्न कह्यु. हवे “जत्ता उवग्गसुद्धीए""यात्रा उ वर्गनी शुछिए करीने करवी योग्य ” एम हर्षप्रकाशमां कडं ने, माटे यात्राने योग्य एवा होरादिक पांच वर्ग कहे .
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