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________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः ॥ ३ एए करीने श्रेष्ठ इसे बे. मालव देशना लोकोने गोचर प्रमाणरूप नथी, परंतु अष्टक वर्गज प्रमाण बे. बीजा देशोमां गोचर तथा अष्टक वर्ग बन्ने प्रमाण बे. ed पूर्वे कला बाया लग्ननी जेवाज बळवाळा ध्रुव लग्नने कहे बे. - स्युदास्थापनादीनि ध्रुवचक्रे तिरः स्थिते । ऊर्ध्वे खातध्वजोच्छ्रायप्रायाणि प्रायशः श्रिये ॥ ७५ ॥ - ध्रुवचक्र तिर रधुं होय त्यारे दीक्षा, स्थापना विगेरे कार्यो शुभदायक बे, खात, ध्वजारोपण विगेरे उंचाइ जेवां कार्यो ध्रुवचक्र ऊर्ध्व रयुं होय त्यारे प्राये करीने कल्याणने माटे बे. : स्थापना एटले प्रतिष्ठा आदि शब्दथी बीजुं पण स्थिर कर्म जाणवुं तिरः एटले तिरडं. ऊर्ध्वे एटले उंचुं रहे बते. ध्रुवनी चोतरफ रहेलुं श्रृंखलक ( चक्र ) मावुं जमतुं म एक रात्रि दिवसमां बेवार तिरनुं छाने बे वार ऊर्ध्व आवे बे. तेथी करीने" तिर्यगूर्ध्व स्थिते चक्रे तत्प्रान्तगततारके । समसूत्रे यदा स्यातां ध्रुवलग्नं जवेत्तदा ॥ १ ॥ ” “ध्रुवचक्र तिरनुं ने ऊर्ध्व रहे बवे ज्यारे तेना बेमा पर रहेला वे तारा सरखी लाइनमां आवे त्यारे ध्रुव लग्न थाय बे.” ते ध्रुव लग्नना समयनो अतिसूक्ष्म दृष्टिए करीने अथवा ध्रुवने फरवाना यंत्रव करीने निश्चय करवो, छाने स्थूळ दृष्टिए तो पूर्वाचार्योए या प्रमाणे निर्णय कर्यो बे. - "उदए महाधपिठाण नहुं अराह कित्ति धुव तिरित्ति" " मघा ने धनिष्ठानो उदय होय त्यारे ध्रुव ऊर्ध्व होय बे, अने अनुराधा तथा कृत्तिकानो उदय होय त्यारे ध्रुव तिरनुं होय बे. " परंतु नक्षत्रनुं उदयप्रमाण बराबर स्पष्ट रीते दृष्टिगोचर थइ शकतुं नथी, तेथी मस्तक पर ( माथे - आकाशना मध्यमां) रहेला नक्षत्रनी अपेक्षाए ध्रुव लग्ननुं स्वरूप कहेवाय बे, ते प्रमाणे – अश्लेषा ने श्रवण नक्षत्र मस्तक परथी उतरतां होय त्यारे ध्रुव तिरनुं होय वे, तथा जरी अने विशाखा नक्षत्र मस्तक परथी उतरतां होय त्यारे ध्रुव ऊर्ध्व होय बे. तथा “स्यादूर्ध्वा मृगकर्के तु समस्तिर्यक् तुलाजयोः । यथा तथा तु शेषेषु लग्नेषु स्याध्ध्रुवं ध्रुवः ॥ १ ॥ " " मकर कर्क राशिनुं लग्न होय त्यारे ध्रुव ऊर्ध्व होय वे, तथा तुला छाने मेष राशिनुं लग्न होय त्यारे ते तिरनुं होय बे, अने बीजां लग्नो होय त्यारे ते अवश्य गमे से रीते - नियमित होय बे." Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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