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________________ ॥ पञ्चमो विमर्शः॥ ४१ए " तेथी हुँ श्रा रहस्यने कई नु के-शास्त्र एकांतमा वांचो-जणो, तथा पोताना शिष्योने पण जो तेमने पापथी जीरु जाण्या होय तो सुखेथी नणावो, अने ते सर्वे पंमितो ज्ञानना पर्यायोने वृद्धि पमामो, कारण के था कृतिनुं मात्र एज फळ मने इष्ट ." तेथी करीने “ज्ञानांशोपचयैकपेशलफलप्रस्फुर्तये वार्तिक, कुवोणेन मया शुनाशयवशाद्यत्पुण्यकर्मार्जितम् । दिष्टया तेन नवे नवे नवतु मे सज्ज्ञानलानोदयो, यस्मादद्भुतधाम शाश्वतचिदानन्दं पदं प्राप्यते ॥ १३॥" ज्ञानना पर्यायोनी वृधिरूप एक सुंदर फळनी स्फुर्तिने माटेज आ वार्तिकने रचतां में शुन परिणामना वशथी जे कां पुण्य कर्म उपार्जन कर्यु होय ते पुण्यवझे मने जव जवने विषे सत् ज्ञानना लाजनो उदय अजो, के जे ज्ञानथी अनुत धामवाळु शाश्वतुं चिदानंद (मोक्ष) पद मने प्राप्त थाय." श्रा प्रमाणे ग्रंथकारना पोताना अभिप्रायने सूचवनारां आ काव्यो (श्लोको) वांचीने तत्त्वज्ञानीए उपदेश करेला मार्गना अनुष्ठान माटे यत्न करवो. इति शम्. ॥इति प्रशस्तिः॥ ॥ इति आरंजसिद्धिः सटीका समाप्ता ॥ CAP ARTAINM Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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