SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० ॥ श्रारंसिधि॥ रविचन्मकुजैर्नीचै १ लग्नेशे शत्रुरा शिगे। निर्वीर्ये चापि जामित्रे ३ युवत्या निरपत्यता ॥३॥ अर्थ-रवि, चंग अने मंगळ नीचना होय तो एक योग. १. लग्ननो स्वामी शत्रुनी राशिमा रह्यो होय तो बीजो योग. २. अथवा सातमुं स्थान वीर्य रहित होय तो बीजो योग. ३. ा त्रणमांथी कोइ पण योग होय तो ते स्त्री संतति रहित थाय . अहीं स्वामी, सौम्य ग्रहनी युति के दृष्टिनो अनाव तथा ते ग्रहोगें क्रूर होवापणुं ए विगेरे वझे सातमा स्थाननुं वीर्य रहितपणुं जाणवू. तथाजामित्रेशः पतिः स्त्रीणां श्वशुरौ गुनास्करौ । तैरुच्चादिस्थितस्तेषां श्रेयः स्यादन्यदन्यथा ॥४०॥ अर्थ-जे ग्रह सातमा स्थाननो स्वामी होय ते स्त्रीनो पति जाणवो, तथा शुक्र श्रने सूर्य स्त्रीना सासु अने ससरो जाणवा. श्रा ग्रहो उच्च विगेरे स्थाने रह्या होय तो तेश्रोनुं (पति विगेरेनुं ) श्रेय-शुन पाय , अने अन्यथा एटले उच्चादिक स्थाने न रह्या होय तो तेउनु अश्रेय-अशुल्न थाय ने. ___ "श्वशुरौं" एटले शुक्र सासु अने सूर्य ससरो ए वेनो एकशेष समास करवाथी "श्वशुरौ" अयुं . "तैः” एटले ते सातमा स्थाननो स्वामी विगेरे. "उच्चादि" एटले पोताना उच्च स्थाने रह्यो होय तो दीप्त १, पोतानी राशिमां होय तो स्वस्थ २, मित्रना स्थानमां होय तो मुदित ३, पोताना वर्गमा रह्यो होय तो शांत ध, प्रगट किरणोने धारण करतो होय तो शक्त ५, पोताना नीच स्थानने नवंघन करीने पोताना उच्च स्थाननी सन्मुख थयो होय तो प्रवृधवीर्य ६, पोताना अंशमा रह्यो बतो सौम्य ग्रहोए जोयेल होय तो अधिवीर्य , सूर्यश्री हणायेलो होय तो विकल , पोताना शत्रुना स्थानमां होय तो खळ ए, ग्रहे जीतायेलो होय तो पीमित १०, अने नीच राशिमा रह्यो होय तो दीन ११. आ प्रमाणे लल्ले कहेली ग्रहोनी अगीयार अवस्थामांनी शुल अवस्थामा रहेला सातमा स्थानना स्वामी, शुक्र अने सूर्ये करीने ते पति, सासु श्रने ससरानुं श्रेय-शुल थाय ने, अने अन्यथा एटले था अवस्थामांनी अशुल अवस्थामा रहेला सातमा स्थानना स्वामी, शुक्र अने सूर्ये करीने अनुक्रमे ते पति, सासु श्रने ससरानुं अश्रेय थाय . तथालग्नोदितांशः स्वेशेन युतो दृष्टोऽथवा नृणाम् । तम्जामित्रगः स्त्रीणामिष्टोऽनिष्टो विपर्यये ॥४१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy