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॥ श्रारंसिहि ॥ वाय . तेमां पण "एक शुक्र तो उत्तरमा जतो होय तो ते पराजित कहेवाय ," एम वराह कहे . तेथी करीने गुरु अने शुक्र पराजित स्थानमा रह्या होय, शत्रुना स्थानमां रह्या होय,नीच स्थाने रह्या होय अथवा अस्त पाम्या होय अने तेवा समये जो उपनयन संस्कार को होय तो ते श्रुति अने स्मृतिथी बहिष्कृत ( रहित ) थाय जे.
क्रमादेशेषु सूर्यादेः क्रूरो १ मन्दो ऽतिपातकी ३।
पटु ४ र्यज्वा ५ च यज्वा ६ च मूर्ख ७ श्चोपनयानवेत् ॥४१॥ अर्थ-खग्नमां सूर्यनो नवांश रह्यो होय अने उपनयन कर्यु होय तो ते क्रूर थाय ने, चंजनो नवांश होय तो ते मंद थाय , मंगळनो नवांश होय तो अत्यंत पापी थाय, बुधनो होय तो दुशियार पाय, गुरुनो होय तो यज्वा ( यज्ञ करनार ) श्राय, शुक्रनो होय तोपण यज्वा थाय अने शनिनो नवांश लग्नमां होय तो ते मूर्ख श्राय बे. चतुष्टयेऽर्कादिषु राजसेवी १ स्याद्वैश्यवृत्तिः २ क्रमतोऽस्त्रवृत्तिः३। अध्यापकः कर्मसु षट्सु विछान् ५ विद्यार्थयुक्तो ६ऽन्त्यजसेवकश्च ॥४२॥
अर्थ-केंजस्थानमां सूर्य होय तो ते राजसेवक थाय ने, 'चंड होय तो वैश्य वृत्तिवाळो एटले कृषि, पशुपाल विगेरे वृत्तिवाळो श्राय जे. मंगळ होय तो शस्त्रनी वत्तिवाळो थाय बे. बुध होय तो अध्यापक थाय, गुरु होय तो उ कर्ममां विधान् थाय,शुक्र होय तो विद्यावान् अने धनवान् श्राय तथा शनि होय तो अंत्यजनो (चंमाळनो) सेवक थाय. केंजमा एकथी वधारे ग्रह होय तो जे ग्रह अधिक बळवान् होय तेनुं फळ कहे. ए रीते सर्वत्र जाणवं.
लग्ने गुरौ त्रिकोणे सिते सितांशे विधौ च वेदज्ञः।
नवति यमांशे गुरुसितलग्नेषु जमो विशीलश्च ॥ ४३ ॥ अर्थ-सग्नमां गुरु होय, त्रिकोणमां शुक्र होय तथा शुक्रना अंशमां चंड होय एटले के गमे ते स्थाने रहेलो चंज शुक्रना नवांशमा रह्यो होय, तो ते वेदने जाणनारो पाय रे, तथा गुरु, शुक्र अने लग्न शनिना अंशमा रह्या होय तो ते जम (मूर्ख ) श्रने शीळ रहित तथा कृतघ्नी थाय .
विधिगुरुशुक्रैः सार्धनगुणहीनः कुजान्वितैः क्रूरः ।
सबुधैर्बुधः सशौरैः स्याऽपनीतोऽलसो विगुणः ॥ ४ ॥ अर्थ-चंज, गुरु अने शुक्र जो सूर्य साथे रह्या होय अने उपनयन कर्यु होय तो ते 'न भने गुणधी रहित थाय, मंगळनी साथे रह्या होय तो ते क्रूर थाय, बुध साथे
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