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॥शारंलसिद्धि। कार्यमां तजवा योग्य , एटले के जे नक्षत्रमा एकार्गल पमेलो होय ते नक्षत्र शुल कार्यमां तजवा योग्य जे, परंतु सूर्ये तथा चं आक्रमण करेलां नक्षत्रोनां पादोनो आंतरोएटले परस्पर सन्मुख नहीं रहेवारूप विशेष न होय अर्थात् तेमनां पादो पासे पासे ज होय तो ते एकार्गस अवश्य वर्जवा योग्य ने अने पादना आंतरावाळो होय तो त्याग करवो वा न करवो. श्रा एकार्गल योगने ज स्थापनादिकना विधिए करीने विशेष प्रकारे कहे .
तिर्यक्त्रयोदशो?करेखे खजूंरके त्यजेत् ।
कुयोगे शीर्षनादर्कचन्दावेकार्गलर्दगौ ॥ ६ ॥ अर्थ-तेर रेखा (लीटी) श्रामी अने एक रेखा उनी ए रीते खजुरीनुं वृक्ष कर. तेना मस्तक (शिखर) पर आगल कहेवामां श्रावशे ए रीते नक्षत्र मूकद् (खखq ). पली दक्षिण बाजुथी अनुक्रमे पीनां सत्यावीश नत्रो दरेक रेखाए मूकवां. परी एक रेखारूप अर्गलने मे रहेला बन्ने नत्रोने विषे जो चंज अने सूर्य रह्या होय तो ते एकार्गल कहेवाय . तेमां पण सन्मुख रहेखां बन्ने नत्रोनां बन्ने पादमां ते सूर्य चं रहेता होय तो ते आंतरा रहित एटले संपूर्ण एकार्गल थाय ने ते या प्रमाणे.
"श्राद्येन विध्यते तुर्यो वितीयेन तृतीयकः।
तृतीयेन द्वितीयस्तु तुर्येण प्रथमस्तथा ॥१॥" __ “पहेला पादवझे चोथा पादनो वेध थाय ने, वीजा पादवझे त्रीजा पादनो वेध थाय , त्रीजा पादवझे बीजा पादनो वेध थाय ने अने चोथा पादवमे पहेला पादनो वेध थाय ." चोयुं अने पहेलु तथा बीजुं अने त्रीजु पाद, ए परस्पर श्रांतरारहित कहेवाय ने एम समजq. आथी विपरीतपणे जो सूर्य चंज रह्या होय तो ते पादना आंतरावाळो कहेवाय अने तेथी ते दोषरहित जे. जेम को धनुर्धर निशानने विंधवा लाग्यो, हे वखते जो तेनी दृष्टि निशानथी जरा पण चूके तो ते निशान विंधातुं नथी. तेम वेध पण जो पादना अग्र नागथी भ्रष्ट थयो होय तो ते फळदायक नथी. ते विषे यतिवसनमां कह्यु बे के
"बाणाग्रदृष्टिपाताद्यघवयं निनत्ति धानुष्कः।
. तत्समदृष्टिगतो वेधो धिष्ण्यं प्रदूषयति ॥१॥" "जेम धनुषधारी वाणना अग्र नाग पर दृष्टि राखीने लक्ष्य ( निशान) ने विधे , तेम सम ( सरसी) दृष्टिमा रहेलो वेध नक्षत्रने दूषित करे .” (आ प्रमा नीजा वेधोमां पण जाणवू. )
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