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________________ प्रस्तावना. विपयोने विस्तारथी संपूर्ण रीते वर्णव्या बे. या बाबत अनुक्रमणिकामां सविस्तर पे होवाथी अत्रे ती उचित धारी नयी. G ग्रंथनी प्रांते टीकाकारे पोतानी प्रशस्तिने पनवामे "ग्रंथकारनो अभिप्राय" ए नामथी मोटा वृत्तमां तेर श्लोको श्राप्या बे. ते सर्व श्लोको श्रा ग्रंथना जिज्ञासु स मनुष्ये प्रथम अवश्य वांचीने ग्रंथकारना अभिप्रायने आज्ञारूपे मानवो एम श्रमो खास लामण करीए बीए, कारण के वृत्तिकारे वृत्तिरूप ग्रंथ बनाव्या पबी अत्यंत सावध कार्यथी जीरुपणाने सीधे आ ग्रंथने जळशरण करवो उचित धार्यो हतो, परंतु जिन्न जिन्न ग्रंथोमांथी जंब वृत्तिए एकत्र करेला दुष्प्राप्य विषयोनो नाश करवो ते पण योग्य नहीं लगवाथी मात्र पोताना गछमां गुप्त रीते राखवाना हेतुथी ग्रंथने जाळवी वामां श्राव्यो बे, परंतु सर्वविरतिने धारण करनार साधुए कोइ पण जातन (चैत्यादिकनां) मुहूर्त्तो थापवाथी तेना व्रतनी हानि थाय बे, तेथी मुहूर्त्त कना साधु ने ग्रंथकारने महा पापना जागी कह्या बे. हीं शंका करी बे के - ज्यारे चैत्या दिकनां मुहूर्तो साधु श्रापवां न जोइए तो जिन जिन्न ग्रामोमां वसता श्रावकोने पुण्यनी वृद्धिशी रीते याय ने साधुने पण पुण्यनो लाज शी रीते थाय ? या शंकान जवाबni ग्रंथकारे कनुं बे के - चैत्यादिक कराववामां यतिउने अनुमोदना करवाथी पुण्य याय बे, परंतु गृहस्थीने विवाहादिकनी जेम चैत्यादिकनां मुहूर्त्तो पण जोशी आपे बे, तथा ज्योतिषना ज्ञानवाळा मुनि तो मात्र जोशी ने समग्र संवाद बतावे a. अर्थात् मुहूर्त्तेमां दोष होय तो ते सूचना आपे बे. या रीते सर्व सुस्थ थइ शके बे. तेम बतां कोई मूढ जारे कर्मी या शास्त्रने आधारे मुहूर्त्त श्रापशे तो आरंजना समूहथी उत्पन्न धतुं पाप तेनेज हो, घने मने ग्रंथकारने ते पापनो देश पए व हो. एन शु अंतःकरणना उद्गारो ग्रंथकारे प्रगट कर्या छे. आ उपरथी ग्रंथकार व कार्य लावा जीरु a ते स्पष्ट जलाइ आवे छे, माटे ग्रंथकारना अभिप्रायने श्राज्ञा रूप मानवा दरेकने श्रमो प्रार्थना करीए बीए. आ ग्रंथ उपर श्रीहेमहंस गणिए सुधीशृंगार नामनी वृत्ति ( टीका ) संवत् १५१४ वर्षे रची बे. तेनुं अनुष्टुपूनी गणत्रीए २००९३ श्लोकनुं प्रमाण बे. या टीकाकार महाराजनो स्थितिकाळ तथा गुर्वावळी प्रशस्तिना अंतमां लखेल बे त्यांथीज जाणी लेवा. प्रस्तावना विस्तृत थवाना कारणथी अहीं सखेल नथी. आ टीकाकारे संवत् १५१५ वर्षे व्याकरणना विषयवाळो न्यायसंग्रह नामनो ग्रंथ, तेना पर न्यायार्थमंजूषा नामनी मोटी वृत्ति (टीका ) तथा तेना पर न्यास पण रच्यो बे. ते विषे तेनी प्रशस्तिना बेला श्लोक या प्रमाणे बे. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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