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________________ २०२ ॥ आरंनसिधि॥ "रेवती (आ) अने अश्विनीना पहेला पाद सुधी ज्यारे चंजमा होय जे त्यारे शुक्र अंध होय जे, माटे ते वखते सन्मुख शुक्र होय तोपण ते दिशामांगमन करवू शुन बे.” केटलाएक आ श्लोकपूर्वार्ध श्रा प्रमाणे कहे -"अश्विन्या वह्निपादान्तं यावच्चरति चन्जमाः” । “ज्यारे अश्विनी, नरणी तथा कृत्तिकाना पाद सुधी चंघमा होय डे त्यारे शुक्र अंध ने विगेरे.” तथा लव कहे के"काश्यपेषु विसिष्ठेषु नृग्वव्याङ्गिरसेषु च । जारपाजेषु वात्स्येषु प्रतिशुक्रं न विद्यते ॥१॥ एकग्रामे पुरे वापि उर्जिके राष्ट्रविन्रमे । विवाहे तीर्थयात्रायां वत्सशुक्रौ न चिन्तयेत् ॥ २॥ स्वनवनपुरप्रवेशे देशानां विन्रमे तथोघाहे ।। नववध्वागमने च प्रतिशुक्रविचारणा नास्ति ॥३॥" "काश्यप, विसिष्ठ, नृगु, अत्रि, अंगिरस, नाराज अने वत्स ए सात शषिर्जना मतमात्रणे प्रकारना शुक्रनो निषेध नथी. एक गाममां, पुरमां, उकाळमां, राज्यना उपअवमां, विवाहमां अने तीर्थयात्रामां, श्राटले स्थळे वत्स अने शुक्रनो विचार करवो नहीं. पोताना घरमां एटले स्वानाविक रीते घरमा प्रवेश करवो होय त्यारे सन्मुख शुक्रनो विचार करवो नहीं, पण नवा घरमा प्रवेश करवो होय त्यारे तो त्रणे प्रकारना शुक्रनो त्याग करवो जोइए एम आगळ कहेशे. तथा पुरप्रवेशमां, देशावरोमां जाव आव करवामां, विवाहमां, नवी वहुने तेमी लाववामां, आटले स्थळे त्रणे प्रकारना शुक्रनो विचार करवो नहीं. अर्थात् सन्मुख शुक्रनो त्याग करवो.” तथा शुक्रनी बाट्यावस्थामां, वृद्धावस्थामां, नीचपणामां, अस्तपणामां, वक्रगतिपणामां अने बीजा ग्रहथी पराजय पामेलो होय त्यारे ए विगेरेमां यात्रा करवी अशुल ने, केमके-“यात्रामा शुक्र बळवान् लेवो" एम कडं . तथा रत्नमाळामां पण कडं ने के "नीचगे ग्रह जितेऽथ विलोमे, नागेवे कलुषितेऽस्तमिते वा। प्रस्थितो नरपतिः सवलोऽपि, क्षिप्रमेव वशमेति रिपूणाम् ॥ १॥" "शुक्र नीच स्थानमा रह्यो होय, बीजा ग्रहवझे जीतायो होय, वक्र थयो होय, कलुष यो होय एटले वाळ के वृक्ष होय, तथा अस्त पाम्यो होय, ते वखते जो राजाए प्रयाण कर्यु होय तो ते बळवान् बतां पण तत्काळ शत्रुने वश थर जाय जे." शुक्रना उदय अने अस्तना दिवसनी संख्या स्वानाविक रीते श्रा प्रमाणे नारचंड टिप्पणीमां कहेली . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002765
Book TitleArambhsiddhi Lagnashuddhi Dinshuddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayprabhdevsuri, Haribhadrasuri, Ratshekharsuri
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1918
Total Pages524
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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