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॥ श्ररंज सिद्धि ॥
शुक्ल पंचमीनो जन्म होय ने शुक्ल अष्टमीए कार्य करवुं होय ) तो जन्ममासनो दोष लागेज बे. या प्रमाणे ज्योतिषना विधानो कहे बे. व्यवहारप्रकाशमां तो या प्रमाणे कं बे. - " शुभ ( सौम्य ) ग्रह वळवान् थश्ने केन्द्रस्थानमा रह्यो होय तो जन्मनक्षत्र पण डूषित नथी. ते विषे कां बे के - "नो जन्मनं च कार्य बलिनि शुनं केन्द्रगे सौम्ये” "सौम्य ग्रह बळवान् यइने केन्द्रमां रह्यो होय तो शुभ कार्य करवुं. तेमां जन्मनक्षत्रनो दोष नथी."
दिन जूद कहे बे. -
सादिमं ग्रहणस्याहः सप्ताहं च तदग्रतः । त्यजेत्रिंशांशमेकैकं प्राक् पश्चाच्चापि संक्रमात् ॥ ७ ॥
अर्थ- श्रादिना दिवस सहित ग्रहणनो दिवस तथा तेनी पीना सात एम नव दिवसो वर्जवा. तेमज संकांतिनी पहेलानो तथा पत्नीनो एक एक त्रिंशांश तजवो. अर्थात् कुल ऋण दिवस वर्जवा.
विस्तरार्थ - आदि सहित एटले चतुर्दशी सहित केटलाएक त्रयोदशीने पण वर्जे बे. ते कहे बे के -
" त्रयोदशीतो दशाहं सूर्येन्ऽग्रहणे त्यजेत् ।”
" सूर्य ने चंदना ग्रहणमां त्रयोदशीथी आरंभीने दश दिवस वर्जवा.” ग्रहणनी पीना सात दिवस वर्जवाना कह्या बे, तोपण तेमां या प्रमाणे विशेष जावो."सर्वस्तेषु सप्ताहं पञ्चादं स्याद्दवग्रहे ।
त्रिकाला दिनत्रयं विवर्जयेत् ॥ १ ॥”
" ग्रहणमां सर्व ग्रास ( खग्रास ) थयो होय तो पठीना सात दिवसो तजवा, अर्ध ग्रा यो होय तो पांच दिवस तजवा, तथा त्रण, बे, एक के अर्धांगळ ग्रास यो होय तो दिवस वर्जवा." आ गिरानुं वचन बे.
वी दैवशमां आ प्रमाणे विशेष कह्यो बे. -
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" राहौ दृष्टे शुभं कर्म वर्जयेद्दिवसाष्टकम् |
त्यक्त्वा वेतालसंसिद्धिं पापदंनमयं ( जयदं ) तथा ॥ १ ॥ "
"राहूनुं दर्शन थाय त्यारथी व दिवस सुधी शुभ कर्म वर्जवं जोइए, परंतु वेताल ( भूत-प्रेतादिक ) नुं साधन तथा पाप ने दंजमय एवं शुभ कर्म (अथवा पाप देनारुं ने जय देनारुं अशुभ कर्म ) विना, एटले के तेवां कर्ममां वर्जवाना नथी.
१ पापदं भयदं पाठांतर.
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