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________________ ॥ श्रारंसिद्धि ॥ "गुरु मकर राशिमा रहेलो होय त्यारे पाणिग्रहणनो विधि करवा योग्य नथी. तेमां पण मात्र अत्यंत नीच नवांशमांज दूपण जे एम मुनींघो कहे ." "पांचज नीच नवांशोनो त्याग करवो" एम अन्य ग्रंथमां कडं . तेमां लोकरूढिए परम नीच अंश पर्यंत पहेला पांच त्रिंशांशरूप नीचांशो त्याग करेला . जो के लोकमां सर्वत्र मात्र पांचमो त्रिंशांशज परम नीच , उतां पांचमा त्रिंशांश सुधीना पांचे त्रिंशांशो वर्जवानुं कर्तुं ते लोकरूढिने अनुसरीने कर्तुं वे एवं ज्योतिषशास्त्रना वेत्ताउनुं वचन जे. ___ मूळ श्लोकमां “जीवे सिंहस्थे” ए वचनवमे वर्षनी अने “धन्वमीनस्थितेऽर्के' ए वचनवमे मासनी शुद्धि कही. वळी कांक मासनी शुद्धि तथा दिवस अने नत्रनी शुद्धि “ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे" ( मिश्रधार श्लोक ६) तथा "उघाहे मृगपैत्रर्दे" (मिश्रधार श्लोक ७) ए श्लोकमां कहेशे. समयनी शुद्धि था प्रमाणे जाणवी.रात्रिनो मध्य नाग अने दिवसना मध्य जागने विषे लग्न ग्रहण करवू नहीं. ते विषे गदाधर कहे जे के "निवसति मुहूर्त्तकालो महानिशायां च दिनदले यस्मात् । दश पूर्व दश परतस्तस्माघाच्चरपलानि ॥१॥" "मध्य रात्रीए तथा दिवसना मध्य लागे मुहूर्त्तकाळ रहे , माटे ते समये प्रथमना तथा पीना दश दश पळनो त्याग करवो.” ___ कोश् आचार्यो एम कहे जे के-"दिवसना पाबला नागमां एटले के मध्याह्नकाळ पी प्रतिष्ठा, विवाह विगेरेनुं लग्न आवे नहीं (शुन नथी), अने तेथी करीनेज गृहप्रवेशना अधिकारमा “सौम्येऽयने वासरपूर्वनागे" ( वास्तुघार श्लोक ०५ ) र श्लोकमां दिवसनो पूर्व नाग लीधो .” आ तेमनुं कहेवू अयुक्त ने, केमके विवाहमां दिवसना पाग्ला नागे सूत्रकारज लग्न लेवानी आज्ञा आपवाना . ते बाबत "विवाहे त्वर्कार्की त्रिरिपुनिधनायेषु शुलदौ" (मिश्रधार श्लोक ३६) ए श्लोक श्रागळ कहेशे. वळी विवाहना लग्नमां अपराह्न ( दिवसनो पाउलो नाग) न लए तो सूर्य उमा स्थानमा रहेवापणुं संजवतुं नथी, (अने लग्नथी सूर्य आपमे होय तो तेने शुन कहेवामां श्रावशे ते शी रीते घटे ?) परंतु अपराह्नमा प्रतिष्ठादिकना लग्नने ग्रहण करवानो व्यवहार प्राये देखातो नथी अने विवाहनुं लग्न तो अपराह्नमां ग्रहण करता कचित् जोवामां पण आवे . तेथी करीने आ विषे वृघोज प्रमाणजूत बे. जीर्णः शुक्रोऽहानि पञ्च प्रतीच्या, प्राच्या बालस्त्रीण्यहानीद हेयः। त्रिवान्येवं तानि दिग्वैपरीत्ये. पदं जीवोऽन्ये तु सप्ताहमाहुः॥४॥ अर्थ-शुक्रने पश्चिम दिशामां पांच दिवस सुधी वृक्ष जाणवो, अने पूर्व दिशामां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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