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॥ तृतीयो विमर्शः॥
१३७ विशेष ए ने जे प्रीति (शुल ) नवपंचमश्री प्रीति बीया बारमुं श्रेष्ठ ने अने तेथी पण प्रीति षमष्टक सारुं . वळी नारचंड टिप्पणीमां कडं वे के
"श्रआसन्नस्तु वरो ग्राह्यो नासन्ना कन्यका पुनः।।
मृतैकमातापितरं संग्राह्यं नवपंचकम् ॥१॥" "श्रासन्न (नजीक )नो वर ग्रहण करवो, पण नजीकनी कन्या ग्रहण करवी नहीं, एटले के जो कन्यानी राशिथी गणतां वरनी राशि समीपे होय श्रने वरनी राशिथी गणतां कन्यानी राशि दूर होय तो नवपंचम विगेरे सर्व राशिकूट शुल्ल बे, पण कन्यानी राशिथी गणतां वरनी राशि दूर होय तो ते शुक्न नथी. तोपण जो वर के कन्या बेमांथी एकनां माता पिता मरण पाम्यां होय तो नवपंचम शुक्ल ज .” । ___ मूळ श्लोकमां "एक शक्ष" कह्यु बे, त्यां शक्नो अर्थ "राशि" एवो , तेथी जो बेनी एक ज जन्मराशि होय तो नवांशना नेदश्री ते शुज ने, अने बेउनुं जन्मनक्षत्र एक होय तो ते शुन नथी. त्रिविक्रम कहे जे के
"एक जायते यत्र विवाहे वरकन्ययोः।
मूलवेधस्तु स प्रोक्तो महाअष्टफलप्रदः ॥१॥" "जो विवाहमां वर कन्यागें एक ज (जन्म ) नक्षत्र होय तो ते मूळवेध कहेवाय ने, ते महा पुष्ट फळने थापनार बे." खस पण कहे जे के
"एकनक्षत्रजातानां परेषां प्रीतिरुत्तमा ।
दम्पत्योस्तु मृतिः पुत्रा वातरो वार्थनाशकाः॥१॥" “एक नक्षत्रमा उत्पन्न श्रयेला बीजाउने उत्तम प्रीति रहे डे, परंतु स्त्री पुरुषनी तो मृति (मरण)ज थाय . अथवा तेना पुत्रो अने नाल धननो नाश करनार थाय ." तेमां पण एटले एक नक्षत्रमा पण पादनो लेद होय एटले जूदा जूदा पादमां जन्मेला होय तो ते शुज जने, पण एक ज पादमां जन्म्या होय तो ते शुन नथी. कडं के
"नक्त्रमेकं यदि जिन्नराश्योरनिन्नराश्योरपि निन्नमृक्षम् ।
प्रीतिस्तदानीं निविमा नृनार्योश्चेत्कृत्तिकारोहिणिवन्न नामिः॥१॥" "जो नक्षत्र एक होय अने राशि निन्न होय, अथवा राशि एक होय अने नक्षत्र निन्न होय तो ते स्त्री पुरुषने अत्यंत प्रीति रहे, परंतु कृत्तिका अने रोहिणी जेवी एक नामी (नामीवेध) न होवी जोश्ए. एटखे के जेम कृत्तिका अने रोहिणीने नामीवेध ने, तेवो नामीवेध न होवो जोइए.” तथा
"नाग्निर्दहत्यात्मतनुं यथा वा अष्टा स्वदृष्टेनं हि दर्शनीयः।
एकांशकत्वे समतैव तपन्न नर्तृलार्याव्यवहारसिद्धिः॥२॥" "जेम अग्नि पोताना देहने बाळतो नथी, अने जेम अष्टा पोतानी दृष्टिए जोवा सायक
भा. १८
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