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॥ श्रारंसिद्धि॥
कृ० रो० मृ०
या
पु० पु० श्र०
अ.न.
ध० श.पू |उ० रे
म० पू० ज० हचि स्वावि०
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otsas त्यारपी"यस्मिन् धिष्ण्ये स्थितः खेटस्ततो वेधत्रयं भवेत् । ग्रहदृष्टिप्रनावेण वामदक्षिणसम्मुखम् ॥ १॥ वक्रगे दक्षिणा दृष्टिमिदृष्टिश्च शीघ्रगे। जौमादिपञ्चकस्य स्यान्मध्यदृष्टिश्च मध्यमे (गे)॥२॥ राहुकेतू सदा वक्रौ सदा शीघौ विधूष्णगू। क्रूरा वक्रा महाराः सौम्या वक्रा महाशुलाः॥ ३ ॥ वेधध्यं जजति धिष्ण्यमिनारिदंष्ट्रासंस्थानदिग्ष्यगतोफुगतग्रहान्याम् ।
एकं तथाऽनिमुखसंस्थितमध्यनासापर्यन्तनागधृतधिष्ण्यगतग्रहेण ॥५॥" "जे नक्षत्रमा कोइ पण ग्रह रह्यो होय ते नत्रयी ग्रहनी दृष्टिना प्रनावने लीधे माबो, जमणो अने सन्मुख एवा त्रण वेध थाय ने (१). तेमां जो वक्र गतिवाळो ग्रह होय तो तेनी जमणी दृष्टि पके बे, शीघ्र गतिवाळो होय तो तेनी माबी दृष्टि पमेने, अने मंगळ विगेरे पांचमांथी कोश् मध्य गतिवाळो होय तो तेनी मध्य एटले सन्मुख दृष्टि पमे ले (२.). तेमां राहु अने केतु ए बे ग्रहो निरंतर वक्र गतिवाळाज होय जे, तथा चंड श्रने सूर्य ए वे निरंतर शीघ्र गतिवाळाज होय बे. तेमां जो क्रूर ग्रहो वक्र श्रया होय तो ते अत्यंत क्रूर जाणवा, अने सौम्य ग्रहो वक्र थया होय तो ते अति शुल जाणवा (३ ). जे नत्रयी सिंहनी दाढाना संस्थाननी जेम (तिरबा) बे दिशामां जे बे नत्रो रहेला होय ते बे नत्रो उपर जे बे ग्रहो रहेला होय ते बे ग्रहोए करीने
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