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॥श्रारंसिद्धि॥ पोताना स्वामीए युक्त के दृष्ट न होय तो ते अनुक्रमे पुरुष (वर)ने, वहुने अने पुत्रने हणे बे, परंतु जो युक्त के दृष्ट होय तो ते तेने हणता नयी.” हवे नव श्लोकवझे सर्व कार्यमा साधारण एवा ग्रहसंस्थारूप शुन्नाशुन योगोने कहे जे.
खानेऽरौि शुना धर्मे श्रीवत्सो यद्यरौ शनिः ।
अर्धेन्मुर्विक्रमे मन्दो रविाने रिपौ कुजः ॥४२॥ अर्थ-जो अगीयारमा स्थानमा रवि अने मंगळ होय, नवमा स्थानमा शुल ग्रहो (सौम्य ग्रहो) होय अने बना स्थानमां शनि होय तो ते श्रीवत्स योग कहेवाय जे. १. अहीं "यद्यरौ" एटले "जो अरि ( शत्रु) स्थानमां" एम “जो" शब्द लखवानुं था तात्पर्य जे. जे जे ग्रहो जे जे स्थाने नियमित कर्या बे ते ते ग्रहो ते ते स्थानेज होवा जोश्ए, अने बीजा ग्रहो गमे ते स्थाने होय तोपण आ योग थाय . ए प्रमाणे सर्व योगोमां जेम संनवे तेम जाणवू. विक्रम (३) स्थानमां शनि होय, लान (११) स्थानमा रवि होय अने रिपु (६) स्थानमा मंगळ होय तो बीजो अर्धेन्दु नामनो योग थाय . २.
शंखः शुनग्रहैबन्धुधर्मकर्म स्थितैर्नवेत् ३।। ध्वजः सौम्यैर्विलग्नस्थैः कुरैश्च निधनाश्रितैः ४ ॥ ३ ॥ गुरुर्धर्मे व्यये शुक्रो लग्ने ज्ञश्चेत्तदा गजः ५।
कन्यालग्नेऽलिगे चन्छे हर्षः शुक्रेज्ययोम॑गे ६ ॥४४॥ अर्थ-बंधु (४) स्थानमां, धर्म (ए) स्थानमां अने कर्म (१०) स्थानमां शुन ग्रहो रहा होय तो शंख योग थाय बे. ३. लग्नमां सौम्य ग्रहो रह्या होय अने निधन (0) स्थानमां क्रूर ग्रहो रह्या होय तो ध्वज योग श्राय . ४. धर्म (ए) स्थानमां गुरु रह्यो होय, व्यय (१२) स्थानमां शुक्र होय अने लग्नमां बुध होय तो गज योग थाय . ५. कन्या राशिनुं लग्न होय, अने वृश्चिक (6) राशिमां चंड रह्यो होय, तथा मकर राशिमां शुक्र अने गुरु रहेला होय तो हर्ष योग थाय . ६. अहीं हर्ष योगमां कन्या लग्ननो नियम करवाथी एवं जणावे बे के बीजा योगोमां खननो कांश पण नियम नथी. हर्ष योगनी स्थापना नीचे प्रमाणे.
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