Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નમો અરિહંતાણે નમો સિદ્ધાણં, નમો આયરિયાણં નમો ઉવજઝાયાણં નમો લોએ સવ્વ સાહૂણં એસો પંચ નમુકકારો સવ્વ પાવપ્પણાસણો મંગલાણં ચ સવ્વસિં પઢમં હવઈ મંગલ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જિનાગમ પ્રકાશન યોજના પ. પૂ. આચાર્યશ્રી ઘાંસીલાલજી મહારાજ સાહેબ કૃત વ્યાખ્યા સહિત DVD No. 1 (Full Edition) :: યોજનાના આયોજક :: શ્રી ચંદ્ર પી. દોશી – પીએચ.ડી. website : www.jainagam.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LIKA SUT NIRYAVA SHRI NIL શ્રી નિરયાવલીકા સૂત્ર Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ ॥श्री निरयावालिकासूत्रम् ॥ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज-विरचित सुन्दरबोधिनीटीकासमलंकृतम् (हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहितम् ) नियोजको साहित्यरत्न सुबोध-पं. मुनिश्री समीरमल्लजी महाराजः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-पं. मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराजश्च । एतच्च श्री श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धारकसमिति 'सेक्रेटरी'पदभूषितेन गुलाबचन्द पानाचन्द मेहता महोदयेन स्वद्रव्यतः प्रकाशितमू । आवृत्तिः प्रथमा प्रति- १००० वीर संवत् २४९४ वि संवत २००४ ई. सन् १९४८ मूल्यः -रु. ७ आ.८ શ્રી નિયાવલિકા સૂત્ર Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्राप्तिस्थानम् :: गुलाबचन्द पानाचन्द महेता स्थानकवासी जैन कार्यालय कोठाराया नाका, मांडविया बिल्डिंग पंचभाइनी पोल राजकोट. (काठियाबाड) अमदावाद. सरस्वती प्रि. प्रेस राजकोट (सौराष्ट्र) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મુરબ્બી વડિલ ભાઈશ્રી કપુરચંદ પાનાચંદ મહેતા – તથા – દુર્ગાદાસ પાનાચંદ મહેતા તથા વડિલ બહેને રંભા બહેન તથા કસુંબા બહેન જેમના તરફથી ધર્મ સંબંધી મને ઘણું જાણવાનું મહ્યું છે, તે સ્વર્ગિય આત્માઓને ઘણાજ માનપૂર્વક નાનાભાઈ તરીકે આ સૂત્ર અર્પણ કરી કૃતાર્થ થાઉં છું. • • • • • • ગુલાબચંદ પાનાચંદ મહેતા. રાજકેટ. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકનું નિવેદન tr “ જૈનધર્મ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી શ્રીમ‰તાચાર્ય, ” મહારાજ સાહેમે રચેલી ટીકા સહિત ૩૨ સૂત્રા માહેનું આ શ્રી “ નિયાવલિકા ” નામનું ‘ઉપાંગ’ સૂત્ર વાચકવર્ગના હાથમાં મૂકતાં અમને અત્યંત આનંદ થાય છે. 99 પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ. સા. પ્રખર વિદ્વાન છે. તેઓશ્રીનાં જ્ઞાન, દર્શન, ચાસ્ત્રિ અને તપથી પ્રમેાદ પામીને કરાંચીના સમસ્ત સ્થાનકવાસી જૈન શ્રીસ ંઘે તથા તેમના અનુયાયી મુનિવરેએ પૂજ્યશ્રીને “ જૈનાચાર્ય ” તથા “ જૈનધર્મદિવાકર ” પદની સાથે માનવંતી પૂછ્યું' પદવી સમર્પણું કરી. તથા પૂજ્યશ્રીએ રચેલી સંસ્કૃત હિંદી-ગુજરાતી ટીકા સાથેનું શ્રી ઉપાસકદશાંગ સૂત્ર' કરાંચી શ્રીસધે છપાવીને બહાર પાડ્યું. આ ઉપરાંત પૂજ્યશ્રીએ રચેલી સંસ્કૃત ટીકાવાળુ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર' ભા. ૧ લેા લીમડી (જી. પંચમહાલ)ના શ્રી સંઘે છપાવીને બહાર પાડેલ છે. ત્યાર ખાદ શ્રી અનુત્તાવવાઇ સૂત્ર શ્રી છે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ રાજકાઢ તરફથી પ્રગટ થયેલ છે. અને તે પછી પ્રસ્તુત ‘નિરયાવલિકા સૂત્ર (જેમાં પાંચ સૂત્રના સમાવેશ છે) બહાર પડે છે. આ રીતે આજ સુધીમાં પૂજ્યશ્રીની રચિત ટીકાઓ સાથેનાં ૩૨ પૈકી છલા સૂત્રા પ્રગટ થઇ ગયાં છે અને હવે પછી શ્રી દશ વૈકાલિક સૂત્ર”ના ખીજો ભાગ ( જે છપાઈ રહેલ છે) ટુક સમયમાં પ્રગટ થશે. રાજકીટ નિવાસી મહેતા ગુલાખચંદ પાનાચંદે આ પુસ્તક છપાવવા માટે ા ૩૦૦૧)ની ઉદાર મદદ સમિતિને આપી છે, તે માટે સમિતિ તેઓશ્રીના આભાર માને છે. આ ઉપરાંત નીચેના ધર્મશાસ્ત્રના પ્રેમી અને ઉદાર ગૃહસ્થાએ એક- એક સૂત્ર છપાવી આપવાનું વચન આપેલ છે. (૧) દોશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ રાજકોટ (૨) વસા છગનલાલ હેમચ', જામનગર (૩) સંઘવી પીતાંખરદાસ ગુલામચંદ, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જામનગર ( વાડીલાલ ડાઈંગ એન્ડ પ્રિન્ટિંગ વર્કસ–મુ`બઈ), (૪) કાઠારી હરખચંદ જગજીવન, જામનગર હાલ ખાટાદ, હા. શ્રી છબીલદાસભાઇ હરખચંદ, તથા શ્રી રંગીલદાસભાઇ. આ માટે સમિતિ ઉપરાંકત સર્વ અંધુઓને ધન્યવાદ બાપે છે. અન્ય ખંધુ અને ધર્માંપ્રેમી મ્હેના ઉપરોકત બધુઓનું અનુકરણ કરીને એક એક સૂત્ર છપાવી આપવાની ઉદારતા બતાવશે। તા સમિતિનું પ્રકાશન કાર્ય ઘણુ જ હળવું બની જશે અને જૈન જનતાને માટે આ કાર્ય મહાન ઉપકારક નીવડશે. આ સૂત્રેાના પ્રશ્ને તપાસવામાં પૂરેપૂરી કાળજી રાખવામાં આવી છે, તેમ છતાં પ્રેસદોષ કે દૃષ્ટિ દોષથી અથવા છદ્મસ્થપણાને કારણે ભૂલા રહી જવા પામી હાય તા વાંચકા સુધારીને વાંચશે અને અમારું ધ્યાન દેશે ! તે તે ભૂલા ખીજી આવૃત્તિ વખતે આભાર સાથે સુધારવામાં આવશે. કિ મહુના સુરેષુ ? રાજકોટ તા. ૧૧-૫૪૮ વૈશાખ શુદ ૩ સંવતઃ ૨૦૦૪ } & સત્રીઓ, શ્રી જે. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. संसार के सभी जीव परम अमृत समान सुखकी गवेषणा करते हैं, सुखके प्रयत्नमें लगे रहते हैं, सुखके कारणको ढूँढते हैं, सुखके वातावरणको पसंद करते हैं, सुखकी याचना और सुख ही की मिन्नत मानते हैं, तो भी वे परम सुखके बदले परम दुःख ही प्राप्त करते हैं। सभी प्रयत्न सभी कारण और सभी वातावरण दुःखरूप जालमें परिणत होकर आत्मरूप भोले भाले मृगोंको फसाकर दुःखित करते हैं। जिससे आत्मा अपना भान भूलकर अज्ञानरूपी अन्धकारमें गोता खाती है भटकती है, फिर इन्द्रियरूपी चोर चारों तरफसे आकर दुर्बल आत्माका घेर लेते हैं और अनेक प्रकारकी विडम्बना करते हुए आत्माको हैरान करते हैं । जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतको चूर २ कर डालता है वैसे ही वे आत्माके शम-दम आदि गुणोंको नाश करके आत्माको जड जैसा बनाते हुए दीन हीन बनाकर छोड़ते हैं । जब आत्मा निर्बल हो जाता है तब मोहरूपी सुभट आत्मराज्यमें प्रवेश करता है, और वहाँ परंपराको उपस्थित कर आत्माका सर्वस्व लूटकर उसको भवरूप कूपमें डालता है । वहाँ आत्माको संयोग वियोगरूप आधिव्याधि रूप दुष्ट जलजंतु हरएक तरह से कष्ट पहुँचाते हैं, सर्प जैसे मेढकको गिल जाता है वैसे ही जन्म जरा मृत्यु आत्माको गिलती रहती है । फिर किस प्रकार सुखकी आशा की जाय ? ऐसी अवस्थामें तो सुखका स्वप्न भी नहीं मिल सकता, " हा कष्टम् ' तो भी संसारी जीव सुखकी आशा करते हैं । फिर अविरति रूपी राक्षसी आकर आत्माको घेर लेती है और विष समान विषय भोगोंमें फसाकर उसे निःसार बना देती है, आत्मा के निज स्वरूपको पल्टाकर विभावदशा उत्पन्न करती है जिससे आत्मा परस्वरूपको अपना स्वरूप समझकर भवभ्रमण रूप परंपराकी और भी वृद्धि करती हुई कष्ट पर कष्ट भोगती है, सुख कैसे प्राप्त हो इसकी तलाशमें घूमती है, इतनेमें कषाय रूप राक्षस विविध प्रकारसे त्रास पैदा करता है, तो भी आत्मा दुःखके निदान रूप उस कषायको ही सुखका निदान समझकर उसमें आसक्त होती है, सुखके जितने भी कारण हैं શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा संयम तप आदि; उनको दुःख रूप समझकर उन्हें छोड बैठती है, धर्म अधर्म आत्मा अनात्माके विवेकसे वंचित रहती है, उन्मार्गगामी बनती है, सुमार्गको परित्याग करती है, फिर उसी दुःख परंपराकी जालमें फसती है। इतनेमें प्रमाद रूपी पिशाच आकर झूमता है और आत्माकी ऐसी छिन्न भिन्न दशा करता है कि आत्मा जड स्वरूप बनकर जड वस्तुओंमें ही आनन्द मानती है। ___ इधर अशुभयोग रूप भूत आत्मामें प्रवेश करता है; तब फिर क्या ? कल्पनासे भी बाहर परिस्थिति बन जाती है। अशुभ योगों की अशुभ प्रवृत्तिया अशुभ कार्योकी ओर आत्माको घसीटती हैं। फिर आत्मा परतंत्र बनकर ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मोको मन्द तीव्र आदि रसमें प्रवृत्त हो बांधती है और एकसौ अडतालीस प्रकृतियों की फासमें फसकर नाना प्रकार का दुष्कृत्य करके नरक निगोद आदि अनन्त दुःखरूपी खड़ेमें गिर जाती है। इस प्रकार अनन्त काल तक आत्माके लिये मनुष्यभव पाना तो दूर रहा, किन्तु निगोदकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रियसे बादर एकेन्द्रियका भी भव वह नहीं पा सकती। इस तरह चतुरगतीमें भटकती भटकती भव भ्रमण करती २ आत्मा कदाचित् मनुष्य भवमें आ भी गयी तो मिथ्यात्व अविरति कषाय प्रमाद और अशुभ योगों की प्रवृत्तियां उसको घेर लेती हैं, जिससे वह फिर भवाटवीमें पड़ जाती है और उसो विकल दशाको प्राप्त कर जन्म मरण आदि पाती रहती है। इस प्रकारको अवस्था सकल संसारी जीवों की भगवानने अपने केवल. ज्ञानरूपी प्रकाशसे अवलोकन करके परम करुणा करते हुए शारीरिक मानसिक दुःखोंको मिटानेवाली जन्म मरण आदिको उच्छेद करनेवाली जिनवाणीको द्वादश अंग द्वारा प्रवचन रूपसे प्रकाशित की है। वह वाणी १ चरणकरणानुयोग २ धर्मकथानुयोग ३ गणितानुयोग और ४ द्रव्यानुयोग रूपमें विभक्त है | निरयावलिका आदि पाँच उपाङ्ग भगवानकी धर्मकथानुयोग वाणीमें अन्तर्हित हैं। इन पाँचों उपाङ्गोंमें (१) निरयावलिका अन्तकृतका उपाङ्ग है, और (२) कल्पावतंसिका अनुत्तरोपपातिकका, (३) पुष्पिता प्रश्नव्याकरण सूत्रका, (४) पुष्पचूलिका विपाकसूत्रका, एवं वृष्णिदशा दृष्टिवादाङ्गका उपाङ्ग है। શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें निरयावलिका उपाङ्गमें काल आदि दस कुमारोंका वर्णन काल आदि दस अध्ययनों में किया गया है। जो संक्षिप्तमें इस प्रकार है महाराज श्रेणिककी अनेक रानियाँ थीं। उनमें नन्दा, चेल्लना, काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, पितृसेन कृष्णा, और महासेनकृष्णा, ये उनकी मुख्य रानियाँ थीं। इनमें नन्द के पुत्र अभयकुमार थे, चेलनाके पुत्र कूणिक, वैहल्य, और वैहायस थे । काली आदि दसों रानियों के पुत्र क्रमशः काल, सुकाल, महाकाल, कृष्ण, सुकृष्ण, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्ण, पितृसेनकृष्ण और महासेनकृष्ण थे । इन कुमारोंमें अभयकुमार प्रब्रजित हो गये । चेल्लनाके पुत्र कूणिकने काल आदि दस कुमारोंको अपनी ओर मिलाकर महाराज श्रेणिकको कैद कर लिया और उन्हें अनेक प्रकारको तकलीफें देने लगा । एक दिन कूणिक अपनी माताके चरण वन्दनके लिये आया । माताने उसे देखकर अपना मुंह फिरा लिया। यह देख कूणिक हाथ जोड इस प्रकार बोला - हे माता ! मैं अपने पराक्रमसे राज्यका सम्राट् बना, यह देखकर भी तुझे आनन्द नहीं होता, तुम्हारे मुखपर खुशीका कोई चिह्न नहीं दिखायी देता, तुम उदासीन हो, क्या यह तुम्हारे लिये उचित है ? भला तुम्ही सोचो, कौन ऐसी मा होगी जो अपने पुत्रकी उन्नति पर खुश न होगी । यह सुनकर महारानी चेल्लनाने कहा- बेटा ! तुम्हारी इस उन्नतिसे मुझे किस प्रकार आनन्द हो ? क्यों कि तुमने अपने पिता महाराज श्रेणिकको कैद कर लिया है, जो तुम्हारे देव गुरुके समान हैं, जिन्होंने तुम्हारे उपर अनेक उपकार किये हैं। उन्हींके साथ तुम्हारा यह व्यवहार समुचित है ! जरा तुम्ही सोचो ! कूणिकने कहा- -मा ! जो श्रेणिक राजा मुझे मार डालना चाहते थे, वे मेरे परम उपकारी हैं, यह कैसे ! स्पष्ट बताओ । रानीने कहा- बेटा ! जब तुम मेरे गर्भमें आये, उस समय मुझे दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं राजा श्रेणिकके उदरबलिका मांस तल भूनकर मदिराके साथ खाऊँ । इसके लिये मैं उदास रहने लगी और दिनानुदिन क्षीण होने लगी । जब શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० यह समाचार तुम्हारे पिताको मिला तो उन्होंने इसका कारण शपथ पूर्वक पूछा, तो मैंने अपना दोहद बतलाया । बाद में तुम्हारे पिताने मेरा दोहद पूरा किया । दोहद पूरा हो जानेके बाद मैंने सोचा - यह बालक गर्भावस्थामें ही पिताका मांस खाया, उत्पन्न होनेपर न जाने क्या करेगा ? इस लिये जिस किसी प्रकार इस गर्भको गिरा देना ही श्रेयस्कर है । पर अनेक प्रकारकी ओषधीसे भी गर्भ न गिरा । फिर नौ महीनेके बाद उस गर्भसे तुम पैदा हुए, मैंने तुम्हें अनिष्ट समझ कर उकरडी पर फिकवा दिया । यह बात तुम्हारे पिताको मालुम हुई, वह तुम्हें खोज कर ले आये और मुझे उन्होंने इस कार्यके लिये बडी भर्त्सना की । तेरी उङ्गलीको उकरडी पर मुर्गेने काट खाया जिससे वह सूज गयी उसमें पीप भर आया, तुझे असह्य वेदना होने लगी, तँ चिल्लाने लगा, उस समय तेरे पिता तुम्हारे पास बैठे रहते थे, दिन रात तुम्हारी परिचर्या करते व्रणकी वेदनासे रो पडते थे, उस समय तुम्हारी अङ्गुलीको पीप चूसकर थूक देते थे, उससे तुझे शान्ति मिलती थी हो गया। बेटा ! तूं ही सोच, एसे परम उपकारी पिताके साथ तेरा यह वर्तान उचित है ? अपनी मां के मुखसे यह सुन कूणिक बहुत दुखी हुआ । परम उपकारी पिताका बन्धन तोहूँ इस भावनासे उसी समय हाथमें कुल्हाडी लेकर जिस पिंजरे में महाराजा श्रेणिक कैद थे, उस पिंजरेको तोडनेके लिये चल पडा । लेकिन राजा श्रेणिकने कूणिको हाथमें कुल्हाडी लेकर आते हुए देख मनमें सोचा-न जाने यह कूणिक मुझे किस कुमौत से मारेगा ? इस भयसे उन्होंने अपनी अंगूठीमें जडा हुआ तालपुट विषसे अपना अन्त कर लिया । पिताकी मृत्युसे कूणिक अत्यधिक दुखी हुआ, उसे राजगृहकी प्रत्येक वस्तु पिताकी स्मृति दिलाकर दुखित करने लगी, पिताके प्रति किये हुए अन्याय उसकी आत्माको कष्ट देने लगे । वह राजगृहमें नहीं रह सका, राजगृह छोडकर चम्पा नगरीको उसने राजधानी बनायी । वहाँ अपने भाई बन्धुओंके साथ रहने लगा और राज्यको ग्यारह भागो में बाँटकर और तँ धीरे २ चंगा શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર रहते अपने थे, तुम जब मुँह मे डाल Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक २ भाग काल आदि दस कुमारोंको दिया, और ग्यारहवाँ भाग खुद लेकर राज्य करने लगा। राजा श्रेणिकने सेचनक गन्ध हाथी और रानी नन्दाने अठारह लडीबाला हार कूणिकके छोटे भाई बैहल्यको दिया था। वह हाथी पर बैठ गङ्गा नदीमें अपने अन्तःपुर परिवारके साथ क्रीडा करते थे। उनकी क्रीडा देखकर लोग कहने लगे-वास्तविक राज्योपभोग तो वैहल्ल्य कुमार ही करते हैं। कूणिक तो नाम मात्रके राजा हैं, क्यों कि उनके पास सेचनक गन्ध हाथी नहीं है। धीरे २ वैहल्यको जलक्रीडाका समाचार कूणिक राजाकी रानी पद्मावतीको मालुम हुआ, वह वैहल्यसे सेचनक हाथी और अठारह लडीबाला हार ले लेनेके लिये कूणिकको बार बार प्रेरित करने लगी। कूणिक अन्तमें रानीकी बात मानकर अपने भाईसे हाथी और हार मांगा। उन्होने भी राज्यका हिस्सा मागा, परन्तु कूणिक इस पर तैयार न हो सके। यह देख गैहल्य कुमार मौका पाकर हाथी हार आदि अपनी सभी सामग्री लेकर अपने अन्तःपुर परिवारके साथ पैशाली नगरीमें अपने नाना चेटकके पास पहुँचे। कूणिकने अपने दूतके द्वारा चेटकको संदेशा दिया कि आप हाथी और हारके साथ चैहल्यको भेजदें। इसपर चेटकने उत्तरमें संदेशा भेजा-यदि तुम राज्यका भाग अहल्यको दो तो इसे हम हाथी और हारके साथ भेज सकते हैं, परन्तु कुणिकको यह शर्त मंजूर नहीं हुई, फल स्वरूप दोनोमें युद्ध हुआ। इधर कुणिककी तरफ काल आदि दस कुमार थे उधर चेटककी और नौ लच्छी नौ मल्लकि ये अठारह गणराजा थे। इनमें प्रत्येकके पास तोन २ हजार हाथी घोडे रथ और तीन २ करोड पैदल सैनिक थे । प्रथम दिनकी लडाईमें कालकुमार अपने तीन २ हजार हाथी घोडे रथ और तीन करोड पैदल सैनिकके साथ चेटक राजासे लडनेके लिये आया और चेटकके एक अमोघ बाणसे सैन्य सहित मारा गया। दूसरे दिन सुकालकुमार, तीसरे दिन महाकाल, चौथे दिन कृष्णकुमार, पाँचवें दिन सुकृष्ण, छठे दिन महाकृष्ण, सातवें दिन वीरकृष्ण, आठवें दिन रामकृष्ण, नवमें दिन पितृसेनकृष्ण और दशवें दिन महासेनकृष्ण, अपने २ सैन्य શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित चेटकके साथ लडने आये और चेटकके द्वारा ससैन्य मारे गये । और अपने पाप कर्मके प्रभावसे निरय (नरक) गामी हुए। इसी वस्तुको भगवानने गौतम स्वामीको उनके पूछने पर निरयावलिका नामसे फरमाया है। कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्गमें दस अध्ययन हैं, इन दसों अध्ययनोंका नाम क्रमसे—पद्म ( १ ) महापद्म ( २ ) भद्र ( ३ ) सुभद्र ( ४ ) पद्मभद्र (५) पद्मसेन (६) पद्मगुल्म (७) नलिनीगुल्म (८) आनन्द (९) और नन्दन (१०) है। प्रथम अध्ययनमें पद्मकुमारका वर्णन इस प्रकार है। पद्मकुमार भगवान महावीर स्वामीके पास प्रबजित हो पाँच वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पाले, अन्तमें मासिकी संलेखनासे साठ भक्तोंको छेदित कर काल प्राप्त हुए, और सौधर्म कल्पमें देवता होकर उत्पन्न हुए। वहाँसे च्यव कर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेंगे और सिद्ध होकर सब दुखोका अन्त करेंगे। इसी प्रकार महापद्मसे लेकर नन्दन पर्यन्त नौ कुमारों का वर्णन जानना चाहिये । ये सभी भगवानके समीप प्रव्रजित हुए और संलेखनासे अपने शरीरको त्याग कर देवलोकमें देव होकर उत्पन्न हुए । वहाँसे च्यव कर महाविदेह वर्षमें जन्म लेंगे और सिद्ध होकर सब दुखोंका अन्त करेंगे । ये पद्म आदि दस कुमार काल आदि दस कुमारोंके पुत्र और महाराज श्रेणिकके पौत्र ( पोते ) थे। पुष्पिता नामक तृतीय वर्गमें चन्द्र (१) सूर (२) शुक्र ( ३ ) बहुपुत्रिका (४) पूर्ण ( ५ ) मानभद्र (६) दत्त (७) शिव ( ८ ) बलेपक (९) अनादृत ( १० ) इन दसों देवोंका दस अध्ययनोंमें वर्णन है। ये सब भगवान महावीर प्रभुके दर्शन करनेके लिये देवलोकसे अपने २ परिवारके साथ आये और अपनी वैक्रियिक शक्तिसे नाट्य विधि दिखाकर अन्तर्हित हो गये । गौतम स्वामीने उनकी विशाल ऋद्धिके बारेमें भगवानसे पूछा-हे भदन्त ! इन्हें यह ऋद्धि कहाँसे प्राप्त हुई ? भगवानने गौतम स्वामीको चन्द्र आदि देवके पूर्व भवका वर्णन सुनाया और उन्होंने कहा-गौतम ! ये सब देवलोकसे च्यव कर महाविदेह वर्षमें उत्पन्न होकर सिद्ध होंगे। શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूष्पचूलिका नामक चतुर्थ वर्गमें भी दस देवियोंके नामसे दस अध्ययन हैं। उन दसों देवियोंका नाम-श्री ( १ ) ही ( २ ) धी (३ ) कीर्ति (४) बुद्धि ( ५ ) लक्ष्मी ( ६ ) इलादेवी (७) सुरादेवी (८) रसदेवी ( ९) और गन्धदेवी ( १० ) है। ये दसों देविया भगवानके दर्शनके लिये आयीं और नाट्यविधि दिखाकर अपने २ स्थान पर चली गयीं । गौतम स्वामीने इन देवियोंको ऋद्धि प्राप्ति के बारेमें पूछा । भगवानने इन सबोंके पूर्व भवका वर्णन किया, और कहा-हे गौतम ! ये सभी देवलोकसे च्यव कर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेंगी और सिद्ध होकर सभी दुखोंका अन्त करेंगी। इसका पाँचवाँ वर्गका नाम वृष्णिदशा वर्ग है। इसमें बारह अध्ययन हैं। ये बारहों अध्ययन बारह कुमारोंके नामसे हैं। उन कुमारोंका नामनिषध ( १ ) मायनी ( २ ) वह ( ३ ) वह ( ४ ) पगता (५) ज्योति (६) दशरथ (७) दृढरथ (८) महाधन्वा (९) सप्तधन्वा (१०) दशधन्वा और शतधन्वा है। इनमें निषधकुमारका वर्णन इस प्रकार है-निषध कुमार राजा बलदेव और रानी रेवतीके पुत्र थे। इनका विवाह पचास राजकन्याओंके साथ हुआ और वह अपने उपरी महलमें सुख पूर्वक रहने लगे। एक समय द्वारकाके नन्दन वन उद्यानमें भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि पधारे। भगवानके दर्शनके लिये कृष्ण वासुदेव आदि नन्दन वन उद्यानमें गये । निषधकुमारको भी भगवानके पधारनेका समाचार ज्ञात हुआ। वह भी भगवानके दर्शनके लिये गये। धर्म कथा सुनकर श्रावक धर्म स्वीकार कर अपने घर लौट गये । भगवानका अन्तेवासो वरदत्त अनगार निषधकुमारकी सौम्यता देख मुग्ध हो गये । और निषधकुमार को यह सौम्यता और ऋद्धि आदि कैसे प्राप्त हुई ? इस बारेमें भगवानसे पूछा । भगवानने निषधकुमारके पूर्व भवका वर्णन किया । वरदत्तने पूछा-हे भदन्त ! यह निषधकुमार आपके समीप प्रवजित होगा ? भगवानने कहा-हा, वरदत्त ! यह निषधकुमार मेरे समीप प्रनजित होगा। इसके बाद भगवान जनपदमें विचरने लगे। एक समय निषधकुमार पोषधशालामें दर्भके आसन पर શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैठे हुए थे। उनके मनमें यह भावना पैदा हुई-यदि भगवान यहाँ आवे तो मैं उनका दर्शन करूँ और उनकी उपासना करूँ। भगवान निषधकुमारके मनको बात जान ली और अठारह हजार श्रमणाके साथ नन्दन वन उद्यानमें पधारे । निषधकुमारने भगवानका दर्शन किया, और बादमें माता पितासे पूछकर अनगार हो गये और बयालीस भक्तोंको अनशनसे छेदित कर काल प्राप्त हुए। उनके काल प्राप्त होनेके बाद वरदत्त अनगारने भगवानसे पूछा-हे भदन्त ! आपका अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध अनगार इस शरीर को छोडकर कहाँ गये ? भगवानने कहा-हे वरदत्त ! मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध नामक अनगार सर्वार्थ सिद्ध विमानमें देव होकर उत्पन्न हुआ। वहाँ उसकी स्थिति तेंतीस सागरोपम है। वह वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्रके उन्नात नगरमें विशुद्ध मातृ पितृ वंशवाले राजकुलमें उत्पन्न होगा, बाल्यावस्था बीत जानेपर स्थविरोंके समीप प्रवजित होगा और सिद्ध होकर सभी दुखोंका अन्त करेगा। इसी प्रकार मायनी आदि ग्यारह राजकुमारोंकाभी वर्णन जानना चाहिये । ये सभी भगवान अरिष्टनेमिके समीप प्रवजित हुए और अपने नश्वर शरीरको छोड सर्वार्थ सिद्ध विमानमें देव होकर उत्पन्न हुए और ध्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे और सभी दुखोंका अन्त करेंगे। यह पाचों उपाङ्गका संक्षिप्त वर्णन है। इस निरयावलिका आदि पाचों उपाङ्गों पर जैनाचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराजने सुन्दरबोधिनी नामकी टीका की है । इस टोकाको विशेषता संस्कृत प्राकृतज्ञ विद्वान मूल और संस्कृत टीकाको देखकर समझ लेंगे। और सकल साधारण भव्यजन हिन्दी और गुजराती भाषाके अनुवादरो इसकी विशेषता समझेंगे। इस पर हम अधिक लिखना उचित नहीं समझते, क्यों कि ' हाथ कङ्गनको आरसी क्या ? ' बस; इसी न्यायसे हम अपना वक्तव्य समाप्त करते हैं । इत्यलम् । राजकोट मुनि कन्हैयालाल, १५ मई १९४८ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વાધ્યાય માટે ખાસ સૂચના (૧) આ સૂત્રના મૂલપાઠનો સ્વાધ્યાય દિવસ અને રાત્રિના પ્રથમ પ્રહરે તથા ચોથા પ્રહરે કરાય છે. (૨) પ્રાતઃઉષાકાળ, સન્ધ્યાકાળ, મધ્યાહ્ન, અને મધ્યરાત્રિમાં બે-બે ઘડી (૪૮ મિનિટ) વંચાય નહીં, સૂર્યોદયથી પહેલાં ૨૪ મિનિટ અને સૂર્યોદયથી પછી ૨૪ મિનિટ એમ બે ઘડી સર્વત્ર સમજવું. (૩) માસિક ધર્મવાળાં સ્ત્રીથી વંચાય નહીં તેમજ તેની સામે પણ વંચાય નહીં. જ્યાં આ સ્ત્રીઓ ન હોય તે ઓરડામાં બેસીને વાંચી શકાય. (૪) નીચે લખેલા ૩૨ અસ્વાધ્યાય પ્રસંગે વંચાય નહીં. (૧) આકાશ સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય કાલ. (૧) (૨) (૩) (૪) (૫) (૬) (૭) ઉલ્કાપાત—મોટા તારા ખરે ત્યારે ૧ પ્રહર (ત્રણ કલાક સ્વાધ્યાય ન થાય.) (૯) દિગ્દાહ—કોઈ દિશામાં અતિશય લાલવર્ણ હોય અથવા કોઈ દિશામાં મોટી આગ લગી હોય તો સ્વાધ્યાય ન થાય. ગર્જારવ—વાદળાંનો ભયંકર ગર્જારવ સંભળાય. ગાજવીજ ઘણી જણાય તો ૨ પ્રહર (છ કલાક) સ્વાધ્યાય ન થાય. નિર્ધાત—આકાશમાં કોઈ વ્યંતરાદિ દેવકૃત ઘોરગર્જના થઈ હોય, અથવા વાદળો સાથે વીજળીના કડાકા બોલે ત્યારે આઠ પ્રહર સુધી સ્વાધ્યાય ન થાય. વિદ્યુત—વિજળી ચમકવા પર એક પ્રહર સ્વાધ્યાય ન થા. યૂપક—શુક્લપક્ષની એકમ, બીજ અને ત્રીજના દિવસે સંધ્યાની પ્રભા અને ચંદ્રપ્રભા મળે તો તેને યૂપક કહેવાય. આ પ્રમાણે યૂપક હોય ત્યારે રાત્રિમાં પ્રથમા ૧ પ્રહર સ્વાધ્યાય ન કરવો. યક્ષાદીમ—કોઈ દિશામાં વીજળી ચમકવા જેવો જે પ્રકાશ થાય તેને યક્ષાદીપ્ત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૮) ઘુમિક કૃષ્ણ—કારતકથી મહા માસ સુધી ધૂમાડાના રંગની જે સૂક્ષ્મ જલ જેવી ધૂમ્મસ પડે છે તેને ધૂમિકાકૃષ્ણ કહેવાય છે. તેવી ધૂમ્મસ હોય ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. મહિકાશ્વેત—શીતકાળમાં શ્વેતવર્ણવાળી સૂક્ષ્મ જલરૂપી જે ધુમ્મસ પડે છે. તે મહિકાશ્વેત છે ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૦) રજઉદ્દાત—ચારે દિશામાં પવનથી બહુ ધૂળ ઉડે. અને સૂર્ય ઢંકાઈ જાય. તે રજઉદ્દાત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨) ઔદારિક શરીર સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય (૧૧-૧૨-૧૩) હાડકાં-માંસ અને રૂધિર આ ત્રણ વસ્તુ અગ્નિથી સર્વથા બળી ન જાય, પાણીથી ધોવાઈ ન જાય અને સામે દેખાય તો ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. ફૂટેલું ઇંડુ હોય તો અસ્વાધ્યાય. (૧૪) મળ-મૂત્ર—સામે દેખાય, તેની દુર્ગધ આવે ત્યાં સુધી અસ્વાધ્યાય. (૧૫) સ્મશાન—આ ભૂમિની ચારે બાજુ ૧૦૦/૧૦૦ હાથ અસ્વાધ્યાય. (૧૬) ચંદ્રગ્રહણ–જ્યારે ચંદ્રગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૮ મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૨ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૭) સૂર્યગ્રહણ—જ્યારે સૂર્યગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૧૨ મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૬ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૮) રાજવ્યગ્રત–નજીકની ભૂમિમાં રાજાઓની પરસ્પર લડાઈ થતી હોય ત્યારે, તથા લડાઈ શાન્ત થયા પછી ૧ દિવસ-રાત સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૯) પતન–કોઈ મોટા રાજાનું અથવા રાષ્ટ્રપુરુષનું મૃત્યુ થાય તો તેનો અગ્નિસંસ્કાર ન થાય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય કરવો નહીં તથા નવાની નિમણુંક ન થાય ત્યાં સુધી ઊંચા અવાજે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૦) ઔદારિક શરીર–ઉપાશ્રયની અંદર અથવા ૧૦૦-૧૦૦ હાથ સુધી ભૂમિ ઉપર બહાર પંચેન્દ્રિયજીવનું મૃતશરીર પડ્યું હોય તો તે નિર્જીવ શરીર હોય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૧થી ૨૮) ચાર મહોત્સવ અને ચાર પ્રતિપદા–આષાઢ પૂર્ણિમા, (ભૂતમહોત્સવ), આસો પૂર્ણિમા (ઇન્દ્ર મહોત્સવ), કાર્તિક પૂર્ણિમા (સ્કંધ મહોત્સવ), ચૈત્રી પૂર્ણિમા (યક્ષમહોત્સવ, આ ચાર મહોત્સવની પૂર્ણિમાઓ તથા તે ચાર પછીની કૃષ્ણપક્ષની ચાર પ્રતિપદા (એકમ) એમ આઠ દિવસ સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૯થી ૩૦) પ્રાતઃકાલે અને સભ્યાકાળે દિશાઓ લાલકલરની રહે ત્યાં સુધી અર્થાત સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તની પૂર્વે અને પછી એક-એક ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૩૧થી ૩૨) મધ્ય દિવસ અને મધ્ય રાત્રિએ આગળ-પાછળ એક-એક ઘડી એમ બે ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો. ઉપરોક્ત અસ્વાધ્યાય માટેના નિયમો મૂલપાઠના અસ્વાધ્યાય માટે છે. ગુજરાતી આદિ ભાષાંતર માટે આ નિયમો નથી. વિનય એ જ ધર્મનું મૂલ છે. તેથી આવા આવા વિકટ પ્રસંગોમાં ગુરુની અથવા વડીલની ઇચ્છાને આજ્ઞાને જ વધારે અનુસરવાનો ભાવ રાખવો. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) (२) (३) (8) स्वाध्याय के प्रमुख नियम इस सूत्र के मूल पाठ का स्वाध्याय दिन और रात्री के प्रथम प्रहर तथा चौथे प्रहर में किया जाता है I प्रातः ऊषा-काल, सन्ध्याकाल, मध्याह्न और मध्य रात्री में दो-दो घडी ( ४८ मिनिट) स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, सूर्योदय से पहले २४ मिनिट और सूर्योदय के बाद २४ मिनिट, इस प्रकार दो घड़ी सभी जगह समझना चाहिए । मासिक धर्मवाली स्त्रियों को स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, इसी प्रकार उनके सामने बैठकर भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, जहाँ ये स्त्रियाँ न हों उस स्थान या कक्ष में बैठकर स्वाध्याय किया जा सकता है । नीचे लिखे हुए ३२ अस्वाध्याय - प्रसंगो में वाँचना नहीं चाहिए— (१) आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्यायकाल (१) (२) (३) (8) (५) (६) (७) (८) उल्कापात—बड़ा तारा टूटे उस समय १ प्रहर (तीन घण्टे) तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । दिग्दाह — किसी दिशा में अधिक लाल रंग हो अथवा किसी दिशा में आग लगी हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । गर्जारव—बादलों की भयंकर गडगडाहट की आवाज सुनाई देती हो, बिजली अधिक होती हो तो २ प्रहर (छ घण्टे ) तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । निर्घात – आकाश में कोई व्यन्तरादि देवकृत घोर गर्जना हुई हो अथवा बादलों के साथ बिजली के कडाके की आवाज हो तब आठ प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । विद्युत - बिजली चमकने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए I यूपक — शुक्ल पक्ष की प्रथमा, द्वितीया और तृतीया के दिनो में सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा का मिलान हो तो उसे यूपक कहा जाता है। इस प्रकार यूपक हो उस समय रात्री में प्रथमा १ प्रहर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए I यक्षादीप्त— यदि किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा प्रकाश हो तो उसे यक्षादीप्त कहते हैं, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । धूमिका कृष्ण - कार्तिक से माघ मास तक घूँए के रंग की तरह सूक्ष्म जल के जैसी धूमस (कोहरा) पड़ता है उसे धूमिका कृष्ण कहा जाता है इस प्रकार की धूमस हो उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) महिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्णवाली सूक्ष्म जलरूपी जो धूमस पड़ती है वह महिकाश्वेत कहलाती है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (१०) रजोद्घात–चारों दिशाओं में तेज हवा के साथ बहुत धूल उडती हो और सूर्य ढंक गया हो तो रजोद्घात कहलाता है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (२) ऐतिहासिक शरीर सम्बन्धी १० अस्वाध्याय— (११,१२,१३) हाड-मांस और रुधिर ये तीन वस्तुएँ जब-तक अग्नि से सर्वथा जल न जाएँ, पानी से धुल न जाएँ और यदि सामने दिखाई दें तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । फूटा हुआ अण्डा भी हो तो भी अस्वाध्याय होता है। (१४) मल-मूत्र—सामने दिखाई हेता हो, उसकी दुर्गन्ध आती हो तब-तक अस्वाध्याय होता है। श्मशान—इस भूमि के चारों तरफ १००-१०० हाथ तक अस्वाध्याय होता (१६) चन्द्रग्रहण-जब चन्द्रग्रहण होता है तब जघन्य से ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १२ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१७) सूर्यग्रहण-जब सूर्यग्रहण हो तब जघन्य से १२ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १६ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१८) राजव्युद्गत-नजदीक की भूमि पर राजाओं की परस्पर लड़ाई चलती हो, उस समय तथा लड़ाई शान्त होने के बाद एक दिन-रात तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। पतन-कोई बड़े राजा का अथवा राष्ट्रपुरुष का देहान्त हुआ हो तो अग्निसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए तथा उसके स्थान पर जब तक दूसरे व्यक्ति की नई नियुक्ति न हो तब तक ऊंची आवाज में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२०) औदारिक शरीर-उपाश्रय के अन्दर अथवा १००-१०० हाथ तक भूमि पर उपाश्रय के बाहर भी पञ्चेन्द्रिय जीव का मृत शरीर पड़ा हो तो जब तक वह निर्जीव शरी वहाँ पड़ा रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२१ से २८) चार महोत्सव और चार प्रतिपदा-आषाढ़ी पूर्णिमा (भूत महोत्सव), आसो पूर्णिमा (इन्द्रिय महोत्सव), कार्तिक पूर्णिमा (स्कन्ध महोत्सव), चैत्र पूर्णिमा (यक्ष महोत्सव) इन चार महोत्सवों की पूर्णिमाओं तथा उससे पीछे की चार, कृष्ण पक्ष की चार प्रतिपदा (ऐकम) इस प्रकार आठ दिनों तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९ से ३०) प्रातःकाल और सन्ध्याकाल में दिशाएँ लाल रंग की दिखाई दें तब तक अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त के पहले और बाद में एक-एक घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (३१ से ३२) मध्य दिवस और मध्य रात्री के आगे-पीछे एक-एक घड़ी इस प्रकार दो घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त अस्वाध्याय सम्बन्धी नियम मूल पाठ के अस्वाध्याय हेतु हैं, गुजराती आदि भाषान्तर हेतु ये नियम नहीं है । विनय ही धर्म का मूल है तथा ऐसे विकट प्रसंगों में गुरू की अथवा बड़ों की इच्छा एवं आज्ञाओं का अधिक पालन करने का भाव रखना चाहिए । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क श्री निरयावलिका सूत्रका विषयानुक्रम ( प्रथम अध्ययन ) क्रमाङ्क विषय १ मङ्गलाचरण २ शास्त्रमारम्भ ३ पृथिवीशिलापट्ट ४ आर्य सुधर्मा ५ आर्य सुधर्माका पधारना, पांच अभिगम ६ जम्बू स्वामीका परिचय ७ जम्बू प्रभव आदि (५२७) की दीक्षा ८ जम्बूका शरीर वर्णन ९ जम्बूका प्रश्न १० शास्त्रपरिचय ११ जम्बूका प्रश्न १२ कूणिकराजवर्णन १३ पद्मावती वर्णन १४ काली वर्णन १५ सम्यक्त्व प्रशंसा १६ देवकृतश्रेणिकपरीक्षा १७ सम्यक्त्वप्रशंसा १८ अभयकुमार वर्णन १९ कूणिक वर्णन २० चेल्लना वर्णन २१ कूणिक वर्णन २२ रथमुशल संग्रामका कारण શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क विषय २३ संग्राम वर्णन २४ काली रानीके वीचार २५ 'भगवान' शब्दका अर्थ २६ काली रानीके वीचार २७ काली रानीका वन्दनार्थ भगवानके समीप जाना २८ अठारह देशकी दासिया २९ धर्मकथा ३० काली पृच्छा ३१ कालकुमार वृत्तान्त ३२ काली रानीको पुत्रशोक ३३ गौतम प्रश्न ३४ भगवानका उत्तर ३५ अमयकुमारका वर्णन ३६ चेल्लना रानीके दोहद ३७ श्रेणिक राजाके विचार ३८ चेल्लना रानीके दोहद ३९ चेल्लना रानीके विचार ४० कूणिक जन्म ४१ चेल्लनाको श्रेणिकका उपालम्भ ४२ कूणिककी अंगुलि वेदना ४३ कृणिकका नाम करण ४४ श्रेणिकबन्धन ४५ कूणिकको श्रेणिकका परिचय ४६ श्रेणिकमरण ११९ १२१ १३१ १३३ १३५ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पृष्टाङ्क १५३ १५६ १५९ १६१ १६९ १७७ १७९ क्रमाङ्क विषय ४७ कूणिकको श्रेणिकका परिचय ४८ श्रेणिकमरण ४९ श्रेणिकके साथ कूणिकका पूर्वभवसंबन्ध ५० कूणिकश्रेणिकका वैर कारण ५१ वैहल्यका गन्धहाथी पर चढकर क्रीडा करना ५२ वैहल्यका वैशाली नगरी में जाना ५३ चेटक-कूणिकका दूत द्वारा संवाद ५४ राजा कूणिकको दश कुमारोंसे मन्त्रणा ५५ राजा कूणिक-चेटककी युद्ध तैयारिया ५६ राजा कूणिक चेटकका युद्ध और कालकुमारका :मरण द्वितीय अध्ययन. ५७ सुकाल ( सुकाली ) कुमारकी मृत्यु अध्ययन ३-१० ५८ महाकाल आदि आठ कुमारको मृत्यु कल्पावतंसिका सूत्रका विषयानुक्रम प्रथम अध्ययन क्रमाङ्क विषय १ पद्मकुमारका वर्णन द्वितीय अध्ययन २ महापद्मकुमारका वर्णन अध्ययन ३-१० ३ भद्रकुमार आदि आठ कुमारका वर्णन ४ भद्र आदि देवोंकी स्थिति m २१७ पृष्ठा २२० २३० २३१ २३५ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पुष्पिता ( पुफिया ) सूत्र प्रथम अध्ययन क्रमाङ्क विषय १ चन्द्रदेवका पूर्वभव वर्णन २ चन्द्रदेवका वर्णन ३ अङ्गति गाथापतिका वर्णन द्वितीय अध्ययन ४ सूर्यका भगवानके समीप आना ५ शुक्रका भगवानके समीप आना ६ सोमिल ब्राह्मणका वर्णन तृतीय अध्ययन ७ बहुपुत्रिका देवीका वर्णन ८ पूर्णभद्र देवका वर्णन ९ माणिभद्र देवका वर्णन १ श्री देवीका वर्णन २ ही - गन्धदेवी ९ का चतुर्थ अध्ययन શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર पञ्चम अध्ययन छठा अध्ययन १० दत्त, शिव, बल, अनाहतका वर्णन अध्ययन ७-१० पूष्पचूलिका सूत्र वर्णन वृष्णिदशा सूत्र १ निषधकुमारका वर्णन २ मायनि आदि ११ कुमारोंका वर्णन ३ शास्त्र प्रशस्ति पृष्ठाङ्क २३८ २४१ २४५ २६६ २६९ २७० ३१६ ३८४ ३९० ३९४ ३९६ ४१४ ४१५ ४४९ ४५१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रम् पङ्कि م ه ه م भञ्जा م م س ہے کہ تم अशुद्धि शुद्धि विषेश विशेष अध्ययननों के अध्ययनों के पडिपुण पडिपुण्ण भज्जा स्वल युगल पुद्गल दलो शील शीलदलो वदनक्मल: वदनकमलः बुभुक्षाणा बुभुक्षमाणा संग्रामप्रसङ्गा संग्रामप्रसङ्गं सडामो सङ्गामो रथ्था रथ्या अपरिभुञ्जन्ती __ अपरिभुञ्जाना अपरिभुञ्जन्ती अपरिभुञ्जाना झियायमाणी झियायमाणि -एवा गालि- -एवा पाडित्तए वा गालिजन्यदा अन्यदा स्वलु खलु सेवनकं सेचनकं सत्करोमि सत्करोति ه م س س ۸ س १४८ س १५३ م १३ १८० १८७ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पृष्ठ २२१ २३८ २३८ २६७ २६९ २७१-२८७ २९३ २९६ २९६ ३०४ ३०६ ३४६ ३६९ ३९६ ३८४ ४२७ ४२७ ४३९ ४४६ ४४८ पङ्कि २४ ७ २३ शीर्षक शीर्षक शीर्षक शीर्षक १७ १९ ३ ५ १८ ८ ४ १ १० १४ १४ ७ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર अशुद्धि देव्याः पञ्चप्पिrs कूटागारशाला अङ्गति गाथापति अङ्गति गाथापति अङ्गति गाथापति दर बोधिनी बद्धा " डवलेवणण सं रुवं -मवादीत् ताडयद्भिः afores पञ्चमध्ययनम् वीरगणस्स झद्ध चलारिंशत् तडुपा संगण्य - शुद्धि काल्या देव्याः पञ्चष्पिणंति कूटाकारशाला सूरदेव शुक्रदेव सोमिल ब्राह्मण सुन्दरबोधिनी बद्ध्वा 99 उवलेवण सं एवं - मवादिषुः ताडयद्भिः परिक पञ्चमाध्ययनम् वीरंगयस्स ऋद्ध द्विचत्वारिंशद् तद्रूपा संग्रहण्य -- Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः॥ Bha जैनाचार्य-जैनधर्म-दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजीमहाराजविरचित सुन्दरबोधिनीवृत्तिसमलङ्कृतम् ॥श्री निरयावलिकासूत्रम् ॥ ॥ अथ मङ्गलाचरणम् ॥ (मालिनी छन्दः) सुरमनुजमुनीन्द्रर्वन्धमानापिनं, विदितसकलतत्त्वं बोधिदं तीर्थनाथम् । कृतभवजलनौकारूपधर्मोपदेशं, विमलनयनदं तं वर्धमानं प्रणम्य ॥ १॥ श्री निरयावलिकासूत्र को सुन्दरबोधिनी टीकाका हिन्दीभाषानुवाद मङ्गलाचरण जिनके चरणकमल, देव, मनुष्य और मुनिवरोंसे वंदित हैं। जो सर्व तत्त्वोंके ज्ञाता और बोधिको देने वाले हैं। तथा संसार-सागरसे पार होनेके लिये नौकास्वरूप श्रुतचारित्र धर्मके उपदेशक हैं। एवं ज्ञानरूपी नेत्रके दाता हैं, और चतुर्विधरांघरूपी तीर्थके स्वामी हैं। ऐसे त्रिलोकमें प्रसिद्ध (चौवीसवें तीर्थंकर ) श्री वर्धमानस्वामीको नमस्कार करके ॥१॥ શ્રી નિરયાવલિકા સત્રની સુંદરધિની નામે ટીકાને ગુજરાતી અનુવાદ. भगवायर. જેનાં ચરણ કમળ દેવ મનુષ્ય તથા મુનિવરેથી વંદિત છે, જે સર્વ તત્વના જાણનારા તથા બાધિ સ્વરૂપને આપવા વાળા છે, જે સંસાર સાગર તરી જવા માટે હેડી રૂપી શ્રુતચારિત્ર ધર્મના ઉપદેશક છે, જે જ્ઞાનરૂપી ચક્ષુના દેનાર છે તથા ચાર પ્રકારના સંઘરૂપી તીર્થના પ્રભુ છે, એવા ત્રણ લેકમાં વિખ્યાત (ચોવીસમા તીર્થકર ) શ્રી વર્ધમાન સ્વામીને નમસ્કાર કરીને, (૧) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र सकलनिगमदक्षं ज्ञानचक्षुःसमेतं, कलितसकललब्धि पूर्वधारं मुनीन्द्रम् । जिनवचनरहस्यद्योतकं दीनबन्धु, करण-चरणधारं गौतमं चापि नखा ॥ २ ॥ (पृथ्वी छन्दः) सगुप्तिसमिति समां विरतिमादधानं सदा, समावदखिलक्षमं कलितमञ्जुचारित्रकम् । सदोरमुखवस्तिकाविलसिताऽऽननेन्दु गुरुं, प्रणम्य भववारिधिप्लवमपूर्वबोधप्रदम् ॥ ३॥ तथा सब शास्त्रोके तत्व समझाने में दक्ष (चतुर), ज्ञानदृष्टि से तत्त्वातत्त्व का निर्णय करने वाले, सम्पूर्ण लब्धिवाले, चौदहपूर्वधारक, स्याद्वादरूप जिन-वचनके रहस्यको बताने वाले, षट्कायके रक्षक, और चरण-करणके धारी, मुनियोंमें प्रधान ऐसे श्री गौतमस्वामीको शीश झुकाकर ॥ २ ॥ तथा समिति गुप्तिधारक, समदर्शी, विरतिमार्गमें चलने वाले, पृथिवीके समान सब परिषहोपसर्गोको सहन करने वाले, निरतिचार चारित्रवाले, सम्यक् बोध के देने वाले, वायुकाय आदि जीवोंकी रक्षाके लिए डोर सहित मुखवस्त्रिकासे जिनका मुखचन्द देदीप्यमान है, और जो संसारसागरमें तैरनेके लिए नौकाके समान हैं, ऐसे परसकृपाल गुरुदेवको वन्दना करके ॥ ३ ॥ તથા સર્વ શાસ્ત્રોનું તત્ત્વ સમજાવવામાં ચતુર, જ્ઞાનદૃષ્ટિથી તસ્વાતત્ત્વને નિર્ણય કરવાવાળા, સંપૂર્ણ લમ્બીવાળા, ચૌદ પૂર્વ ધારક, સ્યાદ્વાદરૂપી જિન-વચનનાં રહસ્યને બતાવનાર, છકાયની રક્ષા કરનાર તથા ચરણ કરણના ધારક, મુનિઓમાં પ્રધાન એવા શ્રી ગૌતમ સ્વામીને મસ્તક નમાવીને, (૨) તથા સમિતિ ગુપ્તિના ધારણ કરનારા, સમદશી, વિરતિ માર્ગમાં વિચરનારા, પૃથ્વીની પેઠે તમામ પરિકહે તથા ઉપસર્ગોને સહન કરવાવાળા, નિરતિચાર ચારિત્રવાળા, સમ્યક ઉપદેશ આપવાવાળા, વાયુકાય આદિ જીવોની રક્ષાને માટે દેરા સહિત મુખ વસ્ત્રિકાથી જેનું મુખારવિન્દ શેભી રહ્યું છે. તથા જે સંસારસાગર તરવા માટે એક નાવ समान छ. मेवा परम कृपाशु गु३पने बहन ४रीन, (3). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका शास्त्रप्रारम्भ ( अनुष्टुप् छन्दः ) जैनीं सरस्वतीं नत्वा लोकालोकप्रकाशिनीम् । निरयावलिकावृतिं कुर्वे सुन्दरबोधिनीम् ॥ ४ ॥ ३ मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था | रिद्धत्थिमियसमिद्धे ॥ १ ॥ छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृह नाम नगरम् आसीत् । ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् ॥ १॥ टीका = ' तेणंकालेणं' इत्यादि तस्मिन् काले अवसर्पिण्याश्चतुर्थारकरूपे तस्मिन् समये = कालविशेषरूपे हीयमानलक्षणे राजगृहं नाम नगरम् आसीत् । तद्- (राजगृह) - वर्णन मित्थमाह-' रिद्धत्थिपियसमिद्धे ' इत्युपलक्षणम्, तेन 'पमुइयजण जाणवए, उत्ताणनयणपेक्खणिज्जे, पासाईए, दरिसणिजे, तथा लोकालोकके स्वरूपको प्रकाशित करने वाली - जिनवाणीको नमस्कार arh मैं घासीलाल मुनि निरयावलिकासूत्र की 'सुन्दरबोधिनी' नामक टीका की रचना करता हूँ ॥ ४ ॥ ' तेणं कालेणं ' इत्यादि । उस काल उस समय में अर्थात् - अवसर्पिणीके चौथे आरेके, उसी हीयमान रूप समय में राजगृह नामका प्रसिद्ध नगर था । जिसमें नभःस्पर्शी ऊँचे-ऊँचे सुन्दर महल थे । जहाँ स्व-पर चक्रका कोई भय नहीं था । और वह धन, धान्यादि ऋद्धियोंसे समृद्ध परिपूर्ण था । जो वहाँ के निवासियों को तथा देश તથા લેાકાલેાકના સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળી જિન-વાણીને નમસ્કાર કરી હું ઘાસીલાલ મુનિ નિરચાલિકા સૂત્રની ‘ સુંદરધિની” નામની ટીકાની रथना ४३ छु. (४) तेणें कालेणं धत्याहि. ते आज ते सभयभां अर्थात् अवसर्पिली ( अज ) ना ચાથા આરાના હીયમાન (ઉત્તરતા) સમયમાં રાજગૃહ નામે એક પ્રખ્યાત નગર હતું કે જેમાં ગગનચુંબી ઊંચાં ઊંચાં સુંદર મહાલયેા હતાં. જ્યાં સ્વ પર ચક્રના ભય ન હાતા તથા તે નગર ધન ધાન્યાદિ ઋદ્ધિઓથી પરિપૂર્ણ સમૃદ્ધિવાળું હતું, જે ત્યાંના શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र अभिरूवे, पडिरूवे,' इत्येतेषामपि सङ्ग्रहः । छाया - ऋद्धस्तिमितसमृद्धम्, प्रमुदितजनजानपदम् उत्ताननयनप्रेक्षणीयम् अभिरूपम्, प्रतिरूपम् ; । प्रासादीयम्, दर्शनीयम्, , " ' ऋद्धे ' - त्यादि - ऋद्धं = नभःस्पर्शिबहुल प्रासादयुक्तं बहुजनसङ्कुलं च स्तिमितं = स्वपरचक्रभयरहितं समृद्धं हिरण्य-सुवर्ण - धन-धान्यादिपरिपूर्णमिति ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् अत्र त्रिपदकर्मधारयः । ' प्रमुदिते 'ति प्रमुदितजनजानपदयुक्तम् । तत्रत्यास्तत्राऽऽगता देशान्तरीयाश्च जना हिरण्य-सुवर्ण-धनधान्य- वस्त्रादीनां समर्पलभ्यतया विविधवाणिज्येन स्वस्वाभीष्टानां पूर्णतया यथानीतिलाभेन च प्रमुदिता भवन्ति । 'उत्ताने ' - ति उत्ताननयनप्रेक्षणीयम् = सौन्दर्यातिशयादुन्मीलित निमेषपातवर्जिताक्षिभिर्दर्शनीयम् ' प्रासादीयम् - द्रष्टृणां चित्तप्रसादजनकत्वात्प्रमोदजनकम्, दर्शनीयम् = दृष्टिसुखदत्वेन पुनः पुनर्दर्शनयोग्यम् । अभिरूपम् = मनोज्ञाकृतिकम् प्रतिरूपम् - अपूर्वचमत्कारक शिल्पकलाकलितत्वेनाद्वितीयरूपम् ॥ १ ॥ ४ ܕ " देशान्तर से आनेवालोंको स्वर्ण चांदी रत्नादिके व्यापारसे लाभान्वित करनेके कारण आनन्दजनक था । जिसका अतिशय सौन्दर्य टक-टकी लगाकर अनिमेष दृष्टिसे देखने के योग्य होनेसे वह ' प्रेक्षणीय ' था। जो दर्शकों का मन प्रफुल्लित कर देनेके कारण 'प्रासादीय' प्रमोदजनक था । नेत्रोंको देखने में बारम्बार सुख देनेवाला होनेके कारण ' दर्शनीय' था । सुन्दर आकृतिका होने के कारण ' अभि शिल्पकलाओं से युक्त होने रूप था । अपूर्व - अपूर्व चमत्कार उत्पन्न करने वाली , के कारण प्रतिरूप अर्थात् अनुपम था ॥ १ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર રહેવાશીઓને તથા દેશ પરદેશથી આવવાવાળાને સાનું ચાંદી રત્ન વગેરેના વેપારરાજગારથી લાભકારક હાવાથી આનંદજનક હતુ, જેનું અતિશય સૌંદર્ય અનિમેષ દૃષ્ટિથી જોવા લાયક હાવાથી તે પ્રેક્ષણીય’ હતું, જે જોનારનાં મનને પ્રફુલ્લિત કરવાનાં કારણે ‘પ્રાસાદીય’ પ્રમાદ્યજનક હતું, આંખેાથી જોવામાં વારવાર સુખ આપનાર હાવાથી દર્શનીય' હતું, સુંદર આકૃતિવાળું હાવાથી અભિરૂપ' હતું, નિવન નયન આશ્ચર્ય ઉપજાવે એવી શિલ્પકલાઓવાળુ હોવાથી ‘પ્રતિરૂપ' અર્થાત્ અનુપમ હતું. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, पृथिवीशिलापट्ट मूलम् - तत्थ उत्तरपुरत्थि मे दिसीभाए गुणसिलए ( नामं ) चेइए ( होत्था ) वण्णओ | असोगवरपायवे पुढवीसिलापट्टए ( होत्था ) ॥ २ ॥ छाया तत्र उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गुणशिलकं ( नाम ) चैत्यम् ( अभवत् ) वर्णकः । अशोकवरपादपः पृथिवीशिलापट्टकः ( अभवत् ) ॥ २ ॥ टीका ' तत्थ ' इत्यादि - तत्र - राजगृहे, उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गुणशिलकं (नाम) चैत्यं = व्यन्तरायतनमासीत् कीदृशं चैत्यमिति जिज्ञासायां शास्त्रान्तरे तद्वर्णनमेवमाह'चिराईए, पुण्वपुरिसपन्नते, सच्छत्ते, सज्झए, सघंटे, , सपडागे, कयवियद्दीए, लाइयोल्लोइयमहिए' इति । छाया - चिरादिकम्, पूर्वपुरुषमज्ञप्तम्, सच्छत्रम्, सध्वजम् सघण्टम्, सपताकम्, कृतवितदिकम् लिप्तोपलिप्तमद्दितम् इति । " तत्थ ' इत्यादि । उस राजगृह के ईशान कोण में गुणशिलक नामका उसका वर्णन अन्यत्र ( दूसरे शास्त्रों में ) इस प्रकार है " व्यन्तरायतन था । पूर्व पुरुषोंके कथनानुसार वह प्राचीन कालसे है । उसमें छत्र, ध्वजा, घण्टा, पताका आदि लगे हुए थे और वेदिकाएँ बनी हुई थीं । उसकी भूमि गोमय और मिट्टी से लिपी हुई थी । भीतें खडी चूना आदि से धवलित थीं । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર " तत्थ ’ ઇત્યાદિ. તે રાજગૃહના ઇશાનકાણમાં ગુણશિલક નામનું બ્યન્તરાયતન હતું જેનું વર્ણન અન્યત્ર ( ખીજાં શાસ્ત્રોમાં ) આવી રીતે છે: અગાઉના લેાકાના કહેવા પ્રમાણે તે જુના વખતથી છે. તેમાં છત્ર, ધજા, ઘંટા, પતાકા આદિ લાગેલાં હતાં. વૃત્તિએ ખનેલી હતી. તેની ભૂમિ છાણ અને માટીથી લીંપેલી હતી. અને ભીતા ખડી ચુના વગેરેથી ધવલિત હતી. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र 'चिरादिकम् ' इति-चिरः बहुकालिकः आदिः निवेशो यस्य तत् तथा, 'पूर्वपुरुषेति पूर्वपुरुषैः प्राचीनपुंभिः प्रज्ञप्तम्-उपादेयतया प्रतिबोधितम्, सच्छत्रम्, सध्वजम्, सघण्टम्, सपताकम्, एतत्सर्व स्पष्टम्, कृतवितर्दिकम् रचितवेदिकम्, 'लाइये त्यादि लाइयं-गोमयमृत्तिकादिना भूम्युपलेपनम् च उल्लोइयं-भित्तिसमुदायस्य सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणं च; लाइयोल्लोइये; ताभ्यां महितं-पूजितं प्रशस्तम् परिष्कृतमिति यावत्, एवम्भूतं चैत्यमासीत् ।। तत्र व्यन्तरायतनभूमौ अशोकवरपादपः अशोकाख्यो महावृक्षोऽस्ति, तस्याधस्तटे 'पृथिवीशिलापट्टकः । पटक इव पट्टकः, आसनरूपेण परिणता पृथिवीशिलेत्यर्थः, अभवत् आसीत्, तस्य शास्त्रान्तरे वर्णनमित्थमाह "विक्खंभायामसुप्पमाणे, आइणग-रूय-बूर-नवणीय-तूलफासे, पासाईए, दरिसणिजे, अभिरूवे, पडिरूवे” इति । छाया– विष्कम्भायामसुप्रमाणः, अजिनक-रूत-बूर-नवनीत-तूलस्पर्शः, प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूपः, प्रतिरूपः, इति । 'विष्कम्भे'-ति-विस्तारदाम्यां समुचितप्रमाणोपेतः ‘अजिनके' ति-अजिनमेवाऽजिनक-मृगचर्म, रूतं कार्पासः, बूरः स्निग्धवनस्पतिविशेषः, नवनीतं-दुरपविकारविशेषः, तूलं-अर्क-शाल्मलीवृक्षजातम्, तद्वत्स्पर्शः कोमलस्पर्शः, इत्यर्थः, 'प्रासादीय' इत्यादिपदानां व्याख्या पूर्वोक्तरीत्याऽवगन्तव्या। एवम्भूतः पृथिवीशिलापट्टक आसीत् ॥ २ ॥ ___ वहाँ उसी स्थान पर एक बड़ा अशोक वृक्ष था । उसके नीचे मृगचर्म, कपास, बूर (वनस्पति), मक्खन और आंकडे (अर्क) की रूई (तूल) के समान स्पर्शवाला, उचित प्रमाण से लम्बा चौडा आसन के आकारसा बना हुआ पृथ्वीशिलापट्ट था, जो दर्शनीय अभिरूप प्रतिरूप था ॥ २ ॥ ત્યાં એ જગ્યા ઉપર એક મેટુ અશોક વૃક્ષ હતું. તેની નીચે મૃગચર્મ, કપાસ, બૂર (વનસ્પતિ) માખણ અને આકડાના રૂ જેવું સુવાળું અને ઉચિત પ્રમાણથી લંબાઈ પહોળાઈ વાળું આસનના આકાર જેવું પૃથ્વીશિલાપટ્ટ હતું જે દર્શનીય અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ હતું. (૨) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका आर्य सुधर्मा मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स मगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने जहा केसी जाव पंचर्हि अणगारसहि सद्धिं संपरिबुडे पुव्वाणुपुच्चि चरमाणे ( गामाणुगामं दुइज्जमाणे ) जेणेव रायगिहे जाव अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिव्हित्ता संजमेण जाव विहरइ । परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ । परिसा पडिगया ॥ ३ ॥ छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तेवासी आर्यसुधर्मा नामाऽनगारो जातिसम्पन्नो यथा केशी, यावत् पञ्चभिरनगारशतैः सार्द्ध संपरिवृतः पूर्वानुपूर्व्या चरन् ( ग्रामानुग्रामं द्रवन् ) यत्रैव राजगृहं नगरं यावत् यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन यावद् विहरति । परिषन्निर्गता । धर्मः कथितः । परिषत् प्रतिगता ॥ ३ ॥ टीका — 6 तेणं कालेणं ' इत्यादि - तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी - शिष्यः, आर्यसुधर्मा (स्वामी) नामा नगारः विहरतीत्यन्वयः । अथ तद्वर्णनमाह-जातिसम्पन्नः सुविशुद्धमातृवंशयुक्तः, 'यथा ' तेणं कालेणं' इत्यादि । उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामीके अन्तेवासी (शिष्य) श्री आर्यसुधर्मास्वामी विचरते थे । उनका वर्णन केशी श्रमणके समान इस प्रकार है माताका वंश निर्मल (शुद्ध) हो से उत्पन्न पराक्रमसे विशुद्ध होनेसे जातिसंपन्न थे । पैतृक पक्ष कुलसंपन्न थे । बलसंपन्न अर्थात् संहनन युक्त थे । वज्रऋषभनाराचसंहननके धारी थे । 'तेण कालेणं' धत्याहि. ते अण ते सभयभां श्रमण भगवान् महावीर स्वामीना અન્તવાસી શ્રી આર્ય સુધર્મા સ્વામી વિચરી રહ્યા હતા. તેમનું વર્ણન કેશી શ્રમણ સમાન આ પ્રકારે છે:— શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર માતાનું કુળ વિશુદ્ધ હાવાથી જાતિસંપન્ન હતા, પિતાના પક્ષ શુદ્ધ હાવાથી કુળસ ંપન્ન હતા, ખલસંપન્ન હતા, અર્થાત્ સંહનનથી ઉત્પન્ન થયેલા પરાક્રમવાળા હતા. વઋષભનારાચ સંધયણધારી હતા. જે આઠ કર્મોના નાશ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरावलिका सूत्र ८ केशी' ति-केशिनामा श्रमणो गणधरो यथाऽऽसीदित्यर्थः, अत्र यावच्छब्देनैवं केशिविशेषणानि संगृह्यन्ते - तथाहि - 'कुलसंपन्ने, बलसंपन्ने, विणयसंपन्ने, लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, वयंसी, जसंसी, जियकोहमाणमायालोहे, जीवियासामरणभविष्यमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे, करणचरणप्पहाणे, निग्गहप्पहाणे, घोरवंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, चोहसपुच्ची, चउनाणोवगए' इति । अस्य च्छाया - " कुलसम्पन्नः, बलसम्पन्नः, विनयसम्पन्नः, लाघवसम्पन्नः, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी, यशस्वी, जितक्रोधमानमायालोभः, जीविताशामरणभयविप्रमुक्तः, तपःप्रधानः, गुणप्रधानः, करणचरणप्रधानः, निग्रहप्रधानः, घोरब्रह्मचर्यवासी, उच्छूढशरीरः, चतुर्दशपूर्वी, चतुर्ज्ञानोपगतः " । इति, जो आठ कर्मोंका नाश करे उसको विनय कहते हैं, वह अभ्युत्थानादि गुरुसेवा स्वरूप है, उससे युक्त थे । लाघव सपन्न थे अर्थात् द्रव्यसे अल्प उपधि वाले थे और भावसे गौरव - (गाव) - त्रय रहित थे । इन्द्रियोंके सौन्दर्य और तप आदि के प्रभावसे ओजस्वी - प्रतिभाशाली थे । अन्तर 4 आत्मप्रभाव ' और बाहर ' शरीर प्रभाव' से देदीप्यमान होने के कारण तेजस्वी थे । सब और निरवद्य ( निर्दोष) बचन युक्त होनेसे आदेय ( ग्राह्य और सयमके आराधनसे प्रसिद्धि प्राप्ति होने के कारण वलिकामें आनेवाले क्रोध आदिको निष्फल करनेके थे। जीनेकी आशा और प्राणियों के हितकारक ) वचन वाले थे । तप यशस्वी थे । उदयाकारण कषायोके विजेता मृत्युके भयसे रहित थे । अन्य मुनियोंकी अपेक्षा કરે તેને વિનય કહે છે, તે અભ્યુત્થાનાદિ ગુરૂસેવાના લક્ષણ યુકત વિનયસપન્ન હતા. લાઘવસંપન્ન હતા અર્થાત્ દ્રવ્યથી થાડી ઉપાધિવાળા હતા અને ભાવથી ત્રણ ગૌરવથી રહિત હતા. ઇન્દ્રિયેાનાં સૌંદર્યથી તથા તપ વગેરેના પ્રભાવથી પ્રતિભાશાળી હતા. અ ંતર આત્મપ્રભાવ અને બહાર શરીરપ્રભાવથી દેદીપ્યમાન હોવાના કારણે તેજસ્વી હતા. સર્વે પ્રાણીઓના કલ્યાણકારક તથા નિર્દોષ વચન યુક્ત હાવાથી આદેય (ગ્રાહ્ય) વચનવાળા હતા. તપ તથા સંયમની આરાધના કરવાથી પ્રસિદ્ધિપ્રાપ્ત હોવાને કારણે યશસ્વી હતા, ઉદયાવલિકા એટલે કમ ફળની પરંપરામાં આવવા વાળા ક્રોધાદિને જીતવાથી કષાયાના વિજેતા હતા જીવવાની આશા તથા મૃત્યુના ભય રહિત હતા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका आर्यसुधर्मा 'कुले 'ति - कुलं- पैतृकः पक्षस्तत्सम्पन्नः, उत्तमपैतृकपक्षयुक्तः, 'बले' ति - वलेन संहननसमुत्थेन पराक्रमेण युक्तः, वज्र - ऋषभ - नाराच संहननधारीत्यर्थः, : 'विनये' ति - विनयति - नाशयति अष्टप्रकारकं कर्म यः स विनयः= अभ्युत्थानादिगुरुसेवालक्षणस्तत्सम्पन्नः । ' लाघवे' ति लाघवं द्रव्यतः स्वल्पोपधित्वम्, भावतो गौरवत्रयनिवारणं, तत्सम्पन्नः । 'ओजखी'ति - ओजः = सकलेन्द्रियाणां पाटवं तपःप्रभृतिप्रभावात् समुत्थतेजो वा, तद्वान्, 'तेजस्वी 'ति - तेजः = अन्तर्बहिर्देदीप्यमानत्वम् तेजोलेश्यादि वा : तद्वान्, ' वचस्वी 'ति - वचः = आदेयं वचनं सकलप्राणिगणहितसंपादकं निरवद्यवचनं, तद्वान्, 'यशस्वी' तियशः=तपःसंयमाराधनख्या तिस्तद्वान्, 'जिते ' - त्यादि - उदयावलिकाप्रविष्टक्रोधादीनां विजयो-विफलीकरणं, तद्वान्, 'जीविते - त्यादि - जीवितं प्राणवारणं तस्याशा, मरणं = मृत्युस्तस्माद्भयं = त्रासः, ताभ्यां विप्रमुक्त:- वर्जितः, " तपःप्रधान ' इति - तपति = दहति ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्माणि इति तपः= चतुर्थ षष्ठाऽष्टमभक्तादिलक्षणं तत्प्रधानः शेषमुनिजनापेक्षया विविधमकारकतपोयुक्तः पारणादौ नानाविधाभिग्रहयुक्तः । ' गुणप्रधान' इति - गुणः = ज्ञानादिरत्नत्रयं क्षान्त्यादिर्वा तत्प्रधानः, उक्तञ्च 1. " परोपकार करतिर्निरीहता, विनीतता सत्यमनुत्यचित्तता । विद्या विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्त्ववतां भवन्ति ॥ १ ॥” इति । चतुर्थ भक्त आदि तप अधिक करनेसे, और पारणा आदिमें अनेक प्रकारके कठिन अभिग्रह करनेसे, 'तपः प्रधान' थे, सम्यग् ज्ञान आदि रत्नत्रय, और क्षान्ति आदि दसविध यतिधर्मसे युक्त होनेके कारण 'गुणप्रधान' थे । कहा भी है:" परोपकारैकरतिर्निरीहता, विनीतता सत्यमनुत्यचित्तता । विद्या विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्त्ववतां भवन्ति ॥” इति ॥ ९ ખીજા મુનિની અપેક્ષાએ ચતુર્થ ભક્ત (ઉપવાસ) આદિ તપ બહુ કરવાથી તથા પારણાં આદિમાં અનેક જાતનાં કઠિન અભિગ્રહ કરવાથી તપप्रधान' हता. સમ્યક્ જ્ઞાન આદિ રત્નત્રય તથા ક્ષાન્તિ (ક્ષમા ) આદિ વિધ પતિધર્મથી યુક્ત હાવાથી ગુણપ્રધાન' હતા. એમ કહ્યું પણ છે કેઃ— “ परोपकार कैरतिर्निरीहता, विनीतता सत्यमनुत्थचित्तता " विद्या विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्त्ववतां भवन्ति” ॥ इति ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ___'करणे' ति-करणसप्ततिः, चरणसप्ततिः, तत्मधानः, 'निग्रहप्रधान' इति इन्द्रियनोइन्द्रियनिरोधकरणेन, खात्मनोऽपूर्ववीर्यपरिस्फोटनं, तत्प्रधाना, 'घोरब्रह्मे'-त्यादि-ब्रह्म-कामपरिषेवणत्यागस्तत्र चरणं ब्रह्मचर्य, घोरं च तद् ब्रह्मचर्य घोरब्रह्मचर्यम् अल्पसत्त्वेन दुरनुष्ठेयं, तत्र वस्तुं शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी । 'उच्छूढशरीर' इति-उच्छूढमुज्झितमिव संस्कारपरित्यागाच्छरीरं येन स उच्छूढशरीरः, सर्वथा शरीरसंस्कारवर्जितः । 'चतुर्दशपूर्वी-चतुर्दशपूर्वधारी; चतुर्ज्ञानोपगतः केवलवर्जितमत्यादिचतुर्ज्ञानवान् । केशी श्रमणस्तुमतिश्रुताऽवधिज्ञानत्रयवान् , उक्तश्च - उत्तराध्ययनसूत्रे त्रयोविंशाध्ययने-- "ओहिनाणे सुए बुद्धे" इति एतादृशकेशिश्रमणगणधरसदृशः पञ्चमगणधरः अर्थात्-परोपकारमें आनन्द मानना, निःस्पृहता रखना, विनय, सत्य, प्रशान्त भाव, विद्या विनोद, मध्यस्थ भाव और दीनताका त्याग, ये गुण महापुरुषोंमें होते हैं । तथा करण चरणके धारी थे, इन्द्रिय नोइन्द्रिय (मन) के दमन करने से आत्माका अपूर्व वीर्य स्फोरन करनेके कारण निग्रहप्रधान' थे। अल्पसत्त्ववालो से दुश्चरणीय ब्रह्मचर्यके धारक होनेसे 'घोरब्रह्मचारी' थे । शृङ्गारके लिए सर्वथा शरीरसंस्काररहित होनेके कारण 'उच्छूढशरीर' (शरीरममत्वरहित) थे । केशी श्रमण मति, श्रुत, और अवधि, तीन ज्ञानके ही धारी थे । जैसे उत्तराध्ययन सूत्रमें कहा है-“ओहिनाणे सुए बुद्धे” इति । इस प्रकार केशी श्रमण गणधर के समान गुणके धारण करनेवाले चार ज्ञान और चौदह पूर्वके धारी पँचम गणधर અથાત – પરોપકારમાં આનંદ માન, નિસ્પૃહતા રાખવી, વિનય સત્ય. પ્રશાંત મા. વિદ્યા વિનેદ, મધ્યસ્થભાવ અને દીનતાને ત્યાગ એ ગુણ મહાપુરૂષોમાં હોય છે. તથા તે કરણ ચરણના ધારણ કરવાવાળા હતા, ઈન્દ્રિયેને તથા નોઈન્દ્રિય (મન) ને દમન કરવાથી આત્માના અપૂર્વ વીર્ય પ્રગટ કરવાના કારણે નિગ્રહપ્રધાન હતા અલ્પસત્ત્વવાળાથી મુશ્કેલી એ પળાય એવાં બ્રહ્મચર્યને ધારણ કરવાથી “ઘરબ્રહ્મચારી હતા શૃંગાર માટે શરીરને સર્વથા સંસ્કારરહિત રાખતા હેવાથી ઉછૂટશરીર (શરીરમમત્વ રહિત) હતા. કેશી શ્રમણ, મતિ શ્રત તથા અવધિ એ ત્રણ જ્ઞાનના જ ધારી હતા જેમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં કહ્યું છે – “ओहिनाणे सुए बुद्धे " इात, मे प्रमाणे २ अभए गएधरनी समान ગુણને ધારણ કરવાવાળા ચાર જ્ઞાન અને ચૌદ પૂર્વના ધારી પાંચમા ગણધર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका आर्यसुधर्मा, पांच अमिगम श्रीसुधर्मस्वामी पञ्चभिरनगारशतैः पञ्चशतसंख्यकमुनिभिः सार्द्ध-सह संपरितः= पश्चशतमुनिपरिवारयुक्तः, 'पूर्वानुपूर्व्या'-तीर्थकरोक्तपरम्परया चरन-विहरन् , ('ग्रामानुग्रामम्' एकस्मात् ग्रामात् ग्रामान्तरं द्रवन्-गच्छन् यान-वाहनादि विना पदविहारेण ग्रामान्तरमपरित्यजन्, अनेनाऽप्रतिबद्धविहारिता सूचिता) 'जेणेव' इति-यस्मिन्नेव क्षेत्रविभागे राजगृहनामकं नगरमस्ति गुणशिलकं नाम चैत्यं च तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति, उपागत्य यथाप्रतिरूपं साधुकल्प्यमवग्रहमावसथम् अवगृह्य-गृहीत्वा संयमेन तपसा चाऽऽत्मानं भावयन् विहरति स । परिषनिर्गता-श्रीमुधर्मस्वामिनं वन्दितुं धर्मकथाश्रवणार्थं च परिषद्वृन्दरूपेण जनसंहतिर्नगरान्निर्गता-निस्मृता, पश्चविधाभिगमपुरस्सरं तत्र समागता । श्रीसुधर्मा स्वामी पाँच सौ मुनियोंके परिवार सहित तीर्थंकरोंकी मर्यादाका पालन करते हुए और प्रामानुग्राम विचरते हुए, जहाँ राजगृह नगर है, जहाँ गुणशिलक नामका चैत्य (व्यन्तरायतन ) है वहाँ पधारे, और मुनियोंके कल्पके अनुसार अवग्रह लेकर संयम और तपसे आत्माको भावित करते हुए रहने लगे। श्री सुधर्मा स्वामी यहाँ पधारे हैं, इस बातको सुनकर राजगृहसे परिषद् निकली इसी प्रकार राजा वन्दन करनेके लिए और धर्मकथा सुननेके लिए जनसमूह पाँच अभिगमपूर्वक आए। સુધર્મા સ્વામી પાંચસો મુનિઓના પરિવાર સાથે તીર્થકરની મર્યાદાનું પાલન કરતા થકા અને ગ્રામાનુગ્રામ વિચરતા થકા જ્યાં રાજગૃહ નગર છે, જ્યાં ગુણશિલક નામે ચત્ય વ્યંતરાયતન) છે ત્યાં પધાર્યા, તથા મુનિઓના આચાર પ્રમાણે અવગ્રહ લઈને સંયમ તથા તપથી આત્માને ભાવિત કરતા રહેવા લાગ્યા. શ્રી સુધર્મા સ્વામી અહીં પધાર્યા છે, એ વાત સાંભળી પરિષદ નિકળી. એજ રીતે વંદના કરવાને તથા ધર્મ કથાનું શ્રવણ કરવા માટે જન સમુહ પાંચ અભિગમપૂર્વક આવ્યા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ___ पञ्चविधाभिगमो यथा(१) सचित्ताण दव्वाणं विउसरणयाए, (२) अचित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए, (३) एमसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं, (४) चक्खुप्फासे अंजलिप्पग्गहेणं, (५) मणसो एगत्तीकरणेणं, 'धम्मो कहिओ' इति-श्रुतचारित्रलक्षणो धर्मः कथितः उपदिष्टः, 'परिसा पडिगया' इति-परिषत्-जनसंहतिः तत्समीपे सविधिवन्दनपुरस्सरं पाँच अभिगम इस प्रकार हैं :(१) धर्मस्थान पर नहीं लेजाने योग्य पुष्पमाला आदि सचित द्रव्योंका त्याग करना। वस्त्र भूषण आदि अचित्त द्रव्योंका त्याग नहीं करना । (३) सिलाई किया हुआ कपडा न हो ऐसे, अर्थात् अखण्ड वस्त्र-द्वारा मुख पर उत्तरासंग करना। धर्मगुरुके दृष्टि-पथमें आने पर दोनों हाथ जोडना। (५) मनको एकाग्र करना। इस मर्यादा से समवसरणमें सुधर्मास्वामी आदि मुनियोंको सविधि वन्दन करके स्व-स्व स्थान पर परिषद्के स्थित हो जाने पर श्री सुधर्मा स्वामोने પાંચ અભિગમ આ પ્રકારના છે – (૧) ધર્મ સ્થાન પર ન લઈ જવા જેવાં પુષ્પમાલા આદિ સચિત્ત ને. ત્યાગ કરવો. (૨) વાઆભૂષણ આદિ અચિત્ત દ્રવ્યને ત્યાગ ન કરો. (૩) સીવેલું કપડું ન હોય એવાં અર્થાત્ અખંડ વસ્ત્રથી મુખ ઉપર ઉત્તરસંગ કરવું. ૪) ધર્મગુરૂ નજરે પડતાંજ બે હાથ જોડવા. (૫) મનને એકાગ્ર કરવું. આવી મર્યાદાથી સમવસરણમાં સુધર્મા સ્વામી વગેરે મુનિઓને વિધિપૂર્વક વંદના કરીને પિતાપિતાને સ્થાને પરિષદ (મળેલા લોકે) બેસી ગયા પછી શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ શ્રત ચારિત્ર લક્ષણ ધર્મ સંભળાવ્યું. ધર્મકથા સાંભળી રહ્યા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूस्वामी १३ धर्मकयां श्रुत्वा यस्या दिशः सकाशात् प्रादुर्भूता = आगता तामेव दिश प्रतिगता इति ॥ ३ ॥ मूलम् तेणें कालेणं तेणं समएणं अज्जमुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी जंबू णामं अणगारे समचउरंससठाणसंठिए जाव संखित्त विउलतेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामंते उड़जाणू जाव विहरइ ॥ ४ ॥ छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मणोऽनगारस्य अन्तेवासी 'जम्बू ' नामाऽनगारः, समचतुरस्र संस्थानसंस्थितः यावत् संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः, आर्यसुधर्मणोऽनगारस्य अदूरसामन्ते ऊर्ध्वजानुर्यावद् विहरति ॥४॥ टीका ' तेणं कालेणं' इत्यादि - तस्मिन् काले तस्मिन् समये धर्मकथां श्रुत्वा जनसंहतिप्रतिगमनानन्तरकाले आर्यसुधर्मणः स्वामिनोऽनगारस्यान्तेवासो आर्यजम्बूनामाऽनगारः काश्यपगोत्रोत्पन्नः, अत्र प्रसङ्गात् जम्बूस्वामिनः परिचयश्चायम् -' राजगृह -नगर्याम् ऋषभदत्त ' - नामा इभ्यश्रेष्ठी निवसति स्म, तस्य 'भद्रा' - नाम्नी भार्या, श्रुतचारित्रलक्षण धर्म सुनाया । धर्मकथा श्रवण करनेके पश्चात् परिषद् जिस दिशासे आई, पुनः उसी दिशाको चली गई ॥ ३ ॥ 'तेणं कालेणं' इत्यादि । " उस काल उस समय श्री आर्यसुधर्मा स्वामी के अंतेवासी काश्यपगोत्रीय श्री आर्य जम्बू स्वामी जिनका परिचय इस प्रकार है राजगृह नगर में ऋषभदत्त नामके इभ्य ( उत्कृष्ट घनिक ) सेठ रहते थे । उनकी पत्नीका नाम भद्रा था । पंचम देवलोकसे चवकर एक ऋद्विशाली देवने - પછી લેાકેા જે જે ખાજુએથી આવ્યા હતા ત્યાં ત્યાં પાછા ગયા. (૩) ‘तेणं कालेणं' ऽत्याहि. ते अणे ते सभये श्री मार्य सुधर्मा स्वाभीना अन्तेवासी (શિષ્ય) કાશ્યપગેાત્રી શ્રી આર્ય જ ખૂસ્વામી હતા જેમના પરિચય નીચે પ્રમાણે છેઃ— રાજગૃહ નગરમાં ઋષભદત્ત નામના ઇન્ચ ( બહુ ધનવાન શેઠ ) રહેતા હતા. તેમની પત્નીનું નામ ભદ્રા હતું. પાંચમા દેવલાકથી ચવીને એક ઋદ્ધિશાળી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका सूत्र १४ , तत्पुत्रः पञ्चमस्वर्गाच्च्युतो 'जम्बू' -नामा सञ्जातः, मात्रा स्वप्ने जम्बूवृक्षो दृष्टस्तेन तस्य 'जम्बू' इति नाम कृतम् स पञ्चमगणधरसुधर्मस्वामिनिकटे वर्मश्रवणात् प्रतिपन्नशीलसम्यक्त्वोऽपि पित्रोराग्रहवशादष्टानामिभ्यश्रेष्ठिनामष्टौ कन्याः परिणीतवान्, किन्तु कन्यानां हावभावादिभिर्न व्यामोहितः, यतःसम्यक्त्व—–शील—तुम्बाभ्यां, भवाब्धिस्तीर्यते सुखम् । ये दधानो मुनिर्जम्बू, स्त्रीनदीषु कथं ब्रुडेत् ॥ १ ॥ " इति ॥ 46 - उनकी कुक्षिमें जन्म लिया, माताने स्वप्नमें जम्बू वृक्षको देखा इस लिए उनका नाम जम्बू रखा था । उस जम्बू कुमारने पञ्चम गणधर श्री सुधर्मा स्वामी के पास धर्म सुनकर सम्यक्त्व और शीलवत धारण किया । पश्चात् सम्यक्त्व और शीलवत धारी होकर भी मातापिता के आग्रहसे आठ इभ्य सेठोंकी आठ कन्याओंके विवाह किया, फिरभी ये कन्याओंके हाव-भाव आदिमें मोहित नहीं हुए । कभी साथ :– 64 सम्यक्त्व- शील-तुम्बाभ्यां, भवाब्धिस्तीर्यते सुखम् I ये दधानो मुनिर्जम्बू, स्त्रीनदीषु कथं ब्रुडेत् ||१|| इति " अर्थात्–सम्यक्त्व और शीलरूप तुम्बोंके द्वारा भवसमुद्र सुखसे तैरा जाता है । उन्हीं सम्यक्त्व और शीलको धारण करनेवाले जम्बू अनगार स्त्रीरूप नदियों में कैसे डूब सकते हैं ? अर्थात् कभी नहीं ॥ १ ॥ દેવે તેણીની કુખે જન્મ લીધા. માતાએ સ્વપ્નામાં જ ખૂ વૃક્ષને જોયું તેથી તેનું નામ જમ્મૂ પાડયું હતું. તે જ કુમારે પંચમ ગણધર શ્રી સુધર્મા સ્વામીની પાસે ધર્મનું શ્રવ કરી સમ્યક્ત્વ તથા શીલવ્રત ધારણ કર્યું.... સમ્યક્ત્વ તથા શીલવ્રત ધારી હાવા છતાં પણ માતાપિતાના આગ્રહથી ઇસ્ય શેઠની આઠ કન્યાએ સાથે લગ્ન કર્યું. પણ તે આઠે કન્યાઓની હાવ—ભાવ આદિ ચેષ્ટામાં માહિત થયા નહાતા. એમ કહ્યું છે કે: सम्यक्त्व - शील- तुम्बाभ्यां भवाब्धिस्तीर्यते सुखम् ये दधानो मुनिर्जम्बू, स्त्रीनदीषु कथं ब्रुडेत् ॥ १ ॥ इति ॥ અર્થાત્ સમ્યક્ત્વ તથા શીલરૂપ તુંબડીથી સંસાર સાગર સુખેથી તરી જવાય છે તેજ સમ્યક્ત્વ તથા શીલને ધારણ કરી જંબૂ સ્વામી સ્રો રૂપી નદીએમાં કેમ તૂર્કી શકે ? અર્થાત્ કદી ન ડૂબે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका जम्बू प्रभव आदि (५२७) दीक्षा ततो रात्रौ ताः प्रतिबोधयन् चौर्यार्थमागतं चतुःशतनवनवतितस्करपरिवृतं 'प्रभव'-नामानं तस्कराधिपति प्राबोधयत्, ततः मातरेव पञ्चशततस्करभार्याष्टकतजनकजननी-स्वजनकजननीभिः सह स्वयं पश्चशतसप्तविंशतितमो यौतुकागतकनकनवनवतिकोटीः स्वगृहसम्पत्ति च परित्यज्य प्राबाजीत् । क्रमेण केवली जातः, षोडश वर्षाणि गृहस्थत्वे, विंशतिवर्षाणि छमस्थावस्थायां, चतुश्चत्वारिंशद्वर्षाणि केवलिपर्याये व्यतीतानि, एवमशीतिवर्षाणि सर्वायुः परिपाल्य श्रीमभवं स्वपदे संस्थाप्य सिद्धिमगमत् । उक्तञ्च विवाहके बाद रात्रिमें उन आठों स्त्रियोंको प्रतिबोध देते हुए जम्बू कुमारने चोरीके लिए आये हुए 'प्रभव'को चार सौ निन्यानवे (४९९) चोरोंके साथ प्रतिबोधित किया। उसके पश्चात् प्रातःकाल ही जम्बू कुमार पाँचसौ चोर, और अपनी आठों भायाएँ, उनके मातापिता और अपने मातापिता इस तरह पाँचसौ सत्ताइस (५२७) जनोंने दीक्षा ग्रहण की। जम्बू कुमारने अपने दहेजमें आई हुई निन्यानवे (९९) कोटि स्वर्ण मोहरोको तथा धरकी समस्त सम्पत्तिको त्याग कर दीक्षित हुए, और क्रमसे तप संयम आराधन करके केवल ज्ञान पाये । वे सोलह वर्ष गृहस्थावासमें रहे, वीस वर्ष छमस्थ रहेऔर ४४ चौवालीस वर्ष केवलपर्यायमें रहे । इस प्रकार ८० अस्सी बरसकी सर्व आयु व्यतीत करके प्रभव स्वामी को अपने पद पर स्थापितकर सिद्धपदको पाये । कहा भी है વિવાહ પછી રાતમાં તે આઠે સ્ત્રીઓને ઉપદેશ આપતાં જ બૂકુમારે ચોરી કરવા આવેલા પ્રભાવને ચારસો નવાણું (૪૯) ચારેની સાથે ઉપદેશ આપ્ટે, અને પ્રતિબંધિત કર્યા. તે પછી સવારમાંજ પાંચસે ચેર, પિતાની આઠ સ્ત્રીઓ તથા તેમના માતા પિતા તથા પિતાનાં માતા પિતા, અને જમ્મુ પિતે એવી રીતે પાંચસો સત્તાવીશ (પર૭) જણેએ દીક્ષા ગ્રહણ કરી. જમ્મુ કુમાર પોતાના દાયજામાં આવેલી નવાણું (૯૯) કરોડ સોના મહોરે તથા ઘરની સમસ્ત સંપત્તિનો ત્યાગ કરી દીક્ષિત થયા અને કુમથી તપ સંયમ આરાધન કરીને કેવળ જ્ઞાન મેળવ્યું. તેઓ સોળ વરસ ગૃહસ્થાશ્રમમાં રહ્યા. વશ વરસ છાસ્થ રહ્યા તથા ચુંમાલીસ (૪૪) વરસ કેવલ પોચમાં રહ્યા. આમ એંસી (૮) વરસનું સર્વ આયુષ્ય પૂર્ણ કરીને પ્રભવ સ્વામીને પિતાનાં પદ પર રથાપિત કવી પિતે સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કર્યું કહ્યું છે કે – શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( G निरयावलिका सूत्र (वसन्ततिलकावृत्तम्) "जम्बूसमो भविसमुद्धरणैकचित्तो-, भूतो न कोऽपि भविता धरणीतलेऽस्मिन् । यस्तस्करानपि चकार शिवाध्वनीनान् । साधून प्रियाऽष्टकपिताजननीश्च धीरः ॥१॥ हित्वा विनश्वरधनं प्रभवोऽपि धन्य चौराद्यगोचरमनय॑मवाप्तवान् यः । रत्नत्रयं स्थिरतरं निजबन्ध्वभाज्यं पाथेयमद्भुतमनन्तसुखावहं च ॥२॥" इति ॥ "जम्बू स्वामी के समान इस संसार में न हुआ न होगा, जिस धीर प्रशंसनीय महापुरुष ने चोरोंको भी संयम मार्गमें आरूढकर, और वैसे ही अपनी आठों भार्याओं, तथा उनके मातापिता और अपने मातापिताको भी संयम मार्गपर आरूढकर मोक्षगामी बनाये ॥ १ ॥ विनश्वर धन आदिका त्याग कर, न जिसको चोर चुरासकते हैं और न जिसकी कीमत हो सकती है, जो अविनाशी है, निजबन्धु भी जिसका भाग नहीं ले सकते, तथा मोक्ष स्थानको पहुँचनेके लिए संवल-(भाता)के समान है, ऐसे अनन्त सुखके देने वाले रत्नत्रयको प्रभवने भी प्राप्त किया इस लिये वह धन्य है ॥ २ ॥" જંબૂ સ્વામીના જેવા આ સંસારમાં થયા નથી અને થશે પણ નહિ કે જે ધીર તથા પ્રશંસનીય મહાપુરૂષે ચોરને પણ સંયમને માથે ચડાવ્યા તથા મોક્ષગામી બનાવ્યા. એવી જ રીતે પિતાની આઠ સ્ત્રીઓ તથા તેમનાં માતાપિતાને તથા પિતાનાં (જબૂનાં) માતા પિતાને પણ સંયમ માર્ગે ચડાવી મોક્ષગામી બનાવ્યાં. ૧ નશ્વર ધન વગેરેને ત્યાગ કરીને, જેને ચાર ચેરી ન શકે, જેનું મૂલ્ય ન થઈ શકે, જે અવિનાશી છે, પોતાના ભાઈ પણ જેમાંથી ભાગ પડાવી ન શકે, તથા મેક્ષ સ્થાને પહોંચવા માટે જે માતા સમાન છે. એવું અનંત સુખ દેવાવાળાં રત્નત્રયને પ્રાપ્ત કરનાર પ્રભવને પણ ધન્ય છે ૨ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूवर्णन अथ सूत्रकारो जम्बूखामिनं विशिनष्टि-'समचतुरे' त्यादिना, समा:तुल्याः अन्यूनाधिकाः चतस्रोऽस्रयो हस्तपादोपर्यधोरूपाश्चत्वारोऽपि विभागाः (शुभलक्षणोपेताः) यस्य (संस्थानस्य) तत् समचतुरस्र-तुल्यारोहपरिणाहं, तच्च संस्थानम्-आकारविशेषः इति समचतुरस्रसंस्थानं, तेन संस्थितम् समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः । जाव-(यावत् )-शब्देन 'सत्तुस्सेहे वजरिसहनारायसंघयणे, कणग-पुलग-निघसपम्हगोरे' तथा-'उग्गतवे, तत्ततवे, दित्ततवे, उराले, घोरे, घोरव्वये, संखित्तविउलतेउलेस्से' एतेषां सङ्ग्रहः । एतच्छाया-'सप्तोत्सेधः, वज्रऋषभ-नाराचसंहननः, कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, तथा-उग्रतपाः, तप्ततपाः, दीप्ततपाः, उदारः, घोरः, घोरव्रतः, संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः । तत्र 'सप्तोत्सेध' इति सप्तहस्तोच्छ्रया=सप्तहस्तपमितोच्छृितदेहः । 'वजे' त्यादि-वत्रं-कीलिकाकारमस्थि, ऋषभः तदुपरिपरिवेष्टनपट्टाकृतिकोऽस्थिविशेषः, नाराचम्-उभयतो मर्कटबन्धः, तथा च-द्वयोरस्भोरुभयतो मर्कटबन्धनेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनाऽस्था परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयं पुनरपि दृढीकर्तु तत्र निखातं कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद् वज्रऋषभनाराचम् , तत् संहननं-संहन्यन्ते-दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्गला येन तत् संहननम् अस्थिनिचयो यस्य स वऋषभनाराचसंहननः । सूत्रकार फिर जम्बू स्वामीका वर्णन करते हैं - जो समचतुरस संस्थानवाले थे, जिनके शरीरकी अवगाहना सात (७) हाथकी थी, वज्रऋषभनाराच संहननके धारी थे, સૂત્રકાર વળી જંબૂ સ્વામીનું વર્ણન કરે છે – જે સમરસ સંસ્થાનવાળા હતા, જેના શરીરની અવગાહના સાત(૭)હાથની હતી, વજ બાષભનારાચ સંઘયણવાળા હતા, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र कनके ' त्यादि-कनकस्य सुवर्णस्य पुलका खण्डम् , तस्य निकष:= शाणनिघृष्टरेखा, 'पद्म'-शब्देन पद्मकिञ्जल्कं गृह्यते, पग-पद्मकिञ्जल्कं च, तद्वद् गौरः, इति । यद्वा-कनकस्य सुवर्णस्य पुलका सारो वर्णातिशयस्तत्पधानो यो निकषः शाणनिघृष्टसुवर्णरेखा तस्य यत् पक्ष्म बहुलत्वं तद्वद् गौर:= शाणनिघृष्टानेकसुवर्णरेखावच्चाकचिक्ययुक्तगौरशरीरः, 'उग्रतपा 'इति-उग्रं=3 विशुद्धं प्रवृद्धपरिणामत्वात्पारणादौ विचित्राभिग्रहत्वाच अप्रधृष्यमनशनादि द्वादशविधं तपो यस्य स तथा, तीव्रतपोधारीत्यर्थः । 'तप्ततपा'इति-येन तपसा ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्म भस्मीभवति तादृशं तपस्तप्तं येन से तथा, कर्म निर्जरणार्थतपस्यावान् । 'दीप्ततपाः' इति-दीप्तं-जाज्वल्यमानं तपो यस्य स तथा वहिरिव कर्मवनदाहकत्वेन, ज्वलत्तेजस्वीत्यर्थः, उदारः सकलजीवैः सह मैत्रीभावात् , 'घोर' इति-परीषहोपसर्गकषायशत्रुप्रणाशविधौ भयानकः, 'घोरवत' इति-घोरं कातरैर्दुश्चरं व्रत-सम्यक्त्वशीलादिकं यस्य स तथा, 'संक्षिप्तविपुले' त्यादि-संक्षिप्ता शरीरान्तर्गतत्वेन सङ्कुचिता विपुला विशाला अनेकयोजनपरिमितक्षेत्रगतवस्तुभस्मीकरणसमर्थापि, तेजोलेश्या विशिष्टतपोजनितलब्धिविशेषसमुत्पन्नतेजोज्वाला यस्य स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः शरीरान्तीनतेजोलेश्यावान् । एवं गुणगणसमेतो 'जम्बूस्वामी' आर्य कसौटी पर घिसी हुई स्वर्ण रेखाके समान, तथा कमल-केशरके समान गौर वर्ण थे। उग्र तपस्वी थे। तीव्र तपके करनेवाले देदीप्यमान तपोधारी थे । षट्कायोंके रक्षक होनेसे उदार थे, और परीषहोपसर्ग-कषाय-रूप शत्रुके विजय करनेमें भयानक अर्थात् वीर थे। घोरव्रतवाले थे अर्थात् कठिन व्रतके पालक थे। तपके प्रभावसे उत्पन्न होने वाली और अनेक योजन विस्तृत (लम्बे-चौडे) क्षेत्रमें रही हुई वस्तुको भस्म करने वाली अन्तर्चालारूप लब्धिको तेजोलेश्या' कहते हैं, उसको संक्षिप्त करनेवाले, अर्थात् गुप्तरूपसे रखनेवाले थे। इस तरह गुणके - કટી ઉપર ઘસેલી સુવર્ણ રેખા સમાન તથા કમલ-કેશર સમાન જેને ગૌર વર્ણ હતા, ઉચ તપસ્વી હતા. તીવ્ર તપ કરવાવાળા દેદીપ્યમાન તપધારી હતા છ કાયોના રક્ષક હોવાથી ઉદાર હતા, પરિષહ ઉપસર્ગ કષાયરૂપ શત્રુનો વિજય કરવામાં ભયાનક અર્થાત્ વીર (બહાદુર) હતા. ઉગ્ર વ્રતધારી હતા. અર્થાત્ કઠણ વ્રતનું પાલન કરતા હતા. આ તપના પ્રભાવથી ઉત્પન્ન થવાવાળી અને અનેક જન વિસ્તારના ક્ષેત્રમાં રહેલી વસ્તુને ભસ્મ કરવાવાળી અંતર્વાલા રૂ૫ લબ્ધિને તેલેશ્યા કહે છે. તેને સંક્ષિપ્ત કરવાવાળા અર્થાત્ ગુપ્તરૂપમાં રાખવાવાળા હતા. આવી રીતે ગુણના શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूवर्णन सुधर्मणोऽनगारस्य अदूरसामन्ते-दूर-विप्रकर्षः, सामन्तं = समीपं तयोरभावोऽदूरसामन्तं तस्मिन् नातिदूरे नातिनिकटे, उचिते देशे इत्यर्थः । 'उटुंजाणू' इति-ऊर्ध्वजानुः-ऊधै जानुनी यस्य स तथा, जाव-(यावत् )-शब्देन 'अहोसिरे, कयंजलिपुडे, उक्कुडासणे, झाणकोट्ठोवगए, संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे' इत्येषां सङ्ग्रहः । 'अहोसिरे' इति-अधःशिराः नतमस्तकः, इतस्ततश्चक्षुर्व्यापारं निवर्त्य नियमितभूमिभागनिहितदृष्टिरित्यर्थः । 'कयंजलिपुडे' इति कृताञ्जलिपुटः मस्तकन्यस्तसम्पुटीकृतहस्तः, 'उकुडासणे' इतिउत्कुटासनः उत्कुटं = भूमावलग्नपुतम् आसनं यस्य स तथोक्तः भूप्रदेशास्पृष्टपुततयोपविष्ट इत्यर्थः । ध्यानकोष्ठोपगतः-ध्यायते-चिन्त्यतेऽनेनेति ध्यानम् , एकस्मिन् वस्तुनि तदेकाग्रतया चित्तस्यावस्थापनमित्यर्थः, ध्यानं कोष्ठ इव ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः, यथा कोष्ठगतं धान्यं विकीर्णं न भवति तथैव ध्यानत इन्द्रियान्तःकरणवृत्तयो बहिर्न यान्तीति भावः, नियन्त्रितचित्तवृत्तिमानित्यर्थः । 'संजमेण'इति-संयमेन सप्तदशविधेन, 'तवसे'ति-तपसा-द्वादशविधेन आत्मानं भावयन् विहरति-तिष्ठति, इति ॥४॥ भण्डार श्री जम्बू अनगार श्री आर्यसुधर्मा स्वामी के पास उर्ध्वजानु किये हुए, इधर उधर न देखते हुए, दोनों हाथ जोडकर मस्तक झुकाये, उक्कुडासनसे बैठे हुए ध्यानरूपी कोठेमें स्थित, अर्थात् चित्तवृत्तिको एकाग्र करके तप और संयमसे आत्माको भावित करते हुए बैठे थे ॥ ४ ॥ ભંડાર શ્રી જંબૂ સ્વામીએ શ્રી આર્યસુધર્મા સ્વામીની પાસે ઊર્ધજાનું રહીને આજુ-બાજુએ નજર ન નાખતાં બે હાથ જોડીને માથું નમાવી ઉકુડાસને બેઠેલા મનને ધ્યાનરૂપી કઠામાં સ્થિર રાખીને અર્થાત ચિત્તવૃત્તિને એકાગ્ર કરીને તપ તથા સંયમથી આત્માને ભાવિત કરતા થકા બેઠા હતા જે ૪ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मूलम् - तणं से भगवं जम्बू जायसड़े जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासीउवंगाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्त ? एवं खलु जंबू ! समणं भगवया जाव संपत्तेणं एवं उवंगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता, तं जहानिरयावलियाओ १, कप्पवडिंसियाओ २, पुफियाओ ३, पुप्फचूलियाओ ४, हिसाओ ५ ॥ ५ ॥ छाया ततः खलु भदन्त ! स भगवान् जम्बूः जातश्रद्धः यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत् - उपाङ्गानां भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? | एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत्सम्प्राप्तेन एवम् उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - निरयावलिका ः (१) कल्पा वतंसिकाः (२) पुष्पिताः (३) पुष्पचूलिका : ( ४ ) वह्निदशाः ( ५ ) ॥ ५ ॥ निरयावलिकासूत्र टीका ' तएणंसे ' इत्यादि - ततः खलु - निश्चयेन सः =असौ भगवान् = अपूर्वसम्यवत्त्वशीलसमाराधनयशोवान् जम्बू :- जातश्रद्धः = उत्पन्नप्रश्नेच्छः, वदेन - जातसंशय: = उद्भूतसंदेहः, जातकुतूहल: = उत्पन्नौत्सुक्यः, इति सङ्ग्रहो बोध्यः, यावच्छ 6 तणसे' इत्यादि, उसके बाद श्री आर्य जम्बू अनगार जो जिज्ञासु थे, जिनमें श्रद्धा थी और जिन्हें जिज्ञासाके कारण कौतूहल ( उत्सुकता ) हुआ था । श्रद्धा उत्पन्न हुआ और कौतूहल हुआ । जिन्हें भली भाँति श्रद्धा थी, था ओर भली भाँति कौतूहल था, खडे होकर जहाँ श्री आर्यसुधर्मा स्वामी थे, वहाँ गये । वहाँ जाकर श्री आर्यसुधर्माको अपने दक्षिण तरफसे अंजलिपुट (दोनों हाथ ) को 1 · aroià' Seule. ત્યાર પછી શ્રી આર્ય જ ખૂસ્વામી કે જે જીજ્ઞાસુ હતા, જેને સારી રીતે શ્રદ્ધા હતી, સંશય પણ સારી રીતે હતા, અને કુતૂહલ પણ સારી રીતે થયું હતું તે ઉભા થઇને જ્યાં શ્રી આર્ય સુધર્મા સ્વામી હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને શ્રી આર્ય સુધર્માને પેાતાની જમણી ખાજુએથી અંજલીપુટ (બે હાથ) ઘુમાવવા શરૂ કરી ત્રણ વાર પ્રદક્ષિણા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર उत्पन्न हुई, संशय भली भाँति संशय Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूप्रश्न श्रीसुधर्मस्वामिनमुपागत्य सविधिवन्दनं विधायाभिमुखं प्राञ्जलिः पर्युपासीना सेवमानः एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत-अवोचत् अमाक्षीदित्यर्थ: हे भदन्त ! = हे भगवन् ! इदं गुरोः सम्बोधनम्, उपाङ्गानां श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् आदिकरेण, तीर्थकरेण, स्वयंसंबुद्धेन पुरुषोत्तमेन, पुरुषसिंहेन, पुरुषवरपुण्डरीकेन, पुरुषवरगन्धहस्तिना, लोकोत्तमेन, लोकनाथेन, घुमानेरूप तीनवार प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दना की, तत्पश्चात् श्री आर्य सुधर्मा स्वामी से न अधिक दूर और न अधिक पास-निकट सेवामें उपस्थित हो युगलकर जोड विधिपूर्वक शुश्रूषा करते हुए, इस प्रकार बोले - __हे भगवन् ! – श्रमण भगवान् महावीर स्वामीने जो स्वशासनकी अपेक्षासे धर्मकी आदि करनेवाले, जिससे संसार-सागर तैरा जाय उसे तीर्थ कहते हैं, वे तीर्थ चार प्रकार के हैं-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, ऐसे चतुर्विध संघ रूप तीर्थकी स्थापना करने वाले, स्वयं बोधको पाने वाले, ज्ञानादि अनन्त गुणोंके धारक होनेसे पुरुषोत्तम । राग द्वेषादि शत्रुओंके पराजय करनेमें अलौकिक पराक्रमशाली होनेसे पुरुषोमें केशरीसिंहके समान॥ समस्त अशुभरूप मलसे रहित होनेके कारण विशुद्ध श्वेत कमल के समान निर्मल। अथवा-जैसे कीचडसे उत्पन्न और जलके योगसे बढा हुआ होकर भी कमल उन दोनों (जल-कीच) के संसर्ग को छोडकर सदा निर्लेप रहता है, और अपने अलौकिक सुगंधि आदि गुणोंसे પૂર્વક વંદના કરી ત્યાર પછી શ્રી આર્ય સુધર્મા સ્વામીથી બહુ દુર નહિ તેમ બહુ પાસે પણ નહિ એમ નિકટ સેવામાં ઉપસ્થિત થઈ બે હાથ જોડી વિધિપૂર્વક સેવા કરતાં माम मोत्या: હે ભગવન! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ જે સ્વશાસનની અપેક્ષા ધર્મની આદિ કરવાવાળા, જેથી સંસાર સાગર તરી જવાય તેને તીર્થ કહે છે. તે તીર્થ ચાર પ્રકારનાં છે –સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકા એવા ચતુર્વિધ સંઘ રૂ૫ તીર્થની સ્થાપના કરવાવાળા, પોતે બોધ પામેલા, જ્ઞાન:વગેરે અનંત ગુણ સંપન્ન હોવાથી પુરૂષોત્તમ, રાગદ્વેષાદિ શત્રુઓનો પરાજય કરવામાં અલૌકિક પરાક્રમવાળા હોવાથી પુરૂષોમાં કેશરીસિંહ સમાન, સમસ્ત અશુભરૂપી મળથી રહિત હોવાથી વિશુદ્ધ, તકમળ સમાન નિર્મળ, અથવા–જેમ કાદવમાંથી ઉત્પન્ન થઈ પાણીના ચેગથી વધતું હોવા છતાં કમળ એ બેઉ (પાણી-કાદવ) ના સંસર્ગને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकास्त्र ૨૨ लोकहितेन, लोकप्रदीपेन, लोकप्रद्योतकरण, अभयदेन, चक्षुर्दैन, मार्गदेन, देव मनुष्यादिकोंका शिरोभूषण बनता है, वैसे ही भगवान् कर्मरूपी कीचड से उत्पन्न और भोगरूपी जलसे बढे हुए होकर भी उन दोनोंके संसर्गको त्याग कर निर्लेप रहते हैं और केवलज्ञानादि गुणोंसे परिपूर्ण होनेके कारण भव्य जीवों के शिरोधार्य हैं, जिसका गन्ध सूंघते ही सब हाथी डर के मारे भाग जाते हैं उस हाथीको ‘गन्धहस्ती' कहते हैं। उस गन्धहस्तीके आश्रयसे जैसे राजा सदा विजयी होता है, उसी प्रकार भमवानके अतिशय से देशके १ अतिवृष्टि, २ अनावृष्टि, ३ शलभ(तीड), ४ चूहे, ५ पक्षी, ६ स्वचक्र-परचक्र-भय, यह छह प्रकारकी ईति, और महामारी आदि सभी उपद्रव तत्काल दूर हो जाते हैं। और आश्रित भव्य जीव सदा सब प्रकारसे विजयी होते हैं। चौतीस अतिशयों और वाणीके पैंतीस गुणोंसे युक्त होनेके कारण लोगोंमें उत्तम। अलभ्य रत्नत्रय के लाभ रूप योग और लब्ध रत्नत्रयके पालन रूप क्षेमके कारण होने से भव्य जीवोंके नाथ। एकेन्द्रिय आदि सकल प्राणीगणके हितकारक । जिस प्रकार दीपक सबके लिये समान प्रकाशकारी है तो भी नेत्रवाले ही उससे છેડીને હમેશાં નિર્લેપ રહે છે, તથા પોતાની અલૌકિક સુગંધી આદિ ગુણોથી દેવ, મનુષ્ય આદિના મસ્તકનું ભૂષણ બને છે, તેવી જ રીતે ભગવાન કમરૂપી કાદવમાંથી ઉત્પન્ન અને ભોગરૂપી જલથી વૃદ્ધિ પામ્યા છતાં તે બેઉના સંસર્ગને ત્યાગ કરીને નિર્લેપ રહે છે, તથા કેવળ જ્ઞાન આદિ ગુણોથી પરિપૂર્ણ હોવાથી ભવ્ય જીવને શિરોધાર્ય છે. જેનું ગધ સંઘતાંજ બધા હાથી બીકથી જ ભાગી જાય છે તેવા હાથીને “ગંધહસ્તી” કહે છે; તે ગંધહસ્તીના આશયથી જેમ રાજા હમેશાં વિજય મેળવે છે, તેવી જ રીતે ભગવાનના અતિશયથી દેશના અતિવૃષ્ટિ (૧), અનાવૃષ્ટિ (૨), શલભા (તડ) (૩), ઉંદર (૪), પક્ષી (૫), સ્વચક્ર પરચક ભય (૬), એ છ પ્રકારની ઇતિ (ઉપદ્રવ) અને મહામારી આદિ સર્વે ઉપદ્રવ તત્કાલ દુર થઈ જાય છે, તથા આશ્રિત ભવ્ય જીવ હમેશાં સર્વ પ્રકારે વિજયી થાય છે. ચૈત્રીશ અતિશય તથા વાણીના પાંત્રીશ ગુણેથી યુકત હોવાથી લેકે માં ઉત્તમ, અલભ્ય રત્નત્રયના લાભરૂપી યોગ, તથા લબ્ધ રત્નત્રયના પાલન રૂપી ક્ષેમનું કારણ હોવાથી ભવ્ય જીવોના નાયક, એકેન્દ્રિય આદિ સર્વ પ્રાણુ ગણના હિત કરનારા, જેમ દીપક બધાને માટે સરખો પ્રકાશ કરે છે તે પણ આંખવાળાજ માત્ર તેનાથી લાભ મેળવી શકે છે. નેત્રહીન એટલે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूप्रश्न लाभ उठा सकते हैं नेत्रहीन नहीं, उसी प्रकार भगवानका उपदेश सबके लिये समान हितकर होने पर भी भव्य जीव ही उससे लाभ उठाते हैं अभव्य नहीं, अतएव भव्योंके हृदयमें अनादि कालसे रहे हुए मिथ्यात्व रूप अन्धकार को मिटाकर आत्माके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले। लोक शब्दसे यहाँ लोक और अलोक दोनोंका ग्रहण है अतएव केवलज्ञान रूपी आलोकसे समस्त लोकालोकके प्रकाश करनेवाले। मोक्षके साधक उत्कृष्ट धैर्य रूपी अभय को देनेवाले, अथवा-समस्त प्राणियोंके संकटको छुडाने वाली दया (अनुकम्पा) के धारक । ज्ञाननेत्रके दायक, अर्थात् जैसे किसी गहन वनमें लुटेरोंसे लूटे गये और आखों पर पट्टी बांध कर तथा हाथ पैर पकड कर गड्ढेमें गिराये गये पथिकके कोई दयालु सब बन्धनोंको तोड कर नेत्र खोल देता है, इसी प्रकार भगवान भी संसार रूपी अपार कान्तारमें राग-द्वेष रूप लुटेरोंसे, ज्ञानादि गुणोंको लूटकर तथा कदाग्रह रूप पट्टेसे ज्ञान चक्षुको ढक कर मिथ्यात्व के गडढेमें गिराये गये भव्य जीवोंके उस कदाग्रह रूप पट्टेको दूर कर ज्ञाननेत्रको देने वाले हैं, अतएव सम्यक् रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग, अथवा विशिष्ट गुणको प्राप्त होने वाले, क्षयोपशम भाव रूप मार्गको देने वाले । कर्म शत्रुओं આંધળા નહિ મેળવી શકે, તેમ ભગવાનને ઉપદેશ બધા માટે સમાન હિતકારક હોવા છતાં પણ ભવ્ય જીજ તેનો લાભ મેળવી શકશે અભવ્ય નહિ મેળવે. એ રીતે ભવ્યના હદયમાં અનાદિ કાળથી રહેલું મિથ્યાત્વરૂપી અંધારૂં મટાડીને આત્માના યથાર્થ સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળા. લોક શબ્દથી અહીં લેક અને અલોક બેઉ સમજવાનું છે. આ રીતે કેવળજ્ઞાનરૂપી આલોકથી તમામ લોક અને અલકને પ્રકાશ કરવાવાળા, મેક્ષના સાધક, ઉત્કૃષ્ટ પૈર્યરૂપી અભયને દેવાવાળા, અથવા સમસ્ત પ્રાણિઓનાં સંકટ મટાડનારી દયા (અનુકંપા) ના ધારક, જ્ઞાનરૂપી નેત્ર આપનારા અર્થાત્ જેમ કેઈ ગહનવનમાં લૂટારાથી ભૂટાઈ ગયેલા અને આંખે પાટા બાંધીને તથા હાથપગ પકડીને ખાડામાં નાખી દીધેલા મુસાફરને કેઈ દયાળુ બધાં બંધને તોડી આંખ ઉઘાડી દે છે તેવી રીતે ભગવાન પણ સંસારરૂપી અટવીમાં રાગ-દ્વેષ રૂપી લુટારાથી, જ્ઞાનાદિ ગુણોને લુટી તથા કદાગ્રહરૂપી પાટાથી જ્ઞાનચક્ષુને ઢાંકી દઈ મિથ્યાત્વરૂપી ખાડામાં પાડી નાખેલા ભવ્ય જીને કદાગ્રહરૂપી પાટાથી મુક્ત કરી જ્ઞાનરૂપી નેત્ર દેવાવાળા, એટલે સમ્યફ રત્નત્રય સ્વરૂપ મેક્ષમાર્ગ અથવા વિશિષ્ટ ગુણના પ્રાપ્ત કરાવવાવાળા ક્ષયોપશમભાવ રૂપી માર્ગ દેવાવાળા, કર્મશત્રુથી પીડિત શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ निरयावलिकासूत्र शरणदेन, जीवदेन, बोधिदेन, धर्मदेन, धर्मदेशनादेन, धर्मनायकेन, धर्मसारथिकेन, धर्मवर-चातुरंतचक्रवर्तिकेन, द्वीपत्राण-शरण-गतिप्रतिष्ठेन, अप्रतिहत से दुःखित प्राणियोंको शरण ( आश्रय ) देने वाले, पृथिव्यादि षड्जीव-निकाय में दया रखने वाले, अथवा मुनियोंके जीवनाधार स्वरूप संयमजीवितको देने वाले । शम संवेग आदि प्रकाश, अथवा जिनवचनमें रुचिको देने वाले । धर्मके उपदेशक । धर्मके नायक अर्थात् प्रवर्तक । धर्मके सारथी अर्थात् जिस प्रकार रथपर चढे हुए को सारथी रथके द्वारा सुखपूर्वक उसके अभीष्ट स्थान पर पहुँचाता है, उसी प्रकार भव्य प्राणियोंको धर्म रूपी रथके द्वारा सुखपूर्वक मोक्ष स्थान पर पहुँचाने वाले । दान, शील, तप और भावसे नरक आदि चार गतियोंका अथवा चार कषायोंका अन्त करने वाले, अथवा चार-दान, शील, तप और भाव से अन्त = रमणीय, या दान आदि चार अन्त अवयव वाले, अथवा दान आदि चार अन्त-स्वरूप वाले श्रेष्ठ धर्म को 'धर्मवरचातुरन्त ' कहते हैं, यही जन्म जरा मरण के नाशक होने से चक्र के समान है। अतएव धर्मवरचातुरन्त रूप चक्र के धारक । यहाँ पर 'वर' पद देनेसे राजचक्रकी अपेक्षा धर्मचक्रकी उत्कृष्टता પ્રાણિઓને આશ્રય દેવાવાળા, પૃથ્વી આદિ છજીવ નિકાયમાં દયા રાખવાવાળા, અથવા મુનીના જીવન આધાર સ્વરૂપ સંયમ જીવન દેવાવાળા, શમ સંવેગ આદિ પ્રકાશ અથવા જિન વચનમાં રૂચિ દેવાવાળા, ધર્મના ઉપદેશક, ધર્મના નાયક અર્થાત પ્રવર્તક, ધર્મના સારથી અર્થાત્ જેમ રથ ઉપર બેઠેલાને સારથી રથ વડે સુખપૂર્વક તેના અભીષ્ટ સ્થાને પોંચાડે છે તેવી રીતે ભવ્ય પ્રાણિઓને ધર્મરૂપી રથદ્વારા સુખપૂર્વક મેક્ષસ્થાન પર પહોંચાડનાર, દાન, શીલ, તપ તથા ભાવથી નરક આદિ ચાર ગતિએના અથવા ચાર કષાયેના અંત કરવાવાળા, અથવા ચાર-દાન, શીલ, તપ તથા ભાવથી અંત=રમણીય, અથવા દાન આદિ ચાર અન્ત=અવયવવાળા, અથવા દાન આદિ ચાર અન્તઃસ્વરૂપવાળા, શ્રેષ્ઠ ધર્મને ધર્મવરચાતુરન્ત કહે છે, એજ જન્મ જરા મરણના નાશ કરવાવાળા હોવાથી ચક સમાન છે, એટલે ધર્મવરચાતુરન્ત રૂપી ચકના ધારક, અહીં “વર” પદ દેવાથી રાજચકની અપેક્ષા ધર્મચકની ઉત્કૃષ્ટતા તથા સીંગત (બૌદ્ધ) આદિ ધર્મનું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका जन २५ बरज्ञानदर्शनधरेण, व्यावृत्तच्छद्मकेन, जिनेन, जायकेन, तीर्णेन, तारकेण, बुद्धेन, बोधकेन, मुक्तेन, मोचकेन, सर्वज्ञेन, सर्वदर्शिना, शिवमचलमरुजतथा सौगत ( बौद्ध ) आदि धर्मका निराकरण किया गया है, क्योंकि राजचक्र केवल इस लोकका साधक है परलोकका नहीं, तथा सौगत आदि धर्म यथार्थ तत्त्वोंका निरूपक न होनेसे श्रेष्ठ नहीं । ' चक्रवर्त्ती ' पद देनेसे तीर्थङ्करोंको छह खण्डके अधिपतिकी उपमा दी गई है, क्योंकि वह चक्रवर्त्ती भी चार सीमावाले, अर्थात् उत्तर दिशामें हिमवान और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम दिशाओमें लवण समुद्र तक जिसकी सीमा है एसे भरतक्षेत्र पर एक शासन राज्य करता है । संसार—समुद्रमें डूबते हुए जीवोंके एक मात्र आश्रय होनेसे द्वीप समान । भव्य जीवोंके कल्याणकारी होनेसे त्राणस्वरूप अतएव उनके तीनों कालमें अविनाशी स्वरूप वाले । आवरणरहित के धारक । ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंका नाश राग-द्वेषरूप शत्रुको स्वयं जीतने वाले और दूसरोंको वाले । भवसमुद्रको स्वयं तैरने वाले और दूसरोंको तिराने वाले । स्वयं बोधको प्राप्त करने वाले और दूसरोंको प्राप्त कराने वाले । स्वयं मुक्त होने वाले और दूसरोंको मुक्त करनेवाले । सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा निरुपद्रव, निश्चल, कर्मरोगरहित, अनन्त, अक्षय, केवल करने वाले । जीताने शरण - आधारस्थान | ज्ञान, केवल दर्शन નિરાકરણ કરેલું છે, કેમકે રાજચક્ર કેવળ આ લેાકનું જ સાધન છે પરલેાકનું નહિ, તથા સૌગત આદિ ધર્મ યથાર્થ તત્ત્વાનાં નિરૂપણુ ન કરતા હૈાવાથી શ્રેષ્ઠ નથી. ચક્રવર્તિ' પદ્મ આપવાથી તીર્થંકરાને છ ખંડના અધિપતિની ઉપમા દીધી છે, કેમકે તે ચક્રવતી પણ ચાર સીમાવાળા અર્થાત્ ઉત્તર દિશામાં હિમવાન અને પૂર્વ, દક્ષિણ પશ્ચિમ દિશાઓમાં લવણ સમુદ્ર સુધી જેની સીમા છે એવા ભરતક્ષેત્ર પર એક શાસન રાજ્ય કરે છે. સંસારસમુદ્રમાં ડુબતા જીવાને એકજ આશ્રય હેાવાથી દ્વીપ સમાન, ભવ્ય જીવેાના કલ્યાણકારી હાવાથી ત્રાણુ સ્વરૂપ તેથી તેને શરણ-આધારસ્થાન, ત્રણે કાળમાં આવરણુરહિત કેવળ જ્ઞાન, કેવળ દર્શનના ધારક, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના नाश उरवावाजा, રાગદ્વેષરૂપી શત્રુને જાતેજ જીતનારા તેમજ બીજાને જીતાવવાવાળા, ભવસમુદ્રને જાતે તરનારા તેમ બીજાને તારનારા, પાતે ખાધ મેળવનારા તેમજ બીજાને ખાધ પ્રાપ્ત કરાવનારા, પાતે મુક્ત થવાવાળા તથા ખીજાને મુક્ત કરવા વાળા, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा उपद्रव वगरना, निश्चल, उर्भरोग रहित, अनन्त, अक्षय, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र स्थानं संप्राप्तेन, मनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्तिकं सिद्धिगतिनामधेयं 4 कोऽर्थः शब्दसमुदायात्मकवाक्यतात्पर्यविषयीभूतः को भावः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः, कथित इत्यर्थः । जम्बूस्वामिपृच्छानन्तरं सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति प्राह - हे जम्बूः ! एवम् - इत्थम् खलु - निश्चयेन यावत् उक्तगुणवता सम्प्राप्तेन = मुक्तिं लब्धवता श्रमणेन भगवता महावीरेण एवं वक्ष्यमाणरीत्या उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः' इति, अध्ययनसमूहो वर्गस्ते प्रज्ञप्ताः - निरूपिताः, तद्यथा - तदेव दर्श्यते - निरयावलिकाः (१), अस्योपाङ्गस्य ' कल्पिके 'ति नामान्तरम्, कल्पावतंसिका (२), पुष्पिताः (३), पुष्पचूलिका : (४), वृष्णिदशाः (५), अस्य ' वह्निदशे 'ति नामान्तरम् । इह सर्वत्रावयवगतबहुत्वविवक्षायां बहुवचनम् । २६ बाधारहित, पुनरागमनरहित, ऐसे सिद्ध स्थान अर्थात् मोक्षको प्राप्त करने वाले उन प्रभुने उपाङ्गोंका क्या भाव कहा ? | इस प्रकार जम्बू स्वामीके पूछने पर श्री सुधर्मा स्वामीने जम्बू स्वामीसे कहा - हे जम्बू ! इस प्रकार उक्त गुण विशिष्ट यावत् सिद्धि गतिको प्राप्त करने वाले भगवान्ने उपाङ्गोंके पांच वर्ग निरूपण किये हैं वे क्रमशः इस प्रकार हैं —— (१) निरयावलिका, इसका दूसरा नाम 'कल्पिका, भो है । (२) कल्पावंतसिका, (३) पुष्पिता, (४) पुष्प चूलिका और (५) वृष्णिदशा, इसका भी 'वह्निदशा' दूसरा नाम है । यहाँ सब जगह - अवयवगत बहुत्व विवक्षा बहुवचन है | ખાધારહિત, પુનરાગમનરહિત, એવા સિદ્ધસ્થાન એટલે માક્ષને પ્રાપ્ત કરવાવાળા તે પ્રભુએ ઉપાંગાના ભાવ શુ કહ્યો છે. એ પ્રકારે જ ખૂ સ્વામીએ પૂછવાથી શ્રી સુધમા સ્વામીએ જ. સ્વામીને કહ્યું:-હે જમ્મૂ ! એ પ્રકારે કહેલા ગુણુવિશિષ્ટ યાવત્ સિદ્ધિ ગતિની પ્રાપ્તિ કરવાવાળા ભગવાને ઉપાંગેાના પાંચ વર્ગ નિરૂપણુ કયા છે તે અનુક્રમે નીચે પ્રમાણે છે :—— (१) निश्यावसिा, भानुं खीलु' नाम 'दिया' या छे. (२) द्यावंतसि (3) पुष्पिता (४) पुण्ययूसिभ तथा (५) वृष्णुिदृशा मानुं पशु 'वह्निदशा' मेवु ખીજું નામ છે. અહીં બધે ઠેકાણે અવયવગત મહત્વ વિવક્ષાથી બહુવચન पथरायुं छे. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका शास्त्रपरिचय तत्र निरयावलिका : यत्रावलिकाप्रविष्टाः-श्रेणिष्ववस्थिताः इतरे च नरकाssवासाः प्रसङ्गतस्तद्गामिनश्च मनुष्यास्तिर्यञ्चः प्रतिपाद्यन्ते तास्तथा ( १ ), कल्पावर्तसिकाः - नाम - कल्पावतंसक देवप्रतिबद्धग्रन्थपद्धतिः, तास्तथा (२), पुष्पिताः - संयमभावनया पुष्पिताः सुखिताः प्राणिनः संयमाऽऽराधनपरित्यागेन ग्लानावस्थां प्राप्ताः सङ्कुचिताः सन्तो भूयस्तदाराधनेन पुष्पिता यत्र प्रतिपाद्यन्ते २७ इन पांचों से प्रथम- -(१) निरयावलिका सूत्रमें नरकावासों का तथा उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यञ्चों का वर्णन है । (२) द्वितीय-कल्पावतंसिका सूत्रमें सौधर्म आदि बारह देवलोकों में कल्पप्रधान इन्द्र सामानिक आदिकी मर्यादायुक्त - कल्पावतंसक विमानोंका और तप विशेषसे उनमें उत्पन्न होने वाले देवोंका तथा उनकी ऋद्धिका वर्णन है । (३) तृतीय पुष्पिता सूत्रमें जिन्होंने संयम भावनासे विकसित हृदय होकर संयम लिया, पीछे उसके आराधनाका परित्याग करनेमें शिथिल होनेसे ग्लान अवस्थाको प्राप्त हुए और फिर संयमकी आराधना करके पुष्पित और सुखी बने, उनका वर्णन है । એ પાંચેમાંથી પ્રથમ (૧) નિરયાવલિકા સૂત્રમાં નરકાવાસાનું તથા તેમાં ઉત્પન્ન થનારા મનુષ્ય તથા તિર્યંચાનું વર્ણન છે. (૨) દ્વિતીય–પાવતસિકા સૂત્રમાં સૌધર્મ આદિ ખાર દેવલાકમાં ૩૯૫ પ્રધાન ઈંદ્રસામાનિક આદિ મર્યાદાયુક્ત કપાવતસક વિમાનાનું તથા તય વિશેષથી તેમાં ઉત્પન્ન થનારા દેવાનું તથા તેમની ઋદ્ધિનું વર્ણન છે. (૩) તૃતીય–પુષ્પિતા સૂત્રમાં જેમણે સંયમ ભાવનાથી વિકસિત હૃદયપૂર્વક સયમ લીધે, પછી તેની આરાધનાના પરિત્યાગ કરવામાં શિથિલ થઈ જતાં પ્લાન અવસ્થા પ્રાપ્ત થઈ અને ફરી સયમની આરાધના કરી પુષ્પિત અને સુખી બન્યા તેનું વર્ણન છે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૮ निरयावलिकासूत्र ताः पुष्पिताः (३), 'पुष्पचूलिकाः' पूर्वोक्तार्थविशेषप्रतिपादिकाः पुष्पचूडाः, ता एव तथा ड-लयोरैक्यात् (४), दृष्णिदशाः-अयं चाञ्यर्थः-वृष्णिपदेन 'नामैकदेशेन नामग्रहणम्' इति न्यायबलात् अन्धकवृष्णिनराधिपो गृह्यते, तत्कुले ये, जातास्तेऽपि अन्धकवृष्णयो निगद्यन्ते, तेषां दशाः अवस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणा यासु ग्रन्थपद्धतिषु वर्ण्यन्ते तास्तथा (५), तत्र 'अन्तकृद्दशाअस्य कल्पिका (निरयावलिका ) (१), अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गस्य कल्पावतंसिकाः(२), प्रश्नव्याकरणस्य पुष्पिकाः(ताः)(३), विपाकसूत्रस्य पुष्पचूलिकाः(४), दृष्टिवादस्य वृष्णिदशाः (५) उपाङ्गानि विज्ञेयानि ॥५॥ (४) चौथे पुष्पचूलिका सूत्रमें-पूर्वोक्त अर्थका ही विषेश वर्णन है। (५) पाँचवें-वृष्णिदशा सूत्रमें अन्धकवृष्णि राजाके कुलमें उत्पन्न होने वालोंकी अवस्था-चरित्र, गति और सिद्धिगमनका वर्णन है। निरयावलिका--अन्तकृद्दशाङ्गका उपाङ्ग है। कल्पावतंसिका-अनुत्तरोपपातिक दशाङ्गका। पुष्पिका-प्रश्नव्याकरणका । पुष्पचूलिका–विपाकसूत्रका। और वृष्णिदशा-दृष्टिवादका उपाङ्ग है। ॥ ५ ॥ (૪) ચોથાં પુષ્પચૂલિકા-સૂત્રમાં અગાઉ કહેલા અર્થનું જ વિશેષ વર્ણન છે. (૫) પાંચમાં વૃષ્ણિદશા-સૂત્રમાં અન્ધકવૃષ્ણિરાજાના કુળમાં ઉત્પન્ન થનારાની અવસ્થા, ચરિત્ર, ગતિ તથા સિદ્ધિગમનનું વર્ણન છે. નિરયાવલિકા–અંતકૃતદશાંગનું ઉપાંગ છે, કલ્પાવતસિકા, એ અનુત્તરેપપાતિક દશાંગનું, પુપિકા પ્રશ્નવ્યાકરણનું, પુષ્પચૂલિકા, એ વિપાક સવનું તથા, વૃષ્ણિદશા, એ દૃષ્ટિવાદનું ઉપાંગ છે. આ પો શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूप्रश्न मूलमूजइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पंच वग्गा पन्नत्ता तं जहा-निरयावलियाओ जाव वहिदसाओ, पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स उर्वगाणं निरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पन्नत्ता ? ॥६॥ छायायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः मज्ञप्ताः तद्यथा-निरयावलिका यावत् वृष्णिदशाः, प्रथमस्य खल भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां निरयावलिकानां श्रमणेन भगवता यावत् संपाप्तेन कति अध्ययानि प्रज्ञप्तानि ? ॥६॥ टीका‘जइणं भंते' इत्यादि । अथ सोत्साहं सविनयं जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं पप्रच्छ-भदन्त-हे भगवन् ! यदि यदा खलु-निश्चयेन यावत्-उक्तगुणवता संप्राप्तेन मुक्तिं लब्धवता, श्रमणेन-दुश्वरतपश्चर्यापसिद्धेन भगवता महावीरेण उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्रज्ञप्ताः निरूपिताः तद्यथा-तदेव दयतेनिरयावलिका इत्यारभ्य वृष्णिदशापर्यन्ताः, तेषु हे भदन्त ! हे भगवन् निरयावलिकानामुपाङ्गानां प्रथमवर्गस्य श्रमणेन भगवता यावत्-उक्तगुणवता सम्माप्तेन मोक्षगतेन कति=कियत्संख्यकानि अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ? ॥६॥ 'जइणं भंते' इत्यादि । हे भदंत ! भगवान महावीर प्रभुने निरयावलिका से लेकर वृष्णिदशा पर्यन्त उपाङ्गोंके पांच वर्ग कहे उनमें भगवानने निरयावलिका के कितने अध्ययन कहे हैं ? ॥६॥ ___ 'जइण भते' त्याहि ! लगवान महावीर प्रभु निरयावसिाथी માંડીને વૃષ્ણિદશા સુધીનાં ઉપાંગોના પાંચ વર્ગ કહ્યા તેમાં ભગવાને નિરયાવલિકાનાં 3ei अध्ययन हा छ ? ॥६॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० निरयावलिकासूत्र एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा-काले १ सुकाले २ महाकाले ३ कण्हे ४ सुकण्हे ५ तहा महाकण्हे ६ वीरकण्हे ७ य बोद्धव्वे रामकण्हे ८ तहेव य पिउसेणकण्हे ९ नवमे दसमे महासेणकण्हे १० उ ॥७॥ छाया___ एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् सम्भाप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य वर्गस्य निरयावलिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-कालः (१) सुकालः (२) महाकालः (३) कृष्णः (४) सुकृष्णः (५) तथा महाकृष्णः (६) वीरकृष्णश्च (७) बोद्धव्यः । रामकृष्णः (८) तथैव च पितृसेनकृष्णो नवमः (९) दशमो महासेनकृष्णस्तु (१०) ॥७॥ टीकासुधर्मास्वामी प्राह-' एवं खलु' इत्यादि-हे जम्बूः ! एवं खलु यावत्-उक्तगुणवता सम्प्राप्तेन सिद्धिगतिं गतेन, श्रमणेन घोरपरीषहोपसर्गसहनशीलेन भगवता महावीरेण निरयावलिकानामकोपाङ्गस्य प्रथमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-कालः (१), सुकालः (२), महाकालः (३), कृष्णः (४), सुकृष्णः (५), तथा महाकृष्णः (६), वीरकृष्णः (७), रामकृष्णः (८), तथैव च पितृसेनकृष्णः (९), नवमः। दशमस्तु महासेनकृष्णः (१०), श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामीसे कहते हैं-'एवं खलु' इत्यादि । हे जम्बू ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवानने निरयावलिकाके दस अध्ययन कहे हैं उन दस अध्ययननोंके नाम इस प्रकार हैं।-(१) काल, (२) सुकाल, (३) महाकाल, (४) कृष्ण, (५) सुकृष्ण, (६) महाकृष्ण, (७) वीरकृष्ण, (८) रामकृष्ण, (९) पितृसेन कृष्ण, और (१०) महासेनकृष्ण ।। श्री सुघर्भा स्वामी श्री भू स्वाभीने ४९ छे:- 'एव खलु त्यादि. હે જંબૂ! શ્રમણ યાવત્ મોક્ષપ્રાપ્તિ ભગવાને નિયાવલિકાનાં દશ અધ્યયન કહ્યાં છે. એ દશ અધ્યયનનાં નામ આ પ્રકારનાં છે – (१) ४८, (२) सुदा, (3) महाद, (४) , (५) सुष्य, (६) मला, (७) वी२०, (८) राम , (6) पितृसेन तथा (१०) महासेन, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका जम्बूप्रश्न बोद्धव्य इति सर्वत्रान्वेति, विज्ञेय इति तदर्थः । काल्यादिशब्देम्य इदमर्थेऽणूप्रत्यये कृते कालादयः शब्दाः सिद्धयन्ति यथा काल्याः तनाम्न्या महाराश्या अयं पुत्र इति कालः । एवं सर्वत्र विज्ञेयम् । अत्र 'कुमारे'ति सर्वत्र योजनीयं यथा-' कालकुमार' इत्यादि, कालीकुमार इत्यर्थः ॥७॥ मूलम्जइणं मंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्मयणस्स निरयावलियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पन्नचे ? ॥८॥ छाया___ यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य निरयावलिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य भदन्त ! अध्ययनस्य निरयावलिकानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ॥८॥ टीका'जइणं भंते' इत्यादि । यदि खलु भदन्त ! हे भगवन् ! यावत् 'काली' आदि शब्दोंसे-उसके सम्बन्धी अर्थमें 'अण्' प्रत्यय किया है, जिससे काली महारानीका पुत्र काल कुमार कहा जाता है, उसके चरित्रप्रतिबोधक अध्ययन भी काल-अध्ययन नामसे प्रसिद्ध है। इस प्रकार सब अध्ययनको योजना समझना चाहिए ॥७॥ जम्बू स्वामीने सुधर्मा स्वामीसे फिर पूछा-'जइणं भंते' इत्यादि । કાલી” આદિ શબ્દોથી તેના સંબંધી અર્થમાં “અણ” પ્રત્યય કર્યો છે, જેથી કાલી મહારાણીના પુત્ર કાલકુમાર કહેવાય છે. તેનું ચરિત્રપ્રતિબંધક અધ્યયન પણ કાલ-અધ્યયન નામથી પ્રસિદ્ધ છે. આ પ્રકારે બધાં અધ્યયનની યોજના સમજવી જોઈએ ૭ यू स्वाभीमे सुधर्मा स्वाभान वणी पूछ्यु-'जइणं भंते त्या શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकास्त्र पूर्वोक्तगुणवता संप्राप्तेन मुक्तिं लब्धवता, श्रमणेन भगवता महावीरेण निरयापलिकानामकोपाङ्गस्य प्रथमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि-निगदितानि हे भदन्त ! हे भगवन् ! निरयावलिकानां प्रथमस्य अध्ययनस्य यावत् = पूर्वोक्तगुणवता संप्राप्तेन मुक्तिं लब्धवता श्रमणेन-भगवता महावीरेण कोऽर्थः मज्ञप्तः प्रतिपादितः ? ___ अत्र सर्वत्र ‘श्रमणेन ' ' यावत् ' 'संप्राप्तेन' इत्यादिपदानां पुनः पुनरुपादानं भगवद्भक्तिबाहुल्यसूचनाय । __ यद्वा-वाक्यभेदेन पुनरुक्तिर्न विज्ञेया । अन्यच्च भगवद्गणानां सन्ततं स्मरणेन भव्यानामन्यविषयतो मनोनिवृत्तिपूर्वकोपादेयविषयावधानार्थ पुनः पुनः कथनं गुण एवेति ॥८॥ हे भदन्त ! इन दस अध्ययनोंमें प्रथम कालकुमार अध्ययनका भगवानने क्या अर्थ कहा ? यहाँ सर्वत्र श्रमण आदि पदोंका पुनः पुनः उपादान किया है वह भगवानकी अतिशय भक्ति सूचनार्थ है । अथवा वाक्यभेदसे पुनरुक्तिदोष नहीं समझना चाहिए। अथवा भगवान के गुणोंको बार बार स्मरण करनेसे भव्यों का अन्य विषयसे मनोवृत्ति का निरोध होजाता है। उपादेय विषयमें सावधान होनेके लिये पुनः पुनः उन्हीं शब्दोंका उच्चारण किया है अर्थात् उन्हीं पदोंका बार बार श्रवण करनेसे उपादेय विषय पर चित्त श्रद्धालु होजाता है ॥ ८॥ હે ભદંત, એ દશ અધ્યયનમાં પ્રથમ–કાલકુમાર અધ્યયનનો ભગવાને શું અર્થ કહ્યો? અહીં સર્વત્ર શ્રમણ આદિ પદનું વારંવાર ઉપાદાન કર્યું છે, તે ભગવાનની અતિશય ભકિત સૂચનાર્થ છે. અથવા વાક્ય ભેદથી પુનરૂક્તિ દેષ ન સમજો જોઈએ અથવા ભગવાનના ગુણોનું વારંવાર સ્મરણ કરવાથી ભવ્યની બીજા વિષયથી મનોવૃત્તિનો નિષેધ થઈ જાય છે. ઉપાદેય વિષયમાં સાવધાન થવા માટે ફરી ફરી તે શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કર્યું છે અર્થાત્ તેના તે શબ્દ વારંવાર શ્રવણ કરવાથી ઉપાદેય વિષયમાં ચિત્ત શ્રદ્ધાળુ થઈ જાય છે. (૮) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कणिकराजवर्णन अथ प्रथमं कालकुमारं वर्णयति-' एवं खलु' इत्यादि । मूलम् - एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपा नाम नयरी होत्था, रिद्ध०, पुन्नमद्दे चेइए, तत्थणं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवी अत्तए कूणिए नामं राया होत्था, महया०, ॥९॥ छायाएवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे चंपा नाम नगरी अभूत् । ऋद्ध०, पूर्णभद्रं चैत्यम् , तत्र खलु चम्पायां नगया श्रेणिकस्य राज्ञः चेल्लनाया देव्या आत्मजः कूणिको नाम राजाऽभवत्, महेता० ॥९॥ टीकाहे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव अस्मिन्नेव देशतः प्रत्यक्षं दृश्यमाने जम्बूद्वीपे तन्नामकमध्यद्वीपे न पुनर्जम्बूद्वीपानामनन्तत्वादन्यत्रेति भावः। भारते वर्षे भरतक्षेत्रे भरतक्षेत्रस्य मध्यप्रदेशे चम्पा नाम यहां प्रथम काल कुमारका वर्णन करते हैंश्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं-'एवं खलु' इत्यादि। हे जम्बू ! उस काल उस समय इसी ही-मध्य जम्बू द्वीप में भरत नामका क्षेत्र है, उसके मध्य भागमें चम्पा नामकी नगरी गगनचुम्बी प्रासादों से અહિં પહેલા કાલકુમારનું વર્ણન કરે છે – श्री सुधा स्वामी श्री यू स्वामीन ४ छ:-'एवं खलु' त्यादि. હે જંબૂ! તે કાલ તે સમય આજ મધ જંપૂઢીપમાં ભરતનામે ક્ષેત્ર છે જેના મધ્ય ભાગમાં ચંપા નામની નગરી આકાશસ્પશી ભવનેથી ભિત શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ निरयावलिकासूत्र ' नगरी अभूत् 'ऋद्धस्तिमितसमृद्धा ' ऋद्धा नमः स्पर्शिबहुलप्रासादयुक्ता बहुलजनसङ्कुला च स्तिमिता = स्वपरचक्रभयरहिता, समृद्धा - धन-धान्यादिपरिपूर्णा, अत्र त्रिपदकर्मधारयः । तत्रेशानकोणे पूर्णभद्रं नाम चैत्यम् - व्यन्तरायतनम् उद्यानमिति वा श्रेणिकस्य = तन्नामकस्य, राज्ञः आसीदिति शेषः । तत्र खलु चम्पानगय पुत्रः चेल्लनाया:- तन्नाम्न्या देव्याः - राज्ञ्याः आत्मजः = अङ्गजातः कूणिको नाम राजा अभवत् । ' महता ' शब्देन - ' महयाहिमवंतमहंत मल यमंदरमहिंदसारे' अच्चंतविस्रुद्धदीहरायकुलवंससुप्पए, निरंतरं रायलवखणविराइयंगमंगे सीमंधरे मणुस्सिदे, पुरिससीहे, पसंत डिवडंबररज्जं साहेमाणे विहरs ' इत्यादीनां सङ्ग्रहः । छाया — महाहिमवन्महामलयमन्दर महेन्द्रसारः, अत्यन्तविशुद्धदीर्घ राजकुलवंशसुप्रसूतः, निरन्तरं राजलक्षणविराजिताङ्गाङ्गः, सीमन्धरः, मनुष्येन्द्रः, पुरुषसिंहः, प्रशान्तडिम्बडम्बरं राज्यं प्रसाधयन् विहरति । राजवर्णनमाह - ' महाहिमव' दित्यादिना - महाँश्चासौ हिमवान् महा अलङ्कृत, स्वचक्र परचक्रका भय रहित और धन धान्य आदि से सम्पन्न थी । उसके इशान कोणमें पूर्णभद्र नामका व्यन्तरायतन था । उस चम्पानगरी में श्रेणिक राजाके पुत्र कोणिक राजा राज्य करते थे जो चेलना महारानीके गर्भ से जन्मे थे । कोणिक राजाका वर्णन इस प्रकार है- महा हिमवान पर्वतके समान थे સ્વપર ચક્ર ભય રહિત અને ધન ધાન્ય આદિથી સંપન્ન હતી. તેના ઈશાન કાણુમાં પૂર્ણભદ્ર નામે વ્યંતરાયતન હતું. તે ચંપા નગરીમાં શ્રેણિક રાજાના પુત્ર કાણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા, જે ચેલના મહારાણીના ગર્ભથી જન્મ્યા હતા. કાણિક રાજાનું વર્ણન આ પ્રકારે છે:— મહા હિમવાન પર્વત સમાન હતા અર્થાત્ શેષ અન્ય રાજા રૂપી પર્વતાથી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कणिकराजवर्णन हिमवान् स इव महान् शेषराजपर्वतापेक्षया, मलयो मलयाचलः, मन्दरो= मेरुगिरिः, महेन्द्रः-मुरपतिः पर्वतविशेषो वा, तद्वत्सार प्रधानो यस्तथा, अत्यन्तविशुद्धः अतिनिर्मलः दीर्घः चिरकालीनो राज्ञां कुलरूपो वंशस्तत्र प्रसूतः जातः अतिनिर्मलचिरन्तनराजकुलसमुत्पन्नः, निरन्तरं सर्वदा, राज्ञां लक्षणानि स्वस्तिकशङ्खचक्रादीनि तैः विराजितं-शोभितमङ्गाझं प्रत्यङ्गं यस्य स तथा, सामुद्रिकशास्त्रप्रतिपादितराजलक्षणोपेतशरीर इत्यर्थः, 'सीमन्धरः' राजमर्यादापालकः, 'मनुष्येन्द्रः' मनुष्येषु नरेषु इन्द्र इव ऐश्वर्यवान् , 'पुरुषसिंहः'-पुरुषेषु सिंह इव शूरः शत्रून् प्रति अप्रतिहतवीर्यवान् , 'प्रशान्ते' ति-प्रशान्तानि डिम्बानि-अतिवृष्टयनादृष्टिमूषकशलभशुकात्यासन्नराजरूपा विघ्नाः, डम्बराणि-परस्परराजमजाविरोधरूपक्लेशा यत्र, तथाभूतं राज्यं प्रसाधयन्=परिपालयन् विहरति-तिष्ठति ॥९॥ अर्थात्-शेष अन्य राजा रूप पर्वतोंसे बढे चढे थे। मलय पर्वत और महेन्द्र पर्वत के समान श्रेष्ठ थे, अत्यन्त निर्मल प्राचीन राजवंशमें जन्मे थे। जिनके शरीर के प्रत्येक अवयवमें स्वस्तिक, शंख, चक्र आदि राजचिह्न यथास्थान स्थित थे। राजमर्यादाके पालक थे। ऐश्वर्यसम्पन्न होनेसे मनुष्योंके इन्द्र थे। और शत्रुओंको अप्रतिहत शक्ति द्वारा जीतनेसे पुरुषमें सिंहके समान थे। जिनका राज्य अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक-चूहे, शलभ-टिड्डियाँ, शुक-तोते तथा राजाओं का युद्धादिके कारण गांव के समीप निवास करना, इन छह प्रकार की ईतियों= उपद्रवोंसे मुक्त था। ऐसे राज्यका पालन महाराज कोणिक करते थे। ॥ ९ ॥ મોટા હતા. મલય પર્વત અને મહેન્દ્ર પર્વતના સમાન શ્રેષ્ઠ હતા. અત્યંત નિર્મલ પ્રાચીન રાજવંશમાં જન્મ્યા હતા. જેના શરીરના પ્રત્યેક અવયવમાં સ્વસ્તિક, શંખ, ચક્ર આદિ રાજચિહ્ન યોગ્ય ઠેકાણે રહેલાં હતાં. રાજમર્યાદાના પાલક હતા. એશ્વર્યસંપન્ન હોવાથી મનુષ્યોના ઈન્દ્ર હતા. તથા શત્રુઓને અપ્રતિહત શક્તિ દ્વારા જીતવાથી પુરૂષમાં સિંહસમાન હતા. જેનું રાજ્ય અતિવૃષ્ટિ, અનાવૃષ્ટિ, મૂષક (I), शाम (ती), शु (५८) तथा शतमान युद्ध माहिना २0 गामनी નજીક નિવાસ કરે, એ છ પ્રકારની ઈતિ એટલે ઉપદ્રવથી મુકત હતું. એવાં રાજ્યનું પાલન મહારાજ કેણિક કરતા હતા ત્યા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र मूलम्तस्स णं कूणियस्स रन्नो पउमावई नामं देवी होत्या, सोमालपाणिपाया जाव विहरइ ॥१०॥ छायातस्य खलु कूणिकस्य राज्ञः पद्मावती नाम देवी अभवत् , सुकुमारपाणिपादा यावत् विहरति ॥१०॥ टीका'तस्सणं' इत्यादि-तस्य कूणिकस्य राज्ञः पद्मावती नाम देवी अभवत् , तस्या वर्णनमाह-' सुकुमारपाणिपादा' सुकुमार कोमलं पाणिपादं यस्या सा तथा, कोमलकरचरणयुक्ता, अत्र-' यावत्' शब्देन- अहीणपचिंदियसरीरा, लक्खणवंजणगुणोववेया, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगा, ससिसोमाकारा, कंता, पियदंसणा, सुरूवा' इत्यन्तविशेषणानामन्यत्रोक्तानां समन्वयो बोद्धव्यः । एषां छाया-अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरा, 'तस्सणं' इत्यादि । महाराज कोणिकके पद्मावती नामक महारानी थी। 'सुकुमालपाणिपाया' जिसके हाथ पैर अत्यन्त कोमल थे । ' अहीणपंचिंदियसरीरा' लक्षण और स्वरूपसे परिपूर्ण (पूरी) पाँच इन्द्रियां सहित शरीर वाली थी, अर्थात् जिसकी चक्षु आदि पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय ग्रहण करनेमें पूर्ण सावधान, तथा यथायोग्य आकार वाली थी। 'तस्सणं' त्याहि. भ. आणुिने पद्मावती नामनी मा हती. 'सुकुमालपाणिपाया' ना हाथ ५॥ सत्यत भण ता. 'अहोणपंचिंदियसरीरा', सक्ष तथा स्व३५थी परिपूर्ण पांय दिया સહિત શરીરવાળી હતી અર્થાત્ જેની ચક્ષુ આદિ પાંચે ઈદ્રિયે પિત પિતાના વિષય ગ્રહણ કરવામાં પૂર્ણ સાવધાન. તથા યથાયોગ્ય આકારવાળા હતી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका पद्मावतीवर्णन लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता, मानोन्मानप्रमाणपरिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गी, शशिसौम्याकारा, कान्ता, प्रियदर्शना, सुरूपा, इति । अथैतानि विशेषणानि प्रतिपदं व्याचक्ष्महे-अहीनानि-लक्षणस्वरूपाभ्यां परिपूर्णानि पञ्च इन्द्रियाणि यस्मिंस्तादृशं शरीरं यस्याः सा अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरा-स्वस्वविषयग्रहणसमर्थपूर्णाकारचक्षुरादीन्द्रियविशिष्टेत्यर्थः, 'लक्षणे' ति लक्ष्यन्ते-चिह्नयन्ते यैस्तानि लक्षणानि-स्त्रीचिह्नानि हस्तस्थविद्याधनजीवितरेखारूपाणि वा, व्यज्यन्ते यैस्ता नि व्यञ्जनानि-मषतिलकादीनि, गुणाः= सौशील्यपातिव्रत्यादयो, यद्वा-पूर्वोक्तप्रकारैर्लक्षणैर्व्यज्यन्ते इति लक्षणव्यञ्जनास्ते च गुणाः, अथवा-प्रोक्तस्वरूपाणां लक्षणव्यञ्जनानां ये गुणास्तैः, उपपेता-समन्विता, अत्र 'उप' 'अप'इत्युपसर्गयोः शकन्ध्वादित्वात्पररूपम्। 'लक्खणवंजणगुणोववेया' जिनके द्वारा पहचान होती है उनको लक्षण (चिह्न) कहते हैं। अथवा हाथ आदिमें बनी हुई विद्या धन जीवन आदिकी रेखाओंको लक्षण कहते हैं। जिनके द्वारा अभिव्यक्ति (प्रगटपन) होती है, उन तिल और मस आदि को व्यञ्जन कहते हैं, सुशीलता पतिव्रतता आदि गुण हैं, इन तीनों से जो स्त्री युक्त हो उसे लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता कहते हैं, अथवा लक्षणोंके द्वारा व्यक्त होने वाले गुणोंको लक्षणव्यञ्जनगुण कहते हैं, और इनसे युक्त स्त्रीकोलक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता कहते हैं, अथवा-पूर्वोक्त लक्षणों और व्यञ्जनोंके गुणोंको लक्षणव्यञ्जनगुण कहते हैं, और इनसे युक्त स्त्रीको लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता कहते हैं। महारानी पद्मावती इन गुणों से युक्त थी। लक्खणवंजणगुणाववेया' नाथी माय तेने सक्षय ४ छे. अथवा हाथ આદિમાં બનેલી વિદ્યા ધન જીવન આદિની રેખાઓને લક્ષણ (ચિહ્ન) કહે છે. જેના દ્વારા અભિવ્યક્તિ (પ્રગટપણું) થાય છે તે તલ અથવા મસ આદિને વ્યંજન કહે છે. સુશીલતા પતિવ્રતપણું આદિ ગુણ છે. આ ત્રણેથી જે સ્ત્રી યુક્ત હોય તેને ક્ષા व्यंजनगुणोपपेता ४३ छ अथवा लक्ष द्वारा व्यरत डावावा गुणाने क्षण व्यन गुण ४९ छ. तथा तेनाथ युक्त २ सी डाय तेने लक्षणव्यञ्जनणुणो ઉતા કહે છે અથવા પૂર્વોક્ત લક્ષણો તથા વ્યંજનના ગુણને લક્ષણ વ્યંજન शुए४ . तथा तनाथी युत २ स्त्री डाय तेने लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता કહે છે. મહારાણી પદ્માવતીમાં આ ગુણો હતા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र हस्तस्थप्रधानरेखालक्षणानि यथा" जस्स हवइ बहुरेहो, हत्थो अहवा रहियसयलरेहो । सो अप्पाऊ अहणो, तहा दुही लक्खणबुणिट्ठिो ॥१॥ एगेगंगुलिमज्झे, होई पणवीसवच्छरं आऊ । जाणह जीवियरेहं, जा य कणिटुंगुलीमूला ॥२॥ करहाओ धणरेहा, मणिबंधत्तो तहेव पिउरेहा । एया सव्वा पुण्णा, हवंति चे आउगोत्तधणलाहो ॥ ३ ॥" छाया-यस्य भवति बहुरेखो, हस्तोऽथवा रहितसकलरेखः । सोऽल्पायूरधनस्तथा दुःखी लक्षणज्ञनिर्दिष्टः ॥ १ ॥ एकैका लिमध्ये, भवति पञ्चविंशतिवत्सरमायुः । जानत जीवितरेखां, या च कनिष्ठाजुलीमूलात् ॥२॥ ___ हाथ की प्रधान रेखाओंके लक्षण इस प्रकार हैं-जिसके हाथमें बहुत रेखाएँ हो या बिल्कुल रेखाएँ न हों वे अल्पायु वाले निर्धन और दुःखी होते हैं, ऐसे, लक्षणके जानने वाले कहते हैं ॥ १ ॥ जो रेखा कनिष्ठ अंगुलीके मूलसे निकलती है वह जीवन-आयु-की रखा है। एक-एक अंगुलीमें पच्चीस-पच्चीस वर्षकी आयु होती है, अर्थात् यदि आयुकी रेखा एक अंगुली तक है तो (२५)पच्चीस वर्षकी आयु, दो अंगुली तक हो तो (५०)पचास वर्षकी आयु, इस हिसाबसे आगे समझना चाहिये ॥२॥ હાથની મુખ્ય મુખ્ય રેખાઓનાં લક્ષણ આ પ્રકારનાં છે –જેના હાથમાં બહુ રેખાઓ હોય અથવા બિલકુલ રેખા ન હોય તે અલ્પ આયુવાળા, નિધન તથા દુ:ખી હોય છે. એમ લક્ષણના જાણવાવાળા કહે છે. ૧ જે રેખા ટચલી આંગળીના મૂળથી નીકળે છે તે જીવન–આયુની રેખા છે. એક એક આંગળીમાં પચીસ-પચીસ વર્ષની આયુ હોય છે અર્થાત્ જે આયુની રેખા એક આંગળી સુધી હોય તે પચીસ વર્ષની આયુ, એ હિસાબે આગળ साल से नये. (२) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका पद्मावतीवर्णन ३१ करभाद्धनरेखा, मणिबन्धात्तथैव पितृरेखा । एताः सर्वाः पूर्णा, भवन्ति चेदायुर्गोत्रधनलाभः ॥ ३ ॥ इति । 6 माने 'ति - मीयते = परिच्छिद्यते पदार्थोऽनेनेति मान, तुलाङ्गुलीप्रस्थादिना तोलनं, यद्वा-जलादिपरिपूर्णकुण्डादिग्रविष्टे पुरुषादौ यदा द्रोणपरिमितं जलादि निस्सरति तदा स पुरुषादिर्मानवानित्युच्यते तदेव, उन्मानम् = ऊर्ध्व मानं, यद्वा-अर्द्धभाररूपः परिमाणविशेषः प्रमाणं सर्वते। करभभ - गुद्देसे निकलती है और मणिबन्ध ( करके मूल ) यदि ये सब रेखाएँ पूर्ण हों तो आयु गोत्र प्रतिष्ठा धन की रेखा से पितृरेखा फूटती है । और धन लाभ होता है ॥ ३ ॥ “माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसृजायसव्वंगसुंदरंगा" जिसके द्वारा पदार्थ भाषा जाय उसे मान कहते हैं, अर्थात् तराजू अंगुली सेर छटांक आदिके द्वारा तौलना, अथवा कोई पुरुष आदि जलसे संपूर्ण भरे हुए कुण्ड ( शरीरप्रमाण गहरा, शरीरप्रमाण लम्बा व शरीरप्रमाण चौडा) आदि में घुसे और उसके घुसनेसे एक द्रोण – (परिमाणविशेष ) जल बाहर निकले तो, उस पुरुष आदिको मानयुक्त कहते हैं। मान - शब्दसे इसीका ग्रहण करना चाहिए। मान से अधिकको अथवा अर्धभार रूप परिमाण को उन्मान कहते हैं | सर्वतोमान को, ધનની રેખા કરભ–ગુદ્દાથી નિકળે છે તથા મણિબંધ પિતૃખા ફૂટે છે. જો આ બધી રેખાઓ પૂર્ણ હોય તે। આયુ, તથા ધનને લાભ થાય છે. (૩) " 'माणुम्माणप्पमाणप डिपुणसुजाय सब्बंग सुंदरगा ” नेता દ્વારા પદાર્થ માપી શકાય તેને માન કહે છે. અર્થાત્ ત્રાજવું, આંગળ, શેર, છટાંક આદિના દ્વારા તાળવું, અથવા કાઇ પુરૂષ વગેરે જલથી સંપૂર્ણ ભરેલા કુંડાદિ (શરીર જેટલા ઊંડા તથા લાંબા પહેાળા)માં પેસે અને તેના પેસવાથી એક દ્રોણ (પરિમાણવિશેષ) જલ બહાર નિકળે તેા તે પુરૂષ આદિને માનયુક્ત કહે છે. માન શબ્દથી આજ વાત સમજવી જોઇએ. માનથી અધિકને અથવા અભારરૂપ પરિમાણને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર (કાંડાનાં મૂળથી) ગેાત્ર, પ્રતિષ્ઠા Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ___ निरयावलिकासूत्र मान, यद्वा-निजा लीभिरष्टीत्तरशता लिपरिमितोच्छ्रायः, इत्थं च-मानं चोन्मानं च प्रमाणं चेत्येषां द्वन्द्वे मानोन्मानप्रमाणानि, तैः परिपूर्णानि= सम्पन्नानि, अत एव सुजातानि यथोचितावयवसन्निवेशवन्ति, सर्वाणि= सकलानि अङ्गानि-अज्यते व्यज्यते ज्ञायते पाणी यैस्तानि मस्तकादारभ्य चरणान्तानि यस्मिन् शरीरे तत् मानोन्मानप्रमाणपरिपूर्णसुजातसर्वाङ्गम्, अत एव तादृशं सुन्दरमङ्गं वपुर्यस्याः सा तथोक्ता, 'शशी'ति शशी-चन्द्रस्तद्वत् सौम्यः= आहादक आकारः स्वरूपं यस्याः सा, ‘कान्ता' कमनीया, चित्तहारिणो, अथवा अपने अंगुलीसे (१०८) एक सौ आठ अंगुली ऊँचाईको प्रमाण कहते हैं। इन मान उन्मान और प्रमाणसे युक्त होनेके कारण सुजात (यथायोग्य अवयवोंकी रचनासे सुन्दर ) जो सर्वाङ्ग-जिसके द्वारा प्राणी व्यक्त होता है-किसी आकृतिके रूपमें दिखाई देता है उसे, अर्थात् पैरोंसे लेकर मस्तक तकके अवयवोंको अंग कहते हैं। इन सब अंगोंसे सुन्दर अंगवाली महारानी पद्मावती थी। " ससिसोमाकारा” चन्द्रमाके समान शान्त आकारवाली थी 'कंता' जो कमनीया-चित्त हरण करनेवाली हो उस स्त्रीको ‘कान्ता' कहते हैं। ઉન્માન કહે છે, સર્વમાનને અથવા પોતાની આંગળીથી (૧૦૮) એકસે આઠ આંગળી ઊંચાઈને પ્રમાણ કહે છે. આ માન ઉન્માન તથા પ્રમાણથી યુક્ત હેવાને કારણ સુજાત (યથાયોગ્ય અવયની રચનાથી સુંદર) જે સોંગ, જેના દ્વારા પ્રાણી વ્યકત હોય છે–કઈ આકૃતિના રૂપમાં દેખાય છે તેને. અર્થાત્ પગથી માંડીને માથા સુધીના અવયવોને અંગ કહે છે. આ બધાં અંગેથી સુંદર અંગવાળી मsed पद्मावतो उती. ससिसोमाकारा' या समान शांत मारवाणी ती 'कंता' २ ४भनीया विन २९५ ४२वी डाय ते स्त्रीने ‘कान्ता' डे छे. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका पद्मावतीवर्णन 'प्रिये 'ति प्रियं-दर्शकजनमनोहादकं दशर्नम् अवलोकनं यस्याः सा प्रियदर्शना, यत्तु-दर्शनं रूपमिति व्याख्यातं तत्पूर्वोत्तरोपात्तविशेषणपौनरुक्त्यापत्त्या हेयमेव । यत एवंविशेषणविशिष्टाऽतएव सुरूपा सर्वातिशायिरूपलावण्यवती, रूपेण लावण्यस्याप्युपलक्षितत्वात् ॥१०॥ मूलम्तत्थणं चंपाए नगरीए सेणियस्स रन्नो भञ्जा कूणियस्स रनो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था, सोमालपाणिपाया जाव सुरूवा ॥ ११ ॥ छायातत्र खलु चम्पायां नगर्यां श्रेणिकस्य राज्ञः भार्या कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता काली नाम देवी अभवत् , सुकुमारपाणिपादा, यावत् सुरूपा ॥११॥ टीका'तत्थणं' इत्यादि-तत्र-तस्यां चम्पायां नगयां 'खलु 'इति वाक्यालङ्कारे, श्रेणिकस्य राज्ञः भार्या पट्टराज्ञी कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता-लघु ‘पियदंसणा' जिसकी दृष्टि दर्शकोंके मनमें आह्लाद उत्पन्न करती हो उस स्त्रीको ' प्रियदर्शना' कहते हैं । इस प्रकार उक्तगुणविशिष्ट होनेसे-- वह ' सुरूपा' श्रेष्ठ रूप लावण्यवती थी ॥ १० ॥ 'तत्थणं' इत्यादि । उस चम्पा नगरीमें श्रेणिक राजाको पट्टरानी कोणिक राजाकी लघुमाता काली नामकी देवी सुकुमाल कर-चरणवाली यावत् सुरूपा थी। ‘पियदसणा'नी न०४२ नाराना भनमा मान पत्र ४२ती खाय તે સ્ત્રીને “પ્રિયદર્શના” કહે છે. આ પ્રકારે કહેલા ગુણવિશિષ્ટ હોવાથી તે ‘सुरूपा' श्रेष्ठ-३५१९यवती ती (१०) 'ताथणं' त्याहि त । नगरीमा श्रेणिs Pion- ५८ आणि રાજાની લઘુમતા કાલી નામે દેવી સુકેમળ હાથ પગવાળી બહુ સ્વરૂપવાન હતી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ निरयावलिकासूत्र जननी काली नाम देवी सुकुमारपाणिपादेति पूर्ववत् , अभवत् , पुनः सा कीदृशी? ति विशेषवर्णनमाह- कोमुइरयणियरविमलपडिपुनसोमवयणा, कुंडलुल्लिहियगंडलेहा, सिंगारागारचारुवेसा' छाया-कौमुदीरजनिकरविमलपरिपूर्णसौम्यवदना, कुण्डलोल्लिखितगण्डरेखा, गृङ्गारागारचारुवेषा, एतेषां विशेषणानामेवं व्याख्या-तथाहि- 'कौमुदी'ति- 'कु'शब्देन मही प्रोक्ता, 'मुद' हर्षे ततो द्वयम् । धातु नियमैश्चैव, तेन सा कौमुदी स्मृता ॥१॥ फिर इन्हीं काली देवी का वर्णन करते हैं'कोमुइरयणियरविमलपडिपुन्नसोमवयणा' कौमुदी शब्दका अर्थ इस प्रकार है"'कु' शब्देन मही मोक्ता, 'मुद' हर्षे, ततो द्वयम् । धातु नियमैश्चैव, तेन सा कौमुदी स्मृता ॥१॥" 'कु' शब्दका अर्थ पृथिवी है, 'मुद ' शब्दका अर्थ हर्षित करना है, जो पृथ्वीमें रहे हुए जनोंको आनन्द उत्पन्न करे उसको कौमुदी कहते हैं। कौमुदी याने आश्विन कार्तिक मास रूप शरद ऋतुकी पूर्णिमाकी उज्वल चन्द्रिका (चाँदनी) डस चन्द्रिकावाला चन्द्रमाके समान निर्मल संपूर्ण रमणीय मुखबालो थी। 'कुंडल વળી તે કાલી દેવીનું વર્ણન કરે છે – 'कोमुइरयणियरविमलपडिपुन्नसोमवयणा' કૌમુદી શબ્દને અર્થે આવે છે – ___“ 'कु' शब्देन मही प्रोक्ता, 'मुद' हर्षे, ततो द्वयम् । धातुइँनियमैश्चैव, तेन सा कौमुदी स्मृता ॥ १॥" '' ने अर्थ पृथ्वी छ. 'भु' । अर्थ ति ४२' छ रे પૃથ્વી ઉપર રહેલાં માણસોને આનંદ કરાવે તેને કૌમુદી કહે છે. કોમુદી અર્થાત્ આસે કાર્તિક માસ રૂપી શરદ ઋતુની પૂર્ણિમાની ઉજવલ ચંદ્રિકા, તે ચંદ્રિકાવાળા જે ચંદ્રમા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालोवर्णन ४३ कौ पृथिव्यां मोदत इति अन्तर्भावितण्यर्थत्वाद् हर्षयति प्राणिन इति कुमुदश्चन्द्रस्तस्येयं कौमुदी आश्विन - कार्तिक पूर्णिमाचन्द्रिका, तत्प्रधानो यो रजनिकरश्चन्द्रस्तद्वत् विमलं परिपूर्ण सौम्यं = रमणीयं वदनं मुखं यस्याः सा तथा, ' कुण्डले 'ति - कुण्डलाभ्यां कर्णाभरणविशेषाभ्यां उल्लिखिता = घृष्टा गण्डरेखा = कपोलतलविरचितकस्तूरीरेखा यस्याः सा तथा, ' शृङ्गारे 'ति-शृङ्गारस्य रसविशेषस्य अगारमिव अगारं, तथा चारुः = सुन्दरः वेशो= नेपथ्यं यस्याः सा तथा, इति । पुनः कीदृशी सेत्याह - ' सेणियस्स रनो इट्ठा कंता पिया मणुन्ना नामfear वेसासिया सम्मया बहुमया अणुमया भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया सा काली देवी सेणिएण रत्ना सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरइ ' छाया - ' श्रेणिकस्य राज़ इष्टा कान्ता प्रिया मनोज्ञा नामवेया वैश्वासिका संमता बहुमता लिहियगंडलेहा ' जिनके घर्षण लगनेसे कपोल पर रही हुई कस्तूरी आदि सुगंधी द्रव्यकी रेखा हट गई है ऐसे विशाल कुंडलको धारण करनेवाली थी । ' सिंगारागारचारुवेसा', शृंगार रसका घर और सुन्दर वेष वाली थी । पातिव्रत्य आदि गुणोंसे राजा श्रेणिकके अभिलषित थी । कान्ता' राजा के मनमें आह्लाद उत्पन्न करनेके कारण कान्ता - कमनीय थी " इष्टा 6 राजाके प्रेम उत्पन्न समान निर्भस संपूर्ण रभाशीय भुणवाजी हुती. ' कुंडलुल्लिहियगंड लेहा ने ઘસારા લાગવાથી ગાલ પર રહેલી કસ્તૂરી આદિ સુગંધી દ્રવ્યની રેખા જતી રહી છે એવાં વિશાલ કુંડલને ધારણ કરવા વાળી હતી. सिंगारागार चारुवेसा ' શ્રૃંગાર રસનું ઘર તથા સુંદર વેષ વાળી હતી. કુણ' પાતિવ્રત્ય આદિ ગુણાથી रान्त श्रेशिनी भानीती हती. 'कान्ता' शब्लना मनमां यान उत्पन्न ४२नावी હતી તેથી કાન્તા એટલે કમનીય હતી. રાજાના પ્રેમ ઉત્પન્ન કરવાને કારણે e શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र अनुमता भाण्डकरण्डकसमाना तैलकेलेव सुसंगोपिता वेलपेटेव सुपरिगृहीता सा काली देवी णिकेन राज्ञा सार्द्धं विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरति । ४४ , इष्टा = अभिलपणीया पातिव्रत्यादिगुणबाहुल्यात् कान्ता कमनीया, प्रिया - पेमवती सदाप्रेमविषयत्वात् किमन्यदर्शनेनेति परिणामजनिका, मनोज्ञापतिमनोविनोदिनी, भावतः पतिभाववती, स्वरूपतः शोभना । नामधेयाप्रशस्तनामवती, नामधार्या, इति वा छाया, तत्र नाम धार्य-हृदि धरणीयं यस्याः सा तथा । वैश्वासिका = सर्वथा विश्वसनीया, सम्मता - सम्मानयोग्या तत्कृतगृहकार्याणां संमतत्वात्, बहुमता=पतिदासीदासादिसकलपरिजनसम्मानिता, अनुमता = सकलकार्यानुमतिग्रहणयोग्यत्वात् सकलकुटुम्बसमदर्शिनी विप्रियकरणेऽप्यनुकूलेत्यर्थः, भाण्डकरण्डकसमाना- आभरणकरण्डकतुल्या भूषणकरण्डकवत्पतिसुरक्षितेत्यर्थः, तैलकेलेव सुसंगोपिता - तैलकेला देशविशेषप्रसिद्धो मृण्मयस्तैलभाजनबिशेषः, सोऽतिसौन्दर्येण दृष्टिदोषसंभवाद् भङ्गभयाच्च सुष्ठु संगोप्यते, एवं सा, करनेके कारण 'प्रिया' थी । राजाके मन प्रसन्न करनेके कारण 'मनोज्ञा' थी तथा प्रशस्त नामवाली थी, उसका नाम हृदयमें धारण करने योग्य था । शील आदि गुणके कारण विश्वास योग्य थी । पतिके मनके अनुकूल कार्य करनेसे संमान योग्य थी. सकल कुटुम्बके हित करनेसे 'बहुमता' थी, सब कार्य पतिकी संगतिसे करनेके कारण 'अनुमता' थी, भूषणकरंडकके समान 'सुरक्षिता' थी । किसी देश में 'प्रिया' हुती. रान्ननु मन प्रसन्न अश्वावाणी होवाथी 'मनोज्ञा' हुती. तथा प्रशस्त નામવાળી હતી અથવા તેનું નામ હૃદયમાં ઘારણ કરવા ચેાગ્ય હતું. શીલ અદિ ગુણ્ણા વડે વિશ્વાસપાત્ર હતી. પતિના મનને અનુકૂળ કાર્ય કરવાથી સન્માનયેાગ્ય हती. सम्ब टुंभनु हित अश्वाथी 'बहुमता' हुती. मघां भर्य पतिनी संभतिथी रवाने आरो 'अनुमता' हती. भूषणु४२३५ (घरेशांना १२ डीया - डाला) नी पेठे શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालोवर्णन चेलपेटेव सुसंपरिगृहीता=बहुमूल्यवस्त्रमञ्जूषेव मनागप्यविचलतया स्वायत्तीकृता सा-पूर्वोक्तगुणविशिष्टा काली देवी श्रेणिकेन राज्ञा स्वपतिना सार्द्ध विपुलान् बहून् नानाविधान् भोगान्–शब्दादिविषयान् भुञ्जाना-अनुभवन्ती विहरति-आस्ते स्म ॥११॥ तीसेणं कालीए देवीए पुत्ते काले नाम कुमारे होत्था, सोमालपाणिपाए जावसुरूवे ॥१२॥ छाया तस्याः स्वलु काल्याः देव्याः पुत्रः कालो नाम कुमारोऽभवत् , मुकुमारपाणिपादः यावत् सुरूपः ॥ १२ ।। टीका'तीसेणं' इत्यादि । तस्याः काल्या देव्याः पुत्रः कालो नाम मिट्टीका तेलपात्र ऐसा सुन्दर होता है कि जिसको दृष्टिदोषसे बचानेके लिये गुप्त रखते हैं, इसी प्रकार वह सुगोपित थी, बहु मूल्य वस्त्रवाली पेटीके समान सर्वथा सुपरिगृहीता थी। ऐसे विशिष्ट गुणवाली काली महारानी श्रेणिक राजा के साथ अनेक प्रकारके शब्दादि विषयोंका अनुभव करती हुई रहती थी ॥११॥ 'तीसेणं' इत्यादि। उस काली महारानी के कोमल कर चरण वाला સુરક્ષિત હતી. કેઈ દેશમાં માટીનું તેલ પાત્ર એવું સુંદર હોય છે કે જેને દૃષ્ટિ દોષથી બચાવવા માટે ગુપ્ત રાખે છે તેની પેઠે આ પણ સુગોપિત હતી. કિંમતી વસ્ત્રવાળી પેટીની પેઠે સર્વથા રાજાથી સુપરિગ્રહીતા હતી. એવા વિશિષ્ટ ગુણવાળી કાલી મહારાણ શ્રેણિક રાજાની સાથે અનેક પ્રકારના શબ્દાદિ વિષયને અનુભવ કરતી રહેતી હતી. ૧૧ 'तोसेण' त्याह. ते ही भडाणा म साथ ५॥ पाणी, तथा શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ निरयावलिका सूत्र कुमारोऽभवत् , स कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह-सुकुमारपाणिपादः, सुरूपः, इत्यनयोर्व्याख्या पूर्वोक्तदिशाऽवसेया । यावत्करणात् 'पासाइए, दरिसणिजे, अभिरूवे, पडिरूवे, इत्येषां सङ्ग्रहो ज्ञेयः । एतच्छाया-प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूपः प्रतिरूपः, इति । प्रासादीयः दर्शकजनमनोमोदजनकः, दर्शनीयः= दृष्टिसुखदत्वेन भूयो भूयो दर्शनयोग्यः, अभिरूपः मनोज्ञाकृतिकः, प्रतिरूपः= सर्वातिशायिरुपलावण्यवान् इति । अत्र प्रसङ्गवशात् श्रेणिक-कूणिक-वर्णनं, कालकुमारादिवर्णनं च संक्षेपतः कथ्यते तत्र किल पुत्रवत्प्रजापालस्य श्रेणिकमूपालस्य राज्ये रत्नद्वयमासीत्देवसमर्पितहारः १, सेचनकहस्ती २ च, यावत् तदीयराज्यस्य मूल्यं ततोऔर सुन्दर रूपवाला 'काल' नामका कुमार था । वह 'कालीकुमार' के नामसे भी प्रसिद्ध है। जो मनको प्रसन्न करनेवाला, देखनेवालोंके नेत्रको आनन्द देनेवाला, सुन्दर आकृतिवाला और अतिशय रूप लावण्यका धारण करनेवाला था। यहां प्रसङ्गवश श्रेणिक, कूणिक तथा काल कुमारका संक्षिप्त वणन करते हैं वहां पुत्रके समान प्रजाके पालन करनेवाले श्रेणिक राजाके राज्यमें दो रत्न थे-(१) प्रथम देवसमर्पित हार, (२) दूसरा सेचनक हस्ती था। સુંદર રૂપ વાળ કાલ નામને કુંવર હતો તે “કાલી કુમાર” ના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. જે મનને પ્રસન્ન કરવાવાળો, નજરે જોનારાનાં નેત્રને આનંદ આપવા વાળા, સુંદર આકૃતિ વાળે તથા અતિશય રૂ૫ લાવણ્યને ધારણ કરવા વાળો હતે. અહીં પ્રસંગવશ રાજા શ્રેણિક, કૂણિક તથા કાલ કુમારને સંક્ષીપ્ત વર્ણન ७३ छ: ત્યાં પુત્રની પેઠે પ્રજાનું પાલન કરવા વાળા શ્રેણિક રાજાના રાજયમાં બે રત્ન હતાં (૧) પ્રશ્રમ દેવે આપેલ હાર (૨) બીજું સેચનક હાથી હતે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ सुन्दरबोधिनी टीका सम्यक्त्वप्रशंसा ऽप्यविकं मूल्यं तद्रवद्वयस्य । हारोत्पतिरने भणिष्यते । कूणिकस्योत्पत्तिः शास्त्रकारेण स्वत्रं विस्तारेण कथयिष्यते, कालादिकुमाराणां च आरम्भसङ्ग्रामतो नरकयोग्यकर्मोपचयात् तत्माप्तिमरणवर्णनं चात्रैव शास्त्रे प्रतिपादयिष्यते । कूणिकश्चम्पायां नगर्या प्राज्यं राज्यं चकार । कूणिकस्य चेल्लनाऽङ्गजातावन्यावपि चहल्य-वैहायसौं द्वौ भ्रातरावास्ताम् ।। अथ कदाचित् प्रथमकल्पे सकलदेवऋद्धिसम्पन्नः सुरन्दवन्दितपदा ये दोनों रल इतने मूल्यवान थे कि जो राजाका सम्पूर्ण राज्य भी दे दिया जाय तो भी उनकी कीमत न हो सके। हारको उत्पति आगे कही जायगी और कूणिक की उत्पत्ति शास्त्रकार स्वयं विस्तारसे कहेंगे । कालकुमार आदि कुमारोंके आरंभ और संग्रामसे नरकयोग्य कर्मोंके उपचयके कारण उनकी नरकप्राप्तिका और मरणका वर्णन इसी शास्त्रमें किया जायगा। चम्पा नगरीमें कूणिक राजा निष्कंटक राज्य करता था। उस कूणिक राजाके चेलना मातासे जन्मे हुए वैहल्य और वैहायस नामके दो भाई थे । एक समय सौधर्म देवलोकमें सम्पूर्ण देव ऋद्धिवाले देववृन्दसे वंदित આ બેઉ રત્ન એવાં કિમતી હતાં કે જે રાજાનું આખું રાજ્ય પણ દઈ દેવાય તો પણ તેની કિંમત ન થઈ શકે, હારની ઉત્પત્તિ વિષે આગળ કહેવામાં આવશે તથા કૃણિકની ઉત્પત્તિ શાસ્ત્રકાર પોતે વિસ્તારથી કહેશે. કાલ કુમાર આદિ કુમારોના આરંભ તથા સંગ્રામથી નરકગ્ય કર્મોના ઉપચયના કારણે તેમની નરકમાસિનું તથા મરણનું વર્ણન આ શાસ્ત્રમાં કરવામાં આવશે. કૂણિક રાજા ચંપા નગરીમાં નિષ્ફટક રાજ્ય કરતા હતા. તે કૂણિક રાજાને માતા ચેલનાથી જન્મેલા વેહલ્ય તથા હાયસ નામે બે ભાઈ હતા. એક સમય સૌધર્મ દેવ લોકમાં સંપૂર્ણ અદ્ધિવાળા દેવહૂંદથી વંદિત ચરણવાલા ઉત્સાહી શકે સુધર્મા સભાની અંદર આ પ્રકારે સમ્યક્ત્વની પ્રશંસા કરી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ निरयावलिकासूत्र रविन्दोऽपास्ततन्द्रः शक्रन्द्रः सुधर्मसभायां सम्यक्सप्रशंसां चक्रे । तथाहि " अंतोमुहुत्तमित्तं वि फासियं हुन्ज जेहिं संमत्तं । तेसिं अवड पुग्गलपरियट्टो चेव संसारो ॥१॥" " अन्तर्मुहूर्तमात्रमपि स्पृष्टं भवेद् यैः सम्यकत्वम् । तेषामपार्द्धयुद्गलपरिवर्तश्चैव संसारः ॥१॥" इति च्छाया, सम्यक्त्वसद्भावे प्रशमसंवेगादयो गुणाः प्रसभमुदयन्ते तदानीं कथमपि तदुदयं प्रतिरोढुं न कश्चन समर्थो भवति । चरण वाले उत्साही शक्रेन्द्रने सुधर्मा सभाके अन्दर इस प्रकार सम्यक्त्वकी प्रशंसा की, जैसे कहा है: "अंतोमुहुत्तमित्तं वि फासियं हुज्ज जेहिं संमत्तं । तेसिं अवठ्ठपुग्गलपरियट्टो चेव संसारो ॥ १ ॥" जो भव्य प्राणी अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्वका स्पर्श कर लेता है, वह देशतः न्यून ( कम ) अर्धपुद्गलपरावर्तनसे अवश्य मोक्ष पाता है। अर्ध पुद्गलपरावर्तनका स्वरूप अणुत्तरोपपातिक सूत्रकी अर्थवोधिनी टीकासे समझ लेना चाहिए सम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर शम, संवेग आदि गुण आत्मामें सहज उत्पन्न होते हैं, सम्यक्त्वके सद्भावमें गुणोंके विकासको कोई नहीं रोक सकता है। भ ४थु छ : "अंतोमुहुत्तमित्तं वि फासियं हुज जेहिं समत्तं । तेसिं अवठ्ठपुग्गलपरियट्टो चेव संसारो ॥१॥" જે ભવ્ય પ્રાણી અન્તર્મુહૂર્ત માત્ર પણ સમ્યક્ત્વનો સ્પર્શ કરી લે છે a शत: (थाड) न्यून. (मछt) अर्धपुगतापरावर्तनथा अवश्य मोक्ष पामे छे. અર્ધપુદ્દગલપરાવર્તનનું સ્વરૂપ અનુત્તરાયપાતિક સૂત્રની અર્થાધિની ટકાથી સમજી લેવું જોઈએ. સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ થવાથી શમ સંવેગ આદિ ગુણ આત્મામાં સહજ ઉત્પન્ન થાય છે. સમ્યક્ત્વના સદ્દભાવમાં ગુણેના વિકાસને કોઈ રોકી શકતું નથી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका सम्यक्त्वप्रशंसा उक्तश्च (मालिनीछन्दः) " असममुखनिधानं धाम संविग्नतायाः, भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सद्विवेकः । नरनरकपशुखोच्छेदहेतुर्नराणां शिवसुखतरुबीजं शुद्धसम्यक्त्वलाभः ॥१॥" कहा भी है: " असमसुखनिधानं धाम संविग्नतायाः, भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सद्विवेकः । नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणां, शिवसुखतरुवीजं शुद्धसम्यक्त्वलाभः ॥ १ ॥" अर्थात्-निर्मल सम्यक्त्व अतुल सुखका निधान है, वैराग्यका धाम ( घर ) है, संसारके क्षणभंगुर और नाशवान सुखोंकी असारता समझनेके लिए सच्चा विवेकस्वरूप है, भव्य जीवोंके मनुष्य तिर्यञ्च सम्बन्धी और नरक निगोद आदि दुःखोंका उच्छेद करनेवाला है और मोक्ष सुखरूपी वृक्षका बीजस्वरूप है ॥ १॥ કહ્યું પણ છે કે " असमसुखनिधानं धाम संविग्नतायाः, भवसुखविमुखत्वोद्दीपने सद्विवेकः । नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणां, शिवमुखतरुबीजं, शुद्धसाम्यक्त्वलाभः ॥ १॥" અર્થા–નિર્મળ સમ્યકત્વ અતુલ સુખનું વિધાન છે. વૈરાગ્યનું ધામ (ઘર) છે. સંસારનાં ક્ષણભંગુર તથા નાશવાન સુખની અસારતા સમજવા માટે ખરેખર વિવેક સ્વરૂપ છે. ભવ્ય જીનાં મનુષ્ય તિર્થં ચ સંબંધી તથા નરક નિગોદ આદિ દુઃખને ઉચ્છેદ કરવાવાળું છે તથા મોક્ષસુખ રૂપી વૃક્ષનાં બીજ २१३५ छे. (१) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र किञ्च (इन्द्रवज्राछन्दः) " सम्यक्वरत्नान परं हि रत्नं, सम्यक्तबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः। सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रं, सम्यक्खलाभान्न परोऽस्ति लाभः ॥२॥" और भी कहा है:" सम्यक्त्वरत्नान परं हि रत्नं, सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः। सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रं, सम्यक्त्वलाभान परोऽस्ति लाभः ॥ २ ॥" अर्थात्-संसारमें सभ्यक्त्व रत्नके समान अन्य रत्न नहीं, सम्यक्त्व बन्धु के समान अन्य बन्धु नहीं। सम्यक्त्व मित्रके समान अन्य मित्र नहीं। सम्यक्त्व लाभके समान अन्य लाभ नहीं ॥ २ ॥ ફરી પણ કહ્યું છે કે – " सम्यक्त्वरत्नान परं हि रत्नं,, सम्यक्त्वबन्धोर्न परोऽस्ति बन्धुः सम्यक्त्वमित्रात्र परं हि मित्रं, सम्यक्त्वलाभान्न परोऽस्ति लाभः ॥२॥" અર્થાત–સંસારમાં સમ્યક્ત્વ રત્નના જેવું બીજું રત્ન નથી. સમ્યકૃત્વ બંધુના જેવો બીજો બંધુ નથી. સમ્યક્ત્વ મિત્રના જેવો બીજો કોઈ મિત્ર નથી અને સમ્યક્ત્વ લાભના જે બીજે કઈ લાભ નથી. (૨) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका सम्यक्त्वप्रशंसा हृदयभूमिकायां सञ्जातः सम्यक्त्वाचारदृढमूलो भावनाजलधारासिच्यमानः श्रुतचारित्रलक्षणधर्मस्कन्धः प्रमाणशाखो नयप्रतिशाखो दयादानक्षमाधृतिदलोशील भविजनमनो मिलिन्दवृन्दगुञ्जितजिनवचनप्रेमप्रसूनः शाखतिकः (कृति-'वाड' इति भाषायाम् ) स्वर्गापवर्गसुखफलो निजात्मकल्याणरसः सम्यक्त्रमहामहीरुहो मिथ्यात्वगजेन्द्रादिकृतोपसर्गकुशास्त्रकुतर्कमहावातशतसहखैरप्युन्मूलयितुमशक्यः । सम्यक्त्व रूपी महावृक्ष हृदय भूमिमें उत्पन्न होता है सम्यक्त्व का आचार जिसका मूल है, भावना जलसे सींचा जाता है, जिसके श्रुत और चारित्र धर्मरूपी स्कंध हैं, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणरूप जिसकी शाखाएँ हैं, नयरूप प्रतिशाखाएँ हैं, दया, दान, क्षमा, धृति और शोलरूप पत्र–पत्ते हैं, जिनवचनका प्रेमरूप सुन्दर पुष्प है, जिसपर भव्य जीवोंके मनरूपी भ्रमरवृन्द गूंज रहे हैं, शास्त्ररूपी वाडसे सुरक्षित है, स्वर्ग और मोक्षके सुखरूप फल है, निज आत्माके कल्याणरूप रस है, ऐसे सुदृढ सम्यक्त्वरूपी महावृक्षको मिथ्यात्वरूपी महागजकृत उपसर्ग और कुशास्त्र कुतर्करूपी हजारों महावायु नहीं उखाड सकता। સમ્યકૃત્વરૂપી મહાવૃક્ષ હદયરૂપ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સમ્યકત્વને આચાર જેનું મૂળ છે. ભાવના જળથી જેનું સિંચન થાય છે. જેનાં કૃત તથા ચારિત્ર ધર્મ રૂપી સ્કંધ (થડ) છે. પ્રત્યક્ષ આદિ પ્રમાણ રૂપ જેની શાખાઓ છે. નયરૂપી પ્રતિ-શાખાઓ છે. દયા, દાન, ક્ષમા, ધૃતિ તથા શીલરૂપ પાંદડાં છે. જિન વચનનાં પ્રેમરૂપી સુંદર પુષ્પ છે. જેના ઉપર ભવ્ય જીવોનાં મનરૂપી ભમરાનાં વૃંદ ગુંજન કરી રહ્યાં છે. શાસ્ત્રરૂપી વાડથી સુરક્ષિત છે. સ્વર્ગ તથા મેક્ષનાં સુખરૂપી ફલ છે. પોતાના આત્માના કલ્યાણરૂપી રસ છે. એવા સુદૃઢ સમ્યકત્વરૂપ મહાવૃક્ષને મિથ્યાત્વરૂપી મહાગજકૃત ઉપસર્ગો તથા કુશાસ્ત્ર કુતર્ક રૂપી SON! मडावात (मांधी) Gasी ना शहे. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र इति विस्तरेणास्य वर्णनमाचारागसूत्रस्याऽऽचारचिन्तामणिटीकातोऽवसेयम् । एवं सम्यक्त्वप्रशंसां कुर्वाणः सुरपतिरवधिज्ञानेन जम्बूद्वीपभरतक्षेत्रे श्रेणिकभूपं ददर्श । सम्यक्त्वगुणशालिनं राजनयपालिनं तं विलोक्य प्रफुल्लवदनक्मलः सम्यकत्वगुणविमलः सादरं भूयो भूयोऽवाप्तसम्यक्त्वादिगुणश्रेणिकं श्रेणिकं सुधर्माख्यायां स्वदेवसभायां प्रशशंस । इत्थं पुरन्दरास्यशैलनिस्मृता श्रेणिकसम्यक्त्वप्रशंसासरित् सकलसुरसदस्यश्रवणसिन्धुमवागाहत । सम्यक्त्वका विस्तृत वर्णन आचाराङ्ग सूत्रके चौथे अध्ययनकी आचारचिन्तामणि टीकामें किया गया है। इस प्रकार सम्यक् त्व प्रशंसा करते हुए सुरपति सुधर्मा इन्द्रने अवधिज्ञान द्वारा जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें श्रेणिक राजाको देखा । सम्यक्त्वगुणशाली राजनीति को पालनेवाले राजाको देखकर प्रसन्नमुख होकर स्वयं सम्यक्त्व गुणसे निर्मल इन्द्र, आदरके साथ बार बार सम्यक्त्वगुणधारी श्रेणिक राजाकी प्रशंसा अपनी सुधर्मसभामें करने लगे। इस प्रकार राजा श्रेणिककी प्रशंसारूपी नदी इन्द्रके मुखरूपी पर्वतसे निकल कर सभामें बैठे हुए सब देवोंके कर्णरूपी सागरमें पहुंची। સમ્યક્ત્વનું વિસ્તારથી વર્ણન આચારાંગ સૂત્રના ચોથા અધ્યયનની આચારચિંતામણિ ટીકામાં કરેલું છે. આ પ્રકારે સમ્યક્ત્વની પ્રશંસા કરતા થકા સુરપતિ સુધમો ઈન્ડે અવધિજ્ઞાન દ્વારા જંબ દ્વીપના ભરત ક્ષેત્રમાં શ્રેણિક રાજાને જોયા. સમ્યક્ત્વગુણશાલી રાજનીતિનું પાલન કરવાવાળા રાજાને જોઈને પ્રસન્નમુખ થઈ પિતે સમ્યક્ત્વગુણથી નિર્મળ ઈન્દ્ર, આદર સહિત વારંવાર પોતાની સુધમ સભામાં સમ્યક્ત્વગુણધારી શ્રેણિક રાજાની પ્રશંસા કરવા લાગ્યા. એ પ્રકારે રાજા શ્રેણિકની પ્રશંસારૂપી નદી ઈન્દ્રના સુખરૂપી પર્વતથી નિકળી સભામાં બેઠેલા સર્વ દેવના કર્ણરૂપી સાગરમાં પહોંચી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका देवकृतश्रेणिकपरीक्षा देवाश्च तदीयसम्यक्त्वादिगुणगणमहिमानं श्रावं श्रावममन्दानन्दतुन्दिला जातकौतूहलाः श्रेणिकं धन्यममन्यन्त । तदा द्वौ मिथ्यात्विदेवौ शक्रवचनं न श्रद्दधतुः । श्रेणिकं परीक्षितुं मनुष्यलोके तदन्तिकं समागतौ । उक्तश्च " मुहेंदुदिव्वंमुहवत्थिगो हि __सग्गा सुरो सेणियरायमागा । परिक्खिउ साहुसुवेसधारी अज्जासमेओ य सरोतडे सो ॥ १।। " छाया'मुखेन्दुदीव्यन्मुखवस्त्रिको हि स्वर्गात्सुरः श्रेणिकराजमागात् । देवता लोग उनके सम्यक्त्व आदि गुणोंकी महिमा सुन-सुन कर अपूर्व आनन्दसे भर गए और आश्चर्यचकित होकर श्रेणिक राजाको धन्यवाद देने लगे उस समय दो मिथ्यात्वी देवोंने इन्द्रके वचनपर श्रद्धा नहीं की और राजा श्रेणिककी परीक्षा लेनेके लिये मनुष्य लोकमें उनके पास आये । जैसे कहा है:मुहेंदुदिव्यंमुहवत्थिगो हि, सग्गा सुरो सेणियरायमागा । દેવતા લોકેના તે સમ્યક્ત્વ આદિ ગુણને મહિમા સાંભળી સાંભળીને અપૂર્વ આનંદથી ભરપૂર થઈ ગયા તથા આશ્ચર્ય ચકિત થઈને શ્રેણિક રાજાને ધન્યવાદ દેવા લાગ્યા. તે સમયે બે મિથ્યાત્વી દેવોએ ઈદ્રના વચન ઉપર શ્રદ્ધા ન કરી અને રાજા શ્રેણિકની પરીક્ષા લેવા માટે મનુષ્ય લોકમાં તેની પાસે આવ્યા. જેમ કહ્યું मुहेंदुदिव्वंमुहवत्थिगो हि सग्गा सुरो सेणियरायमागा। શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र परीक्षितुं साधुसुवेषधारी, आर्यासमेतश्च सरस्तटेऽसौ ॥१॥' ततः साधुरूपधारी सुरो जलाशये जालं वितत्य स्थितः, आर्यिकारूपधारी तत्र सरस्तीरे तिष्ठति स्म । अत्रान्तरे श्रेणिको राजा पवनसेवनार्थ समागतः । तत्र मत्स्यं हन्तुमुद्यतं साधुं विलोक्यावोचत्-किमिति साधुर्भूत्वा दुराचरसि ? | परिक्खिउं साहुसुवेसधारी, अज्जासमेओ य सरोतडे सो ॥ १ ॥ उन दोनों देवोंने वैक्रिय शक्तिसे साधु और साध्वीका रूप धारण किया मुखपर सदोरक मुखवस्त्रिका बांधी और कक्ष प्रदेश ( कांख ) में रजोहरण लिया, इस प्रकार वेष बनाकर सरोवरके किनारे जा खडे हुए । उनमेंसे एक देव साधुरूप धारण किया हुआ जाल फैलाकर सरोवरके तटपर खडा होगया और दूसरा साध्वी रूप धारण किया हुआ वहीं उसके समीपमें खड़ा हो गया। उसी अवसरपर महाराज श्रेणिक क्रीडाके निमित्त घूमते हुए वहाँ आ पहूँचे उन्होंने मछली मारनेके लिए उद्यत साधुको देखकर कहा ओह ! तुम साधु होकर यह दुष्ट आचरण क्यों करते हो ? परिक्खिउं साहुसुवेसधारी, ___ अन्जासमेओ य सरोतडे सेा ॥१॥ તે બન્ને દેવોએ વૈક્રિય શક્તિથી સાધુ તથા સાધ્વીનું રૂપ ધારણ કર્યું. સુખ ઉપર દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકા બાંધી તથા કાંખમાં રજોહરણ લીધું. એ પ્રકારને વેષ લઈ તળાવને કાંઠે જઈ ઊભા રહ્યા. એમાંથી એક દેવ સાધુનું રૂપ ધારણ કરીને જાળ ફેલાવી સરોવરના તટ ઉપર ઊભો રહ્યો તથા બીજ સાધ્વીનું રૂપ ધારણ કરી ત્યાંજ તેની પાસે ઊભા રહ્યા તે વખતે મહારાજ શ્રેણિક કીડા નિમિત્તે ફરતા ફરતા ત્યાં આવી પહોંચ્યા તેમણે માછલી મારવા માટે ઉદ્યત થયેલા સાધુને જોઈને કહ્યું એહ! તમે સાધુ થઈને આ દુષ્ટ આચરણ શા માટે કરે છે ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका देवकृतश्रेणिकपरीक्षा स सरोषं तमुवाच-इयमार्यिका दोहदवतीत्यतो मीनमांस बुभुक्षाणाऽस्तीत्येतदर्थ जालं विस्तारयामि, खमितो गच्छ राजन् ! किं ते प्रयोजनमेतादृशप्रश्नेन ?, इति तद्वचनं राजा श्रुत्वा कोपारुणनयनोऽवदत्निर्लज ! कृत्यमिदं त्यज, अन्यथा देहदण्डं ते दास्यामि । इति श्रुत्वाऽसौ साधुरवोचत्-गौतमादयश्चतुर्दशसहस्रमुनयश्चन्दनबालादयः पट्त्रिंशत्सहस्रायिका सर्वे अन्तर्दुराचारिणो बहिः साधुवेषधारिणः सन्ति तर्हि किं मामधिलिपसि ?। तब वह साधुवेषधारी क्रोधित होकर बोला यह आर्या गर्भवती होनेसे इसको मछली खानेका दोहद उत्पन्न हुआ है इस लिए मछलियां मारनेको जाल फैलाये खडा हूँ, जाइये-राजन् ! इससे आपका क्या प्रयोजन है ? ऐसे साधुके वचन सुनकर रोजा क्रोधित हो बोले निर्लज ! छोड इस दुष्कृत्यको, नहीं तो दण्ड दूंगा। यह सुनकर वह साधुवेषधारी बोला ? किसको दण्ड देते हैं ? गौतमादि चौदह हजार मुनि और चन्दनबाला आदि छत्तीश हजार साध्वियाँ सभी अन्तर दुराचारी और बाहर साधुपनका आडम्बर रखते हैं तो मुझ अकेलेपर ही क्यों आक्षेप करते हो? ।। ત્યારે તે સાધુવેષધારી ક્રોધ કરીને બે-આ આર્યા ગર્ભવતી હોવાથી તેને માછલી ખાવાને ડહોળે છે. આ માટે માછલી મારવાને જાળ ફેલાવીને ઊભો છું. જાઓ રાજન! એનું આપને શું પ્રયોજન છે? એવાં સાધુનાં વચન સાંભળી રાજા ક્રોધ કરીને બોલ્યા – નિર્લજજ ! છોડી દે આ દુષ્કૃત્યને, નહિ તે દંડ કરીશ. આ સાંભળીને તે સાધુવેશધારી બે –દંડ કોને આપશો? ગૌતમ આદિ ચૌદ હજાર મુનિ તથા ચંદનબાળા આદિ છત્રીસ હજાર સાધ્વીઓ તમામ અન્તર દુરાચારી તથા બહાર સાધુપણાને આડંબર રાખે છે તે મારા એકલાના ઉપરજ કેમ આક્ષેપ કરે છે ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ निरयावलिका सूत्र ततः श्रेणिकोऽवदत्-त्वादृशानां दम्भं दुराचारं च वीक्ष्य मम धर्मानुरागो नापगच्छति, पृथिवी पातालं गच्छेत्, सूर्यः पश्चिमदिश्युदियात्, चन्द्रो वह्नि वर्षेत्, वह्निः शीतलो भवेत्, अमृतं विषं भवेत् तदपि मम सम्यक्त्वं न प्रचलेत् । ततो देवद्वयमवधिज्ञानेन राजानं सम्यक्त्वधर्मे निचलं विज्ञाय पुनः पुनः स्तौति । तथाहि (इन्द्रवज्रा) " सम्यक्त्वधारी च परोपकारी, धन्योऽसि राजन् ! कृतपुण्यराशिः। यह सुनकर राजा श्रेणिक बोले-तुम्हारे जैसे दम्भी और दुराचारीको देख कर मेरा धर्मका अनुराग नहीं हट सकता है, अर्थात् जिनवचनपर स्थित मेरी दृढ श्रद्धा नहीं हट सकती है, पृथ्वी पातालमें चली जाय, सूर्य पश्चिममें उदय हो जाय, चन्द्र अग्नि वरसावे, अग्नि शीतल बन जाय, अमृत विष बने तो भी मेरा सम्यक्त्व विचलित नहीं हो सकता। उसके पश्चात् उन दोनों देवोंने अवधिज्ञान द्वारा राजाको सम्यक्त्व धर्मके अन्दर निश्चल जानकर बारम्बार इस प्रकार स्तुति करने लगे " सम्यक्त्वधारी च परोपकारी, धन्योऽसि राजन् ! कृतपुण्यराशिः। આ સાંભળીને રાજા શ્રેણિક બેલ્યા–તમારા જેવા દંભી તથા દુરાચારીને જઈને મારો ધર્મ ઉપરનો અનુરાગ ડગી શકે નહિ, અર્થાત જિનવચન ઉપર મારી દૃઢ શ્રદ્ધા વિચલિત ન થઈ શકે. પૃથ્વી પાતાળમાં ચાલી જાય, સૂર્ય પશ્ચિમમાં ઊગે, ચંદ્ર અગ્નિ વરસાવે, અગ્નિ ઠંડા બની જાય, અમૃત ઝેર બની જાય તે પણ મારું સમ્યકત્વ ચલાયમાન થઈ શકે નહિ. - ત્યાર પછી તે બન્ને દેવો અવધિજ્ઞાન દ્વારા રાજાને સમ્યક્ત્વ ધર્મની અંદર નિશ્ચલ જાણીને વારંવાર તેની આ પ્રમાણે પ્રશંસા કરવા લાગ્યા सम्यक्त्वधारी च परोपकारी, धन्योऽसि राजन् ! कृतपुण्यराशिः । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका सम्वक्त्वप्रशंसा तुल्यस्त्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन् , सर्व समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥१॥ अन्यच्च शार्दूलविक्रीडितम् । " सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावक, तुल्यस्त्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन् , सर्व समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥ १ ॥ अर्थात्-हे सम्यक्त्वधारी, परोपकारी राजन् , तुम धन्य हो। तुम्हारे जैसा पुण्यवान् अटलसमकितधारी इस भूतल पर अन्य नहीं। जो सम्यक्त्वधारीके गुण होते हैं वे सब तुममें प्रत्यक्ष पाये जाते हैं ॥१॥ फिर भी सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावकं, हे राजन् ! दान देना, दीन पर दया रखना, जिनवचनके रहस्यको जानना, तुल्यस्वया कोऽपि न भूतलेऽस्मिन् सर्वं समक्षं त्वयि दृष्टमेतत् ॥ १॥ અર્થાત– સમ્યક્ત્વધારી પરોપકારી રાજન્ તો ધન્ય છો, તમારા જેવા પુણ્યવાન અટલ સમકિતધારી આ પૃથ્વી ઉપર બીજ નથી. જે સમ્યક્ત્વધારીના ગુણ હોય છે તે બધા તમારામાં પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે. (૧) ५२ ५ सम्यक्त्वं विमलं परं दृढतरं यद्वर्णितं तावकं, હે રાજન! દાન દેવું, ગરીબ ઉપર હ્યા રાખવી, જિનવચનનાં રહસ્યને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूपते ! राजते । दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता, धर्मैकप्रियता गुरौ विनयिता देवेऽनुरागस्तथा ॥ २ ॥ एवं स्तुवन् देवदर्शनममोघं भवतीति प्रसन्न एको देवो हारमपरश्च द्वौ मृगोलको श्रेणिकाय दत्वा स्वस्थानं गतौ । ततः श्रेणिकेन देवदत्तहारश्चेल्लनायै दत्तः, द्वौ मृगोलकौ च नन्दायै । नन्दा च 'पतिदत्तं किमपि वस्तु देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूपते ! राजते । दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता, धर्मकप्रियता गुरौ विनयिता देवेऽनुरागस्तथा ।। २॥ सज्जनता रखना, धर्मका अद्वितीय प्रेम, गुरुजनके साथ विनय और वीतराग देवके प्रति अनुराग इत्यादि जो तुम्हारे दृढतर सम्यक्त्वके निर्मल गुण इन्द्रने वर्णन किये हैं उससे भी अधिक तुम्हारेमें साक्षात् मौजूद है ॥२॥ इस प्रकार राजाकी प्रशंसा करते हुए देवोंने देवदर्शन अमोघ होता है, इस भावसे प्रसन्न होकर उनमेंसे एक देव राजाको हार और दूसरा देव दो मिट्टीके गोले भेट करता है। बाद वे दोनों अपने स्थानपर गये और राजा अपने स्थानपर आया। पश्चात् राजा श्रेणिकने देवसमर्पित हार चेल्लना महारानीको दिया, और दोनों मिट्टीके गोले नन्दा महारानीको दिये । नन्दाने भी ' पतिकी दी हुई कोई भी देवेन्द्रेण ततोऽधिकं त्वयि सदा तद् भूपते ! राजते।। दानं दीनदयालुता जिनवचोमर्मज्ञता साधुता, धर्मैकप्रियता गुरौ विनयिता देवेऽनुरागस्तथा ॥ २ ॥ જાણવું, સજજનતા રાખવી, ધર્મમાં અદ્વિતીય પ્રેમ, ગુરૂજનની સાથે વિનય તથા વીતરાગ દેવમાં અનુરાગ, ઈત્યાદિ જે તમારા દૃઢતર સમ્યક્ત્વના નિર્મળ ગુણ ઈ વર્ણન કર્યા છે તેનાથી પણ વધારે તમારામાં સાક્ષાત્ મેજુદ છે. (૨) આ પ્રકારે રાજાની પ્રશંસા કરતા થકા દેવોએ દેવદર્શન અમોઘ હોય છે, એ ભાવથી પ્રસન્ન થઈ તેમનામાંથી એક દેવ રાજાને હાર અને બીજે દેવ બે માટીના ગેળા ભેટ આપે છે. પછી તે બેઉ પોતાના સ્થાને ગયા તથા રાજા પિતાને સ્થાને આવ્યા. પછી રાજા શ્રેણિકે દેવે આપેલો હાર ચેલના મહારાણુને આવે તથા બેઉ માટીના ગેળા નંદા મહારાણુને આપ્યા. નંદાએ પણ “પતિએ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अभयकुमारवर्णन ५९ सादरं ग्राह्यमिति मनसि कृत्वा पातिव्रत्यरक्षायै मुगोलको जानानाऽपि सपत्नीद्वेषं विहाय सादरमादृतौ । सहर्षोत्कर्ष मञ्जूषायां स्थापनसमये भूषणकरण्डाघातेन तौ भग्नौ । तत्रैकस्मिन् कुण्डलयुगलमपरस्मिन् वखयुग्मं च वीक्ष्य परं प्रमुदिता जाता । अन्यदाऽभयो भगवन्तं महावीरप्रभुं पृष्टवान् - अपश्चिमः को राजऋषिभविष्यति ? | भगवता प्रोक्तम्-अतः परं बद्धमुकुटो नृपो न प्रवजिष्यतीति श्रुत्वा श्रेणिक भूपेन तातेन दीयमानं राज्यं न स्वीकृतवान् । " वस्तु आदरसे लेना चाहिए, यह पतित्रताका धर्म है ऐसा विचारकर अपनी सौतके साथ ईर्षाको छोड़कर आदरसे उन गोलोंको लेलिए । और अत्यन्त हर्षके साथ उन मिट्टी के गोलोको सुरक्षितपनेसे अपनी पेटीमें रखने लगी उस समय भूषणकरडंककी टक्करसे दोनों फूट गए, तब वहां वह देखती है कि ऐक गोलेमें कुण्डलकी जोडी और दूसरेमें दो दिव्य वस्त्र हैं, ऐसा देखकर रानी बहुत प्रसन्न हुई । एक समय अभयकुमार ने भगवान महावीर स्वामीसे पूछा कि हे भगवन् ! अंतिम राजऋषि कौन होगा ? भगवान ने कहा- हे अभयकुमार ! आज पीछे मुकुटबद्ध राजा प्रवजित नहीं આપેલી કાઇ પણ વસ્તુ આદરથી લેવી જોઈએ એ પતિવ્રતાના ધર્મ છે' એમ વિચાર કરી પેાતાની સાખની સાથે ઈર્ષાને છોડી આદરથી તે ગાળા લઈ લીધા અને અત્યંત હર્ષથી તે માટીના ગાળાને સુરક્ષિત રીતે પેાતાની પેટીમા રાખવા લાગી. પરંતુ તે રાખતી વખતે આભૂષણના ડાબલાના અથડાવાથી બેઉ ફૂટી ગયા ત્યારે તેના જોવામાં આવે છે કે એક ગાલામાં કુંડલની જોડી છે તથા બીજામાં બે દિવ્ય વસ્ર છે. આ જોઈને રાણી બહુ પ્રસન્ન થઈ. એક સમય અભયકુમારે ભગવાન મહાવીર સ્વામીને પૂછ્યું કે હે ભગવાન્ ! અંતિમ રાજઋષિ કાણુ થશે ? ભગવાને કહ્યું-હે અભયકુમાર આજ પછી મુગટધારી રાજા પ્રત્રજિત થશે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र नन्दया दीक्षाभिलाषिणमभयकुमारं ज्ञाला कुण्डलयुगलं वैहल्याय दत्तम् , वस्त्रयुग्मञ्च वैहायसाय । तदनु महतोत्सवेन महाराज्ञी नन्दाऽभयकुमारश्चोभौ प्रवजितौ । श्रेणिकभूपस्य काली-महाकाली-प्रमुखान्यराजीनामन्ये कालकुमारादयः पुत्रा आसन् । अभये प्रव्रजिते वक्ष्यमाणचरित्रः कूणिकः कदाचित् रहसि होगा। यह सुनकर अभयकुमारने मनमें विचार किया कि अगर पिताद्वारा मिलने वाले राज्यको स्वीकार करूँ तो मैं भी मुकुटबद्ध राजा बनूं , परन्तु भगवानका वचन है कि-मुकुटबद्ध राजा राजऋषि नहीं बनेगा एतदर्थ में राज्य नहीं लूंगा | इस लिए पितासे प्राप्त होते राज्यको उनने स्वीकार नहीं किया । __ अभयकुमारको दीक्षाभिलाषी जानकर नन्दा महारानीने कुंडल युगल वैहल्य कुमारको दिया और वस्त्रयुगल वैहायस कुमारको दिया और फिर बडे उत्सवसे नन्दा महारानी और अभयकुमार दोनों प्रबजित हुए। श्रेणिक राजाके काली महाकाली आदि अन्य रानियोंके काल महाकाल आदि और भी अनेक पुत्र थे। अभयकुमारके दीक्षा लेने पर कूणिक राजा जिनका चरित्र आगे वर्णन करेंगे उन्होंने एक समय एकान्तमें कालकुमार आदि दस कुमारोके નહિ. આ સાંભળીને અભયકુમારે મનમાં વિચાર કર્યો કે જે પિતા તરફથી મળનાર રાજ્યને સ્વીકાર કરું તે હું પણ મુગટબદ્ધ રાજા બનું પરંતુ ભગવાનનું વચન છે કે મુગટબદ્ધ રાજા રાજઋષિ નહિ બને તે માટે પિતા તરફથી મળનાર રાજ્યના સ્વીકાર નહિ કરું, આમ નિશ્ચય કરીને તેણે રાજ્યને સ્વીકાર ન કર્યો. અભયકુમારને દીક્ષાભિલાષી જાણીને નંદ મહારાણીએ કંડલનો જોડ વૈહા કુમારને આપી અને વસ્ત્રની જેડ હાયસ કુમારને દીધી, તે પછી મોટા ઉત્સવથી નંદા મહારાણી અને અભયકુમાર એ બન્ને પ્રજિત થયા. શ્રેણિક રાજાને કાલી મહાકાલી આદિ બીજી રાણુઓ ના કાલ મહાકાલ આદિ બીજા અનેક પુરો પણ હતા. અભયકુમારે દીક્ષા લીધા પછી કૃણિક રાજા કે જેનું ચરિત્ર આગળ વર્ણવવામાં આવશે તેણે એક વખત એકાંતમાં કાલ કુમાર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कुणिकवर्णन कालादिदशकुमारैः सह मन्त्रयति स्म-स्वेष्टसुखविघातकं जनकं बद्ध्वा राज्यस्यैकादश भागान् करोमीति सर्वैः स्वीकृतम् । __ छलेन कूणिकेन स्वपूर्वभववैरित्वेन श्रेणिको बद्धो लौहपञ्जरे निक्षिप्तश्च । पूर्वाह्नेऽपराह्ने च कशाशतं भृत्यादिना दाप्यते । भूपस्य भोजनादिकं निरुद्धम् । तदा चेल्लना च प्रच्छन्नरीत्या चूडायां खाद्य वस्तु बद्ध्वा स्वपरिधानवस्त्रमाद्रोंकृत्य भूपसमीपे गच्छति । चूडास्थभोज्यं वस्खनिष्पीडनजलं च भूपाय समर्पयति । साथ इस प्रकार मंत्रणा ( सलाह ) की अपने पिता महाराज श्रेणिक अपने इष्ट सुखके विघातक हैं इस लिए इनको बन्धनमें डालकर राज्यका ग्यारह भाग करके सुखपूर्वक राज्यसुखका अनुभव करें। यह बात सब भाइयोको पसन्द आगई और उन्होंने स्वीकार कर ली। __ अपने पूर्वभवके पैरसे कूणिकराजाने अपने पिता श्रेणिकको किसी छलसे पकडकर लोहेके पीजरेमें डालकर सुबह शाम अपने भृत्योंके द्वारा सौ-सौ चाबुककी मार महाराज श्रेणिकको दिलवाता था और खान-पान भी रोक दिया था, जब मनमें आता तब खानेको देता था। इस प्रकार राजाको भूख और प्यासकी यातनासे पीडित देखकर चेलना महारानी अत्यंत दुःखित हुई और वह खानेकी वस्तु अपनी वेणीमें गुप्त रीतिसे बांध लेती और पानीसे भोंगे वस्त्र पहनकर राजाकी पास जाती थी. खाद्य वस्तु अपनी वेणीसे निकालकर राजाको खिलाती और अपने कपड़े निचोड આદિ દશ કુમારની સાથે આ પ્રમાણે મંત્રણા કરી કે-આપણા પિતા મહારાજશ્રેણિક આપણા ઈષ્ટ સુખનો નાશ કરનાર છે તેથી તેને બંધનમાં નાખી રાજ્યના અગીચાર ભાગ કરી સુખ પૂર્વક રાજ્ય સુખનો અનુભવ કરવો. આ વાત બધા ભાઈઓને પસંદ પડી અને તેઓએ તેને સ્વીકાર કર્યો. પિતાના પૂર્વ ભવના વેરથી કૃણિક રાજાએ પોતાના પિતા શ્રેણિકને કઈ કપટથી પકડી લેઢાના પાંજરામાં નાખ્યું અને સવાર સાંજ પોતાના નોકરો દ્વારા સે સે ચાબુકને માર મહારાજ શ્રેણિકને દેવરાવતા હતા તથા ખાવા પીવાનું પણ અટકાવ્યું હતું. પિતાના મનમાં આવે ત્યારે ખાવાને આપતો હતો. આ પ્રકારે રાજાને ભૂખ અને તરસની પીડાથી દુઃખી જઈને ચેલ્લના મહારાણું બહુ દુ:ખી થઈ અને તે ખાવાની વસ્તુ પોતાના અંબેડામાં છાની રીતે બાંધી તથા પાણીથી ભીજાવેલાં વસ્ત્ર પહેરી રાજાની પાસે જતી. ખાવાની વસ્તુ પિતાના શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र कशाघातप्रबलवेदनाशमनाय भेषजमिश्रितवस्त्रजलेन गात्रं प्रक्षालयति, तत्प्रभावेन भूपो वेदनां न वेदयति । अथ चेलनावृत्तान्तं वर्ण्यते-चेल्लना त्रिकालं धर्मक्रियां समाराधयति मनसि विचारयति च- अहो ! कर्मणां विचित्रा गतिरीदृशशक्तिशालिनोऽपि भूपस्यैतादृशी दशा जाता ?, केन कर्मणा-एतादृगवस्था जातेति सर्वज्ञो जानाति, सर्वज्ञमन्तरेण को नाम कर्मगतिं ज्ञातुं शक्नोति । हे आत्मन् ! यदि धर्मो नाराध्यते तदा तवापि तादृशी दुर्दशा भविष्यति । कर उसका पानी पीलाती और चाबुककी प्रबल चोटसे उत्पन्न हु वेदनाको शान्त करनेके लिए औषधसे मिले हुए वस्त्रजलसे राजाके शरीरको धोती थी, जिससे वेदना कुछ कम पडजाती थी। अब चेल्लनाके विषयमें कहते हैं-चेल्लना महारानी धर्मात्मा और धर्म परायणा थी। त्रिकाल ( प्रातःकाल, मध्याह्न और सायंकाल ) धर्मध्यान करती थी और अपने पति महाराज श्रेणिकके विषयमें बोलती थी कि-अहो ! कर्मोकी कैसी विचित्र गति है, कि जिससे ऐसे शक्तिशाली महाप्रभाववाले भूपकी भी यह दुर्दशा हो रही है, किस कमसे इनकी ऐसी दशा हुई है इसे तो सर्वज्ञके सिवाय कोई नहीं जान सकता है । हे आत्मन् ! अगर तू धर्मका आराधन नहीं करेगा तो तेरो भी ऐसी ही दुर्दशा होनेवाली है। અબડાથી કાઢી રાજાને ખવરાવતી તથા પિતાનાં કપડાં નિચાવીને તેનું પાણી પીવરાવતી તથા ચાબુકના સખત ઘાથી ઉત્પન્ન થતી વેદનાને શાંત કરવા માટે ઔષધ લગાડેલાં વસ્ત્રનાં પાણથી રાજાનાં શરીરને જોતી હતી જેથી વેદના કંઈક ઓછી પડી જાતી હતી. હવે ચેલનાનું વૃતાંત કહે છે–ચેલ્લના મહારાણી ધર્માત્મા તથા ધર્મપરાયણ હતી. ત્રિકાલ ધર્મ ધ્યાન કરતી હતી તથા પોતાના પતિ મહારાજ શ્રેણિકની બાબતમાં કહેતી હતી કે–અહો !કર્મોની કેવી વિચિત્ર ગતિ છે જેથી આવા શક્તિશાળી મહાપ્રભાવવાળા રાજાની પણ આવી દુર્દશા થઈ રહી છે. કયા કર્મથી તેમની આવી દશા થઈ છે તે તે સર્વજ્ઞ સિવાય કઈ જાણી શકતું નથી. હે આત્મન ! અગર જો તું ધર્મનું આરાધન નહિ કરે તે તારી પણ આવી જ દુર્દશા થવાની છે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लनावर्णन इत्यादि स्वमनसि विचार्य चेल्लना निरन्तरं प्रवर्धमानपरिणामेन धर्मक्रियां करोति । नमस्कारपौरुषीप्रभृतिदशविधपत्याख्यानसमाचरणं श्रावकव्रतपरिपालनं, मार्यमाणजीवरक्षणं, स्वधर्मिपरिपोषणं, दीनाऽनाथाऽन्धपङ्ग्वादिकरुणाकरणं साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकारूपचतुर्विधतीर्थसेवाकरणमशरणशरण्यतां सकलजीवहितमुखपथ्यकारितां च दधाना, एवं विचित्रधर्मक्रियां कुर्वाणा विहरति, त्रिकालसामायिकं च कुरुते । तथाहि इत्यादि कर्मकी गहन गतिको और अपने पतिको दुर्दशाको विचारती हुई निरन्तर प्रवर्धमान परिणामसे धर्मक्रिया करती थी। नमस्कार ( नवकारसी ) पौरुषो आदि दस प्रकारके प्रत्याख्यान ( पचखाण ) नित्यप्रति करती थी। श्रावकके व्रतोंका पालन करती थी, मारेजाते हुए जीवोंको बचाती थी, साधर्मियोंका पोषण करती थी, और दीन, अनाथ, पङ्गुजनोंके ऊपर परम करुणा करके अन्न, वस्त्र, ओषधि आदिक द्वारा उनके दुःखोंका निवारण करती थी। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चार तीर्थ की सेवा करती थी। निराधारकी आधार थी, कहाँ तक कहें महारानी चेल्लना सब प्रकारसे सब जीवोंके लिए हितकारी, पथ्यकारी, और सुखकारी थी, और अनेक प्रकारसे धर्मक्रिया करती हुई शीलवत आदि आराधन करती हुई तीनों काल सामायिक करती थी। कहा है: આ પ્રમાણે કર્મની ગહન ગતિને અને પિતાના પતિની દુર્દશાને, વિચાર કરતી થકી હમેશાં પ્રવર્ધમાન પરિણામથી ધર્મક્રિયા કરતી હતી. નમસ્કાર (નવકારસી) પૌરૂષી આદિ દશ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન (પચખાણ) નિત્ય પ્રતિ કરતી હતી. શ્રાવકનાં વ્રતોનું પાલન કરતી હતી. માર્યા જતા જીવને બચાવતી હતી. સાધમીઓનું પિષણ કરતી હતી તથા દીન, અનાથ, લુલાં પાંગળાં માણસોના ઉપર પરમ કરૂણું કરીને અન્ન વસ્ત્ર ઔષધ વગેરેથી તેમનાં દુઃખનું નિવારણ કરતી હતી. સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક શ્રાવિકા રૂપ ચાર તીર્થની સેવા કરતી હતી. નિરાધારની આધાર હતી, કયાં સુધી કહીએ ! મહારાણી ચેલના સર્વ પ્રકારે બધા જીવોને માટે હિતકારી, પથ્યકારી અને સુખકારી હતી. તથા અનેક પ્રકારે ધર્મક્રિયા કરતી થકી શીલત્રત આદિ આરાધન કરતી થકી ત્રણે કાળ સામાયિક કરતી હતી. કહ્યું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र “सा चेल्लणा भूमिथलं पमज, वत्थाइ सव्वं पडिलेक्ख भावा । बद्धा सदोरं मुहवत्तिमासे, सामाइयं तं कुणए तिकालं ॥ १॥" छाया-" सा चेल्लना भूमिस्थलं प्रमार्य, वस्त्रादि सर्व प्रतिलेख्य भावात् । बद्ध्वा सदोरां मुखवस्त्रीमास्ये, सामायिकं तत् कुरुते त्रिकालम् ॥१॥" ___ अन्यदा कूणिकः सर्वालङ्कारविभूषितः स्वमातुश्चेल्लनादेव्याश्चरणौ वन्दितुं समागतस्तत्र तामार्तध्यानयुक्तां दृष्ट्वा वन्दमानः कूणिकराजः स्वजननी पृच्छति-हे मातः ! यदहं खलु स्वयमेव महाराज्याभिषेकेण विशालराज्य " सा चेल्लणा भूमिथलं पमज्ज, वथाइ सव्वं पडिलेक्ख भावा । बद्धा सदोरं मुहवत्तिमासे, सामाइयं तं कुणए तिकालं " ॥ १ ॥ वह चेलना महारानी विधिपूर्वक पहले प्रमाणिका (पूँजनी ) से भूमिको पूँज लेती थी, बाद वस्रोंकी प्रतिलेखना (पडिलेहणा) करके मुँहपर सदोरक मुखवत्रिका बांधकर तीनों कालमें सामायिक करती थी। ___एक समय कूणिक महाराज सब अलंकार पहिने हुए अपनी माता चेल्लना महारानीके पास चरण-वन्दनके लिए आये। अपने पतिके दुःखसे दुःखित आर्तध्यानयुक्त अपनी माताको देखकर कहने लगे-हे जननी ! मैं स्वयं बड़े राज्यके अभिषेकसे अभिषिक्त होकर विशाल राज्यश्रीका अनुभव कर रहा हूँ, इससे तुम्हारे “सा चेल्लणा भूमिथलं पमज्ज, वत्थाइ सव्वं पडिलेक्ख भावा । वद्धा सदोरं मुहवत्तिमासे सामाइयं तं कुणए तिकालं ॥ १॥" તે ચેલ્લના મહારાણું વિધિપૂર્વક પહેલાં ગુચ્છાથી ભૂમિને પુંજી પછી વસ્ત્રોની પ્રતિલેખના (પડિલેહણા) કરી મેં ઉપર દેરા સહિત મુખવસ્ત્રિકા બાંધીને તણે કાલ (સવાર બપોર સાંજ) સામાયિક કરતી હતી. એક સમય કૂણિક મહારાજ બધા અલંકાર પહેરીને પોતાની માતા ચેલના મહારાણીની પાસે ચરણ–વંદન માટે આવ્યા. પોતાના પતિનાં દુઃખથી દુઃખિત આર્તધ્યાન કરતી પોતાની માતાને જોઈને કહેવા લાગ્યા.–હે જનની ! હું પિતે ટા રાજ્યના અભિષેકથી અભિષેક કરાયેલે હાઈ વિશાલ રાજ્યશ્રીને અનુભવ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकवर्णन श्रियमनुभवामि तेन किं तव मनसि सन्तोष उल्लासः प्रमोदो न वर्त्तते ? तुभ्यं मम भाग्योदयो न रोचते किम् ? । ततश्चेल्लणा देवी कूणिकराजमेवमवादीत्हे पुत्र ! यत्त्वं देवगुरुसदृश परमस्नेहानुरागरक्तं निजतातं निगडबन्धने विधाय स्वयं राज्यश्रियमनुभवसि तत्कथं तादृशेन दुष्कृतेन मम मनसि तुष्टिहर्षावकाशश्च । ततः कूणिकः पृच्छति-हे मातः ! कथं मयि तातः स्नेहानुरागरक्तः ?, तदा सा जगाद-हे पुत्र ! यश्चोपकुरुते तमेव त्वं द्वेक्षि, पश्य-जन्मानन्तरं मदाज्ञप्तया दास्या वने त्वं विसृष्टस्तदानीं तवेयमलिः कुक्कुटेन तुण्डेन मनमें क्या संतोष, उल्लास, प्रमोद नहीं हैं ? क्या मेरा भाग्योदय तुझे इष्ट मालूम नहीं देता ? । पुत्रके ऐसे वचन सुनकर महारानी चेल्लना देवी बोली-पुत्र ! तू देव और गुरुके समान परम स्नेहवाले अपने पिताको बन्धनमें डालकर स्वयं राज्यश्रीका अनुभव करता है ऐसे दुष्कृत्यसे किस तरह मेरा मम सन्तुष्ट और प्रमुदित हो सकता है ? । तब कूणिक महाराज बोले-हे जननी ! मेरे पिताका मुझपर किस तरहका अनुराग है ? । माता बोली-वत्स! जो तेरे उपकारी हैं, तू उन्हीका द्वेष करता है, देख-तेरे जन्म होनेके बाद तुझे मेरी आज्ञासे दासीने अशोक-वाटिकामें छोड दिया था, उस समय तेरी यह अंगुली कुक्कुट ( मुर्गे ) ने अपनी तीक्ष्ण चोंचसे કરી રહ્યો છું તેથી તમારા મનમાં શું સંતેષ, ઉલાસ આનંદ નથી થતો? શું મારૂ ભાગ્યદય તમને નથી ગમતું?. પુત્રનાં આવાં વચન સાંભળી મહારાણું ચેલ્લના દેવી બેલી–પુત્ર! તું દેવ તથા ગુરૂ સમાન પરમ સ્નેહવાળા પિતાના પિતાને બંધનમાં નાખી પિતે રાજ્યશ્રીનો અનુભવ કરી રહ્યો છે. એવાં દુષ્કૃત્યથી કેવી રીતે મારું મન સંતુષ્ટ તથા આનંદિત રહી શકે? ત્યારે કૃણિક મહારાજ બોલ્યા–હે જનની ! મારા પિતાને મારા ઉપર કેવી જાતને અનુરાગ છે? માતા કહે–વત્સ! જે તારે ઉપકારી છે તેને જ તે દ્વેષ કરે છે. જે–તારે જન્મ થયા પછી મારી આજ્ઞાથી દાસીએ તને અશોકવાટિકામાં મૂકી દીધો હતો તે વખતે તારી આ આંગળી કુકડાએ પિતાની તીખી ચાંચથી ખંડિત કરી દીધી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र खण्डिता, अकस्मात्त्वामुपगतस्त्वदीयतातो गृहमानषीत् । अणुलित्रणव्यथाव्याकुलस्त्वमुच्चैश्रीत्कुर्वाणो मनागपि शान्ति नावलम्बमान आसीः, करुणया त्वत्पिता बहुविधोपचारेणा लिवेदनामपहृत्य त्वां शान्तिमुपनीतवान् , एवं मकृत्या परमोपकारिणि पितरि कथमथान्यथाभावमाविष्कुर्वन् न लज्जसे ? इति चेल्लनावचनं निशम्य दीर्घ निःश्वस्य सपदि पीठादुत्थाय गृहीतपरशुः खंडित करदी थी और तू अनाथ ( निराश्रित ) होकर पडा-पडा चिल्ला रहा था । अकस्मात् तेरे पिता वहाँ आ पहुँचे और तुझे उठा लाये । तेरी अंगुलीका घाव बढ गया था और तू बडे जोर-जोरसे रुदन करता था। जब तेरी अंगुलीमें पीप भरजाता था तब तुझे अत्यधिक पीडा होती और तनिक भी आराम नहीं मिलता था तब तेरे पिता तेरी तडफन और वेदनाको देख दुःखित हृदय हो करुणासे औषधि उपचार करते थे और परम स्नेहसे तेरी अंगुलीको मुंहमें ले पीपको चूसकर थूक देते थे और तुझे सब तरहसे आराम पहुँचाते थे। इस तरह स्वभावसे परमोपकारी हितैषी पिताके प्रति तू अब कृतघ्न भावको धारण कर दुष्ट व्यवहार करता हुआ क्यों नहीं शरमाता है। इस प्रकार माताके मार्मिक और स्नेहभरे शब्दोंको सुनकर कूणिकने एक लम्बी साँस ली और उसी समय आसनसे उठ पिताके बन्धन काटनेके लिये हाथमें હતી અને તે અનાથ (નિરાશ્રિત) થઈ પડે–પડયે રેતે હતો. અચાનક તારા પિતા ત્યાં આવી પહોંચ્યા અને તેને ઉપાડી લાવ્યા. તારી આંગળી ઉપર ઘા વધી ગયો હતો અને તે બહુ જોરથી રૂદન કરતો હતો. જ્યારે તારી આંગળીમાં પીપ (પરૂ) ભરાઈ જાતું હતું ત્યારે તને ઘણું પીડા થતી હતી, અને તને જરા પણ આરામ મળતો નહતો. ત્યારે તારા પિતા તારે તડફડાટ અને વેદનાને જોઈને દુખિત હદય થઈ દયાથી ઔષધ ઉપચાર કરતા હતા અને પરમ સ્નેહથી તારી આંગળીને મોઢામાં લઈ પરૂને ચુસીને થુંકી દેતા હતા તથા તને સર્વ રીતે આરામ પહોંચાડતા હતા. આવી રીતે સ્વભાવથી જ પરમ ઉપકારી હિતેચ્છુ પિતાના તરફ તું હવે કૃતધ્ધ ભાવને ધારણ કરી દુષ્ટ વ્યવહાર કરતાં કેમ શરમાતું નથી ? આ પ્રકારે માતાના માર્મિક સ્નેહ ભર્યા શબ્દો સાંભળી કણિકે એક લાંબો નિસાસો નાખ્યો તથા તેજ વખતે આસન ઉપરથી ઊઠીને પિતાનું બંધન કાપી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कणिकवर्णन् श्रेणिकबन्धनपञ्जरान्तिकं तदीयबन्धनं सकरुणं छेत्तुमुपक्रामति । श्रेणिकश्च परशुपाणिं कृतान्तमिवायान्तं कूणिकं विलोक्य जातवेपथुः कदुपचारेण परशुप्रहारेण मम प्राणानद्य हरिष्यतीति शङ्कमानो यावदसौ तदन्तिकमुपैति तावद् मुद्रिकानिहिततालपुटविषमवलिह्य प्राणानत्यजत् । ततः कूणिको मृतकृत्यं विधाय निजदुराचारं चिन्तयन्नात्मनि परं ग्लायन् गृहमागतः, राज्य कुल्हाडी ली और जिस पोंजरेमें श्रेणिक थे उस तरफ जाने लगा, जब श्रेणिकने कूणिकको कुठार हाथमें लेकर आते हुए देखा तब भयसे धूजते हुए श्रेणिककों शंका हुई कि यह कुठार लिये हुए यमके समान मेरे पास आ रहा है मुझे न जाने किस कुमौतसे मारेगा ?, ऐसा विचार कर जब तक वह समीप आता है उतने ही समयमें उन्होंने अपनी मुद्रिकामें लगा हुआ तालपुट विषको चूसकर अपने प्राणोंको छोड दिया। बाद यह देखकर कूणिक बहुत दुःखित हुआ और पिताका दाह संस्कार आदि मृतककार्य करके अपने दुराचारोंकी मन ही मन निन्दा करता हुआ विषादयुक्त हो अपने घर आया। राज्यभारको वहन करते हुए उसे कुछ दिनोंके बंद पिताका નાખવા હાથમાં કુહાડે લીધે અને જે પીંજરામાં શ્રેણિક હતા તે તરફ જવા માંડયું. જ્યારે શ્રેણિકે કૂણિકને યમરાજ સમાન કુહાડી હાથમાં લઈને આવતા જે ત્યારે ભયથી ધ્રુજતા શ્રેણિકના મનમાં શંકા થઈ કે–રખે આ કુહાડી લઈને યમના જે મારી પાસે આવી રહ્યો છે અને મને ન જાણે કેવા કુતથી મારશે. એમ વિચારી જ્યાં સુધી તે પાસે આવી પહોંચે તેટલા જ વખતમાં તેમણે પોતાની વીંટીમાં લગાડેલ તાલપુટ વિષને ચુસીને પિતાના પ્રાણ ત્યાગ કર્યો. બાદ આ જોઈ કૃણિક બહુ દુખિત થયે તથા પિતાના દેહને અગ્નિસંસ્કાર આદિ મૃતક કર્મ કરીને પિતાના દુરાચારની મનમાં ને મનમાં નિંદા કરતે થકે ખેદયુક્ત થતે પિતાને ઘેર આવ્યું. રાજ્યના લારને વહન કરતાં થોડા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ __ निरयावलिकासूत्र भारं वहन् कियता कालेन विशोको जातः । परश्च यदा यदा पितुः शयनासनादीनि वस्तूनि विलोकयति तदा तदा तस्य परमखेदो जायते, तेन राजगृहानिर्गत्य चम्पायां राजधानी चकार । तत्र निजभ्रातृगणसहितः कूणिको राज्यं बुभोज ॥ इति कूणिकविवरणम् ॥ कुणिकस्य युद्धे साहाय्यविधायकानां कालादिदशकुमाराणां रथमुशलनामकसङ्गामे प्रचुरजनविनाशकरणेन नरकमायोग्यकर्मसम्पादनहेतोनिरयगाशोक विस्मृत होने लगा किन्तु जब-जब पिताके शयन, आसन आदि वस्तुओंको देखता तब-तब कूणिक राजाके मनमें बडा दुःख उत्पन्न होता, इस कारण राजगृह नगरको छोडकर राजाने अपनी राजधानी चम्पानगरीमें की और वहाँ अपने भाइयों व कुटम्बियोंके सहित रहकर राज्य करने लगे। इसप्रकार महाराज कूणिकका वर्णन यहां पर समाप्त होता है। रथमुशल संग्रामका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है: कूणिक राजाके युद्ध में सहायता करनेवाले कालकुमार आदि दस कुमारोंने रथमुशल संग्राममें बहुत जनोंके विनाश करनेके कारण नरकप्राप्तिरूप कर्मोंका દિવસો પછી પિતાને શેક ભૂલાવા લાગે પણ જ્યારે-જ્યારે પિતાનું બિછાનું આસન વગેરે વસ્તુઓને તે ત્યારે–ત્યારે કૃણિક રાજાના મનમાં બહુ દુઃખ થતું હતું, આ કારણથી રાજગૃહ નગરને છોડીને રાજાએ પોતાની રાજધાની ચંપાનગરોમાં કરી અને ત્યાં પોતાના ભાઈઓ તથા કુટુંબિઓ સાથે રહીને રાજ્ય કરવા લાગે. આ પ્રમાણે મહારાજ કૂણિકનું વર્ણન અહીં સમાપ્ત થાય છે. રથમુશલ સંગ્રામનું સંક્ષિપ્ત વર્ણન આ પ્રકારે છે કૃણિક રાજાને યુદ્ધમાં સહાયતા કરવાવાળા કાલકુમાર આદિ દશ કુમારને રથમુશલ સંગ્રામમાં ઘણા માણસેને વિનાશ કરવાના કારણથી નરકમાસિરૂપ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका रथमुशलमाम कारण मित्वेन कालादिदशकुमारविवरणग्रथितस्य प्रथमाध्ययनस्य 'निरयायुः' इति नाम । __अथ रथमुशलाभिधानसङ्ग्रामाविर्भावे कारणमुच्यते, तथाहि-चम्पायां नगया कूणिको राजा राज्यशासनं करोति । तदीयावनुजौ वैहल्य-चैहायसौ पितृदत्तसेचनकहस्तिनमारूढौ दिव्यकुण्डलवसनहारालङ्कृतौ विलसन्तौ कूणिकराजमहिषी पद्मावती निरीक्ष्य सेचनकगजमपहर्तु कूणिकं पैरयत् । कूणिकेन नैकधा विज्ञाप्यमानाऽपि हस्तिहरणनिषक्तमानसा ततो न निवृत्ता । उपार्जन किया और नरकगामो बने; उन्हीं दस कुमारोंका वर्णन इस प्रथम अध्ययनमें है, इस कारण इसका 'निरयायु' नाम है। अब रथमुशल संग्रामकी उत्पत्तिका कारण कहते हैं चम्पानगरीमें कोणिक राजा राज्य करते थे। उनके वैहल्य और वैहायस, ये दो छोटे भाई थे। वे पिताके दिये हुए सेचनक हाथीपर चढकर दिव्य कुण्डल वस्त्र और हारको पहनकर विलास करते थे। उन्हें देखकर पद्मावती रानीने सेचनक हाथीको अपने अधीन करनेके लिये कूणिकको प्रेरित किया। भ्रातृप्रेमके कारण कृणिकके बहुत समझाने पर भी रानीका मन हाथीसे नहीं हटा। કર્મોનું ઉપાર્જન કર્યું તથા નરકગામી બન્યા તેજ દશ કુમારનું વર્ણન આ પ્રથમ અધ્યયનમાં છે. આ કારણથી આનું “નિરયાયુ” નામ છે. હવે રથમુશલ સંગ્રામની ઉત્પત્તિનું કારણ કહે છે – ચંપાનગરીમાં કૃણિક રાજા રાજ કરતા હતા. તેમને વૈહલ્ય તથા વૈપાયસ એ બે નાનાભાઈ હતા. તેઓ પિતાએ આપેલા સેચનક હાથી ઉપર બેસીને દિવ્ય કુંડલ, વસ્ત્ર તથા હાર પહેરીને વિલાસ કરતા હતા. તેમને જોઈને પદ્માવતી રાણીએ સેચનક હાથીને પોતાના કબજામાં લેવા માટે કૃણિકને પ્રેરણા કરી. ભ્રાતૃપ્રેમને લીધે કૃણિકે બહુ સમજાવી છતાં પણ રાણીનુ મન હાથથી હઠયું નહિ. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ७० ततः पद्मावतीप्रेरितः कूणिको हस्तिनं तौ याचते । हस्तियाचने कृते वैहल्यवैहायसौ सपरिवारौ सान्तःपुरौ कूणिकभयाद् विशाल्यां नगर्यां चेटकनामधेयं स्वमातामहं राजानं प्रपन्नौ । , कूणिकेन दूतप्रेषणेन स्वकीयानुजौ चेटको याचितः परञ्च चेटकेन तौ न प्रेषितौ, किन्तु दूतद्वारा कूणिकनिकटे संवादः प्रहितः - राज्यभागमाभ्यां यदि दास्यसि तदाऽमू हारहस्तिनौ च प्रेषयिष्यामीति । ततः कूणिकः कोपारुणनयनयुगलो वार्ता प्रेषयामास - यदि तौ वैहल्य - वैहायसौ न प्रेषयसि तदा युद्धाय संनद्धो भव । चेटकेनोक्तम् अहमपि संनद्धोऽस्मि अन्तमें पद्मावतीकी बात मानकर कूणिक दोनों भाइयोंसे हाथीकी याचना की । हाथीकी याचना करनेपर दोनों भाई भयभीत हो अपने परिवार सहित विशाला नगरीमें अपने नाना चेटक महाराजके पास चले गये । कूणिकने दूतद्वारा राजा चेटकसे हार और हाथी सहित भाइयोंको मांगा । तब चेटकने दूतद्वारा कूणिकको यह समाचार भेजा - यदि तुम राज्यका भाग इन दोनोंको देते हो तो इनको तथा हार एवं हाथीको भेज सकते हैं । यह सुनकर महाराज कूणिककी आँखें लाल हो गयीं और उन्होने सन्देश भेजा - यदि हार हाथी साथ वैहल्य और वैहायसको नहीं भेजते हो तो युद्धके लिए तैयार हो जाओ । चटकने कहा- हम भी तैयार हैं। આખરે પદ્માવતીની વાત માનીને કેણિકે બન્ને ભાઇઓ પાસેથી હાથી માગ્યા. હાથી માગવાથી બંન્ને ભાઈને બીક લાગી અને પેાતાના પરિવાર સાથે વિશાલાનગરીમાં પેાતાના નાના ચેટક મહારાજની પાસે ચાલ્યા ગયા. કૃણિકે દૂત દ્વારા રાજા ચેટક પાસે હાર તથા હાથી સહિત ભાઈ આ માંગ્યા ત્યારે ચેટકે દૂત દ્વારા કૂણિકને આ સમાચાર માકલ્યા “ જો તમે રાજ્યના ભાગ આ બન્નેને દેતા હૈા તા તેઓને તથા હાર તેમજ હાથીને માકલી શકું.” આ સાંભળી મહારાજ કૃણિકની આંખા લાલ થઈ ગઈ તથા તેમણે સંદેશ મેકક્લ્યાજો હાર હાથીની સાથે વૈહલ્ય અને વૈહાયસને નથી માકલતા તેા યુદ્ધને માટે તૈયાર થઈ જાઓ. ચેટકે કહ્યું-અમે પણ તૈયાર છીએ. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका रथमुशलसङ्ग्राम ततो युद्धनिश्चयानन्तरं कूणिकेन सह कालप्रभृतयो दश वैमात्रेया अनुजा राजानश्चेटकनृपेण सामायसमुपगताः । तत्रैकैकस्य त्रीणि त्रीणि गजानामश्वानां स्थानां च सहस्राणि, मनुष्याणां च तिन : कोटय आसन् , कूणिकस्यापि तावदेव बलम् । चेटकभूपोऽपि एतादृशं सङ्ग्रामप्रसङ्गा विज्ञायाष्टादशगणराजैः सह सम्मेलनं कृतवान् । कालादीनां प्रत्येकं यावद् गजादिबलपरिमाणं तावदेव चेटकस्यापि । ततो युद्धं प्रवृत्तम् । चेटकराजस्तु युद्धकाले व्रतपरायण इस प्रकार युद्धका निश्चय होजानेके बाद कोणिकके साथ कालकुमार आदि दसों सौतेले छोटे भाई चेटक राजासे लडनेके लिए आये। उन दसोंमें प्रत्येकके साथ तीन-तीन हजार हाथी घोडे और रथ थे तथा तीन-तीन करोड सैनिक थे। कूणिक के साथ भी इतनी ही सेना थी। चेटक (चेडा) महाराज भी इस प्रकार संग्रामका प्रसङ्ग समझकर अठारह देशके गणराजाओंका संघटन किया। कालादि कुमारोंके प्रत्येकके पास जितनी सेनायें थीं, उतनी ही चेटक आदि प्रत्येक राजाके पास थी। अनन्तर दोनोंका युद्ध हुआ । चेटक ( चेडा ) महाराज तो युद्धकालमें व्रतधारी थे, इस लिए युद्ध में एक આ પ્રમાણે યુદ્ધને નિશ્ચય થયા પછી કૃણિકની સાથે કાલકુમાર આદિ દશયે ઓરમાન નાનાભાઈ ચેટક રાજા સાથે લડવા માટે આવ્યા. એ દશેયમાં દરેકની સાથે ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા તથા રથ હતા અને ત્રણ ત્રણ કરેઠ સૈનિક હતા. કૃણિક રાજાની પાસે પણ એવડી જ સેના હતી. ચેટક (ચેડા) મહારાજે પણ આ પ્રકારને લડાઈને પ્રસંગ સમજીને અઢાર દેશના ગણરાજાઓનું સંગઠન કર્યું. કાલ આદિ કુમારની દરેકની પાસે જેટલી સેનાઓ હતી તેટલીજ ચેટક આદિ પ્રત્યેક રાજાની પાસે હતી. ત્યાર પછી બન્નેનું યુદ્ધ થયું. ચેટક (ચેડા) મહારાજ તે યુદ્ધકાલમાં વતધારી હતા. એથી યુદ્ધમાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ___ निरयावलिका सूत्र आसीत्, अतो रणे एकस्मिन् दिने एकमेवामोघं वाणं मुश्चति । तत्र युद्धक्षेत्रे कुणिकसैन्यदले गरुडव्यूहः, चेटकसैन्ये च सागरव्यूहो निर्मित आसीत् । ततश्च प्रथमेऽह्नि कूणिकराजस्य कालकुमारोऽनुजो निजसैन्ययुतः सेनापतिः स्वयं युध्यमानश्चेटकेन निक्षिप्तेनामोधेनैकेन शरेण निहतः । कूणिकसैन्यं च भगम् । ततो द्वयोरपि राज्ञोर्बलं निजं निजं स्थान प्राप्तम् । द्वितीयेऽह्नि सुकालो निजसैन्यसमन्वितो रणमुपगतो युध्यमानश्चेटकेनकेन शरेण निपातितः । एवं तृतीयेऽह्नि महाकालः, चतुर्थे दिने कृष्णकुमारः, पञ्चमे दिवसे मुकृष्णकुमारः, षष्ठे महाकृष्णः, सप्तमे वीरकृष्णः, दिनमें एकही अमोघ बाण छोडते थे। वहाँ कूणिकके सैन्यमें गरुडव्यूह था और चेटक ( चेडा ) के सैन्यमें सागरव्यूह । उसके बाद पहिले दिनमें कूणिक राजाके छोटे भाई कालकुमार अपनी सेना सहित सेनापति बनकर स्वयं चेटक-( चेडा ) महाराजके साथ लडता हुआ उनके अमोघ बाणसे मारा गया। और कूणिककी सेना नष्ट होगयी । दूसरे दिन सेनासहित सुकालकुमार युद्ध में चेटकके बाणसे मारे गये । इसी तरह तीसरे दिन महाकाल कुमार, चौथे दिन कृष्ण कुमार, पाँचवें दिन सुकृष्णकुमार, छठे दिन महाकृष्ण कुमार, सातवें दिन वीरकृष्ण कुमार, એક દિવસમાં એકજ અમેઘ બાણ છોડતા હતા. આ તરફ કૂણિકના સૈન્યમાં ગરૂડબૃહ હ તથા ચેટક (ચેડા)ના સૈન્યમાં સાગર-બૃહ હતો. ત્યાર પછી પહેલે દિવસ કૃણિક રાજાને નાનભાઈ કાલકુમાર પિતાની સેના સહિત સેનાપતિ બનીને પિતે ચેટક (ચેડા ) મહારાજની સાથે લડતાં લડતાં તેના અમેઘ બાણથી માર્યો ગયે, અને કૂણિકની સેનાને નાશ થઈ ગયે. બીજે દિવસે સેના સાથે સુકલકુમાર યુદ્ધમાં ચેટકના બાણથી માર્યો ગયા. આવી રીતે ત્રીજે દિવસે મહાકાલ કુમાર, ચોથે દિવસે કૃષ્ણકુમાર, પાંચમે દિવસે સુકૃષ્ણ કુમાર, છઠું દિવસે મહાકૃષ્ણ કુમાર, સાતમે દિવસે વીરકૃષ્ણ કુમાર, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका सङ्ग्रामवर्णन अष्टमे रामकृष्णः, नवमे पितृसेनकृष्णः, दशमे दिने पितृमहासेनकृष्णश्च चेटकेनैकैकेन बाणेन प्रत्यहमेकैकशः कालादयो दश कुमारा निहताः । दशसु निहतेषु कूणिकश्चेटकं जेतुं देवाराधनायाऽष्टमभक्तं कृतवान् । ततः शक्रचमरौ द्वौ देवेन्द्रौ प्रसन्नौ समागतौ । तत्र शक्र उवाच-चेटको व्रतधारी श्रावकोऽस्तीत्यतस्तं न हनिष्यामि, परं त्वां रक्षितुं शक्नोमि, कूणिकेनोक्तंतथाऽस्तु, ततः शक्रस्तद्रक्षणाय वज्रकल्पमभेद्यकवचं विकुर्वितवान् । आठवें दिन रामकृष्ण कुमार, नवमें दिन पितृसेनकृष्ण कुमार और दसवें दिन पितृमहासेनकृष्ण कुमार चेटकके एक-एक बाणसे मारे गये। दसों कुमारोंके मारे जाने पर 'चेटकको जीते' इस भावसे कूणिक राजाने देवताको आराधन करनेके लिए अष्टमभक्त किया। उसके बाद शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र प्रसन्न हुए और कूणिकके पास आये । उनमेंसे शक्रेन्द्र बोले-हे कूणिक ! चेटक ( चेडा ) राजा व्रतधारी श्रावक है इस लिए हम उसे नहीं मार सकते, पर तेरी रक्षा कर सकते हैं। शकेन्द्रके मुखसे निकले इन वचनोको श्रवणकर कूणिकने 'तथास्तु' कहा । कूणिकके 'तथास्तु' कहने याने स्वीकार करलेनेके बाद शकेन्द्रने कूणिककी रक्षाके लिए-वज्रसदृश अभेद्य कवच वैक्रियक्रियासे बनाया। આઠમે દિવસે રામકૃષ્ણકુમાર, નવમે દિવસે પિતૃસેનકૃષ્ણકુમાર, તથા દશમે દિવસે પિતૃમહાસેનકૃષ્ણકુમાર, ચેટકના એક-એક બાણથી માર્યા ગયા. દશેય કુમારના માર્યા ગયાથી “ચેટકને જીતું એવા ભાવથી કૂણિક રાજાએ દેવતાનું આરાધન કરવા માટે અઠમ (૩ ઉપવાસ) કર્યો તેથી શકેંદ્ર તથા ચમરેંદ્ર પ્રસન્ન થયા તથા रानी पासे माव्या. तेमांथी श माल्या.- यूणि ! २८४ (21) વ્રતધારી શ્રાવક છે તેથી અમે તેને નહિ મારી શકીએ, પણ તારી રક્ષા કરી શકીએ. શદ્રના મુખથી નિકળેલાં આ વચન સાંભળીને કેણિકે “તથાસ્તુ' કહ્યું. કણિકના “તથાસ્તુ કહેવાથી એટલે સ્વીકાર કરી લીધા પછી શકેન્દ્ર કેણિકની રક્ષાને માટે વજીના જેવું અભેદ્ય કવચ વૈક્રિય ક્રિયાથી બનાવ્યું. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ निरयावलिका सूत्र चमरश्च-' महाशिलाकण्टकं ' 'रथमुशलं ' चेति द्वौ सीमौ विकुर्वितवान् , तत्र महाशिलेव प्राणापहारकत्वात् कण्टको ‘महाशिलाकण्टक' इत्युच्यते । अथवा-तृणाग्रेणापि हतस्य गजाश्चादेर्महाशिलाकण्टकेन हतस्येव वेदना यत्र भवति स सफ़ामो ‘महाशिलाकण्टक' इत्युच्यते । ___'रथमुशलं चेति पुशलेन सहितो रथस्तस्मात् निस्सरन्मुशलो धावमानो जनसमुदाय यत्र विनाशयति स सङ्ग्रामो ‘रथमुशल ' इति निगद्यते ॥१२॥ चमरेन्द्रने महाशिलाकंटक और रथमुशल नामक संग्राम विकुर्वित किया । 'महाशिलाकण्टक -जो महाशिलाके समान प्राणोंका कंटक अर्थात् घातक है वह महाशिलाकंटक कहलाता है, अथवा तिनकेकी नोंकसे मारनेपर भी हाथी घोडे आदिको महाशिलाकंटकसे मारने जैसी तीत्र वेदना होती है उस संग्रामको ‘महाशिलाकंटक' कहते हैं। 'रथमुशल '-मुशलयुक्त रथको ‘रथमुशल' कहते हैं, अर्थात्-रथसे निकलकर मुशल बहुत वेगसे दौडकर शत्रुपक्षका विनाश-( संहार ) करता है उस संग्रामको 'रथमुशल' कहते हैं। ॥ १२ ॥ ચમચંદ્ર મહાશિલાકંટક તથા રથમુશલ નામે સંગ્રામ વિકર્વિત કર્યો. મહાશિલાકંટક–જે મહાશિલાના જેવો પ્રાણેને કંટક અર્થાત્ ઘાતક છે. તે મહાશિલાકંટક કહેવાય છે, અથવા તણખલાની અણીથી મારવાથી પણ હાથી ઘેડા આદિને મહાશિલાકંટકથી મારવા જેવી તીવ્ર વેદના થાય છે; એ સંગ્રામને ‘भाशिरा' छ. રથમૂશલમુશલયુક્ત રથને “રથમુશલ' કહે છે. અર્થાત્ રથમાંથી નીકળી મુશલ બહુ વેગથી દેડીને શત્રુપક્ષને વિનાશ (સંહાર) કરે છે. એ सामने “ २थभुशल" : छ. (१२) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालीरानी के विचार तत्र कूणिकेन सह कालः स्वबलसमन्वितः रथमुशलसङ्ग्राममुपयातः, इत्याशयकं सूत्रमाह-'तएणं से काले' इत्यादि । मूलम्तएणं से काले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं, तिहिं रहसहस्सेहिं, तिहिं आससहस्सेहिं, तिहिं मणुयकोडीहिं गरुडवूहे एक्कारसमेणं खंडेणं कूणिएणं रन्ना सद्धिं रहमुसलं संगामं ओयाए ॥ १३॥ छायाततः खलु स कालः कुमारः अन्यदा कदाचित् त्रिभिर्दन्तिसहस्रः त्रिभी रथसहस्रैः, त्रिभिरश्वसहस्रैः त्रिभिर्मनुजकोटिभिः गरुडव्यूहे एकादशेन खण्डेन कूणिकेन राज्ञा सार्द्ध रथमुशलं सङ्ग्रामम् उपयातः ॥ १३॥ टीका'तएणं से' इत्यादि-ततः समिनिर्णयानन्तरं सा=असौ प्रथमः कालः कालकुमारः अन्यदा=अन्यस्मिन् कदाचित् कस्मिंश्चित् समये त्रिभिः= त्रिसंख्यकैः, दन्तिनां हस्तिनां सहस्राणि-दन्तिसहस्राणि तैस्तथा, त्रिभी रथसहस्रैः, त्रिभिरश्वसहस्रैः, त्रिभिर्मनुजकोटिभिः सह गरुडव्यूहे एकादशेन वहां कूणिकके साथ कालकुमार अपनी सेना लेकर रथमुशल संग्राममें उपस्थित हुए, इस आशयका सूत्र कहते हैं-' तएणं से काले' इत्यादि. संग्रामके निश्चित होजानेके पश्चात् वह कालकुमार नियत समयपर तीन २ हजार हाथी-घोडे-रथ आदि, एवं तीन करोड पैदल सेनाको लेकर गरुडव्यूहमें, ત્યાં કૂણિકની સાથે કાલકુમાર પોતાની સેના લઈને રથમુશલ સંગ્રામમાં उपस्थित थया. मी भतरमतुं सूत्र ४ छ-'तएणं से काले' त्याहि. સંગ્રામને નિશ્ચય થઈ ગયા પછી તે કાલકુમાર નિશ્ચિત વખતે ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ આદિ અને ત્રણ કરોડ પાયદળ સેનાને લઈને ગરૂડ બૃહમાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ निरयावलिकासूत्र खण्डेन अंशेन सहितेन एकादशभागिना कूणिकेन राज्ञा सार्द्ध रथमुशलंतदाख्यं सामम् उपयातः-उपगतः प्राप्त इत्यर्थः ॥१३॥ मूलम्तएणं तीसे कालीए देवीए अन्नया कयाइ कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाय समुप्पज्जित्था-एवं खलु मम पुत्ते कालकुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव ओयाए, से मन्ने किं जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जीविस्सइ नो जीविस्सइ ? पराजिणिस्सइ ? णो पराजिणिस्सइ ? काले णं कुमारे णं अहं जीवमाणं पासिजा ? ओहयमण. जाव झियाइ ॥१४॥ छायाततः खलु तस्याः काल्या देव्या अन्यदा कदाचित् कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खलु मम पुत्रः कालकुमारः त्रिमिदन्तिसहस्रैः यावत् उपयातः तन्मन्ये किं जेष्यति ? न जेष्यति ? जीविष्यति ? न जीविष्यति ? पराजेष्यते ? न पराजेष्यते ? कालं खलु कुमारम् अहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? अपहतमनःसंकल्पा यावत् ध्यायति ॥१४॥ टीका'तएणं तीसे ' इत्यादि । ततः युद्धप्रवर्तनानन्तरम् अन्यदा कदाचित् एकस्मिन् दिने कुटुम्बजागरिकां-कुटुम्बः स्वजनवर्गः पोष्यवर्गादिस्तदर्य ग्यारहवें अंशके भागी राजा कूणिकके साथ 'रथमुशल ' संग्राम में उपस्थित हुआ ॥ १३ ॥ 'तएणं तीसे' इत्यादि. संग्राम आरम्भ होनेपर इधर एक समय कुटुम्बजागरणा करती हुई काली અગીયારમા ભાગના ભાગીદાર રાજા કૃણિકની સાથે “રથમુશલ” સંગ્રામમાં उपस्थित थया. (13) 'तएणं तीसे' त्याह સંગ્રામને આરંભ થતાં એક વખત કુટુંબ-જાગરણ કરતી કાલી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ सुन्दरबोधिनी टीका कालोरानीके विचार जागरिकां-जागरणमिन्द्रियैर्विषयज्ञानयोग्यावस्थां जाग्रत्याः प्रामुवत्याः, तस्याः काल्या देव्याः अयम् एषः एतद्रूपः वक्ष्यमाणलक्षणः आध्यात्मिकः= आत्मविषयो विचारः वृक्षस्याऽङ्कुर इव, यावत्करणात्-" चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे" इति संगृह्यन्ते, तदनु चिन्तितः पुनः पुनः स्मरणरूपो विचारः द्विपत्रित इव, ततः कल्पितः स एव व्यवस्थायुक्तः पुत्रविषयको विचारः पल्लवित इच, प्रार्थितः स एव इष्टरूपेण स्वीकृतः पुष्पित इव, मनोगतः संकल्पः मनसि इष्टरूपेण निश्चयः फलित इव समुदयद्यत-जातः । महारानीके हृदयमें वृक्षके अङ्करसमान ‘आध्यात्मिक' अर्थात् आत्मविषयक विचार उत्पन्न हुआ। वह-'चिंतित' अर्थात् बारबार स्मरणसे 'द्विपत्रित' के समान, 'कल्पित ' वही पुत्रविषयक विचार व्यवस्थायुक्त होनेसे — पल्लवित ' के समान, 'प्रार्थित ' मनमें विचार स्वीकृत होजानेके कारण ‘पुष्पित 'के समान, 'मनोगत संकल्प' वही इष्ट रूपसे मनमें निश्चित होजानेके कारण — फलित' के समान अवस्थाको प्राप्त हुआ । भावार्थसंग्रामके प्रारम्भ होजाने पर महारानी कालीके हृदयमें पुत्र स्नेहके कारण एक મહારાણીના હૃદયમાં વૃક્ષના અંકુરની પેઠે “આધ્યાત્મિક” અર્થાત્ આત્મવિષયક વિચાર ઉત્પન્ન થશે. તે “ચિંતિત =અર્થાત્ વારંવાર સમરથી દ્વિપત્રિત સમાન, “કપિત ”તે પુત્ર વિષે વિચાર વ્યવસ્થાયુક્ત થવાથી પલ્લવિતના સમાન, “પ્રાર્થિત ”=મનમાં વિચારને સ્વીકાર થઈ જવાથી પુષિતના સમાન, મનોગત સંક૯પ =તે ઈષ્ટ રૂપથી મનમાં નિશ્ચય થઈ જવાથી ફલિતના સમાત અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયો. भावार्थસંગ્રામ શરૂ થઈ જતાં મહારાણી કાલીના હૃદયમાં પુત્ર-નેહના કારણે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ निरयावलिकासूत्र संकल्पस्वरूपमाह-' एवं खल्वि'-त्यादिना । मम पुत्रः आत्मजः कालकुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः त्रिसहस्रसंख्यकगजैः, यावत्करणात्-रथानामश्वानाञ्च त्रिभिः सहस्रैर्मनुष्याणां च तिसृभिः कोटिभिः सह उपयातः सङ्ग्रामाय मतः, तन्मन्ये-तत् संदिहे-किं जेष्यति ? समामे शत्रूनभिभूय प्रताप समय वृक्षके अंकुरके सदृश आत्मिक भाव अंकुरित हुए, पश्चात् वेही विचार बारबारके चिन्तन-स्मरणसे द्विपत्रित अर्थात् जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरके कुछ बढनेपर दो कोमल किशलय-दो नये पत्ते निकलते हैं, उसी प्रकार विचारोंका स्वरूप बढा, बाद वेही वात्सल्यमय विचार 'कल्पित ' याने पल्लवित-अधिक पत्रोंके रूपमें अग्रसर हुए, पश्चात् मनमें बढते--पनपते हुए उन विचारोंके 'प्रार्थित ' होजानेपर याने अपने विश्वाससे स्वीकृत होजाने पर 'पुष्पित ' फूले हुएके समान होगये और अन्तमें जब उनपर दृढ संकल्प होगया तब वे फलितसमान अवस्थाको प्राप्त हुए याने वृक्षके फलके समान फलरूप बन गये।। अब महारानी कालीके विचारका स्वरूप कहते हैं-' एवं खलु' इत्यादि । ___ मेरा पुत्र कालकुमार तीन२ हजार हाथी घोडे रथ और तीन कोटि सेनाके साथ संग्राममें गया है। मेरे मनमें इस बातका संशय आ रहा है कि वह એક સમય વૃક્ષના ફણગા જેવો આમિક ભાવ અંકુરિત થયો. પછી તેજ વિચાર વારંવારના ચિતન સ્મરણથી દ્વિપત્ર અર્થાત્ જેમ બીજમાંથી અંકુર અને અંકુર જરા વધવાથી બે કેમલ કિસલય–બે નવાં પાંદડાં નિકળે છે તેવી જ રીતે વિચારેનું સ્વરૂપ વધવા બાદ તેજ વાત્સલ્યમય વિચાર “કલ્પિત અર્થાત્ “પલ્લવિત’ વધારે પાંદડાંના રૂપમાં આગળ આવે–પછી મનમાં વધતા-વિસ્તાર પામતા તે વિચારે “પ્રાર્થિત થઈ જતાં યાને પિતાનાજ વિશ્વાસથી સ્વીકારાઈ જવાથી પુષ્પિત કૂલની પેઠે થઈ ગયા તથા અંતમાં જ્યારે તેના ઉપર દૃઢ સંકલ્પ થઈ ગમે ત્યારે તે “ફલિત” જેવી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થાય છે અર્થાત વૃક્ષનાં ફળની જેમ ફલરૂપ થઈ ગયા. हवे. माgl stellan वियर (४६५)नु २१३५ ४४ छ–'एवं खलु' इत्यादि. મારે પુત્ર કાલ કુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ તથા ત્રણ કરોડ સેનાની સાથે સંગ્રામમાં ગયો છે. મારા મનમાં આ વાતને સંશય આવે છે કે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालोरानोंके विचार ७९ प्राप्स्यति ?, अथवा-न जेष्यति ?, जीविष्यति ? पाणधारणं करिष्यति ? अथवा-न जीविष्यति ? पराजेष्यते ?=शत्रुतः परास्तो भविष्यति ? वा न पराजेष्यते ? अहं कालं कुमारं-स्वपुत्रं खलु-निश्चयेन जीवन्तंभाणयुक्तं द्रक्ष्यामि-पेक्षिष्ये, इत्येवम् , ' अपहतमनःसंकल्पा'-अपहतो मलिनीभूतो मनःसंकल्पो-योग्याऽयोग्यविचारो यस्याः सा तथा, यावत्करणात्-'करयलपल्हत्थियमुही, अट्टज्माणोवगया, ओमंथियणयणवयणकमला, दीणविवन्नवयणा, मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूया' एतेषां सङ्गहः । करतलपर्यस्तितमुखी, आर्तध्यानोपगता, अवमथितनयनवदनकमला, दीनविवर्णवदना, मनोमानसिकेन दुःखेन अभिभूता, इतिच्छाया; 'करतले 'तिकरतले हस्ततले पर्यस्तितं स्थापितं मुखं यया सा तथा, 'आर्ते 'ति-ऋतं= दुःखं पुत्रविरहजन्यं तत्र भवमात, तच्च ध्यानं, तत्रोपगता-पुत्रविरहजन्यदुःखा युद्धमें शत्रुओं पर विजय पावेगा अथवा नहीं ? । वह जीवित रहेगा या नहीं ? । शत्रु उससे पराजित होंगे या नहीं ? । मैं अपने लाल कालकुमारको जीवितावस्थामें देवंगी या नहीं है। इस प्रकारके अनेक संशयात्मक विचार करने लगी। ऐसे कर्तव्याकर्तव्यके विचार और उनका निर्णय जब शिथिल अवस्थाको धारण करने लगे तब सहसा रानीका मन मलिन होगया और हथेलीपर अपना मुँह रखकर पुत्र विरहके दुःखसे क्षुब्ध रानी आर्तध्यान करने लगी। अत्यन्त दुःखके कारण कुम्हलाये તે યુદ્ધમા શત્રુઓ ઉપર વિજય મેળવશે કે નહિ? તે જીવિત રહેશે કે નહિ? તેનાથી શત્રુ પરાજીત પામશે કે નહિ ? હું મારા લાલ કાલકુમારને જીવિત અવસ્થામાં જઈશ કે નહિ ? આ પ્રકારના અનેક સંશયાત્મક વિચાર કરવા લાગી. એવા ક્તવ્ય અકર્તવ્યના વિચાર તથા તેના નિર્ણય જ્યારે શિથિલ અવસ્થાને ધારણ કરવા લાગ્યા ત્યારે એકદમ રાણીનું મન મલિન થઈ ગયું તથા. હથેળી ઉપર પોતાનું મેં રાખીને પુત્ર વિરહના દુઃખથી પીડાતી રાણુ આર્તધ્યાન કરવા લાગી અત્યંત દુઃખને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र न्वितध्यानयुक्तेत्यर्थः, 'अवमथिते 'ति-अवमथितानि-अधाकृतानि नयनवदनरूपाणि कमलानि यया सा तथा, प्रबलदुःखेन निम्नम्लाननेत्रमुखकमलेत्यर्थः, 'दीने 'ति-दीनस्य अकिंचनस्येव विवर्ण-कान्तिरहितं मुखं यस्याः सा तथा= शोकम्लानवदनेत्यर्थः, 'मनोमानसिकेने 'ति-मनसि भवं मानसिकं दुःखं मनस्येव, न बहिः, वचनादिभिरप्रकाशितत्वात् यत् तन्मनोमानसिकं, तेन दुःखेन अभिभूता व्याप्ता, शोकसागरप्रविष्टा ध्यायति-आर्तध्यानं करोति, इति ॥१४॥ मूलम्तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए । परिसा निग्गया । तए णं तीसे कालीए देवीए, इमीसे कहाए लढाए समाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था ॥ १५ ॥ _छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः । परिषत् निर्गता । ततः खलु तस्याः काल्याः देव्याः एतस्याः कयायाः लब्धार्थायाः सत्याः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत ॥१५॥ हुए कमलके समान नेत्र और मुखको नीचा किये हुए बैठ गई, उसका मुख दीनजनके समान शोकाच्छादित-उदासीन हो गया । वह मानसिक दुःखोसे घिरी हुई शोकसागरमें डूबी हुई आर्तध्यानपरायणा थी। ॥ १४ ॥ લીધે કરમાઈ ગયેલાં કમળના જેવાં નેત્ર તથા મુખને નીચું કરીને બેસી ગઈ. તેનું મુખ ગરીબ માણસના જેવું કારછાદિત (દીલગીરીથી છવાઈ ગયેલું) ઉદાસીન થઈ ગયું તે માનસિક દુખેથી ઘેરાયેલી શોકના સાગરમાં ડૂબી જવાથી આર્ત ध्यानपराय ती. (१४) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालो रानीके विचार टीका'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः सदेवमनुष्यपरिषदि भव्यानुपदेष्टुं समुपस्थितः, परिषत् जनसमुदायः निर्गता-गृहानिस्मृता । ततः परिषनिर्गमनानन्तरं खलु-निश्चयेन तस्याः पूर्वोक्तायाः प्रसिद्धाया वा, काल्या देव्याः एतस्याः= समीपतरवर्तिन्याः कथायाः लब्धार्थायाः-लब्धोऽर्थों यया सा तस्याः प्राप्ता(या इत्यर्थः, अयम् एतद्रूपः वक्ष्यमाणस्वरूपः ‘आध्यात्मिकः' आत्मनि विचारः यावत्पदगृहीतानां 'चिंतिए, कप्पिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे' एतेषां च व्याख्याऽव्यवहितपूर्वसूत्रोक्तरीत्या विज्ञेया, समुदपद्यत ॥१५॥ तदेव दर्शयति-' एवं खलु' इत्यादि । मूलम्एवं खलु समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुब्बि० इहमागए जाव विहरइ, तं महाफलं खलु तहारूवाणं जाव विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए, तं तेणं कालेणं' इत्यादि। उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी उस नगरीमें पधारे । देवता और मनुष्योंकी सभामें भव्योंको धर्म-देशना देने लगे। धर्मकथा श्रवण करनेके लिए परिषद निकली। भगवान यहाँ पधारे हैं। ऐसा वृत्तान्त सुनकर काली रानीके मनमें वक्ष्यमाण-आगे कहे जानेवाले विचार उत्पन्न हुए। ॥ १५ ॥ ' तेणं कालेणं' त्या તે કાળે તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી તે નગરીમાં પધાર્યા. દેવતા તથા મનુષ્યની સભામાં ભળ્યાને ધર્મદેશના દેવા લાગ્યા. ધર્મકથા સાંભળવા માટે પરિષદ નીકળી. ભગવાન અહીં પધાર્યા છે એ વૃતાન્ત સાંભળી કાલી રાણીના મનમાં વસ્યાણ-આ પ્રમાણે વિચાર ઉત્પન્ન થયા. (૧૫) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ निरयावलिकासूत्र गच्छामि णं समणं जाव पज्जुवासामि, इमं चणं एयारूवं वागरणं पुच्छिस्सामित्ति कट्टु एवं संपेहेर, संपेहित्ता कोडुंबियपुरिसे सहावे सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तमेव उवद्व वेह, उवट्ठवित्ता जाव पच्चपिणंति ॥ १६ ॥ छाया एवं खलु श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्व्या० इहागतः यावद् विहरति, तन्महाफलं खलु तथारूपाणां यावत् विपुलस्यार्थस्य ग्रहणतया तद्गच्छामि खलु श्रमणं यावत् पर्युपासे, इदं च खलु एतद्रूपं व्याकरणं प्रक्ष्यामि, इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! धार्मिकं यानमवरं युक्तमेव उपस्थापयत, उपस्थाप्य यावत् प्रत्यर्पयन्ति ॥ १६ ॥ टीका एवं खलु यत् - श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्वी = यथाक्रमं यद्वा-पूर्वेषां तीर्थंकराणां या आनुपूर्वी परिपाटी मर्यादेत्यर्थः तां चरन् - आचरन् परिपालयन्नित्यर्थः, "गामाणुगामं दूइजमाणे " = ग्रामानुग्रामं द्रवन् , वे विचार ये हैं-' एवं खलु ' इत्यादि श्रमण भगवान महावीर प्रभु यहाँ पधारे हैं और संयमी लोगोंके कल्पके अनुसार निवासके लिए उद्यानपालकी आज्ञा लेकर संयम और तपसे अपनी आत्माको भावित करते हुए विराजते हैं, तथारूप अरिहन्त अर्थात् सर्वज्ञता के कारण जिनसे ते विचार मा छे:- ' एवं खलु ' इत्याद्दि શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ અહીં પધાર્યા છે તથા સંયમી લેાકાના પને અનુસરી નિવાસને માટે ઉદ્યાનપાલની (વાડીના પાલક કે માળીની) આજ્ઞા લઈને સંયમ તથા તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા બિરાજે છે. તથા રૂપ અરિહંત અર્થાત્ સર્વજ્ઞતાના કારણે જેનાથી કાઈ વાત અજાણી નથી અને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका कालो रानोके विचार 'ग्रामानुग्रामम् '-एकस्माद् ग्रामाद् अनु-पश्चाद् यो ग्रामस्तम्, अर्थादनुक्रमेण ग्रामानामान्तरं द्रवन्-विहरन् , इह-अस्यां चम्पानगा विधमानं पूर्णभद्रमुधानम् आगतः समन्ताद् विहृत्योपस्थितः, यावत्करणात् 'अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे' एतेषां संहिः । छाया- 'यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्' इति । 'यथे'-ति-यथाप्रतिरूपं यथासंयमिकल्पम् अवग्रहम् निवासार्थमुद्यानपालस्याज्ञाम् अवगृह्य-आदाय संयमेन सप्तदशविधेन तपसा द्वादशविधेन आत्मानं भावयन् वासयन् संयोजयनिति यावत् , विहरति-विराजते, तत्= तस्मात् महाफलं-महत्-विशालं फलं शुभपरिणामलक्षणम्, अत्र 'अत एवेतिशेषः खलु-निश्चयेन तथारूपाणां शुभपरिणामरूपमहाफलजननस्वभावानां, यावच्छब्देन-" अरिहंताणं, भगवंताणं, णामगोयस्सवि सवणयाए किमंगपुण अभिगमण-वंदण–णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणाए, एकस्सवि आरियस्स, धम्मियस्स, सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण" एतेषां सङ्ग्रहः । छाया' अर्हतां भगवतां नामगोत्रस्यापि श्रवणतया किमङ्ग ! पुनरभिगमन-वन्दननमस्यन-प्रतिप्रच्छन-पर्युपासनेन, एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य श्रवणतया किमङ्ग ! पुनः' इति। अर्हतां'-नास्ति रहः प्रच्छन्नं किञ्चिदपि येषां सर्वज्ञत्वात्तेऽर्हन्तस्तेषाम् , 'भगवतां'-भगः समग्रैश्वर्यादिगुणः, स विद्यते येषां ते भगवन्तस्तेषाम् । नाम च-वर्धमानादि, गुणनिष्पन्नमभिधानं गोत्रं चकश्यपादि, तयोः समाहारे नामगोत्रं, तस्य श्रवणेनापि महाफलं भवति । किमङ्ग ! पुन:-अभिगमनं सम्मुखं गमनम् , वन्दनं-गुणकीर्तनम् । नमस्यनं= पश्चाङ्गसयत्ननमनपूर्वकनमस्करणम्, प्रतिप्रच्छंन शरीरादिवार्तापनः, पर्युपासना सावद्ययोगपरिहारपूर्वकनिरवद्यमावेन सेवाकरणम्-एतेषां समाहारस्तथा, अयं શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र भावः-भगवन्नामगोत्रश्रवणमात्रेणापि शुभपरिणामरूपं फलं भवति, तर्हि अभिगमनादिना जातं फलं किं पुनः कथनीयम् ? अर्थात् तत्फलमानन्त्याद्वक्तुमशक्यमिति । एकस्यापि आर्यस्य-आर्यप्रणीतस्य धार्मिकस्य-श्रुतचारित्रलक्षणधर्मप्रतिबद्धस्य सुवचनस्य–सर्वप्राणिहितकारकवचसः श्रवणतया श्रवणेन यत् फलं तत् किं पुनर्वाच्यम् ? अर्थात् वक्तुमशक्यम् । विपुलस्य-प्रभूततरस्य अर्थस्य= भगवद्वचनप्रतिपाद्यविषयस्य श्रुतचारित्रलक्षणस्य ग्रहणतया ग्रहणेन यत्फलं भवति तत् किं पुनर्वाच्यम् ? अर्थात्कथमपि वक्तुं न शक्यम् । कोई बात छिपी हुई नहीं है और सम्पूर्ण ऐश्वर्यके कारण जो भगवान हैं उनके वर्धमान आदि नाम और कश्यप आदि गोत्रके सुननेसे भी शुभ परिणाम स्वरूप महाफल होता है तो सम्मुख जाना, गुण-कीर्तन करना और पाँचों अंगोंको यतना पूर्वक नमाकर नमस्कार करना, शरीर आदिकी सुख-साता पूछना, और भगवानके त्यागी होनेके कारण सावद्यका परिहार-पूर्वक उनकी निरवद्य सेवा करना, इन सबका क्या फल होगा, इसका तो कहना ही क्या ? ___और उनका एक भी श्रेष्ठ श्रुत चारित्र धर्म युक्त और समस्त प्राणियों के हितकारी सुवचनके श्रवणसे जो महाफल मिलता है तो उनका विपुल श्रुत चारित्र रूप जो अर्थ है उसको ग्रहण करनेके फलका तो कहना ही क्या है ?-वह फल तो अकथनीय है। इसलिये मैं श्रमण भगवान् महावीर प्रभुके पास जाऊँ और સંપૂર્ણ ઐશ્વર્યના કારણે જ ભગવાન છે. તેમનાં વર્ધમાન આદિ નામ તથા કશ્યપ આદિ વગેરે દેત્રને સાંભળવાથી શુભ પરિણામ સ્વરૂપ મહાફલ થાય છે–તે સમ્મુખ જવું, ગુણનું કીર્તન કરવું, તથા પાંચે અંગેને યતનાપૂર્વક નમાવીને નમસ્કાર કરવા, શરીર આદિ વગેરેની સુખ-સાતા પૂછવી તથા ભગવાન ત્યાગી હોવાથી સાવઘના પરિહાર પૂર્વક તેમની નિરવઘ સેવા કરવી એ બધાંનું શું ફળ હેય તેનું તે કહેવું જ શું? તેમનાં વચનનાં આચાર અને તેમનાં એક પણ શ્રેષ્ઠ શ્રત ચારિત્ર ધર્મ યુક્ત તથા સમસ્ત પ્રાણિઓનું હિતકારી સુચવન સાંભળવાથી જે મહાફળ મળે છે તો તેમના વિપુલ શ્રત ચારિત્ર રૂપી જે અર્થ છે તેનાં ગ્રહણ કરવાનાં ફળનું તે કહેવું જ શું? તે ફળ તે અકથનીય છે. આથી હું શમણુ ભગવાન મહાવીર પ્રભુની શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका 'भगवान्' शब्दका अर्थ तत्-तस्मात् कारणात् अहं गच्छामि श्रमणं-श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणो द्वादशवर्षाणि वोरतपश्चरणात् 'श्रमण' इति प्रसिद्धिं लब्धवान् , तम् । जावशब्देन-'भगवं, महावीरं, वंदामि, नमसामि, सकारेमि, सम्माणेमि, उनको वन्दन-नमस्कार करूँ; सत्कार सम्मान करूँ जो कल्याण स्वरूप हैं, मंगल स्वरूप हैं, दैवत-इष्ट देव हैं और चैत्य-ज्ञानस्वरूप हैं उन प्रभुकी विनयपूर्वक उपासना करूँ। अब यहाँ श्रमण भगवान आदि पदोंका विशेष अर्थ करते हैं: (१) श्रमण-साढे बारह बरस तक घोर तपस्या की, इसलिए ' श्रमण' नामसे प्रसिद्ध हैं। (२) भगवान्-भग शब्दके ज्ञानादि दस अर्थ जिनमें हों उन्हें भगवान कहते हैं। ‘ भग' शब्दके दस अर्थ (१) सम्पूर्ण पदार्थोको विषय करनेवाला ज्ञान. (२) महात्म्य अर्थात् अनुपम और महान् महिमा, ( ३) विविध प्रकारके अनुकूल और प्रतिकूल परिषहोंको सहन करनेसे પાસે જાઉં તથા તેમને વંદન નમસ્કાર કરું, સત્કાર સન્માન કરૂં જે કલ્યાણ સ્વરૂપ છે. મંગલ સ્વરૂપ છે દેવત અર્થાત્ ઈષ્ટ દેવ છે તથા ચૈત્ય-જ્ઞાનસ્વરૂપ છે તે પ્રભુની વિનયપૂર્વક ઉપાસના કરૂં. હવે અહીં શ્રમણ ભગવાન આદિ શબ્દોના વિશેષ અર્થ કરીએ છીએ. (૧) શ્રમણ=સાડા બાર વરસ સુધી ઉગ્ર તપશ્ચર્યા કરી તેથી “શ્રમણ નામથી પ્રસિદ્ધ છે. (૨) ભગવાન–ભગ શબ્દના જ્ઞાન આદિ દશ અર્થ જેમાં હોય ते लगवान ४ा . 'ल' शमन A अर्थ (१) संपूर्ण महानि विषय ४२॥ वाणु ज्ञान. (૨) મહમ્ય અર્થાત્ અનુપમ તથા મહાન મહિમા. (૩) વિવિધ પ્રકારના અનુકૂળ તથા પ્રતિકૂળ પરિપહાને સહન કરવાથી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ निरयावलिकासूत्र कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, विणएणं' इत्येषां सङ्ग्रहः । एतच्छाया'भगवन्तं, महावीरं, वन्दे, नमस्यामि, सत्कारयामि, सम्मानयामि, कल्याण, मङ्गलं, दैवतं, चैत्यं, विनयेन' इति । 'भगवन्त 'मिति-भगः=ज्ञानं, माहात्म्यं, यशः, वैराग्यं, मुक्तिः, सौन्दर्यम् , वीर्यः, श्रीः, धर्मः, ऐश्वर्य, सोऽस्याऽस्तीति भगवान् , तम् , उत्पन्न होनेवाली या संसारकी रक्षा करनेवाले अलौकिक भावोंसे उत्पन्न होनेवाली कीर्ति । ( ४ ) क्रोध आदि कषायोंका सर्वथा निग्रहरूप वैराग्य । (५) समस्त कौका क्षयस्वरूप मोक्ष । (६ ) सुर-असुर और मानवके अन्तःकरणको हरलेने वाला सौन्दर्य । (७) अन्तराय कर्मके नाशसे उत्पन्न होनेवाला अनन्त बल । (८) घातिया-कर्मरूपी पटलके हट जानेसे प्रादुर्भूत होनेवाली अनन्त चतुष्टय-( ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य-रूप ) लक्ष्मी । (९) मोक्षके द्वारको खोलनेका साधन श्रुत चारित्र यथा-ख्यात चारित्र रूप धर्म। (१०) तीन लोकका आधिपत्य रूप ऐश्वर्य । ઉત્પન્ન થનારી અથવા સંસારની રક્ષા કરવાવાળી અલૌકિક ભાવનાથી ઉત્પન્ન થનારી કીર્તિ. (૪) ક્રોધ આદિ કષાયને સર્વથા નિગ્રહરૂપ વૈરાગ્ય. (५) तमाम ना क्षय२१३५ भाक्ष. (६) सुर-असुर अने. मानवना मत:४२७२ री पावाणु सौ. (૭) અંતરાય કર્મના નાશથી ઉત્પન્ન થનારું અનંત બળ. (૮) ઘાતિયા કર્મ રૂપી પડદે હટી જવાથી પ્રાદુર્ભુત હોવાવાળી અનંત यतुष्टय (ज्ञान, शन, यारित्र, वीर्य-०५) भी. ૯) મેક્ષનાં દ્વારને ઉઘાડનારું સાધન ગ્રુત ચારિત્ર યથાખ્યાત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ. (१०) all माधिपत्य ३५ मेश्वर्य શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका काली रानी के विचार ८७ “ महावीर 'मिति-वीरयति= पराक्रमते मोक्षानुष्ठाने इति वीरः, महाँश्वासौ वीरो महावीरो = वर्धमानस्वामी चरमतीर्थंकरस्तम् वन्दे मनःप्रणिधानपूर्वकं वाचा स्तौमि नमस्यामि = सयत्त्रपञ्चाङ्गनमनपूर्वकं नमस्करोमि, सत्कारयामि = अभ्युत्थानादिनिरवद्यक्रियासम्पादनेनाऽऽराधयामि सम्मानयामि मनोयोगपूर्वकमर्हदुचितवाक्यप्रयोगादिना समाराधयामि, कल्याणं कर्मबद्ध सकलोपाधिव्याधिबाधाविधुरत्वात् कल्यो मोक्षस्तम् आ = समन्तात् नयति प्रापयतीति ज्ञानादिरत्नत्रयलक्षणमोक्षमार्गोपदेशदानद्वारा ( भविजनान् ) कल्यान् जन्मजरादिरोगमुक्तान् आणयति धातूनामनेकार्थत्वात् सम्पादयतीति वा कल्याणस्तम्, 1 (३) महावीर - मोक्षके अनुष्ठानमें पराक्रम करनेवाले होनेसे महावीर कहे जाते हैं, ऐसे महावीर वर्धमान स्वामी चरम तीर्थंकरकी निर्मल मनके साथ वचनसे स्तुति करूँ । यतना- - पूर्वक पाँच अंग नमाकर नमस्कार करूँ | यतना- पूर्वक अभ्युत्थान आदि निरवद्य क्रिया से भगवानका सत्कार करूँ । मनोयोग - पूर्वक अर्हन्तों का उचित वाक्य द्वारा सम्मान करूँ । कर्मबन्धसे उत्पन्न होनेवाली उपाधि-व्याधिके नाशक होनेसे ' कल्य' को मोक्ष कहते हैं, उसको प्राप्त करानेके कारण भगवान् कल्याण – स्वरूप हैं । अथवा ज्ञानादि रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्गके उपदेश द्वारा भव्य जीवोंको जन्म, जरा मृत्युरूप रोगसे मुक्त करते हैं, इस कारण भी कल्याणस्वरूप है । (૩) મહાવીર–માક્ષના અનુષ્ઠાનમાં પરાક્રમ કરવાવાળા મહાવીર કહેવાય. એવા મહાવીર વર્ધમાન સ્વામી ચરમ તીર્થ કરતી નિર્મળ મનની સાથે વાણીથી સ્તુતિ કરૂં. ચંતના- પૂર્વક પાંચ અંગ નમાવીને નમસ્કાર કરૂં. યતના-પૂર્વક અભ્યુત્થાન આદિ નિરવદ્ય ક્રિયાથી ભગવાનના સત્કાર કરૂં. મનેાયેાગ-પૂર્વક અર્જુન્તાનું ઉચિત વાકયાથી સમ્માન કરૂં. કર્મબ ંધથી ઉત્પન્ન થનારી ઉપાધિ અને વ્યાધિના નાશક હાવાથી કલ્ય ’ તે મેાક્ષ કહેવાય છે. તેને પ્રાપ્ત કરાવનાર હૈાવાથી ભગવાન કલ્યાણુ– સ્વરૂપ છે. અથવા–જ્ઞાનાદિ રત્નત્રયરૂપ મેાક્ષ માર્ગના ઉપદેશ દ્વારા ભવ્ય જીવને જન્મ જરા મૃત્યુ રૂપ રાગથી મુક્ત કરે છે. આ કારણથી પણ કલ્યાણ-સ્વરૂપ છે. " શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ निरयावलिकासूत्र * मङ्गलं-सकलहितमापकत्वाच्छुभमयं, यद्वा-मां गालयति भवाब्धेस्तारयतीति मङ्गलः, अथवा-मङ्गते अजरामरत्वगुणेन भविजनान् भूषयतीति मङ्गो मोक्षस्तं लाति-आदत्त इति मङ्गलस्तम् , दैवतम् आराध्यदेवस्वरूपम् अत्र ' देवतैव दैवतमिति स्वार्थेऽण् ' चैत्य-चित्ते भवं तदस्यास्तीति, यद्वाचित्तिविशिष्टज्ञानं तया युक्तमिति, सर्वथा विशिष्टज्ञानवन्तमित्यर्थः, विनयेनप्रतिपत्तिविशेषेण पर्युपासे सेवे, तथा — इमं ' ति-इदं मम हृदयस्थम् एतद्रूपं पुत्रविषयकं व्याकरण प्रश्नं खलु-निश्चयेन प्रक्ष्यामि-निर्णष्यामि, इति कृखा-इति मनसि निश्चित्य एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते-विचारयति, सम्पूर्णहितको प्राप्त करानेवाले तथा भवसागरसे तारनेवाले हैं इसलिये भगवान मङ्गल स्वरूप हैं। अथवा अजर अमर गुणोंसे भव्यजनोंको भूषित करनेके कारण — मङ्ग' को मोक्ष कहते हैं, उसे जो प्राप्त करावे वह मङ्गल कहलाता है, इसलिये भगवान भी मङ्गल हैं । इष्टदेव स्वरूप होनेसे दैवत हैं । विशिष्ट ज्ञान युक्त होनेसे चैत्य हैं । ऐसे भगवानकी विनयके साथ निरवद्य सेवा करूँ, और मेरे हृदयमें स्थित पुत्रसम्बन्धी प्रश्नका निश्चय करूँ । इस प्रकार अपने मनमें विचारकर काली महारानीने अपने कौटुम्बिक (आज्ञाकारी) जनोंको बुलाया और आज्ञा दी । સંપૂર્ણ હિતને પ્રાપ્ત કરાવવાવાળા તથા ભવસાગરથી તારવાવાળા છે તેથી ભગવાન મંગલ–સ્વરૂપ છે. અથવા અજર અમર ગુણોથી ભવ્ય જિનેને ભૂષિત કરવાના કારણે મંગને મોક્ષ કહેલ છે. તેને જે પ્રાપ્ત કરાવે તે મંગલ કહેવાય છે. આથી ભગવાન પણ મંગળ છે. એવા ઈષ્ટદેવ-સ્વરૂપ હેવાથી દૈવત છે અને વિશિષ્ટ જ્ઞાનવાળા હોવાથી ચૈત્ય છે. એવાં ભગવાનની વિનયપૂર્વક નિરવદ્ય સેવા કરૂં તથા મારા હૃદયમાં રહેલ પુરસબંધી પ્રશ્નનો નિશ્ચય-ખુલાસે-કરું. આ પ્રકારે પિતાના મનમાં વિચાર કરી કાલી મહારાણીએ પોતાના કૌટુમ્બિક (આજ્ઞાકારી) જનોને બોલાવ્યા તથા આજ્ઞા કરી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालोरानीका वन्दनार्थ गमन संप्रेक्ष्य-विचार्य, कौटुम्बिकपुरुषान् प्रधानकर्मकारिपुरुषान् शब्दयति-आह्वयति शब्दयित्वा-आहूय, एवं वक्ष्यमाणम् अवदत् आज्ञापयदिति । किमाज्ञापयत् ? इत्याह-'क्षिप्रमेवे'त्यादिना-भो देवानुमियाः हे कार्यकरणप्रवीणाः ! यूयं धार्मिक धर्माय नियुक्तं धार्मिकं, यात्यनेनेति यानं रथादिकं, तत्र प्रवरं श्रेष्ठं शीघ्रगामित्वादिगुणोपेतम् , इत्युपलक्षणं तेन 'चाउग्घंट, आसरहं' इत्यनयोरपि ग्रहणम् । एतच्छाया-चतुर्घण्टम्, अश्वरथम् इति । चतुर्घण्टमिति-चतस्रः पृष्ठतोऽग्रतः पार्वतश्च लम्बमाना घण्टा यस्य यस्मिन् वा स चतुर्घण्टस्तम् 'अश्वरथ' मिति-अश्वयुक्तो रथोऽश्वरथः, शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपः, तम्-युक्तमेव अश्वसारथ्यादिसहितमेव न तु तद्रहितं, क्षिप्र-शीघ्रमेव नतु विलम्वेन, उपस्थापयत-प्रगुणीकुरुत, उपस्थाप्य= प्रगुणीकृत्य यावच्छब्देन कौटुम्बिकपुरुषाः कालीदेव्याज्ञानुसारेण सर्वं कृत्वा तदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति ॥१६॥ क्या आज्ञा दी ? वह कहते हैं-हे चतुर कार्यकर्ताओं ! तुम लोग रथोंमें श्रेष्ठ-शीघ्र गतिवाला रथ जिसके आगे पीछे और दोनों बाजुओंमें चार घण्टिकार्ये लगी हुई हैं ऐसा धार्मिक अश्वरथ, सारथी आदिके सहित लाओ। कौटुम्बिक पुरुष काली महारानीकी आज्ञा अनुसार रथ तैयार कर उनसे बोले-हे महारानी ! आपकी आज्ञानुसार स्थ तैयार है ॥ १६ ॥ હે ચતુર કાર્યકર્તાઓ! તમે લેકે ઉત્તમ રથ-શીવ્ર ગતિવાળા રથ જેની આગળ પાછળ તથા બન્ને બાજુએ ચાર ઘંટાઓ લગાડેલી એવા ધાર્મિક અધરથ, સારથી આદિ સહિત લઈ આવે. કૌટુમ્બિક પુરૂષોએ કાલી મહારાણીની આજ્ઞા પ્રમાણે રથ તૈયાર કરીને તેને કહ્યું -હે મહારાણી ! આપની આજ્ઞા પ્રમાણે २२ तैयार छ. (१६) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० निरयावलिकासूत्र मूलम् तणं सा काली देवी व्हाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरा बहूहिं खुज्जाहिं जाव महतरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ निग्गच्छर, निज्गच्छिता जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छर, उवाग्गच्छिता धम्मियं जाणप्पवरं दूरुहर, दूरुहिता नियगपरियाल संपरिवुडा चंपं नयरिं मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छ, निग्गच्छिता जेणेव पुन्नभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छिता छत्ताईए जाव धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, ठवित्ता धम्मियाओ जाणपत्रराओ पच्चरुहर, पच्चरुहित्ता बहूहिं खुज्जाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो बंदर, वंदित्ता ठिया चैव सपरिवारा सुस्वसमाणा नर्मसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जवासइ ॥ १७॥ छाया ततः खलु सा काली देवी स्नाता कृतबलिकर्मा यावत् अल्पमहार्घाभरणालङ्कृतशरीरा बहीभिः कुब्जाभिः यावन्महत र कवृन्दपरिक्षिप्ता अन्तःपुरान्निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला, यत्रैव धार्मिंको यानप्रवरस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानप्रवरं दूरोहति दुस्ह्य निजकपरिवारसंपरिवृता चम्पां नगरीं मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव पूर्णभद्र चैत्यस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य छत्रादिकं यावद धार्मिकं यानप्रवरं स्थापयति स्थापयित्वा धार्मिकाद् यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य बहीभिः कुब्जाभिः यावत्-महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिःकृत्वो वन्दते, वन्दित्वा स्थिता चैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा नमस्यन्ती अभिमुखी विनयेन प्राञ्जलिपुटा पर्युपास्ते ॥ १७॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालो रानीका बन्दनार्यगमन - टीका 'तएणं सा' इत्यादि-ततः तदनन्तरं सा पूर्वोक्ता काली देवी स्नाता–कृतस्नाना कृतबलिकर्मा-स्नाने कृते पशुपक्ष्याद्यर्थ कृतानभागा, जावशब्देन-'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेस्साई वत्थाई पवरपरिहिया' इत्येषां सहिः । एतच्छाया च-'कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता, शुद्धप्रवेश्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिधृता' 'कृतकौतुके 'ति-कृतानि कौतुकानि मषीपुण्ड्रादीनि, मङ्गलानि सर्षपदध्यक्षतचन्दनदूर्वादीनि च प्रायश्चित्तानीव दुःस्वभादिविनाशायावश्यकर्तव्यत्वात्मायश्चित्तानि यया सा तथा, यथा पापविनाशार्थ प्रायश्चित्तमवश्यं क्रियते तथैव दुःस्वप्नदोषशान्त्यर्थं दध्यक्षतादीनि मङ्गलान्यवश्यं ध्रियन्त इति तात्पर्यम् । 'अल्पमहर्षे'-ति-अल्पानि-स्तोकभारवन्ति महार्याणि-बहुमूल्यानि यानि आभरणानि भूषणानि तैरलत-भूषितं शरीरं यस्याः सा 'तएणं सा' इत्यादि-बाद रानीने स्नान किया और पशु पक्षी आदिके लिये अन्नका भाग निकालनेरूप बलिकर्म किया और दृष्टिदोष ( नजर ) निवारणके लिये मषी ( काजल ) का चिह किया और पाप नाश करनेके लिए जैसे प्रायश्चित्त किया जाता है वैसे ही दुःस्वप्न आदि दोषोंके निवारणके लिए मङ्गलरूप सरसों, दही, चावल, चन्दन और दूब आदिको धारण किया, तथा अल्प भार किन्तु बहु मूल्य भूषणोंसे शरीरको भूषित किया और सेवापरायण कुबडी आदि १८ अठारह 'तएणं सा' त्या पछी एमे स्नान पृथु तथा पशु पक्षी माने भाट અને ભાગ કાઢવા રૂપી બલિકર્મ કર્યું તથા દુષ્ટિદેષ (નજર) ના નિવારણને માટે મષી (કાજળ)નું ચિહ્ન કર્યું તથા પાપનાશ કરવા માટે જેમ પ્રાયશ્ચિત્ત કરાય છે તેવી જ રીતે સ્વપ્ન આદિ દેષના નિવારણ માટે મંગલરૂપ સરસવ, દહીં, ચાવલ, ચંદન તથા દૂર્વા વગેરેને ધારણ કર્યા; તથા વજનમાં અલ્પ પણ કિસ્મતમાં ભારે એવાં ઘરેણાંથી શરીરને શણગાર્યું. સેવાપરાયણ કૃપડી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ निरयावलिकासूत्र अल्पमहाद्वैभरणालङ्कृतशरीरा, बहीमिः प्रचुराभिः, कुब्जाभिः=कुञ्जशरीराभिः सेवापरायणदासीभिः 'जाव' शब्देन-“चिलाईहिं वामणाहिं १, वडहाहिं २, बब्बरीहिं ३, बउसियाहिं ४, जोनयाहिं ५, पल्हवियाहिं ६, ईसिणियाहिं ७, वासिणियाहिं ८, लासियाहि ९, लउसियाहिं १०, दविडीहिं ११, सिहलीहिं १२, आरबीहिं १३, पक्कणीहिं १४, बहलीहिं १५, मुरुंडीहिं १६, सबरीहिं १७, पारसीहिं १८, णाणादेसाहिं इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहिं," इत्येषां सङ्ग्रहः । चिलातीभिः = अनार्यदेशोत्पन्नाभिः-वामनाभिः = हूस्वशरीराभिः १, वटभाभिः-मडहकोष्ठाभिः २, बर्वरीभिः बर्वरदेशसंभवाभिः ३, बकुशिकाभिः ४, यौनकाभिः ५, पल्हविकाभिः ६, इसिनिकाभिः ७, वासिनिकाभिः ८, प्रकारकी दासियोंको साथ चलनेका हुक्म दिया। उन दासियोंके नाम इस प्रकार हैं(१) 'चिलाती' चिलात नामके अनार्य देशमें उत्पन्न होनेवाली 'कुब्जा'-कूबडी तथा 'वामना'ठिगनी दासियां, (२) 'वटभा'-जिस देशमें छोटे-छोटे पेटवाले जन्मते हैं उस देशकी, ( ३ ) 'बर्बरी'-बर्बर देशकी, ( ४ ) ' बकुशिका'-बकुश देशकी, (५) 'यौनका'-यौन देशकी, ( ६ ) ' पल्हविका '–पल्ह देशकी, (७) — इसिनिका'-इसिनिक देशकी, (८) 'वासिनिका '-वासिनिक देशकी, દાસીઓ આદિ ૧૮ પ્રકારની દાસીઓને સાથે ચાલવાને હુકમ કર્યો તેનાં નામ આ પ્રકારે છે–(૧) ચિલાત નામના અનાર્ય દેશમાં ઉત્પન્ન થનારી કૂબડી અને ઠીંગણી દાસીઓ (૨) જે દેશમાં નાનાં નાનાં પેટવાળાં જન્મ લે છે તે દેશની. (3) परनी शिनी. (४) मधुश रेशमी. (५) यौन शrl. () ५७ शनी. (७) सनिs ऐश-l. (८) पासिनि: श-. (E) सासि शनी. (१०) Agu शनी શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका १८ - देशको दालियां ९३ लासिकाभिः ९, लकुशिकाभिः १०, द्राविडीभिः ११, सिंहलीभिः १२, आरबीभिः १३, पक्कणीभिः १४, बहुलीभिः १५, मुसण्डीभिः १६, शबरीभिः १७, पारसीभिः १८, नानादेशाभिः = बहुविधदेशोत्पन्ना भिरित्यर्थः, इङ्गितचिन्तितप्रार्थितविज्ञायिकाभिः, इङ्गितेन = नेत्रवक्त्रहस्तामुँ ल्यादिचेष्टा " (९) 'लासिका ' - लासिक देशकी, (१०) 'लकुशिका' - लकुश देशकी, (११) 'द्राविडी - द्रविड देशकी ( १२ ) सिंहली 2 - सिंहल देशकी, (१३) 'आरबी' - अरब देशकी, ( १४ ) ' पक्कणी ' - पकण देशकी, (१५) ' बहुली ' - बहुल देशको, (१६) 'मुसण्डी ' -मुसण्ड देशकी, ( १७ ) शबरी - शबर देशकी, और " (१८ ) ' पारसी - पारस देशकी दासिया । इस प्रकारकी अनेक देशमें उत्पन्न होनेवाली दासियाँ, जो इङ्गित, चिन्तित, प्रार्थितको जाननेवाली थीं । " इङ्गित ' - का अर्थ - नेत्र, मुख, हाथ तथा अंगुली आदिके इशारेसे अभिप्रायको जानना । (११) द्रविड हेशनी. (१२) सिंहल द्वीप देशनी (१३) अरम देशनी. (१४) पाए। देशनी. (१५) बहुत देशनी. (१६) मुसंड देशनी. (१७) शमर हेशनी तथा (१८) पारस દેશની દાસીએ. આવી રીતે અનેક દેશમાં ઉત્પન્ન થનારી દાસીએ ઇંગિત, ચિંતિત, પ્રાર્થિતને જાણવા વાળી હતી. 'जित' नो अर्थ नेत्र, भुभ, हाथ तथा मांगजी माहिना ईशाराथी અભિપ્રાયને જાણવા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र विशेषेण चिन्तितं हृदि भावितं, मार्थितं च-अभिलषितं च विजानन्ति थास्तथा, ताभिः बुध्यमानाभिः, युक्तेति शेषः । तथा 'महत्तरे 'ति-अतिसयेन महान् महत्तरः स एव महत्तरका=अन्तःपुररक्षकः, तेषां वृन्दम् नानादेशोत्पन्नचेटकसमृहस्तेन 'परिक्षिप्ता' परि-सर्वतः क्षिप्ता मध्ये स्थापिता, तथा सती अन्तःपुरात निर्गच्छति बहिनिःसरति निर्गत्य यत्रैव यस्मिन्नेव स्थाने बाह्या-बहिर्भवा उपस्थानशाला-उपवेशनमण्डपः यत्रैव-यस्मिन्नेव स्थले वार्मिकयानप्रवरम् रथादियानोत्तमः, तत्रैव-तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति-समुपैति, उपागत्य धार्मिकयानप्रवरसमीपमागत्य धामिकं धर्माय नियुक्तं यानप्रवरं दरोहति आरोहति, दूरुह्य-उक्तयानपवरमारुह्य 'निजके' ति-निजा एव निजकाः स्वकीयाः परिवारा दास्यादयः, तैः संपरिता-परिवेष्टिता, चम्पां नगरी मध्यमध्येन-चम्पानगर्या मध्यभागेन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव पूर्णभद्रं 'चिन्तित '-हृदयके भावको अनुमानसे समझना । 'मार्थित '-अभिलषितको अनुमानसे जानना । ऐसी दासियोंके साथ अन्तःपुररक्षक पुरुषवृन्दसे तथा अनेक देशमें उत्पन्न होनेवाले दाससमूहसे घिरी हुई अन्तःपुरसे बारह निकलकर भवनके सभा-मण्डपमें जिस स्थलपर धार्मिक रथ था वहाँ आई और रथमें बैठी। बाद अपने सब परिवार के साथ चम्पा नगरीके बीच रास्तेसे होकर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ पहुँची। 'यतित' हयना लापने अनुमानथी सभावा. 'प्रार्थित '-लिपित (४२७ नमी खाय ) अनुभानथी . એવી દાસીઓની સાથે અંત:પુરરક્ષક પુરૂષવૃંદથી તથા અનેક દેશના ઉત્પન્ન થનારા દાસસમૂહથી ઘેરાયેલી અંત:પુરથી બહાર નીકળીને ભવનના સભામંડપમાં જે કિકાણે ધાર્મિક રથ હતો ત્યાં જઈ રથમાં બેઠી. પછી પિતાના સઘળા પરિવારની સાથે ચંપા નગરીના મધ્ય રસ્તામાં થઈને જ્યાં પૂર્ણભદ્ર ચૈત્ય હતા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका धर्मकथा चैत्यं तत्रैव उपागच्छति-समायाति, उपागत्य 'छत्ताईए' छत्रादिकान 'यावत्-शब्देन तोर्थकरातिशेषान् पश्यति, दृष्ट्वा धार्मिकं यानप्रवरं स्थापयति, स्थापयित्वा धार्मिकाद् यानपवरा-धार्मिकरथात् प्रत्यवरोहति अधस्तादवतरति, प्रत्यवरुह्य अवतीर्य बहीभिः कुब्जाभिः पूर्वोक्तदासीभिर्युक्ता यावत्महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता पश्चाभिगमपुरस्सरं यत्रैव-यस्मिन्नेव पूर्णभद्राद्याने भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिःकृत्वो वन्दते, च-पुनः स्थितैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा=सेवमाना नमस्यन्ती अभिमुखी-सम्मुखं स्थिता विनयेन नम्रभावेन पाञ्जलिपुटा ललाटतटसविनयचिन्यस्तकरकमला पर्युपास्ते सेवते ॥ १७ ॥ मूलम्तए णं समणे भगवं जाव कालीए देवीए तीसे य महतिमहालयाए धम्मकहा भाणियव्या जाव समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ ॥१८॥ और तीर्थकरके छत्र आदि अतिशयोंको देखकर अपने रथको स्थापित किया और रथसे नीचे उतरी । फिर अपने सब परिवारके साथ पांच अभिगम–पूर्वक जहाँ भगवान विराजते हैं वहाँ पहुँचकर विधिपूर्वक वन्दना-नमस्कार किया, और सपरिवार भगवानके सम्मुख नतमस्तक हो विनयके साथ अञ्जलिपुटको ललाटपर रखती हुई खडी होकर सेवा करने लगी ॥ १७ ॥ ત્યાં પહોંચી. તથા તીર્થકરેનાં છત્રાદિ અતિશયોને જોઈને પિતાના રથને ઉભે રાખી નીચે ઉતરી અને પછી પિતાના સઘળા પરિવાર સાથે પાંચ અભિગમ–પૂર્વક જ્યાં ભગવાન બિરાજતા હતા ત્યાં પહોંચીને વિધિપૂર્વક વંદના-નમસ્કાર કર્યા તથા સપરિવાર ભગવાનની સન્મુખ માથું નમાવીને વિનયપૂર્વક અંજલિ પુટને (ડેલા હાથને) લલાટ પર રાખી ઊભી રહીને સેવા કરવા લાગી. (૧૭) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र छाया ततः खलु श्रमणो भगवान् यावत् काल्यै देव्यै तस्यां च महातिमहालयायां परिषदि धर्मकथा भणितव्या यावत् श्रमणोपासको वा श्रमणोपासिका वा विहरन् आज्ञाया आराधको भवति ॥ १८॥ टीका‘तएणं समणे' इत्यादि-ततः तदनन्तरं श्रमणो भगवान् महावीरः यावत्-सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्पासुकामः, काल्यै देव्यै तस्यां पूर्वोक्तायां महाति-महालयायां अतिविशालायां परिषदि धर्मकथा भणितव्या कथयितव्या, धर्मकथास्वरूपं विस्तरत उपासकदशाङ्गसूत्रस्यागारधर्मसंजीविन्याख्यायां व्याख्यायां विलोकनीयं विशेषजिज्ञासुभिरिति । 'जाव' शब्देन- 'एयस्स अगारधम्मस्स अणगारषम्मस्स सिक्खाए उहिए ' इत्येषां सङ्ग्रहः। एतच्छाया च 'तएणं समणे' इत्यादि । बाद मोक्षगामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामीने काली महारानीको लक्ष्य करके विशाल परिषदमें धर्मकथा कही। धर्मकथाका विशेष वर्णन जाननेके जिज्ञासुओंको हमारी बनाई हुई उपासकदशाङ्ग सूत्रकी अगारधर्मसंजीवनी नामक टीकामें देखना चाहिये । 'तएणं समणे' त्याहि. मा भीक्षाभी श्रभा लगवान महावीर स्वामी કાલી મહારાણીને લક્ષ્ય કરી વિશાલ પરિષદમાં ધર્મકથા કહી. ધર્મકથાનું વિશેષ वर्णन angqा भाटे जासुमागे सारी मनावशी उपासकदशाङ्ग सूत्रनी अगार धर्मसंजीवनी नामनी मन से नये, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालोपृच्छा 'एतस्य अगारधर्मस्य अनगारधर्मस्य शिक्षायाम् उत्थित ' इति । एतस्यागारधर्मस्यानगारधर्मस्य शिक्षायामुत्थितः - उद्यतः श्रमणोपासकः = श्रावकः श्रमणोपासिका = श्राविका वा द्वावपि विहरन्तौ आज्ञायाः = भगवदाज्ञायाः आराधकौ भवतः ॥ १८ ॥ अथ कालीवक्तव्यमाह - ' तणं सा ' इत्यादि । मूलम् तणं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिर धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ट - जाव - हियया समणं भगवं महावीरं तिवखुत्तो जाव एवं वयासी - एवं खलु भंते ! मम पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहि जाव रहमुसलसंगामं ओयाए, से णं भंते किं जइस्सर ? नो जइस्सर ? जाव काले णं कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा ? । कालीति समणे भगवं महावीरे कालिं देविं एवं वयासी एवं खलु काली ! तव पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव कूणिएणं रना सद्धिं रहमुसलं संगाम संगामेमाणे हयमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिंधज्झयपडागे निरालोयाओ दिसाओ करेमाणे चेडगस्स रन्नो सपक्खं सर्पाडिदिसिं रहेणं पडिरह हव्वमागए ॥ १९॥ छाया ततः खलु सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके धर्म श्रुखा निशम्य हृष्ट यावत् - हृदया श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः कृत्खो 6 ९७ जाव' शब्दसे अगार अनगार धर्मकी शिक्षामें तत्पर श्रावक और श्राविका को भगवान की आज्ञाके आराधक जानना ॥ १८ ॥ · जाव * શબ્દથી અગાર અનગાર ઘની શિક્ષામાં તત્પર શ્રાવક તથા શ્રાવિકાને ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક સમજવા II ૧૮ । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र यावदेवमवादीत्-एवं खलु भदन्त ! मम पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः यावत्-रथमुशलसङ्ग्रामम् अवयातः, स खलु भदन्त ! किं जेष्यति ? नो जेष्यति ? यावत् कालं खलु कुमारमहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? कालि ! इति श्रमणो भगवान् महावीरः कालीं देवीमेवमवादीत् एवं खलु कालि 1 तव पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैर्यावत् कूणिकेन राज्ञा सार्द्ध रथमुशलं सङ्ग्रामं सङ्ग्रामयन् इतमथितमवरवीरघातितनिपतितचिह्नध्वजपताकः निरालोका दिशः कुर्वन् चेटकस्य राज्ञः सपक्षं समतिदिक् रथेन प्रतिरथं हव्यमागतः ।। १९ ॥ ९८ टीका ततः=धर्मकथाश्रवणानन्तरं, काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके = समीपे धर्म = श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुत्वा = कर्णविषयीकृत्य निशम्य = हृदयेनावधार्य हृष्ट - यावत् - हृदया - हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता हर्षवशविसर्पद्हृदया सती श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः कृतः = त्रिवारं यावत् - वन्दिखा नमस्थित्वा एवं = अब काली रानीके प्रश्नका वर्णन करते हैं- ' - तरणं सा ' इत्यादि । , श्रमण भगवान महावीर के समीप श्रुतचारित्रलक्षण धर्म सुनकर और उसे हृदयमें धारणकर प्रफुल्लित हो तीन बार वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार भगवान पूछने लगी हवे असी राशीना अननुं वार्जुन रे छे.-' तरणं सा धत्याहि. , શમણુ ભગવાન મહાવીરની પાસેથી શ્રુતચારિત્રલક્ષણ ધર્મ સાંભળીને તથા તેને હૃદયમાં ધારણ કરી પ્રફુલ્લિત થઈ ત્રણ વાર વંદનનમસ્કાર કરી આવી રીતે ભગવાનને પૂછવા લાગી– શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालकुमारवृत्तान्त वक्ष्यमाणम् अवादीत् अवोचत्-हे भदन्त ! खलु-निश्चयेन एवम् अनेन प्रकारेण मम पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहः हस्तिसहस्रः, 'जाव'शब्देनत्रिमिस्त्रिभी स्थाश्वसहस्रैर्मनुष्याणां तिसृभिः कोटिभियुक्तो रथमुशलं सङ्ग्रामम् अवयातः समुपागतः, हे भदन्त ! सा कालः कुमारः खलु-निश्चयेन किं जेष्यति ? वा नो जेष्यति ? यावच्छब्देन-जीविष्यति ? नो जीविष्यति ? पराजेष्यते ? नो पराजेष्यते ? अहं कालं कुमारं खलु-निश्चयेन जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? । इति कालीदेवीप्रश्नं श्रुत्वा श्रमणो भगवान् महावीरः एवं वक्ष्यमाणं प्रतिवचनम् अवादीत् अवोचत् , हे कालि ! एवं खलु तव पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः यावच्छब्देन युद्धसामग्रीयुक्तः, कूणिकेन राज्ञा साई रथमुशलं संग्राम सङ्ग्रामयन्स ग्रामं कुर्वन् 'हतमथिते '-ति हे भगवन् ! मेरा पुत्र कालकुमार तीन २ हजार हाथी-घोडे-रथ और तीन करोड पैदल सेनाके साथ रथमुशल संग्राममें गया है वह विजयी होगा या नहीं ?, वह जीवित रहेगा या नहीं ?, वह पराभवको पायेगा या जीतेगा ?, मैं उसे जिन्दा देवूगी या नहीं है, ऐसे काली महारानीके प्रश्नोंको सुनकर, भगवान बोले..... हे काली महारानी ! तेरा पुत्र कालकुमार तीन २ हजार हाथी-घोडे रथ और युद्धकी समस्त सामग्री सहित कूणिक राजाके साथ रथमुशल संग्राममें युद्ध હે ભગવન્! મારો પુત્ર કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી–ઘડા–રથ તથા ત્રણ કરોડની પાયદળ સેનાની સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં ગયે છે તે વિજ્ય થશે કે નહિ?, તે જીવત રહેશે કે નહિ?, તે હારી જશે કે જીતશે?, હું તેને જીવતો भी नाही, આવા કાલી મહારાણીના પ્રશ્નો સાંભળીને ભગવાન બોલ્યા-હે કાલી મહારાણી ! તારે પુત્ર કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી–ઘોડા-રથ તથા યુદ્ધની તમામ સામગ્રી સાથે કૃણિક રાજાની સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં યુદ્ધ કરતે થકે સેના શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र सैन्यगतहतत्वारोपात् हतः, मानगतमथितत्वारोपात् मथितः प्रवराश्च ते वीराः प्रवरवीराः = सुभटाः, घातिताः - विनाशिता यस्य स प्रवरवीरघातितः आर्षत्वान्न निष्ठान्तस्य पूर्वप्रयोगः, चिह्नस्य - सैन्यलक्षणस्य ध्वजा :- गरुडचिह्न - युक्ताः केतवः, पताकाश्च चिह्नध्वजपताकाः, निपातिताः चिह्नध्वजपताका यस्य स निपातितचिह्नध्वजपताकः, हतो मथितः प्रवरवीरघातितश्वासौ निपातितचिह्नध्वजपताकः हतमथितप्रवरवीरघा तितनिपातित चिह्नध्वजपताकः, तादृशः सन् निरालोका:- हतप्रभाः दिशः कुर्वन् सर्वदिशः प्रभारहिताः कुर्वन् चेटकस्य राज्ञः सपक्षं समानौ पक्षौ वामदक्षिणपार्श्वं यस्य ( आगमनस्य ) तत् सपक्षं यथास्यात्तथा आगत इत्यनेनान्वयः, क्रियाविशेषणम्, अतः सामान्ये नपुंसकम् एवं समतिदिक् - समानाः प्रतिदिशो यस्य तत् सप्रति - दिक् समानप्रतिदिक्त्वेन परस्परमभिमुखं यथास्यात्तथा इदमपि क्रियाविशेषणम्, रथेन प्रतिरथं प्रतिगतः - संमुखः रथो यस्य तत् प्रतिरथं रथाभिमुखं यथास्यात्तथा हव्यं = शीघ्रम् आगतः = आयातः, चेटकराजस्य सर्वथा सम्मुखं समागत इत्यर्थः ॥ १९॥ , १०० - मूलम् तर णं से चेडए राया कालं कुमारं एजमाणं पासर, कालं करता हुआ वह अपनी सेना और सारी रणसामग्रीके नष्ट होजाने पर, बडे २ वीरों के मारे जाने और घायल होने पर तथा ध्वजा पताका आदि चिन्हों के धराशायी होजानेसे अकेला ही अपने पराक्रमसे सभी दिशाओंको निस्तेज करता हुआ रथपर बैठकर चेटक राजाके रथके सामने महावेगसे आया ॥ १९ ॥ તથા રણુસામગ્રી તમામ નાશ પામવા પછી, મેાટા મેાટા વીરાનાં મરણથી અને ઘાયલ થવાથી તથા ધ્વજા પતાકા આદિ ચિન્હો જમીનદોસ્ત થઇ જવાથી એકલેાજ પાતાના પરાક્રમથી બધી દિશાઓને નિસ્તેજ કરતા થકા રથમાં બેસીને ચેટક રાજાના રથની સામે મહાવેગથી માન્યા. (૧૯) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कालकुमारवृत्तान्त १०१ एज्माणं पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणुं परामुसइ, परामुसित्ता उसुं परामुसइ, परामुसित्ता वइसाहं ठाणं ठाइ, ठाइत्ता आययकण्णाययं उसुं करे, करिता कालं कुमारं एगाहचं कूडाहच्च जीवियाओ ववरोवेइ । तं कालगए णं काली ! काले कुमारे नो चेव णं तुमं कालं कुमारं जीवमाणं पासिहिसि ॥ २०॥ छाया ततः खलु स चेटको राजा कालं कुमारम् एजमानं पश्यति । कालमेजमानं दृष्ट्वा आशुरुतः यावत् मिसमिसन् धनुः परामृशति, परामृश्य इधुं परामृशति, परामृश्य वैशाखं स्थानं तिष्ठति, स्थित्वा आयतकर्णायतमिषुं करोति, कृत्वा कालं कुमारमेकाहत्यं कूटाहत्यं जीविताद् व्यपरोपयति । तत् कालगतः खलु कालि ! कालः कुमारः नो चैव खलु त्वं कालं कुमारं जीवन्तं द्रक्ष्यसि ॥ २० ॥ टीका 'तएण से चेडए ' इत्यादि - तत: - कूणिकस्य रणे चेटकसम्मुखगमनान्तरं सः = पूर्वोक्तः प्रसिद्धो वा चेटको राजा एजमानम् = आयान्तं कालं कुमारं पश्यति, एजमानं कालं कुमारं दृष्ट्वा = अवलोक्य आशुरुप्तः शीघ्रकोपाविष्टः, जाव शब्देन - ' रुट्ठे, कुविए, चंडिक्किए, ' एतेषां सहः । एतच्छाया - रुष्टः, कुपितः, चाण्डिक्यितः इति ॥ रुष्टः = रोषयुक्तः, कुपितः - अन्तः स्थित " 6 तणं से चेडए ' इत्यादि । तदनन्तर चेटक राजा कालकुमारको अपने सम्मुख आया हुआ देखकर तत्क्षण क्रुद्ध हो उठे, रूष्ट हुए और आन्तरिक कोपके कारण उनके होठ फडफडाने लगे, उन्होने रौद्ररूप धारण किया एवं क्रोधकी 'तरण से चेडए' त्याहि त्यार माह थेटम्रान असङ्कुभारने पोतानी सम्भुज આવેલા જોઇને તત્કાળ ક્રોધિત થઈ ગયા, રૂટ થયા તથા આંતિરક ક્રોધ ને લીધે તેના હાઠ ફફડવા લાગ્યા, તેમણે રૌદ્ર ( ભયાનક) રૂપ ધારણ કર્યું. એવં ક્રોધની શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र क्रोधेन प्रस्फुरदधरः, चाण्डिक्यितः चाण्डिक्यं-रौद्ररूपत्वं संजातमस्येति चाण्डिक्यितः प्रकटितरौद्ररूपः, मिसमिसन-देदीप्यमानः क्रोधज्वालया ज्वलन् इत्युपलक्षणम् , तेन 'तिवलियं भिउडि निडाले साहटु ' इत्येषामपि ग्रहणम् । त्रिवलिका-भृकुटि नेत्रविकारविशेषं ललाटे संहृत्य-विधाय धनुः= शरासनं परामृशति-सज्जीकरोति, इषु-बाणं परामृशति-धनुषि संयोजयति, उपसर्गबलात्तत्तदर्थों धातूनामनेकार्थवाद्वा, परामृश्य-धनुः शरं च परस्परं संयोज्य वैशाखं स्थानं योधस्थानविशेष तिष्ठति-आश्रयति, स्थिवा-योधस्थानमाश्रित्य इषुधाणं आयतकर्णायतम्-आकर्णान्तं करोति–कर्षयति कला आकर्णान्तं बाणमाकृष्य कालं कुमारमेकाहत्यम्-एकैवाऽऽहत्या आहननं प्रहारो यत्र (जीवितव्यपरोपणे ) तदेकाहत्यं ' क्रियाविशेषणं' तत् , एवं कूटाहत्यं कूटे इव तथाविधपाषाणसम्पुटादौ कालविलम्बाभावसाधाद् आहत्या हननं यत्र तत् कूटाहत्यं, कूटस्येव पाषाणमयमहामारणयन्त्रस्येवाहत्याऽऽहननं वा यत्र तत् कूटाहत्यम् , इदमपि क्रियाविशेषणम् , तद् यथास्या तथा जीविताद् ज्वालासे जलने लगे | ललाटपर आवेशसे तीन सल चढाते हुए धनुषको सज्ज किया और उसपर बाण चढाकर युद्ध स्थलमें खडे होगये और बाणको कान तक खींचा, अन्तमें चेटकनेकूट, अर्थात् बहुत बडा पत्थरका बनाया हुआ ' महाशस्त्रविशेष ' जिसके एक वारके જવાલાથી બળવા લાગ્યા. આવેશથી કપાળ ઉપર ત્રણ રેખા ચડાવીને ધનુષ સજજ કરી તેના ઉપર બાણ ચડાવીને યુદ્ધની જગાએ ઊભા રહ્યા અને બાણને કાન સુધી मेव्यु. भामरे थेट 'दूट' अर्थात् मई मारा पथरनुं मनावर 'महाशाવિશેષ જેના એક વારના પ્રહારથીજ પ્રાણ નીકળી જાય, તેની પેઠે ખાણને પ્રબલ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दरबोधिनी टोका कालो रानीको पुत्रशोक १०३ व्यपरोपयति-व्यपगमयति हन्तीति यावदिति, हे कालि ! तत्-तस्मात कारणात् खलु-निश्चयेन कालगतः कालवशं प्राप्तः कालः कुमारः। नैव खलु त्वं कालं कुमारं जीवन्तं द्रक्ष्यसि अवलोकयिष्यसि ॥२०॥ तएणं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म महया पुत्तसोएणं अप्फुन्ना समाणी परसुनियत्ताविव चंपगलया धसत्ति धरणीयलंसि सव्वंगेहि संनिवडिया । तएणं सा काली देवी मुहुत्ततरेणं आसत्था समाणी उठाए उठेइ, उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते !, अवितद्दमेयं भंते !, असदिद्धमेयं भंते !, सच्चेणं एसमढे से जहेव तुब्मे वदह,-त्तिकटु समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दूरुहइ दूरुहित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ २१॥ छायाततः खलु सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके एतमर्थ श्रुखा निशम्य महता पुत्रशोकेन आक्रान्ता सती परशुनिकृत्तेव चम्पकलता ‘धस' इति धरणीतले सर्वाण: संनिपतिता । ततः खलु सा काली देवी मुहूर्तान्तरेण आस्वस्था सती उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दिला नमस्थिखा एवमवादीत्-एवमेतद् प्रहारसे ही प्राण निकल जाय, उसी प्रकार बाणके प्रबल प्रहारसे कालकुमारके प्राण लेलिये, इस लिए हे काली ! तू कालकुमारको जीवित नहीं देखेगी ॥२०॥ પ્રહાર કરી કાલકુમારનો પ્રાણ લઈ લીધું. આથી હે કાલી ! તું કાલકુમારને लक्ति हेमशे नहि. (२०) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ निरयावलिका सूत्र भदन्त ! तथ्यमेतद् भदन्त ! अवितथमेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् भदन्त !, सत्यः खलु एषोऽर्थः तद् यथैतद् यूयं वदथ, इति कृत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा तमेव धार्मिकं यानप्रवरं दूरोहति, दूरुह्य यस्या दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता ॥२१॥ टीका'तएणं सा' इत्यादि-ततः-पुत्रवृत्तान्तश्रवणानन्तरं सा काली देवी श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके-समीपे एतम्= कालं कुमारं जीवितं न द्रक्ष्यसी "ति अर्थ-वृत्तान्तं श्रुत्वा=आकर्ण्य निशम्य हृदयेनावधार्य महता-विशालेन पुत्रशोकेन कालकुमारनामकनिजसुतमरणजन्यदुःखेन 'अप्फुण्णा' इति-आक्रान्ता व्याप्ता सती परशुनिकृत्तेव-कुठारच्छिन्ना चम्पकलता इव 'धस' इति धरणीतले सर्वाङ्गः समर्छ संनिपतिताः । ततः= तत्पश्चात् सा काली देवी मुहूर्तान्तरेण अन्तर्मुहूर्तानन्तरम् आस्वस्था-लब्धचैतन्या सती उत्थया कथमपि दास्यादिना उत्थानक्रियया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवं वक्ष्यमाणम् अवादीत-हे भदन्त ! एतत् भवद्भाषितम् , एवम् एवमेवास्ति , 'तएणं सा' इत्यादि-भगवानके समीप अपने पुत्रका ऐसा वृत्तान्त सुनकर और उसे निश्चयस्वरूप समझकर काली महारानी पुत्रमरणके दुःखसे दुःखित होकर कुठारसे कटी हुई चम्पकलताके समान मूर्छित हो धडामसे भूमिपर गिर पडी। कुछ समय पश्चात् सचेष्ट होकर दासी आदिके द्वारा खडी हुई। बाद भगवानको वन्दन नमस्कार करके बोलो हे मदन्त ! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही है, 'तएणं सा' त्याहि लगवाननी पाथी पोताना पुत्रर्नु मे वृत्तांत સાંભળીને તથા તે નકકી સમજીને કાલી મહારાણ પુત્રમરણના દુખથી દુઃખિત થઈને જેમ કુહાડીથી કપાયેલી ચંપકલતા પડી જાય તેમ અચિંછત થઈને જમીન પર ધડાક પડી ગઈ. થોડા વખત પછી ચેતના આવી તથા દાસીઓની મદદથી ઊભી થઈ પછી ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરીને બોલી-હે સદંત જેમ આપ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका गौतमप्रश्न १०५ तथ्यम् = यथार्थम्, हे भदन्त ! अवितथम् = यथार्थ स्वरूपनिरूपकम्, हे भदन्त ! असंदिग्धम् संशयविपरीतानध्यवसायवर्जितम्, हे भदन्त ! एषः = भवदुक्तः अर्थः- भावः खलु निश्चयेन सत्यः = सम्यग्निर्णायकः, तद् यथा येन प्रकारेण यूयमेतद्वदथ, इति कृत्वा = इति भगवत्समीपे निवेद्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा तमेव = पूर्वोक्तमेव धार्मिकं यानप्रवरं दूरोहति, दूरुह्य यस्या दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता || २१|| कालीराज्ञ्या गमनानन्तरं गौतमः पृच्छति - ' भंतेत्ति ' इत्यादि । मूलम् भंतेत्ति भगवं गोयमे जाव वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - काले भंते ! कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रहमुसलं संगामं संगामेमाणे चेडणं रन्ना एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिँ गए ? कहिं उवबन्ने ? । गोयमाइ समणे भगवं महावीरे गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा चउत्थी पंकप्पभाए पुढवीए हेमाभे नरगे दससागरोवमहिइएसु नेरsee नेरइयत्ताए उववन्ने ॥ २२॥ छाया भदन्त ! इति भगवान् गौतमः यावद् वन्दते नमस्यति वन्दित्वा यथार्थ है, सन्देह रहित है, सत्य है और सर्वथा सत्य है । ऐसा कहकर भगवान् को वन्दन - नमस्कार करके पूर्वोक्त धार्मिक रथमें बैठकर अपने स्थानपर गयी ॥२१॥ - કહા છે તેમજ છે. યથાર્થ છે. શ કારહિત છે. સત્ય છે તથા સર્વથા સાચું જ છે. એમ કહી ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરી અગાઉ વર્ણવેલા ધાર્મિક રથમાં એસીને પેાતાના સ્થાને ગઇ. (૨૧) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ निरयावलिकासूत्र नमस्यित्वा एवमवादीत्-कालः खल भदन्त ! कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रयविद् रथमुशलं संग्राम संग्रामयन् चेटकेन राज्ञा एकाहत्यं कूटाहत्यं जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा क्क गतः ? क उपपन्नः ? । गौतम ! इति श्रमणो भगवान् महावीरः गौतममेवमवादीत्-एवं खलु गौतम ! कालः कुमारखिभिर्दन्तिसहस्रैर्यावद् जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां हेमामे नरके दशसागरोपमस्थितिकेषु नैयिकेषु नैरयिकतया उपपन्नः ॥२२॥ टीकाहे भदन्त ! इति संबोध्य-भगवान् गौतमः यावत् मोक्षगतिप्राप्त श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्हे भदन्त ! कालः कुमारः खलु-निश्चयेन त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः यावद् रथमुशलं सामं सङ्ग्रमियन् चेटकेन राज्ञा वज्ररूपेण एकेनैव बाणेन जीविताद् व्यपरोपितो मृतः सन् कालमासे-कालावसरे कालं कृत्वा क गतः ? क उपपन्नः ? रानीके चले जानेके बाद श्री गौतम स्वामी भगवानसे पूछते हैं- भंतेत्ति' इत्यादि। ___ हे भदन्त ! कालकुमार तीन२ हजार हाथी घोडे रथ और अपने सम्पूर्ण सैन्य वर्गके साथ रथमुशल संग्राममें लडाई करता हुआ चेटक राजाके वज्रस्वरूप एक ही बाणसे मारा गया। वह मृत्युके समय कालप्राप्त होकर कहाँ गया और कहाँ उत्पन्न हुआ है। राना गया ५७. श्री गौतम स्वामी मानने पुछे छे:-'भंतेत्ति' Uत्यादि. હે ભદંત! કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી-ઘોડા–રથ તથા પોતાના સંપૂર્ણ સૈન્ય વર્ગ સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં લડાઈ કરતો થકે ચટક રાજાના વજાસ્વરૂપે એકજ બાણથી માર્યો ગયો. તે મૃત્યુને અવસરે કાલ ક્રરીને ક્યાં ગયો, અને કયાં ઉત્પન્ન થયે?. શ્રી નિયાવલિકા સૂત્ર Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका भगवानका उत्तर १०७ हे गौतम ! इति संबोध्य श्रमणो भगवान् महावीरो भगवन्तं गौतमम्-एवम् वक्ष्यमाणम् अवादी-हे गौतम ! खलु-निश्चयेन एवम्= उक्तकर्मकारकः कालकुमारः त्रिभिर्दन्तिसहयुक्तो यावत् जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थी पङ्कप्रभायां पृथिव्यां हेमाभे नामके नरके नरकावासे दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरायिकतया नारकिरवेन उपपन्नः समुत्पन्नः ॥ २२ ॥ गौतमस्वामी पुनः पृच्छति–'कालेणं भंते' इत्यादि । मूलम्कालेणं भंते ! कुमारे केरिसएहिं आरंभेहिं केरिसएहिं समारंभेहि केरिसएहिं आरंभसमारंभेहिं केरिसएहिं भोगेहिं केरिसएहिं संभोगेहि केरिसएहिं भोगसंभोगेहि केरिसएण वा असुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए जाव नेरइयत्ताए उववन्ने ? । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, रिथिमियसमिद्धे । तत्थणं रायगिहे नयरे सेणिए नामं राया होत्था, महया० । तस्स णं सेणियस्स रनो नंदा नामं देवी होत्था, सोमाला जाव विहरति । तस्सणं सेणियस्स रनो पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था, सोमाले जाव सुरूवे साम-दान-भेद-दंड-कुसले जहा चित्तो जाव रज्जधुराए चिंतए यावि होत्था ॥२३॥ ____ भगवान कहते हैं-हे गौतम ! वह क्रूर कर्म करनेवाला कालकुमार अपनी सेना सहित लडता हुआ यहाँसे मरकर पङ्कप्रभा नामक चौथे नरकके अन्दर हेमाभ नामके नरकावासमें दस सागरोपम स्थितिवाला नैरयिक हुआ ॥ २२ ॥ ભગવાન કહે છે—હે ગૌતમ! આવાં દૂર કર્મ કરનાર તે કાલકુમાર પિતાની સેના સહિત લડતે થકે અહીંથી મરણ પામી પંકપ્રભા નામના ચોથા નરકમાં હેમામ નામના નરકાવાસમાં દસ સાગરોપમની સ્થિતિવાળે નરયિક (નારકી) 0. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र छायाकालः खलु भदन्त ! कुमारः कीदृशैरारम्भैः, कीदृशैः समारम्भैः, कीदृशैः आरम्भसमारम्भैः, कीदृशैभॊगैः, कीदृशैः संभोगैः, कीदृशैः भोगसंभोगैः कीदृशेन वा अशुभकृतकर्मप्राग्भारेण कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थी पङ्कप्रभायां पृथिव्यां यावत् नैरयिकतया उपपन्नः ?। एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमभूत् ऋद्धस्तिमितसमृद्धम् । तत्र खलु राजगृहे नगरे श्रेणिको नाम राजाऽभूत् महा० । तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञो नन्दा नाम देवी अभूत् मुकुमारा० यावत् विहरति । तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रो नन्दाया देव्या आत्मजः अभयो नाम कुमारोऽभूत् सुकुमारः यावत् सुरूपः साम-दान-भेद-दण्डकुशलः, यथा चित्तो यावद् राज्यधुरायाश्चिन्तकोऽभूत् ॥२३॥ टीकाकालकुमारः खलु हे भदन्त ! कीदृशैः आरम्भैः हिंसादिकसावद्यानुष्ठानैः, समारम्भैः खङ्गादिना पाण्युपमर्दनरूपव्यापारैः, आरम्भसमारम्भैः= आरभ्यन्ते-विनाश्यन्ते जीवा यैर्हिसादिव्यापारैरित्यारम्भास्तेषां समारम्भाः पुनः श्री गौतम स्वामी पूछते हैं:-'कालेणं भंते' इत्यादि । हे भदन्त ! वह कालकुमार हिंसा झूठ आदि सावद्य अनुष्ठानरूप आरम्भसे तलवार आदि शस्त्रोद्वारा प्राणियोंका उपमर्दनरूप समारम्भसे, जिससे प्राणियोंका संहार होता है ऐसे आरम्भके आचरण करनेसे, किस तरहके शब्दादि विषय भोगोंसे तथा धुन: गौतम स्वामी पुछे छ:-'कालेण भंते' त्याहि. હે ભદંત ! તે કાલકુમાર હિંસા, ઠ, આદિ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનરૂપ આરંભથી, તલવાર આદિ શસ્ત્રોથી પ્રાણિઓને નાશ કરવારૂપ, સમારંભથી, જેનાથી પ્રાણિઓને સંહાર થાય એવા આરંભનું આચરણ કરવાથી, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अभयकुमार सम्पादनानि तैः, कीदृशैः भोगैः शब्दादिविषयैः ?, कीदृशैः सम्भोगैः तीव्राभिलाषजनकविषयै ?, कीदृशैः भोगसम्भोगै: महारम्भपरिग्रहरूपविषयाभिलाषैः ?. कीदृशेन वा अशुभकर्ममाग्भारेण अशुभकर्मसमूहेन कालमासे= कालावसरे कालं कृखा चतुर्थी पृथिव्यां यावत् नैरयिकतया उत्पन्नः ?। हे गौतम ! ‘एवं खलु' इत्यादि निगदसिद्धम् ॥२३॥ किस तरहके तीत्र अभिलाषाजनक विषयोंके संभोगोंसे और किस तरहके महारम्भ और महापरिग्रहरूप विषयोंके अभिलाषारूप भोगोपभोगोंसे और कौनसे अशुभ कर्मोके पुञ्जसे वह काल करके चौथे नरकमें गया ?। भगवान कहते हैं-हे गौतम ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था जो ऋद्धि आदिसे समृद्ध था । उसमें श्रेणिक राजा राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम नन्दा था, जो अत्यन्त सुकुमार थी, यावत् अपने पूर्वजन्म उपार्जित पुण्यसे प्राप्त मनुष्य-सम्बन्धी सुखोंका अनुभव करती हुई विचरती थी। उनके अभयकुमार नामक पुत्र था, जो सुकुमार सुरूप तथा सभी लक्षणोंसे युक्त था। साम, दान, दण्ड, भेद आदि नीतिमें निपुण था। चित्तप्रधानके समान राजकार्य दक्षतासे करता था ॥ २३ ॥ કેવી જાતના શબ્દાદિ વિષયભાગથી, કેવી જાતની તીવ્ર અભિલાષા વડે ઉત્પન્ન થતા વિષયના સંગથી, તથા કેવી જાતના મહારંભ અને મહાપરિગ્રહરૂપ વિષયની અભિલાષારૂપ ભેગપગોથી તથા કેવાં અશુભ કર્મોના પુંજથી તે કોલ કરીને (મૃત્યુ પામીને) ચેથા નરકમાં ગયો? ભગવાન કહે છે—હે ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામની નગરી હતી જે અદ્ધિ આદિથી સમદ્ધ હતી. તેમાં શ્રેણિક રાજા રાજય કરતા હતા. તેની રાણીનું નામ નંદા હતું જે બહુ સુકુમાર હતી. પિતાનાં પૂર્વજન્મમાં કરેલાં પુણ્યથી પ્રાપ્ત થયેલાં મનુષ્ય-સબંધી સુખને અનુભવ કરતી વિચરતી હતી. તેને અભયકુમાર નામે પુત્ર હતું જે સુકુમાર રૂપવાન તથા બધાં લક્ષણોથી યુકત હતો. સામ, દામ, દંડ, ભેદ આદિ નીતિમાં નિપુણ હતો. ચિત્ત પ્રધાનની પેઠે રાજકાર્યને દક્ષતાપૂર્વક કરતે હતે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० निरयावलिकासूत्र तस्सणं सेणियस्स रनो चेल्लणा नाम देवी होत्या, सोमाला जाव विहरइ । तएणं सा चेल्लणा देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, जहा पभावई, जाव सुमिणपाढगा पडिविसजिता, जाव चेल्लणा से वयणं पडिच्छित्ता जेणेव सए भवणे तेणेव अणुपविट्ठा ॥२४॥ छायातस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञश्चेल्लना नाम देवी अभूत् सुकुमारा यावद् विहरति । ततः खलु सा चेल्लना देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशके वासगृहे यावत् सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा यथा प्रभावती, यावत् स्वभपाठकाः प्रतिविसर्जिताः यावत् चेल्लना तस्य वचनं प्रतीष्य यत्रैव स्वकं भवनं तत्रैवानुपविष्टा ॥२४॥ टीका'तस्स णं' ' इत्यादि । 'तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञः' इत्यारभ्य 'तत्रैवानुप्रविष्टा' इत्यन्तस्य व्याख्यानं सुगमम ॥२४॥ ' तस्स णं' इत्यादि। उस श्रेणिक राजाकी दूसरी रानी चेलना थी, जो सुकुमारता (कोमलता) आदि नारीगुणोंसे सभी तरह युक्त थी। उसने स्वप्नमें एक समय सिंह देखा उसी समय जाग उठी और प्रभावतीके समान राजाको जाकर स्वप्न कहा, राजाने स्वप्नपाठक बुलाये। उन्होंने स्वप्नका फल कहा और राजाने उन्हें प्रीतिदान देकर विसर्जित (बिदा ) किये। स्वप्नफल सुननेके पश्चात् रानी अपने महलमें गयी ॥२४॥ _ 'तस्सण' त्याहि. ते श्रेणि शनी भी येसाना ती. २ सुमार (કમળતા) આદિ સ્ત્રીને લગતા ગુણોથી સર્વ પ્રકારે યુક્ત હતી. તેણે સ્વપ્નામાં એક વખત સિંહને જે અને જાગી ઉઠી. પ્રભાવતીની પેઠે રાજાને સ્વપ્ન કહ્યું જેથી રાજાએ સ્વપ્ન પાઠકેને બોલાવ્યા, તેઓએ સ્વપ્નફલ કહ્યું. રાજાએ તેમને પ્રીતિદાન આપીને વિસર્જિત (વિદાય) કર્યા. સ્વપ્નફલ સાંભળ્યા પછી રાણું પિતાના મહેલમાં ગઈ. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानोका दोहद मूलम्— aणं तीसे चेल्लाए देवीए अन्नया कयाई तिन्हं मासाणं बहुपडि - पुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए- धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जम्मजीवियफले जाओ णं णियस्स रनो उदरवलीमंसेहिं सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुरं च जाव पसन्नं च आसाएमाणीओ जाव परिभाएमाणीओ दोलहं पविर्णेति ॥ २५ ॥ १११ छाया ततः खलु तस्याश्वेल्लनाया देव्या अन्यदा कदाचित् त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयमेतद्रूपो दोहदः प्रादुर्भूतः - धन्याः खलु ताः अम्बाः यावत् ( तासां ) जन्म - जीवित- फलं याः खलु निजस्य राज्ञः उदरवलिमांसैः शूलैश्च तलितैश्च भर्जितैथ सुरां च यावत् प्रसन्नां च आस्वादयन्त्यो यावत् परिभाजयन्त्यो दोहदं प्रविनयन्ति ॥ २५ ॥ टीका ' तरणं तीसे' इत्यादि । ततः - तदनन्तरं खलु - निश्चयेन अन्यदा कदाचित् चेल्लनाया देव्याः त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयम् = वक्ष्यमाणः, एतद्रूपः = एतदाकारकः दोहदः प्रादुर्भूतः - समुत्पन्नः-ताः अम्बाःजनन्यः धन्याः=प्रशंसनीयाः यावत् जन्मजीवितफलं = तासां जन्मनो जीवितस्य 6 तणं तीसे ' इत्यादि । बाद रानी चेलनाको, गर्भके तीन महिने पूरे होनेपर ऐसा दोहद - ( दोहला ) उत्पन्न हुआ कि-धन्य हैं वे माताएँ, यावत् उन्हीका जन्म और जीवित सफल है जो 'तएणं तोसे' धत्याहि पछी राणी येसनाने त्रा भहिना पुरा थतां मेव। अहते। (તીવ્ર ઇચ્છા) થયા કે ધન્ય તે માતાઓને તેમના જન્મ તથા જીવતર સલ છે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ निरयावलिकासूत्र च फलं-आनन्दरूपम् याः निजस्य राज्ञः स्वामिनः खलु शूलैः पक्वैः तलितैः स्नेहादिना पक्वैः भर्जितैः केवलवद्विपक्वैः उदरवलिमांसः दोहदं प्रविनयन्तीत्यनेन सम्बन्धः, सुरां-मदिरां च यावत् प्रसन्नां च तदाख्यं मुरा विशेषम् आस्वादयन्त्यो यावत् परिभाजयन्त्यः अन्योन्यं ददत्यो दोहदं प्रविनयन्ति-पूरयन्ति, अहमपि स्वपतेः श्रेणिकस्य राज्ञः पक्वतलितभर्जितोदरवलिमांसैर्दोहदं प्रपूरयेयं तदा धन्या किंतु तादृक्करणेऽसमर्थाऽस्मि, इत्यादि ॥२५॥ मूलम्तएणं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा नित्तेया दीणविमणवयणा पंडुइयमुही ओमंथियनयणवयणकमला जहोचियं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं अपरिमुंजमाणी करतलमलियव्व कमलमाला ओहयमणसंकप्पा जाव झियाइ ॥२६॥ छाया ततः खलु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का अपने पतिके उद्ररवलि ( कलेजा )के मांसको शूलपर पकाकर और तेलमें तलकर एवं अग्निमें सेककर मदिराके साथ आस्वादन करती हुई यावत् परस्पर-आपसमें देती हुई अपने दोहद (दोहले )को पूरा करती हैं। यदि मैं भी अपने पति श्रेणिक राजाके पकाये हुवे तले हुवे सेके हुवे उदरवलि ( कलेजा )के मांससे दोहदको पूरा करूं तो मैं धन्य बनें परन्तु ऐसा करनेमें मैं असमर्थ हूं ॥ २५ ।। કે જે પોતાના પતિના ઉદરવલિ (કલેજા)ના માંસને શૂળ ઉપર સેકીને તથા તેલમાં તળીને કે અગ્નિમાં સેકીને દારૂની સાથે તેને સ્વાદ લેતી અને અરસપરસ દેતાં પિતાના એ દેહદને પરિપૂર્ણ કરે છે. જે હું પણ મારા પતિ શ્રેણિક રાજાના પકાયેલાં તળેલાં અને સેકેલાં કલેજાનાં માંસથી મારો દેહદ પૂરો કરૂં તે ધન્ય બનું પણ તેમ કરવામાં હું અસમર્થ છું. (૨૫) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका चेल्लना रानीका दोहद बुभुक्षिता निर्मासा अवरुग्णा, अवरुग्णशरीरा निस्तेजाः दीनविमनोवदना पाण्डुकितमुखी अवमन्थितनयनवदनकमला यथोचितं पुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारम् अपरिभुञ्जन्ती करतलमलितेव कमलमाला उपहतमनःसङ्कल्पा यावद् ध्यायति ॥२६॥ टीका__ 'तएणं सा' इत्यादि-ततः तदनु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने-अपूर्यमाणे सति शुष्का-शुष्कमाया रुधिरपरिशोषणात्, बुभुक्षिता आहाराऽकरणेन बुभुक्षितेव, निर्मासा-मांसरहिता-मांसद्धयभावात् , अवरुग्णा= रोगवतीव मनोवृत्तिभङ्गात् , अवरुग्णशरीरा-भग्नगात्रा, निस्तेजाः शरीरधुतिरहिता, दीनविमनोवदना-दीनस्येव वि-विगतम्-उत्साहरहितं मनः, कान्ति रहितं वदनं च यस्याः सा तथा-अकिञ्चनवदुत्साहहीनमनोनिष्पभमुखवतीति 'तएणं सा' इत्यादि उसके बाद वह चेलना रानी दोहद नहीं पूरा होनेसे रक्तके सूख जानेके कारण सूख गयी। अरुचिसे आहार आदि नहीं करनेके कारण भूखी रहने लगी। शरीरमें मांस नहीं रहनेके कारण क्षीणकाय हो गयी, मनको चोट पहुँचनेसे रोगी के समान हो गयी, शरीरकी कांति हट जानेसे तेजरहित हो गयी, उसका मन दीनके समान उत्साहरहित और मुख निस्तेज हो गया, अतएव रानीका चेहरा 'तणं सा' त्याहि. ત્યાર પછી તે ચેલના રાણી પિતાને દેહદ (ઈચ્છા) પુરી ન થવાથી લોહી સૂકાઈ જવાથી શુષ્ક થઈ ગઈ. અરૂચિથી આહાર આદિ ન કરવાથી ભૂખી રહેવા માંડી. શરીરમાં માંસ ન રહેવાથી શરીરે દુબળી થઈ ગઈ. મનમાં ઘા લાગવાથી રેગીસમાન થઈ ગઈ. શરીરની કાંતિ ઓછી થતાં તેજરહિત થઈ ગઈ. તેનું મન દીન સમાન ઉત્સાહરહિત તથા મોટું નિસ્તેજ થઈ ગયું. આમ રાણીને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ निरयावलिका सूत्र भावः। पाण्डुकितमुखी-पाण्डुवर्णयुक्तमुखवती, अवमथितनयनवदनकमला=अधः कृतनेत्रमुखकमला, यथोचितं यथायोग्यं पुष्पवस्त्रगन्धमालालङ्कारम्अपरिभुञ्जन्ती-असेवमाना, करतलमलिता-हस्ततलमर्दिता कमलमालेव कान्तिहीना, उपहतमनःसंकल्पा-कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकला यावद् ध्यायति= आर्तध्यानं करोति ॥२६॥ मूलम्तएणं तीसे चेल्लणाए देवीए अंगपडियारियाओ चेल्लणं देविं मुकं भुक्खं जाव झियायमाणों पासंति, पासित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कडे सेणियं रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! चेल्लणा देवी न याणामो केणइ कारणेणं सुक्का भुक्खा जाव झियायइ ॥२७॥ छाया ततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अङ्गप्रतिचारिकाश्चेल्लनां देवीं शुष्का बुभुक्षितां यावद् ध्यायन्ती पश्यन्ति, दृष्ट्वा यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य, करतलपरिगृहीतं शिरआवत मस्तकेऽञ्जलिं कृला फीका पड़ गया। इस कारण नेत्र और मुखकमलको नीचे किये हुए यथायोग्य पुष्प वस्त्रादिकको भी नहीं धारण करती थी, वह हाथसे मली हुई-कुचली हुई कमलकी मालाके समान कान्तिहीन दुःखित मनवाली कर्तव्याकर्तव्यके विवेकसे रहित होकर यावत् आर्तध्यान करती थी ॥ २६ ॥ ચહેશે ફીકો પડી ગયો. આથી નેત્ર તથા મુખ નીચે ઝુકાવીને બેઠો થતી યથાયોગ્ય પુષ્પ-વસ્ત્રાદિ અલંકારો ધારણ કરતી નહોતી. તે હાથના મર્દનથી કરમાયેલી કમલની માળા જેવી કાંતિ વગરની દુખિત મન વાળી કર્તવ્ય અકર્તવ્ય વિવેકથી રહિત બની જઈને સઘળો વખત આર્તધ્યાનમાં વીતાવતી હતી. (૨૬) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानोका दोहद ११५ श्रेणिकं राजानमेवमवादिषुः - एवं खलु स्वामिन् ! चेल्लना देवी न जानीमः केनापि कारणेन शुष्का बुभुक्षिता यावद् ध्यायति ॥ २७ ॥ टीका इत्यादि - ' झियायइ ' इत्यन्तस्य व्याख्या " तणं तीसे ' निगदसिद्धा ॥ २७ ॥ मूलम् तणं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म तहेव संभंते समाणे जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता, चेल्लणं देवं सुकं भुक्खं जाव झियायमाणि पासित्ता एवं बयासी - किन्नं तुमं देवाणुप्पिये ! मुक्का भुक्खा जाव झियायसि ? सेणियस्स रनो एयमहं णो आढाइ णो तणं सा चेल्लणा देवी परिजाणार तुसिणीया संचिट्ठा । ' तरणं तीसे ' इत्यादि. उसके बाद चेलना रानीकी सेवा करनेवाली दासियोंने अपनी रानीकी ऐसी अवस्था देखकर श्रेणिक राजाके पास गयी, और हाथ जोडकर श्रेणिक राजासे कहने लगीं–हे स्वामिन् ! चेलना महारानी न जाने किस कारण सूख गयी है और दुःखित होकर आर्तध्यान करती है । ॥ २७ ॥ 'तरणं तीसे' इत्याहि. ત્યાર પછી ચેલના રાણીની સેવા કરવાવાળી દાસીએ પાતાની રાણીની એવી અવસ્થા જોઇને શ્રેણિક રાજાની પાસે જઇ હાથ જોડી શ્રેણિકરાજાને કહેવા લાગી–ડે સ્વામિન્ ! ખબર નથી કે ચેલના રાણી શું કારણથી સુકાઈ ગઈ છે તથા દુ:ખિત થઇને આ ધ્યાન કરે છે. (૨૭) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ari से सेणि राया चेल्लणं देवं दोचंपि तचंपि एवं वयासीकिं णं अहं देवाप्पिए ! एयमट्ठस्स नो अरिहे सवणयाए जं णं तुमं एयम रहस्सीकसि ? | ११६ तणं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना दोच्चं पि तच्च पि एवं बुत्ता समाणी सेणियं रायं एवं वयासी- णत्थि णं सामी ! से केइ अद्वे जस्स णं तुन्भे अरिहा सवणयाए, नो चेव णं इमस्स अट्ठस्स सवणयाए, एवं खलु सामी ! ममं तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिन्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए– ' धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं णियस्स रन्नो उदरवलिमंसेहिं सोल्लएहि य जाव दोहलं विर्णेति' तरणं अहं सामी ! तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि सुक्का भुक्खा जाव कियायामि ॥ २८ ॥ छाया ततः स श्रेणिको राजा तासामङ्गप्रतिचारिकाणामन्तिके एतमर्थ श्रुखा निशम्य तथैव संभ्रान्तः सन् यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेलनां देवीं शुष्कां बुभुक्षितां यावद् ध्यायन्तीं दृष्ट्वा एवमवादीत् किं खलु त्वं देवानुमिये ! शुष्का बुभुक्षिता यावद् ध्यायसि ? | ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकस्य राज्ञः एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति तूष्णीका संतिष्ठते । ततः खलु स श्रेणिको राजा चेल्लनां देवीं द्वितीयमपि तृतीयमपि ( वारं) एवमवादीत् किं खलु अहं देवानुप्रिये ! एतदर्थस्य नो अर्हः श्रवणाय यत्खलु त्वं एतमर्थं रहस्यीकरोषि ? | ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकेन राज्ञा द्वितीयमपि तृतीयमपि ( वारं ) एवमुक्ता सती श्रेणिकं राजानमेवमवादीत् - नास्ति खलु स्वामिन् ! શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानोका दोहद ११७ स कोऽप्यर्थः यस्य खलु यूयमनहर्हाः श्रवणाय, नो चैव खलु अस्यार्थस्य श्रवणाय एवं खलु स्वामिन् ! मम तस्य उदारस्य यावत् महास्वमस्य (फलस्वरूपगर्भस्य) त्रिषु मासेषु बहुपतिपूर्णेषु अयमेतद्रूपो दोहदः प्रादुर्भूतः'धन्याः खलु ता अम्बाः याः खलु निजस्य राज्ञ उदरवलिमांसैः शूलकैश्च यावद् दोहदं विनयन्ति,' ('यद्यहमप्येवं करोमि तदा धन्या भवामि') इति । ततः खलु अहं हे स्वामिन् ! तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का बुभुक्षिता यावद् ध्यायामि ॥२८॥ टीका'तएणं से' इत्यादि । संभ्रान्तः सन् आश्चर्यचकितः सन् । नो आद्रियते=न सम्मानयति, नो परिजानाति-न सम्यङ् नृपवचनं हृदये 'तएणं से' इत्यादि. महाराज श्रेणिक दासियोंके मुखसे इस वृत्तान्तको सुनकर घबडाते हुए शीघ्र चेलना रानीके पास आये, और चेलमा रानीकी दुरवस्थाको देखकर बोले-हे देवानुप्रिये ! तुम्हारी इस तरहकी दुःखजनक अवस्था कैसे हो गयी ? और क्यों आर्तध्यान कर रही हो ?, यह सुनकर रानी कुछ नहीं बोली । पश्चात् राजाने दो तीन बार पुनः पूछा-हे देवानुप्रिये ! क्या तुम्हारी इस बातको सुनने लायक मैं नहीं हूँ जो मुझसे तुम अपनी बात छिपाती हो? । इस प्रकार राजाद्वारा दो तीन वार पूछे जाने 'तएणं से' त्यादि. મહારાજ શ્રેણિક, દાસીઓને મોઢેથી આ વૃત્તાંતને સાંસળી, ગભરાતા જલદી ચેલના રાણીની પાસે આવ્યા, તથા ચેલના રાણુની ખરાબ અવસ્થાને જોઈને બોલ્યા- હે દેવાનુપ્રિયે! તમારી આ પ્રકારની દુઃખજનક અવસ્થા કેવી રીતે થઈ ગઈ ? શા માટે આર્તધ્યાન કરે છે ? આ સાંભળીને રાણું કાંઈ ન બોલી. પછી રાજાએ બે ત્રણ વાર ફરીને પૂછયું- હે દેવાનુપ્રિયે! શું તમારી આ વાત સાંભળવા લાયક હું નથી જેથી મારાથી તે પિતાની વાત છુપી રાખે છે? આ પ્રકારે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ निरयावलिका सूत्र निदधाति । तूष्णीका-समालम्बितमौनभावा । द्वितीयमपि-द्वितीयवारं तृतीयमपितृतीयवारम् । शेषं मुगमम् ॥ २८॥ मूलम्तएणं से सेणिए राया चेल्लणं देवि एवं वयासी-माणं तुम देवाणुप्पिए ! ओहय० जाव झियायह, अहं णं तहा जइस्सामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइत्ति कटु चेल्लणं देवि ताहि इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुनाहिं मणामाहि ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं पर रानी बोली-हे स्वामिन् ! ऐसी कोई बात नहीं है जो आपसे छुपाई जाय और आप उसे सुननेके योग्य नहीं हों, आप उसे सर्वथा सुन सकते हैं, वह बात इस प्रकार है-उस उदार स्वप्नके फल स्वरूप गर्भके तीसरे मासके अन्तमें मुझे इस प्रकार दोहद ( दोहला ) उत्पन्न हुआ है कि वे माताए धन्य हैं जो अपने पतिके उदरवलिका मांस पकाकरके तलकरके और अग्निमें सेक भूनकर मदिराके साथ एक दूसरी सखीको देती हुई-आस्वादन करती हुई अपना दोहद पूरा करती हैं। मुझे भी ऐसा ही दोहद उत्पन्न हुआ है लेकिन हे स्वामिन् ! वह दोहद पूरा नहीं होनेसे आज मेरी यह दशा हुई है और मैं आर्तध्यान करती हूँ ॥ २८ ॥ બે ત્રણ વાર રાજાએ પૂછવાથી રાણું બોલી–હે સ્વામી! એવી કઈ વાત નથી જે આપથી છાની રખાય તથા આપ તે સાંભળવા એગ્ય ન હો. આપ તે સર્વથા સાંભળી શકો છો. એ વાત આમ છે-તે ઉદાર સ્વપ્નના ફલ સ્વરૂપ ગર્ભના ત્રીજા મહિનાના અંતમાં મને એવા પ્રકારને દેહદ (ઈચ્છા) ઉત્પન્ન થયો કે તે માતાને ધન્ય છે કે જે પોતાના પતિના ઉદર–વલિના માંસને પકાવી તળીને અગ્નિમાં સેકી ભંજી મદિરાની સાથે એક બીજી સખીને આપતી આસ્વાદ લેતી પિતાને દેહદ પૂરે કરે છે. મને પણ એવો જ દેહદ ઉત્પન્ન થયે છે પણ તે સ્વામિન્ ! તે અરે નહિ થવાથી આજ મારી આવી દશા થઈ છે અને આર્તધ્યાન કરું છું. (૨૮) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका श्रेणिक राजाके विचार ११९ मियमधुरसस्सिरीयाहिं वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता चेल्लणाए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीयइ, निसीइत्ता तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहूहि आएहिं उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य परिणामेमाणे२ तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिइं वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ ॥२९॥ छाया ततः खलु स श्रेणिको राजा चेल्लनां देवीमेवमवादी-मा खलु त्वं देवानुपिये ! अवहत० यावद् ध्याय, अहं खलु तथा यतिष्ये, यथा खलु तव दोहदस्य सम्पत्तिर्भविष्यतीति कृला चेल्लनां देवीं ताभिरिष्टामिः कान्ताभिः मियाभिर्मनोज्ञाभिर्मनोऽमाभिरुदाराभिः कल्याणाभिः शिवाभिर्धन्याभिर्माङ्गल्याभिर्मितमधुरसश्रीकाभिल्गुभिः समाश्वासयति, समाश्वास्य चेल्लनाया देव्या अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखो निषीदति, निषध तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्तं बहुभिरायैरुपायैश्च औत्पत्तिकीभिश्च वैनयिकीभिश्च कार्मिकी( कर्मजा)भिश्च पारिणामिकीभिश्च परिणामयन्२ तस्य दोहदस्य आयं वा उपायं वा स्थितिं वा अविन्दन् अपहतमनः संकल्पो यावद् ध्यायति ॥ २९॥ टीका'तएणं से' इत्यादि । ततः तदनन्तरं स श्रेणिको राजा चेल्लनामवादी-हे देवानुपिये ! त्वं आर्तध्यानं मा कुरु, अहं तथा यतिष्ये यथा 'तएणं से' इत्यादि । चेलना रानीकी ऐसी बात सुनकर राजा बोले-हे देवानुप्रिये ! तुम आर्त'तएणं से' त्यादि ચેલના રાણીની આવી વાત સાંભળી રાજા બોલ્યા -“હે દેવાનુપ્રિયે! તું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ___ निरयावलिका सूत्र तव दोहदस्य सम्पत्तिः सम्पन्नता भविष्यतीति कृत्वा इति कथयित्वा चेल्लनां देवीं ताभिः वक्ष्यमाणाभिः इष्टाभिः=अभिलपणीयाभिः, कान्ताभिः= वाञ्छितार्थपूरणीभिः, प्रियाभिः प्रेमोत्पादिकाभिः, मनोज्ञाभिः= शोभनाभि: मनोऽमाभिः पुनःपुनःमनोऽनुस्मरणीयाभिः, उदाराभिः =अत्यभूताभिः, कल्याणीभिः वाञ्छितार्थप्राप्तिकारिकाभिः, शिवाभिः उपद्रवरहिताभिः, धन्याभिः गर्भवान्छासम्पादिकाभिः, माङ्गल्याभिः कर्णप्रियाभिः, मितमधुरसश्रीकाभिः-प्रमितमत्तकोकिलशब्दवन्मनोहरस्वरशोभाभिः, वल्गुभिः= वाणोभिः समाश्वासयति सन्तोषयति। समाश्वास्य चेल्लनादेवीसमीपात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्र बाह्या उपस्थानशाला आस्थानमण्डपः, यत्र सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरे श्रेष्ठसिंहासने पौरस्त्या ध्यानको छोडो मैं ऐसा ही प्रयत्न करूँगा जिससे तुम्हारा दोहद पूरा हो। ऐसा कहकर राजाने मनको आह्लाद करनेवाली, वाञ्छित अर्थको देनेवाली प्रेममयी, मनोज्ञ, बारम्बार मनको अच्छी लगनेवाली, अद्भुत, मनोवांछित फलको देनेवाली, सुखदायी, गर्भवाञ्छाको पूर्ण करनेवाली, कानोंको प्रिय लगनेवाली, मत्त कोकिलाके स्वरके समान मनोहर वाणी द्वारा रानीको सन्तुष्ट किया। रानीको इस प्रकार आश्वासन देकर राजा सभामण्डपमें आये, और पूर्व दिशाकी ओर मुँहकर अपने सिंहासनपर बैठे तथा उस दोहदको पूरा करनेकी चिन्ता करने लगे, परन्तु આર્તધ્યાન છેડી દે. હું એજ પ્રયત્ન કરીશ કે જેથી તારે દેહદ પુરે થાય. એમ કહી રાજાએ મનને આનંદ કરાવનારી, વાંછિત અર્થ (ઈચ્છા પ્રમાણે) हेवावाजी, प्रेममयी, मनोज, वारवार भनने सारी सामनारी, समुत, भनीવાંચ્છિત ફળને દેવાવાળી, સુખદાયી, ગર્ભવાંછાને પૂર્ણ કરવાવાળી, કાનને પ્રિય લાગવાવાલી, મત્ત બનેલ કોયલના સ્વર જેવી મનહર વાણી દ્વારા રાણીને સંતુષ્ટ કરી. રાણેને આ પ્રકારે આશ્વાસન દઈને રાજા સભામંડપમાં આવ્યા. તથા પૂર્વદિશા તરફ મેં રાખી પોતાના સિંહાસન પર બેઠા. તથા તે દેહદ (ઈરછા) પુરે કરવાની ચિંતા કરવા લાગ્યા. પરંતુ– શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानोका दोहद भिमुखः पूर्वाभिमुखः सन् निषीदति-उपविशति तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्तं सम्पादनार्थ बहुभिः अनेकैः आयैः साधनैः उपायैः-प्रयोगैः, तथाऔत्पत्तिकीभिः शास्त्राभ्यासनिरपेक्षाऽदृष्टाऽश्रुताऽननुभूतविषयग्राहिकाभिः, च-पुनः वैनयिकीभिः गुरुरत्नाधिकादिशुश्रूषासंजाताभिः, कार्मिकीभिः कर्मजाभिःअनिशं क्रियाकरणेन जायमानाभिः, पारिणामिकीभिः वयआदिपरिणामजन्याभिः, परिणामः दीर्घकालपूर्वापरपर्यालोचजन्य आत्मनो धर्मविशेषः, स प्रयोजनमस्याः सा पारिणामिकी, अवयवगतबहुलविवक्षायां ताभिः, चतुर्विधाभि बुद्धिभिः परिणामयन्२=दोहदसम्पादनरूपविचारं कुर्वन् २ तस्य दोहदस्य आयं-साधनम् वा उपायं-प्रयोगं वा स्थिति-व्यवस्थां वा अविन्दन् अलभमानो भूपः अपहतमनःसंकल्पो यावद् ध्यायति-आर्तध्यानं करोति ॥ २९॥ (१) शास्त्रोके अभ्यास विना ही अनदेखे अनसुने और अनुभवमें भी न आये हुए विषयोंको यथार्थ रूपसे ग्रहण करनेवाली औत्पत्तिकी बुद्धि, ( २ ) विनयसे उत्पन्न होनेवाली बैनयिकी बुद्धि, (३) हमेशा कार्य करनेसे उत्पन्न होनेवाली कार्मिकी बुद्धि, (४) वयके परिणामसे उत्पन्न होनेवाली पारिणामिकी बुद्धि, __इन चारों प्रकारको बुद्धि द्वारा तथा अनेक साधन (सामग्री) एवम् अनेक प्रयोग द्वारा भी राजा उस दोहदको पूरा करनेमें समर्थ नहीं हो सके अतएव आर्तध्यान करने लगे ॥२९॥ (૧) શાસ્ત્રોના અભ્યાસ વિનાજ ન જોયેલા ન સાંભળેલા તથા અનુભવમાં પણ ન આવેલા વિષયેને યથાર્થરૂપે જાણવા વાળી 'मौत्पत्ति' भुद्धि, (२) विनयथा त्पन्न थनारी वेनयि भुद्धि, (3) हमेशां आर्य કરવાથી ઉત્પન્ન થનારી “કામિકી” બુદ્ધિ, (૪) ઉમરના પરિણામે ઉત્પન્ન થનારી પરિણામિકી” બુદ્ધિ. આ ચારે પ્રકારની બુદ્ધિ દ્વારા તથા અનેક સાધન-સામગ્રી એટલે અનેક પ્રયોગ દ્વારા પણ રાજા તે દેહદને પુરો કરવામાં સમર્થ ન થયા तथी मात ध्यान ४२१॥ वाया. (२८) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२२ निरयावलिका सूत्र मूलम्इमं च णं अभए कुमारे पहाए जाव शरीरे, सयाओ गिहाओ पडिमिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेणियं रायं ओहय० जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता एवं क्यासी-अन्नया णं ताओ ! तुम्भे ममं पासित्ता हट्ट जाच हियया भवह किन्नं ताओ ! अन्ज तुब्भे ओहय० जाव झियायह ? तं जइणं अहं ताओ ! एयस्स अट्ठस्स अरिहे सवणयाए तो णं तुब्भे मम एयमटुं जहाभूयमवितहं असंदिद्धं परिकहेह, जाणं अहं तस्स अट्ठस्स अंतगमणं करोमि । तएणं से सेणिए राया अभयं कुमारं एवं वयासी-णात्थ णं पुत्ता ! से केइ अ जस्स णं तुम अणरिहे सवणयाए, एवं खलु पुत्ता ! तव चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव उयरवलिमंसेहिं सोल्लेहि य जाव दोहलं विणेति। तएणं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि मुक्का जाव झियायइ । तएणं अहं पुत्ता ! तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहूहिं आएहिं य जाव ठिई वा अविंदमाणे ओहय० जाव झियामि । तएणं से अभए कुमारे सेणियं रायं एवं वयासी-माणं ताओ ! तुब्भे ओहय० जाव झियायह, अहं णं तह जत्तिहामि, जहाणं मम चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ-त्ति कटु सेणियं रायं ताहिं इटाहिं जाव वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता जेणेव सए गिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभितरए रहस्सिए ठाणिजे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सूणाओ अल्लं मंस रुहिरं वस्थिपुडगं च गिण्हह । तएणं ते ठाणिज्जा पुरिसा अभयेणं कुमारेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट० करतल० जाव पडिमुणेता अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानोका दोहद पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सूणा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं च गिण्हंति, गिण्डित्ता, जेणेव अभए कुमारे तेणेव उवागच्छंति, उवागछित्ता, करयल० तं अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं च उवणेति ॥३०॥ छाया इतश्च खलु अभयः कुमारः स्नातः यावत्-शरीरः स्वकात् गृहात् पतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, श्रेणिकं राजानम् अवहत० यावद् ध्यायन्तं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत्-अन्यदा खलु तात ! यूयं मां दृष्ट्वा हृष्ट. यावद्हृदयाः भवथ, किं खलु तात ! अद्य यूयम् अवहत० यावद् ध्यायथ, तद् यदि खल्वहं तात ! एतस्यार्थस्याऽर्हः श्रवणतायै तदा खलु यूयं मम एतमर्थ यथाभूतमवितथमसंदिग्धं परिकथयत, यस्मात् खल्वहं तस्यार्थस्यान्तगमनं करोमि । ___ ततः खलु स श्रेणिको राजा अभयकुमारभेवमवादीत्-नास्ति खलु पुत्र ! स कोऽप्यर्थः यस्य खलु खमनहः श्रवणतायै । एवं खलु पुत्र ! तव क्षुल्लमातुश्चेल्लनाया देव्यास्तस्योदारस्य यावद महास्वमस्य त्रिषु मासेषु बहुमतिपूर्णेषु यावत् उदरवलिमासैः शूलकैश्च यावत् दोहदं विनयन्ति । ततः खलु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का यावद् ध्यायति । ततः खल्वहं पुत्र ! तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्तं बहुभिरावैरुपायैश्च यावत् स्थिति वा अविन्दन् अपहत० यावद् ध्यायामि ।। ततः खलु सः अभयः कुमारः श्रेणिकं राजानमेवमवादीत्-मा खलु तात ! यूयम् अवहत० यावद् ध्यायत, अहं खलु तथा यतिष्ये यथा खलु मम क्षुल्लमातुश्चेल्लनाया देव्यास्तस्य दोहदस्य सपत्तिर्भविष्यतीति कृता श्रेणिकं राजानं ताभिरिष्टाभिविद् वल्गुभिः समाधासयति, समावास्य यत्रैव स्वकं શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका सूत्र १२४ गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य आभ्यन्तरान् राहस्यिकान् स्थानीयान् पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छत खलु यूयं देवानुप्रियाः ! सूनात आर्द्र मांसं रुधिरं बस्तिपुटकं च गृह्णीत | ततः खलु ते स्थानीयाः पुरुषा अभयेन कुमारेण एवमुक्ताः सन्तः हृष्टाः करतल० यावद् प्रतिश्रुत्य अभयस्य कुमारस्यान्तिकात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव शुना तत्रैवोपागच्छन्ति, आर्द्र मांसं रुधिरं बस्तिपुटकं च गृह्णन्ति, गृहीला यत्रैव अभयः कुमारस्तत्रैबोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल० तमाईं मांसं रुधिरं बस्तिपुटकं च उपनयन्ति ॥ ३०॥ टीका 4 ' इमं चणं ' इत्यादि - यथाभूतमवितथमसंदिग्धमित्येतानि पदानि पूर्वमेव व्याख्यातानि । राहस्थिकान्- गुप्तविचारकान् स्थानीयान् = गौरवशालिनः, 4 ' इमं च णं ' इत्यादि । , इधर अभयकुमार स्नानकर यावत् सभी प्रकारके आभूषणोंसे सुसज्जित हो अपने महलसे निकलकर उसी सभा - मण्डपमें आए जहाँ श्रेणिक राजा बैठे थे । श्रेणिक राजाको आर्तध्यान करते हुए देखकर बोले हे तात ! और दिन जब मैं आता था तो आप मुझे देखकर प्रसन्न होते थे, किन्तु आज क्या कारण है जो मेरी ओर देखते भी नहीं और आर्तध्यान में 'इमं च णं त्याहि. આ બાજુ અભયકુમાર સ્નાન કરી તમામ પ્રકારનાં આભૂષણેાથી સજ્જ થઈ મહેલમાંથી નીકળી તેજ સભામંડપમાં આવ્યા કે જયાં શ્રેણિક રાજા બેઠા હતા. શ્રેણિક રાજાને આ ધ્યાન કરતા જોઇ કહ્યું કે તાત ! હું જ્યારે બીજા દિવસે આવતા ત્યારે આપ મને જોઇ ખુશી થતા હતા પણ આજ શું કારણ છે કે મારી સામુંય જોતા નથી તથા આર્તધ્યાનમાં બેઠા છે. જો હું આ વાતને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानोका दोहद सूनातः-अमारिघोषितातिरिक्तवधस्थानात् आर्द्र मासं रुधिरं वस्तिपुटकं शोणितबैठे हैं। अगर इस बातको सुननेके योग्य मुझे समझते हैं तो जैसी हो वैसी यथार्थरूपसे निःसंकोच होकर मुझे कहिये, जिससे मैं उसके निराकरणका प्रयत्न करूँ। अभयकुमारकी ऐसी विनययुक्त वाणी सुनकर राजा बोले-हे पुत्र ! ऐसी कोई बात नहीं है जो तुझसे छिपाई जाय-तेरी छोटी माता चेलना रानीको महास्वप्नके तीसरे महिनेके अन्तमें दोहद ( दोहला) उत्पन्न हुआ है कि- आपके उदरवलिके मांसको शूला ( पका ) कर और तल–भूनकर मदिराके साथ आस्वादन करूँ।' इस दोहद ( दोहला )के पूर्ण न होनेके कारण वह महादुःखित और कृशकाय होकर आर्तध्यान कर रही है। हे पुत्र ! इस दोहद (दोहला )को पूर्ण करनेके लिए अनेक उपाय सोचे परन्तु कोई उपाय पूरा नहीं दिखायी देता एतदर्थ आर्तध्यान करता हुआ बैठा हूँ। अपने पिताके मुखसे ऐसे वचन सुनकर, अभय સાંભળવા ચોગ્ય છું એમ સમજતા હો તે જે હોય તે યથાર્થ રૂપે નિ:સંકેચ થઈ મને કહે જેથી હું તેનું નિરાકરણ કરવા પ્રયત્ન કરૂં. અભયકુમારની એવી વિનયયુક્ત વાણી સાંભળી રાજા બોલ્યા–હે પુત્ર! એવી કઈ વાત નથી કે જે તારાથી છાની રખાય–તારી નાની માતા ચેલના રાણીને મહાસ્વપ્નના ત્રીજા માસને અંતે દેહદ (ઈચ્છા) ઉત્પન્ન થયે છે કે–“તમારા ઉદરબલિમાંસને પકાવી તળી ભુંજી (સેકી) મદિરાની સાથે આસ્વાદ કરું. આ દેહદ પુરો ન થવાના કારણે તે મહાદુઃખિત તથા કૃશકાય થઈ આર્તધ્યાન કરી રહી છે, હે પુત્ર! તે દેહદને પૂર્ણ કરવા માટે અનેક ઉપાય વિચારી જોયા પણ કેઈ ઉપાય પૂરો થાય તેમ દેખાતો નથી. એ માટે આર્તધ્યાન કરતો બેઠો છું. પોતાના પિતાના મુખેથી એવાં વચન સાંભળી અભયકુમાર બેલ્યા- હે તાત! આપ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र युक्तमुदरान्तर्वर्त्तिभागं ( ' कलेजा ' इति भाषायाम् ) गृह्णीत = आनयतेत्यर्थः । शेषं स्पष्टम् ॥ ३० ॥ १२६ मूलम् — तणं से अभए कुमारे तं अल्लं मंसं रुहिरं कप्पणीकप्पियं करेइ, करिता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, सेणिय रायं रहसिगयं सयणिज्जंसि उत्ताणयं निवज्जावेइ, निवज्जावित्ता, सेणियस्स उदरवलीसुतं अलं मंसं रुहिरं विरवेइ, विरवित्ता, वत्थिपुडएणं वेढे, वाढत्ता सवंतीकरणेणं करेइ, करिता चेल्लणं देविं उपिपासाए अवलोयणकुमार बोले- हे तात ! आप आर्तध्यानको छोडें, मैं शीघ्र ऐसा उपाय करूँगा जिससे मेरी माताका दोहद ( दोहला ) पूर्ण होजाय । इस तरह विनययुक्त मधुर वचनोंसे अपने पिताका मन सतुष्ट करके अभयकुमार अपने महल आये । महल आकर उनने अपने गुप्त पुरुषोंको बुलाये और कहा कि - हे देवानुप्रियो ! तुम लोग अमारि - घोषणा की सीमाके बाहर के बंधस्थान से बस्तिपुट के साथ गीला मांस लाओ । इसके बाद उन राजपुरुषोंने उनकी आज्ञाका यथावत् पालन किया ॥३०॥ આર્તધ્યાન છેડા, હું જલદી એવો ઉપાય કરીશ કે જેથી મારી માતાના દોષદ પૂર્ણ था शे. આ પ્રમાણે નિનચ વાળાં મધુર વચનેાથી પોતાના પિતાનું મન સંતુષ્ટ પમાડી અભયકુમાર પેાતાને મહેલ ગયા. ત્યાં આવીને તેણે અંગત ગુપ્ત પુરૂષાને ખાલાવીને કહ્યું કે—હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે લેાકેા અમારિઘાષણા કરેલી સીમા (રાજ્યની અમુક સીમાની અંદર હિંસા ન કરવી એવી ઘાષણા–જાહેરાતવાળી જગ્યા) શ્રી ખહાર કસાઈખાનામાંથી ખસ્તીપુટ સાથે લીલું (તાજી) માંસ લઈ આવા. ત્યાર પછી તે રાજપુરૂષાએ તેમની આજ્ઞાનું કહ્યા પ્રમાણે પાલન કર્યું (૩૦) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेलना रानीका दोहद १२७ वरगयं ठवावेs, ठवावित्ता चेल्लणाए देवीए अहे सपक्खं सपडिदिर्सि सेणियं रायं सयणिज्जंसि उत्ताणगं निवज्जावेइ, सेणियस्स रन्नो उदरवलिमसाई कप्पणीकप्पियाई करेइ, करिता से य भायणंसि पक्खिवति । तणं से सेणिए राया अलियमुच्छियं करेड़ करिता मुहुत्तंतरेणं अन्नमन्नेणं सद्धिं संलवमाणे चिट्ठर । तणं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो उदरवलिमंसाई गिuts, गिव्हित्ता जेणेव वेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता चेल्लणाए देवीए उबणे । तणं सा चेल्लमा देवी सेणियस्स रनो तेहिं उदरवलिमंसेहिं सोल्लेहिं जा दोहलं विus | तणं सा चेल्लणा देवी संपुण्णदोहला एवं संमाणियदोहला विच्छिन्नदोहला तं गन्धं सुहं सुहेणं परिवहइ ॥ ३१ ॥ छाया ततः खलु सः अभयः कुमारस्तभाई मासं रुधिरं कल्पनीकल्पितं करोति, कृत्वा यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रेणिकं राजानं रहसितं शयनीये उत्तानकं निषादयति, निषाद्य श्रेणिकस्योदरवलिषु तदा मांस रुधिरं विरावयति, विराव्य, बस्तिपुटकेन वेष्टयति, वेष्टयित्वा स्रवन्तीकरणेन करोति कृत्वा चेल्लनां देवीमुपरिप्रासादे अवलोकनवरगतां स्थापयति, स्थापयित्वा चेल्लनाया देव्या अधः सपक्षं सप्रतिदिक् श्रेणिकं राजानं शयनीये उत्तानकं निषादयति, श्रेणिकस्य राज्ञ उदरवलिमांसानि कल्पनीकल्पितानि करोति, कृत्वा तच्च भाजने प्रक्षिपति । ततः खलु स श्रेणिको राजा अलीकमूर्च्छा करोति, कृत्वा मुहूर्तान्वरेण अन्योऽन्येन सार्द्धं संलपन् तिष्ठति । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ निरयावलिका सूत्र ततः खलु सः अभयकुमारः श्रेणिकस्य राज्ञः उदरवलिमांसानि गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेल्लनाया देव्या उपनयति । ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकस्य राज्ञस्तैरुदरवलिमांसैः शूलैविद् दोहदं विनयति । ततः खलु सा चेल्लना देवी सम्पूर्णदोहदा एवं संमानितदोहदा विच्छिन्नदोहदा तं गर्भ सुखं-मुखेन परिवहति ॥ ३१ ॥ टीका'तएणं से' इत्यादि-ततः तदनन्तरं सः अभयः कुमारः तद्-उपनीतम्-आर्द्रम् मांसं रुधिरं कल्पनीकल्पितं-कल्पनी कर्तरिका ‘कतरणी' इति भाषायाम् , तया कल्पितं कर्तितं करोति, कल्पशब्दोऽत्र छेदनार्थकः, उक्तश्च–'सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे च, कल्प-शब्दं विदुर्बुधाः ॥१॥' कृता यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रेणिकं राजानं रहसिगतम्-एकान्तेस्थितं शयनीये-शय्यायाम् उत्तानकं-उत्तानं निषादयति शाययति, निषाद्य-शाययिता श्रेणिकस्योदरवलिषु-उदरभागेषु तद्-उपनीतम् आई मासं रुधिरं च विरावयति-धातूनामनेकार्थवादुपसर्गबलाद्वा स्थापय 'तएणं से' इत्यादि उसके बाद अभयकुमारने एकान्त स्थानमें राजाको सीधा सुलाकर उनके पेटपर उस मांस-लोथडेको रक्खा, फिर उसे बस्तिचर्मसे बांधा, वह ऐसा प्रतीत - 'तएणं से' त्याहि. પછી અભયકુમારે એકાંત સ્થાનમાં રાજાને સીધા (ચીતા) સુવડાવી તેના પિટ ઉપર તે માંસના લેથ ને રાખે પછી તેને બસ્તીચર્મથી બાળે. તે એવું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानीका दोहद १२९ तीत्यर्थः, विराव्य = स्थापयित्वा बस्तिपुटकेन वेष्टयति, वेष्टयित्वा स्रवन्तीकरणेन करोति = स्यन्दमानीकरोति, कृत्वा उपरि प्रासादे चेल्लनां देवीम् अवलोकनवरगताम्–सम्यनिरीक्षणपरां स्थापयति, यथा सा सम्यग् द्रष्टुं शक्नुयात्तथा प्रासादो पर्युपवेशयति, स्थापयित्वा, वेल्लनाया देव्या अधः-नीचैः सपक्षं = समानवामदक्षिणपार्श्व सप्रतिदिक् = समानप्रतिदिग्भागं सर्वथा चेल्लनासंमुखं यथा स्यात्तथा श्रेणिकं राजानं शयनीये उत्तानकं निषादयति- किञ्चिदन्धकारावृतप्रदेशे शाययति । श्रेणिकस्य राज्ञ उदरवलिमांसानि कल्पनीकल्पितानि - शस्त्रकर्तितानीव करोति, कृत्वा तच्च - मांसं रुधिरं च भाजने प्रक्षिपति निदधाति । ततः खलु स श्रेणिकं राजा अलीकमूर्च्छा-कपटम्रच्छ करोति, कृत्वा मुहूर्तान्तरेण अन्योऽन्येन = परस्परेण सार्द्धं संलपन् = वार्तालापं कुर्वन् तिष्ठति । होता था जैसे उससे रक्त झरता हो । तत्पश्चात् रानीको ऊपर - महलमें बुलवाई और उस दृश्यको देख सके ऐसे योग्य सुविधाजनक स्थानपर बैठाई। बाद राजाको जिसे रानी ठीक तरहसे देख सके ऐसे तथा कुछ अन्धकारवाले स्थानपर सुलाया, फिर राजाके पेटपर बँधे हुए उस मांसको कतरनी ( कैंची ) से काट-काटकर बर्तन में रख दिया, कुछ देर तक राजा झूठी मूर्छामें पडे रहे, और बाद आपसमें बात-चीत करने लगे । લાગતું હતું કે જાણે તેમાંથી લાહી ઝરતું હાય. ત્યાર પછી રાણીને ઉપર–મહેલમાં ખેલાવી તથા તે આ દેખાવ જોઇ શકે એવાં યાગ્ય સુવિધાજનક સ્થાને બેસાડી. પછી રાજાને જેમ રાણી ખરાખર જોઇ શકે તેવા અને ઘેાડા અંધકારવાળા સ્થાને સુવાડયા. પછી રાજાના પેટ ઉપર માંધેલાં તે માંસ કાતરથી કાપીકાપીને વાસણમાં રાખી દીધું. ઘેાડા વખત સુધી રાજા ખેાટી મૂર્છામાં પડયા રહ્યા અને પછી આપસમાં વાત કરવા લાગ્યા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० निरयावलिका सूत्र ततः स खलु अभयकुमारः श्रेणिकस्य राज्ञः उदरवलिमांसानि गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति; उपागत्य च चेल्लनाया देव्याः उपनयति-समीपे स्थापयति । ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकस्य राज्ञस्तैरुदरवलिमासैः शूलैः= पक्वैः, यावद् दोहदं विनयति पूरयति । ततः खल सा चेल्लना देवी सम्पूर्णदोहदा सम्पूर्णमनोरथा एवं सम्मानितदोहदा-आदृतदोहदा, विच्छिन्नदोहदा इष्टवस्तुमाप्त्याऽन्यवस्त्वभिलाषरहिता तं गर्भ सुखं सुखेन परिवहति-धारयति ॥ ३१॥ मूलम्तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे जाव समुपजित्था, जइ ताव इमेणं दारएणं गब्भगएणं चेव पिउणो उदरवलिमंसाणि खाइयाणि तं सेयं खलु मम एवं गभं साडित्तए वा गालित्तए वा विद्धंसित्तए वा, एवं संपेहेइ संपेहित्ता तं गम्भ बहूहिं गब्भसाडणेहि य गब्भपाडणेहि य गभगालणेहि य गब्भविद्धंसणेहि य इच्छइ साडित्तए वा पाडित्तए वा गालित्तए वा विद्धंसित्तए वा, नो चेव णं से गन्भे सडइ वा पडइ वा गलइ वा विद्धंसइ वा ॥३२॥ छायाततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्र इस प्रकार अभयकुमारने रानीका दोहद पूरा किया। रानी अपने दोहदके पूर्ण होनेपर सुखपूर्वक गर्भको धारण करने लगी ॥३१॥ આવી રીતે અભયકુમારે રાણીને દેહદ (ઈચ્છા) પુરો કર્યો. રાણી પિતાને દેહદ પુરે થવાથી ગર્ભ ધારણ કરતી સુખ પૂર્વક રહેવા લાગી. (૩૧) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना रानीके विचार कालसमये अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यत-यदि तावत् अनेन दारकेण गर्भगतेन चैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि तत् श्रेयः खलु मम एतं गर्भ शातयितुं वा पातयितुं वा गालयितुं वा विध्वंसयितुं वा । एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य तं गर्भ बहुभिर्गर्भशातनैश्च गर्भपातनैश्च गर्भगालनैश्च गर्भविध्वंसनैश्च इच्छति शातयितुं वा पातयितुं वा गालयितुं वा विध्वंसयितुं वा, नो चैव खलु स गर्भः शीर्यते वा पतति वा गलति वा विध्वंसते वा ॥३२॥ टीका'तएणं तीसे' इत्यादि-ततः तदनन्तरम् शातयितुम् औषधैर्विशीर्णयितुं, पातयितुं गर्भाशयादहिष्कर्तुम् , गालयितुं रुधिरादिरूपं कर्तुम्, विध्वंसयितुं= सर्वथा नाशयितुम् , एवम् उक्तमकारेण संमेक्षते-विचारयति, अन्यत् सर्व सुबोधम् ॥ ३२॥ 'तएणं तीसे' इत्यादि एक समय रानी रातको सोचने लगी कि इस बालकने गर्भ में आते ही अपने पिताके कलेजेका मांस खाया, इस लिये मुझे उचित है कि इस गर्भको सडानेके लिए, गिरानेके लिए, गलानेके लिए और विध्वंस करनेके लिए कुछ उपाय करूं। ऐसा विचारकर रानीने औषधि आदिके द्वारा वैसा ही उपाय किया, परन्तु वह गर्भ न सड सका, न गिर सका न गल सका और न उसका किसी प्रकार नाश हो सका ॥ ३२ ॥ 'तएणं तीसे' त्यादि એક સમય રાણી રાતમાં વિચાર કરવા લાગી કે આ બાળકે ગર્ભમાં આવતાં જ પોતાના બાપનાં કલેજાનું માંસ ખાધું આથી મારે માટે ચગ્ય છે કે આ ગર્ભને સડાવવા માટે–પાડી નાખવા માટે–ગાળવા માટે અને નાશ કરવા માટે કાંઈ ઉપાય કરૂં એવા વિચાર કરી રાણીએ એષધી આદિથી એવાજ ઉપાય કર્યા. પરંતુ તે ગર્ભ ન સડ, ન પડે, ન ગળ્યો કે ન કોઈ પ્રકારે તેને નાશ થઈ શક્યું. (૩૨) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ निरयावलका सूत्र मूलम् — तर णं सा चेल्लणा देवी तं गब्भं जाहे नो संचाएइ बहूहिं गब्भसाडणेहि य जाव गन्भविद्धंसणेहि य साडित्तए वा जाव विद्धंसित्तए वा, ताहे संता तंता परितंता निव्विन्ना समाणा अकामिया अवसवसा अट्टवसट्टदुट्टा तं गब्भं परिवहइ । तणं सा चेल्लणा देवी नवहं मासाणं बहुपडि पुण्णाणं जाव सोमालं सुरूवं दारयं पयाया ॥ ३३ ॥ छाया ततः खलु सा चेल्लना देवी तं गर्भं यदा नो शक्नोति बहुभिर्गर्भशातनैश्च यावद् गर्भविध्वंसनैश्च शातयितुं वा यावद् विध्वंसयितुं वा तदा शान्ता तान्ता परितान्ता निर्विण्णा सती अकामिका अपस्ववशा आर्तवशातदुःखार्ता तं गर्भं परिवहति । ततः खलु सा चेल्लना देवी नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु यावत् सुकुमारं सुरूपं दारकं प्रजाता ॥ ३३ ॥ टीका सा ' तरणं सा' इत्यादि - ततः गर्भविध्वंसनप्रयासवैफल्यानन्तरं चेल्लना देवी यदा तं गर्भ नाशयितुं नो शक्नोति तदा श्रान्ता - ग्लानिं प्राप्ता, ' तरणं सा' इत्यादि - बादमें रानी अपने प्रयासके विफल होनेके कारण ग्लानिको प्राप्त हुई, 'तणं सा' त्याहि. પછી રાણી પેાતાના પ્રમાસમાં નિષ્ફલ જવાથી અક્સાસ કરવા લાગી ખેદ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकजन्म १३३ तान्ता-खेदं प्राप्ता, परितान्ता-विशेषतः खिन्ना, निर्विण्णा अतिशयितखेदापना, अकामिका-स्वकार्यसम्पादनाऽसमर्थतया वाञ्छारहिता, अत एव अपस्ववभा= पराधीना आर्तवशार्तदुःखार्ता आविशम् आर्तध्यानवश्यताम् ऋता-गता (प्राप्ता) इति आर्तवशार्ता सा चासौ दुःखेनार्ता-सा तथा-आर्तध्यानविक्शीभूता दुःखिता सती तं गर्भ परिवहति । ततः खलु सा चेल्लना देवी नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु यावत् सुकुमारं सुरूपं दारकं पुत्रं प्रजाता-जनितवती ॥ ३३॥ मूलम्तएणं तीसे चेल्लणाए देवीए इमे एयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-जइ ताव इमेणं दारएणं गब्भगएणं चेव पिउणो उदरवलिमसाई खाइयाई, तं न नज्जइ णं एसदारए संवड्डमाणे अम्हं कुलस्स अंतकरे भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं एवं दारगं उकुरुडियाए, उज्झावित्तए एवं संपेहेइ, संपेहित्ता दासचेडिं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिए ! एयं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि । तए णं सा दासचेडी चेल्लणाए देवीए एवं वुत्ता समाणी करयल० जाव कटु चेल्लणाए देवीए एयमद्वं विणएणं पडिमुणेइ, पडिसुणित्ता तं खेदको प्राप्त हुई, अपने इच्छित कार्यके विफल होनेसे असमर्थ हुई और आर्तध्यान वश दुःखी होकर गर्भका पालन करने लगी, और फिर नौ मास बीतनेपर सुकुमार एवं सुन्दर पुत्रको जन्म दिया ॥ ३३ ॥ યુક્ત થઈ અને ધારેલું કાર્ય આમ વિફલ થવાથી પોતે અસમર્થ થઈ અને આર્તધ્યાનવશ દુઃખી થઈને ગર્ભનું પાલન કરવા લાગી. તથા નવ માસ વીત્યા ५७ी सुभार भने सुंदर पुत्रने म माथ्या. (33) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ निरयावलिका सूत्र दारगं करतलपुडेणं गिण्हइ गिण्हित्ता, जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं दारगं एगंते उकुरुडियाए उज्झाइ । तए णं तेणं दारएणं एगते उकुरुडियाए उज्झितेणं समाणेणं सा असोगवणिया उज्जोविया यावि होत्था । तएणं से सेणिए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता, तं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झियं पासेइ, पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तं दारगं करतलपुडेणं गिण्हइ गिण्हित्ता, जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेल्लणं देविं उच्चावयाहिं आओसणाहिं, आओसइ आओसित्ता उच्चावयाहिं निभच्छणाहिं निब्भच्छेइ, निभच्छित्ता एवं उद्धंसणाहिं उद्धंसेइ, उद्धंसित्ता एवं वयासी-किस्स णं तुमं मम पुत्तं एगंते उकुरुडियाए उज्मावेसि ? त्तिक? चेल्लणं देविं उच्चावयसवहसावियं करेइ करित्ता, एवं वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिए ! एयं दारगं अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवड्डेहि । तएणं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी लज्जिया विलिया विड्डा करयलपरिग्गहियं० सेणियस्स रन्नो विणएणं एयमहं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता, तं दारय अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संव? ॥३४॥ छायाततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यतयदि तावद् अनेन दारकेण गर्भगतेन चैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि तन्न ज्ञायते खलु एष दारकः संवर्द्धमानः अस्माकं कुलस्यान्तकरो भविष्यति तच्छ्रेयः खलु अस्माकम् एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितुम्, एवं શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लनाको श्रेणिकका उपालम्भ १३५ संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य दासचेटी शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं देवानुप्रिये ! एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ । ततः खलु सा दासचेटी चेल्लनया देव्या एवमुक्ता सती करतल० यावत् कृत्वा चेल्लनाया देव्या एनमर्थं विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झति । ततः खलु तेन दारकेण एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितेन सता साऽशोकवनिका उद्योतिता चाप्यभवत् । ततः खलु स श्रेणिको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितं पश्यति, दृष्ट्वा आशुरक्तः यावत् मिसिमिसीकुर्वन् तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेल्लनां देवीमुच्चावचाभिराक्रोशनाभिराक्रोशति, आक्रुश्य उच्चावचाभिनिर्भर्त्सनाभिनियिति, निर्भय, एवमुद्धर्षणाभिरुद्धर्षयति, उद्धर्थ्य एवमवादी-किमर्थं खलु त्वं मम पुत्रमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झयसि ? इति कृत्वा चेल्लनां देवीमुच्चावचशपथशापितां करोति, कृत्वा एवमवादीतू-त्वं खलु देवानुपिये! एनं दारकमनुपूर्वेण संरक्षन्ती, संगोपयन्ती संवर्द्रय । ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकेन राज्ञा एवमुक्ता सती लजिता वीडिता विड्डा करतलपरिगृहीतं० श्रेणिकस्य राज्ञो विनयेन एतमर्थ प्रतिश्रृणोति, प्रतिश्रुत्य तं दारकमनुपूर्वेण संरक्षन्ती संगोपयन्ती संवर्धयति ॥ ३६॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ निरयावलिका सूत्र टीका'तएणं तीसे' इत्यादि-ततः-तत्पश्चात् पुत्रजन्मानन्तरं तस्याः चेल्लनाया देव्या अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणलक्षणः यावत् पदेन "अज्झथिए, चिंतिए, पत्थिए, कप्पिए, मणोगए संकप्पे" एतेषां संग्रहः । एतेषां व्याख्या पायुक्ता, समुदपद्यत-जातः-यदि तावत् अनेन दारकेण-पुत्रेण गर्भगतेनैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि, मया तन्न ज्ञायते खलु एष दारकः संवर्द्धमानः=वृद्धि प्राप्तः सन् प्रौढावस्थायाम् अस्माकं कुलस्य-वंशस्य अन्तकरः नाशको भविष्यति तत्-तस्मात्कारणात् खलु-निश्चयेन एकान्ते-निर्जने स्थले एनं दारकम् उत्कुरुटिकायां-कचवरपुञ्जस्थाने 'उकरडी' इति माषायाम् उज्झितुं त्यक्तुमस्माकं श्रेयः कल्याणकारकम् । 'तएणं तीसे' इत्यादि बाद रानीके मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि इस बालकने गर्भमें आते ही पिताकी उदरवलिका मांस खाया। यदि यह बडा होकर समर्थ बनेगा तो न जाने हमारे वंशका किस प्रकार नाश करेगा ? इस लिये उचित है कि इसे एकान्त स्थान जहाँ कोई न देख सके ऐसी उकरडीपर फिकवा हूँ। 'तएणं तीसे' त्यादि. પછી રાણીના મનમાં એવો વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે આ બાળકે ગર્ભમાં આવતાં જ બાપની ઉદરવલીનું માંસ ખાધું જે મેટ થતાં સમર્થ બનશે તે ન જાણે અમારા વંશને કયા પ્રકારે નાશ કરશે. આથી મને ઉચિત છે કે આને એકાંત સ્થાન જયાં કોઈ જોઈ ન શકે એવા ઉકરડા ઉપર ફેંકાવી દે. એ પિતાના મનમાં વિચાર કરી દાસીને બેલાવી, અને તેને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે! આને સંતાડીને લઈ જા અને એકાંત ઉકરડે નાખી દે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेलनाको श्रेणिकका उपालम्भ १३७ एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते = विचारयति, संप्रेक्ष्य दासचेटीं शब्दयति- आहयति शब्दयिता एवम् = वक्ष्यमाणम् अवादीत् - हे देवानुमिये ! त्वं खलु गच्छ एनं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ = प्रक्षिप | ततः = चेल्लनया देव्यैवमुक्ता सती सा दासचेटी 'तथास्तु' इति - कृत्खा करतलपरिगृहीतमञ्जलिपुटं मस्तके कृला - निधाय चेलनाया देव्या एनम्-अर्थम् = निदेशम् विनयेन प्रतिशृणोति = स्वीकरोति प्रतिश्रुत्य तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव अशोकवनिका - अशोकवाटिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झति - प्रक्षिपति । ततः खलु तेन दारकेण एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितेन सता साऽशोकवनिका उद्योतिता - प्रकाशिता चाऽप्यभवत् । ततः = दारकप्रक्षेपणानन्तरं स श्रेणिको राजा अस्याः कथायाः = दारकप्रक्षेपणवृत्तान्तस्य लब्धार्थ :- ज्ञातसमाचारः सन् यत्रैवाशोकवनिका तत्रैवो ऐसा अपने मनमें विचारकर दासीको बुलवाया और उससे कहा - हे देवानुप्रिये ! इसको छिपाकर लेजा और एकान्त उकरडीपर डाल आ । इस तरह चेलना रानीकी आज्ञा पाकर दासीने उस बालकको हाथोंसे उठाया और अशोकवाटिकामें जाकर एकान्त स्थानमें उकरडीपर डाल दिया । वह बालक बडा तेजस्वी था इस कारण उससे अशोकवाटिका प्रकाशयुक्त हो गयी | पश्चात् राजा श्रेणिकको किसी तरह विदित हुआ कि रानी चेल्लनाने जन्मते આવી રીતે ચેલના રાણીની આજ્ઞા થતાં દાસીએ તે બાળકને હાથ વડે ઉપાડીને અશોકવાટિકામાં જઈને એકાંત સ્થાનમાં ઉકરડે ફ્રેંકી દીધા. તે બાળક બહુ તેજસ્વી હતા આ કારણે તેનાથી અશાક-વાટિકા પ્રકાશયુક્ત ખની ગઈ. પછી રાજા શ્રેણિકના જાણવામાં કોઈ રીતે આવ્યું કે રાણી ચેલનાએ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ___निरयावलिका सूत्र पागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितं पश्यति, दृष्ट्वा च-आशुरक्तः आशु-शीघं रक्तः कोपेनाऽरुणनयनः यावत् मिसिमिसन-क्रोधज्वालया ज्वलन् सन् तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति गृहीता यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चेल्लनां देवीम् उच्चावचाभिः नानामकारामिः आक्रोशनाभिः मानसिककोपैः आक्रोति तिरस्कारपूर्वक क्रुध्यति, आक्रुश्य= पकुष्य उच्चावचाभिः नानाविधाभिः भर्त्सनाभिः=दुर्वचनापमानैः निर्भत्सयति= परुषवचनैरपमानयति, निर्भय एवम् अनेन प्रकारेण उद्धर्षणाभिः तर्जन्यादिदर्शनपूर्वकतिरस्कारैः, उद्धर्षयति-तिरस्करोति, उद्धय एवम् अनुपदवक्ष्यमाणम् अवादी-हे देवि ! त्वं किमर्थ खलु मम पुत्रमेकान्ते उत्कुरुटिकायां दासचेट्या समुज्झयसि ?, इति कृखा-उक्तरीत्या आक्रोशनादिकं विधाय बालक ( नवजात शिशु )को कहीं फिकवा दिया है, तब राजा ढूंढते हुए अचानक अशोकवाटिकामें आये और उकरडीपर पड़े हुए बालकको देखा। उसे देखकर राजा उसी समय बडे क्रुद्ध हुए और क्रोधसे जलते हुए वे उस बालकको हाथमें लेकर चेलना रानीके पास पहुँचे, और अनेक प्रकारके आक्रोश शब्दोंसे रानीका तिरस्कार किया, अनेक प्रकारके कठोर शब्दोंसे भर्त्सना की, तर्जनी आदि अंगुली दिखाकर बहुत अपमान किया और बोले हे रानी! किस लिये तूने मेरे इस बालकको दासी द्वारा उकरडीपर फिकवा दिया। इस तरह चेल्लना रानीको उलाहना જન્મતા (નવજાત શિશુ) બાળકને કયાંક ફેંકાવી દીધું છે ત્યારે રાજા પોતે તપાસ કરવા માટે ગયા-કમથી તપાસ કરતાં અશોકવાટિકામાં આવ્યા અને ઉકરડા ઉપર પડેલા બાળકને દીઠો. તેને જોઈને તેજ વખતે રાજા બહુ ગુસ્સે થયા અને ક્રોધમાં બળતાં થકા તેઓ તે બાળકને હાથમાં ઉપાડી લઈને ચેલના રાણીની પાસે પહોંચ્યા અને અનેક પ્રકારના આક્રોશ શબ્દોથી રાણીને તિરસ્કાર કર્યો. અનેક પ્રકારના કઠેર શબ્દોથી અનાદર કરી તર્જની આંગળી દેખાડી બહુ અપમાન કર્યું અને કહ્યું- હે રાણી ! શા માટે તે મારા આ બાળકને દાસી દ્વારા ઉકરડીએ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेल्लना को श्रेणिकका उपालम्म चेल्लनां देवीम् उच्चावचशपथशापितां नानाप्रकारकदेवगुरुधर्मादिशपथैः शापितां भतिज्ञापितां करोति, कुला, एवम् अमुना प्रकारेण अवादीहे देवानुपिये ! त्वम एनं दारकं अनुपूर्वेण-क्रमेण संरक्षन्ती आपद्भया, संगोपयन्ती-वस्त्राच्छादनगर्भगृहप्रवेशनादिभिः क्षेमं प्रापयन्ती सवर्द्धय स्तन्यपानादिना वृद्धि प्रापय । ततः श्रेणिकराजनिदेशानन्तरं 'खलुः । वाक्यालङ्कारार्थः, सा= श्रेणिकराजमहिषी 'चेल्लना' देवी श्रेणिकेन राज्ञा एवम् पूर्वोक्तमकारं प्रतिपालननिदेशम् उक्ता-निवेदिता सती 'लजिता, स्वतः, वीडिता परतः, विड्डा-उभयतो लज्जिता, देशी शब्दः, एते समानादेकर देव, गुरु, धर्म आदिकी शपथ देकर इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिये ! तुम इस बालककी आपत्तिसे रक्षा करो और वस्त्रसे ढाककर प्रसूतिगृहमें ले जाओ. जिस प्रकार यह सुखी रहे वैसा प्रयत्न करो और स्तनपान आदि कराकर इसका अच्छी तरह पालनपोषण करो। इस प्रकार राजाके कहनेपर रानी, अपने इस अकर्तव्यपर स्वतः लज्जित हुई, 'राजा मेरे इस अकर्तव्य कर्मसे अपने मनमें क्या समझे होंगे ?' ऐसा विचार कर राजासे लज्जित हुई, इस प्रकार रानी चेलना दोनों ही ओरसे बडी ही लज्जित हुई। ફેંકાવી દીધા. આવી રીતે ચેલના રાણીને ઠપકે આપી દેવ, ગુરૂ, ધર્મ આદિના સગંદ આપી–આપી આ પ્રમાણે છેલ્યા- હે દેવાનુપ્રિયે! તમે આ બાળકની આપત્તિથી રક્ષા કરે અને વસ્ત્રથી ઢાંકી પ્રસૂતિગૃહમાં લઈ જાઓ. જેવી રીતે આ સુખી રહે તેવા પ્રયત્ન કરે તથા સ્તન-પાન આદિ કરાવી તેનું સારી રીતે पासन-पोष। २. આ પ્રકારે રાજાના કહેવાથી રાણી પિતાના આ દુષ્કૃત્યથી સ્વત: લજિત થઈ, “રાજા મારા આ દુષ્કૃત્યથી પિતાનાં મનમાં શું સમજયા હશે” એમ વિચારીને રાજાથી લજા પામી, આ પ્રમાણે બન્ને પ્રકારે બહુ લજિજત થઈ. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका सूत्र १४० र्थकाः, यद्वा-' व्यलीके' ति छाया व्यलीका = पतिमतिकूलाचरणेन सापराधा करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त्त दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा श्रेणिकस्य राज्ञो= राजसम्बन्धिनम् एतम् - दारकपरिपालननिदेशरूपम् -अर्थम् = पुत्ररक्षणनिदेशं प्रतिश्रृणोति = स्वीकरोति, स्वीकृत्य तं दारकं = अनुपूर्वेण यथावत् संरक्षन्ती सगोपयन्ती संवर्द्धयति - पालनपोषणादिना वृद्धिं नयति ॥ ३४ ॥ मूलम् तए णं तस्स दारगस्स एगते उक्कुरुडियाए उज्झिमाणस्स अग्गं गुलियाए कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च अभिनिस्सवइ । तए णं से दारए वेयणाभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ । तरणं सेणिए राया तस्स दारगस्स आरसित - सहं सोचा निसम्म जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता तं दारगं करतलपुडेणं गिues गिण्हित्ता तं अग्गंगुलियं आसयंसि पक्खिवइ, पक्खिवित्ता पूयं च सोणियं च आसएणं आमुसइ । तर गं से दारए निव्वुए निव्वेयणे तुसिणीए संचिवइ । जाहे वि य णं से दारए वेयणाए अभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ ताहे वि य णं सेणिए राया जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, तं दारमं करतलपुडेणं गिues, तं चैव जाव निव्वेयणे तुसिणीए संचि । पतिके प्रतिकूल आचरणसे रानीको अतिशय खेद और पश्चात्ताप हुआ । बाद वह हाथ जोडकर सविनय पुत्रपालनरूप राजाकी आज्ञाको स्वीकार कर बालकका भलीभाँति पालन करने लगी ॥ ३४ ॥ પતિના વિરૂદ્ધ આચરણથી રાણીને અતિશય ખેદ અને પશ્ચાત્તાપ થયા બાદ હાથ જોડીને સવિનય પુત્રપાલન રૂપ રાજાની આજ્ઞાના સ્વીકાર કરી બાળકનું સારી રીતે पान रखा लागी. (३४) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिककी अङ्गुलोवेदना तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो तइए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति जाव संपत्ते बारसाहे दिवसे अयमेयारूवं मुनिप्पन्नं नामधिज्जं करेंति, जम्हाणं अम्हं इमस्स दारगस्स एगते उक्कुरुडियाए उज्झिज्जमाणस्स अंगुलिया कुक्कुडपिच्छरणं दूमिया, तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामवेज्जं 'कूणिए' । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज्जं करेंति 'कूणिय'त्ति ॥ ३५ ॥ छाया १४१ ततः खलु तस्य दारकस्य एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ्यमानस्याऽग्राङ्गुलिका कुक्कुट पिच्छकेन दूना चाऽप्यभूत्, अभीक्ष्णमभीक्ष्णं पूयं च शोणितं चाभिनिस्स्रवति । ततः खलु स दारको वेदनाभिभूतः सन् महता महता शब्देन आरसति । ततः खलु श्रेणिको राजा तस्य दारकस्याऽऽरसितशब्द श्रुत्वा निशम्य यत्रैव स दारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा तामग्राङ्गुलिकामास्ये प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य, पूयं च शोणितं चास्येन आमृशति । ततः खलु स दारको निर्वृतो निर्वेदनस्तूष्णीक: संतिष्ठते । यदापि च खलु स दारको वेदनयाऽभिभूतः सन् महता-महता शब्देन आरसति तदाऽपि च खलु श्रेणिको राजा यत्रैव स दारकस्तत्रैबोपागच्छति, उपागत्य तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, तदेव यावत् निर्वेदनस्तूष्णीकः संतिष्ठते । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર ततः खलु तस्य दारकस्याम्बापितरौ तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं कारयतः यावत् संप्राप्ते द्वादशाहे दिवसे इममेतद्रूपं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुतः, यस्मात् खलु अस्माकमस्य दारकस्य एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ्यमानस्याङ्गुलिका कुक्कुट पिच्छकेन दुमिता ( कूणिता ) तद् भवतु खलु अस्माकमस्य दारकस्य नामधेयं ' कूणिकः ' । ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ नामधेयं कुरुतः ' कूणिक : ' इति ॥ ३५ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ टीका ' तरणं तस्स ' इत्यादि - ततः = गृहसमानयनानन्तरं तस्य दारकस्य एकान्ते—उत्कुरुटिकायाम् उज्झ्यमानस्य अग्राङ्गुलिका कुक्कुटपिच्छकेन = पिच्छ एवं पिच्छकः चञ्चुः, कुक्कुटस्य पिच्छकः कुक्कुटपिच्छकः, तेन = कुक्कुट चञ्चुना, दूना - परितापिता दष्टेति यावदिति च अभूत् । तेनाङ्गुलितोऽभीक्ष्णमभीक्ष्णं पुनः पुनः पूयं - दूषित दुर्गन्धशोणितम्- 'पीप' - इति भाषायाम् - शोणितं रक्तं च अभिनिस्रवति । ततः तस्मात् - पूयशोणिताभिस्रावात् स दारको वेदनाभिभूतः तीब्रदुःखपीडितः सन् महता - महता - उच्चैरुचैः शब्देन चीत्कारेण आरसति-विलपति । ततः खलु श्रेणिको राजा तस्य दारकस्य आरसितशब्दम् = आर्तनादं श्रुत्वा निशम्य हृदयेनावधार्य यत्रैव स दारकस्तत्रैबोपागच्छति, उपागत्य तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा ताम् = कुक्कुट निश्यावलिका सूत्र " तणं तस्स ' इत्यादि — एकान्त उकरडीपर डाले हुए उस बालककी अंगुली के अग्रभागको कुक्कुट ( मुर्गे ) ने काट खाया जिससे उसकी अंगुली पक गयी और उससे बारबार रक्त और पीप बहने लगा, इससे उसको बडी वेदना होती थी और आर्तस्वरसे रुदन करता था । उसका आर्तनाद सुनकर राजा उसके पास आता था और बालकको उठाकर उसकी अंगुली अपने मुँह में लेकर झरते हुए शोणित और पीपको चूस २ 6 ayu aze' Seulle. એકાંત ઉકરડી ઉપર નાખી દીધેલ તે છેાકરાની આંગળીના આગલા ભાગને કુકડા કરડી ગયા જેથી તેની આંગળી પાકી ગઈ તથા તેમાંથી વારંવાર લેાહી અને પરૂ વહેવા લાગ્યું. આથી તેને બહુ વેદના થતી હતી અને આ સ્વરથી રૂદન કરતા હતા તેના આનાદ સાંભળી રાજા તેની પાસે આવતા અને માળકને ઉપાડીને તેની આંગળી પેાતાના માંમાં લઇને ઝરતાં લેાહી અને પને ચુસી ચુસીને ચુકી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकका नामकरण दष्टामग्रालिकाम् अङ्गुल्या अग्रभागम् आस्ये स्वमुख प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य-पूर्य शोणितं च आस्येन आमशति-चोषयति । ततः तस्माच्चोषणात् खल स दारको निवृतः शान्तः निर्वेदनः वेदनारहितः तूष्णीका-समौनः संतिष्ठते= आस्ते । एवं यदा यदा स आर्तस्वरेण रौति तदा तदा श्रेणिक एवमेव करोति । ____ ततः अर्जुलीपीडाशमनानन्तरं तस्य दारकस्य मातापितरौ तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं कारयतः यावत् सम्प्राप्ते द्वादशे दिवसे एतद्रूपं गुणनिष्पन्नं नामधेयं करुतः-यस्मात् खलु उत्कुरुटिकायां पतितस्यास्य दारकस्यालिका कुकुटपिच्छकेन दूमिता=पीडिताऽतः कूणिता-संकुचिता जाता तत्-तस्मात्का रणाद् भवतु अस्य दारकस्य नाम 'कूणिक ' इति, तदनु मातापितरौ तस्य दारकस्य नाम कुरुतः ‘कूणिक ' इति ॥ ३५ ॥ कर थूकता था, जिससे उस बालककी वेदना कम होती थी और वह चुप होजाता था । जब कभी भी वह बालक वेदनासे छटपटाने लगता था तभी राजा श्रेणिक आकर उसकी वेदना उसी प्रकारसे शान्त करता था। बाद माता पिताने तीसरे दिन उस बालकको चन्द्र सूर्यका दर्शन कराया। यावत् बारहवें दिन बडे उत्सवके साथ उस बालकका नाम रखते हुए बोले किउकरडीपर डाले हुए हमारे इस बालककी अंगुली मुर्गेके काट खानेसे कूणित-संकुचित होगई इस कारणसे इस बालकका गुण-निष्पन्न नाम 'कूणिक' रक्खा जाय, ऐसा सोचकर माता-पिताने उसका नाम 'कूणिक' रक्खा। ॥ ३५ ॥ નાખતું હતું જેથી તે બાળકની વેદના ઓછી થતી હતી. અને તે શાંત (રડતે બંધ) થઈ જતો હતો. જ્યારે જ્યારે તે બાળક વેદનાથી તડફડવા લાગે ત્યારે ત્યારે રાજા શ્રેણિક આવીને તેની વેદના તેજ રીતે શાંત કરતા હતા. બાદ માતા પિતાએ ત્રીજે દિવસે તે બાળકને ચંદ્ર સૂર્યનાં દર્શન કરાવ્યાં. પછી બારમે દિવસ મેટા ઉત્સવથી તે બાળકનું નામ પાડતાં બોલ્યા કે-ઉકરડો ઉપર નાખી દીધેલા અમારા આ બાલકની આંગળી કુકડાના કરડી ખાવાથી કુણિત (સંકુચિત) થઈ ગઈ તેથી આ બાળકનું ગુણનિષ્પન્ન (ગુણ દર્શાવતું) નામ 'णि 'राम नये. माg वियारी माता पिता तेनु नाम 'गुड' . (३५) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ निरयावलिका सूत्र - मूलम् छाया - तएणं तस्य कूणियस्स अणुपुव्वेणं ठिइवडियं च जहा मेहस्य जाव उप्पि पासायवरगए विहरइ, अट्टओ दाओ ॥३६॥ छाया___ ततः खलु तस्य कूणिकस्यानुपूर्वेण स्थितिपतित च यथा मेघस्य यावत् उपरि प्रासादवरगतो विहरति । अष्ट दायाः ३६ ॥ टीका'तएणं तस्स ' इत्यादि । ततः नामकरणानन्तरं तस्य कूणिकस्य अनुपूर्वेण अनुक्रमेण स्थितिपतितं-कुलक्रमागतम् उत्सवादिकम् यथा मेघस्य= मैघकुमारस्येव करोति यावत् अष्टाष्ट दायाः श्वशुरेण जामात्रे दीयमानाः पदार्थाः 'दहेज' इति भाषायाम् ॥ ३६ ॥ 'तएणं तस्स' इत्यादि नामकरणके बाद कूणिकका कुलपरम्परागत उत्सव-विवाहादि कार्य मेघ कुमारके समान हुए। श्वशुरकी ओरसे आठ-आठ दहेज वस्तुएं आयीं और श्रेष्ठ प्रासादपर पूर्वपुण्योपार्जित मनुष्यसम्बन्धी पाँचों इन्द्रियोंके सुखका अनुभव करने लगे ॥ ३६॥ 'तएणं तस्स' त्या. નામકરણ પછી કુણિકનાં કુલપરંપરાનુસાર ઉત્સવ-વિવાહ આદિ કાર્ય મેઘકુમાર સમાન થયાં. ધશુરના તરફથી આઠ-આઠ દહેજ વસ્તુ આવી અને ઉત્તમ મહેલમાં પૂર્વ પુયે પાર્જિત મનુષ્યસબંધી પાંચ ઇન્દ્રિયેના સુખનો અનુભવ ४२१॥ साया. (38) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका-श्रेणिक बन्धन १४५ मूलम् तणं तस्स कूणियस्स कुमारस्स अन्नया पुव्वरत्ता० जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु अहं सेणियस्स रन्नो वाघाएणं नो संचाएमि सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरित्तए, तं सेयं मम खलु सेणियं रायं निलयबंधणं करेत्ता अप्पाणं महया - महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावित्तए तिकट्टु एवं संपेहेर, संपेहित्ता सेणियस्स रन्नो अंतराणि य छिड्डाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे २ विहरइ । तणं से कूणिए कुमारे सेणियस्स रन्नो अंतरं वा जाव मम्मं वा अलभमाणे अन्नया कयाइ कालादीए दस कुमारे नियघरे सहावे, सदावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे सेणियस्स रनो वाघाएणं नो संचारमो सयमेव रज्जसिरिं करेमाणा पालेमाणा विहरित्तए, तं सेयं देवाणुपिया ! अम्हं सेणियं रायं नियलबंधणं करेत्ता रज्जं च रहुं च बलं च वाहणं च कोसंच कोट्ठागारं च जणवयं च एक्कारसभाए विरिचित्ता सयमेव रज्जसिरिं करेमाणाणं जाव विहरित्तए । तणं ते कालादीया दस कुमारा कूणियस्स कुमारस्स एयमद्वं विणणं पडिसुर्णेति । तरणं से कूणिए कुमारे अन्नया कयाइ सेणियस्स रनो अंतरं जाणाइ, जाणित्ता सेणिय रायं नियलबंधणं करेइ, करिता अप्पाणं महया - महया रायाभिसेएणं अभिसिंचाइ । तरणं से कूणिए कुमारे राया जाए महया० ॥ ३७ ॥ छाया ततः खलु तस्य कूणिकस्य कुमारस्य अन्यदा पूर्वरात्रा ० यावत्स - मुदपद्यत - एवं खलु अहं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन न शक्नोमि स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् विहर्तुं तच्छ्रेयो मम खलु श्रेणिकं राजानं निगड " શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ निरयावलिका सूत्र बन्धनं कृत्वा आत्मानं महता-महता राज्याभिषेकेणाभिषेचयितुम्, इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि च छिद्राणि च विरहान् च प्रतिजाग्रद् विहरति । ततः खलु स कूणिकः श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तरं वा यावत् मर्म वा अलभमानः अन्यदा कदाचित् कालादिकान् दश कुमारान् निजगृहे शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-एवं खलु देवानुप्रियाः ! वयं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन नो शक्नुमः स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन्तः पालयन्तो विहर्तुम्, तच्छ्रेयो देवानुप्रियाः ! अस्माकं श्रेणिकं राजानं निगडबन्धनं कृत्वा राज्यं च राष्ट्रं च बलं च वाहनं च कोशं च कोष्ठागारं च जनपदं च एकादशभागान् विभज्य स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वाणानां पालयतां यावद् विहर्तुम् । ____ततः खलु ते कालादिका दश कुमाराः कूणिकस्य कुमारस्यैतम) विनयेन प्रतिशृण्वन्ति । ततः खलु स कूणिकः कुमारः अन्यदा कदाचित् श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तरं जानाति, ज्ञात्वा श्रेणिकं राजानं निगडबन्धनं करोति, कृत्वा आत्मानं महता महता राज्याभिषेकेणाभिषेचयति । ततः खलु स कूणिकः कुमारो राजा जातो महा० ॥ ३७ ।। टीका'ततः खलु तस्ये ' त्यादि-अन्यदा तस्य कूणिक-कुमारस्य पूर्वरात्रा'तएणं तस्स' इत्यादिबाद एक समय कूणिककुमार रात्रिके पिछले पहरमें विचार करने लगे कि'तएणं तस्स ' Uत्या. પછી એક સમય પૂણિક કુમાર રાત્રિના પાછલા પહેરમાં વિચાર કરવા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ सुन्दरबोधिनी टीका श्रेणिकबन्धन पररात्रावसरे यावत् विचारो जातः-एवं खलु श्रेणिकभूपस्य व्याघातेन= प्रतिबन्धेन राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् स्वयमेव स्वतन्त्रः विहर्तु-विचरितुं अहं नो शक्नोमि तत्-तस्मात् कारणात् 'श्रेणिकराजस्य निगडबन्धनं कृत्वा विशालराज्याभिषेकेणात्मानमभिषेचयितुं मम श्रेयः' इति कृत्वा इति संकल्प विधाय एवम् अनेन प्रकारेण संप्रेक्षते-विचारयति, संपेक्ष्य श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि अवकाशान् छिद्राणि क्षणानि विरहान्-एकान्तानि च प्रतिश्रेणिक राजाका राज्यशासनरूप प्रतिबन्ध होनेके कारण मैं सुखपूर्वक राज्यलक्ष्मीका उपभोग नहीं कर सकता हूँ इस लिए मुझे उचित है कि इस श्रेणिक राजाको किसी तरह बन्धनमें डाल दूं और स्वयं राजा बनकर राज्यलक्ष्मीका उपभोग करूं । ऐसा विचार कर राजाका छिद्र देखने लगे। श्रेणिक राजाका कोई छिद्र, दूषण और मर्म हाथ नहीं आनेपर एक समय काल आदि दस कुमारोंको अपने धरमें बुलाकर सलाह करने लगे बोले कि हम लोग राजाके कारण ही राज्यश्रीका उपभोग नहीं कर सकते इस लिए किसी तरह राजाको बन्धनमें डालकर हम लोग राज्यराष्ट्र, सेना, वाहन, कोश, कोष्ठागार और स्वदेश इनके ग्यारह भाग करके स्वयं राज्यश्रीका उपभोग करें। इस बातको सभी कुमारोंने स्वीकार कर लिया। લાગ્યા કે શ્રેણિક રાજાનું રાજ્ય શાસનરૂપ પ્રતિબંધ હોવાના કારણે સુખ–પૂર્વક રાજ્યલકમીને ઉપભોગ હું કરી શકતો નથી. માટે મને ઉચિત છે કે આ શ્રેણિક રાજાને કઈ પણ રીતે બંધનમાં નાખી દઉં અને હું પોતે રાજા બનીને રાજ્ય લક્ષ્મીને ઉપભોગ કરૂં. એમ વિચાર કરી રાજાનાં છિદ્ર જેવા મંડ. શ્રેણિક રાજાનું કોઈ છિદ્ર દુષણ અને મર્મ હાથ ન આવવાથી એક સમય કાલ આદિ દશ કુમારને પિતાના ઘરમાં બેલાવી સલાહ કરવા લાગ્યું. કહ્યું કે આપણે રાજાના કારણથી જ રાજયશ્રીને ઉપગ કરી શક્તા નથી. આથી કોઈ પણ રીતે રાજાને બંધનમાં નાખી આપણે રાજ્ય, રાષ્ટ્ર, સેના, વાહન, ખજાને, કે ઠાર તથા દેશ એના અગીયાર ભાગ કરીને આપણે પોતેજ રાજ્યશ્રીને ઉપગ કરીએ. આ વાતને બધા કુમારેએ સ્વીકાર કરી લીધું. પછી એક સમય તક જોઈને કૃણિક શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ___निरयावलिकासूत्र जाग्रत् अन्वेषयन् विहरति । तदनु श्रेणिकभूपस्य मर्म-गुप्तत्रुटिं राज्य शासनं राज्यलक्ष्मी वा राष्ट्रं देशं बलं-सैन्यं वाहनं यानं रथादिकम् कोशं= भाण्डागारं, कोष्ठागारं-धान्यगई, जनपद-स्वदेशम्, अन्यत्सर्वे सुगमम् ॥३७॥ मूलम्तए णं से कणिए राया अन्नया कयाइ हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए चेलणाए देवीए पायवंदए हव्यमागच्छइ । तएणं से कूणिए राया चेल्लणं देविं ओहय० जाव झियायमाणिं पासइ, पासित्ता, चेलणाए देवीए पायग्गहणं करेइ, करित्ना चेलणं देवि एवं वयासी-किं णं अम्मो ! तुम्हं न तुही वा न ऊसए वा न हरिसे वा नाणंदे वा, ज णं अहं सयमेव रजसिरिं जाव विहरामि ? ॥ ३८॥ छाया ततः खलु स कूणिको राजा अन्यदा कदाचित् स्नातः यावत् सर्वालङ्कारविभूषितश्चेल्लनाया देव्याः पादवन्दको हव्यमागच्छति । ततः खलु स कूणिको राजा चेल्लनां देवीम् अपहत० यावद् ध्यायन्तीं पश्यति, दृष्ट्वा चेल्लनाया देव्याः यादग्रहणं करोति, कृला, चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-किं खलु अम्ब ! तब न तुष्टिा नोत्सवो वा न हर्षों वा नानन्दो वा ? यत्खलु अहं स्वयमेव राज्यश्रियं यावद् विहरामि ॥३८॥ बाद एक समय मौका पाकर कूणिकने राजा श्रेणिकको बन्धनमें डाल दिया और राज्याभिषेक कराकर अपने आप राजा बन गये ॥ ३७॥ રાજા શ્રેણિકને બંધનમાં નાખી દીધું અને રાજ્યાભિષેક કરાવી પોતે રાજા मन मा. (39) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिक को श्रेणिकका परिचय १४९ टीका 'तएणं से' इत्यादि-ततः राज्यमाप्त्यनन्तरं स कूणिको राजा जन्यदा कदाचित् कस्मिंश्चित्समये स्नातः यावत् सर्वालङ्कारविभूषितः चेल्लनाया देव्याः निजमातुः पादवन्दक: चरणौ वन्दितुं सहर्ष ससम्भ्रमं हव्यं= शीघ्रम् आगच्छति । ततः आगमनानन्तरं खलु-निश्चयेन स कूणिको राजा निजमावरं चेल्लनां देवीम् अपहतमनःसंकल्पां यावत् ध्यायन्तीम् आर्तध्यानं कुर्वन्ती पश्यति, दृष्ट्वा चेल्लनाया देव्याः पादग्रहणं करोति चरणौ वन्दते, कृता चरणवन्दनं विधाय चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-हे अम्ब ! किं खलु-किमर्थं तव न तुष्टिः=न सन्तोषः वा-अथवा नोत्सवान चितोल्लासः, वा न हर्षः= 'तएणं से' इत्यादि इसके अनन्तर एक दिन वह राजा कूणिक सभी प्रकारके वस्त्र ओर अलकारोंसे सज्जित होकर अपनी माता चेल्लना देवीके चरण वन्दनके लिये हर्ष एवं उत्सुकताके साथ जल्दी २ आये, और उन्होंने अपनी माताको दीन हीन अवस्थमें आर्तध्यान करती हुई देखा । वह आर्तध्यान करती हुई चेलना देवीको चरणवन्दन करके बोले-हे जननि ! मैं अपने तेज-प्रतापसे महाराज्याभिषेकके साथ इस 'तएणं से ईत्यादि ત્યાર પછી એક દિવસ તે રાજા કૃણિક તમામ પ્રકારના વસ્ત્ર અને અલંકારોથી સજિજત થઈ પિતાની માતા ચેલના દેવીના ચરણ-વંદન માટે હર્ષ અને ઉત્સુક્તાની સાથે જલદી-જલદી આવ્યું. અને તેણે પોતાની માતાને દીન હીન અવસ્થામાં આર્તધ્યાન કરતી જોઈ. તે આર્તધ્યાન કરતી ચેલ્લના દેવીનાં ચરણ વંદન કરીને બે-તે જનની ! હું પિતાના તેજ-પ્રતાપથી મહારાજ્યા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० निरयावलिका सूत्र न प्रमोदः, नानन्दः-न मुखम् , यदहं खलु स्वयमेव महता राज्याभिषेकेण विशालराज्यश्रियं कुर्वन्=पालयन् विहरामि-विचरामि ॥३८॥ मूलम् - तएणं सा चेल्लणा देवी कूणियं रायं एवं वयासी-कहणं पुत्ता ! ममं तुट्ठी वा उस्सए वा हरिसे वा आणंदे वा भविस्सइ ? जं गं तुम सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अच्चंतनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणं करित्ता अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावेसि । तएणं से कुणिए राया चेल्लणं देविं एवं वयासी-घाएउकामेणं अम्मो ! मम सेणिए राया, एवं मारेउं, बंधिउं, निच्छुभिउकामए णं अम्मो ! ममं सेणिए राया, तं कहणं अम्मो मम सेणिए राया अचंतनेहाणुरागरत्ते ?। तएणं सा चेल्लणा देवी कूणियं कुमारं एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! तुमंसि ममं गम्भे आभूए समाणे तिण्हं मासाणं बहुपडिपुनाणं ममं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-धनाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव अंगपडिचारियाओ निरवसेसं भाणियव्वं जाव जाहे वि य णं तुम वेयणाए अभिभूए महया जाव तुसिणीए संचिट्ठसि, एवं खलु तव पुत्चा ! सेणिए राया अञ्चंतनेहाणुरागरत्ते । विशाल राज्यश्रीका उपभोग करता हूं तो क्या इसे देखकर तुम्हे सन्तोष नहीं हो रहा है, तुम्हारे चित्तमें न उल्लास है, न प्रमोद है और न सुख ही, इसका क्या कारण है ? ॥ ३८ ॥ ભિષેકપૂર્વક આ વિશાલ રાજ્યશ્રીને ઉપયોગ કરી રહ્યો છું, તે શું આ જોઈને તને સંતેષ થતું નથી? તારા મનમાં નથી ઉલાસ, નથી પ્રમોદ કે નથી સુખ. આનું शुं २९॥ छ ? (3८) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका, श्रणिक मरण १५१ तरणं से कूणिए राया चेल्लणाए देवीए अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म चल्लणं देवं एवं वयासी दुहु णं अम्मो ! मए कयं, सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अचंतनेहाणुरागरत्तं निलयबंधणं करणं, तं गच्छामि णं सेणियस्स रन्नो सयमेव नियलाणि छिंदामि त्तिकट्टु परसुहत्थगए जेणेव चारगसाला तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं सेणिए राया कूणियं कुमारं परसुहत्थगयं एज्जमाणं पासर, पासिता एवं वयासी - एसणं कूणिए कुमारे अपत्थियपत्थिए जान सिरिहिरिपरिवज्जिए परसुहत्थगए इह हव्वमागच्छइ । तं न नज्जइ णं ममं केणइ कुमारेणं मारिस्सर - तिकट्टु भीए जाव संजायभए तालपुडगं विसं आससि पक्खिव । तणं से सेणिए राया तालपुडगविसे आसगंसि पक्खिते समाणे मुहुत्तरेणं परिणममाणंसि निप्पाणे निच्चिट्टे जीवविप्पजढे ओइने । तरणं से कूणिए कुमारे जेणेव चारगसाला तेणेव उवागए, सेणियं रायं निप्पाण निश्चिरं जीवविजढं ओइनं पासर, पासित्ता, महया पिइसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुनियत्ते विव चंपगवरपायवे वसति धरणियलंसि सव्वंगे हिं संनिवडिए । तपणं से कूणिए कुमारे मुहुत्तंतरेण आसत्थे समाणे रोयमाणे, कंदमाणे, सोयमाणे, विलवमाणे, एवं वयासी - अहो णं मए अधनेणं अपुनेणं अकयपुनेणं दुहुँ कयं सेणियं रायं वियं देवयं अचंतनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणं करंतेणं, मम मूलागं चेव णं सेणिए राया कालगए - जिंक ईसर - तलवर जाव संधिवाल - सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे ३ इड्ढि सकारसमुदपणं सेणियस्स रनो नीहरणं करेइ, करिता बहूई लोइयाई मयकिचाई करेइ । तणं से कूणिए कुमार एएणं महया मणोमाणसिंएणं दुक्खेणं भिए समाणे अभय कंयाई अतेरेपरियार समेडीगरणमा रायगिहार्थी पनि वाड निजिगर पा શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર 29 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ निरयावलिका सूत्र नयरी तेणेव उवागच्छइ । तत्थवि णं विउलभोगसमिइसमन्नागए कालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्था । तएणं से कुणिए राया अन्नया कयाइ कालादीए दसकुमारे सद्दा. वेइ, सद्दावित्ता, रजं च जाव जणवयं च एकारसभाए विरिंचइ, विरिचित्ता सयमेव रजसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरइ ॥ ३९ ॥ छायाततः खलु सा चेल्लना देवी कूणिकं राजानमेवमवादीत्-कथं खलु पुत्र ! मम तुष्टिा उत्सवो वा हर्षों वा आनन्दो वा भविष्यति यत्खलु त्वं श्रेणिकं राजानं प्रियं दैवतं गुरुजनकमत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कृता आत्मानं महता२ राज्याभिषेकेण अभिषेचयसि । ततः खलु स कूणिको राजा चेल्लनां देवीमेवमवादीत्घातयितुकामः खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजा, एवं मारयितुं, बन्धयितु, निःक्षोभयितुकामः खलु अम्ब ! भम श्रेणिको राजा, तत्कथं खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजाऽत्यन्तस्नेहानुरागरक्तः । ततः खलु सा चेल्लना देवी कूणिकं कुमारमेवमवादीत्-एवं खलु पुत्र ! बयि मम गर्भे आभूते सति त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु ममायमेतद्रूपो दोहदः प्रादुर्भूतः-धन्याः खलु ता अम्बाः यावत् अङ्गप्रतिचारिकाः, निरवशेष भणितव्यं यावत् यदापि च खलु त्वं वेदनयाऽभिभूतो महता यावत् तूष्णीका संतिष्ठसे, एवं खलु तव पुत्र ! श्रेणिको राजाऽत्यन्तस्नेहानुरागरक्तः। ततः खलु स कूणिको राजा चेल्लनाया देव्या अन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-दुष्ठु खलु अम्ब ! मया कृतं श्रेणिकं राजानं मियं दैवतं गुरुजनकमत्यन्तरनेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कुर्वता, तद् गच्छामि खलु श्रेणिकस्य राज्ञः स्वयमेव निगडानि छिनमि, इति कृत्वा परशुहस्तगतो यत्रैव चारकशाला तत्रैव प्रधारयति गमनाय । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकको श्रेणिकका परिचय ततः खलु श्रेणिको राजा कूणिकं कुमारं परशुहस्तगतमेजमानं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत् एष खलु कूणिकः कुमारः अमार्थितमार्थितो यावत् श्रीहूीपरिवर्जितः परशुहस्तगत इह हव्यमागच्छति, तन्न ज्ञायते खलु मां केनापि कुमारेण ( कुत्सितमारेण ) मारयिष्यतीति कृत्वा भीतो यावत् संजातभयस्तालपुटकं विषमास्ये प्रक्षिपति । १५३ ततः खलु स श्रेणिको राजा तालपुटकविषे आस्ये प्रक्षिप्ते सति मुहूर्त्तान्तरेण परिणम्यमाने निष्प्राणो निश्चेष्टो जीवविमत्यक्तोऽवतीर्णः । ततः खलु स कूणिकः कुमारो यत्रैव चारकशाला तत्रैवोपागतः, उपागत्य श्रेणिकं राजानं निष्प्राणं निश्रेष्टं जीवविमत्यक्तमवतीर्णं पश्यति, दृष्ट्वा महता पितृशोकेन आक्रान्तः सन् परशुनिकृत्त इव चम्पकवरपादपः 'घस' इति धरणीतले सर्वाङ्गः संनिपतितः । ततः खलु स कूणिकः कुमारो मुहूर्तान्तरेण आस्वस्थः सन् रुदन् क्रन्दन् शोचन विलपन् एवमवादीत् - अहो ! खलु मया अधन्येन अपुण्येन अकृतपुण्येन दुष्ठु कृतं श्रेणिकं राजानं प्रियं दैवतमत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कुर्वता, मम मूलकं चैव खलु श्रेणिको राजा कालगतः, इति कृत्वा ईश्वर - तलवर - यावत् - सन्धिपालैः सार्द्धं संपरिवृतो रुदन् ४ ( क्रन्दन् शोचन् विलपन् ) महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन श्रेणिकस्य राज्ञो नीहरणं करोति, कृत्वा बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति । ततः खलु स कूणिकः कुमार एतेन महता मनोमानसिकेन दुःखेनाभिभूतः सन् अन्यदा कदाचित् अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतः सभाण्डामत्रोपकरणमादाय राजगृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव चम्पा नगरी तत्रैवोपागच्छति । तत्रापि खलु कालेन अल्पशोको जातश्चाप्यभूत् । विपुलभोगसमितिसमन्वागतः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र ततः खलु स कूणिको राजा अन्यदा कदाचित् कालादिकान् दश कुमारान् शब्दयति, शब्दयिखा राज्यं च यावज्जनपदं च एकादश भागान विभजति, विभज्य स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् विहरति ॥ ३९॥ टीका'तएणं सा' इत्यादि । प्रियं-सर्वथा हितकारकम् । दैवतम् इष्टदेवताखरूपम् । गुरुजनकम्-गुरुजनवत् परमोपकारकम् । अत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं= विलक्षणप्रेमरागरञ्जितम् । प्रधारयति-निश्चिनोति गमनाय, गन्तुमुद्यत इत्यर्थः । अवतीर्णः-मनुष्यायुः समाप्तवान् । विपुलभोगसमितिसमन्वागतः विपुलभोगानां समितिः-प्रवृत्तिः, तत्र समन्वागतः समनुपाप्तः विपुलभोगान् भुञ्जानः कालेन-कियता कालेन विगतशोकोऽप्यभवत् । शेषं सुगमम् । 'तएणं सा' इत्यादि कूणिकके ऐसे वचन सुनकर रानी चेल्लनाने राजा कूणिकको इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया-हे पुत्र ! तुम्हारे इस राज्याभिषेकसे मुझे सन्तोष, अथवा चित्तमें उल्लास, प्रमोद एवं सुख किस प्रकार हो ? जब कि तुम अत्यन्त स्नेह और अनुरागसे युक्त, देव गुरुजन सदृश अपने पिता, प्रिय राजा श्रेणिकको बन्धनमें डालकर विशाल राज्य सुखका उपभोग करते हो।। 'तएणं सा' त्याल કુણિકનાં એવાં વચન સાંભળીને રાણી ચેલ્લનાએ રાજા કૃણિકને આવી રીતે કહેવું શરૂ કર્યું–હે પુત્ર ! તારા આ રાજ્યાભિષેકથી મને સંતોષ અથવા મનમાં ઉલાસ, પ્રમોદ એટલે સુખ કેવી રીતે થાય? કેમકે તે અત્યંત નેહ તથા અનુરાગયુક્ત દેવ અને ગુરૂજન સમાન પિતાના પિતા પ્રિય રાજા શ્રેણિકને બંધનમાં નાખી આ વિશાલ રાજ્ય સુખને ઉપભોગ કરે છે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिकको श्रेणिकका परिचय १५५ यह सुनकर राजा कूणिकने चेल्लना देवीसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया -हे माता ! यह राजा श्रेणिक जो मेरी घात चाहनेवाला है एवं मेरा मरण और बन्धन चाहनेवाला है तथा मेरे मनको दुःख देनेवाला है वह मुझपर अत्यन्त स्नेह और अनुरागसे अनुरक्त कैसे हो सकता है ? कूणिकके इस प्रकार कहनेपर चेल्लना देवीने उससे कहा-हे पुत्र ! सुन-जब तू मेरे गर्भमें आया उसके तीन महीने पूर्ण होते मुझे इस प्रकारका दोहद ( दोहला ) उत्पन्न हुआ कि __" वे माताएँ धन्य हैं जो अपने पतिके उदरवलिमांसको तल-भूनकर मदिराके साथ खाती हुई यावत् अपने दोहद ( दोहला )को पूर्ण करती हैं। मैं भी यदि राजा श्रेणिकके उदरवलिका मांस खाऊँ तो बडा अच्छा हो।" इस प्रकार दोहद होनेपर मैं दिन-रात आर्तध्यान करने लगी और दोहदके पूरे न होनेके આ સાંભળી રાજા કૃણિકે ચેલના દેવીને આ પ્રમાણે કહેવા માંડયું–છે માતા ! આ રાજા શ્રેણિક જે મારો ઘાત ચાહે છે અને મારું મરણ તથા બંધન ચાહવાવાળે છે તથા મારા મનને દુઃખ દેનારો છે. તે મારા ઉપર અત્યંત નેહ તથા અનુરાગથી અનુરક્ત કેમ હોઈ શકે? કુણિકના આ પ્રકારે કહેવાથી ચેલના દેવીએ તેને કહ્યું – હે પુત્ર! સાંભળ-જ્યારે તું મારા ગર્ભમાં આવ્યું ત્યારથી ત્રણ મહિના પૂરા થતાં મને એવી જાતને દેહદ (તીવ્ર ઈચ્છા) ઉત્પન્ન થયે કે— તે માતાને ધન્ય છે કે જે પિતાના પતિના ઉદરવલિ માંસને તળી ભંજીને માદરાની સાથે ખાતાં પિતાને દેહદ સંપૂર્ણ રીતે પૂરો કરે છે. હું પણ જે રાજા શ્રેણિકનું ઉદરવલિનું માંસ ખાઉં તે બહુ સારું થાય ” આ પ્રકારનો દેહદ થવાથી હું દિન-રાત આર્તધ્યાન કરવા લાગી અને દાહદ પૂરો ન થવાથી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ निरयावलिका सूत्र कारण सूखकर पीली पड गई। जब तुम्हारे पिताको यह खबर दासियों द्वारा ज्ञात हुई तो उन्होंने मुझसे मेरे दोहदका वृत्तान्त सुनकर अभयकुमार द्वारा उसकी पूर्ति की। दोहद ( दोहला ) पूर्ण होनेके बाद मैंने विचार किया कि इस बालकने गर्भ में आते ही अपने पिताका मांस खाया तो जन्म लेकर न जाने क्या करेगा ? इस लिए इस गर्भको किसी भी उपायसे नष्ट कर डालूं, परन्तु वह गर्भ नष्ट न होसका और तू पैदा हुआ, तेरा जन्म होनेपर मैंने तुझे दासीके द्वारा एकान्त स्थानउकरडीपर फिकवा दिया। पथात् यह वृत्तान्त तेरे पिता राजा श्रेणिकको मालम हुआ, उन्होंने तेरी खोज की और खोजकर तुझे मेरे पास ले आये । उन्होंने तेरा परित्याग करनेके कारण मेरी कडी भर्त्सना की और मुझे शपथ देकर कहा कि तुम इस बच्चेका अच्छी तरह पालन पोषण करो। उकरडीपर पडे हुए तेरी अंगुलीके अग्र भागको मुर्गेने काट लिया जिससे तुझे बडी वेदना होती थी, तू दिन-रात कष्टसे चिल्लाता रहता था, उस समय तेरे पिता तेरी कटी हुई अंगुलोको अपने मुँहमें लेकर पीप और સૂકાઈને પીળી પડી ગઈ. જ્યારે તારા પિતાને આ ખબર દાસીઓ દ્વારા જાણવામાં આવી ત્યારે તેમણે મારા મોઢેથી મારા દેહદનું વૃત્તાંત સાંભળીને તે અભયકુમાર દ્વારા પરિપૂર્ણ કર્યો. દેહદ પૂરો થયા પછી મેં વિચાર કર્યો કે આ બાળકે ગર્ભમાં આવતાંજ પિતાના પિતાનું માંસ ખાધું તે જન્મ લઈને તે ખબર નહિ કે તે શું કરશે ? માટે આ ગર્ભને કઈ પણ ઉપાયથી નાશ કરી નાખું. પણ તે ગર્ભને. નાશ ન થઈ શકે અને તું પેદા થયે. તારો જન્મ થયા પછી મેં તને દાસી મારત એકાંત સ્થાન-ઉકરડે ફેંકાવી દીધો. પછી આ હકીક્તની તારા પિતા રાજા શ્રેણિકને ખબર પડી. તેમણે તારી તપાસ કરી અને તને ગોતીને રાજા મારી પાસે લાવ્યા. તેમણે તારે પરિત્યાગ કરવા માટે મને બહુ ઠપકો આપ્યો અને મને સોગંદ આપીને કહ્યું કે આ બાળકનું સારી રીતે પાલન પિષણ કરે.” તું ઉકરડે પડે હતા ત્યારે તારી આંગળીના આગલા ભાગને કુકડે કરડ હતું જેથી તને બહુ વેદના થતી હતી અને તું તે કષ્ટથી દિવસ રાત બહુ રડયાજ કરતો હતો તે સમયે તારા પિતા તારી કપાયેલી આંગળીને પિતાના મોમાં લઈ પરૂ અને લેહી જે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका श्रेणिकमरण १५७ शोणितको चूसकर थूक देते थे, तब तुझे शांति होती थी और तू चुप होजाता था । जब कभी भी तुझे पीडा होती थी तब तेरे पिता इसी तरह किया करते थे, और तू शांति पानेके कारण चुप होजाता था। हे पुत्र ! इस कारण मैं कहती हूँ कि तेरे पिता राजा श्रेणिक तुझपर अत्यन्त स्नेह और अनुरागसे युक्त है। वह कूणिक राजा चेल्लना रानीके मुँहसे इस प्रकार वृत्तान्त सुनकर कहने लगे हे माता ! मैंने सभी प्रकारके हित करनेवाले इष्टदेवता स्वरूप परमोपकारक अत्यन्त स्नेह-अनुरागसे युक्त अपने पिता राजा श्रेणिकको बन्धनमें डाला यह उचित नहीं किया सो मैं स्वयं जाकर उनके बन्धनको काटता हूं, ऐसा कहकर कुठार हाथमें लेकर जहाँ कारागार था वहाँ जानेके लिए चला। उसके बाद राजा श्रेणिकने, हाथमें कुठार लिए हुए कूणिककुमारको आते हुए देखकर उनके मुँहसे सहसा ये शब्द निकल पडे कि-यह कूणिककुमार अनुचितको चाहनेवाला कर्तव्यहीन यावत् लज्जावर्जित हाथमें कुठार लिए हुए जल्दीसे आ रहा है, નીકળતું હતું તે ચૂસીને થુંકી દેતા હતા. ત્યારે તને શાંતિ થતી હતી અને તું છાને રહી જાતો હતો. જ્યારે વળી પાછી પીડા થતી ત્યારે તારા પિતા એવીજ રીતે કરતા હતા. અને તું શાંતિ મળવાથી છાને રહી જાતે હતે. હે પુત્ર! આ કારણથી હું કહું છું કે તારા પિતા રાજા શ્રેણિક તારા પર બહુ સ્નેહ અને અનુરાગ રાખતા હતા. તે કૂણિક રાજા ચેલના રાણીના મેઢેથી આ પ્રમાણે હકીકત સાંભળી કહેવા લાગ્યા...હે માતા ! મેં સર્વ પ્રકારે હિત કરવાવાળા, ઈષ્ટદેવ સ્વરૂપ પરમ ઉપકારક, બહુજ સ્નેહભાવ રાખવાવાળા મારા પિતા રાજા શ્રેણિકને બંધનમાં નાખ્યા તે વાજબી ન કર્યું તેથી હું પિતે જઈને તેમનાં બંધન કાપી નાખ્યું છું. એમ કહી કુહાડી હાથમાં લઈ જયાં કેદખાનું હતું ત્યાં ગયા. ત્યાર પછી રાજા શ્રેણિકે હાથમાં કુહાડી લઈને કૃણિક કુમારને આવતે જે. જેઈને તેના મેઢેથી તુરત આવા શબ્દો નીકળી પડયા કે-“આ કૂણિક કુમાર અનુચિત ચાહવા વાળે કર્તવ્યહીન નિર્લજ્જ થઈને કુહાડી લઈ જલ્દી અહીં આવે છે, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका सूत्र १५८ न जाने किस प्रकार यह मुझे बुरी तरह मारेगा, इस बातसे डरकर राजा श्रेणिकने अपनी अंगूठीमें रहे हुए तालपुट विषको अपने मुखमें रख लिया । मुँहमें रखने के बाद वह विष क्षणमात्र में सारे शरीरमें फैल गया और राजा प्राण एवं चेष्टासे रहित हो मृत्युको प्राप्त हो गया । इसके बाद कूणिककुमार कारागारमें आया और आकर प्राण एवं चेष्टासे रहित - मरेहुए - राजा श्रेणिक को देखा । देखकर पिताके मरणजन्य असहनीय कष्टसे आक्रान्त हो तीक्ष्ण कुठारसे कटे हुए कोमल चम्पक वृक्षकी तरह भूमिपर धडामसे गिर पडा । इसके अनन्तर वह कूणिककुमार कुछ समय बाद मूर्छारहित हुआ, मूर्छाके हट जानेपर वह रोता हुआ करुण शब्दसे आर्तनाद और विलाप करता हुआ इस प्रकार बोला- मैं अभागा हूँ, पापी हूँ, पुण्यहीन हूँ, जो कि मैंने बुरा कार्य किया, देवगुरुजनके समान परम उपकारी और स्नेह - ममतासे अनुरक्त अपने पिता श्रेणिक ખબર નથી પડતી કે તે મને કેવી રીતે ખરાબ રીતે મારી નાખશે. આ વાતથી હરી જઈને રાજા શ્રેણિકે પેાતાની અંગુઠીમાં રહેલ તાલપુર ઝેર પેાતાના મામાં મૂકયું. મેામાં મૂકયા પછી તે ઝેર એક પળ માત્રમાં આખા શરીરમાં ફેલાઇ ગયું અને રાજા પ્રાણથી અને હલન-ચલનથી રહિત થઇ મૃત્યુ પામ્યા. ત્યાર પછી કૂણિક કુમાર કેદખાનામાં આવ્યા અને આવીને રાજા શ્રેણિકને પ્રાણ અને હલન-ચલનથી રહિત- મરેલા જોયા, જોઈને પિતાના મરણુજન્ય સહન ન થાય એવાં દુ:ખથી રૂદન કરતા થકા તીક્ષ્ણધાર વાળી કુહાડીથી કાપેલા કામળ ચંપક વૃક્ષની પેઠે જમીન ઉપર ડાંગ પડી પડયા. ત્યાર પછી તે કૃણિક કુમાર ઘેાડા સમય પછી મૂર્છારહિત થયા મૂર્છા હટી ગયા પછી તે રૂદન કરતા કરૂણ શબ્દથી આર્તનાદ કરતા શાક અને વિલાપ કરતા કરતા આ પ્રમાણે ખાલ્યા—હું અભાગી છું, પાપી છું. પુણ્યહીન છું, જેથી મે ખરાબ કાર્ય કર્યું. દેવ ગુર્જન સમાન પરમ ઉપકારી અને સ્નેહ મમતાથી લાગણી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका श्रेणिकके साथ कूणिकका पूर्णभवसम्बन्ध १५९ 1 राजाको बन्धन में डाला और मेरे ही कारण इनकी मृत्यु हुई। ऐसा कहकर अपने कुटुम्बके साथ रुदन करता हुआ बडे समारोहके साथ राजाकी अन्तिम लौकिक क्रिया की । उसके बाद वह कूणिक राजगृहमें अपने पिताकी उपभोग सामग्रियों को देख - देखकर अत्यन्त दुःखी होता था । कहीं वह पिताका सिंहासन देखता था तो कहीं उनकी शय्या कहीं उनके आभूषण, तो कहीं उनके वस्त्र, ये सब देखते उसे पिताकी स्मृति अनवरत आती रहती थी, और उन्हें अपने किये हुए पाप कर्मोंका भी स्मरण होजाता था जिससे असीम कष्टको प्राप्त होता था । इस कारण वह वहाँ नहीं रह सका और एक समय अपने अन्तःपुर परिवार सहित अपनी समस्त सामग्री लेकर राजगृहसे बाहर निकला और चलकर जहाँ चम्पा नगरी थी वहाँ गया, चम्पा नगरीको अपनी राजधानी बनाकर निवास करने लगा। कुछ समय व्यतीत होजानेपर वह पिता के शोकको भूल गया । उसके बाद वह कूणिककुमार अपने भाई काल आदि दस कुमारोंको बुलाकर राज्य के ग्यारह भाग करके उन लोगोंको बाट दिया व अपने राज्यका पालन स्वयं करने लगा । રાખનાર પેાતાના પિતા શ્રેણિક રાજાને ખંધનમાં (કેદખાનામાં) નાખ્યા અને મારાજ કારણથી એનું મૃત્યુ થયું. એમ કહીને પાતાના કુટુંબીએની સાથે રૂદન કરતા થકા બહુ સમાહપૂર્વક રાજા શ્રેણિકની અંતિમ લૌકિક ક્રિયા કરી. ત્યાર પછી તે કૂણિક રાજગૃહમાં પેાતાના પિતાની ઉપભેગ સામગ્રી ને જોઇને બહુજ દુ:ખી થતા હતા. કયાંક તે પિતાનું સિંહાસન જોતા હતા તા કયાંક તેમની શક્યા; કયાંક તેમનાં આભૂષણ તે કયાંક તેમનાં વસ્ત્રો. આ સૌ જોઇ તેને પિતાનું સ્મરણ વારંવાર થયા કરતું હતું અને તેમણે પાતે કરેલાં પાપ કર્મોનું પણ સ્મરણ થઈ આવતું હતુ જેથી પારવગરનું કષ્ટ પ્રાપ્ત થતું હતું. આ કારણથી તે ત્યાં રહી શકયા નહિ અને એક સમય પેાતાનાં અંત:પુર કુટુંબ-સહિત પાતાની તમામ સામગ્રી લઇને રાજગૃહથી બહાર નીકળ્યા અને ચાલીને જ્યાં ચંપાનગરી હતા ત્યાં ગયા. અને પછી ચંપાનગરીને પેાતાની રાજધાની બનાવીને ત્યાં રહેવા લાગ્યા થાડા સમય વ્યતીત થઈ ગયા પછી તે પિતાના શાકને ભૂલી ગયા ત્યાર પછી તે કૂણિક કુમાર પાતાના ભાઈ કાલ આદિ દશ કુમારોને ખેલાવીને રાજ્યના અગીયાર ભાગ કરી તે લેાકેાને વેચી દીધું તથા પેાતાના રાજ્યનું પાલન પાતે કરવા લાગ્યા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र अत्र प्रसङ्गमाप्तं कूणिकस्य श्रेणिकघातकत्वे कारणं दर्श्यते श्रेणिको भूपः भाग् वीतरागवचनबहिर्बर्तितया सम्यक्त्वाभावाद् देवगुरुधर्मान् निर्णेतुं नाशकत | चेल्लनापाणिपीडनानन्तरं तदीयप्रेरणयाऽनाथिम्मुनिसदुपदेशेन सम्यक्त्वमलभत । पुरा श्रेणिको राजा कदाचित् विमलपवनं सेवितुं शीतलमन्दसुगन्धगन्धवाहसनाथं मत्तकोकिलकलरवकूजितं वनमगमत् । तत्रैकस्तापसाश्रम कूणिक श्रेणिककी मृत्युमें क्यों कारणभूत बना ? यह कथानक प्रासङ्गिक है एतदर्थ इसे नीचे दिखलाते हैं सजा श्रेणिक पहले वीतरागधर्मी नहीं होनेसे उसमें सम्यक्त्व नहीं था, अतएव वह देव गुरु और धर्मका निर्णय करनेमें असमर्थ था। परन्तु जब उसका विवाह चेलनाके साथ हुआ तब उसकी प्रेरणासे व अनाथि मुनिके सदुपदेश द्वारा उसे सम्यक्त्वका लाभ हुआ और वह वीतरागके धर्मको मानने लगा। पहले वह श्रेणिक राजा एक समय शुद्ध वायु सेवन करनेके लिए वनमें गया। वह वन शीतल, मन्द, सुगंध वायुसे युक्त एवं मत्त कोकिलके कलरवसे कूजित था। वहाँ एक કુણિક શા માટે શ્રેણિકના મૃત્યુમાં કારણભૂત બન્યા? આ કથાનક પ્રાસંગિક છે માટે તે નીચે બતાવીએ છીએ – રાજા શ્રેણિક પહેલાં વીતરાગધમી ન હોવાથી તેનામાં સમ્યક્ત નહોતું. આથી તે દેવ ગુરૂ તથા ધર્મને નિર્ણય કરવામાં અસમર્થ હતા. પરંતુ ત્યારે તેને વિવાહ ચેલ્લનાની સાથે થયે ત્યારે તેની પ્રેરણાથી અને અનાથિ મુનીના સદુપદેશથી તેને સમ્યકત્વને લાભ થયો અને તે વીતરાગના ધર્મને માનવા લાગ્યા પહેલાં તે શ્રેણિક રાજા એક સમય શુદ્ધ વાયુ સેવન કરવા માટે વનમ ગયા તે વન શીતલ, મંદ, સુંગધ વાયુથી યુકત અને મત્ત થયેલી કોયલના કલરવથી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिक-श्रेणिकका वैरकारण आसीत् । तस्मिन्नाश्रमे कश्चित्तापसो मासं मासं तपसा क्षपयन् पारणां कुर्वाण आसीत् । राजा तं तपस्विनं विलोक्य समतुष्यत् , तापसं च खभवने पारणां कर्तुं प्रार्थयत् । तापसेनोक्तम्-पारणायां पश्च दिनानि साम्प्रतमवशिष्यन्ते पञ्चदिवसानन्तरं पारणायै तव राजधानीमागमिष्यामि, हे राजन् ! ममायं नियमो यत् - 'पारणादिने एकस्मिन्नेव गृहे भिक्षा तापसका आश्रम था। उस आश्रममें एक तापस मास-मासके उपवाससे पारणा करता था। राजा उस तापसको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और उससे प्रार्थना की-हे महात्मन् ! आप मेरे यहाँ पारणा करनेके लिये पधारें । राजाकी ऐसी प्रार्थना सुनकर तापस बोला हे राजन् ! अभी मेरे पारणेमें पाँच दिन घटते ( अवशिष्ट ) हैं उनके पूर्ण होजानेपर मैं तुम्हारे यहाँ पारणेके लिये आऊँगा, परन्तु मेरा एक नियम है उसको ध्यानमें रखना-मैं पारणेके दिन केवल एकही घर भिक्षाके लिए जाता हूँ। यदि કૂજિત હતું. ત્યાં એક તપસ્વીને આશ્રમ હતો. તે આશ્રમમાં એક તાપસ મહિને મહિને ઉપવાસ કરી પારણાં કરતો હતો. રાજા તે તાપસને જોઈને અત્યંત ખુશી થયે અને તેઓને પ્રાર્થના કરી-હે મહાત્મન્ ! આપ મારે ત્યાં પારણાં કરવાને પધારો.” રાજાની એવી પ્રાર્થને સાંભળી તાપસ બે – હે રાજન ! હજી મારે પારણાં કરવાને પાંચ દિવસ અવશિષ્ટ (બાકી) છે. તે પુરા થઈ ગયા પછી હું તારે ત્યાં પારણાં માટે આવીશ પરંતુ મારે એક નિયમ છે તે ધ્યાનમાં રાખજે-હું પારણને દિવસ માત્ર એકજ ઘેર શિક્ષાને માટે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ निरयावलिका सूत्र माचरामि, योकत्र भैक्ष्यं न लभे तदा मासं क्षपयामि' इति तापसनियम श्रुत्वा श्रेणिको राजा निजराजधानीमागमत् । ___ ततः पञ्चसु दिवसेषु व्यतीतेषु पारणाऽहे तापसः श्रेणिकराजद्वारमागतः । तस्मिन् दिने राज्ञो महत्या शिरोवेदनया राजभवनं व्याकुलमासीदिति तापसं सत्कर्तुं कोऽपि नाशकत् । तापसस्तादृशं राजभवनं निरीक्ष्य ततः परावृत्तो द्वितीय मासं क्षपयितुं प्रारभत । शिरोवेदनायां शान्तायां राजा तापसमुपागच्छत् । तापसश्च स्वनियमं राजानं श्रावितवान् । भूपः पुनः वहाँ भिक्षा नही मिली तो फिर मासक्षपण ( खमण) के बाद ही पारणा करता हूँ। राजा उस तापसके इस नियमको सुनकर अपनी राजधानीको लौट गया। उसके पाँच दिन बीत जानेके पश्चात् वह तापस पारणेके दिन, राजा श्रेणिकके द्वारपर आया । उस दिन राजाके सिरमें असह्य वेदना थी जिससे समूचा राजभवन व्याकुल था, इसलिये उस तापसका किसीने सत्कार नही किया । तापस इस प्रकार राजमहलको व्याकुल देखकर लौट गया और पुनः एक मासका उपवास करने लगा। जब राजाने शिरवेदनासे छुटकारा पाया तब वह पुनः उसी तापसके જાઉં છું. જે ત્યાં ભિક્ષા ન મળે તે વળી પાછા ફરીને માસ ખમણ પછી જ પારણાં કરું છું. રાજા તે તાપસને આ નિયમ સાંભળીને પોતાની રાજધાનીએ पाछ। गया. તેને પાંચ દિવસ વીતી ગયા પછી તે તાપસ પારણાંને દિવસ રાજા શ્રેણિકના દ્વારે આવ્યો. તે દિવસ રાજાના માથામાં અસહ્ય વેદના હતી જેથી આખું રાજભવન વ્યાકુળ હતું આથી તે તાપસને કોઈએ સત્કાર ન કર્યો. તાપસ આ પ્રમાણે રાજમહેલને અસ્થિર (વ્યસ્ત) જઈ પાછો ફર્યો અને ફરી તે એક માસના ઉપવાસ કરવા લાગ્યું. જ્યારે રાજાને માથાને દુઃખાવો મટી ગયે ત્યારે તે ફરીને તેજ તાપસની શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिक-श्रेणिकका वैरकारण पारणार्थ तापसं प्रार्थितवान् । पारणादिने श्रेणिकराजधानीमसौ तापस आगतः । तस्मिन् दिने राजभवनं वह्निप्रदीप्तमासीदिति तापसागमनं राज्ञा विस्मृतम् अतस्तापसः परावृतत् । ततस्तृतीयं मासं स क्षपयितुं प्रारभत । वह्नौ शान्ते राजा तापसमुपगम्य क्षमा पुनः पारणां च प्रार्थयामास । पास गया, और उसे पारणेके लिए अपने यहाँ आनेकी सविनय प्रार्थना की। तापसने राजाकी प्रार्थनाको सुनकर फिर अपने उस नियमको दोहराया और बादमें राजाके यहाँ पारणाके लिये आना स्वीकार कर लिया। पारणाके दिन वह तापस फिर राजाके यहाँ आया, परन्तु संयोगसे उस दिन राजभवनमें आग लग गयी, और राजा ' आज तापसका पारणा दिन है' यह भूल गया। तापस राजभवनको आगकी लपटोंसे जलता हुआ देखकर लौट गया और फिर तीसरे महीनेका उपवास करने लगा। आगके शान्त होजानेपर राजाको स्मरण हुआ कि मैंने तापसको पारणा के लिये आज बुलाया था परन्तु राजभवनमें आग लग जानेसे मैं उसे भूल गया, बेचारा तपस्वो इस मास भी मेरे ही कारण भूखा रहा । यह सोचकर राजाको પાસે ગયો અને તેને પારણાં માટે પિતાને ત્યાં આવવાની સવિનય પ્રાર્થના કરી. તાપસે રાજાની પ્રાર્થનાને સાંભળી ફરીને પોતાને તે નિયમ બીજી વાર કહ્યું અને પછી રાજાને ત્યાં પારણાં માટે આવવાને સ્વીકાર કર્યો. પારણાને દિવસ તે તાપસ પાછે રાજાને ત્યાં આવ્યા પરંતુ સગવશાત્ તે દિવસ રાજભવનમાં આગ લાગી ગઈ તથા રાજા “આજે તાપસના પારણાંને દિવસ છે એ ભૂલી ગયે. તાપસે રાજભવનને આગની જવાળાઓથી બળતું જોયું અને જોઈને પાછો ફરી ગયે. અને પાછા ત્રીજા મહિનાના ઉપવાસ કરવા લાગ્યો. આગ શાંત થઈ ગયા પછી રાજાને યાદ આવ્યું કે–મેં તાપસને પારણાં માટે આજે બોલાવ્યા હતા. પરંતુ રાજભવનમાં આગ લાગી જવાથી હું તે ભૂલી ગયો બિચારા તપસ્વી આ મહિને પણ મારાજ કારણથી ભૂખ્યા રહ્યા. આ વિચારથી રાજાને બહુ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ____ निरयावलिका सूत्र तापसेनापराधं क्षमिला पारणार्थ राजभवनागमनं स्वीकृतम् ।। ___ पारणादिने तापसो राजद्वारमागतः । तस्मिन् दिने शत्रुः श्रेणिकराजधानीमाक्राम्यत् । राजा योधुमुद्यतः सैन्यं सङ्ग्रहीतुं प्रवृत्तस्तापसं सत्कर्तुं न क्षमोऽभूत् । तापसो राजद्वारमागत्य पुनः परावृत्तश्चतुर्थ मासं तपसा क्षपयितुं प्रारभत । अत्यन्त कष्ट हुआ और वह उस तापसके पास गया तथा अपने अपराधकी क्षमा याचना की, और फिर अपने यहाँ पारणाके लिये आनेकी प्रार्थना की। तापसने अपराधको क्षमा कर दिया, और राजभवनमें पारणाके लिए आना स्वीकार कर लिया। पारणाके दिन फिर वह तापस राजाके दरवाजेपर आया, परन्तु उसी दिन दुर्भाग्यसे शत्रुने उसकी राजधानीपर चढाई कर दी थी। राजा सेनाको व्यवस्थित रूपसे एकत्रित करनेमें लगा हुआ था, इस लिये वह तीसरी बार भी सत्कार नही कर सका । तापस राजाके दरवाजेसे उस दिन भी बिना पारणाके लौटा और चौथे मासका उपवास प्रारम्भ कर दिया । કષ્ટ થયું અને તે તાપસ પાસે ગયે અને પોતાના અપરાધ માટે ક્ષમાની યાચના કરી, અને ફરીને પિતાને ત્યાં પારણાં માટે આવવાની પ્રાર્થના કરી. તાપસે અપરાધને માટે ક્ષમા આપી દીધી અને રાજભવનમાં પારણાં માટે આવવાને સ્વીકાર કરી લીધો. પારણાને દિવસે પાછો તે તાપસ રાજાના દરવાજા પર આવ્યા પણ તે દિવસે દુર્ભાગ્યવશાત્ શત્રુએ તેની રાજધાની ઉપર ચડાઈ કરી હોવાથી રાજા સૈન્યને વ્યવસ્થિત કરી એકઠું કરવામાં રોકાયેલ હતું આથી તે ત્રીજી વખત પણ સત્કાર કરી શક્યો નહિ. તાપસ રાજાને ઘેરથી તે દિવસ પણ પારણું ર્યા વગર પાછો ફર્યો અને ચોથા માસના ઉપવાસ શરૂ કર્યા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिक-श्रेणिकका वैरकारण ततो युद्धे निवृत्ते राजा तापसमुपगम्याऽपराधक्षमां पारणां च पार्थयामास । तापसः क्षमा पारणां च स्वीकृत्य चतुर्थमासानन्तरं राजद्वारमागतः सर्वान् पुत्रजन्मोत्सवनिमनानवलोक्य पारणामकृखा पुनः परावृत्तः । उत्सवानन्तरं भूपः स्वभृत्यान् पृष्टवान्-भो ! किं तापसः पारणार्थमागतवान् ? । भृत्यैः कथितम्-पारणामकृत्वैव गतवानसौ स्वाश्रमे । उसके बाद लडाईसे अवकाश मिलनेपर राजा तापसके पास आया और अपनी विपदा सुनाकर क्षमायाचना की तथा पारणा करनेके लिए पुनः प्रार्थना की। तापसने राजाको क्षमा कर दिया और पारणाके लिए उनके यहाँ आना स्वीकार कर लिया। चौथे मासके समाप्त होनेपर पारणाके लिये राजाके दरवाजेपर आया। संयोगसे उसी दिन राजाके घर लडका पैदा हुआ। अपने अन्तःपुरपरिजनके सहित राजा उसी समारोहमें संलग्न था इसलिये राजाको तापसके आनेका ध्यान बिलकुल नहीं रहा। तापस पारणाके लिये भिक्षा न पाकर लौट गया। उत्सव बीतनेपर राजाने अपने परिचारकोंसे पूछा-क्या तापस पारणाके लिए आया था ? उन्होंने कहा-देव ! एक तापस पारणाके लिये आया था किन्तु वह पारणा किये बिना ही अपने आश्रमको लौट गया। ત્યાર પછી લડાઈથી ફુરસદ મળ્યા પછી રાજા તાપસની પાસે આવ્યો અને પિતાની વિપત સંભળાવી ક્ષમા માગી અને પારણાં કરવા માટે ફરીને પ્રાર્થના કરી. તાપસે રાજાને ક્ષમા કરી દીધી તથા પારણાં માટે તેને ત્યાં આવવાનો સ્વીકાર કર્યો. ચોથે માસ સમાપ્ત થતાં તે પારણાં માટે રાજાને દ્વારે આવ્યું. સંજોગથી તેજ દિવસે રાજાને ઘેર છોકરે જ પિતાના અંત:પુરના પરિજનો સાથે રાજા તે પ્રસંગમાં લાગેલા હતા આથી રાજાને તાપસ આવવાનું બિલકુલ ધ્યાનમાં ન રહ્યું. તાપસને પારણાં માટે ભિક્ષા ન મળવાથી પાછા ગયા ઉત્સવ વીતી ગયા પછી રાજાએ પિતાના પરિવારો અને કરો) ને પૂછ્યું“તાપસ પારણાં માટે આવ્યા હતા?” તેઓએ કહ્યું-“હે દેવ! એક તાપસ પારણાં માટે આવ્યું હતું પણ તે પારણાં કર્યા વિના જ પિતાને આશ્રમે પાછો ગયે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ निरयावलिकासूत्र तत्र गत्वा वीतरागवचनामृतपानाभावात् तापसः क्रोधाग्निना प्रज्वलितः शुद्धधर्मश्रद्धारहितोऽसौ श्रेणिकं द्विषन् आर्त रौद्रध्यानपूर्वकं मनस्येव चिन्तयति - 'तिलतुषमात्रमपि यदि मे तपः फलं तदाऽहं जन्मान्तरेऽस्य राज्ञो दुःखदो भवेयम्' इति विचार्य परभवदुःखदायकनिदानं कृतवान् । ततो राजा तापसनिकटमागतः । तत्र तापस उवाच - हे राजन् ! भूयो भूयो मां निमन्त्रयत्वं विस्मरसि, अथ सर्वथा यावज्जीवं चतुर्विधाssहारं परित्यज्य परभवे तव दुःखदो भवेयम् ' एतादृशं प्रतिज्ञातवानस्मि । ' तापस अपने आश्रम में आकर, वीतरागके वचनरूपी अमृतपान के बिना क्रोधाग्निसे जलता हुआ शुद्ध धर्मकी श्रद्धा से रहित होनेके कारण, श्रेणिक राजासे द्वेष करता हुआ आर्त - रौद्र - व्यानपूर्वक इस प्रकार अपने मनमें विचारने लगा - 'यदि तिलतुषके बराबर भी मेरी तपश्चर्याका फल हो तो मैं चाहता हूँ कि इस राजा श्रेणिकको अगले जन्ममें दुःखदायी होऊँ' ऐसा विचारकर जन्मान्तरमें दुःख देनेवाला निदान ( नियाणा ) किया । उसके बाद राजा तापसके पास आया । तापसने राजा से कहा - हे तू मुझे बार२ न्यौता देकर भूल जाता है, आज मैंने ऐसी प्रतिज्ञा करली है कि-' यावज्जीव चारों प्रकारके आहारको त्याग कर परभवमें तुम्हारे लिये दुःखदायी बनूँ ' । राजन् ! તાપસ પેાતાના આશ્રમમાં આવી વીતરાગના વચનરૂપી અમૃતપાન વગરના ક્રોધરૂપી અગ્નિથી ખળતા મળતા શુદ્ધ ધર્મની શ્રદ્ધાથી રહિત હાવાના કારણે શ્રેણિક રાજાના દ્વેષ કરતા આ-રૌદ્રધ્યાનપૂર્વક આ પ્રકારે પેાતાના મનમાં વિચારવા લાગ્યા. " જે તિલતુષ (તલનાં ફ્રાંતમાં) ની ખરાખર પણ મારો તપશ્ચર્યાનું ફળ હોય તો હું ઇચ્છું છું કે હું આ રાજા શ્રેણિકને જન્માંતરમાં દુ:ખદાયી થાઉં’ આમ વિચાર કરી જન્માંતરમાં દુ:ખ દેવાવાળે થવા નિદાન (નિયાણું) કર્યું". ત્યાર પછી રાજા તાપસની પાસે આવ્યા તાપસે રાજાને કહ્યું–હે રાજન્! તું મને વારે વારે નિમ ંત્રણ દઈને ભૂલી જાય છે આજ મેં એવી પ્રતિજ્ઞા કરી છે કે‘જ્યાં સુધી જીવું ત્યાં સુધી ચારે પ્રકારના અ હારના ત્યાગ કરી પરભવમાં તમને हुमा थी था.' શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ सुन्दरबोधिनी टीका कूणिक-श्रेणिकका वैरकारण राजा भृशं प्रार्थयामास परश्च तापसो न शान्तकोपोऽभवत् । राजा विवशतया तापसाश्रमान्निवृत्य खभवनमुपागतो राज्यकार्ये लग्नः । असौ तापसः कालावसरे कालं कृत्वा तस्यैव राज्ञश्चेल्लनादेवीगर्भतः पुत्रत्वेनोदपद्यत । प्रादुर्भूय ‘कणिककुमार' इति विख्यातः । निदानप्रभावात् श्रेणिकराजस्य घातकोऽभूत् । इदं च कुगुरुसेवाफलम् अतः कुगुरुं विहाय सुगुरुः सेवनीयः । कुगुरुसेवनेन न मोक्षमार्गज्ञानं न वा भवभ्रमणनिवृत्तिः । कुगुरोः सम्यक् सेवनेऽपि नाऽऽत्मकल्याणम् । उक्तश्च राजाने तापससे बहुत प्रार्थना की परन्तु उसका कोप शान्त नहीं हुआ। राजा हारकर तापसके आश्रमसे अपनी राजधानीमें आया और राजकाजमें संलग्न हो गया। वह तापस कालान्तरसे मरकर उसकी रानी चेल्लनाके गर्भमें आया और उसका पुत्र होकर पैदा हुआ और 'कूणिककुमार' के नामसे प्रसिद्ध हुआ। निदान ( नियाणा )के प्रभावसे वह श्रेणिकका घातक हुआ । यह कुगुरुसेवाका फल है, इस लिए कुगुरुको छोडकर सद्गुरुको सेवा करनी चाहिए। कुगुरुकी सेवासे न मोक्षमार्गका ज्ञान होता है और न भवभ्रमण ही मिटता है। कुगुरुकी अच्छीतरह सेवा करे तो भी आत्मकल्याण नहीं हो सकता। कहा भी है: રાજાએ તાપસને બહુ પ્રાર્થના કરી પણ તેનો કોપ શાંત થયો નહિ રાજા હારી જઈને તાપસના આશ્રમેથી પિતાની રાજધાનીમાં આવીને રાજકાર્યમાં કામે લાગી ગયે. તે તાપસ કાલાંતરે મરી ગયા પછી તેની રાણી ચેલનાના ગર્ભમાં આવ્યું, તથા તેનો પુત્ર થઈને જ અને “કૃણિક કુમાર' ના નામથી પ્રસિદ્ધ थयो. निहन (निया) न प्रमाथी ते श्रेणिनी घात४ थयो. આ કુગુરૂસેવાનું ફલ છે. આથી કુગુરૂને છેડીને સદ્દગુરૂની સેવા કરવી જોઈએ. કુગુરૂની સેવાથી નથી મોક્ષમાર્ગનું જ્ઞાન થતું કે નથી ભવભ્રમણ પણ મટતું. કુગુરૂની સારી રીતે સેવા કરીયે તે પણ આત્મકલ્યાણ થઈ શકતું નથી. उद्यं ५५ छ : શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्र नाऽऽनं सुषिक्तोऽपि ददाति निम्बकः, पुष्टा रसैर्वन्ध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव सुसेवितः श्रियं, धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥१॥ इति कूणिकस्य श्रेणिकघातकत्वे कारणविवरणम् ॥ सू० ३९ ॥ " नाऽऽनं मुषिक्तोऽपि ददाति निम्बकः, पुष्टा रसैबन्ध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव सुसेवितः श्रियं, धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥१॥ अर्थात्--नीमको चाहे कितना भी सींचो तोभी उसमें आमका फल नहीं आसकता। अच्छीसे अच्छी वस्तु खिलानेपर भी वन्ध्या गौ दूध नहीं देसकती । दरिद्र राजाकी चाहे कितनी भी सेवा की जाय किन्तु वह धन नहीं देसकता, वैसे ही कुत्सित गुरुकी सेवामें न श्रुतचारित्रलक्षण धर्मकी प्राप्ति होती है और न मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है। __कूणिक, श्रेणिकका घातक क्यों हुआ ? ' इसका विवरण उपरोक्त लिखे अनुसार है ॥ सू० ३९ ॥ नाऽऽनं सुषिक्तोऽपि ददाति निम्बकः, पुष्टा रसै बन्ध्यगवी पयो न च । दुःस्थो नृपो नैव मुसेवितः श्रियं, धर्म शिवं वा कुगुरुर्न संश्रितः ॥१॥ અર્થા–લીંબડાને ગમે તેટલું પાણી પાઓ તે પણ તેમાં આંબાનું ફૂલ ન આવી શકે. સારામાં સારી વસ્તુ ખવરાવવાથી પણ વધ્યા ગાય દૂધ ન આપી શકે. દરિદ્ર રાજાની ગમે તેટલી પણ સેવા કરવામાં આવે તે પણ તે ધન ન આપી શકે એવીજ રીતે કુત્સિત (અયોગ્ય) ગુરૂની સેવાથી નથી તે શ્રુતચારિત્રલક્ષણ ધર્મની પ્રાપ્તિ થાતી કે નથી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી. ણિક, શ્રેણિકને ઘાતક કેમ થયો? તેનું વિવરણ ઉપર કહ્યા પ્રમાણે છે. (૩૯) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वैहल्ल्यको गन्धहाथीसे क्रोडा मूलम्तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अचए कूणियस्स रन्नो सहोयरे कणीयसे भाया वेहल्ले नामं कुमारे होत्था सोमाले जाव मुरूवे । तएणं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स सेणिएणं रना जीवंतएणं चेव सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसवंके य हारे पुन्वदिने । तएणं से वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा अंतेउरपरियालसंपरिबुडे चंप नगरि मझमझेणं निग्गच्छइ निग्गच्छिचा अभिक्खणं २ गंगं महानई मजणयं ओयरइ । ___ तएणं सेयणए गंधहत्थी देवीओ सोंडाए गिहइ, गिण्हित्ता अप्पेगइयाओ पुढे ठवेइ, अप्पेगइयाओ खंधे ठवेइ, एवं अप्पेगइयाओ कुंभे ठवेइ, अप्पेगइयाओ सीसे ठवेइ, अप्पेगइयाओ दंतमुसले ठवेइ, अप्पेगइयाओ सोंडाए गहाय उर्दू वेहासं उबिहइ, अप्पेगइयाओ सोंडागयाओ अंदोलावेइ, अप्पेगइयाओ दंतंतरेसु नीणेइ, अप्पेगइयाओ सीभरेणं ण्हाणेइ, अप्पेगइयाओ अणेगेहिं कोलावणेहिं कोलावेइ । तएणं चंपाए नयरीए सिंघाडगविगचउक्कचच्चरमहापहपहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा अंतेउर० तं चेव जाव अणेगेहिं कीलावणएहि कीलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रजसिरिफलं पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ, नो कृणिए राया। तएणं तीसे पउमावईए देवीए इमीसे कहाए लट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था-'एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कीलावणएहि कोलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० निरयावलिका सूत्र रज्जसिरिफलं पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ, नो कूणिए राया, तं किं अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइ ण अम्हं सेयणगे गंधहत्थी नत्थि ? तं सेयं खलु ममं कूणियं रायं एयमद्वं विनवित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कीलावणएहिं कीलावेइ, तं किणं सामी ! अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइणं अम्हं सेयणए गंधहत्थी नत्थि ? । तएणं से कूणिए राया पउमावईए देवीए एयमद्वं नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिटइ । तएणं सा पउमावई देवी अभिक्खणंर कूणियं रायं एयमद्वं विन्नवेइ । तएणं से कूणिए राया पउमावईए देवीए अभिक्खणं२ एयमद्वं विनविज्जमाणे अन्नया कयाइ वेहल्लं कुमारं सदावेइ सद्दावित्ता सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं जायइ । तएणं से वेहल्ले कुमारे कूणियं रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी! सेणिएणं रन्ना जीवंतेणं चेव सेयणए गंधहत्थी अट्ठारसवंके य हारे दिने, तं जइ णं सामी ! तुब्भे ममं रजस्स य रहस्स य जणवयस्स य अद्धं दलह तो गं अहं तुम्भं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं दलयामि । तएणं से कूणिए राया वेहल्लस्स कुमारस्स एयमद्वं नो आढाइ, नो परिजाणइ, अभिक्खणं२ सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं जायइ । तएणं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स कूणिएणं रन्ना अभिक्खणं२ सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं [जाएपाणस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ४ समुप्पज्जित्था] एवं खलु अक्खिविउकामे गं गिहिउकामे गं उद्दालेउकामे णं ममं कूणिए राया सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हारं શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वैहल्ल्यको गन्धहाथीसे क्रोडा १७१ तं जाव ममं कूणिए राया [नो जाणइ ] ताव [ सेयं मे] सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं गहाए अंतेउरपरियालसंपरिवुडस्स सभंडमत्तोचगरणमायाए चंपाओ नयरीओ पडिनिक्खमित्ता वेसालीए नयरीए अजगं चेडयरायं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कूणियस्स रनो अंतराणि जाव पडिजागरमाणे२ विहरइ । तएणं से वेहल्ले कुमारे अन्नया कयाइ कूणियस्स रनो अंतरं जाणइ जाणित्ता, सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपरिबुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए चंपाओ नयरीओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव वेसाली नयरी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वेसालीए नयरीए अज्जगं चेडयं रायं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ ॥४०॥ छाया तत्र खलु चम्पायां नगर्या श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रश्चेल्लनाया देव्या आत्मजः कूणिकस्य राज्ञः सहोदरः कनीयान् भ्राता वैहल्ल्यो नाम कुमार आसीत् सुकुमारयावत्सुरूपः । ततः खलु तस्य वैहल्ल्यस्य कुमारस्य श्रेणिकेन राज्ञा जीवता चैव सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवक्रो हारश्च पूर्वदत्तः । ततः खलु स वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना अन्तःपुरपरिवारसंपरितृतश्चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य अभीक्ष्ण२ गङ्गां महानदी मज्जनकम् अवतरति । ततः खलु सेचनको गन्धहस्ती देवीः शुण्डया गृह्णाति, गृहीला अप्येकिकाः पृष्टे स्थापयति, अप्येकिकाः स्कन्धे स्थापयति, अप्येकिकाः कुम्भे स्थापयति अप्येकिकाः शीर्षे स्थापयति; अप्येकिकाः दन्तमुशले स्थापयति, अप्ये किकाः शुण्डया गृहीला उर्ध्व वैहायसमुद्हते, अप्येकिकाः शुण्डा શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७२ ____ निरयावलिका सूत्र गता आन्दोलयति, अप्येकिकाः दन्तान्तरेषु नयति, अप्येकिकाः शीकरण स्नपयति, अप्येकिका अनेकैः क्रीडनकैः क्रीडयति । ततः खलु चम्पायां नगर्यो शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चबर-महापथ-पयेषु बहुजनोऽन्योऽन्यस्य एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-एवं खलु देवानुपियाः ! वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिनाऽन्तःपुर० तदेव यावद् अनेकैः क्रीडनकैः क्रीडयति तदेष खलु वैहल्ल्यः कुमारो राज्यश्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति, नो कूणिको राजा । ततः खलु तस्याः पद्मावत्या देव्या अस्याः कथायाः लब्धार्थायाः सत्या अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यत-'एवं खलु वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना यावद् अनेकैः क्रीडनकैः क्रीडयति तदेष खलु वैहल्ल्यः कुमारो राज्यश्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति नो कूणिको राजा, तत्किमस्माकं राज्येन वा यावज्जनपदेन वा यदि खलु अस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति ?, तच्छ्रेयः खलु मम कूणिकं राजानमेतमर्थ विज्ञपयितुम् । इति कृता एवं संपेक्षते, संप्रेक्ष्य यत्रैव कुणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतल० यावदेवमवादीव-एवं खलु स्वामिन् ! वैहल्ल्यः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना यावद् अनेकैः क्रीडनकैः क्रीडयति, तल्कि खलु स्वामिन् ! अस्माकं राज्येन वा यावत् जनपदेन वा, यदि खलु अस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति ? । ततः खलु स कूणिको राजा पद्मावत्या देव्या एतमथ नो आद्रियते, नो परिजानाति, तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु सा पद्यावती देवी अभीक्ष्णं२ कुणिक राजानमेतमयं विज्ञपयति । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन्दरपोधिनी टोका बहल्ल्यको गन्धहायोसे कोटा ....... ततः खल्लु स कुणिको राजा पद्मावत्या देव्या अभीक्ष्णं २ एतमय विज्ञप्यमानः अन्यदा कदाचित् वैहल्ल्यं कुमारं शब्दयति शब्दयिता सेचना मन्धहस्तिनम् अष्टादशवत्रं च हारं याचते । ततः खलु स वैहल्ल्यः कुमारः कूणिकं राजानमेवमवादी-एवं खलु खामिन् ! श्रेणिकेन राज्ञा जीवता चैव सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवक्रश्च हारो दत्तः, तद् यदि खलु स्वामिन् ! यूयं मह्यं राज्यस्य च यावत् जन पदस्य च अदै दत्त तदा खल्वहं युष्मभ्यं सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशम च हारं ददामि । ततः खलु स कणिको राजा वैहल्ल्यस्य कुमारस्य एतमय नो बाद्रियते नौ परिजानाति, अभीक्ष्णं २ सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवर्क हार याचते । सतः खलु तस्य वैदल्यस्य कुमारस्य कणिकेन राज्ञा अभीशं २ सैचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशकं च हारं [याच्यमानस्य सतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिका ४ समुदपद्यत] एवं खलु आक्षेप्नुकामः खलु, ग्रहीतुकामः सल्ल, आच्छेतुकामः खल मां कूणिको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारम् तद् यावन्मां कणिको राजा [नो जानाति] तापत् [श्रेयो मम] सेचनकं गन्धहस्तिनम् अहादशाकं च हारं गृहीवाऽन्तःपुरपरिवारसंपरिखतस्य सभाण्डामत्रोपकरणमादाय चम्पाया नगर्याः प्रतिनिष्क्रम्य वैशाश्यां नगर्यामार्यकं चेटकराजमुपसम्पद्य विहर्तुम् । एवं संप्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य इणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि यावर प्रतिनाग्रत् २ विहरति । ततः खल स वैहल्यः कुमारः अन्यदा कदाचित् कूणिकस्य राजोस्तरं जानाति, बाला सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवकं च हारं गृहीला अन्त:सपरिवारसंपरिखतः सभाण्डामत्रोपकरणमादाय चम्पातो नगरीतः पति શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ __ निरयावलिका सूत्र निष्क्रामति, मतिनिष्क्रम्य यत्रैव वैशाली नगरी तत्रैवीपागच्छति, उपागत्य वैशाल्यां नगर्यामार्यकं चेटकमुपसंपद्य विहरति ॥४०॥ टीका'तत्थणं चंपाए' इत्यादि-सहोदरः=एकमातृकः। कनीयान् लघुभ्राता। 'तत्यणं चंपाए' इत्यादि उस चम्पानगरीमें श्रेणिक राजाका पुत्र, रानी चेलनाका आत्मज, राजा कूणिकका सहोदर छोटा भाई वैहल्ल्य नामका कुमार था, जो कि सुकुमार यावत् सुरूप था। उस वैहल्ल्य कुमारको राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही सेचनक नामका गन्ध हाथी और अठारह लडीवाला हार दिया। एक दिन वह वैहल्ल्य कुमार सेंचनक गंधहाथीपर चढकर अपने अन्तःपुर परिवारके साथ चम्पानगरीके मध्यसे निकला, निकलकर गंगानदीमें बारबार स्नान करनेके लिए अवतरित हुआ । तत्पश्चात् वह सेचनक हाथी वैहल्ल्यको रानियोंको अपनी सूंडसे पकडकर उनमें से किसी एकको 'तत्थणं चंपाए ' त्याle. તે ચંપાનગરીમાં શ્રેણિક રાજાને પુત્ર, રાણું ચેલ્લનાને આત્મજ (દીકર) રાજા કૃણિકના સહોદર નાનાભાઈ વૈહલ્ય નામે કુમાર હતો કે જે સુકુમાર અને સુરૂપ હતે. તે વૈહલ્ય કુમારને રાજા શ્રેણિકે પિતાની જીવિત અવસ્થામાં સેચનક નામને ગંધહાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર દીધો હતો. એક દિવસ તે વૈવલ્યકુમાર સેચનક ગંધહાથી ઉપર ચડીને પિતાના અંત:પુર પરિવાર સાથે ચંપાનગરીના મધ્યભાગમાં થઈને નીકળે, નીકળીને વારંવાર ગંગાનદીમાં સ્નાન કરવા માટે ઉતર્યો ત્યાર પછી તે સેચનક હાથી વૈહલ્યની રાણીઓને પિતાની સૂંઢમાં પકડીને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _१७५ सुन्दरबोधिनी टीका वैहल्ल्यको गन्धहाथीसे क्रोडा अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतः अन्तःपुरं-राज्ञी, परिवारः खड्गरत्नादिकोशो पीठपर रखता है तो किसीको अपने कंधेपर; किसीको कुम्भस्थलपर रखता है तो किसीको अपने सिरपर, एवं किसीको अपने दन्ताशूलपर रखता है, और किसीको सूंडसे पकडकर ऊपर आकाशमें लेजाता है। इसी तरह किसी एकको संडमें दवाकर झुलाता है, किसी एकको अपने दन्ताशूलके बीचमें अधरसे रखलेता है । तथा किसी एकको अपनी सूंडसे निकलते हुए फुहारोंसे स्नान कराता है। एवं किसी एकको अनेक प्रकारकी क्रीडाओंसे सन्तुष्ट करता है। यह वृत्तान्त नगर भरमें फैल गया, तथा बहुतसे मनुष्य गलियों, सडको आदि स्थान-स्थानपर आपसमें इस प्रकार वार्तालाप करने लगे हे देवानुप्रियो ! वैहल्ल्यकुमार सेचनक गंधहस्तोके द्वारा अन्तःपुर परिवारके साथ अनेक प्रकारको क्रीडा करता है। वास्तविक राज्यश्रीका उपभोग तो वैहल्ल्यकुमार ही करता है, न कि राजा कूणिक । તેમાંથી કેઈ-એકને પોતાની પીઠ ઉપર રાખે તે કઈને કાંધ ઉપર, કઈને કુંભ સ્થળ ઉપર રાખે તો કેઈને પિતાના માથા ઉપર, અને એ પ્રમાણે કઈને પિતાના દંતશૂળ ઉપર રાખે તો કેઈને સૂંઢથી પકડીને ઉપર આકાશમાં લઈ જાય આવી. રીતે કઈ-એકને સુંઢમાં દબાવીને હીંચકે ખવરાવે, કેઈને પિતાની દંતશૂળની વચમાં અધરથી રાખી લે તથા કેઈ–એકને પિતાની સૂંઢમાંથી નીકળતા ફુવારા, વડે સ્નાન કરાવે, એમ કોઈને અનેક પ્રકારની ક્રીડાઓથી સંતુષ્ટ કરે છે. આ હકીકત આખા ગામમાં ફેલાઈ ગઈ તથા ઘણાં મનુષ્ય ગલિઓ સડકો આદિ અનેક ઠેકાણે ઠેકાણે પિત પિતામાં આવી રીતે વાર્તાલાપ કરવા લાગ્યા–“હે દેવાનુપ્રિયે ! હલ્ય કુમાર સેચનક ગંધ હાથી દ્વારા અંત:પુર પરિવાર સહિત અનેક પ્રકારની ક્રીડા કરે છે. ખરી રીતે રાજ્યશ્રીને ઉપલેગ તે પેહલ્ય કુમારજ કરે છે–નહિ કે રાજા કૃણિકા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ निरयावलिका सूत्र दासदास्यादिसेवकवर्गश्र, तैः संपरिवृतः युक्तः वैहायसं-विहाय एव वैहायसम्-गगनम् , शीकरैः पवनमसिनलकणैः 'फुहारा' इति भाषायाम् , उसके बाद जब यह वृत्तान्त रानी पद्मावतीको मिला तो उसके मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि-' वैहल्ल्यकुमार सेचनक हाथीके द्वारा अनेक प्रकारकी क्रीडा करता है इसलिए वही राज्यलक्ष्मीके फलका उपभोग करता हुआ रहता है, न कि कूणिक राजा, इस लिये हमें इस राज्यसे और जनपदसे क्या लाभ ! यदि हमारे पास सेचनक हाथी नहीं है, इसलिए यही अच्छा है कि कूणिक राजासे कहूँ कि वे वैहल्ल्यसे वह सेचनक हार्थी लेलें। ऐसा विचारकर जहाँ कूणिक राजा था वहाँ गयी, और जाकर हाथ जोडकर इस प्रकार बोली-हे स्वामिन् ! बैहल्ल्यकुमार सेचनक गन्धहस्तीके द्वारा अनेक प्रकारकी क्रीडा करता है, हे स्वामिन् ! यदि हमारे पास सेचनक गन्ध हाथी नहीं है तो इस राज्य और जनपदसे क्या लाभ ! । यह सुनकर राजा कूणिकने पद्मावती देवीके इस विचारका आदर नहीं किया और न उस बातकी ओर ध्यान दिया, केवल चुपचाप रह गया। ત્યાર પછી જ્યારે આ હકીકત રાણે પદ્માવતીના જાણવામાં આવી ત્યારે તેના મનમાં એવો વિચાર ઉત્પન્ન થયો કે-હલ્યકુમાર સેચનક હાથી દ્વારા અનેક પ્રકારની ક્રીડા કરે છે માટે તેજ રાજ્યલક્ષમીના ફલને ઉપભેગ કરતો રહે છે નહિ કે કૃણિક રાજા, માટે અમને આ રાજ્યથી કે જનપદથી શું લાભ જે અમારી પાસે સેચનક હાથી ન હોય તે?, તેથી કૃણિક રાજાને કહ્યું કે વૈહલ્ય પાસેથી તે સેચનક હાથી લઈ લે એજ સારું છે. એમ વિચાર કરી જયાં કુણિક રાજા હતા ત્યાં ગઈ અને જઈને હાથ જોડી આ પ્રકારે બેલી-હે સ્વામી! વૈહલ્યકુમાર મેચનક ગંધ હાથી દ્વારા અનેક પ્રકારની ક્રીડા કરે છે. તે સ્વામી! જે આપણી પાસે સેચનક ગંધ હાથી ન હોય તે આ રાજ્ય અને જનપદથી શું લાભ? આ સાંભળી રાજા કુણિકે પદ્માવતી દેવીના આ વિચારને આદર કર્યો નહિ કે ન તે વાત તરફ ધ્યાન દીધું. માત્ર ચુપચાપ રહ્યા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादरबोधिनो टोका बहल्ल्यका वैशालीनगरी जाना शृनाटक-त्रिक चतुष्क-चतर-महापथ-पथेषु-शृङ्गाटकं जलफलं 'सिंगाडा' इति पाषायाम् , तद्वत् त्रिकोणस्थानं, किं-त्रिपथम् , चतुष्कम्-चतुष्पथम् , महापथो राजमार्गः, पन्थाः सामान्यमार्गः, तेषु । एष कूणिको राजा माम् परन्तु उस राजा कूणिकने रानी पद्मावतीके द्वारा बारबार विज्ञापित होनेके कारण एक समय कुमार वैहल्लको अपने यहाँ बुलाया, बुलाकर उससे सेचनक गन्ध हामी और महारह लडीवाला हार माँगा। कूणिकका ऐसा अभिप्राय जानकर बैहल्लकुमारने इस प्रकार कहता आरम्भ किया-हे स्वामिन् ! राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही मुझे सेचनक गन्ध हाथी और अठारह लडीवाला हार दिया है, सो यदि आप उसे लेना चाहते हैं तो मुझे भी राज्य और जनपदका आधा भाग दीजिये, फिर मैं भी आपके लिये इन दोनोको देदूँगा। परन्तु राजा कूणिकने वैहल्लकुमारकी इस बातको पसन्द नहीं किया, न कभी इसको अच्छी तरह सोचाही, परन्तु बार-बार अपनी मांगको हो दोहराता रहा। ત્યારપછી તેરાજા કૃણિકે રાણી પદ્માવતીના મારફત વારંવાર વિજ્ઞાપન કરવામાં આવતું તેથી એક વખત વેહલ કુમારને પિતાને ત્યાં બેલા અને તેની પાસેથી સેચનક બંધ હાથી તથા અઢાર સરવાળો હાર માગે. કૂણિકને એ અભિપ્રાય જાણીને વેડલ કુમારે આ પ્રકારે કહેવા માંડયુંહે સ્વામિન્ ! શ્રેણિક રાજા પિતાની જીવિત અવસ્થામાંજ મને સેચનક ગંધ હાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર દીધું છે. જે તે આપ લેવા ચાહો છો તે મને પણ રાજ્ય તથા જન પદને અરધા ભાગ આપે. પછી હું પણ આપને માટે આ બે વાપીશ. પરંતુ રાજા કણિકે વહલ કુમારની આ વાત પસંદ કરી નહિ. ન તે કદી એ વાતને ઠીક રીતે વિચાર કરી છે. માત્ર વારંવાર પોતાની માગણી श. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र १७८ आक्षेप्तुकामः = राज्यभागस्याऽदित्सया मयि मृषादोषमारोपयितुकामः | सेचनकं गन्धहस्तिनं ग्रहीतुकामः = बलादादातुकामः । अष्टादशवक्रं हारं च हस्तादाक्रष्टुकामः अस्ति । शेषं ' उदालेउकामे आच्छेत्तुकामः = मम सुगमम् ॥ ४० ॥ तदनन्तर कणिक राजा द्वारा बार २ हाथी और हार माँगनेपर वैहल्ल्य अपने मनमें सोचता है कि यह कूणिक राजा मेरे पर मिथ्यादोष लगा कर मेरा सेचनक गंधहाथी और हार मुझसे छीन लेना चाहता है, इसलिये उचित है कि जबतक कूणिक मुझसे हाथी और हार न छीने उसके पहले ही सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार तथा अन्तःपुर परिवार के साथ सभी गृहोपकरण लेकर चम्पानगरीसे निकलकर अपने नाना चेटक राजाके पास वैशालीनगरी में जाकर रहूँ । ऐसा विचार करनेके पश्चात् वह वैहलकुमार राजा कूणिककी अनुपस्थितिकी में रहता है । उसके बाद वह वैहल्लकुमार एक समय कूणिक राजाकी अनुपस्थितिका मौका पाकर अपने अंतःपुर परिवार के साथ सेचनक हाथी, अठारह लडीवाला हार और सभी प्रकारकी गृहसामग्री लेकर चम्पानगरीसे निकल वैशालीनगरी में आर्य चेटकके पास पहुँचकर रहने लगा ॥ ४० ॥ ત્યાર પછી કૂણિક રાજા તરફથી વારંવાર હાથી તથા હારની માગણી થતાં વૈહલ્થ પેાતાના મનમાં વિચાર કરે છે કે આ સૂણિક રાજા મારા ઉપર ખાટા દોષ લગાડીને મારી સેચનક ગંધ હાથી અને હાર મારી પાસેથી પડાવી લેવા માગે છે. માટે એજ વાખી છે કે જ્યાં સુધી કૂણિક મારી પાસેથી તે હાથી અને હાર ન પડાવી લીએ તે પહેલાંજ મેચનક ગંધ હાથી તથા અઢાર સરવાળા હાર તથા અંત:પુર પરિવાર સહિત ઘરની તમામ વસ્તુએ લઈને ચંપાનગરીથી નોકળીને મારા નાના ચેટક રાજાની પાસે વૈશાલી નગરીમાં જઈને રહું. એમ વિચારી કરીને પછી તે વૈહલ્થકુમાર રાજા કૂણિકની અનુપસ્થિતિ-ગેર હાજરીની રાહ જોતા રહ્યા કરે છે. ત્યાર પછી તે વૈહલ્ક્ય કુમાર એક સમય કૃણિક રાજાની ગેરહાજરી જોઈ પાતાના અંત:પુર પરિવારની સાથે સૈયન હાથી, અઢાર સરવાળા હાર અને તમામ પ્રકારનો ગ્રહ સામગ્રી લઈને ચંપાનગરીથી નીકળી વૈશાલી નગરીમાં આ ચેટકની પાસે પહાંચી રહેવા લાગ્યા. (૪૦) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेटक-कूणिकका दूतद्वारा संवाद १७९ मूलम्तएणं से कूणिए राया इमीसे कहाए लढे समाणे-एवं खलु वेहल्ले कुमारे ममं असविदितेणं सेयणगं गंधहत्यिं अद्वारसर्वकं च हार गहाय अंतेउरपरियालसंपरिखुडे जाव अजयं चेडयं रायं उपसंपजित्ता णं विहरइ, तं सेयं खलु ममं सेयणगं गंधहत्यिं अट्ठारसवंकं च हारं आणेउं दूयं पेसित्तए, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! वेसालिं नयरिं, तत्थ णं तुम ममं अजं चेडगं रायं करतल० वद्धावेत्ता एवं वयाहि-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विनवेइ-एस णं वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रन्नो असंविदितेणं सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं गहाय इह हव्वमागए, तए णं तुम्भे सामी ! कूणियं रायं अणुगिण्हमाणा सेयणगं गंध. हत्थि अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रनो पञ्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं च पेसेह । छाया ततः खलु स कणिको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन्-'एवं खलु वैहल्ल्यः कुमारो मम असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्र च हारं गृहीला अन्तःपुरपरिवारसंपरितो यावद् आर्यकं चेटकं राजानमुपसंपद्य खलु विहरति, तच्छ्रेयः खलु मम सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारम् आनेतुं दूतं प्रेषयितुम् , एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य दूतं शब्दयति, शब्दयिता एवमवादीत-गच्छ खलु त्वं देवाणुप्रिय ! वैशाली नगरौं, तत्र खलु त्वं मम आर्य चेटकं राजानं करतल० वर्द्धयित्वा एवं वद-'एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयति-एष खलु वैहल्ल्यः कुमारः कूणिकस्य राज्ञः असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं गृहीत्वा इह हव्य શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निरयावलिका सूत्र तए णं से दूए कूणिएणं० कस्तल० जाव पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जहा चित्तो जाव बद्धावित्ता एवं वयासो-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विनवेइ-एस णं चेहल्ले कुमारे तहेव भाणियव्वं जाव वेहल्लं कुमारं च पेसेह ।। तए णं से चेडए राया तं यं एवं वयासी-जह चेवणं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए तहेव णं वेहल्ले वि कुमारे सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए, सेणिएणं रना जीवंतेणं चेव वेहल्लस्स कुमारस्स सेयणगे गंधहत्थी अट्ठारसवंके हारे पुव्वविदिने, तं जइ णं कूणिए राया वेहल्लस्स रज्जस्स य रहस्स य जणवयस्स य अद्धं दलयइ तो णं सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसवंक च हारं कूणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणामि, वेहल्लं च कुमारं पेसेमि । तं यं सकारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ । मागतः, ततः खलु यूयं स्वामिन् ! कूणिकं राजानमनुगृह्णन्तः सेवनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं कूणिकस्य राज्ञः प्रत्यर्पयत, बैहल्ल्यं कुमारं च प्रेषयत । ततः खलु स दूतः कूणिकेन० करतल. यावत् प्रतिश्रुत्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यथा चित्तो यावद् वर्द्धयित्वा एवमवादीतएवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयति-एष खलु वैहल्ल्यः कुमारस्तथैव भणितव्यं यावद् वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयत । ततः खलु स चेटको राजा तं दूतमेवमवादी-यथैव खलु देवानुप्रिय ! कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेलनायाः देव्या आत्मजः, मम नप्तका, तथैव खलु वैहल्ल्योऽपि कुमारः श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेल्लनावाः देच्या आत्मजो, मम नप्तकः, श्रेणिकेन राज्ञा जीवता चैव શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेटक-कूणिकका दूतद्वारा संवाद तएणं से दूए चेडएणं रन्ना पडिविसजिए समाणे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउण्ट आसरहं दूरुहइ, दूरुहित्ता वेसालि नयरिं मझ-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुहेहिं वसहिपायरासेहिं जाव वद्धावित्ता एवं क्यासी-एवं खलु सामी ! चेडए राया आणवेइ-जह चेव णं कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए तं चेव भाणियध्वं जाव वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं न देइ सामी ! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसर्वकं च हार, वेहल्लं च नो पेसेइ ॥४१॥ वैहल्ल्याय कुमाराय सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवक्रो हारः पूर्वविदत्तः, तद् यदि खलु कूणिको राजा वैहल्ल्याय राज्यस्य च राष्ट्रस्य च जनपदस्य चाट्टै ददाति तदा खलु सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं कूणिकाय राजे प्रत्यर्पयामि, वेहल्ल्यं च कुमारं पेषयामि । तं दूतं सत्करोति सम्मानयति प्रतिविसर्जयति । ततः खलु स दूतः चेटकेन राज्ञा प्रतिविसर्जितः सन् यत्रैव चतुघण्टः अश्वरथस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चतुर्घण्टमश्वरयं दूरोहति, दूल्ह्य वैशाली नगरी मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य शुभैर्वसतिप्रातराशैर्यावद वर्धयित्वा एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! चेटको राजा आज्ञापयति-यथैव खलु कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेलनाया देव्या आत्मजः मम नप्तकः, तदेव भणितव्यं यावद् वैहल्ल्यं च कुमारं प्रेषयामि । तन्न ददाति खलु स्वामिन् ! चेटको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं, चैहल्ल्यं च नो प्रेषयति ॥४१॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र टीका 'तएणं से कूणिए ' इत्यादि-शुभैः प्रशस्तैः, वसतिपातराशैः-मार्ग 'तएणं से कूणिए ' इत्यादि उसके बाद जब यह समाचार राजा कूणिकको ज्ञात हुआ तो उसने विचार किया कि वैहल्लकुमार मुझसे बिना कुछ कहे-सुने अपने अन्तःपुर परिवारके सहित, सेचनक गंधहरती, अठारह लडीवाला हार और सभी प्रकारकी गृहसामप्रियों को लेकर राजा आर्य चेटकके पास जाकर रहने लगा है, इस कारण मुझे उचित है कि दूत भेजकर सेचनक गंध हाथी और अठारह लडीवाला हार मंगा, ऐसा विचारकर दूतको बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है: हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें मेरे नाना चेटकके पास तुम जाओ उनके पास जाकर हाथ जोड जय-विजय शब्दके साथ राजाको बधाकर इस प्रकारसे कहा -हे स्वामिन् ! राजा कूणिक इस प्रकार विज्ञप्ति करते हैं कि-मुझसे बिना कुछ कहे 'तएणं से कूणिए' त्या ત્યાર પછી જ્યારે આ સમાચારની રાજા કૃણિકને ખબર પડી ત્યારે તેણે વિચાર કર્યો કે વહેલ્થ કુમાર મને કંઈ પણ કહ્યા–સાંભળ્યા વગરજ પિતાના અંતઃપુર પરિવાર સહિત સેચનક ગંધ હાથી, અઢાર સરને હાર અને તમામ પ્રકારની ગૃહસામગ્રી લઈને રાજા આર્ય ચેટકની પાસે જઈને રહ્યો છે. આ કારરણથી મારે માટે એગ્ય છે કે દૂત મોકલીને સેચનક ગંધ હાથી અને અઢાર સરને હાર મંગાવી લઉં. એ વિચાર કરી દૂતને બોલાવી આમ તેને કહે છેહે દેવાનુપ્રિય! વૈશાલી નગરીમાં મારા નાના ચેટકની પાસે તું જા. તેની પાસે જઈ હાથ જોડીને જ્ય-વિજ્ય શબ્દથી રાજાને વધાવીને આ પ્રકારે કહે છે સ્વામિન ! રાજા કૃણિક આ પ્રકારે વિજ્ઞપ્તિ કરે છે કે મને કાંઈ પણ કહ્યા વગરજ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वैहल्ल्यको गन्धहायोसे कोडा विश्रामस्थानैः पूर्वाद्भवतिलघुभोजनैश्च मार्गे सुखपूर्वकं निवसनं यामद्वय ही वैहल्ल्य कुमार सेचनक गन्ध हाथी और अठारह लडीवाला हार लेकर आपके यहाँ जल्दीसे चला अ या है। सो आप वैहल्ल्यकुमारको सेचनक हाथी और अठारह लडीवाले हारके सहित कृपा करके हमारे पास भेजदें । इसके बाद वह दूत राजा कूणिकके द्वारा कहे हुए वचनोंको स्वीकारकर अपने घर आया और चार घंटावाले रथमें बैठ रवाना हुवा । वह वैशाली पहुंचकर आर्य चेटकको हाथ जोड जय विजयके साथ बधाकर, परदेशी राजाके चित्त प्रधानके समान इस प्रकार कहता है: हे स्वामिन् ! राजा कुणिक इस प्रकार विज्ञप्ति करते हैं कि मेरा छोटा भाई वैहल्ल्यकुमार मुझसे बिना कुछ कहे ही सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार लेकर आपके पास चला आया है इसलिये आप उसे हाथी और हारके साथ मेरे पास भेजदें। કુમાર વૈફલ્ય સેચનક ગંધ હાથી અને અઢાર સરવાળે હાર લઈને આપની પાસે જલ્દીથી ચાલ્યો આવે છે. માટે આપ વૈવલ્ય કુમારને સેચનક ગંધ હાથી અને અઢાર સરના હાર સહિત કૃપા કરીને મારી પાસે મોકલી આપે ત્યાર પછી તે દૂત રાજા કૃણિક દ્વારા કહેલાં વચનને સ્વીકાર કરી પિતાને ઘેર આવ્યું અને ચાર ઘંટાવાળા રથમાં બેસી રવાના થયે. તે વૈશાલી પહોંચી ને આર્ય ચેટકને હાથ જોડી જ્ય-વિજય પૂર્વક વધાવીને પરદેશી રાજાના પ્રધાન ચિત્તની પેઠે આ आरे हे छ: હે સ્વામિન્ ! રાજા કૃણિક આ પ્રકારે વિજ્ઞપ્તિ કરે છે કે મારે નાનો ભાઈ વિહલ્ય કુમાર મને કંઈ પણ કહ્યા વગર જ સેચનક ગંધ હાથી અને અઢાર સરવાળો હાર લઈ આપની પાસે ચાલ્યો આવે છે માટે આપ તેને હાથી અને હાર સાથે મારી પાસે મોકલી આપે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. ...... निरयावनिकाल मध्ये भोजनं चेत्येतद्वयं पथिकाय परमहितकारका अन्यत् सर्व पगमम् ॥४१॥ यह सुनकर चेटक राजाने उस दूतको इस प्रकार उत्तर दिया-हे देवानुचंय ! जिस प्रकार राजा कूणिक, श्रेणिक राजाका पुत्र, चेलना रानीका आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी श्रेणिक राजाका पुत्र, रानी बेलनाका आत्मज और मेरा दौहित्र है। . श्रणिक राजाने अपनी जीवितावस्था में ही कुमार वैहल्ल्यको सेचनक गंधहाथी और अढारह लडीवाला हार दिया था। तो भी यदि राजा कूणिक हाथी और हार लेना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह भी वैहल्ल्यकुमारको राज्य राष्ट्र और जनपदका आधा भाग देदे । ऐसा होनेपर मैं हाथी और हारके साथ कुमार बैहल्ल्यको भेज सकता हूँ। इस प्रकार कहनेके बाद राजा चेटकने उस दूतका आदर सत्कारकर उसे विसर्जित (विदा) किया। चेटक राजासे विसर्जित वह दूत जहापर चार घण्टावाला रथ था वहाँ आया, आकर उस रथपर चढा और वैश्यली આ સાંભળી એટક રાજાએ તે દૂતને આ પ્રકારે ઉત્તર દીધે-હે દેવાનુ રિય! જે પ્રકારે રાજા કૃણિક શ્રેણિક રાજાને પુત્ર ચેલ્લના રાણીને આત્મજ તથા આ દેહત્ર છે તેજ પ્રકારે કુમાર વૈહય પણ શ્રેણિક રાજાને પુત્ર રાણી ચેલવાનો દીકરો અને મારે દહે છે. - શ્રેણિક રાજાએ પિતાની જીવિત અવસ્થામાંજ કુમાર હલ્યને સેચનક ગંધ હાથી તથા અઢાર સરને હાર દીધું હતું છતાં પણ જે રાજા કુણિક હાથી તથા હાર લેવા ચાહતા હેય તે તેણે પણ વિહલ્ય કુમારને રાજ્ય રાષ્ટ્ર અને જનપદમાં અરધો ભાગ દેવો જોઈએ. અને એમ થાય તો હું હાથી તથા હારની સાથે કુમાર અલ્યને મોકલી શકું છું. આ પ્રકારે કહ્યા પછી રાજા ચેટકે તે દૂતને આદર નકાર કરી તેને વિદાય આપી. ચટક રાજા પાસેથી વિદાય લઈ તે દૂત જ્યાં ચાર વાળ રથ હતો ત્યાં આવ્યો. આવીને તે રથ ઉપર ચડીને વૈશાલી નગરીની મધ્યમાં થઈને નીકળે. સારી સારી વસ્તીમાં વિશ્વાસ તથા સવારનું ભોજન કરતો થત શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेटक-कूणिकका दूतद्वारा संवाद नगरीके मध्यसे निकला । निकलकर अच्छी २ वस्तियोंमें विश्राम तथा प्रातःकालिक भोजन करता हुवा सुख-शांतिपूर्वक चम्पानगरीमें पहुँचा । पहुँचकर राजा कूणिकके पास जा हाथ जोड जय-विजय शब्दके साथ राजाको बधाकर इस प्रकार बोलाः हे स्वामिन् ! चेटक राजा इस प्रकार सूचित करते हैं कि जिस प्रकार राजा कूणिक, श्रेणिक राजाका पुत्र, चेल्लनाका आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी श्रेणिकका पुत्र, चेल्लनाका आत्मज और मेरा दौहित्र है। सेचनक गंधहाथी एवं अठारह लडीवाला हार राजा श्रेणिकने कुमार वैहल्ल्यको अपनी जीवितावस्थामें ही दिया था, तो भी यदि कूणिक हाथी और हार चाहता है तो उसे चाहिये कि अपने राज्य राष्ट्र और जनपदका आधा भाग वैहल्ल्यको देदे । यदि वह इस प्रकार करे तो मैं भी हाथी और हारके साथ वैहल्ल्यकुमारको भेज दूंगा। इस लिये हे स्वामिन् ! राजा चेटकने न तो हाथी और हार ही दिया न कुमार वैहल्ल्यको ही भेजा ॥ ४१ ॥ સુખ શાંતિપૂર્વક ચંપાનગરીમાં પહોંચ્યા. પછી રાજા કૃણિક પાસે જઈ પહોંચી હાથ જોડી જય વિજય શબ્દની સાથે રાજા કૃણિકને વધાવીને આ घारे यु: હે સ્વામિન ! ચેટક રાજા એમ સૂચના કરે છે કે જે પ્રકારે રાજા કૃણિક શ્રેણિક રાજાનો પુત્ર ચેલનાને આત્મજ તથા મારે દેહે છે તેવી જ રીતે કુમાર વૈલ્ય પણ શ્રેણિકનો પુત્ર, ચેલ્લનાને આત્મજ તથા મારો દેહે છે. સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરવાળે હાર રાજા શ્રેણિકે કુમાર વૈહલ્યને પોતાની જીવિત અવસ્થામાં જ દીધા હતા તેમ છતાં જે કુણિક હાથી અને હાર ચાહત હોય તો પોતાના રાજ્ય રાષ્ટ્ર તથા જનપદને અરધે ભાગ વૈવલ્યને તેણે આપવો જોઈએ. જે તે આ પ્રકારે કરે તે હું પણ હાથી અને હાર સાથે હલ્ય કુમારને મોકલી આપું.” માટે છે સ્વામી ! રાજા ચેટકે તે નથી હાથી આપે, કે નથી હાર દીધે, તેમ નથી વૈહલ્ય કુમારને મોકલ્યા. (૪૧) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र मूलम् तएणं से कूणिए राया दुचं पि दूयं सद्दावित्ता एवं वयासीगच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! वेसालिं नयरिं, तत्थ णं तुमं मम अजगं चेडगं रायं जाव एवं वदाहि-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विनवेइजाणि काणि रयणाणि समुप्पजंति सव्वाणि ताणि रायकुलगामीणि, सेणियस्स रन्नो रज्जसिरिं करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पन्ना, तं जहा-सेयणए गंधहत्थी, अट्ठारसवंके हारे, तण्णं तुब्भे सामी ! रायकुलपरंपरागयं ठिइयं अलोवेमाणा सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसर्वकं हारं कूणियस्स रन्नो पञ्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं पेसेह । तए णं से दूए कूणियस्स रन्नो तहेव जाव वद्धावित्ता एवं वयासीएवं खलु सामी ! कूणिए राया विनवेइ-जाणि काणित्ति जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह । छाया ततः खलु स कूणिको राजा द्वितीयमपि दूतं शब्दयिता एवमवादीगच्छ खलु त्वं देवानुप्रिय ! वैशाली नगरी, तत्र खलु त्वं मम आर्यके चेटकं राजानं यावद् एवं वद-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयति-यानि कानि रत्नानि समुत्पद्यन्ते सर्वाणि तानि राजकुलमामीनि, श्रेणिकस्य राज्ञो राज्यश्रियं कुर्वतः पालयतो द्वे रत्ने समुत्पन्ने, तद्यथा-सेचनको गन्धहस्ती, अष्टादशवक्रो हारः, तत्खलु यूयं स्वामिन् ! राजकुलपरम्परागतां स्थितिमलोपयन्तः सेचनकं गन्धहस्तिनम् , अष्टादशवक्रं च हारं कूणिकाय राज्ञे प्रत्यर्पयत, बैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयत । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ सुन्दरबोधिनी टीका चेटक-कूणिकका दूतद्वारा संवाद तएणं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जहा पढमं जाव वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं दूयं सक्कारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ । तए णं से दूर जाव कूणियस्स रनो वद्धावित्ता एवं वयासो-चेडए राया आणवेइ-जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रनो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए जाव चेहल्लं कुमारं पेसेमि, तं न देइ णं सामी ! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं च हारं, वेहल्लं कुमार नो पेसेइ । तएणं से कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म ततः खलु स दूतः कूणिकस्य राज्ञस्तथैव यावद् वर्धयिता एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञपयति-यानि कानीति यावद् वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयत । ततः खलु स चटको राजा तं दूतमेवमवादी-यथा चैव खलु देवानुपिय ! कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः चेलनाया देव्या आत्मजः, यथा प्रथमं यावद् वैहल्ल्यं च कुमारं प्रेषयामि । तं दूतं सत्करोमि सम्मानयति प्रतिविसर्जयति । ततः खलु स दूतो यावत् कणिकस्य राज्ञो० वर्धयिता एवमवादीचेटको राजा आज्ञापयति-यथा चैव खलु देवानुपिय ! कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः चेलनाया देव्या आत्मजः यावद् वैहल्यं कुमार प्रेषयामि, तन्न ददाति खलु स्वामिन् ! चेटको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं, वैहल्ल्यं कुमारं नो प्रेषयति । ततः खलु स कूणिको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका सूत्र १८८ आमुरुते जाव मिसिमिसेमाणे तचं दयं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासीगच्छह णं तुमं देवाणुपिया ! वेसालीए नयरीए चेडगस्स रनो वामेणं पारणं पायपीढं अकमाहि अक्कमित्ता कुंवरगेणं लेहं पणावेहि, पणावित्ता आमुरत्ते जावं मिसिमिसेमाणे तिवलियं मिउडिं निडाले साहद्दु चेडगं रायं एवं वदाहि - हं भो चेडगराया ! अपत्थियपत्थया ! दुरंत - जाब- परिवज्जिया ! एस णं कूणिए राया आणवेइ-पचप्पिणाहि णं कुणियस्स रनो सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं वेहल्लं च कुमारं पेसेहि, अहवा जुद्धसज्जा चिट्ठाहि, एस णं णिए राया सबले सवाहणे सखंधावारे णं जुद्धसज्जे इह हव्वमागच्छ ॥ ४२ ॥ निशम्य आशुरक्तः यावन्मि सिमिसी - कुर्वन् तृतीयं दूतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं देवानुप्रिय ! वैशाल्यां नगर्यां चेटकस्य राज्ञो वामेन पादेन पादपीठमाक्राम, आक्रम्य कुन्ताग्रेण लेखं प्रणायय, प्रणाय्य आशुरतो यावत् मिसिमिसीकुर्वन् त्रिवलिकां भ्रुकुटिं ललाटे संहत्य चेटकं राजानमेवं वद-हं भो चेटकराजाः ! अप्रार्थित पार्थकाः ! दुरन्त- यावत्परिवर्जिताः । एष खलु कूणिको राजा आज्ञापयति - प्रत्यपयत खलु कूणिकस्य राज्ञः सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं वैहल्ल्यं च कुमारं प्रेषयत, अथवा युद्धसज्जाः तिष्ठत । एष खलु कूणिको राजा सबलः सवाहनः सस्कन्धावारः खलु युद्धसज्ज इह हव्यमाच्छति ॥ ४२ ॥ टीका " तणं से कूणिए ' इत्यादि - सबल: - सेनायुक्तः, सवाहनः - रथादि ' तएणं से कूणिए ' इत्यादि इसके बाद कूणिक राजाने दूसरी बार फिर दूतको बुलाया और कहा - ' तरणं तस्स ' धत्याहि. આ પછી કૂણિક રાજાએ ખીજી વાર પાછા તને ખેલાયેા અને કહ્યું— શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेटक - कूणिकका दूतद्वारा संवाद १८९ यानसहितः, सस्कन्धावारः= सशिविरः, 'छाउनी' इति भाषायाम् । शेषं । सुगमम् ॥ ४२ ॥ हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें जाओ, वहाँ जाकर मेरे नाना राजा चेटकको हाथ जोड कर जय विजय शब्द के साथ उन्हें बधाकर इस प्रकार कहो कि हे स्वामिन्! राजा कूणिक की यह विज्ञापना है कि जो कुछ भी रत्न पैदा होता है उसपर राजकुलका ही अधिकार है । श्रेणिक राजाके राज्यकालमें दो रत्न उत्पन्न हुए, एक सेचनक गन्धहाथी, दूसरा अठारह लडीवाला हार । हे स्वामिन् ! राजकुलकी परम्परागत स्थितिका नाश जिससे न हो इसलिये आप हाथी और हार मुझे अर्पित करदें और वैहल्ल्य कुमारको भेजदें । उसके बाद वह दूत कूणिक राजाकी इस विज्ञप्तिको स्वीकार कर अपने धर आया, और वहाँसे वैशालीनगरी में जाकर राजा चेटकके सम्मुख उपस्थित हुआ । तथा उन्हे हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ बधाकर, राजा कूणिककी विज्ञापना को इस प्रकार सुनायी - हे स्वामिन् ! राजा कूणिककी यह विज्ञापना है कि जो कुछ હૈ દેવાનુપ્રિય ! વૈશાલી નગરીમાં જઈને મારા નાના રાજા ચેટકને હાથ જોડીને જય વિજય શબ્દો સાથે વધાવી આ પ્રકારે કહેજે કે હે સ્વામિન્! રાજા કૂણિકની એવી વિજ્ઞાપના છે કે જે કઇ પણ રત્ન પેદા થાય છે તેના ઉપર રાજકુલનાજ અધિકાર છે. શ્રેણિક રાજાના રાજ્ય કાલમાં એ રત્ન ઉત્પન્ન થયાં છે—એક સેચનક ગધહાથી અને ખીજું અઢારસરના હાર, હે સ્વામિન્! રાજકુલની પર પરાગત સ્થિતિના નાશ જેથી ન થાય તે માટે આપ હાથી અને હાર મને અર્પિત કરો અને વૈહલ્ક્ય કુમારને મેાકલી દો. ત્યાર પછી તે ક્રૂત કૂણિક રાજાની આ વિજ્ઞપ્તિના સ્વીકાર કરી પોતાને ઘેર આવ્યા અને ત્યાંથી વૈશાલી નગરીમાં જઈ રાજા ચેટકની સમુખ ઉપસ્થિત થયા. અને તેમને હાથ જોડી જય વિજય શબ્દથી વધાવી રાજા કૂણિકની વિજ્ઞાપનાને આ પ્રકારે સંભળાવી ન્હે સ્વામિન્! રાજા કૂણિકની એમ વિજ્ઞાપના છે કે જે કઈ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ___ निरयावलिका सूत्र भो रत्न उत्पन्न होता है उसपर राजकुलका अधिकार होता है। ये दोनों न श्रेणिक राजाके राज्यकालमें उत्पन्न हुए हैं, इसलिये हे स्वामिन् ! जिससे राजकुलकी परम्परागत स्थिति विनष्ट न हो यह ध्यानमें लेकर हाथी और हारको देदें तथा वैहल्ल्यकुमारको भी कूणिक राजाके पास भेजदें । दूत द्वारा राजा कूणिककी ऐसी विज्ञप्ति सुनकर राजा चेटकने दूतसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया-हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार राजा कूणिक श्रेणिक राजाका पुत्र है, चेल्लना देवीका आत्मज है और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी श्रेणिक राजाका पुत्र–चेल्लना देवीका आत्मज और मेरा दौहित्र हैं, राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही सेचनक गन्धहाथी और अठारह लडीवाला हार कुमार वैहल्ल्यको प्रेमसे दिया है अतः इनपर राजकुलका अधिकार नहीं है तो भी यदि राजा कूणिक हाथी और हार लेना चाहता है तो उसे चाहिये कि राज्य राष्ट्र और जनपदका आधा भाग कुमार वैहल्ल्यको देदे । ऐसा करनेपर मैं हाथी પણ રત્ન ઉત્પન્ન થાય છે તેના ઉપર રાજકુલને અધિકાર હોય છે. આ બે રત્નો શ્રેણિક રાજાના રાજ્ય કાલમાં ઉત્પન્ન થયાં છે. માટે તે સ્વામિન! જેથી રાજકુલની પર પરાગત સ્થિતિ વિનષ્ટ ન થાય તે ધ્યાનમાં લઈ હાથી તથા હારને અર્પણ કરે અને વેહત્ય કુમારને પણ કૂણિક રાજાની પાસે મોકલી આપે. દૂત દ્વારા રાજા કૃણિકની એવી વિજ્ઞપ્તિ સાંભળી રાજા ચેટકે દૂતને આ પ્રકારે કહેવાનું શરૂ કર્યું - હે દેવાનુપ્રિય! જેવી રીતે રાજા કુણિક શ્રેણિક રાજાને પુત્ર છે ચેલના દેવીને આત્મજ છે તથા મારે દેહિ છે તેજ પ્રકારે કુમાર વિહલ્ય પણ શ્રેણિક રાજાને પુત્ર છે ચેલ્લના દેવીને આત્મજ તથા મારે દેહિત્રો છે. રાજા શ્રેણિકે પોતાની જીવિત અવસ્થામાંજ સેચનક ગંધહાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર કુમાર વૈહલ્યને પ્રેમથી દીધેલ હોવાથી તેના ઉપર રાજકુલને અધિકાર નથી તેમ છતાં પણ જે રાજા કૃણિક હાથી અને હાર લેવા ચાહતા હોય તે તેમણે પણ રાજ્ય રાષ્ટ્ર તથા જનપદમાં અરધો ભાગ કુમાર વૈહલ્યને આપવો શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका चेटक-कूणिकका दूतद्वारा संवाद और हारके साथ कुमार वैहल्ल्यको भेज दूंगा । ऐसा कहकर राजा चेटकने उस दूतका आदर सत्कार किया और उसे विसर्जित कर दिया। वह दूत वैशालीनगरीसे चलकर राजा कूणिकके पास आया और हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ उन्हें बधाकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया-हे स्वामिन् ! राजा चेटकने इस प्रकार उत्तर दिया कि-जिस प्रकार राजा कणिक राजा श्रेणिकके पुत्र चेल्लना देवीके आत्मज और मेरा दौहित्र है उसी प्रकार कुमार वैहल्ल्य भी है। राजा श्रेणिकने अपनी जीवितावस्थामें ही सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार वैहल्ल्य कुमारको प्रेमसे दिया है अतः इसपर राजकुलका अधिकार नहीं है, फिर भी यदि वह कुमार वैहल्ल्यके लिये अपने राज्य राष्ट्र और जनपदका आधा भाग देदे तो मैं हाथी और हार उसको देदूंगा तथा वैहल्ल्य कुमारको भी भेज दूंगा । इसलिये हे स्वामिन् ! राजा चेटकने न तो सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार ही दिया और न कुमार वैहल्ल्यको भेजा। જોઈએ એવું કરવાથી હું હાથી તથા હારની સાથે કુમાર વેહલ્યને મોકલી આપીશ. એમ કહીને રાજા ચેટકે તે દૂતને આદર સત્કાર કર્યો તથા તેને વિદાય આપી. આ દૂત વૈશાલી નગરીથી નીકળી રાજા કૃણિકની પાસે આવ્યું અને હાથ જેડી જય વિજય શબ્દથી તેને વધાવી આમ કહેવા લાગે – હે સ્વામિન્ ! રાજા ચેટકે એવા પ્રકારને જવાબ દીધું કે જે પ્રકારે રાજા કૃણિક રાજા શ્રેણિકનો પુત્ર ચેલ્લના દેવીને આત્મજ તથા મારે દોહિત્રે છે તે જ પ્રકારે વૈહલ્ય પણ છે. રાજા શ્રેણિકે પિતાની હૈયાતીમાંજ સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરને હાર હલ્ય કુમારને પ્રેમથી આપેલ હોવાથી તેના ઉપર રાજકુલનો અધિકાર નથી. તેમ છતાં પણ જે કુમાર વૈહલ્ય માટે પિતાના રાજ્ય રાષ્ટ્ર તથા જનપદને અરધો ભાગ તે આપે તે હું સેચનક ગંધહાથી તથા અઢાર સરને હાર તેને આપી દઈશ તથા વૈહલ્ય કુમારને પણ મક્લી દઇશ. માટે છે સ્વામિન્ ! રાજા ચેટકે નથી દીધા સેચનક ગંધહાથી કે નથી દીધે અઢાર સરના હાર અને નથી મોકલ્યા કુમાર વિહલ્યને. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र उस दूतके मुखसे इस प्रकारका वचन सुनकर राजा कूणिक सहसा क्रोध से जलने लगा और उसने तीसरी बार दूतको बुलाकर फिर कहा- हे देवानुप्रिय ! वैशालीनगरीमें जाओ, वहाँ जाकर राजा चेटकके पादपीठको अपने बायें पैरसे ठोकर मारकर भालेकी नोंक से इस पत्रको देना । पत्र देकर शीघ्र ही क्रोधित होजाना, एवं क्रोधसे धगधगाते हुए त्रिवली और भ्रुकुटिको अपने ललाटपर खींचकर चेटक राजासे इस प्रकार कहो - रे मृत्युको चाहने वाले - निर्लज्ज ! बुरे परिणामबाले मूर्ख राजा चेटक ! वह कूणिक राजा तुझे आज्ञा देता है कि- सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार मुझे अर्पित करदे और कुमार वैहल्ल्यको मेरे पास भेजदे, नहीं तो संग्रामके लिए तैयार होजा, राजा कूणिक सेना, वाहन और शिबिर के साथ युद्ध के लिए तत्पर होकर शीघ्र आ रहा है ॥ ४२ ॥ १९२ તે તના માઢથી એવાં વચન સાંભળીને રાજા કૂણિક તરત ક્રોધથી આગની જેમ ગરમ થઈ ગયા અને તેણે ત્રીજી વાર તને ખેલાવીને કહ્યું-હે દેવાનુપ્રિય ! વૈશાલી નગરી જા અને ત્યાં જઈ રાજા ચેટકના પાદપીઠને તારા ડાબા પગેથી ઠાકર મારીને ભાલાની અણીથી આ પત્ર દેજે. પત્ર ઇને તુરત ક્રોધિત થઈ જજે અને કાપથી આગની પેઠે ગરમ થઇ ત્રિવલી તથા ભ્રમરને કપાલ ઉપર ખેંચી રાજા ચેટકને આમ કહેજે-૨ મૃત્યુને ચાહનારા–નિર્લજ્જ ! ખરા પરિણામવાળા મૂર્ખ રાજા ચેટક ! તને કૂણિક રાજા આજ્ઞા દે છે કે-સેચનક ગ ધહાથી અને અઢાર સરવાળા હાર મને આપી દે અને કુમાર વૈહલ્થને મારી પાસે મેકલી દે. અગર જો તેમ નહિ તેા સંગ્રામ માટે તૈયાર થઈ જા. રાજા કૃણિક સેના, વાહન તથા શિખિરની સાથે યુદ્ધ માટે તત્પર થઈ તુરત આવી રહ્યા છે. (૪૨) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिककी दश कुमारोंसे मन्त्रणा मूलम् - तणं से दूर करयल० तहेव जाव जेणेव चेडए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाच वद्धावेर, बद्धावित्ता एवं वयासीएस णं सामी ! ममं विणयपडिवत्ती, इयाणि कूणियस्स रनो आणतोचेडगस्स रनो वामेणं पारणं पायपीढं अकमर, अकमित्ता, आमुरुत्ते कुंतग्गेण लेहं पणावेइ त चैव सबलखंधावारे णं इह हव्वमागच्छइ । १९३ तएण से चेडए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमहं सोचा निसम्म आमुरुते जाव साह एवं वयासी - न अप्पिणामि णं कूणियस्स रन्नो सेयri अट्ठारसर्वकं हारं, वेहलं च कुमारं नो पेसेमि, एस णं जुद्धसज्जे मि । तं दूयं अकारियं असंमाणियं अवदारेणं निच्छुहावे । तणं से कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म छाया ततः खलु स दूतः करतल० तथैव यावद् यत्रैव चेटको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतल० यावद् वर्धयति, वर्धयिखा एवमवादीदएषा खलु स्वामिन् ! मम विनयप्रतिपत्तिः, इदानों कूणिकस्य राज्ञः आज्ञप्ति:चेटकस्य राज्ञो वामेन पादेन पादपीठमाक्रामति, आक्रम्य आशुरक्तः कुन्ताग्रेण लेखं प्रणाययति तदेव सबलस्कन्धावारः खलु इह हव्यमागच्छति । ततः खलु स चेटको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थ श्रुखा निशम्य आशुरक्तः यावत् संहृत्य एवमवादीत् - नार्पयामि खलु कूणिकस्य राज्ञः सेचनकमष्टादशवक्रं हारं वैहल्यं च कुमारं नो प्रेषयामि, एष खलु युद्धसज्जस्तिष्ठामि । तं दूतमसत्कारितमसम्मानितमपद्वारेण निष्कासयति । ततः खलु स कूणिको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थं श्रुला શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरावलिका सूत्र १९४ आसुरुत्ते कालादीए दस कुमारे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं हारं अंतेउरं सभंडं च गहाय चंपातो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता वेसालि अज्जगं चेडगरायं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ | तर णं मए सेयणगस्स गंधहत्थिस्स अट्ठारसवंकस्स हारस्स अट्ठाए या पेसिया, ते य चेडएण रण्णा इमेणं कारणेणं पडिसेहिया अदुत्तरं च णं ममं तथे दूए असकारिए, तं अवदारेणं निच्छुहावे तं सेयं खलु देवापिया ! अहं वेडगस्स रनो जुत्तं गिव्हित्तए । तए णं कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रनो एयमहं बिगएणं पडिमुर्णेति । तणं से कूणिए राया कालादीए दस कुमारे एवं वयासी - गच्छह णं तुभे देवाणुपिया ! ससु सएस रज्जे पत्तेयं पत्तेयं व्हाया जाव निशम्य आशुरक्तः कालादीन् दश कुमारान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - एवं खलु देवानुप्रियाः ! वैहल्यः कुमारो मम असंविदितः खलु सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं हारम् अन्तःपुरं सभाण्डं च गृहीत्वा चम्पातो निष्क्रामति, निष्क्रम्य वैशालीम् आर्यकं चेटकराजम् उपसंपद्य विहरति । ततः खलु मया सेचनकस्य गन्धहस्तिनः अष्टादशवक्रस्य हारस्य अर्थाय दूताः प्रेषिताः, ते च चेटकेन राज्ञा अनेन कारणेन प्रतिषिद्धाः, अथोत्तरं च खलु मम तृतीयो दूतः असत्कारितः, तम् अपद्वारेण निष्कासयति, तच्छ्रेयः खलु देवानुमियाः ! अस्माकं चेटकस्य राज्ञः युक्तं ग्रहीतुम् । ततः खलु कालादिकाः दश कुमाराः कूणिकस्य राज्ञः एतमर्थ विनयेन प्रतिशृण्वन्ति । ततः खलु स कूणिको राजा कालादीन् दश कुमारान् एवमवादीत्गच्छत खलु यूयं देवानुप्रियाः ! स्वकेषु स्वकेषु राज्येसु प्रत्येकं प्रत्येकं શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिकको दश कुमारोंसे मन्त्रणा पायच्छित्ता हत्थिखंधवरगया पत्तेयं-पत्तेयं तिहिं दंतिसहस्सेहि, एवं तिहिं रहसहस्सेहिं, तिहिं आससहस्सेहि, तिहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिखुडा सव्विड्डीए जाच रवेणं सएहितो २ नयरेहितो पडिनिक्खमह, पडिनिक्खमित्ता ममं अंतियं पाउब्भवह । तए णं ते कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयम सोच्चा सएमु सएमु रज्जेसु पत्तेयंर पहाया जाव तिहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिखुडा सब्बिड्डीए जाव रवेणं सएहितोर नयरेहितो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अंगा जणवए जेणेव चंपा नयरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागया करयल० जाव वद्धाति । तएणं से कूणिए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हय-गय स्नाता यावत् मायश्चित्ताः हस्तिस्कन्धवरगताः प्रत्येकं प्रत्येकं त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः, एवं त्रिभी रथसहजैः, त्रिभिरश्वसहस्रैः, तिसभिर्मनुष्यकोटिभिः सार्द्ध संपरिताः सर्वर्या यावद्-रवेण खकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यः प्रतिनिष्क्रामत, प्रतिनिष्क्रम्य ममान्तिकं प्रादुर्भवत । ततः खलु ते कालादिका दश कुमाराः कूणिकस्य राज्ञ एतमर्थ श्रुता खकेषु स्वकेषु राज्येषु प्रत्येकं प्रत्येकं स्नाता यावत् तिमृभिर्मनुष्यकोटिभिः सार्द्ध संपरिवृताः सर्वद्धर्या यावद् रवेण स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यः प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव अङ्गा जनपदाः, यत्रैव चम्पानगरी, यत्रैव कूणिको राजा तत्रैवोपागताः करतल० यावद् वर्धयन्ति । ततः खलु स कूणिको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयिता एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! आभिषेक्यं हस्तिरत्नं पति શ્રી નિયાવલિકા સૂત્ર Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ निरयावलिका सूत्र रह-चाउरंगिणिं सेणं संनाहेह, ममं एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, जाव पञ्चप्पिणंति । तए णं से कूणिए राया जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ जाव पडिनिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जाव नरवई दुरूढे । ___ तए णं से कूणिए राया तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रवेणं चंपं नयरिं मझ-मज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कालादीया दस कुमारा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कालाइएहिं दसहिं कुमारेहिं सद्धिं एगओ मेलायति । ___तए णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं, तेत्तीसाए आससहस्सेहिं, तेत्तीसाए रहसहस्सेहिं, तेत्तीसाए मणुस्सकोडीहिं सद्धिं संपरिखुडे सविड्डीए जाव रवेणं सुभेहिं वसहिपायरासेहिं नाइविष्पगिटेहिं अंतरावासेहि कल्पयत, हय-गज-रथ-चतुरङ्गिणी सेनां संनह्यत ममैतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स कूणिको राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति यावत् प्रतिनिर्गत्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यावत् नरपतिर्दूरूढः । ततः खलु स कूणिको राजा त्रिभिर्दन्तिसहस्रैः यावत् रवेण चम्पां नगरी मध्यं मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव कालादिका दश कुमारास्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य कालादिकैर्दशभिः कुमारैः सार्द्धमेकतो मिलति । ____ ततः खलु स कूणिको राजा त्रयस्त्रिंशता दन्तिसहस्रः, त्रयस्त्रिंशताऽश्वसहस्रैः, त्रयस्त्रिंशता रथसहस्रः, त्रयस्त्रिंशता मनुष्यकोटिभिः साई संपरिवृतः सर्वर्या यावद् रवेण शुभैर्वसतिप्रातराशैः नातिविप्रकृष्टैरन्तरावासैः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिकको दश कुमारोंसे मन्त्रणा १९७ वसमाणे २ अंगजणवयस्स मज्भं-मज्येणं जेणेव विदेहे जणवए जेणेव साली नयरी तेणेव पहारित्थ गमणाए ॥ ४३॥ वसन् २ अङ्गजनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव विदेहो जनपदः, यत्रैव वैशाली नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥ ४३ ॥ टीका " तणं से दूए ' इत्यादि - अपद्वारेण लघुद्वारेण, गुप्तद्वारेण वा गृह " " , तणं से दूए ' इत्यादि राजा कूणिकके ऐसा कहनेपर उस दूतने राजाकी आज्ञाको हाथ जोडकर स्वीकार की और पहिलेके ही समान राजा चेटकके पास आया, आकर हाथ जोड जय विजय शब्द के साथ बधाकर इस प्रकार कहा कि हे स्वामिन् ! यह मेरा विनय है, और अब जो राजा कूणिककी आज्ञा है वह कहता हूँ, ऐसा कहकर अपने बाये पैर से राजा चेटकके सिंहासन के पादपीठको ठोकर लगाता है और कोपसे आरक्त हो भालेकी नोकसे पत्र देकर कूणिकका सन्देश सुनाता है । रे मृत्युको चाहनेवाले – निर्लज्ज ! बुरे परिणामवाले मूर्ख राजा चेटक ! वह तपण से दूए ' त्याहि. રાજા કૂણિકના કહેવા પછી તે કૂત રાજાની આજ્ઞાને હાથ જોડી સ્વીકાર કરી અને પહેલાંની પેઠેજ રાજા ચેટકની પાસે આવ્યા. આવીને હાથ જોડી જય વિય શબ્દથી વધાવી આ પ્રકારે કહ્યું કે હે સ્વામિન્! આ મારી તરફના વિનય છે. અને હવે જે રાજા કૂણિકની આજ્ઞા છે તે કહું છું. એમ કહીને પેાતાના ડાખા પગથી રાજા ચેટકના સિંહાસનની પાસે રહેલા પાદપીડને ઠાકર મારી દે છે તથા કેપથી લાલચેાળ થઈ જઈ ભાલાની અણીથી પત્ર આપીને કૂણિકના સંદેશા સંભળાવે છે–૨ મૃત્યુને ચાહનારા નિજ, ખરામ પિરણામવાળા મૂર્ખ રાજા ચેટક ! તને કૂણિક રાજા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १९८ निरयावलिका सूत्र पश्चाद्भागेनेत्यर्थः । दूरूढ आरूढः, युक्तम्-उचितं योग्यमिति यावत् , शेषं सुगमम् ॥४३॥ कूणिक राजा तुझे आज्ञा देता है कि सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार मुझे अर्पित करे, व कुमार वैहल्ल्यको मेरे पास भेजदे, नहीं तो संग्रामके लिए तैयार होजा, राजा कूणिक सेना वाहन और शिबिरके साथ युद्ध के लिए तत्पर होकर शीघ्र आरहा है। वह चेटक राजा उस दूतके मुँहसे इस प्रकारका सन्देश सुनकर कोपसे आरक्त हो उठा और आँखें तडेरकर इस प्रकार कहने लगा-रे दूत ! मैं कूणिकको न तो सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार ही दे सकता हूँ, और न कुमार वैहल्ल्यको ही भेज सकता हूँ, तू जा और कह दे जो कूणिकको करना हो सो करे, युद्धके लिए मैं तैयार हूँ। ऐसा कहकर वह उस दूतको अपमानित ( काला मुँहकर गधेपर बैठा ) कर नगरके पिछले द्वारसे निकाल देता है। આજ્ઞા દે છે કે-સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરવાળો હાર મને આપીદે અને કુમાર હિલ્યને મારી પાસે મોકલી દે. અગર જો તેમ નહિ તે સંગ્રામ માટે તૈયાર થઈ જા. રાજા કૂણિક સેના, વાહન તથા શિબિરની સાથે યુદ્ધ માટે તત્પર થઈ તુરત આવી રહ્યા છે. તે ચેટક રાજા તે દૂતના મોઢેથી આ પ્રકારને સંદેશ સાંભળીને કોપથી લાલચોળ થઈ ગયો તથા આંખે કાઢી આ પ્રકારે કહેવા લાગે રે ડૂત! હું કૂણિકને ન તે સેચનક ગંધહાથી કે અઢાર સરવાળે હાર દઈ શકીશ કે ન તો કુમાર વૈહલ્યને પણ મોકલી શકીશ. માટે તું જા અને કહી દે કૃણિકને જે કરવું હોય તે કરે. યુદ્ધ માટે હું તૈયાર છું. એમ કહીને તે દૂતને અપમાનિત કરી (મેટું કાળું કરી ગધેડા પર બેસાડી) નગરના પાછલા દરવાજેથી કાઢી મૂકે છે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिकको दश कुमारोंसे मन्त्रणा १९९ दूत वहाँसे चलकर वापस अपने राजा कूणिकके पास आया और उनको सारा वृत्तान्त सुनाया । कूणिक, दूतके मुखसे राजा चेटकका संवाद सुन कोपारक्त हो काल आदि दस कुमारोंको बुलवाता है और उन्हें बुलवाकर इस प्रकार कहता है - हे देवानुप्रियों ! वैहल्ल्य कुमार मुझसे बिना कुछ कहे ही सेचनक गंधहाथी, अठारह लडीवाला हार, एवं अपने अन्तःपुर परिवारके सहित सभी प्रकारकी गृहसामग्रियाँ लेकर चम्पानगरीसे निकल गया और निकलकर वैशालीन रोमें राजा चेटकके पास जाकर रहने लगा है । इस समाचारको पाकर मैंने हाथी और हारके लिए अपने दो दूतों को दो बार भेजे लेकिन राजा चेटकने हमारी बातको स्वीकार नही किया, फिर मैंने तीसरे दूतको भेजा; परन्तु राजा चेटकने उसका अपमान कर उसे सपद्वारसे निकाल दिया । इसलिये हे देवानुप्रियों ! हम लोगोंको चाहिये कि हम राजा चेटकका निग्रह करें । ક્રૂત ત્યાંથી ચાલીને પાછા પેાતાના રાજા કુણિકની પાસે આવ્યા અને તેને સર્વ હકીક્ત સભળાવી. કૃણિક તના મેાઢેથી રાજા ચેટકના સંવાદ સાંભળી કાપથી રકત થઈ કાલ આદિ દશ કુમારાને ખેાલાવે છે. તથા તેમને ખેાલાવીને આ પ્રકારે કહે છેહૈ દેવાનુપ્રિયે ! વૈહલ્ક્ય કુમાર મને કાંઈ પણ કહ્યા વગરજ સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરને હાર અને પેાતાના અંત:પુર પરિવાર સહિત તમામ જાતની ગૃહસામગ્રી લઈને ચંપાનગરીથી નીકળી ગયા અને જઈને વૈશાલી નગરીમાં રાજા ચેટકની પાસે રહેવા લાગ્યા. આ સમાચાર જાણીને હાથી તથા હાર માટે મેં મારા એ તાને એ વાર મેકલ્યા પણ રાજા ચેટકે મારી વાતને સ્વીકાર કર્યો નથી. પછી મેં ત્રીજા તને મેાકલાત્મ્યા પણ રાજા ચેટકે તેનું અપમાન કરી તેને પાછલે દરવાજેથી કાઢી મૂકયા. માટે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! આપણા માટે આવશ્યક છે કે રાજા ચેટકના નિગ્રહ કરવા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० निरयावलिका सूत्र यह सुनकर वे काल आदि दस कुमारोंने राजा कूणिककी इस बातको स्वीकार किया। उसके बाद वह कूणिक राजा काल आदि दस कुमारोंको इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग अपने२ राज्यमें जाओ। वहाँ जाकर स्नान और मांगलिक कृत्यकर हाथीपर चढ, तुममेंसे हरेक कुमार तीन२ हजार हाथी, तीन२ हजार रथ, तीन२ हजार घोडे, एवं तीन२ करोड सैनिकोंके सहित सभी प्रकारकी सामग्रियोंसे युक्त हो सज-धजकर बाजे-गाजे सहित अपने२ नगरोंसे निकलो और मेरे पास आओ । __ यह सुनकर वे काल आदि दस कुमार अपने २ राज्यमें गये वहाँ जाकर कूणिकके निर्देशानुसार सभी तरहकी तैयारी एवं सभी प्रकारकी सामग्रियोंसे युक्त हों अपने २ नगरसे निकले । और अंग देश चम्पानगरीमें राजा कूणिकके पास आए और हाथ जोड जय विजय शब्दके साथ राजाको बधाये। આ સાંભળી તે કાલ આદિ દશ કુમારએ રાજા કૃણિકની આ વાતનો સ્વીકાર કર્યો. ત્યાર પછી તે કુણિક રાજા કાલ આદિ દશ કુમારોને આ પ્રમાણે કહે છેદેવાનુપ્રિયે ! તમે લેક પિત–પોતાના રાજ્યમાં જાઓ. ત્યાં જઈને સ્નાન તથા માંગલિક કર્મ કરી હાથી ઉપર ચડી તમારામાંના દરેક કુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી, ત્રણ-ત્રણ હજાર રથ, ત્રણ-ત્રણ હજાર ઘોડા અને ત્રણ ત્રણ કરોડ સૈનિકે સાથે તમામ પ્રકારની સામગ્રી લઈ તૈયાર થઈ વાજતે ગાજતે પિતાપિતાના નગરમાંથી નીકળી મારી પાસે આવો. આ સાંભળી તે કાલ આદિ દશ કુમારે પોતપોતાના રાજ્યમાં ગયા. ત્યાં જઈને કણિકના કહ્યા પ્રમાણે તમામ પ્રકારની તૈયારી કરી એવું સર્વ પ્રકારની સામગ્રી લઈને પોતપોતાના નગરમાંથી નીકળ્યા. અને અંગ દેશ ચંપા નગરીમાં રાજા કૃણિકની પાસે આવ્યા. ત્યાં આવીને હાથ જોડી ય વિજ્ય શબ્દોથી રાજાને વધાવી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिक-चेटककी सुद्ध तयारियां काल आदि दस कुमारोंके आनेके बाद वह कूणिक राजा अपने कौटुम्बिक पुरुषोंको बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! शीघ्रातिशीघ्र आभिषेक्य (पट्ट) हाथीको सजाओ तथा घोडे, हाथी, रथ और चतुरङ्गिणी सेनाको संनद्ध करो । मेरी आज्ञानुसार तैयारी कर मुझे सूचित करो। राजा कूणिककी इस आज्ञाको सुनकर उन्होंने राजाके कथनानुसार सभी कार्य करके राजाको सूचित किया । उसके बाद वह कूणिक राजा जहाँ स्नानगृह था वहाँ आया, और स्नानादि कृत्योंसे निवृत्त हो, वहांसे निकलकर जहाँ बाहरी सभामण्डप था वहाँ पहुँचा । और वहाँ आकर वह राजा सभी प्रकारसे सुसज्जित हो अपने आभिषेक्य हाथी पर चढा। उसके बाद वह कूणिक राजा तीन २ हजार हाथी घोडे रथ और तीन करोड सैनिकोंके सहित सभी रणसामग्रियोंके साथ चम्पानगरीके मध्यसे होकर निकला, કાલ આદિ દશ કુમારે આવ્યા પછી કૃણિક રાજા પિતાના કૌટુમ્બિક પુરૂષને બોલાવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યાહે દેવાનુપ્રિય! એકદમ જલદીથી આભિય (પટ્ટ) હાથીને સજા તથા ઘોડા હાથી રથ અને ચતુરંગિણી સેનાને તૈયાર કરે. મારી આજ્ઞા પ્રમાણે તૈયારી કરી મને ખબર આપે. રાજા કૃણિકની આ આજ્ઞાને સાંભળી તેઓએ રાજાના કહેવા પ્રમાણે બધાં કાર્ય કરી રાજાને ખબર આપી. ત્યાર પછી તે કૃણિક રાજા જ્યાં સ્નાનગૃહ હતું ત્યાં આવ્યા અને સ્નાન આદિ કલ્યથી નિવૃત્ત થઈ ત્યાંથી નીકળી જ્યાં બહારનો સભામંડપ હતું ત્યાં પહોંચ્યા અને ત્યાં આવીને તે રાજા તમામ પ્રકારે સુસજિજત થઈને પિતાના આભિષેકય હાથી ઉપર બેઠા. - ત્યાર પછી તે કૃણિક રાજા ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ તથા ત્રણ કરોડ સૈનિકે સહિત તમામ યુદ્ધની સામગ્રીઓ સાથે ચંપા નગરીના મધ્યભાગમાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ निरयावलिका सूत्र मूलम्तएणं से चेडए राया इमीसे कहाए लढे समाणे नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो सदावेइ, सदावित्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रनो असंविदिते छायाततः खलु स चेटको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशी-कौशलकान् अष्टादशापि गणराजान् शब्दयति, शब्दयिखा एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाः ! वैहल्यः कुमारः कूणिकस्य निकलकर जहाँ काल आदि दस कुमार थे वहाँ आया, और काल आदि दस कुमारोसे मिला। उसके बाद वह कूणिक राजा तेतीस हजार हाथी, तेतीस हजार घोडे, तेतीस हजार रथ और तेतीस करोड सैनिकोंसे घिरा हुआ सभी तरहकी सामग्री युक्त बाजे-गाजेके साथ शुभ स्थानोमें खान-पान करता हुआ थोडी २ दूर पर डेरा डालकर विश्राम करता हुआ अङ्ग देशके बीचो-बीचसे जहाँ विदेह देश था, जहाँ वैशाली नगरी थी, वहीं पर जानेका निश्चय किया ॥ ४३ ॥ થઈને નીકળ્યા. અને ત્યાંથી નીકળી જ્યાં કાલ આદિ દશ કુમારે હતા ત્યાં આવ્યા અને કાલ આદિ દશ કુમારેને મળ્યા. ત્યાર પછી તે કૂણિક રાજા તેત્રીસ હજાર હાથી, તેત્રીસ હજાર ઘોડા તેત્રીસ હજાર રથ તથા તેત્રીસ કરોડ સૈનિકેથી ઘેરાયેલા અને તમામ જાતની યુદ્ધ સામગ્રી યુક્ત થઈ વાજતે ગાજતે શુભ સ્થાનમાં ખાન-પાન કરતા કરતા થોડે થોડે દૂર પર મુકામ કરતા કરતા વિશ્રામ લેતા થકા અંગ દેશની વચ્ચે-વચ્ચે થઈને જયાં વિદેહ દેશ હતું જ્યાં વૈશાલી નગરી હતી ત્યાં જવાનો નિશ્ચય કર્યો. (૪૩) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका राजा कूणिक-चेटकको युद्ध तैयारियां णं सेयणगं गंधहत्यिं अट्ठारसर्वकं च हारं गहाय इहं हन्धमागए, तए णं कृणिएणं सेयणगस्स अट्ठारसवंकस्स य अट्ठाए तओ या पेसिया, ते य मए इमेणं कारणेणं पडिसेहिया । तए णं से कूणिए ममं एयमढे अपडिसुणमाणे चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुडे जुझसज्जे इहं हव्वमागच्छइ, तं किं नु देवाणुप्पिया ! सेयणगं अट्ठारसर्वकं च कूणियस्स रनो पञ्चप्पिणामो ? वेहल्लं कुमारं पेसेमो ? उदाहु जुज्झित्था ? तए णं नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो चेडगं रायं एवं वयासी-न एवं सामी ! जुत्तं वा पत्तं वा रायसरिसं वा जन्नं सेयणगं अट्ठारसवंकं कूणियस्स रनो पञ्चप्पिणिज्जइ, वेहल्ले य कुमारे सरणागए पेसिज्जइ, तं जइ णं कूणिए राया चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुडे जुझसज्जे इहं हव्वमागच्छइ । तो णं अम्हे कूणिएणं रण्णा सद्धिं जुज्झामो । राज्ञः असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रं च हारं गृहीला इह हव्यमागतः, ततः खलु कूणिकेन सेचनकस्य अष्टादशवक्रस्य चार्थाय त्रयो दूताः प्रेषिताः, ते च मयाऽनेन कारणेन प्रतिषिद्धाः । ततः खलु स कुणिको मम एतमर्थमपतिशृण्वन् चातुरङ्गिण्या सेनया सार्द्ध संपरिवृतः युद्धसज्ज इह हव्यमागच्छति तत् किं नु देवानुपियाः ! सेचनकमष्टादशवक्रं च कूणिकाय राज्ञे प्रत्यर्पयामः, वैहल्ल्यं कुमारं प्रेषयामः, उताहो ! युध्यामहे ?। ततः खलु नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशी-कोशलका अष्टादशापि गणराजाश्चेटकं राजानमेवमवादिषुः-नैतत् स्वामिन् ! युक्तं वा, प्राप्तं वा राजसदृशं वा यत्खलु सेचनकमष्टादशवक्रं कूणिकाय राज्ञे प्रत्यर्प्यते, वैहल्ल्यश्च कुमारः शरणागतः प्रेष्यते, तद् यदि खलु कूणिको राजा चातुरङ्गिण्या सेनया सार्द्ध संपरिवृतो युद्धसज्ज इह हव्यमागच्छति तदा खलु वयं कूणिकेन राज्ञा सार्द्धं युध्यामहे । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ __ निरयावलिका सूत्र तए णं से चेडए राया ते नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो एवं वयासी-जइणं देवाणुप्पिया ! तुब्भे कूणिएणं रन्ना सद्धिं जुज्झइ, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया !। सऐसुर रज्जेसु व्हाया जहा कालादीया जाव जएणं विजएणं वद्धाति । तए णं से चेडए राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-आभिसेकं जहा कूणिए जाव दुरूढे । तएणं से चेडए राया तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कूणिए जाव वेसालिं नयार मभं-मज्झेण निगच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव ते नवमल्लई-नवलेच्छईकासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो तेणेव उवागच्छइ । ततः खलु स चेटको राजा तान् नवमल्लकि-नवलेच्छकि-काशीकौशलकान् अष्टादशापि गणराजान् एवमवादीत्-यदि खलु देवानुमियाः ! यूयं कूणिकेन राज्ञा सार्द्ध युध्यध्वं, तदच्छत खलु देवानुमियाः ! स्वकेषु स्वकेषु राज्येषु, स्नाता यथा कालादिका यावद् जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति । ततः खलु स चेटको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयिता एवमवादीत्-आमिषेक्यं यथा कूणिको यावद् दूरूढः । ततः खलु स चेटको राजा त्रिमिदन्तिसहस्रैर्यथा कणिको यावद् वैशाली नगरी मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव ते नवमल्लकी-नवलेच्छकी-काशी-कौशलका अष्टादशापि गणराजास्तत्रैवोपागच्छति । ततः खलु स चेटको राजा सप्तपश्चाशता दन्तिसहसैः, सप्तपश्चाशता अश्वसहस्रः, सप्तपञ्चाशता रथसहः, सप्तपश्चाशता मनुष्यकोटिभिः, सार्द्ध संपरिवृतः सर्वद्धर्या यावद् रवेण शुभैर्वसतिभातराशै तिविमकृष्टैरन्तरै શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका राजा कूणिक-चेटककी युद्ध तैयारियां २०५ तणं से चेडए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्सेहिं, सत्तावन्नाए आससहस्सेहिं, सत्तावन्नाए मणुस्सकोडीएहिं सद्धिं संपरिवुडे सव्विढाए जाव रवेणं सुमेहिं वसहिपायरासेहिं नातिविप्पगिट्ठेहिं अंतरेहिं वसमाणेर विदेहं जणवयं मज्भं-मज्झेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता खंधावारनिवेसणं करेs, कूणियं रायं पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे चि । तणं से कूणिए राया सव्विङ्काए जाव रवेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेडयस्स रन्नो जोयणंतरियं खंधावारनिवेस करे | तए णं से दोनिवि रायाणो रणभूमिं सज्जावेंति, सज्जावित्ता रणभूमिं जयंति ॥४४॥ सन् २ विदेहं जनपदं मध्य- मध्येन यत्रैव देशप्रान्तस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्कन्धावारनिवेशनं करोति, कृत्वा कूणिकं राजानं प्रतिपालयन् युद्धसज्ज - स्तिष्ठति । ततः खलु स कूणिको राजा सर्वद्धर्चा यावद् रवेण यत्रैव देशमान्तस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेटकस्य राज्ञो योजनान्तरितं स्कन्धावारनिवेश करोति । ततः खलु तौ द्वावपि राजानौ रणभूमिं सज्जयतः, सज्जयित्वा रणभूमिं यातः ॥ ४४ ॥ टीका 'तएणं से चेडए ' इत्यादि - नवमल्लकिनः - काशीदेशस्थगणराजाः, नवलेच्छकिनः=कोशल देशस्थगणराजाः, तान् । युक्तम् = योग्यमिति, प्राप्तम् = अधिकारोचितं, राजसदृशम् - राजवंशीयानुरूपं यत् = यनिश्चयेन । पतिपालयन् - प्रतीक्षमाणः । शेषं सुगमम् ॥ ४४ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०६ निरयावलिका सूत्र 'तएणं से चेडए' इत्यादि उसके बाद उस चेटक राजाने कूणिककी चढाईके समाचार सुनकर काशी और कोशल देशके नौ मल्लकी-नौ लेच्छकी इन अठारहों गणराजाओंको बुलाकर उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया हे देवानुप्रियो ! वैहल्ल्यकुमार राजा कूणिकसे डरकर सेचनक गन्धहाथी और अठारह लडीवाला हार लेकर मेरे पास चला आया। इसका समाचार पाकर कूणिकने मेरे पास तीन दूत भेजे, परन्तु मैंने उन दूतोंको कारण बताकर मना कर दिया। उसके बाद कणिकने मेरी बातको न मानकर चतुरङ्गिणी सेनाके साथ लडाईके लिये तैयार होकर यहाँ आ रहा है। तो क्या हे देवानुप्रियो ! सेचनक गंधहाथी और अठारह लडीवाला हार राजा कूणिकको देदें और वैहल्ल्यकुमारको उसके पास भेजदें अथवा उससे लडं ? उसके बाद वे अठारहों गणराजाओंने हाथ जोडकर इस प्रकार कहा 'तपणं से चेडए' त्याहि ત્યાર પછી તે ચેટક રાજાએ કૃણિકની ચડાઈના સમાચાર સાંભળી તેણે કાશી તથા કૌશલ દેશના નવ મલકી અને નવ લેછકી એમ અઢાર ગણરાજાઓને બોલાવી તેમને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. હ દેવાનુપ્રિયે ! હલ્ય કુમાર રાજા કૃણિકથી ડરીને સેચનક ગંધહાથી તથા અઢાર સરવાળો હાર લઈને મારી પાસે ચાલ્યા આવ્યું છે. એના સમાચાર મળતાં કૃણિકે મારી પાસે ત્રણ દૂત મેકલ્યા પણ મેં તે દૂતને કારણે બતાવી ના પાડી દીધી. ત્યાર પછી કૂણિકે મારી વાત ને નહિ માનીને ચતુરંગિણી સેના સાથે લડાઈ માટે તૈયાર થઈને અહીં આવી રહ્યો છે. તો શું હે દેવાનુપ્રિયે ! સેચનક ગંધહાથી અને અઢાર સરને હાર રાજા કૃણિકને આપી દેવો અને વૈલ્ય કુમારને તેની પાસે મોકલી દેવો કે તેની સાથે લડાઈ કરવી? ત્યાર પછી તે અઢારે ગણ રાજાઓએ હાથ જોડીને આ પ્રમાણે કહ્યું – શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका राजा कूणिक-चेटकको युद्ध तैयारियां २०७ हे स्वामिन् ! न यह युक्त है ; न ऐसा करनेकी आवश्यकता है; न यह राजकुलको उचित ही है, जो आप सेचनक गन्धहाथी और अठारह लडीवाला हार राजा कूणिकको अर्पित करें और शरणमें आए हुए कुमार वैहल्ल्यको लौटादें । हे स्वामिन् ! यदि राजा कूणिक चतुरङ्गिणी सेनाके साथ लडाईके लिये तैयार हो आ रहा है तो हम लोग भी लडनेके लिए तैयार हैं। उन राजाओंकी ऐसी बातें सुनकर राजा चेटकने उन अठारहों राजाओंसे इस प्रकार कहा-यदि हे देवानुप्रियो ! तुम लोग कूणिकसे लडना चाहते हो तो अपने २ राज्यमें जाओ और वहाँ जाकर स्नान आदि क्रिया करके लडनेके लिए काल आदि कुमारोंके समान तुम भी सेना आदिसे सज्ज हो यहाँ आओ। राजा चेटककी आज्ञा पाकर वे गणराजा अपने २ राज्यमें जाकर वहाँसे सभी प्रकारकी सैन्य सामग्रियासे युक्त हो राजा चेटककी सहायताके लिये वैशालीनगरीमें आते हैं और राजा चेटकको जय विजयके साथ बधाते हैं। હે સ્વામિન્ ! નથી તે આ વાજબી કે નથી આવી રીતે કરવાની આવશ્યક્તા. વળી આ પ્રમાણે કરવું રાજકુલને ઉચિત પણ નથી કે આપ સેચનક ગંધ હાથી તથા અઢાર સરવાળે હાર રાજા કૃણિકને અર્પણ કરી દીઓ અને શરણે આવેલા કુમાર વેહત્યને પાછો મોકલી દીઓ. હે સ્વામિન્ ! જે રાજા કૃણિક ચતુરગિણી સેના લઈને લડાઈ માટે તૈયાર કરીને આવે છે તો અમે લોકો પણ લડવા માટે તૈયાર છીએ. તે રાજાઓની એ પ્રમાણે વાત સાંભળી રાજા ચેટકે તે અઢારે રાજાઓને આ પ્રકારે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે ! જે તમે લેકે કૂણિક સાથે લડવા ચાહતા હો તો પિતાપિતાના રાજ્યમાં જાઓ અને ત્યાં જઈ સ્નાન આદિ વગેરે ક્રિયા કરી લડવા માટે કાલ આદિ કુમારને સમાન તમે પણ સેના આદિથી સજજ થઈ અહીં આવો. રાજા ચેટકની આજ્ઞા સાંભળી તે ગણરાજાએ પોતપોતાના રાજ્યમાં જઈ અને ત્યાંથી સર્વ પ્રકારની સૈન્ય સામગ્રીથી યુક્ત થઈ રાજા ચેટકને સહાયતા કરવા માટે વિશાલી નગરીમાં આવે છે અને રાજા ચેટકને જય વિજય શબ્દ સાથે વધાવે છે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ उसके बाद वह चेटक राजा अपने उनसे अपना अभिषेक्य हाथीको सज्जित करके समान वह भी अपने पट्ट हाथीपर चढता है । निश्यावलिका सूत्र कौटुम्बिक पुरुषोंको बुलवाता है और लानेकी आज्ञा देता है । कूणिकके वहाँ से वह चेटक राजा तीन २ हजार हाथी, घोडे, रथ और तीन करोड सैनिकों के साथ कूणिक के समान ही अपनी वैशालीनगरीके बीचो-बीच होकर जहाँ अठारहों गणराजा थे वहाँ आया । और वहाँ वह चेटक राजा सत्तावन हजार हाथी, सत्तावन हजार घोडे, सत्तावन हजार रथ, और सत्तावन कोटि सैनिकोंसे परिवेष्टित हो सभी प्रकारके साज-बाज और बाजे-गाजेके साथ अच्छे स्थानोंमें प्रातःकालिक भोजन करते हुए थोडी २ दूरपर डेरा डालकर विश्राम करते हुए विदेह देशके बीचो-बीचसे होते हुए जहाँ देशका प्रान्त - सीमाभाग था वहाँ आया । वहाँ आकर अपने शिबिर तैयार करवाया और लडाईके लिये राजा कूणिककी प्रतीक्षा करने लगा । ત્યાર પછી તે ચેટક રાજા પેાતાના કૌટુમ્બિક પુરૂષોને ખેલાવે છે અને તેમને પેાતાના આભિષેકય (પટ્ટ) હાથી સજ્જ કરી લાવવા આજ્ઞા આપે છે કૂણિકની પેઠે તે પણ પેાતાના પટ્ટ હાથી પર બેસે છે. ત્યાંથી તે ચેટક રાજા ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘેાડા રથ અને ત્રણ કરોડ સૈનિકા સાથે કૂણિકની પેઠેજ પાતાની વૈશાલી નગરીની વચમાં થઇને જયાં તે અઢાર ગણરાજાએ હતા ત્યાં આવ્યા. અને ત્યાં તે ચેટક રાજા સતાવન હજાર હાથી, સતાવન હજાર ઘેાડા સત્તાવન હજાર રથ તથા સતાવન કરોડ સૈનિકેાથી ઘેરાઈને તમામ પ્રકારના સાંજ ખાજ અને વાજા ગાજોંની સાથે સારાં સારાં સ્થાનામાં પ્રાતઃ કાલિક લેાજન કરતા થકા, થાડે થાડે દૂર મુકામ કરતા થકા, વિશ્રામ લેતા થકા, વિદેહ દેશની વચ્ચે-વચ્ચ થઈને જયાં દેશની સરહદ હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને પેાતાની છાવણી તૈયાર કરાવી અને લડાઇ માટે રાજા કૂણિકની રાહ જોવા લાગ્યા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका राजा कूणिक-चेटकको युद्ध २०९ मूलम्तएणं से कूणिए तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडीहिं गरुलवूहं रएइ, रइत्ता गरुलवूहेणं रहमुसलं संगामं उवायाए । तएणं से चेडए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्सेहिं जाव सत्तावन्नाए मणुस्सकोडीहिं सगडवूहं रएइ, रइत्ता सगडवूहेणं रहमुसलं संगाम उवायाए । तएणं ते दोण्ह वि राईणं अणीया सन्नद्ध जाच गहियाउहपहरणा मंगतिपहिं फलएहिं छायाततः खलु स कूणिकस्त्रयस्त्रिंशता दन्तिसहस्रैर्यावन्मनुष्यकोटिभिगरुडव्यूह रचयति, रचयिता गरुडव्यूहेन रथमुशलं सङ्ग्राममुपायातः । ततः खलु स चेटको राजा सप्तपञ्चाशता दन्तिसहस्रैर्यावत् सप्तपञ्चाशता मनुष्यकोटिभिः शकटव्यूह रचयति, रचयिता शकटव्यूहेन रथमुशलं संग्राममुपायातः । उसके बाद वह कूणिक राजा भी उसी तरह वहाँ आया जहाँ देशका अंतिम भाग था। और महाराजा चेटकके शिबिरसे एक योजन दूर अपना शिबिर बनवाया। उसके बाद उन दोनों राजाओंने रणभूमिको सज्जित की और लडाईके लिए वहाँ आये। ॥ ४४ ॥ ત્યાર પછી તે કૃણિક રાજા પણ તેજ રીતે ત્યાં આવ્યા કે જ્યાં દેશના પ્રદેશને અંતિમ છેડા હતા, અને મહારાજા ચેટકની છાવણીથી એક જન છે. પિતાની છાવણું નખાવી. ત્યાર પછી તે બેઉ રાજાઓએ રણભૂમિ સજિત કરી અને યુદ્ધ કરવા त्यां माव्या. (४४) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० - निरयावलिका सूत्र निकट्ठाहिं असीहिं, अंसगएहिं तोणेहिं, सजीवेहिं धर्हि, समुक्खित्तेहिं सरेहि, समुल्लालिताहिं डावाहि, ओसारियाहिं उरुघंटाहिं, छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं, महया उकिट्ठसीहनायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा सन्विड्डीए जाव रवेणं हयगया हयगएहि, गयगया गयगएहिं, रहगया रहगएहिं, पायत्तिया पायत्तिएहिं, अन्नमन्नेहिं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्या । तएणं ते दोण्ह वि रायाणं अणीया णियगसामीसासणाणुरत्ता महंतं जणक्खयं जणवहं जणप्पमई जणसंवट्टकप्पं नचंतकवंधवारभीमं रुहिरकदमं करेमाणा अन्नमन्नेणं सद्धिं जुज्झति । तए से काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडीहिं गरुलवूहेणं एकारसमेणं खंधेणं कूणियरहमुसलं संगाम संगामेमाणे हयमहियजहा भगवया कालीए देवीए परिकहियं जाव जीवियाओ ववरोविए । ____ ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके सन्नद्ध-यावद्-गृहीतायुधमहरणे मङ्गतिकैः फलकैः, निष्कासितैरसिभिः, अंशगतैस्तुणैः, सजीवैर्धनुभिः, समुक्षिप्तैः शरैः, समुल्लालिताभिः डावाभिः, अवसारिताभिः उरुघण्टाभिः, क्षिमतूरेण वाद्यमानेन महता उत्कृष्टसिंहनादबोलकलकलरवेणं समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणे सर्वऋद्धया यावद् रवेण हयगता हयगतैः, गजगता गजगतैः, रथगता रथगतैः, पदातिकाः पदातिकैः, अन्योन्यैः सार्द्ध संपलग्नाश्वाऽप्य भूवन् । ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके निजकस्वामिशासनानुरक्ते महान्तं जनक्षयं जनवधं जनप्रमदै जनसंवर्तकल्पं नृत्यत्कवन्धवारभीमं रुधिरकर्दमं कुर्वाणे अन्योऽन्येन सार्द्ध युध्येते । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका राजा कृणिक-चेटकको युद्ध २११ तं एयं खलु गोयमा ! काले कुमारे एरिसएहि आरंभेहिं जाव एरिसएणं असुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेमाभे नरए नेरइयत्ताए उववन्ने । काले णं भंते ! कुमारे चउत्थीए पुढवीए अणंतरं उवट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? । गोयमा ! महाविदेहे वासे जाइं कुलाई भवंति अड्डाइं जहा दृढप्पइन्नो जाव सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पनत्ते तिबेमि ॥ ४५ ॥ ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥१॥ ततः खलु स कालः कुमारस्त्रिभिर्दन्तिसहस्रैर्यावन्मनुष्यकोटिभिगरुडव्यूहेन एकादशेन स्कन्धेन कूणिकरथमुशलं संग्रामं संग्रामयन् हतमथितयथा भगवता काल्यै देव्यै परिकथितं यावज्जीविताद् व्यपरोपितः ।। तदेतत् खलु गौतम ! कालः कुमार ईदृशैरारम्भै विद् ईदृशेन अशुभकृतकर्मप्राग्भारेण कालमासे कालं कृषा चतुर्थ्यां पङ्कमभायां पृथिव्यां हेमामे नरके नैरयिकतयोपपन्नः । कालः खलु भदन्त ! कुमारश्चतुर्थ्याः पृथिव्या अनन्तरमुद्वयं कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति आढ्यानि यथा दृढमतिज्ञो यावत् सेत्स्यति भोत्स्यते यावद् अन्तं करिष्यति । ___तदेवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन निरयावलिकानां प्रथमाध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः । इति ब्रवीमि ॥४५॥ ॥प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥१॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ टीका 'तएणं से कूणिए ' इत्यादि - ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोः अनीके = सैन्ये सन्नद्ध ० = सुसज्जित० यावत् - गृहीतायुधप्रहरणे = धृतशस्त्रास्त्रे मङ्गतिकैः = हस्तपाशिफलकविशेषैः ' ढाल' इति भाषाप्रसिद्धैः, अंशगतैः = स्कन्ध " तणं से कूणिए ' इत्यादि निरयावलिका सूत्र उसके बाद वह कणिक तेंतीस २ हजार हाथी, घोडे, और रथ तथा तैंतीस करोड ( उस समयकी एक संख्या ) सैनिकों का गरूडव्यूह गरुडव्यूह के साथ रणभूमिमें रथमुशल संग्राम करनेके लिए आया । बनाया और चेटक राजा भी सतावन २ हजार हाथी, घोडे, रथ एवं सतावन करोड ( उस कालकी एक संख्या ) सैनिकों का शकटव्यूह बनाया और उसके साथ रथमुशल संग्राममें आया । उसके बाद दोनों राजाओंकी सेना अस्त्र शस्त्रसे सज्जित हो अपने २ हाथो में थामी हुई ढालोसे, खींची हुई तलवारोंसे, कंधोंपर रखे हुए तूणीरोंसे, चढे हुए . 'तपणं से कूणिए ' इत्यादि. ત્યાર પછી તે કૂણિકે તેત્રીસ હજાર હાથી, ઘેાડા અને રથ તથા તેત્રીસ કરાડ (તે સમયની એક સંખ્યા ) સૈનિકાને ગરૂડબ્લ્યૂહ અનાબ્યા અને ગરૂડવ્યૂહ સાથે રણભૂમિમાં થમુશલ સગ્રામ કરવા માટે આવ્યા ચેટક રાજા પણ સતાવન સતાવન હજાર હાથી, ઘેાડા, રથ અને સતાવન કરોડ (તે સમયની એક સંખ્યા) સૈનિકાને શકટવ્યૂહ ખનાવી તેની સાથે રથમુશલ સંગ્રામમાં આવ્યા. ત્યાર પછી બન્ને રાજાની સેના અસ્ત્ર શસ્ત્રથી સજ્જિત થઈ પોત પેાતાના હાથમાં પકડેલી ઢાલેાથી, ખેંચેલી તલવારોથી, કાંધ ઉપર રાખેલા તૂણી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका राजा कूणिक-चेटकको युद्ध स्थितैः तूणैः शरधानीभिः ‘भाता' इति भाषायाम् सजीवैः ज्यासहितैः समत्यश्चैः धनुभिः चापैः, समुक्षिप्तैः प्रक्षिप्तैः शरैः बाणैः, समुल्लालिताभिः= आस्फालिताभिः डावाभिः वामभुजाभिः, अवसारिताभिः-दूरीकृताभिः उरुघण्टाभिः विशालघण्टाभिः क्षिप्रतूरेण अतिशीघ्रण वाद्यमानेन तूर्येण महता-विशालेन उत्कृष्टसिंहनाद-बोल-कलकल-रवेण उत्कृष्टः भयङ्करः सिंहनादः सिंहगर्जनवत् बोलः कोलाहलः कलकल: व्याकुलः श्रोतुर्महाभयजनको यो रवः शब्दस्तेन समुद्ररवभूतमिव वेलाकुलजलनिधिप्रचण्डभूतसदृशं शब्दं कुर्वाणे सर्वऋद्धया सकलयुद्धसामग्रया युक्ते आस्तां, तत्र यावत् रवेण चीत्कारादिभयानकशब्देन हयगताः अश्वारूढाः हयगतैः अश्वारूढैः सह, गजगताः गजारूढाः गजगतैः गजारूढैः सह, रथगताः रथारूढाः रथगतैः रथारूढः धनुषोंसे, छोडे हुए बाणोंसे, अच्छी तरह फटकारते हुए डाबी भुजाओंसे, दूरपर टांगी हुई विशाल घण्टाओंसे, अत्यन्त शीघ्रतासे बजाये जाते हुए भेरी आदि बाजोंसे, भयंकर सिंह नादके सदृश कोलाहलसे, समुद्रकी वेलाकी आवाजके समान आवाज करती हुई, तथा सभी युद्ध सामग्रियोंसे युक्त थी, वहां भीषण हुङ्कार करते हुए घुडसवार घुडसवारोसे, हाथीवाले हाथीवालोंसे, रथी रथिकोंसे, पैदल पैदलसे, इस प्रकार एक दूसरेके साथ युद्ध करनेके लिये संनद्ध हो गये। રેથી, ચડાવેલા ધનુષ્યોથી, છેડેલા બાણથી, સારી રીતે ફટકારતા ડાબી ભુજાએથી, છેટે ટાંગેલી વિશાલ ઘંટાઓથી, અત્યંત શીઘ્રતાથી બજાવાતા ભેરી આદિ વાજાંએથી, સિંહનાદ જેવા કલાહલથી સમુદ્રની ઓળના જેવા અવાજ કરતી, તથા તમામ યુદ્ધસામગ્રીથી યુક્ત હતી. ત્યાં ભીષણ હુંકાર કરતા કરતા ઘોડેસવારે ઘોડેસવારની સાથે, હાથીવાળાએ હાથીવાળાઓની સાથે, રથી રથીઓ સાથે, પાયદલ લશ્કર પાયદલની સાથે, આ પ્રકારે એક બીજા સાથે યુદ્ધ કરવા માટે તૈયાર થઈ ગયા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ निरयावलिका सूत्र सह, पदातिकाः पादचारिणः पदातिकैः पादचारिभिः सह, अन्योऽन्यैः-परस्परैः साई-सह संपलग्ना-योढुं सम्मिलिताः' चकारः शस्त्रादिजनितमहारादिसमुच्चायकः' अपि-निश्चयेन अभूवन्-जाताः । __ ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके निजकस्वामिशासनानुरक्ते= खस्वामिनिदेशपरायणे महान्तं विशालं जनक्षयं-जननाशं जनवधं जनताडनं मुशलादिना, जनप्रमर्द-गदादिना भटानां चूर्णीकरणम् जनसंवर्तकल्पं अजासंहारसदृशं नृत्यत्कबन्धवारभीमं नटच्छिरोरहितशरीरसमूहभयानकं रुधिर उसके बाद उन दोनों राजाओंके योद्धा अपने २ स्वामीकी आज्ञामें अनुरक्त हो अत्यधिक मनुष्योंका क्षय, मनुष्योंका वध, मनुष्योंका मर्दन, एवं मनुष्योंका संहार करते हुए तथा नाचते हुए धडोंके समूहसे भयंकर और शोणितसे भूमिको कीचडमयी बनाते हुए एक दूसरेके साथ लडने लगे । उसके बाद वह काल कुमार तीन २ हजार हाथी, घोडे और रथ, तथा तीन करोड मनुष्योंके साथ गरुडव्यूहके अपने ग्यारहवें स्कन्ध अर्थात् भागके द्वारा रथमुशल संग्राम करता हुआ सैनिकोंका संहार हो जानेके बाद जिस प्रकार भगवानने काली देवीको कहा है उसी प्रकार वह मारा गया । ત્યાર પછી તે બન્ને રાજાઓના દ્ધાઓ પિતાપિતાના સ્વામીની આજ્ઞામાં અનુરકત થઈને ઘણા મનુષ્યોને નાશ, મનુષ્યોને વધ, મનુષ્યનાં મર્તન અર્થાત્ મનુષ્યને સંહાર કરતા કરતા તથા નાચતા થકા ધડોના સમૂહથી ભયંકર અને લેહીથી રણભૂમિને કીચડવાળી બનાવતા બનાવતા એકબીજા સાથે લડવા લાગ્યા. ત્યાર પછી તે કાલકુમાર ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા અને રથ તથા ત્રણ કરેડ મનુષ્યની સાથે ગરૂડન્યૂહના પિતાના અગીયારમાં સ્કંધ અર્થાત્ ભાગ દ્વારા રથ મુશલ સંગ્રામ કરતા કરતા, સૈનિકોને સંહાર થઈ ગયા પછી, જેવી રીતે ભગવાને કાલી દેવીને કહ્યું, તે પ્રકારે તે માર્યા ગયા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका राजा कूणिक-चेटकको युद्ध २१५ कर्दम-शोणितपकं कुर्वाणे अन्योऽन्येन परस्परेण सार्द्ध-सह युध्येते संग्राम कुर्वाते स्म। अशुभकृतकर्मपाग्भारेण-माणिगणसंहाररूपपापसम्पादितनरकयोग्यकर्मपुञ्जेन, शेषं सुगमम् ' इति ब्रवीमि' इति पूर्ववत् ॥ ४५ ॥ ॥इति निरयावलिकासूत्रे प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ ___ हे गौतम ! वह काल कुमार इस प्रकारके आरम्भोंसे तथा इस प्रकारके अशुभ कर्मोके संचयसे कालमासमें काल करके चौथी पङ्कप्रभा नामक पृथ्वी ( नरक ) में हेमाभ नामक नरकावासमें नैरयिक होकर उत्पन्न हुआ। हे भदन्त ! काल कुमार चौथी पृथ्वी ( नरक ) से निकलकर कहा जायगा? और कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! काल कुमार महाविदेह क्षेत्रमें जाकर आढ्य ( ऋद्धि-सम्पत्तिसे भरपूर ) कुलमें उत्पन्न होगा। और दृढप्रतिज्ञके समान ही सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा और सब दुःखोंका अन्त करेगा । हे जम्बू ! इस प्रकार सिद्धगति स्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने निरयावलिकाके प्रथम अध्ययनका यह भाव प्ररूपित किया है, अर्थात् भगवानके मुखसे जैसा मैंने सुना वैसा ही तुम्हें कहता हूँ ॥ ४५ ॥ ॥ श्री निरयावलिका सूत्रका प्रथम अध्ययन समाप्त ॥१॥ હે ગૌતમ! તે કાલકુમાર આવા પ્રકારના આરંભેથી તથા આવા પ્રકારનાં અશુભ કાર્યોના સંચયથી કાલને વખતે કોલ કરીને ચોથી પંકપ્રભા નામની પૃથ્વી (નરક) માં હેમાભ નામે નરકાવાસમાં નરયિક થઈ ઉત્પન્ન થયા. लहन्त ! भा२ याथी पृथ्वी ( न२४) माथी नीजी यi rशे ? અને જ્યાં ઉત્પન્ન થશે ? હે ગૌતમ! કાલકુમાર મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જઈ આઢય (દ્ધિ-સમ્પત્તિથી ભરપૂર) કુળમાં ઉત્પન્ન થશે, અને દૃઢપ્રતિજ્ઞની પેઠેજ સિદ્ધ થશે, બુદ્ધ થશે, મુકત થશે અને તમામ દુઃખને અંત કરશે. હે જ ખૂ! આ પ્રકારે સિદ્ધગતિ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલા એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે નિરયાવલિકાના પ્રથમ અધ્યયનને આ ભાવ પ્રરૂપિત કર્યો છે અર્થાત્ ભગવાનના મુખેથી જેમ મેં સાંભળ્યું તેમ મેં તમને કહ્યું છે. (૪૫) શ્રી નિરયાપાલિકા સૂત્રનું પ્રથમ અધ્યયન સમાપ્ત. (૧) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र मूलम्जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते अज्झयणस्स निरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ? एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नगरी होत्था । पुन्नभद्दे चेइए । कोणिए राया । पउमावई देवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कोणियस्य रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्या, सुकुमाला। तीसे णं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नामं कुमारे होत्था, सुकुमाले । तएणं से सुकाले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कालो कुमारो निरवसेसं तं चेव जाव महाविदेहे वासे अंतं काहिइ ॥१॥ ॥ बोयं अज्झयणं समत्तं ॥२॥ छाया यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन निरयावलिकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य निरयावलिकानां श्रमणेन भगवता यावत्समाप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी अभूत् । पूर्णभद्रश्चैत्यः। कूणिको राजा। पद्मावती देवी । तत्र खलु चम्पायां नगया श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता सुकाली नाम देव्यभूत, सुकुमारा । तस्याः खलु सुकाल्या देव्याः पुत्रः सुकालो नाम कुमारोऽभूत, सुकुमारः। ततः खलु स सुकालः कुमारः अन्यदा कदाचित् त्रिभिर्दन्तिसहस्रैर्यथा कालः कुमारः, निरवशेषं तदेव यावन्महाविदेहे वर्षेऽन्तं करिष्यति ॥१॥ ॥ द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥२॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अध्य. २ सुकालकुमार २१७ एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा नेयव्वा पढमसरिसा, णवरं मायाओ सरिसणामाओ ॥ १० ॥ निक्खेवो सव्वेसिं जाणियब्वो तहा ।। निरयावलियाओ समत्ताओ। ॥ पढमो वग्गो समत्तो ॥१॥ एवं शेषाण्यप्यष्टाध्ययनानि ज्ञातव्यानि प्रथमसदृशानि। नवरं मातरः सदृशनाम्न्यः ॥ १० ॥ निक्षेपः सर्वेषां भणितव्यस्तथा ॥ निरयावलिकाः समाप्ताः । ॥ प्रथमो वर्गः समाप्तः ॥ १॥ टीका'जइणं भंते' इत्यादि । सदृशनाम्न्यः पुत्रसदृशनाम्न्यः । शेष निगदसिद्धम् ॥ ॥ इति निरयावलिकासूत्रे टीकायां प्रथमो वर्गः समाप्तः ॥१॥ निरयावलिका सूत्रका द्वितीय अध्ययन 'जइणं भंते ' इत्यादि भदन्त ! सिद्धि स्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने निरयावलिकाके प्रथम अध्ययनका पूर्वोक्त अर्थ बतलाया है। तो हे भगवन् ! फिर द्वितीय अध्ययनमें उन्होंने किस भावका निरूपण किया है ? - નિરયાવલિકા સૂત્રનું દ્વિતીય અધ્યયન ‘जणं भंते ' त्यादि. હે ભદન્ત ! સિદ્ધિ સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે નિરયાવલિકાના પ્રથમ અધ્યયનને પૂર્વોકત અર્થ બતાવ્યું છે. તે હે ભગવન્! પછી દ્વિતીય અધ્યયનમાં તેમણે કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ निरयावलिका सूत्र हे जम्बू ! उस काल उस समयमें चम्पा नामकी नगरी थी। उस नगरीमें पूर्णभद्र नामका चैत्य था। और उस नगरीका राजा कूणिक था। उसकी रानी पद्मावती थी। उस चम्पानगरीमें श्रेणिक राजाकी पत्नी राजा कूणिककी छोटी माता सुकाली नामको रानी थी, जो अत्यन्त सुकुमार थी। उस सुकाली देवीका पुत्र सुकाल नामक कुमार था जो अत्यन्त सुकुमार था। उसके बाद वह सुकाल कुमार किसी एक समयमें तीन २ हजार हाथी, घोडे, रथ तथा तीन करोड पैदल सैनिकोंके साथ राजा कूणिकके रथमुशल संग्राममें लडनेके लिये गया और वह काल कुमारके समान ही अपनी सभी सेनाके नष्ट हो जानेके बाद मारा गया । मरकर काल कुमारके समान ही नरकमें गया और वहासे निकलकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर काल कुमारके समान सिद्ध होगा यावत् सब दुःखोंका अन्त करेगा । । द्वितीय अध्ययन:समाप्त हुआ। હે જમ્મુ ! તે કાલ તે સમયે ચંપા નામની નગરી હતી, તે નગરીમાં પૂર્ણભદ્ર નામને ચિત્ય હતું. અને તે નગરને રાજા કૃણિક હતો તેની રાણી પદ્માવતી હતી. તે ચંપા નગરીમાં શ્રેણિક રાજાની પત્ની રાજા કૃણિકની નાની માતા સુકાલી નામની રાણી હતી જે અત્યંત સુકુમાર હતી. તે સુકાલી દેવીને પુત્ર સુકાલ નામને કુમાર હતો જે અત્યંત સુકુમાર હતા. ત્યાર પછી તે સુકાલ કુમાર કેઈ એક સમયમાં ત્રણ ત્રણ હજાર હાથી ઘોડા રથ તથા ત્રણ કરોડ પાયદળ સનિકે સાથે રાજા કુણિકના રથમુશલ સંગ્રામમાં લડવા માટે ગયે. અને તે કાલકુમારની સમાન જ પિતાની તમામ સેના નષ્ટ થઈ ગયા બાદ માર્યો ગયે. મરીને કાલકુમારની પેઠે જ નરકમાં ગયો અને ત્યાંથી નીકળી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ કાલકુમારની જેમ સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઃખને અંત કરશે. દ્વિતીય અધ્યયન સમાપ્ત થયું. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका अध्य. ३-१० महाकालादि आठ कुभार २१९ इसी प्रकार-प्रथम अध्ययनके सदृश शेष आठ अध्ययनोंको भी जानना चाहिये । विशेष इतना ही है कि माताओंका नाम कुमारोंके नामके समान है ॥१०॥ सभीका निक्षेप अर्थात् उपसंहार पहिले अध्ययनके समान ही समझना चाहिये । इति । निरयावलिका समाप्त हुई। निरयावलिकानामक प्रथम वर्ग समाप्त ॥१॥ આ પ્રકારે પ્રથમ અધ્યયનના જેમ બાકીનાં આઠ અધ્યયનને પણ જાણવા જોઈએ. વિશેષ એટલું જ છે કે માતાઓનાં નામ કુમારોના નામના જેવો જ છે. બધાંને નિક્ષેપ અર્થાત ઉપસંહાર પહેલા અધ્યયનના સમાનજ સમજી લેવું જોઇએ. ઈતિ. નિરયાવલિકા સમાપ્ત થઈ નિરયાવલિકા નામક પ્રથમ વર્ગ સમાપ્ત. (૧) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ___ कल्पावतंसिकासूत्र ।। अथ कल्पावतंसिका नाम द्वितीयो वर्गः॥ मूलम्जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं अयमढे पन्नत्ते, दोचस्स णं भंते ! वग्गस्स कप्पवडिसियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पन्नत्ता ?। एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पडिसियाणं दस अज्झयणा पत्नत्ता, तंजहा-पउमे १ महापउमे २ भद्दे ३ मुभद्दे ४ पउमभद्दे ५ पउमसेणे ६ पउमगुम्मे ७ नलिणिगुम्मे ८ आणंदे ९ नंदणे १० । जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं कप्पवडिंसियाणं दस अज्झयणा पनत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स कप्पडिसियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटे पन्नत्ते ? । एवं खलु जंबू ! तेणं छायायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य वर्गस्य निरयावलिकानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! वगस्य कल्पावतंसिकानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कति अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ? एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-पद्मः १ महापद्मः २ भद्रः ३ सुभद्रः ४ पद्मभद्रः ५ पद्मसेनः ६ पद्मगुल्मः ७ नलिनीगुल्मः ८ आनन्दः ९ नन्दनः १० । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य कल्पावतंसिकानां श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य. १ पद्मकुमार २२१ कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था । पुन्नभद्दे चेइए । कूणिए राया । पउमावई देवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रनो भजा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था, सुकुमाल० । तीसेणं कालीए देवीए पुत्ते काले नाम कुमारे होत्था, सुकुमाल० । तस्स णं कालस्स पउ. मावई नामं देवी होत्था, सोमाल० जाव विहरइ । तए सा पउमावई देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे जाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा। एवं जम्मणं जहा महाबलस्स, जाव नामधिज्जं, जम्हाणं अम्हं इमे दारए कालस्स कुमारस्स पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए तं होउ णं अहं इमस्स दारगस्स नामधिजं पउमे सेसं जहा महब्बलस्स अट्टओ दाओ जाव उप्पि पासायवरगए विहरइ ॥१॥ अभवत् । पूर्णभद्रं चैत्यं, कूणिको राजा, पद्मावती देवी । तत्र खलु चम्पायां नगर्या श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञो लघुमाता काली नाम देवी अभवत् । सुकुमार० । तस्याः खलु देव्याः पुत्रः कालो नाम कुमारोऽभवत् । सुकुमार० । तस्य खलु कालस्य कुमारस्य पद्मावती नाम देवी अभवत् । सुकुमार० यावत् विहरति । ततः खलु सा पद्मावती देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशे वासगृहे अभ्यन्तरतः सचित्रकर्मणि यावत् सिंहं स्वप्ने दृष्ट्रा खलु प्रतिबुद्धा। एवं जन्म यथा महाबलस्य यावत् नामधेयं, यस्मात् खलु अस्माकमयं दारकः कालस्य कुमारस्य पुत्रः पद्मावत्या देव्या आत्मजः तद् भवतु खलु अस्माकम् अस्य दारकस्य नामधेयं पद्मः । शेषं यथा महाबलस्य अष्ट दायाः यावत् उपरि प्रासादवरगतो विहरति ॥१॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ २ कल्यावतंसिकासूत्र टीका 'जइणं भंते' इत्यादि-कूणिकराजलघुभ्रातुः कालकुमारस्य पद्मावती नाम भार्या अन्यदा कदाचित् अभ्यन्तरतः अभ्यन्तरभागे सचित्रकर्मणि-विचित्रचित्रकर्मयुक्ते तस्मिन् तादृशे वासगृहे=निजप्रासादे सुप्तजाग्रदवस्थायां तन्द्रायां स्वप्ने सिंहं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा जागरिता । शेषं सुगमम् ॥१॥ कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्ग. ' जइणं भंते ' इत्यादि हे भदन्त ! यदि मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीरने निरयावलिका नामक उपाङ्गके प्रथम वर्गमें पूर्वोक्त अभिप्रायका वर्णन किया है तो इसके बाद भगवानने द्वितीय वर्ग-कल्पावतंसिकामें कितने अध्ययनोंका वर्णन किया है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकामें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है उनके नाम इस प्रकार हैं: કલ્પાવતસિકા નામને દ્વિતીય વર્ગ 'जइणं भंते ' त्याहि. હે ભદન્ત ! જે મોક્ષ પ્રાપ્ત થવણભગવાન મહાવીરે નિરયાવલિકા નામે ઉપાંગના પ્રથમ વર્ગમાં પૂર્વોક્ત અભિપ્રાયનું વર્ણન કર્યું છે તે ત્યાર પછી તેમણે બીજા વર્ગ કલ્પાવતસિકામાં કેટલા અધ્યયનું વર્ણન કર્યું છે? શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જણૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કલ્પાવતંસિકામાં દશ અધ્યયનને નિરૂપણ કર્યું છે. તેમના નામ આ પ્રમાણે છે – શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य.१पद्मकुमार २२ (૨) પન્ન (૨) મા (૩) મદ્ર ( ) મુમદ્ર (૧) પમદ્ર (૬) રેન (૭) પન્નકુમ (૮) નજિનીપુરમ (૧) આનન્ટ સૌર (૨૦) નન્સના श्री जम्बू स्वामी पूछते हैं: हे भगवन् ! श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकामें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है। उसके प्रथम अध्ययनमें किस भावका निरूपण किया है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! उस काल उस समयमें चम्पा नामकी नगरी थी । वहाँ पूर्णभद्र चैत्य था । उसनगरीमें कूणिक राजा राज्य करता था उसके पद्मावती नामकी रानी थी। उस चम्पानगरीमें राजा श्रेणिककी पत्नी महाराज कूणिककी छोटी माता काली नामकी रानी थी जो अत्यन्त सुकुमार थी। उस रानीके एक कालकुमार नामका (૧) પદ્ય (૨) મહાપ (૩) ભદ્ર (૪) સુભદ્ર (૫) પદ્મભદ્ર (૬) પદ્યસેન (૭) પગુલ્મ (૮) નલિની ગુલ્મ (૯) આનંદ અને (૧૦) નંદન. જમ્મુ સ્વામી પૂછે છે – હે ભગવન્! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કલ્પાવતંસિકામાં દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેના પ્રથમ અધ્યયનમાં કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે? સુધર્મા સ્વામી કહે છે હે જમ્બ! તે કાલે તે સમયે ચંપા નામની નગરી હતી, તેમાં પૂર્ણભદ્ર ચિત્ય હતો. તે નગરીમાં કૂણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તેમને પદ્માવતી નામની રાણી હતી, તે ચંપાનગરીમાં રાજા શ્રેણિકની પત્ની મહારાજ કૃણિકની નાની માતા કાલી નામની રાણ હતી જે અત્યંત સુકુમાર હતી તે રાણીને એક કાલકુમાર નામને પુત્ર હતા, તે કાલકુમારની પત્ની પાવતી દેવી જે બહુ સ્વરૂપ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ २ कल्पावतंसिकासूत्र पुत्र था | उस कालकुमारकी पत्नी पद्मावती देवी जो अत्यन्त सुरूपा थी, वह पूर्वोपार्जित पुण्यसे मिले हुए मनुष्य सुखका अनुभव करती रहती थी । वासगृहमें सोयी उसके बाद एक दिन वह पद्मावती देवी अपने अत्युत्तम हुई थी। उसके वासगृहकी दिवालें अत्यन्त मनोहर चित्रोंसे चित्रित थीं । उस घरमें अपनी कोमल शय्यापर सोती हुई उस रानीने स्वप्न में सिंहको, देखा । स्व देखनेके बाद वह जाग गयी । बादमें उसे स्वप्न दर्शन के अनुसार शुभ लक्षणवाला 1 पुत्र हुआ । उसका जन्मसे लेकर नामकरण पर्यन्त समी कृत्य महाबल कुमारके सदृश जानना । वह काल कुमारका पुत्र और पद्मावती देवीका अङ्गजात होनेसे उसका नाम पद्म रखा गया । इसके बादका सभी वृत्तान्त महाबलके सदृश जानना चाहिये । उसे आठ २ दहेज मिला । वह अपने ऊपरी महलमें सभी प्रकारके मनुष्यसम्बन्धी सुखोंका अनुभव करता हुआ निवास करता था ॥ १ ॥ વાન હતી. તે પૂર્વ ઉપાર્જીત પુણ્યથી મળેલા મનુષ્ય સુખનેા અનુભવ કરતી रहेती हेती. ત્યાર પછી એક દિવસ તે પદ્માવતી ધ્રુવી પેાતાના અતિ ઉત્તમ वासગૃહમાં સુતી હતી. તે વાસગૃહની ભીંતે અત્યંત મનેાહર ચિત્રાથી ચીતરાયેલી હતી. તે ઘરમાં પેાતાની કામલ શય્યામાં સુતેલી તે રાણીએ સ્વપ્નામાં સિંહને જોયા. સ્વપ્ન દીઠા પછી તે જાગી ગઈ. પછી તેને સ્વપ્નદર્શનને અનુસરીને શુભ લક્ષણવાળા પુત્ર થયા. તેના જન્મથી માંડી નામકરણ સુધીનાં કર્મો મહાખલ કુમારના જેવાંજ જાણવાં. તે કાલકુમારના પુત્ર તથા પદ્માવતી દેવીની કુખે જન્મેલા હાવાથી તેનું નામ પદ્મ રાખવામાં આવ્યું. ત્યાર પછીના સર્વ વૃત્તાન્ત મહાખલની પેઠે જાણવા જોઇએ. તેને આઠ આઠ દહેજ મળ્યા અને તે પેાતાના ઉપલા મહેલમાં તમામ પ્રકારનાં મનુષ્યસંધી સુખા ભાગવતા તેમાં રહેતા હતા. ॥ ૧ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अध्य. १ पद्मकुमार मूलम् - सामो समोसरिए । कूणिए निग्गए । पउमेवि जहा महम्बले निग्गए तहेव अम्मापि - आपुच्छणा जाव पव्वइए अणगारे जाए जाव गुत्तभयारी । २२५ तणं से पउमे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जर, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछम जाव विहरइ । तरणं से पउमे अणगारे तेणं ओरालेणं जहा मेहो तहेव धम्मजागरिया चिंता एवं जहेव मेहो तहेव समणं भगवं आपूच्छित्ता विउले जाव पाओ गए समाणे तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्का - रस अंगाइ, बहुपडिपुण्णाई पंच वासाई सामन्नपरियार, मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताइं० आणुपुव्वी कालगए । थेरा ओइन्ना भगवं गोयमो छाया---- स्वामी समवसृतः । परिषत् निर्गता । कूणिको निर्गतः । पद्मोऽपि यथा महाबलो निर्गतस्तथैव अम्बापित्रापृच्छना यावत् प्रव्रजितोऽनगारो जातो यावत् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स पद्मोsनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकादशाङ्गानि अधीते । अधीत्य बहुभिः चतुर्थषष्ठाष्टम० यावद् विहरति । ततः स पद्मोऽनगारो तेन उदारेण यथा मेघस्तथैव धर्मजागरिका, चिन्ता, एवं यथैव मेघस्तथैव श्रमणं भगवन्तमापृच्छय विपुले यावत् पादपोपगतः सन् तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकादशाङ्गानि बहुप्रतिपूर्णानि पञ्च वर्षाणि श्रामण्यपर्यायः । मासिक्या संलेखनया षष्ठि भक्तानि० आनुपूर्व्या कालगतः । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कल्पावतसिकासूत्र पुच्छर, सामी कहे जाव सहि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइय० उर्दू चंदिम० सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उवबन्ने, दो सागराई । से णं भंते ! पउमे देवे ताओ देवलगाओ आउक्खएणं पुच्छा, गोयमा ! महाविदेहे वासे जहा aourat जाव अंतं काहि । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेर्ण कप्पवर्डिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पत्ते तिबेमि ||२|| || पढममज्झयणं समत्तं ॥ स्थविरा अवतीर्णा भगवान् गौतमः पृच्छतिः स्वामी कथयति यावत् षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्वा आलोचित ऊर्ध्वं चन्द्रमः० सौधर्मे कल्पे देवत्वेन उपपन्नः । द्वौ सागरौ । स खलु भदन्त ! पद्मो देवस्ततो देवलोकाद् आयुः क्षयेण पृच्छा गौतम ! महाविदेहे वर्षे यथा दृढप्रतिज्ञो याव - दन्तं करिष्यति । तदेवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां प्रथमस्याध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । इति ब्रवीमि ॥ २ ॥ ॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ टीका ● 'सामी' इत्यादि - स्थविरा अवतीर्णाः - विपुलगिरितोऽधस्तादागताः । शेषं सुगमम् ॥ २ ॥ ॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ सामी समोसरिए ' इत्यादि— भगवान महावीर प्रभु पधारे, परिषद धर्म श्रवण करनेके लिये निकली । कूणिक राजा भी धर्मोपदेश सुननेके लिए निकला, कुमार पद्म भी महाबलके समान 'सामी समासरिए ' त्याहि. ભગવાન મહાવીર પ્રભુ પધાર્યાં. પરિષદ્ ધર્મ શ્રવણ કરવા માટે નિકળી. કૃણિક રાજા પણ ધર્મોપદેશ સાંભળવા માટે નિકળ્યા. કુમાર પદ્મ પણ મહાખલની પેઠે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अध्य. १ पद्मअनगार २२७ भगवान के पास गया । वहाँ भगवानके उपदेशसे उसे वैराग्य हो गया । उसने महाबलके समान ही माता पितासे प्रव्रज्याकी अनुमति माँगी । तथा अन्तमें उसने प्रव्रज्या लेली और अनगार हो गया यावत् गुप्त बह्मचारी हो गया । उसके बाद वे पद्म अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया । और बहुत सी चतुर्थ षष्ठ आदि तपस्या की । अनन्तर वे पद्म अनगार उदार - कठिन तपश्चर्या करनेसे तपः कर्मके आराधनके कारण उनका शरीर शुष्क - रूक्ष हो गया। मांस शोणितके सूख जानेके कारण इतने कृश हो गये कि उनके शरीरमें हड्डी और चमडा मात्र रह गया और उनकी सभी नसें दिखाई देने लगी । इसका विशेष वर्णन मेघ कुमारके समान जानना । मेघ कुमारके समान ही इनने धर्मजागरणा की और विपुल गिरि पर जाने आदिका विचार किया और मेघ कुमारके समान ही विपुल गिरिपर जाने के लिये भगवानसे पूछा । पूछकर स्वयं पुनः पञ्च महाव्रत ग्रहण किया । गौतम आदि ભગવાનની પાસે ગયા. ત્યાં ભગવાનના ઉપદેશથી તેને વૈરાગ્ય થઈ ગયા. તેણે મહાખલની પેઠેજ માતા પિતા પાસે પ્રત્રજયાની રજા માગી તથા છેવટે તેણે પ્રત્રજયા (દીક્ષા) લીધી અને અનગાર (ગૃહત્યાગી) થઇ ગુપ્ત બ્રહ્મચારી થઈ ગયા ત્યાર પછી તે પદ્મ અનગારે (ગૃહત્યાગી) શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના તથારૂપ સ્થવિરાની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેાનું અધ્યયન કર્યું અને બહુ રીતની ચતુર્થ તથા છઠે આદિ (૧–૨ ઉપવાસ ) તપસ્યા કરી. પછી તે પદ્મ અનગારે ઉદાર કિઠન તપસ્યા કરવાથી તપ: કર્મનું આરાધન કરવાના કારણે તેમનું શરીર સુકાઇ ગયું, રૂક્ષ થઇ ગયું. લેાહી માંસ સુકાઇ જવાના કારણે એટલા દૃશ (નખળા ) થઈ ગયા કે તેમના શરીરમાં હાડકાં તથા ચામડાં માત્ર રહી ગયાં અને તેમની ખધી નસા દેખાવા લાગી. આનું વિશેષ વર્ણન મેઘકુમારના જેવું જાણવું. મેઘકુમારની પેઠેજ તેમણે ધર્મ જાગરણા કરી તથા વિપુલગિરિ ઉપર જવા આદિના વિચાર કર્યા તથા મેઘકુમારની પેઠેજ વિપુલ ગિરિપર જવા માટે ભગવાનને પૂછ્યું. પૂછીને પોતે કરીને પંચ મહાવ્રત ગ્રહણ કર્યાં. ગૌતમ આદિ શ્રમણ નિગ્રન્થાના શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ २ कल्पावतंसिकासूत्र श्रमण निम्रन्थोंको तथा निर्ग्रन्थियोंको खमाकर स्थविरोंके साथ धीरे २ विपुल गिरि पर चढे । और वहाँ सविधि पादपोपगमन संथारा स्वीकारकर कालकी इच्छा नही करते हुए रहने लगे। और वे पद्म अनगार स्थविरोंके समीप ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन किया और पूरे पाँच वर्षकी दीक्षापर्याय पाली । एक मासकी संलेखनासे साठ भक्तका छेदनकर अनुक्रमसे कालको प्राप्त हो गये। उनके कालप्राप्त करनेके बाद स्थविर लोग उन पद्म अनगारके भाण्डोपकरण लेकर भगवानके पास आये उनके आनेके बाद गौतमने भगवानसे पूछा हे भगवन् ! ये पद्म अनगार काल करके कहाँ गये ? __भगवानने कहा-हे गौतम ! पद्म अनगार पूर्वोक्त प्रकारसे एक महीनेका सन्थारा कर और आलोचित प्रतिक्रान्त होकर अर्थात् आत्मशुद्धि करके काल अवसर काल प्राप्त होकर चन्द्रमासे ऊपर सौधर्म कल्पमें दो सागरकी स्थितिवाले देवपनेमें उत्पन्न हुए। તથા નિર્ચથીઓને ખમાવીને સ્થવિરેની સાથે ધીરે ધીરે વિપુલગિરિ પર ચડયા અને ત્યાં વિધીસર પાદપપગમન સંથારે સ્વીકાર કરી મરણની ઈચ્છા વગર રહેવા લાગ્યા, તથા તે પદ્ધ અનગાર સ્થવિરોની પાસે અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું અને પૂરા પાંચ વર્ષની દીક્ષા પર્યાય પાળી. એક મહિનાની સંખનાથી સાઠ ભક્તનું છેદન કરી અનુક્રમે કાલને પ્રાપ્ત થયા. તેમના કાલ પ્રાપ્ત કર્યા પછી સ્થવિર લેક તે પ૦ અનગારના ભાંડેપકરણ લઈને ભગવાનની પાસે આવ્યા. તેને આવ્યા પછી ગૌતમે ભગવાનને પૂછ્યું–હે ભગવન્! આ પદ્ધ અનગાર કોલ કરીને કયાં ગયા ? ભગવાને કહ્યું- હે ગૌતમ! પવા અનગર પૂર્વોક્ત પ્રકારે એક મહિનાને સંથારે કરી તથા આચિત પ્રતિકાત થઈ અર્થાત્ આત્મશુદ્ધિ કરી કાલને અવસરે કાલ પ્રાપ્ત થઈ ચંદ્રમાની ઉપર સીધર્મ ક૫માં બે સાગરની સ્થિતિવાળા દેવપણે ઉત્પન્ન થયા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग २ अध्य. २ महापद्मकुमार __ २२९ मूलम्जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ चंपा नाम छायायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां प्रथमस्याऽध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्त ? एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी अभवत् , पूर्णभद्रं चैत्यं, कूणिको हे भदन्त ! वह पद्म देव देवसम्बन्धी आयु भव स्थितिके क्षय होजानेके बाद, देवलोकसे चवकर कहाँ जायगा । हे गौतम ! वह देवलोकसे चवकर महाविदेह क्षेत्रमें दृढ प्रतिज्ञके समान समृद्ध कुलमें जन्म लेकर सिद्ध होगा और सब दुःखोंका अन्त करेगा । __ हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकाके प्रथम अध्ययनका यह भाव निरूपण किया है। ॥२॥ ।प्रथम अध्ययन समाप्त। હે ભદન્ત ! તે પદ્યદેવ દેવસબંધી આયુ, ભવ સ્થિતિને ક્ષય થઈ ગયા પછી દેવકથી અવીને કયાં જશે? હે ગૌતમ! તે દેવલોકથી આવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં દઢપ્રતિજ્ઞની રીતે સમૃદ્ધ કુલમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઃખને અંત કરશે. હે જખ્ખ ! આ પ્રકારે મેક્ષમાસ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કપાવતંસિકાના પ્રથમ અધ્યયનનું આ ભાવ નિરૂપણ કર્યું છે. તે ૨ પ્રથમ અધ્યયન સમાપ્ત. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० निरयावलिका सूत्र नयरी होत्था, पुन्नभदे चेइए, कूणिए राया, पउमावईदेवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था । तीसे णं सुकालीए पुत्ते सुकाले नामं कुमारे । तस्स णं सुकालस्स कुमारस्य महापउमा नामं देवी होत्था, सुकुमाला । ___तए णं सा महापउमा देवी अन्नया कयाई तंसि तारिसगंसि एवं तहेव महापउमे नामं दारए, जाव सिज्झिहिइ, नवरं ईसाणे कप्पे उववाओ उक्कोसटिइओ । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं० । एवं सेसा वि अट्ठ नेयव्वा । मायाओ सरिसनामाओ । कालादीणं दसण्हं पुत्ताणं आणुपुवीए-दोण्हं च पंच चत्तारि, तिण्हं तिण्हं च होंति तिन्नेव । दोण्हं च दोणि वासा, सेणियनत्तूण परियाओ ॥१॥ राजा, पद्मावती देवी । तत्र खलु चम्पायां नगर्या श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञो लघुमाता मुकाली नाम देवी अभवत् । तस्याः खलु सुकाल्याः पुत्रः सुकालो नाम कुमारः, तस्य खलु सुकालस्य कुमारस्य महापद्मा नाम देवी अंभवत् , सुकुमारा । ततः खलु सा महापद्मा देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशे एवं तथैव महापद्मो नाम दारकः यावत् सेत्स्यति नवरमीशानकल्पे उपपातः उत्कृष्टस्थितिकः । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन । एवं शेषाण्यपि अष्टौ ज्ञातव्यानि, मातरः सदृशनाम्न्यः कालादीनां दशानां पुत्राणामानुपूर्व्या-(व्रतपर्यायः) द्वयोश्च पश्च चखारि, त्रयाणां त्रयाणां च भवन्ति त्रीण्येव । द्वयोश्च द्वे वर्षे, श्रेणिकनप्तणां पर्यायः ॥१॥ શ્રી નિયાવલિકા સૂત્ર Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अध्य. ३-१० भद्रकुमारादि ८ उववाओ आणुपुवीए, पढमो सोहम्मे वितिओ ईसाणे, तइओ सणंकुमारे, चउत्थो माहिंदे, पंचमओ बंभलोए, छट्ठो लंतए, सत्तमओ महासुके, अट्ठमओ सहस्सारे, नवमओ पाणए, दसमओ अच्चुए । सव्वत्थ उक्कोसहिई भाणियव्वा, महाविदेहे सिज्झिहिइ १० ॥३॥ उपपात आनुपूर्व्या-प्रथमः सौधर्म, द्वितीय ईशाने, तृतीयः सनत्कुमारे, चतुर्थों माहेन्द्रे, पञ्चमो ब्रह्मलोके, षष्ठो लान्तके, सप्तमो महाशुक्रे, अष्टमः सहस्रारे, नवमः प्राणते, दशमोऽच्युते । सर्वत्र उत्कृष्टा स्थितिर्भणितव्या, महाविदेहे सेत्स्यति १०॥३॥ टीका'जइणं भंते' इत्यादि । मातनामसदृशनामानः कालादीनां दशानां द्वितीय अध्ययन प्रारम्भ। 'जइणं भंते ' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिकाके प्रथम अध्ययनके भावोंको पूर्वोक्त प्रकारसे निरूपण किया है तो इसके बाद हे भगवन् ! द्वितीय अध्ययनमें भगवान किन भावोंका निरूपण किया है ! 'जइणं भंते ' त्याहि. દ્વિતીય (બી) અધ્યયન પ્રારંભ જખ્ખ સ્વામી પુછે છે – હે ભદન્ત ! મોક્ષપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કલ્પાવતંસિકાના પ્રથમ અધ્યયનના ભાવોને પૂર્વોક્ત પ્રકારે નિરૂપણ કર્યા છે. તે ત્યાર પછી હે ભગવન! બીજા અધ્યયનમાં તેઓએ કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ २ कल्पावर्तसिकासूत्र पुत्राः श्रेणिकपौत्राः पद्मादयः कियन्ति २ वर्षाणि संयमपर्यायं पालयामासुरिति क्रमेण व्रतपर्यायप्रतिपादिका तद्गाथा निगद्यते - ' द्वयोश्चे ' - त्यादि । सुधर्मा स्वामी कहते हैं जम्बू ! उस काल उस समयमें चम्पा नामकी नगरी थी । वहाँ पूर्णभद्र चैत्य था । वहाँका राजा कूणिक था । उसकी रानीका नाम पद्मावती था । उस चम्पानगरी में राजा श्रेणिककी रानी महाराजा कूणिककी छोटी माता सुकाली नामकी रानी थी। उस सुकाली रानीका पुत्र सुकाल कुमार था । उस सुकाल कुमारकी पत्नी का नाम महापद्मा था, वह अत्यन्त सुकुमार थी । उसके बाद वह महापद्मा देवी किसी समय एक रातमें शय्यापर सोयी हुई थी। उसने स्वममें सिंहको देखा ! और नौ महीनेके बाद उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम महापद्म रखा गया । इन महापद्म अनगारका उत्पत्ति से लेकर सिद्धि तकका वृत्तान्त पद्म अनगारके समान ही जानना चाहिये । अर्थात् શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે:-~ હે જમ્મૂ ! તે કાળે તે સમયે ચંપા નામે એક નગરી હતી. તે નગરીમાં પૂર્ણ ભદ્રં ચૈત્ય હતા, ત્યાંના રાજા કૂણિક હતા. તેની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતું. તે ચંપાનગરીમાં રાજા શ્રેણિકની રાણી–મહારાજા કૃણિકની નાની માતા—સુકાલી નામે રાણી હતી. તે સુકાલી રાણીના પુત્ર કુમાર સુકાલ હતા. તે સુકાલ કુમારની પત્નીનું નામ મહાપદ્મા હતું. તે બહુ સુકુમાર હતી. ત્યાર પછી તે મહાપદ્મા દેવી કોઇ સમયે એક રાત્રિમાં જ્યારે શય્યા પર સુતી હતી ત્યારે તેણે સ્વપ્નામાં સિંહને જોચે. અને નવ મહિના પછી તેને એક પુત્ર ઉત્પન્ન થયા જેનું નામ મહાપદ્મ રાખવામાં આવ્યું. આ મહાપદ્મ અનગારની ઉત્પત્તિથી માંડીને સિદ્ધિ સુધીનું વૃત્તાન્ત પદ્મ અનગારના જેવુંજ જાણી લેવું જોઈએ. અર્થાત્ દેવલાકથી વ્યવીને મહાવિદેહક્ષેત્રમાં સિદ્ધ થશે. એટલું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अध्य. ३-१० भद्रकुमारादि ८ अस्या अयमभिप्रायः - द्वयोः - काल - सुकाल - पुत्रयोः पद्म- महापद्मकुमारयोव्रतपर्यायः ः पञ्च पञ्च वर्षाणि त्रयाणां = महाकाल - कृष्ण - सुकृष्णपुत्राणां-भद्रसुभद्र - पद्मभद्रकुमाराणां चत्वारि चत्वारि वर्षाणि व्रतपर्यायः, पुनस्त्रयाणां = महा २३३ देवलोक से च्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें सिद्ध होंगे । इतना विशेष है कि ये महापद्म अनगार ईशान देवलोक में उत्कृष्ट स्थितिवाले देव हुए । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर प्रभुने इस प्रकार द्वितीय अध्ययनका निरूपण किया है । वह जैसा भगवानसे सुना है वैसा तुम्हें कहा है ॥ २ ॥ हे जम्बू ! इसी प्रकार शेष आठ अध्ययनोंको जानना चाहिये । काल आदि दस कुमारोके पुत्रोंकी माताओंके नाम उन पुत्रोंके सदृश हैं । इन सबका चारित्रपर्याय अनुक्रमसे इस प्रकार है- काल सुकालके पुत्र पद्म महापद्म अनगारने पाँच २ वर्ष दीक्षा पर्याय पाली । महाकाल, कृष्ण और सुकृष्णके पुत्र भद्र, सुभद्र और पद्मभद्रने चार २ वर्ष, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्णका पुत्र पद्मसेन पद्मगुल्म और नलिनीगुल्म अनવિશેષ છે કે તે મહાપદ્મ અનગાર ઇશાન દેવલાકમાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા દેવ થયા. હૈ જમ્મૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ આ પ્રકારે ખીજા અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. તે જેવું ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યું છે તેવુંજ મે તને કહ્યું છે. (૨) હૈ જમ્મૂ ! આ પ્રકારે બાકીનાં આઠ અધ્યયનાને જાણી લેવાં જોઈએ, કાલ આદિ દશ કુમારાના પુત્રાની માતાઓના નામ તે પુત્રાના જેવાં છે. તે બધાનાં ચારિત્રપોય અનુક્રમથી આ પ્રકારે છે:~ કાલ સુકાલના પુત્ર પદ્મ મહાપદ્મ અનગારે પાંચ પાંચ વર્ષે દીક્ષાપોય પાળી. મહાકાલ, કૃષ્ણ તથા સુકૃષ્ણના પુત્ર ભદ્ર, સુભદ્ર અને પદ્મભદ્રે ચાર ચાર વર્ષ, મહાકૃષ્ણ, વીરકૃષ્ણ, રામકૃષ્ણના પુત્ર પદ્મસેન, પદ્મગુલ્મ અને નલિનીગુલ્મ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ २ कल्पावतंसिकासूत्र कृष्ण-वीरकृष्ण-रामकृष्णपुत्राणां पद्मसेन-पद्मगुल्म-नलिनीगुल्मकुमाराणां त्रीणि त्रीणि वर्षाणि व्रतपर्यायः, पुनर्द्वयोः पितृसेनकृष्ण-महासेनकृष्णपुत्रयोः आनन्द-नन्दनकुमारयोः द्वे द्वे वर्षे । इत्थं श्रेणिकनप्तॄणां श्रेणिकपौत्राणां दशानामपि पर्यायः संयमपर्यायो ज्ञातव्यः । आनुपूर्व्या क्रमेण उपपातः= देवलोकेषु जन्म मोच्यते-प्रथमः पद्मः १ सौधर्म सौधर्माख्यप्रथमदेवलोके उत्कृष्टद्विसागरोपमस्थितिको देवो जातः । एवं द्वितीयः महापद्मः २ ईशाने द्वितीये देवलोके उत्कृष्टेन किंचिदधिकद्विसागरोपमस्थितिकोऽभूत् । तृतीयः भद्रो मुनिः ३ सनत्कुमारे तृतीये देवलोके उत्कृष्टसप्तसागरोपमस्थितिकः, चतुर्थः-सुभद्रो मुनिः ४ माहेन्द्रे चतुर्थे देवलोके उत्कृष्टेन किंचिदधिकसप्तगारोने तीन २ वर्ष, पितृसेनकृष्ण महासेनकृष्णके पुत्र आनन्द और नन्दनने दो-दो वर्ष संयम पाला । ये दसों श्रेणिक राजाके पोते थे। अब कौन किस देवलोंकमें गये यह क्रमसे बतलाते हैं। (१) पद्य-सौधर्म नामक प्रथम देवलोकमें उत्कृष्ट दो सागरोपमकी स्थितिवाले, (२) महापद्म-ईशान नामक दूसरे देवलोकमें उत्कृष्ट दो सागरोपम झाझेरी ( कुछ अधिक ) स्थितिवाले, (३) भद्र-सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोकमें उत्कृष्ट सात सागरोपमकी स्थितिवाले, (४) सुभद्र मुनि-माहेन्द्र नामक चतुर्थ અનગારોએ ત્રણ ત્રણ વર્ષપિતૃસેનકૃષ્ણ, અને મહાસેનકૃષ્ણના પુત્ર આનંદ અને નંદને બે બે વર્ષ સંયમ પાળે. આ દશેય શ્રેણિક રાજાના પૌત્ર હતા. હવે કોણ ક્યા દેવલોકમાં ગયા તે કમથી બતાવીએ છીએ – (१) ५-सौधर्भ नामे प्रथम पता गया. (२) मा५५-शान नामे બીજા દેવલેકમાં ઉત્પન્ન થયા. (૩) ભદ્ર-સનકુમાર નામે ત્રીજા દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયા. (૪) સુભદ્રમુનિ મહેન્દ્ર નામે ચેથા દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग २ अध्य. ३-१० भद्रआदि देवांकी स्थिति २३५ सागरोपमस्थितिकः, पञ्चमः पद्मभद्रो मुनिः ५ ब्रह्मलोके पश्चमे देवलोके, उत्कृष्टदशसागरोपमस्थितिकः, षष्ठः-पद्मसेनो मुनिः ६ लान्तके तदाख्ये षष्ठे देवलोके, उत्कृष्टचतुर्दशसागरोपमस्थितिकः, सप्तमः पद्मगुल्मो मुनिः ७ महाशुक्रे सप्तमे देवलोके, उत्कृष्ट सप्तदशसागरोपमस्थितिकः, अष्टमः नलिनीगुल्मो मुनिः ८ सहस्रारेऽष्टमे देवलोके, उत्कृष्टदशसागरोपमस्थितिकः, नवमः आनन्दो मुनिः ९ माणते दशमे देवलोके उत्कृष्टविंशतिसागरोपमस्थितिकः, दशमः नन्दनो मुनिः १० द्वादशेऽच्युते देवलोके, देवलोकमें उत्कृष्ट सात सागरोपम झाझेरी स्थितिवाले, (५) पद्मभद्रमुनि-ब्रह्म नामक पञ्चम देवलोकमें उत्कृष्ट दस सागरोपमकी स्थितिवाले, (६) पद्मसेन मुनि-लान्तक नामक छठे देवलोकमें उत्कृष्ट चौदह सागरोपमकी स्थितिवाले, (७) पद्मगुल्म मुनि महाशुक्र नामक सातवें देवलोकमें उत्कृष्ट सतरह १७ सागरोपमकी स्थितिवाले, (८) नलिनीगुल्म मुनि-सहस्रार नामक अष्टम देवलोकमें उत्कृष्ट १९ सागरोपम स्थितिवाले तथा (९) आनन्द मुनि-प्राणत नामक नवमें देवलोकमें उत्कृष्ट २० सागरोपम स्थितिवाले देवपने उत्पन्न हुए (१०) नन्दन मुनि-बारहवें अच्युत नामक देवलोकमें उत्कृष्ट २२ सागरोपमकी स्थितिवाले देवपने उत्पन्न हुए । (५) पद्मल मुनि-प्र नामे पाया Padxvi, (६) पमसेन भुनि-सान्त नामे છઠ્ઠા દેવલેમાં, (૭) પવગુલ્મ મુનિ-મહાશુક્ર નામે સાતમા દેવલોકમાં ગયા. (૮) નલિની ગુલ્મ મુનિ–સહસાર નામના આઠમા દેવલોકમાં જઈ દેવપણે ઉત્પન્ન थयां. (e) मान मुनि प्रात नामे हे भा गया. (१०) नहन मुनि-मा२॥ અમ્રુત નામે દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થયા. તેમની સ્થિતિ નીચે લખ્યા પ્રકારની છે પદ્ધદેવની ઉત્કૃષ્ટ બે સાગરેપમ સ્થિતિ છે. મહાપદ્મની બે સાગરેપમ ઝાઝેરી (કાંઈકઅધિક) છે. ભદ્રની સાતસાગરેપમ, સુભદ્રની સાત સાગરેપમ ઝાઝેરી. વિભદ્રની શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ २ कल्पावतसिकासत्र उत्कृष्टद्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकश्च देवत्वेनोत्पन्नः । सर्वत्र सर्वेषु देवलोकेषु सर्वेषां देवतयोपपन्नानामुत्कृष्टस्थितिर्भणितव्या । सर्वे महाविदेहे सिद्धा भविष्यन्ति । ॥ इति कल्पावतंसिका नाम द्वितीयो वर्गः समाप्तः ॥ ये सब उत्कृष्ट स्थितिवाले देव हैं और महाविदेह क्षेत्रमें सिद्ध होंगे। । कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्ग समाप्त । દશ સાગરેપમ. પદ્મસેનના ચૌદ સાગરેપમ. પદ્મગુલ્મની સત્તર સાગરેપમ. નલિનીગુલ્મની અઢાર સાગરોપમ આનંદની વીસ સાગરોપમ અને નંદનદેવની બાવીસ સાગરેપમ સ્થિતિ છે. એ બધા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા દેવ છે અને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સિદ્ધ થશે. કલ્પાવલંસિકા નામક દ્વિતીય વર્ગ સમાપ્ત. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ चन्द्रदेवका पूर्वभव अथ पुष्पिताख्यस्तृतीयो वर्ग: मूलम्जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं दोचस्स वग्गस्स कप्पवडिसियाणं अयमढे पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं पुफियाणं के अटे पण्णत्ते ? । एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं तच्चस्स वग्गस्स पुफियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा '१ चंदे २ सूरे ३ सुक्के ४ बहुपुत्तिय ५ पुन्न ६ माणभदे य । ७ दत्ते ८ सिवे ९ वलेया, १० अणााढए चेव बोद्धव्वे ॥१॥ जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पुफियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ?। छाया___ यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां द्वितीयस्य वर्गस्य कल्पावतंसिकानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, तृतीयस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां पुष्पितानां कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां तृतीयस्य वर्गस्य पुष्पितानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चन्द्रः (१) सूरः (२) शुक्रः (३) बहुपुत्रिका (४) पूर्णः (५) मानभद्रश्च (६) दत्तः (७) शिवः (८) वलेपकः (९): अनादृतः (१०) चैव बोद्धव्यः । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन पुष्पितानां दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य पुष्पितानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३८ __ २ कल्पावतंसिकासून __एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया । तेणं कालेणं २ सामी समोसटे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए मुहम्माए चंदसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव विहरइ । इमं च णं केवलकप्पं जंबूद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासइ, पासित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरियाभे आभिओगे देवे सदावित्ता जाव मुरिंदाभिगमणजोग्गं करेत्ता तमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ । सूसरा घंटा, जाव विउव्वणा, नवरं (जाणविमाणं) जोयणसहस्सवित्थिण्णं अद्धतेवहिजोयणसमूसियं, महिंदज्झओ पणुवीसं जोयणमूसिओ, सेसं जहा सूरियाभस्स जाव आगओ नट्टविही तहेव पडिगओ । भंते त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं, पुच्छा, कूडागारसाला, सरीरं अणुपविट्ठा, पुन्वभवो । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः । परिषत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये चन्द्रो ज्योति केन्द्रः ज्योतीराजः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्रे सिंहासने चतभिः सामानिकसाहस्रीभिः यावद् विहरति । इमं च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयमानः २ पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं यथा सूर्याभः आभियोग्यान् देवान् शब्दयिखा यावत् सुरेन्द्रादिगमनयोग्यं कृखा तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयति । मुखरा घण्टा यावत् विकुर्वणा नवरं (यानविमानं) योजनसहस्रविस्तीर्णम् अर्धत्रिषष्टियोजनसमुच्छ्रितम् , महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशतियोजनमुच्छ्रितः, शेषं यथा सूर्याभस्य यावदागतो नाव्यविधिस्तथैव प्रतिगतः । भदन्त इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं, पृच्छा, कूटागारशाला, शरीरमनुमविष्टा, पूर्वभवः । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका धर्ग ३ अध्य. १ चद्रदेवका पूर्वभव २३९ एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ सावत्थी नाम नयरी होत्था, कोहए चेइए । तत्थणं सावत्थीए नयरीए अंगई नाम गाहावई होत्था, अड्डे जाव अपरिभूए । तएणं से अंगई गाहावई सावत्थीए नयरीए बहूणं नयरनिगम० जहा आणंदो ॥१॥ एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'श्रावस्तिः' नाम नगरी अभवत् , कोष्ठकं चैत्यम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् अङ्गतिर्नाम गाथापतिरभवत् आढयो यावदपरिभूतः । ततः खलु सः अङ्गतिर्गाथापतिः श्रावस्त्यां नगर्या बहूनां नगरनिगम० यथा आनन्दः ॥ १॥ टीका'जइणं भंते' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ज्योति । अथ पुष्पिता नामक तृतीय वर्ग । 'जइणं भंते ' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! मोक्षको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने कल्पावतंसिका नामकः द्वितीय वर्ग स्वरूप उपाङ्गमें पूर्वोक्त भावोंका निरूपण किया है उसके बाद तृतीय અથ પુષિત નામક તૃતીય વર્ગ 'जइणं भंते ' त्यादि. જખ્ખ સ્વામી પુછે છે – હે ભદન્ત! મોક્ષ ગયેલ એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કલ્પાવતંસિકા નામે દ્વિતીય વર્ગ સ્વરૂપ ઉપાંગમાં પૂર્વોકત ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે. ત્યાર પછી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ___३ पुष्पिगसूत्र केन्द्रः ज्योतिर्देवाधिपतिः, ज्योतीराजः चन्द्रे सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः यावत् विहरति अवतिष्ठते । इमं प्रत्यक्षं खलु केवलकल्पं सम्पूर्ण जम्बूद्वीपम् एतन्नामकं द्वीपं-मध्यजम्बूद्वीपं विपुलेन-विशालेन अवधिना= अवधिज्ञानेन आभोगयमानः अवलोकयन् श्रमणं भगवन्तं महावीरं पश्यति, दृष्ट्वा यथा सूर्याभः आभियोग्यान्-अभि-मनोऽनुकूलं युज्यन्ते-प्रेष्यकार्ये व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्यास्तान् देवान् शब्दयित्वा=आहूय यावत् सुरेन्द्रादि वर्ग स्वरूप पुष्पिता नामक उपाङ्गमें भगवानने कौनसे भाव निरूपण किये हैं ? श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! मोक्षको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने तृतीय वर्ग स्वरूप पुष्पिता नामक उपाङ्गके दस अध्ययन निरूपण किये हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) चन्द्र (२) सूर (३) शुक्र ( ४ ) बहुपुत्रिक (५) पूर्ण (६) मानभद्र (७) दत्त (८) शिव (९) वलेपक और (१०) अनाहत ये दस अध्ययन हैं। जम्बू स्वामी पूछते हैंहे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिता नामक उपाङ्गमें दस अध्य તૃતીય વર્ગ સ્વરૂપ પુષિતા નામના ઉપાંગમાં ભગવાને કયા કયા ભાવ નિરૂપણ स्या छ ? શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જબૂ! મેક્ષપ્રાપ્ત એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે તૃતીય વર્ગ સ્વરૂપ પુષ્મિતા નામે ઉપાંગના દશ અધ્યયન નિરૂપણ કર્યા છે. તે આ પ્રકારે છે – (१) यन्द्र (२) सूर (3) शु४ (४) भत्रि (५) पूर्ण (6) भानमा (७) इत्त (८) शिव (6) ५४ भने (१०) अनाहत से श अध्ययन छ. જમ્મુ સ્વામી પુછે છે – હે ભદન! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્મિતા નામે ઉપાંગમાં દશ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ चन्द्रदेवका वर्णन __ २४१ यनोंका जो निरूपण किया है उन अध्ययनोंमें प्रथम अध्ययनके भावको भगवानने किस प्रकार वर्णन किया है। __ श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं-- हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामका नगर था। उसमें गुणशिलक नामका चैत्य था। उस नगरका राजा श्रेणिक था । उस काल उस समयमें भगवान महावीर प्रभु वहां पधारे । जनसमुदायरूप परिषद धर्मकथा सुननेके लिए निकली। उस काल उस समयमें ज्योतिष्कोंके इन्द्र, ज्योतिषियोंके राजा चन्द्र, चन्द्रावतंसक विमानके अन्दर सुधर्मा सभामें चन्द्र सिंहासनपर बैठे हुए चार हजार सामानिकोंके साथ यावत् बिराजे हुए हैं। ज्योतिषियोंके इन्द्र चन्द्रमाने इस जम्बूद्वीप नामक सम्पूर्ण मध्य जम्बू द्वीपको विशाल अवधिज्ञानसे अवलोकन करते हुए भगवान महावीरको मध्य जम्बू द्वीपमें देखा और उनका दर्शन करनेके लिए जानेकी इच्छा की, और उन्होंने અધ્યયનોનું જે નિરૂપણ કર્યું છે તે અધ્યયનમાં પ્રથમ અધ્યયનના ભાવનું તેમણે કયા પ્રકારે વર્ણન કર્યું છે? श्री सुधर्मा स्वामी हे छ: જગ્ગ! તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિલક નામે ચૈત્ય હતું. તે નગરને રાજા શ્રેણિક હતું. તે કાલે તે સમયે ભગવાન મહાવીર પ્રભુ ત્યાં પધાર્યા. જનસમુદાયરૂપ પરિષદુ ધર્મકથા સાંભળવા નીકળી. તે કાળે તે સમયે તિષ્કના ઈન્દ્ર, તિષિઓના રાજા ચન્દ્ર, ચન્દ્રાવતુંસક વિમાનની અંદર સુધર્મા સભામાં ચન્દ્રસિંહાસન પર બેઠેલા ચાર હજાર સામાનિકેની સાથે બિરાજેલા છે. તે જ્યોતિષના ઈન્દ્ર ચન્દ્રમાએ આ જમ્બુદ્વીપ નામના સંપૂર્ણ મધ્ય જમ્બુદ્વીપનું વિશાલ અવધિજ્ઞાનથી અવલોકન કરતાં થકાં ભગવાન મહાવીરને મધ્ય જમ્બુદ્વીપમાં જોયા અને તેમના દર્શન કરવા માટે જવાની ઈચ્છા કરી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ३ पुष्पितासूत्र गमनयोग्यं कृत्वा तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति । सुखरा घण्टा यावत् विकुर्वणा नवरं ( यानविमानं ) योजनसहस्रविस्तीर्ण अर्धत्रिषष्टियोजनसमुच्छ्रितम्, सूर्याभ देवके समान ही आभियोग्य ( भृत्य ) देवोंको बुलाये और उनसे कहाहे देवानुप्रियों ! तुम मध्य जम्बूद्वीपमें भगवानके समीप जाओ और वहाँ जाकर संवर्तक बात आदिकी विकुर्वणा करके कूडा कचडा आदि साफ कर सुगन्ध द्रव्योंसे सुगंधित कर यावत् योजन परिमित भूमण्डलको सुरेन्द्र आदि देवोंके जाने आने बैठने आदिके योग्य बनाकर खबर दो । वे आभियोग्य देव उपरोक्त आज्ञानुसार भूमण्डल तैयार कर खबर देते हैं । फिर चन्द्रदेवने पदातिसेनानायक देवको कहा कि - जाओ और सुस्वरा नामकी घण्टाको बजाकर सब देवी देवोंको भगवानके पास वन्दनार्थ चलनेके लिये सूचित करो। फिर उस देवने वैसे ही किया । सूर्याभके वर्णनसे विशेष केवल इतना ही है कि इसका यानविमान एक हजार योजन विस्तीर्ण था और साढे तीरसठ योजन ऊँचा था । અને ત્યારે તેમણે સૂર્યાભદેવની પેઠેજ આલિયેાગ્ય ( સત્ય ) દેવોને મેલાવીને કહ્યું—હૈ દેવાનુપ્રિયા ! તમે મધ્ય જમ્મૂદ્રીપમાં ભગવાનની પાસે જાઓ અને ત્યાં જઈ સંવત કે પવન આદિની વિધ્રુણા કરી કચરા પુજો વગેરે સાફ કરી સુગન્ધ દ્રવ્યેાથી સુગ ંધિત કરી ચાવત્ યેાજનના વિસ્તારમાં ભૂમંડલને સુરેન્દ્ર આદિ દેવાને આવવા જવા મેસવા આદિ માટે યોગ્ય બનાવીને ખબર આપે.. તે આલિયેાગ્ય દેવ ઉપરોક્ત આજ્ઞા અનુસાર માંડલ તૈયાર કરી ખબર દે છે. પછી ચન્દ્રદેવે પદાતિસેનાના નાયક દેવને કહ્યું કે–જા અને સુસ્વરા નામની ઘટા ખજાવીને સર્વે દેવ દેવીઓને ભગવાનની પાસે વંદના માટે ચાલવા સારૂ સૂચના કરી. પછી તે દેવે તે પ્રમાણે જ કર્યું. યાનવિમાન સૂર્યાલના વર્ણનથી વિશેષ કેવળ એટલું જ છે કે આના એક હજાર ચાજન વિસ્તારવાળું હતું અને સાડા ત્રેસઠ ચેોજન ઊંચુ હતું. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ चद्रदेवका वर्णन महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशतियोजनमुच्छ्रितः, शेषं यथा - सूर्याभदेवस्य भगवदन्तिके समागमनमभूत् तद्वत् यावद - चन्द्रोऽप्यागतः, नाट्यविधिस्तथैव प्रतिगतः । तदनु भदन्त ! इति संबोध्य भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं प्रति ' हे भदन्त । इति प्राहेत्यादिना गौतमस्य पृच्छा । कूटाकारशाला - कूटस्येव - पर्वतशिखरस्येव आकारो यस्याः शालायाः सा कूटाकारशाला, एतद्दृष्टान्तेन सा दिव्या देवर्द्धिः शरीरं देवशरीरम् अनुप्रविष्टा = अन्तर्हिता । यथा कस्मिंश्चि = २४३ तथा महेन्द्र ध्वज पच्चीस योजन ऊँचा था, और इसके अतिरिक्त सभी वर्णन सूर्याभके समान समझना चाहिये । जिस प्रकार सूर्याभ देव भगवानके समीप आये, नाट्यविधि की और वापस लौट गये, वैसे ही चन्द्र देवके विषय में जानना चाहिये । उनके चले जानेके बाद गौतम स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! यह चन्द्रदेव अपनी देवशक्ति देवप्रभावसे सभी देवताओंके द्वारा नाट्य दिखाकर फिर सबको अर्न्तहित कर केवल अकेला ही रह गया यह बड़े आश्चर्य की बात है । તથા મહેન્દ્ર ધ્વજ પચીસ ચેાજન ઊંચા હતા. અને તે સિવાય મધુ` વર્ણન સૂર્યાલના જેવું જ સમજવું જોઇએ. જે પ્રકારે સૂર્યાભ દેવ ભગવાનની પાસે આવ્યા, નાટયવિધિ કરી તથા પાછા ગયા એવી જ રીતે ચન્દ્રદેવના વિષયમાં જાણવું જોઈએ તેમના ચાલ્યા ગયા પછી ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે: - હે ભદન્ત ! આ ચન્દ્રદેવ પાતાની દેવશક્તિના પ્રભાવથી સર્વ દેવતાએ દ્વારા નાટક દેખાડીને પછી બધાને અન્તર્ષિત કરી કેવળ એકલાજ રહી ગયા આ માટા આશ્ચર્યની વાત છે! શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ____ ३ पुष्पितास्त्र दुत्सवे जनसमुदायवासयोग्यां शालां वृष्ट्यादिभयभीतो विशालो जनसमूहोऽनुप्रविशति तथैव वैक्रियक्रियया चन्द्रदेवेन विरचितो देवगणो नाट्यकार्य दर्शयिवा स्वकीयं चन्द्रदेवशरीरमेवानुभविष्टः । हे भदन्त ! पूर्वभवः चन्द्रस्य प्राक्तनं जन्म कीदृशम् आसीत् ?, इति गौतमपृच्छां श्रुखा भगवानाहहे गौतम ! एवं वक्ष्यमाणरीत्या खलु-निश्चयेन तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'श्रावस्ती' नाम नगर्यभवत् , कोष्ठकं चैत्यम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् अङ्गतिर्नाम गाथापतिरभवत्-आढयो-महान , ऋद्धयादिपूर्णों वा 'जाव' भगवानने कहा-हे गौतम ! जैसे किसी उत्सवमें फैला हुवा जनसमूह वृष्टि आदि के भयसे किसी एक विशाल घरमें प्रवेश करता है उसी प्रकार चन्द्रदेव अपनी वैक्रिय शक्तिसे देवताओंकी रचना कर नाटक दिखा उनको समेट कर अपने ही देवशरीरमें प्रविष्ट कर लिया । फिर गौतम स्वामीने पूछा-हे भदन्त ! चन्द्रदेव पूर्वजन्ममें कौन थे ? गौतमका ऐसा प्रश्न सुनकर भगवानने कहा-हे गौतम ! उस काल उस समयमें श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उस नगरीमें कोष्ठक नामक चैत्य था । उस श्रावस्ती नगरीमें अङ्गति नामक एक गाथापति था। वह गाथापति बहुत बडी ऋद्धि ભગવાને કહ્યું–હે ગૌતમ! જેમ કોઈ ઉત્સવમાં વિખરેલો જનસમૂહ વરસાદ આદિના ભયથી કોઈ એક વિશાલ ઘરમાં પ્રવેશ કરે છે તેવી જ રીતે ચન્દ્રદેવ પોતાની વૈકિય શક્તિથી દેવતાઓની રચના કરી નાટક દેખાડી તેઓને સંકેલી લઈ પોતાના દેવશરીરમાં પ્રવેશ કરી લીધા. ફરી ગૌતમ સ્વામીએ પુછયુંહે ભદન્ત ! ચન્દ્રદેવ પૂર્વ જન્મમાં કેણ हता? ગૌતમને એ પ્રશ્ન સાંભળી ભગવાને કહ્યું- હે ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે શ્રાવસ્તી નામે નગરી હતી. તે નગરીમાં કેષ્ઠક નામે ચૈત્ય હતું. તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં અંગતિ નામે એક ગાથાપતિ હતું તે ગાથાપતિ બહુ મોટી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति २४५ यावत्-‘अड्डे' आढ्यः, इत्यारभ्य ‘अपरिभूए'-अपरिभूतः, इत्येतत्पर्यन्तोक्तसमस्तविशेषणविशिष्ट इत्यर्थस्तेन-'दित्ते, वित्थिन्न-विउल-भवण-सयणा-ऽऽसणजाण-वाहणाइण्णे, बहुधण-बहुजायस्व-रयए, आओग-पओग-संपउत्ते, विच्छड्डियविउलभत्तपाणे, बहु-दासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूए, बहुजणस्स' इत्येषां समन्वयः कर्तव्यः । एतच्छाया च-' दीप्तो विस्तीर्ण-विपुल-भवनशयना-सन-यान-वाहनाऽऽकीर्णो बहुधन-बहुजातरूप-रजत आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तो विच्छर्दितमचुरभक्तपानो बहुदासी-दास-गो-महिष-गवेलकमभूतो बहुजनस्य' इति । तत्र दीप्त की. उज्ज्वलः, विस्तीर्णानि विस्तृतानि विपुलानि बहूनि, भवनानि-गेहानि, शयनानि तल्पानि, आसनानि पीठकादीनि, यानानि गाडीप्रभृतीनि, वाहनानि-अश्वादीनि, तैराकीर्णः व्याप्तः समुपेतो वा । बहु-विपुलं धनं मणिप्रभृति यस्य स बहुधनः, स चासौ, बहु-विपुलं जातरूपं= सुवर्ण, रजतं रूप्यं यस्य स बहुजातरूपरजतश्च । आ-समन्ताद् योजनं-द्विगुणा आदिसे युक्त था । कीर्तिसे उज्ज्वल था। उसके पास बहुतसे घर, शय्या, आसन, गाडी, घोडे आदि थे। और वह बहुतसा धन तथा बहुत सोना चादी आदिका लेन देन करता था। उसके घरमें खाने पीनेके बाद बहुतसा अन्न पान आदि खाने पीनेका सामान रहता था जो अनाथ-गरीब मनुष्योको व पशु पक्षियोंको दिया સમૃદ્ધિવાળો હતો. કીર્તિથી ઉજજવળ હતું. તેની પાસે ઘણાં ઘર, શય્યા, આસન ગાડી, ઘડા આદિ હતાં. અને તે બહુ ધન, તથા બહુ સોના ચાંદી આદિનું લેણ દેણ કરતો હતો. તેના ઘરમાં ખાવા પીવા પછી પણ ઘણું અન્ન પાન અને ઘણો ખાવા પીવાને સામાન રહેતા હતા, જે અનાથ-ગરીબ મનુષ્ય તથા પશુ પક્ષીઓને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ __३ पुष्पितासूत्र दिलाभार्थ रूप्यादीनामधमर्णादिभ्यो नियोजनमायोगस्तस्य, प्र-प्रकर्षण योजनम् उपायचिन्तनं प्रयोगः, यद्वा-आयोगेन द्विगुणादिलिप्सया प्रयोगा= अधमर्णानां सविधे द्रव्यस्य वितरणमायोगप्रयोगः, स संप्रयुक्तः प्रवर्तितो येन, तस्मिन् वा संप्रयुक्तः संलग्नो यः स आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तः नीत्या द्रव्योपाजनप्रवृत्त इत्यर्थः । भक्तं च पानं च भक्तपाने, विपुले च ते भक्तपाने विपुलभक्तपाने, वि-विशेषेण छर्दिते-भोजनावशिष्टे भक्तपाने यस्य स विच्छदितविपुलभक्तपानः, दीनेभ्यो दीयमानविपुलभक्तपान इत्यर्थः । दास्यश्च दासाश्च गावश्च महिषाश्च गवेलकाः उरभ्राश्चेति दासीदासगोमहिषगवेलकाः, बहवश्च ते दासीदासगोमहिषगवेलका इति बहुदासीदासगोमहिषगवेलकास्ते प्रभूताः प्रचुरा यस्य स बहुदासीदासगोमहिषगवेलकप्रभूतः, अत्र गवादिपदं स्त्रीगवादीनामप्युपलक्षकं, यद्वा-गोपदस्य-खीपुंगवयोरविशेषेण वाचकवादविरोध एव, महिष-गवेलक-शब्दयोश्च 'पुमान् स्त्रिया' इत्येकशेषान्महिष्यादीनामपि ग्रहणम् । बहुजनस्येति जातिविवक्षयैकवचनं, संबन्धसामान्ये च षष्ठी, तेन 'बहुजनै '-रित्यर्थों बोद्धव्यः, अत्र ‘अपी' त्यस्याध्याहाराद्वहुजनैरपीति तत्त्वम् , अपरिभूता-तत्पराभवरहितः, यद्वा-क्त प्रत्ययार्थस्याऽविवक्षितत्वादपरिभवनीयः-बहुजनैरपि पराभवितुमशक्य इत्यर्थः । जाता था। उसके यहाँ दास दासिया बहुतसी थीं और बहुतसे गाय, भैंस, भेडें थीं। तथा वह अपरिभूत-प्रभावशाली था, यानी उसका कोई पराभव नहीं कर शकता था। આપી દેવાતો હતો. તેને ત્યાં દાસ દાસીઓ ઘણાં હતાં. તથા ગાય ભેંસ ભેડાં પણ બહુ હતાં. વળી તે અપરિભૂત-પ્રભાવશાળી હતો અર્થાત તેને કઈ પરાભવ કરી શકતો નહોતે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति २४७ एषूक्तविशेषणेषु “ अड्डे, दित्ते, अपरिभूए " एभिस्त्रिभिर्विशेषणैरगतिगाथापतौ प्रदीपदृष्टान्तोऽभिप्रेतस्तथाहि-यथा प्रदीपस्तैलवर्तिभ्यां शिखया च संपन्नो निर्वाते स्थाने सुरक्षितः प्रकाशमासादयति, एवमयमपि तैलवतिस्थानीयया आन्यताऽपरपर्यायर्या शिखास्थानीययोदारता-गम्भीरतादिरूपया दीप्त्या च संपन्नो निर्वातस्थानस्थानीयया सदाचारमर्यादापालनादिरूपयाऽपरिभूततया च संपन्नः समुज्ज्वलति-जगत्मसिद्धो भवतीति हेतुताऽवच्छेदकधर्मस्याऽऽध्यता-दोप्त्यपरिभूततैतत्रितयसमुदायनिष्ठस्यैकधर्मस्य सत्वान्न तृणारणिमणि-न्यायेन प्रत्यक्षानुमानाऽऽगमशब्देषु आढ्य, दीप्त, और अपरिभूत ' इन तीन विशेषणोंसे अंगति गाथापतिके लिये दीपकका दृष्टान्त दिया जाता है, वह इस प्रकार है-जैसे दीपक, तेल, बत्ती और शिखा ( लौ ) से युक्त होकर वायुरहित स्थानमें सुरक्षित रहकर प्रकाशित होता है, वैसे ही अंगति गाथापति भी तेल और बत्तीके समान आव्यता अर्थात् ऋद्धिसे, शिखाकी जगह उदारता गंभोरता आदिसे और दीप्तिसे युक्त होकर, वायु रहित स्थानके समान मर्यादाका पालन आदि रूप सदाचारसे तथा पराभवरहितपनसे संयुक्त होकर तेजस्विता धारण करता था। अतः आढ्यता दोप्ति और अपरिभूतता, इन तीनोंमें रहनेवाला हेतुताऽवच्छेदक धर्म एक ही है, इस कारण तृणारणिमणि-न्यायसे આઢય, દીપ્ત અને અપરિભૂત” એ ત્રણ વિશેષણોથી અંગતિ ગાથા પતિને માટે ही५४नुं दृष्टांत ४९ छ; ते प्रमाणे:-मही५४, तेत, हीवेट मने शिमा (अण) થી યુક્ત થઈને વાયુરહિત સ્થાનમાં સુરક્ષિત રહી પ્રકાશિત થાય છે, તેમ અંગતિ ગાથાપતિ પણ, તેલ અને દીવેટની પેઠે આઢયતા અર્થાત્ ઋદ્ધિથી, શિખાની જગ્યાએ ઉદારતા ગંભીરતા આદિથી અને દીપ્તિથી યુક્ત થઈને વાયુરહિત સ્થાનની સમાન મર્યાદાના પાલન આદિ રૂપ સદાચારથી તથા પરાભવરહિત પણાથી સંયુક્ત થઈને તેજસ્વિતા ધારણ કરતો હતો. એ રીતે આયતા દીપ્તિ અને અપરિભૂતતા, એ ત્રણેમાં રહેલે હેતુનાવચ્છેદક ધર્મ એક છે, તે કારણથી તૃણારણિમણિ ન્યાયે પ્રત્યક્ષ, અનુમાન અને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ३ पुष्पितासूत्र प्रत्येकं प्रमाजनकत्वमिव मत्येकमाढयतादीनां त्रयाणां समुज्ज्वलनहेतुता, किन्तु प्रकाशं प्रति तैलवादिसमुदायवत् समुज्ज्वलनं प्रति आढ्यतादिसमुदायस्यैव हेतुतेति बोध्यम् । ततः खलु सोऽङ्गतिर्गाथापतिः श्रावस्त्यां नगर्या यथा वाणिज्यग्रामे आनन्दो नाम गाथापतिः परिवसति तथैवायमपीत्यर्थः ।। तदेव स्पष्टयति-" नगर-निगम-राई-सर-तलवर-माडंबिय-कोडंबियइब्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाहाणं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुडुंबेमु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएमु य ववहारे मु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे सयस्स वि य णं कुटुंबस्स मेढी पमाणं आहारे, आलंवणं, चक्खू , मेढीभूए जाव सव्वकज्जवड्वावए यावि होत्था" एतच्छाया-नगर निगम-राजे-श्वर-तलवर-माण्डविक-कौटुम्बिकेभ्यः श्रेष्टि-सेनापति-सार्थवाहानां प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम शब्दोंमें प्रमाणताके समान प्रत्येक ( सिर्फ आब्यता, सिर्फ दीप्ति, या सिर्फ अपरिभूतता ) को हेतु नहीं मानना चाहिए । जिस प्रकार आनन्द गाथापति धन धान्य आदिसे युक्त वाणिज्य ग्राममें निवास करता था। उसी प्रकार अङ्गति गाथापति भी श्रावस्ती नगरीमें निवास करता था। આગમ શબ્દોમાં પ્રમાણતાની પેઠે પ્રત્યેકને (માત્ર આઢયતા, માત્ર દીપ્તિ, અથવા માત્ર અપરિભૂતતા-એ એક એકને) હેતુ માનવે નહિ. જે પ્રકારે આનંદ ગાથાપતિ ધનધાન્ય આદિથી યુક્ત વાણિજ્ય ગ્રામમાં નિવાસ કરતા હતા તેવી જ રીતે અંગતિ ગાથા પતિ પણ શ્રાવસ્તી નગરીમાં નિવાસ २ता उता. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति २४९ बहुषु कार्येषु च कारणेषु च मन्त्रेषु च कुटुम्बेषु च गुह्येषु च रहस्येषु च निश्चयेषु च व्यवहारेषु च आपृच्छनीयः प्रतिपृच्छनीयः, स्वस्यापि च खलु कुटुम्बस्य मेधिः, प्रमाणम् , आधारः, आलम्बनं, चक्षुः, मेधिभूतः, यावत् सर्वकार्यवर्द्धकः चापि अभवत् । तंत्र-नगरम्= " पुण्यपापक्रियाविज्ञै,-र्दयादानप्रवर्तकः । कलाकलापकुशलैः, सर्ववर्णैः समाकुलम् ॥ भाषाभिर्विविधाभिश्च, युक्तं नगरमुच्यते ।" निगमो-व्यापारप्रधानस्थानम् , ईश्वराः=ऐश्वर्यसम्पन्नाः, तलवराः= वह अङ्गति गाथापति राजा ईश्वर यावत् सार्थवाहोंके द्वारा बहुतसे कार्यों में, कारणों ( उपायों ) में, मन्त्र ( सलाह ) में, कुटुम्बोंमें, गुह्योंमें, रहस्योंमें, निश्चयोंमें और व्यवहारोंमें एक वार पूछा जाता था, और वार २ पूछा जाता था। और वह अपने कुटुम्बका भी मेधि, प्रमाण, आधार आलम्बन चक्षु, मेधीभूत यावत् समस्त कार्योंको बढाने वाला था। यहाँ यावत् शब्दसे राजा, ईश्वर, तलवर, माण्डविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाहका ग्रहण होता है । माण्डलिक नरेशको राजा, और ऐश्वर्य वालोंको ईश्वर कहते हैं । राजा संतुष्ट होकर जिन्हें पट्टबन्ध देता है, એ અંગતિ ગાથાપતિને, રાજા, ઈશ્વર યાવત્ સાર્થવાહ તરફથી ઘણાં i, २ (G ) , म ( सदा )भां, मुटुम्मामा, गुह्योभी, २७त्यामा, નિશ્ચયમાં અને વ્યવહારમાં એક વાર પૂછવામાં આવતું હતું, વારંવાર પણ પૂછવામાં આવતું હતું અને તે પોતાના કુટુંબને પણ મેધિ, પ્રમાણ, આધાર, આલંબન, ચક્ષુ, મેધીભૂત, યાવતુ બધાં કાર્યોને આગળ વધારનારે હતે. ___ मा · जाव ' २०४थी. २ant, Jश्व२, त५५२, मांडqिx Aqा भा(५४, કૌટુમ્બિક, ઈભ, શ્રેષ્ઠી, સેનાપતિ અને સાર્થવાહ, એટલા શબ્દોનું ગ્રહણ થાય છે. માંડલિક નરેશને રાજા અને એશ્વર્યવાળાઓને ઈશ્વર કહે છે. રાજા સંતુષ્ટ શ્રી નિયાવલિકા સૂત્ર Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ____३ पुष्पितासूत्र सन्तुष्टभूपालदत्तपट्टबन्धपरिभूषितराजकल्पाः माण्डविका: छिन्नभिन्नजनाश्रयविशेषो मण्डवस्तत्राधिकृताः, 'माडम्बिकाः' इति च्छायापक्षे तु ग्रामपञ्चशतीपतय इत्यर्थः, यद्वा-सार्धक्रोशद्वयपरिमितमान्तरैर्विच्छिद्य विच्छिद्य स्थितानां ग्रामाणामधिपतयः, कौटुम्बिकाः बहुकुटुम्बप्रतिपालकाः, इभ्याः इभो-हस्ती तत्पमाणं द्रव्यमर्हन्तीति, तथा ते च-जघन्य-मध्यमो-त्कृष्टभेदात् त्रिप्रकाराः तत्र हस्तिपरिमितमणि-मुक्ता-प्रवाल-सुवर्ण-रजतादिद्रव्यराशिस्वामिनो जघन्याः, हस्तिपरिमितवज्र-मणि-माणिक्य-राशिस्वामिनो वे राजाके समान पट्टबन्धसे विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं। जो वस्ती छिन्न भिन्न हो उसे मण्डव और उसके अधिकारीको माण्डविक कहते हैं । ' माडंबिय ' की छाया यदि 'माडम्बिक' की जाय तो माडम्बिकका अर्थ 'पाँच सौ गाँवोंका स्वामी' होता है। अथवा ढाई ढाई कोसकी दूरीपर जो अलग अलग गाव वसे हों, उनके स्वामीको ' माडम्बिक' कहते हैं। जो कुटुम्बका पालन पोषण करते हैं, या जिनके द्वारा बहुतसे कुटुम्बोंका पालन होता है, उन्हें ' कौटुम्बिक' कहते हैं। इभका अर्थ है हाथी, और हाथीके बराबर द्रव्य जिसके पास हो उसे ' इभ्य कहते हैं। जधन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे इभ्य तीन प्रकारके हैं। जो हाथीके बराबर मणि, मुक्ता, प्रवाल (मूंगा ) सोना, चादी आदि द्रव्य-राशिके स्वामी हों થઈને જેને પટ્ટાબંધ આપે છે તે રાજાઓના જેવા પદૃબંધથી વિભૂષિત લેકો તલવર કહેવાય છે. જેની વસતી છિન્ન ભિન્ન હોય તેને મંડવ અને તેના અધિકારીને भांडवि : छ. 'माडविय' नी छाया ने माडम्बिक' ४२वामी माने तो 'माडम्बिक' न पायो आमान पक्षी' । अर्थ थाय छे. अथवा अढी मढी ने अतरे २ opi ngi nी १८यां डाय तेना धान माडम्बिक हे છે જે કુટુમ્બનું પાલન-પોષણ કરે છે અથવા જેની દ્વારા ઘણાં કુટુઓનું પાલન थाय छ, तन औटुमि हे छे. “इभ' । अर्थ थी' छ, भने थाना २९ द्रव्य नी पासे डेय, तेन 'इश्य' ४ छ. धन्य, मध्यम भने टना ભેટ કરીને ઈલ્ય ત્રણ પ્રકારના છે. હાથીની બરાબર મણિ, મેતી, પરવાળાં, સોનું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति २५१ मध्यमाः, हस्तिपरिमितकेवलवज्रराशिस्वामिन उत्कृष्टाः, श्रेष्ठिनो लक्ष्मीकृपाकटाक्षपत्यक्षलक्ष्यमाण-द्रविणलक्षलक्षणविलक्षणहिरण्यपट्टसमलकृतमूर्धानो नगरप्रधानव्यवहर्तारः, सेनापतयः चतुरङ्गसेनानायकाः, सार्थवाहाः गणिमधरिम-मेय-परिच्छेद्य-रूप-क्रेयविक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशान्तराणि व्रजतां सार्थ वाहयन्ति योगक्षेमाभ्यां परिपालयन्ति, दीनजनोपकाराय वे जघन्य इभ्य हैं। जो हाथोके बराबर हीरा और माणिककी राशिके स्वामी हो वे मध्यम इभ्य हैं। जो हाथीके बराबर केवल हीरोंकी राशिके स्वामी हों वे उत्कृष्ट इभ्य हैं। लक्ष्मीकी जिसपर पूरी २ कृपा हो और उस कृपाकोरके कारण जिनके लाखोंके खजाने हों, तथा जिनके सिरपर उन्हींको सूचित करने वाला चान्दीका विलक्षण पट्ट शोभायमान हो रहा हो, जो नगरके प्रधान व्यापारी हों, उन्हें श्रेष्ठी कहते हैं। चतुरङ्ग सेनाके स्वामीको सेनापति कहते हैं। जो गणिम, धरिम, मेय और परिछेद्य रूप खरीदने-वेचनेके योग्य वस्तुओंको लेकर नफाके लिये देशान्तर जाने वालेको साथ ले जाते हैं, योग ( नयी वस्तुकी प्राप्ति ) और क्षेम ( प्राप्त वस्तुकी रक्षा ) के द्वारा उनका पालन करते हैं, गरीबोंकी भलाई के लिये उन्हें पूँजी ચાંદી આદિ દ્રવ્યના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ જઘન્ય ઈલ્ય છે. હાથીની બરાબર હીરા અને માણેકના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ મધ્યમ ઈભ્ય છે. હાથીની બરાબર કેવળ હીરાના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ ઉત્કૃષ્ટ ઇભ્ય છે. જેમની ઉપર લક્ષ્મીની પૂરેપૂરી કૃપા હોય અને એ કૃપાને કારણે જેમની પાસે લાખના ખજાના હેય તથા જેમને માથે તેમનું સૂચન કરનારે ચાંદીને વિલક્ષણ पट्ट लायभान थ६ २हो य, जे नाना मुख्य व्यापारी य, तेन श्रेष्ठी' हे छ. यतु सेनाना स्वाभान 'सेनापति' छ. गाभ, परिभ भेय भने પરિચ્છેદ્ય રૂપ ખરીદવા–વેચવા ગ્ય વસ્તુઓ લઈને નફાને માટે દેશાંતર જનારાએને જે સાથે લઈ જાય છે. યોગ (નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ) અને ક્ષેમ (પ્રાપ્ત વસ્તુનું રક્ષણ) ની દ્વારા તેમનું પાલન કરે છે, ગરીબોના ભલા માટે તેમને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ३ पुष्पितासूत्र मूलधनं दत्वा तान् समर्द्धयन्तीति तथा तत्र गणिमम् = एक - द्वि- त्रि- चतुरादिसंख्याक्रमेण यद्दीयते, यथा - नालिकेर - पूगीफल - कदलीफलादिकम्, धरिमं= तुलासूत्रेणोतोय यदीयते, यथा-व्रीहि-यव- लवण- सितादि, मेयं-शरावलघुभाण्डादिनोत्तोय यद्दीयते, यथा दुग्ध घृत-तैल-प्रभृति, परिच्छेयं च प्रत्यक्षतो निकषादिपरीक्षया यद्दीयते, यथा- मणिमुक्ता-मवाला-भरणादि । ' सार्थवाहाना' मित्यत्र ' कृत्यानां कर्तरि वे' ति कर्तरि षष्ठी, देकर व्यापार द्वारा धनवान बनाते हैं उन्हें सार्थवाह कहते हैं । एक, दो, तीन, चार आदि संख्याके हिसाब से जिनका लेन देन होता है, उसे ' गणिम' कहते हैं, जैसे - नारियल, सुपारी, केला आदि । तराजू पर तोलकर जिसका लेन देन हो, उसे ' धरिम ' कहते हैं, जैसे- धान, जौ, नमक, शक्कर आदि । सरावा छोटे २ वर्तन आदिसे नाप कर जिसका लेन देन होता है, उसे मेय कहते हैं, जैसे- दूध, घी, तैल आदि । सामने कसौटी आदि पर परीक्षा करके जिसका लेन देन होता है, उसे परिच्छेद्य कहते हैं। जैसे मणि, मोती, मूँगा, गहना आदि । वह अङ्गति गाथापति, इन राजा, ईश्वर आदिके द्वारा बहुतसे कार्यों में कार्यको सिद्ध करने के उपायोंमें, कर्तव्यको निश्चित करनेके गुप्त विचारोंमें, बान्धवोंमें, भूंक आधीने वेपार द्वारा धनवान मनावे छे, तेभने 'साथवाह' आहे छे, खेड, એ, ત્રણ, ચાર આદિ સંખ્યાના હિસાબે જેની લેણ-દેણ થાય છે તેને ગણિમ કહે છે, જેમકે નાળીએર, સાપારી ઇત્યાદિ, ત્રાજવાથી તેાલીને જેની લેણ-દેણુ કરવામાં आवे छे तेने धरिम उहे छे, नेमडे धान्य, ४१, भीहु, सार इत्यादि, पासी પવાલુ જેવાં માપનાં વાસણથી માપીને જેની લેણ-દેણ કરવામાં આવે છે તેને એય કહે છે, જેમકે દૂધ, ઘી, તેલ વગેરે કસાટી આદિથી પરીક્ષા કરીને જેની खेा-द्वेषु ४रवामां आवे छे तेने परिच्छेद्य आहे छे, म भणि, भोती, परवाना, ઘરેણું વગેરે અંગતિ ગાથાપતિને, એ રાજા, ઈશ્વર આદિ તરફથી ઘણાં કાર્યોમાં કાનેિ સિદ્ધ કરવા માટેના ઉપાયામાં, કર્તવ્યને નિશ્ચિત કરવાના ગુપ્ત વિચારોમા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति अग्रेतनस्य ‘आमच्छनीयः, परिमच्छनीयः' इत्यनीयर् प्रत्ययस्य योगात् , सार्थवाहै रित्यपि तृतीयान्तेन क; व्याख्येयम् ।। ___ बहुषु-प्रचुरेषु, अस्य सर्वैरेव सप्तम्यन्तैः सम्बन्धः। कार्येषु-कर्तव्येषु प्रयोजनेष्विति यावत , कारणेषु-कार्यजातसम्पादकहेतुषु च, मन्त्रेषु= कर्तव्यनिश्चयार्थ गुप्तविचारेषु । कुटुम्बेषु बान्धवेषु, गुह्येषु लज्जया गोपनीयेषु व्यवहारेषु, रहस्येषु-रहसि-एकान्ते भवा रहस्यास्तेषु प्रच्छन्नव्यवहारेष्विति यावत् । निश्चयेषु-पूर्णनिर्णयेषु, व्यवहारेषु व्यवहारप्रष्टव्येषु, यद्वा-बान्धवादिसमाचरितलोकविपरीतादिक्रियाप्रायश्चित्तेषु, विषयसप्तम्या 'एतेषु लज्जाके कारण गुप्त रखे जाने बाले विषयोंमें, एकान्तमें होने बाले कार्योंमें, पूर्ण निश्चयोमें, व्यवहारके लिये पूछे जाने योग्य कार्योंमें, अथवा बान्धवों द्वारा किये गये लोकाचारसे विरुद्ध कार्योंके प्रायश्चित्तों ( दंडों ) में, अर्थात् उल्लिखित सब मामलोंमें एकबार और बार-बार पूछा जाता था-इन सब बातोंमें राजा आदि समस्त बडे बडे आदमी अङ्गतिकी सम्मति लेते थे । इन सब विशेषणोंसे सूत्रकारने यह प्रकट किया है कि अंगति गाथापतिको सभी लोग मानते थे, वह अत्यन्त विश्वासपात्र था, विशालबुद्धिशाली था और सबको उचित सम्मति देता था । બાંધમાં, લજજાને કારણે ગુપ્ત રાખવામાં આવતા વિષયમાં, એકાંતમાં કરવામાં આવતા કાર્યોમાં, પૂર્ણ નિશ્વમાં, વ્યવહારને માટે પૂછવા એગ્ય કાર્યોમાં, અથવા બાંધવો તરફથી કરવામાં આવતા લોકાચારથી વિપરીત કાર્યોનાં પ્રાયશ્ચિત્ત (દંડ) માં અર્થાત્ એવાં બધાં પ્રકરણોમાં એકવાર તથા વારંવાર પૂછવામાં આવતું હતુંએ બધી વાતોમાં રાજા વગેરે મોટા મોટા માણસે પણ અંગતિની સંમતિ લેતા હતા. એ બધાં વિશેષણો વડે સૂત્રકારે એમ પ્રકટ કર્યું છે કે અંગતિ ગાથા પતિને બધાં લોકો માનતા હતા, તે અત્યંત વિશ્વાસપાત્ર હતા, વિશાળ બુદ્ધિથી યુક્ત હતો અને બધાને વાજબીજ સલાહ-સંમતિ આપતો હતો. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ३ पुष्पितासूत्र जनस्य विषये ' इत्यर्थः । आ = ईषत् सकृदिति यावत्, मच्छनीय: = प्रष्टव्यः परि= सर्वतोभावेन असकृदिति यावत् प्रच्छनीय: = प्रष्टव्यः, स्वस्यापि = स्वकीयस्यापि चकारो विषयान्तरपरिग्रहार्थः । खलु निश्चयेन कुटुम्बस्य = परिवारमेधिः = त्रीहि-यव-गोधूमादिकणमर्दनार्थ खले निखाय स्थापितो दार्वादिमयः पशुबन्धनस्तम्भः, यत्र पङ्क्तिशोबद्धा बलीवर्दादयो व्रीह्मादिकणमर्दनाय परितो भ्राम्यन्ति तत्सादृश्यादयमपि मेधिः, अर्थादेतदवलम्बनेनैव सर्वस्यापि कुटुम्बस्यावस्थानमिति । कुटुम्बस्यापीत्यत्रापिशब्दवलान केवलं धान जो गेहूँ आदिको दाँय करने ( लाटा - दाने - निकालने ) के लिये गढा खोदकर एक लकडी या बाँसका स्तम्भ गाडा जाता है, उसके चारों और एक पंक्ति लांक (धान) को कुचलने के लिये बैल घूमते हैं उस स्तम्भको मेधिमेढी - कहते हैं । बैल आदि उस समय उसीपर निर्भर रहते हैं । यदि वह स्तम्भ न हो तो कोई बैल कहीं चला जाय, कोई गाथापति अङ्गति अपने कुटुम्बकी मेधि - मेढीके समान थे, अर्थात् कुटुम्ब उन्हीके सहारे था - वेही उसके व्यवस्थापक थे । मूल - पाठमें 'वि' ( अपि ) शब्द है, उसका तात्पर्य यह है कि वे केवल कुटुम्बके ही आश्रय नहीं थे, अपितु समस्त कहीं सब व्यवस्था भङ्ग हो जाय । - ધાન્ય, જવ, ઘઉં' વગેરેને કણસલામાંથી છૂટાં કરવાને એક ખાડા ખેાદી તેમાં એક લાકડાના ખાંભે ખેાડવામાં આવે છે અને પછી તેની ચારે ખાજીએ એક સાથે કણસલાંને કચરવા માટે ખળદ વગેરે કર્યો કરે છે, એ ખાંભાને મેધિ કહે છે. અળદ વગેરે એ વખતે એ ખાંભાને આધારેજ ર્યો કરે છે. જો એ ખાંભા ન હાય તા એક બળદ એક બાજુએ ચાલ્યા જાય અને બીજો બીજી માજુએ ક્રે, એ રીતે વ્યવસ્થા ભંગ થઈ જાય. ગાથાપતિ અગતિ પેાતાના કુટુમ્બની મેધિ–મધ્યસ્થ સ્તંભ જેવા હતા; અર્થાત્ કુટુમ્બ એને આધારે હતું, તેજ કુટુभ्मनो व्यवस्थायः हतो. भूण पाठमा 'वि' (अपि) शब्द छे, तेनुं तात्पर्य यो छे કે તે કેવળ કુટુમ્બનાજ આધાર રૂપ નહાતા, પરંતુ ખધા લોકોના પણ આશ્રય શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति कुटुम्बस्यैव, अपितु सर्वस्यापि जनस्येत्यवधेयम् । प्रमाणं = प्रत्यक्षादिप्रमाणवद्धेयोपादेयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपतया संशयराहित्येन पदार्थसार्थपरिच्छेदकः, आधारः = आधारवत् सर्वेषामाश्रयभूतः, आलम्बनं = रज्जुस्तम्भादिवद्विपत्कूपपतज्जनोद्धारकतयाऽवलम्बनम्, आधारो नाम - यमधिष्ठाय जन उन्नतिं गच्छति, स्वरूपाsaस्थो वा वर्तते सः, यदवलम्बनेन च विपदो विनिवर्तन्ते तदालम्बनमिति तयोर्भेदः, चक्षुः = नेत्रं तद्वत् सर्वेषां सकलार्थप्रदर्शकः, यदुक्तंमेधिः, प्रमाणम्, आधारः, आलम्बनं चक्षुरिति । तदेव स्पष्टप्रतिपत्तये औपम्यवाचिभूतशब्दसम्मेलनेन पुनरावर्तयति - मेघीभूत इत्यादि, यावदिति , २५५ लोगोंके भी आश्रय थे, जैसा की उपर बताया जा चुका है। आगे जहाँ-जहाँ ' वि ' ( अपि-भी ) आया है वहाँ सर्वत्र यही तात्पर्य समझना चाहिए । अङ्गति गाथापति अपने कुटुम्बके भी प्रमाण थे । अर्थात् जैसे प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाण संदेह आदिको दूर करके हेय ( त्याग करने योग्य ) पदार्थोंसे निवृत्ति और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) पदार्थोंमें प्रवृत्ति कराते हुए पदार्थोंको जनाते हैं, उसी प्रकार अङ्गति भी अपने कुटुम्बियोंको बताते थे कि अमुक कार्य करने योग्य है, अमुक कार्य करने योग्य नहीं है, यह पदार्थ ग्राह्य है, यह अग्र है 1 ३थ हतो, } नेम ७५२ ४र्शाविवामां आवे छे भागण यागु त्यां नयां 'वि' (अपिપણ ) આવ્યા છે, ત્યાં ત્યાં બધે એજ તાત્પર્ય સમજવાનુ છે. અગતિ ગાથાપતિ પોતાના કુટુમ્બના પણ પ્રમાણ રૂપ હતા, અર્થાત્ જેમ પ્રત્યક્ષ અનુમાન આદિ પ્રમાણ, સંદેહ આદિને દૂર કરીને હેય ( ત્યજવા ચેાગ્ય ) પદાર્થોથી નિવૃત્તિ અને ઉપાદેય ( ગ્રહણ કરવા ચેાગ્ય ) પદાર્થોમાં પ્રવૃત્તિ કરાવતા તે, પદાર્થોને દર્શાવે છે, તેમ અંગતિ પણ પોતાના કુટુમ્બિયાને બતાવતા હતા કે -અમુક કાર્ય કરવું ચેાગ્ય છે, અમુક કાર્ય કરવું ચેાગ્ય નથી, અમુક પદાર્થ ગ્રાદ छे, प्रभु पट्टार्थ अग्राह्य छे, छत्याहि. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ____ ३ पुष्पितासूत्र यावच्छब्देन 'पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए' इत्येषां संग्रहो बोध्यस्तत्र-प्रमाणभूतः, आधारभूतः, आलम्बनभूतः, चक्षुर्भूतः, इतिच्छाया, पौनरुक्त्यवारणं तु मेधिरर्थान्मेधीभूतो मेधिसदृश इति यावत् । प्रमाणमर्थात् प्रमाणभूतः प्रमाणसदृश इति यावत् , आधारोऽर्थादाधारभूत आधारसदृश इति यावत् । आलम्बनमर्यादालम्बनभूत आलम्बनसदृश इति यावत् । चक्षुराचक्षुभूतश्चक्षुःसदृश इति यावत् इति रीत्या समन्वयाद्भवतीति सूक्ष्मचक्षुषाऽवे तथा अङ्गति गाथापति अपने कुटुम्बके भी आधार ( आश्रय ) थे, तथा आलम्बन थे, अर्थात् विपत्तिमें पडनेवाले मनुष्यको रस्सी या स्तम्भके समान सहारे थे। अङ्गति अपने कुटुम्बके चक्षु थे, अर्थात् जैसे चक्षु मार्गको प्रकाशित करता है वैसे ही अङ्गति कुटुम्बियाके भी समस्त अर्थोके प्रदर्शक ( सन्मार्गदर्शक ) थे। दूसरी वार मेधिभूत आदि विशेषण स्पष्ट बोधके लिये दिये हैं । — जाव' शब्दसे प्रमाणभूत, आधारभूत, आलम्बनभूत, चक्षुर्भूत, इनका संग्रह होता है । यहाँ स्पष्टताके लिये 'भूत' शब्द अधिक दिया है, इसका तात्पर्य यह है कि अङ्गति गाथापति मेढी अर्थात् मेढीके सदृश थे, प्रमाण अर्थात् प्रमाणके सदृश थे, आधार અંગતિ પિતાના કુટુમ્બને પણ આધાર (આશ્રય) હતા, તથા આલંબન હત, અર્થાત્ વિપત્તિમાં પડેલા મનુષ્યને દેરડું અથવા થાંભલાના જેવા આધાર ३५ तो. અંગતિ પિતાના કુટુમ્બના ચક્ષુરૂપ હતો, અર્થાત્ જેમ ચક્ષુ માર્ગને પ્રકાશિત કરે છે તેમ અંગતિ સ્વકુટુંમ્બિઓના પણ બધા અર્થોને પ્રકાશક (સન્માર્ગ श) डा. माछा२ भेधिभूत l विशेष २५ साधने भाटे मापेक्षा छ. 'जाव' શબ્દથી પ્રમાણભૂત, આધારભૂત, આલંબનભૂત, ચક્ષદ્ભુત, એ બધાનો સંગ્રહ થાય छ, हा पटताने भाट 'भूत' २५६ पधारे माया छ. मेनु तात्पय° से छ કે અંગતિ મેધિ અર્થાત્ મેધિની સમાન હતો, પ્રમાણ અર્થાત્ પ્રમાણની સમાન શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति २५७ क्षणीयम्, च=चकारी किश्चेत्यर्थे सर्वकार्यवर्धकः = सर्वेषां कार्याणां सम्पादको - sपि, ( एतादृशोऽङ्गतिर्गाथापतिः ) अभवत् आसीत् ॥ १ ॥ मूलम् - तेणं काणं २ पासेणं अरहा पुरिसादाणीए आदिगरे जहा महावीरो, नवुस्सेहे सोलसेहिं समणसाहस्सीहिं, अट्ठतीसा जाव कोट्टए समोसढे, परिसा निग्गया । तणं से अंगई गाहावई इमीसे कहाए लट्ठे समाणे हट्ठे जहा कत्तिओ सेट्ठी तहा निग्गच्छर जाव पज्जुवासर, धम्मं सोचा निसम्म० जं नवरं देवाप्पिया ! जेहपुत्तं कुटुंबे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्वः खलु अर्हन् पुरुषादानीयः आदिकरो यथा महावीरः नवहस्तोच्छ्रायः षोडशभिः श्रमणसाहस्रीभिः, अष्टात्रिंशद् यावत् कोष्टके समवसृतः परिषत् निर्गता । 9 - ततः खलु सः अङ्गतिर्गाथापतिः अस्याः कथाया लव्धार्थः सन् हृष्टो यथा कार्तिकश्रेष्ठी तथा निर्गच्छति यावत् पर्युपास्ते, धर्म श्रुखा निशम्य ० यत् नवरं देवानुप्रिय ! ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयामि, ततः खलु अहं देवानु શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર अर्थात् आधारके सदृश थे, आलम्बन अर्थात् आलम्बनके सदृश थे, चक्षु अर्थात् चक्षुके सदृश थे । अङ्गति समस्त कार्योंके सम्पादन करनेवाले भी थे ॥ १ ॥ હતા, આધાર અર્થાત્ આધારની સમાન હતા, લખન અર્થાત્ આલખનની સમાન હતા અને ચક્ષુ અર્થાત્ ચક્ષુની સમાન હતા. અગતિ ખધાં કાર્યાંનુ સપાદન पुरनाशे पशु हता. (१) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ३ पुष्पितासून जाव पव्वयामि, जहा गंगदत्तो तहा पव्वइए जाव गुत्तवंभयारी । तए णं से अंगई अणगारे पासस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजइ, अहिन्जित्ता बहहिं चउत्थ जाव भावेमाणे बहूइं वासाइं सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता विराहियसामने कालमासे कालं किच्चा चंदवडिंसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए चंदे जोइसिंदत्ताए उववन्ने । तए णं से चंदे जोइसिंदे जोइसराया अहुणोववन्ने समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए सासोसासपजत्तीए भासामणपज्जत्तीए । ___ चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरनो केवइयं कालं ठिई पनत्ता ? गोयमा ! पलिओवमं वाससयसदस्समब्भहियं । एवं खलु प्रियाणां यावत् प्रवजामि यथा गङ्गदत्तस्तथा प्रबजितो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु सः अङ्गतिः अनगारः पार्थस्य अर्हतः तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहुभिश्चतुर्थ यावद् भावयन् बद्दनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति पालयिखा अर्धमासिक्या संलेखनया त्रिंशद् भक्तानि अनशनया छित्त्वा विराधितश्रामण्यः कालमासे कालं कृता चन्द्रावतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिते चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रतया उपपन्नः । ततः खलु स चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रो ज्योतीराजः अधुनोपपन्नः सन् पञ्चविषया पर्याप्त्या पर्यातिभावं गच्छति, तद्यथा-आहारपर्याप्त्या शरीरपर्याप्त्या इन्द्रियपर्याप्त्या श्वासोच्छ्वासपर्याप्त्या भाषामनःपर्याप्त्या । चन्द्रस्य खलु भदन्त ! ज्योतिरिन्द्रस्य ज्योतीराजस्य कियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् । एवं खलु શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति गोयमा ! चंदस्स जाव जोइसरनो सा दिव्या देविडा० । चंदेणं भंते ! जोइसिंदे जोइसराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ३ चइत्ता कहिं गच्छिहिइ २ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिजिहिइ५ एवं खलु जम्बू ! समणेणं० निक्खेवओ ॥२॥ ॥पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ १॥ गौतम ! चन्द्रस्य यावत् ज्योतीराजस्य सा दिव्या देवऋद्धिः । चन्द्रः खलु भदन्त ! ज्योतिरिन्द्रो ज्योतीराजस्तस्मादेवलोकादायुःक्षयेण ३ च्युखा कुत्र गमिष्यति २ ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति५ । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन० निक्षेपकः ॥२॥ ॥ इति प्रथमाध्ययनम् ॥ टीका'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्व:= त्रिविशः पार्श्वनामा तीर्थङ्करः, अर्हन् चतुर्विधघातिकर्मनिवारकः केवलज्ञानकेवलदर्शनसम्पन्नः, पुरुषादानीयः पुरुषैः मुमुक्षुभिर्जनैः खकल्याणार्थमादीयत 'तेणं कालेणं' इत्यादि उस काल उस समयमें पार्श्व प्रभु तेवीसवें तीर्थङ्कर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाति कर्मों के निवारक केवलज्ञान, केवलदर्शनसे युक्त, मुमुक्षुजनोंसे सेव्य अथवा पुरुषोके बीचमें उनका वचन आदानीय= तेणं कालेणं' इत्यादि. તે કાલે તે સમયે પાર્શ્વ પ્રભુ તેવીસમાં તીર્થકર જ્ઞાનાવરણીય દર્શનવરણીય, મોહનીય તથા અંતરાય એ ચાર ઘાતી કર્મોના નિવારક, કેવલજ્ઞાન કેવલદર્શનથી યુક્ત, મુમુક્ષુ જનેથી સેવ્ય, અથવા પુરૂષોની વચમાં તેમનું વચન શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ३ पुष्पितासूत्र इति पुरुषादानीयः, यद्वा - पुरुषाणां मध्ये आदेयवचनत्वात् पुरुषादानीयः, आदिकरः - धर्मस्य आदिकरः, यथा - महावीरः = चतुर्विंशस्तीर्थङ्करः, तथैव सर्वगुणसम्पन्नः, किन्तु पार्श्वप्रभुः नवहस्तोच्छ्रायः - नवहस्त परिमितशरीरः षोडशभिः श्रमणसाहस्रीभिः, अष्टात्रिंशद्भिः श्रमणीसहस्रैश्व युक्तः यावद् ग्रामानुग्रामं विहरन् कोष्टके - कोष्ठनामोद्याने समवसृतः = समागतः, परिषत् निर्गता, पार्श्वतीर्थङ्करस्य धर्मदेशनां श्रुत्वा स्वस्थानं गता । ततः खलु सोऽङ्गतिर्गाथापतिः अस्याः पार्श्वनाथः प्रभु कोष्ठके समवसृतः ' इति वार्तायाः कथायाः = ' पुरुषादानीयः लब्धार्थः = ज्ञातवृत्तान्तः ग्रा था इसलिये पुरुषादानीय, धर्मके आदिकर भगवान महावीरके समान सभी गुणोंसे युक्त, नौ हाथ ऊँचे शरीरवाले सोलह हजार श्रमण और अडतीस हजार श्रमणियोंसे युक्त एक ग्रामसे दूसरे ग्राम तीर्थङ्कर परम्परासे विचरते हुए कोष्ठक नामक उद्यान में पधारे । जनसमुदायरूप परिषद अपने २ स्थानसे धर्म श्रवणके लिये निकली । पार्श्वनाथ भगवानकी धर्मदेशना सुनकर अपने २ स्थान गयी । उसके बाद वह अङ्गति सुनकर हृष्ट होकर कार्तिक सेठके गाथापति भगवान पार्श्वनाथके आनेका वृत्तान्त समान निकला । पार्श्वनाथ प्रभुके पास जाकर આદાનીય ગ્રાહ્ય હતું. આથી પુરૂષાદાનીય, ધર્મના આદિ કરવાવાળા ભગવાન મહાવીર સમાન સર્વે ગુણૈાથી યુક્ત, નવ હાથ ઊંચા શરીરવાળા, સેાળ હજાર શ્રમણ તથા આડત્રીસ હજાર શ્રમણિયેાથી યુક્ત એક ગામથી ખીજે ગામ તીર્થંકર પર પરાથી વિચરતા વિચરતા કાઇક નામના ઉદ્યાન ( ખાગ ) માં પધાર્યાં. જન સમુદાય રૂપ પરિષદ પાતપાતાના સ્થાનથી ધર્મ સાંભળવા માટે નીકળી, પાર્શ્વનાથ ભગવાનની ધર્મ દેશના સાંભળી પાતપાતાને સ્થાને ગઈ. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર ત્યાર પછી તે અંગતિ ગાથાપતિ ભગવાન પાર્શ્વનાથના આવવાના વૃત્તાન્ત સાંભળી હષ્ટ થઈ કાર્તિક શેઠની પેઠે નિકન્યા. પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસે જઇ તેણે Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति २६१ सन् हृष्टः प्रमुदितः यथा कार्तिकश्रेष्ठी तथा निर्गच्छति, यावत् पयुपास्ते= पार्श्वनाथं प्रभु सेवते स्म । धर्म-श्रुतचारित्रलक्षण श्रुत्वा कर्णपथे कृत्वा, निशम्य हृदि समवधार्य देवानुप्रिय ! हे भगवन् ! यत् नवरं केवलं ज्येष्ठपुत्रं रक्षकतया कुटुम्बे स्थापयामि, ततः खलु अहं देवानुप्रियाणामन्तिके यावत् प्रव्रजामि-संयमं गृह्णामि, यथा भगवत्यङ्गोक्तो गङ्गदत्तस्तथा प्रबजितो यावच्छब्देन-स हि-' किंपाकफलोवमं मुणियविसयसोक्खं जलबुब्बुयसमाणं कुसग्गबिंदुचंचलं जीवियं नाऊणमधुवं चइत्ता हिरणं विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं विच्छड्डइत्ता दाणं दाइयाणं परि उसने उनकी सेवा की, और भगवान पार्श्वनाथके द्वारा उपदिष्ट श्रुत चारित्र लक्षण धर्मको सुना, और उसे अपने हृदयमें अवधारित किया। उसके बाद उसने हाथ जोडकर प्रार्थना की-हे भगवन् ! मैं अपने बडे लडकेको कुटुम्बका भार देकर बादमें आपके पास संयम ग्रहण करना चाहता हूँ। अनन्तर वह भगवती अङ्गमें उक्त गंगदत्तके समान ही विषय सुखको किंपाक फलके सदृश जानकर जीवनको जल बुद्बुद तथा कुशके अग्र भागमें स्थित जलबिन्दुके समान चंचल एवं अनित्य समझकर और बहुतसा चांदी धन कनक रत्न मणि मौक्तिक शख रत्न शिला प्रवाल रक्तरत्न आदिको छोडकर और दान देकर तथा सम्पत्तिके भागियोंको सम्पत्तिका તેમની સેવા કરી. તથા ભગવાન પાર્શ્વનાથ દ્વારા ઉપદિષ્ટ વ્યુતચરિત્ર લક્ષણ ધર્મ સાંભળે અને તે પોતાના હૃદયમાં ધારણ કર્યો. ત્યાર પછી તેણે હાથ જોડીને પ્રાર્થના કરી–હે ભગવન્! હું મારા મોટા દીકરાને કુટુંબને ભાર સંપી દઈને આપની પાસે સંયમ ગ્રહણ કરવા ઈચ્છા રાખું છું. ત્યાર પછી તે ભગવતી સૂત્રમાં કહેલ ગંગદત્તની પેઠેજ વિષય સુખને કિપાક ફલની જેમ સમજી જીવનને પાણીના પરપોટા તથા કુશના અગ્ર ભાગમાં રહેલાં જલબિંદુ સમાન ચંચલ અને અનિત્ય समलने तथा प यांही, धन, सोनु, २८न, मणि (अपेशत), माती, शम, शिक्षा, પ્રવાલ, રકત રત્ન (માણેક) આદિ છોડી દઈને અને દાન દઈને તથા સંપત્તિના શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ३ पुष्पितासूत्र भाइत्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइओ जहा तहा अंगईवि गिहनायगो परिच्चइय सव्वं पञ्चइओ जाओ य पंचसमिओ तिगुत्तो अममो अकिंचणो गुतिंदिओ' इत्येवं संग्राह्यम् । एतच्छाया च-स किंपाकफलोपमं ज्ञात्वा विषयसौख्यं जलबुबुदसमानं कुशाग्रबिन्दुचञ्चलं जीवितं च ज्ञात्वाऽध्रुवं त्यक्त्वा हिरण्यं विपुल-धन-कनक-रत्न-मणि-मौक्तिक-शङ्ख-शिला-प्रवाल-रक्तरत्नादिकं विमुच्य दानं दायिकानां परिभाज्य अगारतः अनगारितां प्रवजितः यथा तथा अङ्गतिरपि गृहनायकः परित्यज्य सर्व प्रव्रजितो जातश्च पञ्चसमितः, त्रिगुप्तः, अममः, अकिञ्चनः गुप्तेन्द्रियः, इति । गुप्तब्रह्मचारी बभूव, ततः खलु अङ्गतिरनगारः पार्थस्याहतस्तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते स्म, अधीत्य च बहुभिः चतुर्थषष्ठाअष्टम-दशमद्वादशमासार्धमासक्षपणैरात्मानं भावयन् वासयन् बहूनि वर्षाणि भाग देकर घरसे निकल गङ्गदत्तके समान प्रवजित हो गये । प्रव्रज्या लेने पर वे अङ्गति अनगार ईयर्या आदि पाँच समितियोंसे समित मन आदि तीन गुप्तिसे गुप्त और ममत्व रहित एवं अकिञ्चन-बह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित और पाँचों इन्द्रियोंको दमन करनेवाले अनगार हो गये, और गुप्त ब्रह्मचारी बने । उसके बाद अङ्गति अनगारने अर्हत् पार्श्व प्रभुके तथारूप-बहुश्रुत-स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन किया। अध्ययनके बाद बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम दशम द्वादश ભાગીદારને સંપત્તિને ભાગ આપી પોતાના ઘરથી નીકળી ગંગદત્તની પેઠે પ્રવજિત થઈ ગયા. પ્રજ્યા લઈને તે અંગતિ અનગાર ઈર્યા આદિ પાંચ સમિતિએથી સમિત. મન આદિ ત્રણ ગુણિથી ગુપ્ત તથા મમત્વ રહિત અને અકિચનબાહ્ય-અત્યંતર પરિગ્રહથી રહિત તથા પાંચે ઈન્દ્રિયનું દમન કરવાવાળા અનગાર થઈ ગયા. તથા ગુપ્ત બ્રહ્મચારી બન્યા. ત્યાર પછી અંગતિ અનગારે અહંતુ પા પ્રભુના તથાપ-બહુશ્રુત-સ્થવિરોની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેનું અધ્યયન ऽथु. अध्ययन पछी ! यतुर्थ, १४, अटभ, शभ, बाश, भासा (ou भास) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति २६३ श्रामण्यपर्याय=मुनिव्रतं पालयति पालयित्वा विराधितश्रामण्यः विराधितमुनिव्रतः, विराधना द्विधा-मूलगुणविषया उत्तरगुणविषया च, अत्रोत्तरगुणविषया विराधना पिण्डविशुद्धयादयो विज्ञेयाः, न तु प्रथमा, तत्र कदाचित् द्विचत्वारिंशदोपविशुद्धाहारस्य न ग्रहणं कृतम् , कदाचित् ईर्यासमित्यादिमासार्ध मास क्षपण रूप तपसे अपनी आत्माको भावित करते हुए बहुत वर्षों तक चारित्र पालन किया। परन्तु उत्तरगुणकी विराधनाके कारण विराधितचारित्र हो, अर्धमासिकी संलेखनासे अनशनद्वारा तीस भक्तोंका छेदन कर काल मासमें काल करके चन्द्रावतंसक विमानमें उपपात सभामें देवदूष्य वस्त्रोंसे आच्छादित देवशय्यामें वह अङ्गति अनगार ( १ ) आहार-पर्याप्ति (२) शरीर-पर्याप्ति ( ३ ) इन्द्रियपर्याप्ति ( ४ ) श्वासोच्छवास-पर्याप्ति भाषामनःपर्याप्ति भावको प्राप्त करके ज्योतियिषों के इन्द्र चन्द्र होकर उत्पन्न हुए। विराधना दो प्रकारकी है-मूलगुणविराधना और उत्तरगुणविराधना । उनमें पांच महानतमें दोष लगाना मूलगुणविराधना है। और पिण्डविशुद्धि आदिमें दोष लगाना जैसे-कभी बयालीस दोष सहित आहार पानीका ग्रहण करना માસ ક્ષમણ રૂપ અનેક તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતાં ઘણાં વર્ષો સુધી ચારિત્ર પાલન કર્યું પણ ઉત્તર ગુણના વિરાધનાને કારણે વિરાધિતચારિત્રવાળા થઈ અર્ધમાસિકી સંલેખનામાં અનશન દ્વારા ત્રીશ ભક્તનું છેદન કરી કાલ માસમાં કોલ કરીને ચદ્રાવત સક વિમાનમાં ઉપપાત સભામાં દેવદૂષ્ય વસ્ત્રોથી આચ્છાદિત (ઢંકાયેલી) દેવશય્યામાં તે અંગતિ અનગાર (૧) આહાર-પર્યાપ્તિ (२) शरीर-पांति (3) धन्द्रिय-पाति ( ४ ) वासोवास-पति-लाषामनः -પર્યાતિ ભાવને પ્રાપ્ત કરીને જોતિષના ઇન્દ્ર ચંદ્ર બનીને ઉત્પન્ન થયા. વિરાધના બે પ્રકારની છે-મૂલગુણવિરાધના અને ઉત્તરગુણવિરાધના તેમાં પાંચ મહાવ્રતમાં દેષ લગાડવો એ મૂલગુણવિરાધના છે. અને પિંડ વિશુદ્ધિ આદિમાં દેષ લગાડે જેમકે-ઈવાર બેતાલીશ ષ સહિત આહાર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पुष्पितासूत्र समाराधनेऽनादरः कृतः कदाचित् अभिग्रहाच गृहीता अपि न सम्यक् पालिताः, विभूषार्थमङ्गपादक्षालनादि च कृतम् इत्यादिरूपेण व्रतविराधना कृता, सा च न गुरुसमीपे समालोचिता, इत्युक्तरूपेणानालोचितातिचारः सन् कृतानशनोऽपि अर्धमासिक्यां संलेखनायामनशनया त्रिंशद् भक्तानि छत्वा कालावसरे कालं कृत्वा = मृत्वा चन्द्रावतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये - देवशय्यायां देवदूष्यान्तरिते देवदूष्यवस्त्राच्छादितेऽयं चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रतयोपपन्नः- समुदपद्यत - तस्य ज्योतिर्देवे जन्म जातमित्यर्थः । निक्षेपो= निगमनम् । शेषं सुगमम् ॥ २ ॥ ॥ इति प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १ ॥ २६४ कभी ईर्या आदि समितियोंके आराधनमें प्रमाद करना कभी अभिग्रह लेना किन्तु सम्यक् नहीं पालना तथा विभूषाके लिये शरीर चरण आदिका क्षालन करना, आदि २ उत्तरगुण विषयक विराधना देशविराधना है । अङ्गति अनगारने मूल गुणकी विराधना नहीं की, किन्तु उत्तरगुणकी विराधनाकर आलोचना नहीं की । इसलिये यह ज्योतिषी देव हुआ । गोतम स्वामी पूछते हैं— हे भदन्त ! ज्योतिषियोंके इन्द्र, ज्योतिषियोंके राजा चन्द्रकी स्थिति कितने कालकी है ? પાણી લેવા, કાર્દવાર ઇર્ષ્યા વગેરે સમિતિઓના આરાધનમાં પ્રમાદ કરવા, કાઇવાર અભિગ્રહ લેવા પરંતુ સમ્યક્ ( સારી રીતે) ન પાળવા, તથા વિભૂષા માટે શરીર ચરણુ આફ્રિ ધાવાં આદિ આફ્રિ ઉત્તરગુણ વિષયક વિરાધના દેશિવરાધના છે. અગતિ અનગારે મૂલ ગુણની વિરાધના કરી નહાતી પણ ઉત્તર ગુણની વિરાધના કરી આલેચના કરી નહાતી તે માટે તે જ્યાતિષી દેવ થયા. ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે— હ ભદન્ત ! જ્યાતિષાના ઇન્દ્ર જ્યાતિષાના રાજા ચન્દ્રની સ્થિતિ કેટલા કાલની છે? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ - सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. १ अङ्गति गाथापति भगवान कहते हैं हे गौतम ! ज्योतिषोंके इन्द्र चन्द्रकी स्थिति एक पल्योपम और एक लाख वर्षकी है। हे गौतम ! ज्योतिषोंके इन्द्र ज्योतिषोंके राजा चन्द्रको यह दिव्य देव ऋद्धि पूर्व भवमें उपाजित तप और संयमके कारण मिली है। हे भदन्त ! चन्द्र देव अपना आयुष्यभव तथा अपनी स्थितिके क्षय होजानेके बाद च्यवकर कही जायगे ? हे गौतम ! आयु आदि क्षयके बाद यह चन्द्र देव महाविदेहक्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे। सुधर्मा स्वामी कहते हैं--- हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके प्रथम अध्ययनका निरूपण किया है। इति प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ। ભગવાન કહે છે – હે ગૌતમ! પતિના ઈન્દ્ર ચંદ્રની સ્થિતિ એક પલ્યોપમ અને એક લાખ વર્ષની છે. હે ગૌતમ! પતિના ઈન્દ્ર તિષના રાજા ચન્દ્રને આ દિવ્ય દેવઋદ્ધિ પૂર્વભવમાં ઉપાર્જિત તપ અને સંયમના કારણથી મળી છે. હે ભદન્ત! ચન્દ્ર દેવ પિતાનું આયુષ્ય ભવ તથા પોતાની સ્થિતિના ક્ષય થઈ ગયા પછી ચવીને કયાં જશે. હે ગૌતમ આયુ આદિ ક્ષય થઈ ગયા પછી આ ચન્દ્ર દેવ મહા વિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈને સિદ્ધ થશે. સુધર્મા સ્વામી કહે છે– હે જખૂ! આ પ્રકારે મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના પ્રથમ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. ઇતિ પુપિતાનું પ્રથમ અધ્યયન સમાપ્ત. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ३ पुष्पितासूत्र मूलम्— जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव पुष्फियाणं पढमस्स अज्झयणस्स जाव अयमट्ठे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! अज्झयणस्स पुष्फियाणं समणेण भगवया जाव संपत्ते के अट्ठे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं काले २ रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेहए, सेणिये राया, समोसरणं जहा चंदो तहा सूरोऽवि आगओ जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ । पुब्बभवपुच्छा, सावत्थी नगरी, सुपरट्ठे नामं गाहावई होत्था, अड्डे, जहेब अंगती जात्र विहरति, पासो समोसढे, जहा अंगती तहेव पव्वइए, तहेव विराहियसामने जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतंकाहिति, एवं खलु जंबू ! समणेणं निक्खेवओ ॥ २ ॥ ॥ बीयं अज्झयणं समत्तं ॥ २ ॥ छाया यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् पुष्पितानां प्रथमस्य अध्ययनस्य यावत् अयमर्थः प्रज्ञप्तः द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य पुष्पितानां श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बू : ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिल कं चैत्यं, श्रेणिको राजा, समवसरणं यथा चन्द्रः तथा सूरोऽपि आगतो यावत् नाव्यविधिमुपदश्य प्रतिगतः । पूर्वभवपृच्छा - श्रावस्ती नगरी सुप्रतिष्ठो नाम गाथापतिरभवत् आढ्यः यथैव अङ्गतिर्यावद् विहरति, पार्श्वः समवसृतः, यथा अङ्गतिस्तथैव प्रत्रजितः तथैव विराधितश्रामण्यो यावत् महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् अन्तं करिष्यति, एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन ० निक्षेपकः ॥ २ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. २ अङ्गति गाथापति ___ २६७ २६७ टीका'जइणं भंते' इत्यादि सुगमम् ॥२॥ ॥ इति द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ द्वितीय अध्ययन. ' जइण भंते ' इत्यादि हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके प्रथम अध्ययनमें पूर्वोक्त भावोंका निरूपण किया है तो फिर हे भदन्त ! पुष्पिताके द्वितीय अध्ययनमें उन्होंने किस भावका निरूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामकी नगरी थी। उस नगरीमें गुणशिलक नामका चैत्य था । उस नगरीमें श्रेणिक नामके राजा थे। वहाँ श्रमण भगवान महावीर पधारे। जिस प्रकार चन्द्रमा आये उसी प्रकार सूर्य भी आये और यावत् नाट्य विधि दिखाकर चले गये । गौतमने भगवानसे पूछाहे भदन्त ! सूर्य पूर्व जन्ममें कौन थे ? દ્વિતીયઅધ્યયન, ભદન્ત! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુપિતાના પ્રથમ અધ્યયનમાં પૂર્વોકત ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે. પછી તે ભદન્ત ! પુષ્પિતાના બીજા અધ્યયનમાં તેમણે કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે? છે જખૂતે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગરી હતી. તે નગરીમાં ગુણ શિલક નામે ચેત્ય (બગીચે) હતો. તે નગરીમાં શ્રેણિક નામે રાજા હતા. ત્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પધાર્યા. જેવી રીતે ચન્દ્રમા આવ્યા તેવી રીતે સૂર્ય પણ આવ્યા અને સઘળી નાટક વિધિ બતાવી ચાલ્યા ગયા. ગૌતમે ભગવાનને પૂછયુંહે ભદન્ત! સૂર્ય પૂર્વ જન્મમાં કોણ હતા? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ भगवानने कहा- हे गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उस नगरीमें सुप्रतिष्ठ नामके गाथापति थे । जो अङ्गतिके समान ही आढ्य यावत् अपरिभूत होकर विचरते थे । उस नगरीमें भगवान पार्श्व प्रभु पधारे । जैसे अङ्गति गाथापति प्रव्रजित हुए उसी प्रकार सुप्रतिष्ठ गाथापति भी प्रव्रजित हुए । उसी प्रकार श्रामण्यको विराधित कर काल अवसर काल करके ज्योतिषोंके इन्द्र सूर्य देवपनेमें उत्पन्न हुए। और आयु भव स्थिति क्षय करने के बाद यह सूर्य देव महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे । और सब दुःखों का अन्त करेंगे । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने द्वितीय अध्ययनके भावोंको निरूपित किया है। इति द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ । ३ पुष्पितासूत्र ભગવાને કહ્યું— હૈ ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે શ્રાવસ્તી નામે નગરી હતી. તે નગરીમાં સુપ્રતિષ્ઠ નામે ગાથાપતિ હતા. જે અંગતિના જેવાજ આત્ય અને અપરિભૂત થઇને વિચરતા હતા. તે નગરીમાં ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુ પધાર્યા. જેમ ગતિ ગાથાપતિ પ્રવ્રુજિત થયા તેવીજ રીતે સુપ્રતિષ્ઠ ગાથાપતિ પણ દીક્ષિત થયા. તેજ પ્રકારે સાધુપણાને વિાધિત કરી કાલ અવસર કાલ કરીને જ્યેાતિષોના ઈન્દ્ર સૂર્ય દેવપણામાં ઉત્પન્ન થયા તથા આયુ ભવસ્થિતિ ક્ષય કરીને પછી આ સૂર્ય દેવ મહા વિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈને સિદ્ધ થશે અને સર્વે દુઃખના અંત લાવશે, હે જમ્મૂ I આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના દ્વિતીય અધ્યયનના ભાવેાનું निइया छे. આ પુષ્મિતાનું બીજું અધ્યયન પુરૂં થયું. ૨ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ अति गाथापति २६९ जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उक्खेवओ भाणियचो, रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ मुक्के महग्गहे सुक्वडिसए विमाणे सुकंसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं जहेव चंदो तहेव आगओ, नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ । भंते त्ति कूडागारसाला । पुच्चभवपुच्छा । ___ एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ वाणारसी नामं नयरी होत्था । तत्थ गं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए रिउन्वेय-जाव सुपरिनिहिए । पासे समोसढे। परिसा पज्जुवासइ । तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स इमे एयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्फजित्था-एवं खलु पासे छायायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्भाप्तेन उत्क्षेपको मणितव्यः । राजगृहं नगरम् । गुणशिलकं चैत्यम् । श्रेणिको राजा । खामी समवमृतः । परिषत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये शुक्रो महाग्रहः शुक्रावतंसके विमाने शुक्रे सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीमिः, यथैव चन्द्रस्तथवागतः, नाव्यविधिमुपदर्य प्रतिगतः । भदन्त ! इति कूटाकारशाला । पूर्वभवपृच्छा । एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाराणसी नाम नगरी अभवत् । तत्र खलु वाराणास्यां नगर्या सोमिलो नाम ब्राह्मणः परिवसति, आन्यो यावत् अपरिभूतः ऋग्वेद० यावत् सुपतिष्ठितः । पार्थः समवसृतः । परिषत् पर्युपास्ते । ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ३ पुष्पितासूत्र अरहा पुरिसादाणीए पुव्वाणुपुव्वि जाव अंबसालवणे विहरइ, तं गच्छामि णं पासस्स अरहओ अंतिए पाउन्भवामि । इमाई : च णं एयारूवाई अट्ठाई हेऊई जहा पण्णत्तीए । सोमिलो निग्गओ खंडियविहूणो जाव एवं वयासी - जत्ता ते भंते ! ? जवणिज्जं च ते ? पुच्छा, सरिसवया, मासा, कुलत्था, एगे भवं, जाव संबुद्धे सावगधम्मं पडिवज्जित्ता पडिगए । तर णं पासे अरहा अण्णया कयाइ वाणारसीओ नयरीओ अंबसालवणाओ चेहयाओ पक्खिम, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । तणं से सोमिले माहणे अण्णया कयाइ असाहुदंसणेण य अपज्जुवासणया य मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवढमाणेहिं २, सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं २, मिच्छत्तं च पडिवने । अस्याः कथायाः लब्धार्थस्य सतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिक ४, यावत् समुदपयत - एवं खलु पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः पूर्वानुपूर्व्या यावत् आम्रशालवने विहरति, तद् गच्छामि खलु पार्श्वस्य अर्हतोऽन्तिके प्रादुर्भवामि, इमान् च खलु एतद्रूपान् अर्थान् हेतून् यथा प्रज्ञप्त्याम् । सोमिलो निगतः खण्डिकविहीनो यावत् एवमवादीत् - यात्रा ते भदन्त ! ?, यापनीयं च ते ? पृच्छा, सदृशवयसः, माषाः, कुलस्थाः, एको भवान्, यावत् संबुद्धः श्रावकधर्म प्रतिपद्य प्रतिगतः । ततः खलु पार्श्वः अर्हन् अन्यदा कदाचित् वाराणसीतो नगरीतः आम्रशालवनाचैत्यात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदविहारं विहरति । ततः स सोमिलो ब्राह्मणः अन्यदा कदाचित् असाधुदर्शनेन च अपर्युपासनतया च मिथ्यात्वपर्यवैः परिवर्धमानैः २, सम्यक्त्वपर्यवैः परिहीयमानैः २ मिध्यात्वंच प्रतिपन्नः । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ अङ्गति गाथापति २७१ तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे अचंतमाहणकुलप्पसूए । तएणं मए वयाई चिण्णाइं, वेया य अहीया, दारा आहूया, पुत्ता जणिया, इडीओ समाणीयाओ, पसुवधा कया, जन्ना जेट्ठा, दक्खिणा दिना, अतिही पूजिया, अग्गो हूया, जूपा निक्खिता, तं सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं जाव जलंते वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा रोवावित्तए, एवं माउलिंगा, बिल्ला, कविट्ठा, चिंचा, पुप्फारामा रोवावित्तए । एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं जाव जलते वाणारसीए, नयरीए बहिया अंबारामे य जाव पुष्फारामे य रोवावेइ । तएणं बहवे अंबारामा य जाव पुप्फारामा य अणुपुव्वेणं सारखिज्जमाणा संगोविज्ज ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खलु अहं वाराणस्यां नगर्या सोमिलो नाम ब्राह्मणोऽत्यन्तब्राह्मणकुलप्रसूतः । ततः खलु मया व्रतानि चीर्णानि वेदाचाधीताः, दारा आहूताः, पुत्रा जनिताः, ऋद्धयः समानीताः, पशुवधाः कृताः, यज्ञा इष्टाः, दक्षिणा दत्ता, अतिथयः पूजिताः, अग्नयो हुताः, यूपा निक्षिप्ताः, तच्छ्रेयः खलु ममेदानी कल्ये यावत् ज्वलति वाराणस्यां नगया बहिर्बहून् आम्रारामान रोपयितुम् , एवं मातुलिङ्गान् , विल्वान् , कपित्थान् , चिश्चाः, पुष्पारामान रोपयितुम् । एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति वाराणस्या नगर्या बहिः आम्रारामांश्च यावत् पुष्पारामांश्च रोपयति । ततः खलु बहव आम्रारामाश्च यावत् पुष्पारामाश्च अनुपूर्वेण संरक्ष्यमाणाः, संगोप्यमानाः, संवद्धयमानाः आरामाः जाताः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ३ पुष्पिता सूत्र माणा वडूयमाणा आरामा जाया, किण्हा किण्होभासा जाव रम्मा महामेहनिकुरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणसिरीया अईन २ उवसोभेमाणा २ चिट्ठति ॥ ३ ॥ कृष्णाः कृष्णावभासा यावत् रम्या महामेघनकुरम्बभूिताः पत्रिताः पुष्पिताः फलिताः हरितकराराज्यमानश्रीकाः अतीवातीव उपशोभमाना उपशोभमानास्तिष्ठन्ति ॥ ३ ॥ टीका ' जइणं भंते ' इत्यादि । उत्क्षेपकः = प्रारम्भवाक्यं यथा - 'जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स पुष्फियाणं अथमट्ठे पन्नत्ते, तृतीय अध्ययन. " जणं भंते ' इत्यादि हे भदन्त ! यावत् सिद्धि गतिस्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके द्वितीय अध्ययनमें पूर्वोक्त अर्थोका निरूपण किया है तो हे भदन्त ! तृतीय अध्ययन में उन्होंने किन अर्थोका निरूपण किया है ? जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था ! गुणशिलक અથ ત્રીને અધ્યયન. 'जइणं मंते' त्याहि. હે ભદન્ત! એ પ્રમાણે સિદ્ધિ ગતિ સ્થાનને પ્રાપ્ત એવા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના દ્વિતીય અધ્યયનમાં પૂર્વોક્ત અર્થાનું નિરૂપણ કર્યું છે તે હે ભદન્ત ! ત્રીજા અધ્યયનમાં તેમણે કયા અર્થાનું નિરૂપણ કર્યુ. છે ? હૈ જમ્મૂ! તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ. ગુણશિલક નામે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ अकृति गाथापति २७३ तपस्सणं भंते ! अज्झयणस्स पुष्फियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पन्नत्ते ? । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे ' इत्यादि । प्रादु नामका चैत्य था । उस नगरीमें श्रेणिक नामके राजा थे । वहाँ भगवान महावीर प्रभु पधारे । परिषद धर्म कथा श्रवण करनेको निकली । उस काल उस समयमें शुक्र महाग्रह शुक्रावतंसक विमानमें शुक्रसिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोंके साथ बैठे हुए थे । वह शुक्र महाग्रह चन्द्र ग्रह समान भगवान के पास आये और नाट्यविधि दिखाकर वैसे ही चले गये । गौतमको जिज्ञासा हुई कि हे भदन्त ! यह शुक्र महाग्रह इस प्रकार देवताओंके द्वारा नाट्यविधि दिखाकर सबको अन्तर्हित करके अकेले रह गये यह बडे आश्चर्य की बात है । भगवान ने कहा हे गौतम! कूटाकारशाला - पर्वत शिखरके समान ऊँचे विशाल मकान में તેમાં ચૈત્ય હતું. તે નગરમાં શ્રેણિક નામે રાજા હતા. ત્યાં ભગવાન મહાવીર પ્રભુ પધાર્યાં. પષિદ્ધ ધર્મ કથાનું શ્રવણ કરવા નીકળી. તે કાલે તે સમયે શુક મહાગ્રહ શુક્રાવત સક વિમાનમાં શુક્ર સિંહાસન ઉપર ચાર હજાર સામાનિક દેવાની સાથે બેઠા હતા. તે શુક્ર મહાગ્રહ ચન્દ્રગ્રહની પેઠે ભગવાનની પાસે આવ્યા અને નાટય વિધિ દેખાડીને એમજ ચાલ્યા ગયા. ગૌતમને જીજ્ઞાસા થઈ કે હે સદા ! આ શુષ્ક મહાગ્રહ આ પ્રકારે દેવતાઓ દ્વારા નાટય વિધિ દેખાડી બધાને અન્તર્ષિત કરી એકલા રહી ગયા આ બહુ આશ્ચર્યની વાત છે. लगवाने धुं: હે ગૌતમ! કૂટાકારશાળાપર્વત શિખરની પેઠે ઊંચા વિશાલ મકાનમાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭8 ३ पुष्पितास्त्र वर्षा आदि के भयसे बिखरा हुवा जन समूह जिस प्रकार अन्तर्हित होजाता है उसी प्रकार शुक्रकी वैक्रयिकशक्तिसे उत्पन्न देवगण नाटक दिखाकर उनकी देहमें प्रविष्ट છે જ ! गौतम स्वामीने पूछाहे भगवन् ! यह शुक्र महाग्रह अपने पूर्व जन्ममें कौन थे ? हे गौतम ! उस काल उस समयमें वाराणसी नामकी नगरी थी। उस नगरीमें सोमिल नामका ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मण आढ्य यावत् अपरिभूत था। वह ऋग्वेद आदि वेद तथा उनके अङ्ग उपाझमें परिनिष्ठित था । उस नगरीमें भगवान् पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर पधारे। परिषद् धर्मकथा सुननेके लिये भगवानके ___ भगवानके आनेका वृत्तान्त सुनकर उस वाराणसी नगरीमें रहनेवाले सोमिल ब्राह्मणके हृदयमें इस प्रकार आध्यात्मिक-विचार उत्पन्न हुआ कि मुमुक्षु जनोंके વરસાદના ભયથી વિખરાઈ ગયેલા જન સમૂહ જેવી રીતે અન્તર્લિંત થઈ જાય છે તેવીજ રીતે શુક્રની વિકયિક શક્તિથી ઉત્પન્ન થયેલ દેવગણ નાટક દેખાડી તેનાજ દેહમાં સમાઈ ગયા. ગૌતમે પૂછયુંહે ભગવન્! આ શુક્રમહાગ્રહ તેના પૂર્વજન્મમાં કેણ હતા? હે ગૌતમ! તે કાલે તે સમયે વારાણસી નામે નગરી હતી તે નગરીમાં સેમિલ નામે બ્રાહ્મણ રહેતો હતે. તે બ્રાહ્મણ આઢય યાવત અપરિભૂત હતા. તે અન્વેદ વગેરે વેદ તથા તેનાં અંગ અને ઉપાંગમાં પરિનિષિત હતું. તે નગરીમાં ભગવાન પાર્શ્વનાથ તીર્થકર પધાર્યા પરિષદ ધર્મકથા સાંભળવા માટે ભગવાન પાસે ગઈ. ભગવાનના આવવાના સમાચાર સાંભળી તે વારાણસી નગરીમાં રહેવાવાળા સેસિલ બ્રાહ્મણના હદયમાં આ પ્રકારને આધ્યાત્મિક વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ अति गाथापत्ति र्भवामि-उपस्थितो भवामि, अर्थान् आत्मकल्याणरूपान् हेतून् कारणानि, यद्वा-हेतून्-अनुमानस्य पञ्चावयववाक्यरूपान्, यथा प्रज्ञप्त्यां व्याख्या प्रज्ञप्त्यां भगवतीसूत्रे तथा विज्ञेयम् । खण्डिकविहीनः शिष्यरहितः, सोमिलो ब्राह्मणः पार्श्वनाथमुपेतः एवं वक्ष्यमाणम् अवादी-हे भदन्त ! ते तव यात्रा वर्तते ?, ते यापनीयं वर्त्तते किम् ? इति, तथा 'सरिसवया मासा कुलत्था एए भक्खेया वा अभक्खेया' इति, तथा 'एगे भवं, दुवे भवं' आश्रयणीय अर्हत् पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर तीर्थङ्करोंकी मर्यादाको पालन करते हुए यावत् आम्रशाल वनमें पधारे हैं। इस लिये जाऊँ और भगवान पार्श्वनाथके समीप उपस्थित होऊँ। और उनसे अनेकार्थक शब्दोंका अर्थ तथा हेतु कारण अथवा अनुमानके पञ्चावयव वाक्योंको पूछू । ऐसा विचार कर शिष्योंको साथ लिये बिना अकेला ही भगवानके पास आया और इस प्रकार भगवानसे प्रश्न किया-हे भदन्त ! आपके यात्रा है ? आपके यापनीय है? 'सरिसवया, मास, और कुलथ' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? आप एक हैं या दो ? इत्यादि प्रश्न किया। સુમુક્ષુજનોના આશ્રયણીય અહંત પાર્શ્વનાથ તીર્થકર તીર્થકરેની મર્યાદાનું પાલન કરતા અહીં આઝશાલ વનમાં પધાર્યા છે. આ માટે હું જઈને ભગવાન પાર્શ્વનાથની પાસે ઉપસ્થિત થાઉં અને તેમને અનેક અર્થવાળા શબ્દોના અર્થ તથા હેતુ = કારણ અથવા અનુમાનના પંચાવયવ વાક્ય પૂછું. આ વિચાર કરી શિષ્યને પોતાની સાથે લીધા વગર એકલાજ- ભગવાનની પાસે આવ્યું અને આ પ્રકારે ભગવાનને પ્રશ્ન કર્યો Balra ! मापन यात्र छ मरी ? आपने यापनीय छ ? 'सरिसक्या, માસ, અને કુલત્થ' લક્ષ્ય છે કે અભક્ષ્ય ? આપ એક છે કે બે ? ઈત્યાદિ પ્રશ્નો કર્યા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ " ३ पुष्पितासूत्र इत्यादि च सोमिलो यत्पृष्टवान् तच्छलेनोपहासार्थम् । यात्रा' इत्यस्य संयममार्गेषु प्रवृत्तिरिति । ' यापनीयम् ' इत्यस्य मोक्षमार्गे गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियवश्य त्वलक्षणो धर्म इति । ' सरिसबया ' इत्यस्य सदृशवयसः सर्प - पाश्च भक्ष्या वा अभक्ष्या इति । 'मासा' इत्यस्य माषाः पञ्चगुञ्जामानविशेषाः, धान्यविशेषाः ' उडद ' इति प्रसिद्धाः, मासाः = कालविशेषाश्चेति । ' एगे भवं ' इत्यस्य 'एको भवान्' इत्येकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते संयम मार्गमें प्रवृत्ति । यहाँ ' यात्रा' का अर्थ है ' यापनीय' का अर्थ है - मोक्ष मार्गमें जानेवालोंके प्रयोजक इन्द्रिय और मनका वश करने रूप धर्म । सरिसवया' का अर्थ है - समान अवस्थावाला और सरसों । 6 मास का अर्थ है - मास = काल विशेष, माष - उडद, माष= प्राचीन रोतिसे 6 ܐ पाँच गुञ्जावाला मान विशेष । " एको भवान् ' इसका अभिप्राय है- यदि भगवान पार्श्वनाथ आत्माकी एकता मान लेंगे तो मैं श्रोत्र आदिके ज्ञान और अवयवोंसे आत्माकी अनेकता सिद्ध करूँगा । महीं' छात्रा' तो अर्थ छे संयम भार्गभां प्रवृत्ति. , 6 'यापनीय' ने मर्थ छे भोक्षभार्गमां भवावाणागोना प्रयोग इन्द्रिय અને મનને વશ કરવારૂપી ધર્મ. सरिसवा' नो अर्थ छे समान अवस्थावाजा भने सरसेो. ' मास ' तो अर्थ छे भास=असविशेष, भास=अडह, भास=प्राचीन रीत પ્રમાણે પાંચ રતી-ચણાઠીવાલાં માનિવશેષ ८ 'एको भवान्' मानो मेवा भतलम छे ठेले लगवान पार्श्वनाथ આત્માની એકતા માની લેશે તેા હું શ્રોત્ર આદિનું જ્ઞાન તથા અવયવાથી આત્માની અનેકતા સિદ્ધ કરીશ. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ अङ्गति गाथापति २७७ श्रोत्रादिज्ञानानामवयवानाश्चात्मनोऽनेकलोपलब्ध्या एकत्वं दूषयिष्यामीत्यमिमायकस्य, 'दुवे भवं' इत्यस्य द्वौ भवन्ताविति द्वित्वस्वीकारे एकत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वेन सहात्यन्तविरोधाद् द्वित्वं दूषयिष्यामीत्यभिमायकस्य च एतत्प्रभृतिप्रश्नस्य तत्तदर्थ भगवानवधार्य निखिलदोषरहितं स्याद्वादपक्षमाश्रित्योत्तरमदात् । एतद्विषये विशेष जिज्ञासायां भगवतीसूत्रस्य-अष्टादशशतकदशमोदेशकादवगन्तव्यम् । अत्यन्तब्राह्मणकूलप्रसूतः अत्यन्तं निरतिशयितं यद् ब्राह्मणकुलं तत्र प्रसूतः उत्पन्न: विशुद्धब्राह्मणकुलोत्पन्न इति 'द्वौ भवन्तौ ' इससे यदि दो आत्मा मानेंगे तो मैं उसका भी खण्डन करूँगा। क्यों कि जो एक है वह दो कभी हो ही नहीं सकता। इत्यादि सोमिल ब्राह्मणका प्रश्न सुनकर उन प्रश्नोंका उत्तर भगवानने सभी दोषोंसे रहित स्याद्वाद मतका आश्रयण करके दिया। इसका विस्तृत वर्णन भगवतीसूत्र के अठारहवें शतकके दश- उद्देशमें देख लेना चाहिये। इस प्रकार छलपूर्वक प्रश्न करनेके बाद वह उचित उत्तर पाकर बोध युक्त हो श्रावक धर्मको स्वीकार कर भगवान पार्श्वप्रभुके समीपसे अपने स्थानपर गया। 'द्वौ भवन्तौ ' माथी मात्रा में भान तो तेनुं ५ माउन કરીશ. કેમકે જે એક છે તે કદી પણ બે થઈ જ ન શકે ઇત્યાદિ સોમિલ બ્રાહ્મણના પ્રશ્ન સાંભળી તેના જવાબ ભગવાને સર્વે દેથી રહિત સ્યાદવાદમતનું આશ્રયણ કરીને આપ્યા. આનું વિસ્તારપૂર્વકનું વર્ણન ભગવતી સૂત્રના અઢારમા શતકના દશામા ઉદ્દેશમાં જોઈ લેવું જોઈએ. આ પ્રકારે છલપૂર્વક પ્રશ્ન કર્યા પછી તે ઉચિત ઉત્તર પામી બેધયુકત થઈ. શ્રાવક ધર્મને સ્વીકારીને ભગવાન પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પાસેથી પિતાને સ્થાને ગયે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ३ पुष्पितास्त्र यावत् । दारा स्त्रियः आहूता-परिणयविधिना स्वीकृताः, यज्ञा इष्टा! कृताः, दक्षिणा-यज्ञसमाप्तौ कर्मणः साङ्गतासिद्धयर्थं देयं द्रव्यं, दत्ता ब्राह्मणेभ्यो वितीर्णाः । यूपाः यज्ञस्तम्भाः निक्षिप्ताः भूमौ निखाताः । एक समय भगवान पार्श्वप्रभु अर्हत् वाराणसी नगरीके आम्रशाल बन नामक चैत्यसे निकलकर देशमें विहार करने लगे । ___ उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण एक समय असाधुओंके दर्शनसे तथा सुसाधुओंकी पर्युपासना नहीं करनेसे एवं मिथ्यात्वपर्यायोंके बढने और सम्यक्त्व पर्यायोंके घटनेके कारण मिथ्यात्वी हो गया। एक समय मध्य रात्रिमें कुटुम्बजागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मणके हृदयमें इस प्रकारका आध्यात्मिक यावत् मनमें संकल्प उत्पन्न हुआ कि-मैं वाराणसी नगरीका रहेनेवाला अत्यन्त उच्च कुलमें पैदा हुआ ब्राह्मण हूँ। मैंने व्रत ग्रहण किये वेद पढे, विवाह किया, पुत्रवान बना, समृद्धियोंको एकत्रित किया, पशुवध किया, यज्ञ किया, दक्षिणा दी, अतिथिकी पूजा की, अग्निमें हवन किया यूप-यज्ञीय એક વખત ભગવાન પાર્શ્વપ્રભુ અર્હત્ વારાણસી નગરીના આમ્રપાલ વન નામે ચૈત્યમાંથી નીકળીને દેશમાં વિહાર કરવા લાગ્યા. ત્યાર પછી તે સેમિલ બ્રાહ્મણ એક વખત અસાધુઓનાં દર્શનથી તથા સુસાધુઓની પર્ય પાસના ન કરવાથી અને મિથ્યાત્વ પર્યાયના વધવાથી તથા સમ્યકૃત્વ પર્યાયના ઘટવાથી મિથ્યાત્વી થઈ ગયે. એક વખત મધ્યરાત્રિમાં કુટુંબ જાગરણ કરતાં કરતાં તે સેમિલ બ્રાહ્મણના હદયમાં આવા પ્રકારના આધ્યાત્મિક એટલે મનમાં સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયા કે-હું વારાણસી નગરીમાં રહેવાવાળ બહુ ઊંચા કુળમાં પેદા થયેલે બ્રાહાણું છું, મેં વત ગ્રહણ કર્યા છે, વેદ ભણેલો છું, લગ્ન કરી પુત્રવાન બને, સમૃદ્ધિ એકઠી કરી, પશુવધ કર્યા, યજ્ઞ કર્યા, દક્ષિણ આપી, અતિથીની પૂજા કરી, અગ્નિમાં હવન કર્યા, ચૂપ યજ્ઞીય કાઇને ખેડયું, આ બધાં કાર્યો કર્યા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ अकृति गाथापति २७९ हरितकराराज्यमानश्रीकाः हरितको नीलवर्णो दूर्वादिवनस्पतिः तेन राराज्यमाना-शोशुभ्यमाना श्रीः-छटा येषां ते हरितकराराज्यमानश्रीकाः अत एव अतीवातीव-अत्यन्तं भृशम् उपशोभमाना उपशोभमानाः, तिष्ठन्ति सन्ति, शेष सुगमम् ॥३॥ स्तम्भ को रोपा, इन सभी कार्यों को किया । अब मुझे उचित है कि मैं रात बीतने पर प्रातःकालमें वाराणसी नगरीके बाहर बहुतसे आमके बगीचे लगाऊँ, एवं मातुलिङ्ग=बिजौरा, वेल, कपित्थ, ( कबिठ ), चिञ्चा=इमली और फूलोंका बगीचा लगाऊँ, इस प्रकार विचार करता है। रात बीतने पर सूर्योदय होते ही उसने वाराणसी नगरीके बाहर आमके बगीचेसे लेकर फूलके बगीचा तक लगवाया । और वे बगीचे क्रमसे संरक्षित हो संगोपित हो पूर्णरूपसे बगीचे हो गये। हरे और हरी भरी कांतिवाले, तथा बरसने वाले नीले मेघवृन्दोंके समान नीलिमा युक्त, एवं पत्रित, पुष्पित, और फलित होकर वे हरे भरे होनेके कारण अत्यन्त शोभायमान दीखने लगे ॥ ३ ॥ હવે મારે માટે એગ્ય છે કે હું રાત્રિ પુરી થઈ જ્યારે સવાર પડે ત્યારે વારાણસી નગરીની બહાર ખૂબ આંબાનાં વૃક્ષોને બગીચો બનાવું તથા માતુલિંગ=બિરા, વેલ, કપિત્થ, ચિચા=આમલી તથા કુલની વાડી બનાવું. આ પ્રકારે વિચાર કરે છે. રાત્રિ વિતી સૂર્યોદય થતાં જ તેણે વારાણસી નગરીની બહાર આંબાના બગીચાથી માંડીને કુલની વાડી સુધી બધું બનાવ્યું અને તે બગીચા હળવે હળવે સંરક્ષિત અને સંગપિત થઈ પૂર્ણ રૂપમાં બગીચા થઈ ગયા. લીલા, લીલીછમ કાન્તિવાળા, પાણીથી ભરેલા મેઘવૃન્દો (વાદળાં) હોય તેવા ઘનીભૂત રંગવાળા, પ તથા પુષ્પવાળા અને ફળવાળા હોવાથી તથા હરિયાળા હોવાથી બહુ शालायमान भावा साया. (3). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO ३ पुष्पितासूत्र मूलम् तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुन्वरत्तावरत्तकालसमयसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपजित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए णयरीए सोमिले नामं माहणे अचंतमाहणकुलप्पसूए, तए णं मए क्याइं चिण्णाई जाव जूवा णिक्खित्ता, तए णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा जाव पुप्फारामा य रोवाविया, तं सेयं खलु ममं इयाणि कलं जाव जलंते सुबहुं लोहकडाइकडच्छुयं तंबियं तावसभंडं घडावित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तनाइ० आमंतित्ता तं मित्तनाइणियग० विउलेणं असण० जाव संमाणित्ता तस्सेव मित्त जाव जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता तं मित्तनाइ जाव आपुच्छित्ता सुवहुं लोहकडाहकडच्छुयं तंबियं तारसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूला छाया ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्याऽन्यदा कदाचित पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खल्वहं वाराणस्यां नगर्यो सोमिलो नाम ब्राह्मणः अत्यन्तब्राह्मणकुलप्रसूतः, ततः खलु मया व्रतानि चीर्णानि यावद् यूपा निक्षिप्ताः । ततः खलु मया वाराणस्या नगर्या बहिर्बहव आम्रारामा यावत् पुष्पारामाश्च रोपितास्तच्छ्रेयः खलु ममेदानी कल्ये यावज्ज्वलति सुबह लौहकटाहकटुच्छुकं ताम्रीय तापसभाण्डं घटयिता विपुलमशनं पानं खाचं खाद्य मित्र ज्ञाति० आमन्थ्य तं मित्र-ज्ञाति-निजक० विपुलेन अशन० यावत् सम्मान्य तस्यैव मित्र० यावत् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापगिला तं मित्रज्ञातियावर आपृच्छय सुबहुं लौहकटाहकटुच्छुकं ताम्रीयं तापस શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८१ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ अति गाथापत्ति वाणपत्था तावसा भवंति-तं जहा होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जन्नई सडई थालई हुंबउटा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा संमज्जगा निमज्जगा संपक्खालगा दक्खिणकूला उत्तरकूला संखधमा कूलधमा मियलद्धया हत्थितावसा उदंडा दिसापोक्खिणो वक्तवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रूक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरति । तत्थ णं जे ते दिसापो. क्खिया तावसा तेसिं अंतिए दिसापोक्खियत्ताए पव्वइत्तए । पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि कप्पइ मे जावजीवाए छटुं-छटेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचकवालेणं तवोकम्मेणं उड्डू बाहाओ भाण्डकं गृहीखा ये इमे गङ्गाकूलाः वानप्रस्थास्तापसा भवन्ति तद्यथाहोत्रिकाः, पोत्रिकाः, कौत्रिकाः, यज्ञयाजिनः, श्राद्धकिनः, स्थालकिनः= गृहीतभाण्डाः, हुण्डिकाश्रमणाः, दन्तोदूखलिकाः, उन्मज्जकाः, सम्मज्जकाः, निमज्जकार, संप्रक्षालका, दक्षिणकूलाः, उत्तरकूलाः, शङ्खध्माः, कूलध्माः, मृगलुब्धकाः, हस्तितापसाः, उद्दण्डाः, दिशामोक्षिणः, वल्कवाससः, बिलवासिनः, जलवासिनः, वृक्षमूलकाः, अम्वुभक्षिणः, वायुभक्षिणः, शेवालभक्षिणः, मूलाहाराः, कन्दाहाराः, खगाहाराः, पत्राहाराः, पुष्पाहाराः, फलाहाराः, बीजाहाराः, परिशटितकन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलाहाराः, जलाभिषेककठिनगात्रभूताः, आतापनाभिः पञ्चाग्नितापैः अङ्गारशौल्यकं, कन्दुशौल्यकमिव आत्मानं कुर्वाणा विहरन्ति । तत्र खलु ये ते दिशामोक्षकाखापसास्तेषामन्तिके दिशामोक्षकतया प्रव्रजितुम् । भवजितोऽपि च खलु सन् इममेतद्रपमभिग्रहममिग्रहीष्यामि-कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठ-षष्ठेनानिक्षिप्तेन શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ___३ पुष्पितासूत्र पगिज्झिय २ सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तएत्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते सुबहुं लोह जाव दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए । पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहित्ता पढमं छटुक्खमणं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥४॥ दिक्चक्रवालेन तपाकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य २ सूराभिमुखस्याऽऽतापनभूम्यामातापयतो विहर्तुम् । इति कृखा एवं संप्रेक्षते, संपेक्ष्य कल्ये यावज्ज्वलति सुबहुं लोह० यावत् दिशामोक्षकतापसतया पत्रजितः । प्रव्रजितोऽपि च खलु सन् इममेतद्रूपमभिग्रहमभिगृह्य प्रथमं षष्ठक्षपणमुपसंपद्य खलु विहरति ॥४॥ टीका 'तएणं तस्स' इत्यादि । लौहकटाहकटुच्छुक लौह-लोहनिर्मितम् कटाहो-भाजनविशेषः, कटुच्छुको दर्वी परिवेषणाद्यर्थभाजनविशेषः, कटाहकटुच्छुकयोः समाहारः, कटाहकटुच्छुकं लौहं च तत् इति कर्मधारये कृते तथा, गङ्गाकूलाः गङ्गाकूलस्थाः गङ्गातीरवासिन इति यावत् 'मञ्चाः ' तएणं तस्स' इत्यादि उसके बाद किसी दूसरे समय कुटुम्बजागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मणके हृदयमें इस प्रकार आध्यात्मिक आत्म सम्बन्धी विचार उत्पन्न हुए कि मैंने व्रत आदि किये यावत् स्तम्भ गाडे और मैं वाराणसी नगरीका अत्यन्त 'तएणं तस्स' त्यादि. ત્યાર પછી કઈ બીજે વખતે કુટુંબ જાગરણ કરતાં કરતાં તે સેમિલ બ્રાહ્મણના હૃદયમાં આ પ્રકારને આધ્યાત્મિક-આત્મ વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે મેં વ્રત આદિ કર્યો, યજ્ઞસ્તંભ ખેડ અને હું વારાણસી નગરીના બહુ ઊંચા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ अङ्गति गाथापति २८३ क्रोशन्ति' इत्यत्रेवात्र गङ्गाकूलपदस्य तत्स्थे लक्षणा बोध्या । यद्वा-गङ्गाकूलं वासत्वेनाऽस्याऽस्तीति ‘अर्श आदित्वादचप्रत्यये निष्पन्नोऽयं' तेन उच्च कुल प्रसूत ब्राह्मण हूँ, मैंने वाराणसी नगरीके बाहर बहुतसे आमके बगीचेसे लेकर फूल तकके बगीचे लगवाये अब मुझे उचित है कि रात वीतनेके बाद प्रातःकाल होते ही बहुतसी लोहेकी कडाहियाँ तथा कलछू एवं तापसोंके लिये तांबेके बर्तन बनवाकर विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्य बनवाकर अपने मित्र ज्ञाति आदियों को आमन्त्रित करूँ। अनन्तर वह ब्राह्मण उन बर्तनोंको बनवाकर विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्य तैयार कराकर अपने मित्र ज्ञाति बन्धुओंको आमंत्रित कर और उन्हें जिमाकर तथा उन्हें सम्मानित कर और उन्हीं मित्र-ज्ञाति-स्वजन बन्धुओंके सामने अपने ज्येष्ठपुत्रको कुटुम्बका भार देकर, अपने उन सभी मित्र-ज्ञाति-बन्धुओं से पूछकर मैं बहुतसी लोहेकी कडाहियों, कलछू और ताम्बेके बने हुए पात्रोंकों કુળમાં જન્મેલ બ્રાહ્મણ છું. મેં વારાણસી નગરીની બહાર ઘા આંબાના બગીચાથી માંડીને ફુલવાડી સહિત બનાવ્યાં છે. હવે મારે માટે એગ્ય છે કે રાત વીતી ગયા પછી પ્રાતઃકાલ થતાંજ ઘણી જ લોઢાની કડાઈએ, કડછીએ આદિ તથા તાપને માટે તાંબાના વાસણ બનાવીને ખૂબ ખાવાપીવાના ખાદ્ય-સ્વાદ્ય પદાર્થો બનાવરાવીને મારા મિત્ર અને જ્ઞાતિબંધુઓ આદિને આમંત્રણ આપું. પછી તે બ્રાહ્મણે તે પ્રમાણે વાસણ બનાવરાવી ખૂબ ખાનપાન ખાદ્ય-સ્વાદ્ય તૈયાર કરાવી પોતાના મિત્ર અને જ્ઞાતિબંધુઓને આમંત્રણ આપ્યું ને જમાડયા તથા તેમનું સન્માન કરી તે મિત્ર-જ્ઞાતિ-સ્વજન બંધુઓની સામે પિતાના મોટા પુત્રને બેલાવી કુટુંબને ભાર તેના ઉપર નાખી, પિતાના તે સઘળા મિત્ર-જ્ઞાતિ બંધુઓને પૂછી હું ઘણી લોઢાની કડાઈએ, કડછીએ તથા તાંબાનાં બનાવેલાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ __३ पुष्पितासूत्र कूलशब्दस्य नपुंसकत्वेऽपि नेह पुंस्त्वानुपपत्तिः । होत्रिकाः अग्निहोत्रिकाः, पोत्रिकाः वस्त्रधारिणो वानप्रस्थाः, कौत्रिका: भूमिशायिनो वानप्रस्थाः, यज्ञयाजिनः याज्ञिकाः, श्राद्धकिनः श्राद्धाः, स्थालकिन भोजनपात्रधारिणः, हुण्डिकाश्रमणाः वानप्रस्थतापसविशेषाः, दन्तोदूखलिकाः दशनैश्चर्वयित्वा भोजनशीलाः, उन्मज्जकाः उन्मजनमात्रेण ये स्नान्ति-उपरिष्टा देव स्नानं कुर्वन्ति ते तथा, सम्मन्जकाः उन्मजनस्यैवासकृत् करणेन ये स्नान्तिहस्तैः पुनः पुनर्जलं गृहीत्वा स्नानं कुर्वन्ति ते तथा, नमज्जकाः स्नानार्थ निमग्ना एव जले क्षणमात्रं तिष्ठन्ति ते तथा, संप्रक्षालकाः=ये गात्रं मृत्तिकाघर्षणपूर्वकं जलेन प्रक्षालयन्ति ते तथा, दक्षिणकूला: ये गङ्गाया लेकर जो गङ्गा तीरवासी वानप्रस्थ तापस हैं जैसे-होत्रिक अग्निहोत्री, पोत्रिक वस्त्रधारी वानप्रस्थ, कौत्रिक भूमिशायी वानप्रस्थ, यज्ञयाजी यज्ञ करनेवाले, श्राद्धकी श्राद्ध करनेवाले वानप्रस्थ, स्थालकिन:=पात्र धारण करनेवाले, हुण्डिकाश्रमण वानप्रस्थतापस विशेष, दन्तोदूखलिक-दांतसे केवल चबाकर खानेवाले, उन्मज्जक-उन्मजन मात्रसे स्नान करनेवाले, अर्थात् पानी डालकर स्नान करनेवाले, सम्मज्जक बार बार हाथसे पानीको उछालकर नहानेवाले, निमज्जक=पानीमें डूबकर नहानेवाले, संप्रक्षालक-मिट्टीसे शरीरको मलकर नहानेवाले, दक्षिणकूल-गङ्गाके पास सन २0 तीरे पसना। वानप्रस्थ तापस छ पाठे-होत्रिक मनिहोत्री, पोत्रिक-पत्रधारी वानप्रस्थ, कौत्रिक मूभिशय वानप्रस्थ, यज्ञयाजी यज्ञ ४२वावा, श्राद्धकी श्राद्ध ४२वावा वानप्रस्थ, स्थालको पात्र धा२१ ४२वाqtal, हुंडिका-श्रम वानप्रस्थ तापस विशेष. दन्तोदूखलिक=aiत3 34 यावान भाषापा, उन्मजक=GHoror- भारथी स्नान ४२वा मर्थात् ५ नाभीन स्नान ४२वावा, संमजक-पापा२ हाथी पाए जाने ना , निमजक-पाणीमा मी भारी नाडवावा, संप्रक्षालक=भारीथी शरीरने याबीन नावावा, दक्षिणकूल नहीन क्षि निारे रउवापार, उत्तरकूल-tm શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ अति गाथापत्ति २८५ दक्षिणतटवासिनस्ते तथा, उत्तरकूलाः ये गङ्गाया उत्तरतटवासिनस्ते तथा, शङ्खध्माः शङ्ख ध्मात्वा नादयित्वा ये भुञ्जते ते तथा, कूलध्माः-कले तटे स्थित्वा शब्दं कृत्वा ये भुञ्जते ते कुलध्माः, मृगलुब्धकाः मृगं हत्वा तेनैव ये अनेकदिवसं भोजनतो यापयन्ति ते तथा, हस्तितापसाः हस्तिनं मारयित्वा तेनैव चिरकालं भोजनतो यापयन्ति ते तथा, उद्दण्डाः ऊर्ध्वकृतदण्डा एव ये संचरन्ति ते तथा, दिशामोक्षिणः=उदकेन दिशःमोक्ष्य ये फलपुष्पादिकं समुच्चिन्वन्ति ते तथा, वल्कवाससा=वृक्षत्वग्वस्त्रधारिणः, बिलवासिनः भूमिच्छिद्रवासिनः, जलवासिनःजले निषण्णा एव ये तिष्ठन्ति ते तथा, वृक्षमूलकाः=तरुतले ये निवसन्ति ते तथा, अम्बुभक्षिणः जलाहाराः, दक्षिण तटपर रहनेवाले, उत्तरकूल गङ्गाके उत्तर तटपर रहनेवाले, और शङ्खध्मा शङ्ख बजाकर भोजन करनेवाले, कूलध्मा तटपर स्थित होकर आवाज करते हुए भोजन करनेवाले, मृगलुब्धक-मृगको मारकर उसीके मांससे जीवन बीतानेवाले, हस्तितापस-हाथीको मारकर उसके मांससे जीवन बीतानेवाले, उद्दण्ड=दण्डको ऊँचा उठाकर चलनेवाले, दिशामोक्षी दिशाको जलसे सींचकर उसपर पुष्प फल आदिको चूनकर रखनेवाले, वल्कलवासस-वृक्षकी छालको धारण करनेवाले, विलवासी-भूमिके नीचेकी खोहमें रहनेवाले, जलवासी-जलमें ही रहनेवाले, वृक्षमूलक-वृक्षके मूलमें रहनेवाले, अम्बुभक्षो-जल मात्रका आहार करनेवाले, वायुનદીને ઉત્તર કિનારે રહેવાવાળા તથા =શંખ વગાડીને ભજન કરવાવાળા कूलमान ५२ मेसी २हीन सवा ४२ ४२वावा, मृगलुब्धक भृगने भाशन तेना भांसथी. वन पाता , हस्तितापस-थान भारीन तेन भांसथा वन वाताना, उदण्ड ने ये GIsी यासना, दिशाप्रोक्षी દિશાઓને પાણીથી માર્જન કરીને (પાણી છાંટીને) તેના ઉપર પુષ્પફલ વીણીને रामनारा, वल्कलवासस-वृक्षनी छासन धा२॥ ४२पावापा, बिलवासो-भूभिनी नायना गुसमा २नारा, जलवासीसमior २हेना, वृक्षमूलक-पृक्षना भूभा २२वापाणा, अम्धुभक्षीमात्रा मार सेना, वायुभक्षीपायु मात्रथा શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८६ _____३ पुष्पितासूत्र वायुभक्षिण-पवनाहाराः, शेवालभक्षिणः जलोपरिस्थितहरितवनस्पति विशेषभोजिनः, मूलाहाराः=मूलकभक्षिणः, कन्दाहाराः सूरणादिकन्दभक्षिणः, त्वगाहाराः=निम्बादित्वग्भक्षिणः, पत्राहाराः-बिल्वादिपत्रभक्षिणः, पुष्पाहाराः= कुन्दशोभाञ्जनादिपुष्पभक्षिणः, फलाहाराः कदलीफलादिभोजिनः बीजाहाराः कूष्माण्डादिवीजभोजिनः, परिशटितकन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलाहारा:= विनष्टकन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलभोजिनः, जलाभिषेककठिनगात्रभूताः= स्नात्वा २ जलाभिषेककठोरशरीराः, आतापताभिः पञ्चामितापैश्च अङ्गारशौल्यं अङ्गारे-वह्नौ शूले मांसं निषज्य पकं, कन्दुशौल्यं-कन्दुः-तण्डुलादिभक्षी वायु मात्रसे जीवीत रहनेवाले, शेवालभोजी-जलमें उत्पन्न शेवाल =सेमारको–खानेवाले, मूलाहार-मूल खानेवाले, कन्दाहार-सूरन आदि कन्दका आहार करनेवाले, त्वगाहार-नीम आदिकी त्वचा खानेवाले, पत्राहार-बीला आदिके पत्तेका आहार करनेवाले, पुष्पाहार=कुन्द सोइजन, गुलाब आदि पुष्पका आहार करनेवाले, फलाहार केला आदि फल खानेवाले, बीजाहार-कुम्हडा आदिका बीज खानेवाले, सडे हुए कन्द मूल त्वचा, पत्ते, फूल और फल खानेवाले, जलके अभिषेकसे कठिन शरीरवाले, सूर्यकी अतापना और पञ्चाग्नितापसे अङ्गार शौल्य=(अंगारेमें शूलपर रखकर पकाये हुए मांस ) एवं कन्दुशौल्य=( चावल आदि भूजनेका लन नारा, शेवालभोजोन 6५२ लाराम २हेस दीदी वनस्पति (सेवा) पापा , मूलाहार-भूप मा , कन्दाहार-सू२५ वगैरे l माडा२ ४२नारा, त्वगाहार-दीम31 माहिनी छोटा भावावा, पत्राहार-मिलापत्र माहि पत्रानो माहा२ ४२वावा, फलाहार वगैरे ३१ मावावा, पुष्पाहारY०५-, सवा नाम आ सोना AIR ४२वावा, बोजाहारવગેરેનાં બી ખાવાવાળા, સડી ગયેલાં કંદમૂળ, છાલ, પાન, કુલ તથા ફળ ખાવાવાળા, જલના અભિષેકથી કઠણ શરીરવાળા, સૂર્યની આતાપના અને પંચાગ્નિના તાપથી અંગારશલ્ય દેવતામાં શૂળ ઉપર રાખીને પકાવેલાં માંસ અને કંદશૌલ્ય શ્રી નિયાવલિકા સૂત્ર Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ अङ्गति गाथापति भर्जनपात्रमात्रं शूलं च ताभ्यां तत्र वा धृतादिना वह्नौ पकं कन्दुशौल्यम् इव-तद्वद् आत्मानं कुर्वाणा विहरन्ति अवतिष्ठन्ति । 'तत्थणं जे' इत्यादिअनिक्षिप्तेन अविच्छिन्नेन दिक्चक्रवालेन तन्नामकेन तथाहि-एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुङ्क्ते, द्वितीये पारणे दक्षिणस्यां पात्र=कन्दु, उसमें घृत डालकर शूलपर पकाये हुए मांस ) के समान अपने शरीरको कष्ट देते हुए विचरते हैं। उनमें जो दिशामोक्षक हैं उनमें प्रव्रजित होनेकी इच्छा रखता हूँ, और प्रबजित होकर भी इस प्रकारका अभिग्रह ( प्रतिज्ञा ) लूंगा कि यावज्जीव अन्तर रहित षष्ठ-षष्ठ ( बेला–बेलारूप ) दिक्चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्यके अभिमुख भुजा उठाकर आतापनभूमिमें आतापना लेता रहूंगा । इस प्रकार मनमें सोचकर विचार करता है, और विचार करके सूर्योदय होनेपर बहुतसी लोहेकी कडाहिया यावत् लेकर दिशा-प्रोक्षक तापसके पास आया और दिशा-प्रोक्षक तापस हो गया। तापस होकर वह सोमिल पूर्वोक्त अभिग्रह ग्रहण करके पहला षष्ठ-क्षपण तप स्वीकार कर विचरने लगा। ચોખા વગેરે રાંધવાનાં પાત્ર=કંદુ તેમાં ઘી નાખીને ચૂલ પર પકાવેલા માંસની પેઠે પિતાનાં શરીરને કષ્ટ દેતા જે વિચારે છે તેમાં જે દિશા પ્રેક્ષક છે તેઓની પાસે પ્રવ્રજીત બનવાની ઈચ્છા રાખું છું. તથા પ્રવ્રજીત થઈને પણ આ પ્રકારના અભિગ્રહ (પ્રતિજ્ઞા) લઈશ કે-જ્યાં સુધી જીવું ત્યાં સુધી અન્તર રહિત છઠ-છઠ (નબેલા-બલાકુપ) દિચક્રવાલ તપસ્યા કરતા સૂર્યની સામે હાથ ઊંચા રાખીને આતાપન ભૂમિમાં આતાપના લેતો રહીશ. આમ વિચાર કરે છે. વિચાર કરીને સૂર્યોદય થતાં ઘણું લેઢાની કડાઈઓ કડછીએ, તાંબાનાં તાપસ પાત્રો આદિ લઈને દિશા પ્રોક્ષક તાપસની પાસે આવ્યું અને દિશા પ્રેક્ષક તાપસ થઈ ગયે. તાપસ થઈને પણ તે એમિલ પૂર્વોક્ત અભિગ્રહ બરાબર લઈને પહેલા ષષક્ષપણ સ્વીકાર કરીને વિચારવા લાગ્યો. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ मूलम् - तणं से सोमिले माहणे रिसी पढमछट्ठक्खमणपारणंसि आयावणभूमी पच्चोरुहर, पञ्च्चोरुहित्ता वागलवत्थ नियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव ३ पुष्पितासूत्र छाया ततः खलु सोमिलो ब्राह्मण ऋषिः प्रथमषष्ठक्षपणपारणे आतापनभूम्यां प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्न वल्कल वस्त्रनिवसितः यत्रैव स्वक उटजस्तदिशि स्थितानि फलादीनि चाहृत्याश्नातीत्येवं दिक्चक्रवालेन दिङ्गेण्डलेन यत्र तपःकर्मणि पारणकरणं भवति तत् तपःकर्म 'दिक्चक्रवालं ' कथ्यते तेन तपः कर्मणेति ॥४॥ - यहां ' दिक्चक्रवाल ' शब्द आया है, इसका अभिप्राय है - तपस्वी तपस्याकी पारणा के लिये अपनी तपोभूमिकी चारों दिशाओंमें फलको इकट्ठा करके रखे । बादमें तपस्याकी पहली पारणा में पूर्वदिशामें स्थित फलसे पारणा करे । दूसरा पारणा आनेपर दक्षिण दिशामें स्थित फलसे पारणा करे । इसी प्रकार अन्य पारणा आनेपर पश्चिम उत्तर दिशाओं में स्थित फलका आहार करे । इस प्रकारकी पारणा वाली तपस्याको ' दिक्चक्रवाल ' कहते हैं ॥ ४ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર અત્રે ‘દિકૢ ચક્રવાલ શબ્દ આવ્યા છે તેના અભિપ્રાય એવા છે કે તપસ્વી તપસ્યાનાં પારણાં માટે પેાતાની તપભૂમિની ચારે દિશામાં ફુલ ભેગાં કરીને રાખે. પછી તપસ્યાનાં પહેલાં પારણામાં પૂર્વ દિશાએ રાખેલાં ફળથી પારણું કરે. બીજું પારણુ કરવાનું આવે ત્યારે દક્ષિણ દિશામાં રાખેલાં ફળથી પારણુ કરે. આવી રીતે ખીજાં પારણાં આવે ત્યારે પશ્ચિમ-ઉત્તર દિશાઓમાં રાખેલાં કૂળના આહાર કરે. આ પ્રકારની પારણાંવાળી તપસ્યાને દિક્ ચક્રવાલ अड्डे छे. (४). " Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण २८९ उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं गिण्हइ, गिण्हित्ता पुरथिमं दिसिं पुक्खेइ, पुक्खित्ता 'पुरथिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि ताणि अणुजाणउ'-त्ति कटु पुरत्थिमं दिसं पसरइ, पसरित्ता जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि य ताइं गिण्हइ, गिण्हत्ता किढिणसंकाइयं भरेइ, भरित्ता दब्भे य कुसे य पत्तामोडं च समिहाकट्टाणि य गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ, ठवित्ता वेदि वड्डइ वड्डित्ता उवलेवणसंमज्जणं करेइ, करित्ता दब्भकलसहत्थगए जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गंगं महानइं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमजणं करेइ, करित्ता जलकिडं करेइ, करित्ता जलाभिसेयं करेइ, करित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए त्रैवोपागच्छति, उपागत्य किढिणसाङ्कायिकं गृह्णाति, गृहीत्वा पौरस्त्यां दिशं मोक्षति, प्रोक्ष्य " पौरस्त्याया दिशः सोमो महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षतु सोमिलब्राह्मणर्षिम् , यानि च तत्र कन्दानि च मूलानि च त्वचञ्च पत्राणि च पुष्पाणि च फलानि च बीजानि च हरितानि च तानि अनुजानातु,” इति कला पौरस्त्यां दिशं प्रसरति, प्रसत्य यानि च तत्र कन्दानि च यावत् हरितानि च तानि गृह्णाति किढिणसांकायिकं भरति, भृत्वा दर्भाश्च कुशांश्च पत्रामोटं च समित्काष्ठानि च गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव खक उटजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य किढिणसांकायिकं स्थापयति, स्थापयिखा वेदी वर्धयति, वर्धयिता उपलेपनसम्मार्जनं करोति, कृत्वा दर्भकलशहस्तगतो यत्रैव गङ्गामहानदी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य गङ्गां महानदीमवगाहते, अवगाह्य जलमज्जनं करोति, कृत्वा जलक्रीडां करोति, कृत्वा जलाभिषेकं करोति, कृत्वा आचान्तः स्वच्छः परमशुचिभूतः देवपितृकृतकार्यः, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ३ पुष्पितासूत्र देवपिउकयकजे दब्भकलसहत्थगए गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरइ, पच्चुतरित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दन्भेहि य कुसेहि य वालुयाए य वेदि रएइ, रइत्ता सरयं करेइ, करित्ता अरणिं करेइ, करित्ता सरएणं अरणिं महेइ, महित्ता अग्गि पाडेइ, पाडित्ता अग्गि संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता समिहाकट्ठाइं पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अग्गि उज्जालेइ, उज्जालित्ता अग्गिस्स दाहिणे पासे सत्तंगाई समादहे । तं जहा-" सकत्यं वक्कलं ठाणं, सिज्ज भंडं कमंडलुं । दंड दारूं तहप्पाणं, अह ताइं समादहे।" महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, चरुं साहेइ, साहित्ता बलिवइस्सदेवं करेइ, करित्ता अतिहिपूयं करेइ, करित्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारं आहारेइ ॥५॥ दर्भकलशहस्तगतो गङ्गातो महानदीतः प्रत्यवतरति, प्रत्यवतीर्य यत्रैव स्वक उटजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य दर्भेश्च कुशैश्च वालुकया च वेदि रचयति, रचयित्वा शरकं करोति, कृत्वा अरणिं करोति, कृत्वा शरकेणारणिं मनाति मथित्वा अग्निं पातयति, पातयित्वा अग्निं संधुक्षते, संधुक्ष्य समित्काष्ठानि पक्षिपति, प्रक्षिप्य अग्निमुज्ज्वालयति, उज्ज्वाल्य, अग्नर्दक्षिणे पाच सप्ताङ्गानि समादधाति, तद्यथा “ सकत्थं १ वल्कलं २ स्थानं ३ शय्यामाण्डं ४ कमण्डलुम् ५ ॥, दारुदण्डं ६ तथाऽऽत्मानम् ७ अथ तानि समादधीत ॥१॥" ततो मधुना च घृतेन च तण्डुलैश्चाग्निं जुहोति, चरुं साधयति, साधयित्वा बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वाऽतिथिपूजां करोति, कृत्वा ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहारयति ॥५॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण __ २९१ टीका'तएणं से सोमिले' इत्यादि । 'वागलवत्थ नियत्थे' इति, वाल्कलवस्त्रनिवसितः वल्कल-वृक्षत्वक् तस्येदं वाल्कलं तच वस्त्रं वाल्कलवस्त्रं, तत् निवसितं-परिहितं येन स तथा परिहितवाल्कलवस्त्र इति तदर्थः । तेएणं से सोमिले' इत्यादि उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि पहला षष्ठ-क्षपण पारणेके दिन आतापन भूमि पर आता है। वहाँ आकर वह वल्कलवस्त्रधारी तापस जहाँ उसकी कुटी थी वहाँ आया । और आकर किढिणसंकायिक ( कावड ) लेता है। तथा पूर्व दिशाको जलसे प्रोक्षण (सिंचन ) करता है और कहता है-' हे पूर्व दिशाके अधिपति सोम देव ' मैं सोमिल ब्राह्मण ऋषि परलोक साधन मार्गमें चलनेके लिये प्रस्थित हूँ, मेरी रक्षा करो, तथा वहाँ जो कुछ कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरित वनस्पति हैं उन्हें लेनेकी आज्ञा दो। ऐसा कह कर पूर्व दिशामें जाता है। वहाँ जाकर जो कुछ वहाँ कन्द मूल आदि थे उनका 'तएणं से सामिले 'त्याहि. ત્યાર પછી તે મિલ બ્રાહ્મણ ઋષિ પહેલા ષષ્ઠક્ષપણના પારણું આવતાં આતાપન ભૂમિ પર આવે છે. ત્યાં આવીને તે વક્તવસ્ત્ર ધારણ કરી રહેલ તાપસ જ્યાં પિતાની પર્ણકુટી હતી ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને પિતાની કાવડ લીધી અને તે લઈને પૂર્વ દિશામાં જલથી સિંચન કરે છે અને કહે છે–“હે પૂર્વ દિશાના અધિપતિ સેમ મહારાજ! પરલોકસાધન માર્ગમાં જવા માટે પસ્થિત સમિલ બ્રાહ્મણ ષિની રક્ષા કરે અને ત્યાં જે કાંઈ કંદ, મૂળ, છાલ, પાંદડાં, પુષ્પ, ફલ, બી તથા લીલોતરી વસ્તુ આદિ છે તે લેવાની આજ્ઞા આપો” એમ કહીને પૂર્વ દિશામાં જાય છે. ત્યાં જઈને જે કાંઈ કંદ, મૂલ આદિ હતાં તે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ३ पुष्पितासूत्र आर्षत्वात निवसितेति निष्ठान्तस्य पर्णादिस्तस्माज्जात उटज : - तापसानां वंशमयस्तापसभाजन विशेषः, पूर्वप्रयोगाभावः । उटजः - उटः - तृणपर्णशाला, किठिणसांकायिकं = किढिणं=साङ्कायिकं = भारोद्वहनयन्त्रं किटिणसाङ्कायिकं = कावट ' कावड ' इति प्रसिद्धम् प्रस्थाने - परलोकसाधनमार्गप्रयाणे, प्रस्थितं = प्रयातम् फलाद्याहरणार्थे प्रवृत्तमिति यावत्, पत्राssमोटंवेदि - अग्निहोत्र पूजादिस्थानं वर्धयति = प्रमार्ज " तरुशाखामोटितपत्रसमूहं, E यति, उपलेपनसम्मार्जनम् = मृत्तिका गोमयादिना भूमिसंस्कार उपलेपनम् सम्मार्जनं= तृणादिनिर्मितसम्मार्जन्या भूमितः पिपीलिकादिकानां लघुकाय ग्रहण करता है और अपना कावड भरता है । बाद इसके दर्भ, कुश पत्रामोट= तोडे हुए पत्ते और समित्काष्ठ ( हवनके लिये छोटी २ लकडियों ) को लेकर जहाँ अपनी कुटी थी वहाँ आया और अपनी कावड रखी । कावड रखकर वेदी को बढाया अर्थात् वेदी बनानेका स्थान निश्चय किया । बाद उपलेपन और पिपी - लिका ( कीडी मकोडी ) आदि लघुकाय जीवोंकी रक्षाके लिये समार्जन करने लगा । अनन्तर दर्भ और कलशको हाथमें लेकर गङ्गाके तटपर आया और गङ्गामें प्रवेश कर स्नान करने लगा, और जलमज्जन- डुबकी लगाना, जल क्रीडा - तैरना, तथा जलाभिषेक करने लगा । बाद आचमन करके स्वच्छ और अत्यन्त शुद्ध हो देवता ગ્રહણ કરે છે અને પોતાની કાવડ ભરે છે. પછી તેનાં દર્ભ, કુશ, પાંદડાં અને સમિધ ( હેામનાં કાષ્ઠ ) એ બધુ લઇ જ્યાં પેાતાની પકુટી હતી ત્યાં આણ્યે. ત્યાં આવીને તેણે પેાતાની કાવડ રાખી. કાવડ રાખીને વેદીને મેાટી કરી અર્થાત્ વેદી અનાવવાનું વિસ્તૃત સ્થાન નિશ્ચિત કર્યું. પછી ઉપલેપન ( લીંપણ ) તથા ક્રીડી આદિ લઘુકાય જીવાની રક્ષાને માટે સમાન કરવા લાગ્યા. પછી દર્ભ તથા કલશને હાથમાં લઈને ગગાને કાંઠે આવ્યે અને તેમાં પ્રવેશીને સ્નાન કરવા લાગ્યા, તથા જલમજન=ડુબકી લગાવવું, જલક્રીડા=તરવું, અને જલાભિષેક કરવા લાગ્યા. પછી આચમન કરીને સ્વચ્છ અને અત્યંત શુદ્ધ થઈને, દેવતા તથા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ सुन्दरबोधिनो टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण जीवानामपसारणम् , देवपितृकृतकार्यः देवाश्च पितरश्च देवपितरस्तेषां कृतं सम्पादितं कार्य पूजनजलाञ्जलिदानप्रभृतिकृत्यं येन स तथा, दर्भकलशहस्तगतः दर्भाः कुशाः कलशः घटश्च हस्ते गताः प्राप्ताः यस्य स तथा कुशकलशहस्त इति, शरकेण=निर्मन्थनकाष्ठेन अरणि-घर्षणीयकाष्ठं मनाति= घर्षयति, अग्निं संधुक्षते-फूत्करोति । 'समादहे'=समादधाति-स्थापयति, अत्र लटोऽर्थे लिङ सौत्रत्वात् , तद्यथा तानि अङ्गानि यथा, चरुं-हवनार्थ दुग्धेन सह तण्डुलादिहविघुताभिघारितं साधयति-सम्पादयति, रन्धयतीति यावत् ॥५॥ और पितरोंका कृत्य करके दर्भ और कलश हाथमें लेकर गङ्गा महानदीसे बाहर निकला, और अपनी कुटीमें आया । वहाँ आकर दर्भ और कुश एक तरफ रखता है और बालसे वेदी बनाता है। बादमें शरक-निर्मन्थन काष्ठ, जो अग्निके लिए घिसा जाता है; अरणि-निर्मथ्यमान काष्ठ, जिसपर अग्नि उत्पन्न करनेके लिए शरक घिसा जाता है, उन्हें तैयार करता है। अनन्तर शरक के द्वारा अरणि का मन्थन करता है, और मन्थन कर उससे अग्नि निकालता है फिर फूककर उसे सुलगाता है। उसमें समिध काष्ठ डालकर उसे प्रज्वलित करता है, प्रज्वलित कर अग्निके दाहिने पार्श्व (जीमणी बाजू ) में सात अगों ( वस्तुओं ) का स्थापन करता है, वे ये हैं પિતૃઓનાં કર્મો કરીને, દર્ભ તથા કલશ હાથમાં લઈને, ગંગા મહાનદીમાંથી બહાર નીકળે. અને પિતાની કુટીમાં આવ્યું. ત્યાં આવીને દર્ભ અને કુશને એક તરફ રાખે છે તથા રેતીથી વેદી બનાવે છે. પછી ફરવ=નિર્મથન કાષ્ઠ, જે અગ્નિ માટે ઘસવામાં આવે છે, તે તથા મણિકનિધ્યમાન કાઝ, જેના ઉપર અગ્નિ ઉત્પન્ન ४२१। भाटे 'शरक' घसाय छे ते तैयार 3रे छे. सन २२४ द्वारा १२६नु મન્થન કરે છે. મન્થન કરી તેમાંથી અગ્નિ પ્રગટ કરે છે અને કુંક મારી તેને સળગાવે છે. તેમાં સમિધીનાં કાષ્ટ નાખીને પ્રજવલિત કરે છે. અગ્નિ પ્રજવલિત કરીને અગ્નિની જમણી બાજુમાં સાત અંગે (વસ્તુઓ) નું સ્થાપન કરે છેपा: શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ मूलम् - तर णं से सोमिले माहणरिसी दोचंसि छट्ठक्खमणपारणगंसि तं चैव सव्वं भाणियव्वं जाव आहारं आहारेइ, नवरं इमं नाणत्तं - दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसि ३ पुष्पितासूत्र छाया ततः खलु स सोमिलो ब्राह्मणऋषिद्वितीये षष्ठक्षपणपारण के तदेव सर्वे भणितव्यं यावद् आहारमाहारयति । नवरमिदं नानालम् - दक्षिणस्यां दिशि यमो महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षतु सोमिलं ब्राह्मणर्षि, याश्व ( १ ) सकत्थ तापसोंका एक उपकरण विशेष, (२) वल्कल, ( ३ ) स्थान, (४) शय्या भाण्ड, (५) कमण्डल, (६) लकडीका दण्डा तथा ( ७ ) आत्मा अर्थात् अपनेको अग्निके दाहिनी तरफ रखे । इसके अनुसार सब वस्तुकोंको यथास्थान रखकर वह मधु घृत और तण्डुलसे हवन करता है । चरु = ( घीसे चुपड़कर हवन के लिये पकाने योग्य चावल ) को सिज्ञाता है । बलि-वैश्व देव ( नित्य यज्ञ ) करता है । बादमें अतिथिको भोजन कराकर स्वयं भोजन करता है ॥ ५ ॥ (१) समुत्थ-तायसोनुं शेड उपर विशेष, (२) १८४स (3) स्थान, (४) शय्यालांड, (५) उभडज, (६) साडीनेो द्दंड तथा (७) आत्मा अर्थात् પેાતાને અગ્નિની જમણી બાજુએ રાખે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર આ પ્રમાણે બધી વસ્તુને યથાસ્થાન રાખી મધ, ઘી તથા ચાખાથી અગ્નિમાં હવન કરે છે. ર=ધીથી ચાપડીને હવનને માટે રાંધવાના ચાવલ સીઝાવે छे. यइने सिजावी बलि वैश्वदेव ( नित्य यज्ञ ) पुरे छे. पछी अतिथिने कभाडी चाते लेकिन ५२ छे. (4). Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण २९५ जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव अणुजाणउ ति कट्टु दाहिणं दिसिं पसरइ । एवं पञ्चत्थिमे णं वरुणे महाराया जाव पच्चत्थिमं दिसिं पसर । उत्तरेणं वेसमणे महाराया जाव उत्तरं दिसिं पसरइ । पुव्वदिसागमेणं चत्तारि विदिसाओ भाणियन्नाओ जाव आहारं आहारे । तए णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाब समुप्पज्जित्था - एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहपरिसी अच्चंतमाहणकुलप्पसूए, तरणं मए वयाई चिण्णाई जाव जूवा निक्खित्ता । तणं मए वाणारसीए जाव पुप्फारामा य जाव रोविआ । तणं मए सुबहु लोह० जाव घडावित्ता जाव जेट्ठपुत्तं कुटुंबे ठावित्ता जाव जेहपुतं आपुच्छित्ता सुबहु लोह० जाव गहाय मुंडे जाव पव्वइए तत्र कन्दाँश्च यावद् अनुजानातु इति कृत्वा दक्षिणां दिशं प्रसरति । एवं पश्चिमे खलु वरुणो महाराजो यावत् पश्चिमां दिशं प्रसरति । उत्तरे खलु वैश्रवणो महाराजो यावद् उत्तरां दिशं प्रसरति । पूर्वदिग्गमेन चतस्रो विदिशो भणितव्याः यावद् आहारमाहारयति । ततःखलु तस्य सोमिल ब्राह्मणर्षेरन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये अनित्यजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत्. समुदपद्यत: एवं खलु अहं वाराणस्यां नगयीं सोमिलो नाम ब्राह्मण ऋषिरत्यन्तब्राह्मण कूलप्रसूतः, ततः खलु मया व्रताति चीर्णानि यावत् यूपा निक्षिप्ताः, ततः खलु मया वाराणस्यां यावत् पुष्पारामाश्व यावद् रोपिताः ततः खलु मया सुबहुलोह० यावद् घटयित्वा यावत् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयिता यावद् ज्येष्ठपुत्रमापृच्छय सुबहुलोह० यावद् गृहीवा मुण्डो શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ३ पुष्पिता सूत्र " वि य णं समाणे छहं छट्ठेणं जाव विहरामि तं सेयं खलु मम इयाणि कल पाउ जाव जलते बहवे तावसे दिट्टाभट्ठे य पुव्वसंगइए य परियायसंगइए य आपुच्छित्ता आसमसंसियाणि य बहूई सत्तसयाई अणुमाणइत्ता बागलवत्थनियत्यस्स किठिण संकाइयगहियसभंडोवगरणस्स कट्टमुद्दाए मुहं बंधिता उत्तरदिसाए उत्तरामिमुहस्स महपत्थाणं पत्थावेत्तए । एवं संपेहेर, संपेहित्ता कलं जाव जलते बहवे तावसे य दिट्टाभट्ठे य पुव्वसंगइए य तं चैव जाव कट्टमुद्दाए मुहं बंध, बंधित्ता अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, जत्थेव णं अहं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा निन्नंसि वा पव्वयंसिवा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज्ज वा पवडिज्ज वा, नो खलु मे कप्पर पच्चुट्ठित्तए त्ति कट्टु अयमेयारूवं अभिहं अभिगिण्हइ, अभिगिन्हित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहमहपत्थाणं पत्थिए से सोमिले माहणरिसी पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागए, यावत् प्रव्रजितोऽपि च खलु सन् षष्ठषष्ठेन यावत् विहरामि तच्छ्रेयः खलु ममेदानीं कल्ये प्रादुर्यावज्ज्वलति बहून् तापसान् दृष्ट-भ्रष्टांश्च पूर्वसङ्गतिकाँश्च पर्याय संगतिकाँथ आपृच्छय आश्रमसंश्रितानि च बहूनि सत्त्वशतानि अनुमान्य वाल्कलवस्त्रनिवसितस्य किढिण संकायिकगृहीतसभाण्डोपकरणस्य काष्ठमुद्रया मुखं बद्धा उत्तरदिशि उत्तराभिमुखस्य महाप्रस्थानं प्रस्थापयितुम् एवं संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति बहून् तापसांश्च दृष्ट-भ्रष्टांश्च पूर्वसङ्गतिकाँश्च तदेव यावत् काष्ठमुद्रयामुखं बध्नाति, बद्धा इमभिग्रहमभिगृह्णाति यत्रैव खलु अहं जले वा, एवं स्थले वा दुर्गे वा निम्ने वा पर्वते वा विषमे वा गर्त्तायां वा दर्यां वा प्रस्खयां वा पतेयं वा नो खलु मे कल्पते प्रत्युत्थातुम् इति कृत्वा इमेतद्रूपमभिग्रहमभिगृहाति, उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुख महामस्थानं प्रस्थितः । स सोमिलो ब्राह्मण ऋषिः पूर्वापराह्नकालसमये यत्रैव अशोकवर - , , - શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण २९७ असोगवरपायवस्स अहे किठिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेदिं वइ, वड्ढित्ता उवलेवणसंमज्जणं करेइ, करिता दम्भकलसहत्थगए जेणेव गंगा महानई जहा सिवो जाव गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता दब्भेहिं य कुसेहिं य वालुयाए य वेदिं रएइ, रहत्ता सरगं करे, करिता जाव बलिवइस्सदेवं करेइ, करिता कद्वमुद्दाए मुहं बंध, तुसिणीए संचि ॥ ६ ॥ पादपस्तत्रैवोपागतः । अशोकवरपादपस्याधः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयति, स्थापयित्वा वेदं वर्धयति, वर्धयित्वा उपलेपनसम्मार्जनं करोति, कला दर्भकलशहस्तगतो यत्रैव गङ्गा महानदी यथा शिवो यावद् गङ्गातो महानदीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैव अशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य दर्भेश्व कुशैश्च वालुकया च वेदीं रचयति, रचयित्वा शरकं करोति, कृत्वा यावद् बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वा काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति तूष्णीकः संतिष्ठते ॥६॥ टीका " तणं से सोमिले ' इत्यादि । पूर्वदिशागमेन = कन्दमूलाद्यर्थ पूर्वदिशागमनेन चतस्रो विदिशो भणितव्याः, अयं भाव - चतुर्दिक्षु या क्रिया 6 तणसे सोमिले ' इत्यादि उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण ऋषिने द्वितीय छट्ठ (बेला) का पारणा आनेपर पूर्वोक्त प्रकारसे सभी कार्य किये और अन्तमें आहार किया । विशेष यह तणं से सोमिले त्याहि. ત્યાર પછી તે સામિલ બ્રાહ્મણ ઋષિએ દ્વિતીય ૪ ( વેલા ) નું પારણું આવતાં પૂર્વોક્ત પ્રકારે ખધાં કર્યાં કર્યો તથા છેલ્લે આહાર કર્યાં. વિશેષ એ છે કે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ३ पुष्पितास्त्र है कि यहाँ यमकी प्रार्थना करता है-दक्षिण दिशामें महाराज यम परलोक साधक मार्गमें प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण ऋषिकी रक्षा करें, उस दिशामें जो कन्द, मूल, फल फूल आदि हो उन्हे लेनेकी मुझे आझा दें। ऐसा कह कर दक्षिण दिशामें जाता है। इसी प्रकार पश्चिम दिशामें महाराज वरुण देव परलोक साधक मार्गमें प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण ऋषिकी रक्षा करें, इत्यादि पूर्वोक्त विधिसे पश्चिम दिशा में जाता है। बाद उत्तर दिशामें जानेके लिये उसी प्रकार महाराज वैश्रवण( कुबेर )-की प्रार्थना की और उत्तर दिशामें गया। इसी प्रकार इसने चारों-पूर्व आदि दिशाके समान चारों विदिशाओं ( कोणों ) में भी पूर्वोक्त विधिका आचरण किया, और आहार किया। उसके बाद एक समय अनित्य जागरणा करते हुए उस सोमिल ब्राह्मण के हृदय में इस प्रकारका आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुआ कि मैं वाराणसी नगरीका रहनेवाला अत्यन्त उच्च कुलमें उत्पन्न सोमिल नामका ब्राह्मण ऋषि हूँ। मैंने बहुतसे દક્ષિણ દિશામાં મહારાજ યમ, પરલોક સાધક માર્ગમાં પ્રસ્થિત સમિલ બ્રાહ્મણની રક્ષા કરે. તે દિશામાં જે કંદ, મૂળ, ફલ, કુલ વગેરે હોય તે લેવાની આજ્ઞા આપે” એમ કહીને દક્ષિણ દિશામાં જાય છે. એ જ પ્રકારે પશ્ચિમ દિશામાં મહારાજ વરુણ, પરલોક સાધક માર્ગમાં પ્રસ્થિત સોમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિની રક્ષા કરો. વગેરે પૂર્વોક્ત વિધીથી પશ્ચિમ દિશામાં જાય છે. પછી ઉત્તર દિશામાં જવા માટે એજ પ્રકારે મહારાજ વિશ્રવણ (કુબેર) ની પ્રાર્થના કરી અને ઉત્તર દિશામાં ગયે. આવી રીતે તેણે પૂર્વ આદિ ચારે દિશાઓની પેઠે ચારે વિદિશાઓ (પૂર્ણ) માં પણ પૂર્વોક્ત વિધિનું આચરણ કર્યું અને પછી આહાર કર્યો. ત્યાર પછી એક વખત અનિત્ય જાગરણ કરતાં કરતાં તે સોમિલ બ્રાહ્મણના હૃદયમાં એવા પ્રકારને આધ્યાત્મિક વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે હું વારાણસી નગરીને રહેવાવાળે અત્યંત ઊંચા કુળમાં જન્મેલે સોમિલ નામને બ્રાહ્મણ ઋષિ છું. મેં ઘણાં ઘણું વ્રત કર્યા તથા યશ વગેરેથી માંડી યજ્ઞ સ્તંભ ખેડવા સુધી કર્મ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण २९९ कृता सा क्रिया विदित्वपि । दृष्टभ्रष्टान् सम्यक्त्त्वस्खलितान् पूर्वसङ्गतिकान्-पूर्वस्मिन् काले सङ्गतिः मित्रत्वं यैः सह तान् तथा पूर्वमित्राणि, व्रत किये, तथा यज्ञ आदि करनेसे लेकर यज्ञ स्तम्भ तक गाडा। अनन्तर मैंने वाराणसी नगरीके बाहर आमके बगीचेसे लेकर फूल तकके बगीचे लगवाये । बाद मैने बहुतसी लोहेकी कडाहिया कलछ और तापसके लिये उपयुक्त बहुतसे ताम्बेके पात्र बनवाकर और अपने सभी मित्र-ज्ञाति-स्वजन-बन्धुओंको बुलाकर उन्हें भोजन आदिके द्वारा सम्मानित कर, उन ज्ञाति बन्धुओंके समक्ष अपने पुत्रको कुटुम्बकी रक्षाके लिये स्थापित कर यावत् उससे सम्मति लेकर उन लोहे की कडाहिया आदि लेकर मुण्ड होकर प्रबजित हुआ। और अनन्तर रहित पष्ठ-षष्ठ दिक्चक्रवाल तप करता हुआ विचरण कर रहा हूँ अब मुझे उचित है कि सूर्योदय होते ही बहुतसे दृष्टभ्रष्ट दृष्ट जो कभी देखे हुए यथार्थ भाव हैं उनसे भ्रष्ट रखलित हैं, तथा पूर्वसंगतिक पूर्वकालमें जिनसे संगति-मित्रता हुई थी ऐसे, पर्यायसंगतिक-समान तापस पर्यायवालोंको पूछकर; आश्रम संश्रित आश्रममें रहनेवाले अनेक शत प्राणि કર્યા. ત્યાર પછી મેં વારાણસી નગરીથી બહાર આંબાના બગીચાથી માંડી કુલવાળા બાગ સુધી બનાવ્યાં. પછી ઘણી લોઢાની કડાઈઓ, કડછી તથા તાપસને માટે ઉપયોગી એવી ઘણી તાંબાનાં પાત્રો વગેરે વસ્તુ બનાવરાવી અને મારા પિતાના સઘળા મિત્ર-જ્ઞાતિ–સ્વજન-બંધુઓને બોલાવીને તેમને ભેજન વગેરે દ્વારા સંમાનિત કર્યા. તે જ્ઞાતિ બંધુઓની સમક્ષ મારા પિતાના પુત્રને કુટુંબની રક્ષાને માટે સ્થાપિત કરીને તેની સંમતિ લઈને તે લોઢાની કડાઈ વગેરે બધું લઈ મુંડિત થઈ પ્રત્રજિત થયે અને અંતરરહિત છઠ-છઠ દિ ચકવાલ તપ કરતે કરતે વિચારું છું. આ માટે મને એ યંગ્ય છે કે સૂર્યોદય થતાં જ ઘણાં દુષ્ટ ભ્રષ્ટ=e=જે કયારેક જોવામાં આવેલાં યથાર્થ ભાવથી ભ્રષ્ટ-અલિત છે તે તથા પૂર્વ સંગતિક સમાન તાપસ પર્યાય વર્તિઓને પૂછીને, આશ્રમ સંશ્રિત= આશ્રમમાં રહેવાવાળા અનેક સંકડે પ્રાણીઓને વચન આદિથી સંતુષ્ટ કરી વહકલ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ___३ पुष्पितास्त्र पर्यायसङ्गतिकान्=तापसपर्यायवर्तिनः, काष्ठमुद्रया काष्ठमयमुखबन्धनेन । गर्तायां-महत्यां खड्डायाम् , दर्या-कन्दरायाम् , शेषं स्पष्टम् ॥६॥ योंको वचन आदिसे सन्तुष्ट कर वल्कल वस्त्र पहना हुआ कावडमें अपने भाण्डोपकरणको लेकर तथा काष्ठमुद्रासे मुँहको बाँधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशामें महाप्रस्थान ( मरणके लिये जाना ) करूँ । वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि इस प्रकार विचार करता है और सूर्योदय होने पर, अपने विचारके अनुसार सभी दृष्टभ्रष्ट आदि तापस पर्यायवालोंको पूछकर तथा आश्रमस्थ अनेक शत प्राणियोंको वचन आदिसे सन्तुष्टकर अन्तमें काष्ठ मुद्रासे अपना मुख बाँधता है, और इस प्रकारका अभिग्रह (प्रतिज्ञा ) लेता है कि' जहाँ कहीं भी-चाहे वह जल हो या स्थल हो वा दुर्ग (विकट स्थान ) हो, अथवा नीचा प्रदेश हो वा पर्वत हो, विषम भूमि हो, वा गड्ढे हो, वा गुफा हो, इन सबोमेंसे कहीं भी प्रस्खलित होऊँ या गिर प., तो मुझे वहाँसे उठना नहीं कलपता' ऐसा विचार करके इस प्रकारका अभिग्रह लेता है। तथा उत्तर दिशाको વસ્ત્ર ધારી કાવડમાં પોતાનાં ભંડેપકરણ લઈ તથા કાષ્ટ મુદ્રાથી મેટાને બાંધી ઉત્તર દિશામાં ઉત્તરાભિમુખ થઈને મહાપ્રસ્થાન (મરણને માટે જવું) કરું. તે સેમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિ આ વિચાર કરે છે અને સૂર્યોદય થતાં પિતાના વિચાર પ્રમાણે બધા દુષ્ટ-ભ્રષ્ટ આદિ સમાન તાપસ પર્યાયવર્તિઓને પૂછીને તથા આશ્રમમાં રહેનારા અનેક સેંકડે પ્રાણિઓને સંતુષ્ટ કરી કાષ્ઠમુદ્રા વડે પિતાનું મોટું બાંધે છે. અને એ અભિગ્રહ (પ્રતિજ્ઞા) લે છે કે જ્યાં જ્યાં પણ તે જલ હોય કે સ્થલ હોય કે દુર્ગ (વિકટ સ્થાન ) હય, નીચે પ્રદેશ હોય કે પર્વત હોય, વિષમ ભૂમિ હોય કે ખાડે હોય કે ગુફા હોય એ બધામાંથી ગમે તે હોય ત્યાં પ્રખલિત થાઉં કે પડી જાઉં તો મારે ત્યાંથી ઉઠવું નહિ કલ્પ’ એમ વિચારી એ અભિગ્રહ લે છે અને ઉત્તર દિશા તરફ મહાપ્રસ્થાન માટે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण मूलम्— ३०१ तणं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भूए । तएणं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी - हंभो छाया ततः खलु तस्य सोमिल ब्राह्मणऋषेः पूर्वरात्रापररात्रकालसमये एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भूतः । ततः खलु स देवः सोमिलं ब्राह्मणमेव ओर महाप्रस्थानके लिए प्रस्थित होता है । फिर वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि अपराह्न काल (दिनके तिसरे प्रहर ) में जहाँ सुन्दर अशोक वृक्ष था वहाँ आया । और उस अशोक वृक्षके नीचे अपना कावड रखा । अनन्तर वेदि= बैठनेकी जगह को साफ किया, साफ करके जहाँ गङ्गा महानदी थी वहाँ आया । और शिवराजऋषिके समान उस गङ्गा महानदीमें स्नान आदि कृत्यकर वहाँसे ऊपर आया और जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आकर दर्भ कुश और बालुकासे यज्ञ वेदीकी रचना की । यज्ञ वेदीकी रचना करके शरक और अरणिसे अग्निको प्रज्वलित कर यावत् बलिवैश्वदेव ( नित्य यज्ञ ) करता है, काष्ठ मुद्रासे मुख बाँधता है, और मौन होकर रहता है ॥ ६ ॥ પ્રસ્થિત થાય છે. પછી તે સામિલ બ્રાહ્મણ ઋષિ અપરાô કાલ (દિવસના ત્રીજાપ્રહર) માં જ્યાં સુંદર અશાક વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યા અને તે અશાક વૃક્ષની નીચે પોતાની કાવડ રાખી. અનન્તર વૈદિ–બેસવાની જગ્યાને સાફ કરી, તે સાફ્ કરીને જ્યાં ગગા મહાનદી હતી ત્યાં આવ્યા. અને શિવરાજ ઋષિની પેઠે તે ગંગા મહા નદીમાં સ્નાન આદિ કર્મ કરી ત્યાંથી ઉપર આવ્યા તથા જ્યાં અશાક વૃક્ષ હતુ ત્યાં આવીને—દર્ભ, કુશ તથા રેતીથી યજ્ઞ વેદીની રચના કરી. યજ્ઞ વેદીની રચના કરીને શરક તથા અરણીથી અગ્નિને પ્રજવલિત કરીને પછી અલિ-વૈશ્વદેવ (નિત્ય ચજ્ઞ) કરે છે અને કાષ્ટ મુદ્રાથી મુખ મધે છે. અને મૌન ધારણ કરી બેસી लय छे. (६). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ___३ पुष्पितासूत्र सोमिलमाहणा ! पव्वइया ! दुपव्वइयं ते । तएणं से सोमिले तस्स देवस्स दोचंपि तचंपि एयमद्वं नो आढाइ नो परिजाणइ जाव तुसिणीए संचिइ । तएणं से देवे सोमिलेणं माहणरिसिणा अणाढाइज्जमाणे जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए । तएणं से सोमिले कल्लं जाव जलंते वागलवथनियत्थे किढिणसंकाइयं गहाय गहियभंडोवगरणे कठमुद्दाए मुहं बंधइ. बंधित्ता उत्तरामिमुहे संपत्थिए । तएणं से सोमिले बिइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव सत्तवन्ने तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सत्तवण्णस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेई वड्डइ, वत्तिा जहा असोगवरपायवे जाव अग्गि हुणइ, कट्टमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि एगे देवे अंतिय पाउन्भूए । तएणं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने जहा असोगवरपायवे मवादीव-हं भो सोमिल ब्राह्मण ! प्रवजित ! दुष्पवजितं ते । ततः खलु स सोमिलस्तस्य देवस्य द्वितीयमपि तृतीयमपि एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु स देवः सोमिलेन ब्राह्मणर्षिणा अनाद्रियमाणः यस्या दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिलः कल्ये यावत् ज्वलति वाल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसाङ्कायिकं गृहीला गृहीतभाण्डोपकरणः काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, बद्ध्वा उत्तराभिमुखः संप्रस्थितः । ततः खलु स सोमिलो द्वितीयदिवसे पश्चादपराह्नकाल समये यत्रैव सप्तपर्णः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सप्तपर्णस्य अधः किढिणसांकायिकं स्थापयति, स्थापयित्वा वेदि वर्धयति, वर्धयिला यथा अशोकवरपादपे यावत् अग्निं जुहोति, काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, तूष्णीकः संतिष्ठते । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण ३०३ जाब पडिगए । तरणं से सोमिले कलं जाव जलंते वागलवत्थ नियत्थे किठिण संकाइयं गिण्हइ, गिव्हित्ता कडमुद्दाए मुहं बंधर, उत्तरदिसाए उत्तराभिमु संपत्थिए । तरणं से सोमिले तइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेई बढेइ जाव गंगं महानई पच्चुत्तर, पच्चुत्तरिता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वेई रएइ जाव मुद्दा मुहं बंधइ, बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठर । तरणं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउन्भूए तंचेच भणइ जाव पडिगए । तणं से सोमिले जाव जलंते वागलवत्थनियत्थे किठिण संकाइयं जाव मुद्दा मुहं बंध, बंधिता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए । ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकालसमये एको देवो - ऽन्तिकं प्रादुर्भूतः । ततः खलु स देवोऽन्तरिक्षप्रतिपन्नः यथा अशोकवरपादपे यावत् प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिलः कल्ये यावत् ज्वलति वाल्कलवस्त्रनिवसितः किटिणसाङ्कायिकं गृह्णाति, गृहीला काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, बद्ध्वा उत्तरदिशि उत्तराभिमुखः संप्रस्थितः ततः खलु स सोमिलस्तृतीयदिवसे पश्चादपराद्धकालसमये यत्रैवाशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य अशोकवरपादपस्याधः किटिणसाङ्काकिं स्थापयति, वेदिं वर्धयति, यावद् गङ्गां महानदीं प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैवाशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वेदिं रचयति यावत् कालमुद्रयामुखं बध्नाति, बद्ध्वा तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु तस्य सामिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भतः तदेव भणति यावत् प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिलो यावत् ज्वलति वाल्कलवस्त्रनिवसितः किटिण શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ____३ पुष्पितासूत्र तएणं से सोमिले चउत्थे दिवसे पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागए, वडपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेई वइ, उवलेवणणसंमज्जणं करेइ जाव कमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्टइ । तएणं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्नावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउभूए तं चेव भणइ जाव पडिगए । तएणं से सोमिले जाव जलं ते वागलवत्थनियत्थे किढिणसंकाइयां जाव कमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए । तएणं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उंबरपायवे तेणेव उवागच्छेइ, उंबरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वड्ढेइ जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ जाव तुसिणीए संचिढइ । साङ्कायिकं यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, बद्ध्वा उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुखः संप्रस्थितः । ततः खलु स सोमिलः चतुर्थे दिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैव क्टपादपस्तत्रैवोपागतः, वटपादपस्याधः किढिणसाङ्कायिक स्थापयति, स्थापयिला वेदिं वर्धयति, उपलेपनसंमार्जनं करोति यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बनाति, तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले एको देवोऽन्तिकं मादुर्भूतः । तदेव भणति यावत् प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिलो यावज्ज्वलति वाल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसाङ्कायिक यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बधाति बद्ध्वा उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुखः संपस्थितः। ततः खलु स सोमिलः पञ्चमदिवसे पश्चादपराहकालसमये यत्रैव उदुम्वरपादपस्तत्रैवोपागच्छति, उदुम्बर पादपस्याधः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयति, वेदि वर्धयति यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण ३०५ तणं तस्स सोमिलमाहणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे जाब एवं वयासी - हंभो सोमिला ! पव्वइया ! दुष्पव्वइयं ते पढमं भणइ, तहेव तुसिणीए संचिgs | देवो दोचंपि तचंपि वदइ सोमिला ! पप्वइया ! दुष्पव्वइयं ते । तणं से सोमिले तेणं देवेणं दोचंपि तचंपि एवं वृत्ते समाणे तं देवं एवं वयासी - कण्णं देवाणुप्पिया ! मम दुष्पव्वइयं । तएणं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुमं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वए सत्त सिक्खावए दुवालसविहे सावगधम्मे पडिवने, तरणं तव अण्णा कया असाहुदंसणेण पुव्वरत्ता० कुटुंब ० जाव पुव्वचितियं देवो उच्चारेइ जाव जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए संचिट्ठसि । तणं पुव्वरत्तावरत्तकाले तव अंतियं पाउन्भवामि हं भो सोमिला ! पव्वइया ! दुष्पव्वइयं ते तह चैव देवो नियवयणं भणइ जाव पंचमदिवसम्मि पच्छा ततः खलु तस्य सोमब्राह्मणस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले एको देवः यावत् एवमवादीत्-हं भो सोमिल ! प्रत्रजित ? दुष्प्रब्रजितं ते प्रथमं भणति तथैव तूष्णीकः संतिष्ठते, देवो द्वितीयमपि तृतीयमपि वदति सोमिल ! प्रव्रजित ? दुष्प्रव्रजितं ते । ततः खलु स सोमिलस्तेन देवेन द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमुक्तः सन् तं देवमेवमवादीत् - कथं खलु देवानुप्रिय ! मम दुष्प्रव्रजितम् ततः खलु स देवः सोमिलं ब्राह्मणमेवमवादीत् - एवं खलु देवानुप्रिय ! त्वं पार्श्वस्यार्हतः पुरुषादानीयस्यान्तिकं पञ्चानुव्रतानि सप्तशिक्षाव्रतानि द्वादशविधं श्रावकधर्मं प्रतिपन्नः, ततः खलु तवाऽन्यदा कदाचित् असाधुदर्शनेन पूर्वरात्रा० कुटुम्ब० यावत् पूर्वचिन्तितं देव उच्चारयति यावत् यत्रैवाऽशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छसि उपागत्य किढिणसाङ्कायिकं यावत् तूष्णीकः संतिष्ठसे । ततः खलु पूर्वरात्रापररात्रकाले तवान्तिकं बादुर्भवामि શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पुष्पितासूत्र वरण्हकालसमयंसि जेणेव उंबरवरपायवे तेणेव उवागए किठिणसंकाइयं ठवेसि, वेई बसि, उवलेवणं संमज्जणं करेसि, करिता कहमुद्दाए मुहं बंधेसि, गंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठसि तं चेवं खलु देवाणुप्पिया ! तव पव्वइयं दुष्पव्वइयं । तएणं से सोमिले तं देवं एवं वयासी - कहण्णं देवानुप्पिया ! मम सुप्पव्वइयं ? तरणं से देवे सोमिलं रुवं वयासि - जइणं तुमं देवाणुप्पिया ! इयाणि पुव्वपडिवण्णाई पंच अणुब्वयाई सत्तसिक्खावयाई सममेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि तोणं तुज्झ इदाणि सुपव्वइयं भविज्जा । तणं से देवे सोमिल बंदइ नमसर, वंदित्ता नमसिता जामेव दिसिं पाउब्भ्रूए जाव पडिगए । ३०६ तएण से सोमिले माहणरिसो तेणं देवेणं एवं बुत्ते समाणे पुत्रपडिवन्नाई पंच अणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरः । हं भो सोमिल ! प्रत्रजित ? दुष्प्रव्रजितं ते तथैव देवो निजवचनं भणति यावत् पञ्चमदिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैव उदुम्बरपादपस्तत्रैवोपागतः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयसि, वेदीं वर्धयसि, उपलेपनं संमार्जनं करोषि, कला काष्ठमुद्रया मुखं बनासि, बद्ध्वा तूष्णीकः संतिष्ठसे, तदेवं खलु देवानुप्रिय ! तव प्रव्रजितं दुष्प्रव्रजितम् । ततः खलु स सोमिलस्तं देवमेवमवादीत् कथं खलु देवानुप्रिय ! मम सुमत्रजितं ? । ततः खलु स देवः सोमिलमेवमवादीत् - यदि खलु त्वं देवानुप्रिय ! इदानीं पूर्वप्रतिपन्नानि पञ्चानुव्रतानि सप्तशिक्षाव्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य खलु विहरसि तर्हि खलु तवेदानीं सुप्रव्रजितं भवेत् । ततः खलु स देवः सोमिलं वन्दते नमस्यति, वन्दिला नमस्थित्वा यस्या दिशः प्रादुभूतः यावत् प्रतिगतः । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण ३०७ तएणं से सोमिले बहूहिं चउत्थ छट्ठम जाव मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहि तोवहाणेहि अप्पाणं भावमाणे बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा मुक्वडिसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जावतोगाहणाए सुक्कमहग्गहत्ताए उववने । तएणं से मुक्के महग्गहे अहुणो. ववन्ने समाणे जाव भासामणपज्जत्तीए । ___ एवं खलु गोयमा ! सुकेणं महग्गहेणं सा दिव्वा जाव अभिसमन्नागया, एगं पलिओवमं ठिई । सुके णं भंते ! महग्गहे तओ देवलोगाओ आउक्खएणं ३ कहिं गच्छिहिइ ? २ गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५ । एवं खलु जंबू ! समणेणं० निक्खेवओ ॥ ७ ॥ ॥ तइयं अज्झयणं समत्तं ॥३॥ ततः खलु सोमिलो ब्राह्मण ऋषिस्तेन देवेन एवमुक्तः सन् पूर्वप्रतिपन्नानि पश्चानुव्रतानि सप्तशिक्षाब्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य खलु विहरति । ततः खलु स सोमिलो बहुभिश्चतुर्थषष्ठाष्टमयावन्मासार्द्धमासक्षपणैर्विचित्रैस्तपउपधारात्मानं भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं पालयति, पालयिखा अर्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयति, जोषयिखा त्रिंशद् भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, छित्त्वा तस्य स्थानस्यानालोचिताऽप्रतिक्रान्तो विराधितसम्यक्त्वः कालमासे कालं कृता शुक्रावतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावताऽवगाहनया शुक्रमहाग्रहतया उपपन्नः। ततः खलु स शुक्रोमहाग्रहः अधुनोपपन्नः सन् यावद् भाषामन:पर्याप्त्या० । एवं खलु गौतम ! शुक्रण महाग्रहेण सा दिव्या यावत् अभिसमन्वागता । एकं पल्योपमं स्थितिः । शुक्रः खलु भदन्त ! महाग्रहस्ततो देवलोकात् आयुःक्षयेण ३ कुत्र गमिष्यति २ ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ५ ! एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन निक्षेपकः ॥ ७ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ३ पुष्पितासूत्र टीका 'तणं तस्स ' इत्यादि । असाधुदर्शनेन = साधुदर्शनाभावादसाधुदर्शनाच्च 6 तणं तस्स ' इत्यादि - उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण ऋषिके सामने मध्य रात्रिके समय एक देवता प्रकट हुआ । उसके बाद वह देव सोमिल ब्राह्मणको इस प्रकार कहा – हे प्रव्रजित सोमिल ब्राह्मण ! तेरी यह दुष्प्रव्रज्या है । इस प्रकार उस देवके द्वारा दो तीन बार कहे जानेपर भी वह सोमिल उस देवताकी बातका आदर नही करता है न उसकी तरफ ध्यान ही देता है, किंतु मौन होकर रहता है उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मणसे अनाहत वह देव जिस दिशासे आया उसी दिशामें चला गया । उसके बाद वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल सूर्योदय होनेपर कावडको उठाकर अपना भाण्ड - उपकरण लेकर काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बाँधकर उत्तर दिशाकी और प्रस्थान करता है | तणं तस्स त्याहि. ત્યાર પછી તે સામિલ બ્રાહ્મણ ઋષિની સામે મધ્યરાત્રિને વખતે એક દેવતા પ્રગટ થયા. પછી તે દેવે સામિલ બ્રાહ્મણને આમ કહ્યું:—હૈ પ્રત્રજીત સોમિલ બ્રાહ્મણ ! તારી આ પ્રવ્રજ્યા દુષ્પ્રત્રજ્યા ( દોષવાળી ) છે. એ પ્રકારે તે દેવની દ્વારા એ ત્રણ વાર કહેવામાં આવતાં છતાં પણ તે સામિલ તે દેવતાની વાતના આદર કરતા નથી કે નથી તેના તરફ ધ્યાન પણ દેતા. પણ એકદમ મૌન થઇ જાય છે. ત્યાર પછી તે સેામિલ બ્રાહ્મણથી અનાદર પામેલા દેવ જે આજુથી આવ્યા હતા તે માજુએ ચાલ્યા ગયા. ત્યાર પછી વલ્કલવસ્ત્રધારી તે સામિલ સૂર્યોદય થતાં કાવડ ઉપાડી પેાતાના ભડ ઉપકરણ લઇને કાષ્ઠમુદ્રાથી પાતાનું માઢું ખાંધીને ઉત્તર દિશા તરફ પ્રસ્થાન ५२. छे. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण __ अनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण दूसरे दिन अपराह्न कालके अंतिम प्रहरमें जहाँ सप्तपर्ण वृक्ष था वहाँ आया। और सप्तपर्ण वृक्षके नीचे अपना कावड रखता है, कावड रखकर वेदी बनाता है, और जैसे अशोक वृक्षके नीचे उसने किया वैसे ही सभी कार्य किये । अन्तमें उसने हवन किया और काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बांधकर मौन होकर बैठ गया। उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मणके समक्ष मध्यरात्रिके समय एक देव प्रकट हुआ। और आकाशमें खडा होकर अशोक वृक्षके नीचे जिस प्रकार पहले उस सोमिल ब्राह्मणको देवताने कहा था उसी प्रकार फिर भी कहा, परन्तु उस सोमिल ब्राह्मणने उस देवताकी बातपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। सुनी अनसुनी करके केवल चुप रह गया। वह देवता अन्तर्हित हो गया । उसके बाद वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल ब्राह्मण अपना कावड ग्रहण करता है और काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बाधता है। अनन्तर वह उत्तर दिशामें उत्तराभिमुख होकर प्रस्थित हुआ। પછી તે સોમિલ બ્રાહ્મણ બીજે દિવસ અપરાë કાલના છેલ્લા પહોરમાં (સાંજે) જ્યાં સપ્તપર્ણ વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યું. અને સપ્તપર્ણની નીચે પિતાની કાવડ રાખીને વેદી બનાવે છે. અને જેવી રીતે અશોક વૃક્ષની નીચે તેણે કર્યા હતાં તેવાંજ બધા કર્મો કરી અન્ત તેણે હવન કર્યો અને કાણમુદ્રાથી પિતાનું મોટું બાંધી મૌન થઈ રહેવા લાગ્યું. પછી તે સોમિલ બ્રાહ્મણની સમક્ષ મધ્યરાત્રિને વખતે એક દેવ પ્રગટ થયે અને આકાશમાં ઉભા રહી અશેકવૃક્ષની નીચે જેમ પહેલાં તે સેમિલ બ્રાહ્મણને દેવતાએ કહ્યું હતું તેવી જ રીતે વળી ફરીને કહ્યું. પરંતુ તે સોમિલ બ્રાહ્મણે તે દેવતાની વાત ઉપર કાંઈ પણ ધ્યાન ન આપ્યું. સાંભળ્યું ન સાંભળ્યું કરીને બિલકુલ ચુપ થઈ રહ્યો. તે દેવતા અંતર્ધાન થઈ ગયે. પછી વક્તવસ્ત્ર ધારી તે સોમિલ બ્રાહણે પિતાની કાવડ લીધી અને કામુદ્રાથી પિતાનું મોટું બાંધે છે. ત્યાર પછી ઉત્તર દિશામાં ઉત્તરાભિમુખ થઈને ચાલવા માંડયું. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पुष्पितासूत्र उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण तीसरे दिन चौथे पहरमें जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आया। वहाँ आकर कावड रखता है, और बैठनेके लिये वेदी बनाता है ओर पहले ही तरह सभी कार्य करके काष्ठमुद्रासे मुँह बाँधता है, अनन्तर मौन होकर बैठ जाता है । उसके बाद मध्य रात्रिमें उस सोमिल ब्राह्मणके समीप एक देव प्रकट हुआ और फिर उसने उसी प्रकार कहा और यावत् चला गया । उसके बाद सूर्योदय होनेपर वल्कल वस्त्रधारी वह सोमिल ब्राह्मण अपना कावड उठाता है और काष्ठमुद्रासे अपना मुख बाँधता हैं और उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशामें प्रस्थान करता है । ३१० उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण चौथे दिवसके चौथे पहरमें जहाँ बडका वृक्ष था वहाँ आया । और उस वट वृक्षके नीचे अपना कावड रखा । अनन्तर बैठकी वेदीको बनाया और उसको गोबर मिट्टीसे लीपा और साफ किया बाद में मौन होकर बैठ गया, उसके बाद मध्य रात्रिके समय उस सोमिल ब्राह्मणके समीप एक देव प्रगट हुआ । और उसने वैसे ही कहा यावत् अन्तर्हित हो गया । પછી તે સામિલ બ્રાહ્મણ ત્રોજે દિવસે ચાથા પહેારમાં જ્યાં અશેક વૃક્ષ હતું ત્યાં આવી કાવડ મૂકીને બેસવા માટે વેદી મનાવે છે. પહેલાંની પ્રમાણે ખધાં કર્મ કરી કાષ્ઠમુદ્રાથી માઢું ખાંધી પછી મૌન થઈ બેસી જાય છે. ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિમાં તે સામિલ બ્રાહ્મણની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયા અને વળી તેણે તેજ પ્રકારે કહ્યું અને પછી ચાલ્યા ગયા. ત્યાર પછી સૂર્યોદય થતાં વલ્કલવસ્ત્ર ધારી તે સામિલ બ્રાહ્મણ પેાતાની કાવડ ઉપાડે છે અને કાષ્ઠમુદ્રાથી પોતાનું માઢું ખાંધે છે. અને પછી ઉત્તર દિશામાં ઉત્તરાભિમુખ થઈને ચાલવા માંડે છે. ત્યાર પછી તે સેમિલ બ્રાહ્મણ ચાથે દિવસે ચાથા પહેારમાં જ્યાં વડનું વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યા અને તે વડના ઝાડની નીચે પેાતાની કાવડ રાખી. પછી બેસવાની વેદી મનાવી તે છાણુ માટીથી લીંપી અને સાફ કરી. પછી મૌન થઈને બેઠા. ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિને વખતે તે સામિલ બ્રાહ્મણની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયા અને તેણે એમજ અગાઉ પ્રમાણે કહ્યું અને અંતર્ધાન થઈ ગયા. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मणा ३११ उता उसके बाद वह सोमिल पाँचवे दिनके चौथे पहरमें जहाँ उदुम्बर (गुलर) का वृक्ष था वहाँ आता है और उदुम्बर वृक्षके नीचे अपना कावड रखता है और वेदी बनाता है, यावत् काष्ठमुद्रासे मुख बाधता है और मौन होकर रहता है। उसके बाद मध्य रात्रिमें उस सोमिल ब्राह्मणके पास एक देव प्रकट हुआ और यावत् इस प्रकार कहा-हे सोमिल प्रबजित ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है, इस प्रकार पहली बार उस देवताके मुखसे वाणी सुनकर वह सोमिल मौन रहता है। अनन्तर उस सोमिलने उस देवतासे दुवारा तिवारा कहे जानेपर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रज्या क्यों है ? सोमिलके इस प्रकार पूछनेपर उस देवताने इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया हे देवानुप्रिय ! तुम मुमुक्षु जनोंसे सेव्य पार्श्व अर्हतके समीप पाँच अनुव्रत सात शिक्षावत, इस प्रकार बारह व्रतरूप श्रावक धर्मको स्वीकार किया। उसके ત્યાર પછી તે સોમિલ પાંચમા દિવસે ચોથા પહોરે જ્યાં ઉદુમ્બર (ઉંબરે)નું વૃક્ષ હતું ત્યાં આવે છે. અને તે ઉદુમ્બર વૃક્ષની નીચે પિતાની કાવડ રાખી વેદી બનાવે છે. પહેલાંની માફક બધાં કૃત્ય કરી પછી કામુદ્રાથી મોટું ખાંધી મૌન રહે છે. ત્યાર પછી મધ્યરાત્રિમાં તે સેમિલ બ્રાહ્મણની પાસે એક દેવ પ્રગટ થયો અને આ પ્રકારે કહ્યું – મિલ પ્રવ્રજિત ! તારી આ પ્રવ્રજ્યા દુષ્પવ્રજ્યા છે. આ પ્રકારની પહેલીવારની વાણું તે દેવતાને મુખેથી સાંભળી તે સોમિલ મૌન રહે છે. પછી તે દેવ બીજીવાર, ત્રીજીવાર પણ સમિલને તે જ પ્રકારે કહે છે. સમિલે તે દેવતાની વાણી સાંભળી આ પ્રકારે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય ! મારી પ્રવજ્યા દુષ્પત્રિજ્યા કેમ છે? સમિલના આ પ્રકારે પુછવાથી તે દેવતા આ પ્રકારે કહેવા લાગ્યું – હે દેવાનુપ્રિય ! તમે મુમુક્ષુજનેથી સેવાતા પાર્શ્વ અહંતની પાસે પાંચ આ વ્રત, સાત શિક્ષા વ્રત એમ કુલ મળીબાર ગત રૂપ શ્રાવક ધર્મને સ્વીકાર કર્યો શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ३ पुष्पितासूत्र बाद असाधुओके दर्शनसे तुमने इस धर्मका परित्याग कर दिया। अनन्तर एक समय मध्य रात्रिमें कुटुम्ब जागरणा करते हुए तुम्हारे मनमें विचार पैदा हुआ कि-' गङ्गाके किनारेमें तपस्या करनेवाले विविध प्रकारके वानप्रस्थ तापस हैं, उन तापसोमें जो दिशाप्रोक्षक तापस हैं उनके पास, लोहेकी कडाहिया कलछु और ताम्बेका तापसपात्र बनवाकर उसे लेकर जाऊँ और दिशाप्रोक्षक तापस बन '। इत्यादि सोमिल ब्राह्मणके द्वारा पूर्व चिंतित विचारोंको देवताने उससे कहा। और फिर उसने कहा कि-' बादमें तुमने दिशाप्रोक्षक तापसके समीप दीक्षा ली और अभिग्रह लिया यावत् जहाँ अशोक वृक्ष था वहाँ आये और वहाँ कावड रख अपना सभी कृत्य किया बाद मेरे द्वारा प्रतिबोधित होनेपर भी तुमने उसपर ध्यान नहीं दिया और मौन होकर रह गये । इस प्रकार मैंने चार दिन तक तुम्हें समझाया पर तुमने ध्यान नहीं दिया। बाद आज पाँचवें दिवस चौथे पहरमें यहा उदुम्बर वृक्षके नीचे तुमने अपना कावड रखा, बैठनेकी जगहको साफ किया, ત્યાર પછી અસાધુઓના દર્શનથી તમે આ ધર્મને પરિત્યાગ કર્યો. પછી એક સમય મધ્યરાત્રિમાં કુટુંબ જાગરણ કરતાં કરતાં તમારા મનમાં એ વિચાર ઉત્પન્ન થયો કે, “ગંગાને કાંઠે તપસ્યા કરવાવાળા જુદા જુદા પ્રકારના વાનપ્રસ્થ તાપસ છે. તે તાપસમાં જે દિશાક્ષક તાપસ છે તેની પાસે, લોઢાની કડાઈઓ કડછી તથા તાંબાનાં તાપસપાત્ર બનાવરાવી તે લઈને જાઉં અને દિશા પ્રેક્ષક તાપસ બનું.” વગેરે રોમિલ બ્રાહ્મણના મનમાં પૂર્વ ચિંતન કરેલા જે વિચારે હતા તે દેવતાએ તેને કહ્યા. ફરી તેણે કહ્યું કે ત્યાર બાદ તમે દિશા પ્રેક્ષક તાપસની પાસે દીક્ષા લીધી અને અભિગ્રહ લીધે ત્યારથી જ્યાં અશોક વૃક્ષ હતું ત્યાં આવ્યા અને ત્યાં કાવડ રાખી તમે તમારા સર્વે કર્મો કર્યા. પછી મારા દ્વારા પ્રતિબંધિત કરાયા છતાં પણ તમે તે ઉપર ધ્યાન ન આપ્યું અને મૌન રહ્યા. આ પ્રકારે મેં ચાર દિવસ સુધી તમને સમજાવ્યા પણ તમે ધ્યાન ન આપ્યું. બાદ આજે પાંચ દિવસ ચેાથા પહોરમાં અહી ઉદુઅર વૃક્ષની નીચે તમે તમારી કાવડ સખી બેસવાની જગ્યાને સાફ કરી પછી તે લીપી અને સમ્માર્જન કર્યું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण अनन्तर उपलेपन और सम्मान किया और काष्ठमुद्रासे अपना मुँह बाँधकर तुम मौन होकर बैठे। हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है ! उसके बाद सोमिलने कहा-हे देवानुप्रिय ! अब आप ही बताओ कि मैं कैसे सुप्रबजित बनें । उसके बाद उस देवने सोमिल ब्राह्मणसे इस प्रकार कहाहे देवानुप्रिय ! यदि तुम अभी पहले ग्रहण किया हुआ पाच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतको स्वयमेव स्वीकार कर विचरण करो तो यह तुम्हारी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या हो जाय । उसके बाद वह देव सोमिल ब्राह्मणको वन्दन और नमस्कार कर जिस दिशासे प्रादुर्भूत हुआ उसी दिशामें अन्तर्हित हो गया। उस देवके अन्तर्हित होजानेपर उसके कथनानुसार वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि प्रथम स्वीकृत पाँच अनुव्रत और सात शिक्षाबत अपने हीसे स्वीकार कर विचरण करता है। उसके बाद वह सोमिल बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम यावत् मासार्ध मास અને કાણમુદ્રાથી પિતાનું મોટું બાંધી મન થઈ બેઠા છે. હે દેવાનુપ્રિય! આ પ્રકારની તમારી આ પ્રવ્રજ્યા દુપ્રજ્યા છે. ત્યાર બાદ સેમિલે કહ્યું–દેવાનુપ્રિય ! તે હવે આપજ બતાવે કે હું કેવી રીતે સુપ્રજિત બનું? ત્યાર પછી તે દેવતાએ સોમિલ બ્રાહ્મણને આ પ્રકારે કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિય જે તમે હમણાં અગાઉ ગ્રહણ કરેલાં પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રતને પિતાની મેળે સ્વીકાર કરીને વિચરણ કરે તે આ તમારી પ્રત્રજ્યા સુત્રજયા થઈ જાય. ત્યાર પછી તે દેવ સેસિલ બ્રાહ્મણને વંદન અને નમસ્કાર કરે છે. પછી જે દિશામાંથી તે પ્રાદુર્ભત થયેલ હતું તેજ દિશામાં અંતહિત થઈ ગયે. તે દેવ અંતહિત થઈ ગયા પછી તેના કથન અનુસાર તે સોમિલ બ્રાહ્મણ ઋષિએ અગાઉ સ્વીકારેલાં પાંચ અણુવ્રત અને સાત શિફાવત પિતાની જાતે સ્વીકારી વિચરણ કરે છે પછી તે સોમિલ ઘણાં વતુર્થ ષષ્ઠ અષ્ટમથી માંડી યાવત્ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ___३ पुष्पितासूत्र विराधितसम्यक्त्वः सोमिलस्तस्य स्थानस्याऽनालोचिताऽप्रतिक्रान्ततया शुक्रावतंसके विमाने देवशयनीये यावत्याऽवगाहनया-यावत्या यत्परिमिततयाऽवगाहनया ज्योतिर्देवस्योपपातो भवति तावत्या जघन्यतोऽजुलासङ्ख्येयभागया उत्कृष्टतः सप्तहस्तपरिमाणया अवगाहनया शुक्रमहाग्रहतया समुत्पन्नः। शेष स्पष्टम् ॥ ७ ॥ ॥ इति पुष्पिताया तृतीयमअध्ययनं समाप्तम् ॥ ३ ॥ क्षपणरूप विचित्र तप उपधानोंसे अपनी आत्माको भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक ( श्रावक ) पर्यायका पालन करता है। अन्तमें अर्धमासिकी संलेखना द्वारा आत्माको भावित कर तथा तीस भक्त ( आहार ) को अनशनसे छेदित कर उस पूर्वकृत पाप स्थानकी आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करता हुआ सम्यक्त्वकी विराधनासे काल मासमें कालकर शुक्रावतंसक विमानमें उपपात सभाके अन्दर देवशयनीय शय्यामें जिस प्रमाणकी अवगाहनासे ज्योतिष देवोकी उत्पत्ति होती है, उस प्रमाणवाली अवगाहना अर्थात् जघन्य-अर्जुलके असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट-सात हाथ परिमाणवाली अवगाहनासे शुक्र महाग्रहपने उत्पन्न हुआ। માસાર્ધ તથા માસક્ષણપરૂપ વિચિત્રતાપ ઉપધાનેથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા ઘણા વર્ષો સુધી શ્રમણોપાસક (શ્રાવક) પર્યાયનું પાલન કરે છે. અંતમાં અર્ધ માસિકી સંલેખના દ્વારા આત્માને ભાવિત કરી તથા ત્રીસ ભક્ત (આહાર) નું અનશનથી છેદિત કરી તે પૂર્વકૃત પાપસ્થાનની આલોચના અને પ્રતિક્રમણ નહીં કરતા સમ્યકત્વને વિરાધિત કરી કાલમાસમાં કોલ કરીને શુક્રાવતંસક વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીય શય્યામાં જે પ્રમાણની અવગાહનાથી જોતિષ દેવોની ઉત્પત્તિ થાય છે તે પ્રમાણવાલી અવગાહના અર્થાત-જઘન્ય–અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગ અને ઉત્કૃષ્ટ સાત હાથ પરિમાણવાળી અવગાહનાથી શુકમહાગ્રહપણામાં ઉત્પન્ન થયા. પછી તે શુકમહાગ્રહ ઉત્પન્ન થઈ ભાષાપતિ મન: શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ३ सोमिल ब्राह्मण ३१५ उसके बाद वह शुक्र महाग्रह उत्पन्न होकर भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाँचों प्रकारकी पर्याप्तिसे पर्याप्तिभावको प्राप्त हुआ। हे गौतम ! शुक्र महाग्रहने इस कारण ऐसी दिव्य देव ऋद्धिको प्राप्त की है। शुक्र महाग्रहकी स्थिति एक पल्योपमकी है। गौतम स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! वह शुक्र महाग्रह आयु भव स्थिति क्षय होनेके बाद उस देवलोकसे च्यवकर कहा जायगा ? हे गौतम ! यह शुक्र महाग्रह महाविदेहक्षेत्रमें जन्म लेकर यावत् सिद्ध होगा। सुधर्मा स्वामी कहते हैं इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर प्रभुने पुष्पिताके तृतीय अध्ययनमें इस भावका निरूपण किया है ॥ ७ ॥ ।पुष्पिताका तृतीय अध्ययन समाप्त हुआ। પર્યાપ્તિ આદિ પાંચ પ્રકારની પર્યાપ્તિથી પર્યાતિ ભાવને પ્રાપ્ત થયા. હે ગૌતમ ! મહાગ્રહ આ કારણથી પિતાની આવી દેવ ત્રાદ્ધિઓ પ્રાપ્ત કરી છે. શુક્રમહાગ્રહની સ્થિતિ એક પાપમની છે. ગૌતમ સ્વામિ પૂછે છે – “હે ભદન્ત ! તે શુક્રમહાગ્રહ આયુભવ સ્થિતિક્ષય થતાં તે દેવલોકથી ચવીને કયાં જશે? હે ગૌતમ! આ શુક્રમહાગ્રહ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે. સુધર્મા સ્વામી કહે છે આ પ્રકારે છે જખ્ખ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ પુષ્પિતાના ત્રીજા અધ્યયનમાં આ ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે. (૭). પુપિતાનું તૃતીય અધ્યયન સમાપ્ત. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ३ पुष्पितासूत्र ॥ अथ बहुपुत्रिकाख्यं चतुर्थमध्ययनम् ॥ मूलम्जइणं भंते ! उक्खेवो । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसडे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाणे सभाए मुहम्माए बहुपुत्तियंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सोहिं चउहिं महत्तरियाहि जहा सूरियाभे जाव मुंजमाणी विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी २ पासइ, पासिचा समणं भगवं महावीरं जहा सूरियाभो जाव णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहा सनिसन्ना । आभियोगा जहा सूरियाभस्य, मूसरा घंटा, आमिओगियं देवं सदावेइ जाणविमाणं जोयणसहस्सवित्थिणं, जाणविमाणवण्णओ, जाव उत्तरिल्लेणं निजाणमग्गेणं जोयणसाहस्सिएहिं विग्गहे हिं छायायदि खलु भदन्त ! उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलकं चैत्यं, श्रणिको राजा, स्वामी समवसृतः । परिषत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये बहुपुत्रिका देवी सौधर्मे कल्पे बहुपुत्रिके विमाने सभायां सुधर्मायां बहुपुत्रिके सिंहा सने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः चतसृभिः महत्तरिकाभिः यथा सूर्याभो यावद् भुञ्जाना विहरति, इमं च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयन्ती २ पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं यथासूर्याभो यावद् नमस्थिखा सिंहासनवरे पौरस्त्याऽभिमुखी संनिषण्णा । आभियोगा यथा सूर्याभस्य सुखरा घण्टा आभियोगिकं देवं शब्दयति यानविमानं योजनसहस्रविरतीर्ण, यानविमानवर्णकः, यावत् उत्तरीयेण निर्याण શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी आगया जहा सूरियाभे । धम्मकहा समत्ता । तएणं सा बहुपुत्तिया देवी दाहिणं भुयं पसारेइ देवकुमाराणां अट्ठसयं, देवकुमारियाण य वामाओ भुयाओ अट्ठसयं, तयाणंतरं च णं बहवे दारगा दारियाओ य डिभए य डिभियाओ य विउव्वइ, नट्टविहिं जहा सूरियाभो उवदंसित्ता पडिगया । भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, कूडागारसाला० । बहुपुत्तियाए णं भंते ! देवीए सा दिव्या देविड्डी पुच्छा जाव अभिसमपणागया ॥१॥ मार्गेण योजनसाहनिकैः विग्रहैरागता यथा सूर्याभः । धर्मकथा समाप्ता । ततः खलु सा बहुपुत्रिकादेवी दक्षिणं भुजं प्रसारयति देवकुमाराणामष्टशतम् , देवकुमारिकाणां च वामतो भुजतोऽष्टशतम् , तदनन्तरं च खलु बहून् दारकाँश्च दारिकाश्च डिम्भकाँश्च डिम्भिकाश्च विकुरुते, नाव्यविधिं यथा सूर्याभः, उपदर्य प्रतिगता । भदन्त ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीर वन्दते नमस्यति, कूटागारशाला० । बहुपुत्रिकया खलु भदन्त ! देव्या सा दिव्या देवद्धिः, पृच्छा यावत् अभिसमन्वागता ॥ १ ॥ टीका'जइणं भंते' इत्यादि-महत्तरिकाभिः प्रधानतमाभिः तुल्यविभवादि चौथा अध्ययन. 'जइणं भंते' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैंहे भदन्त ! यदि पुष्पिता (पुल्फिया ) के तृतीय अध्ययनमें भगवानने ચેથું અધ્યયન, जइणं भंते त्यादि જખ્ખ સ્વામી પૂછે છેહે ભદન્ત ! જે પુપિતાના તૃતીય અધ્યયનમાં ભગવાને પૂર્વોક્ત ભાવનું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पुष्पितासूत्र कुमारिकाणामनतिक्रमणीयवचनाभिः दिशाकुमारिकाभिः, उत्तरीयेण-उत्तरदिग्भवेन, विग्रहैः = शरीरः, देवकुमाराणाम् = देवानां मुराणां कुमाराः = बहुतरपूर्वोक्त भावका वर्णन किया है तो फिर उसके बाद चतुर्थ अध्ययनके भावको उन्होंने किस प्रकार निरूपण किया है । ३१८ सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था। उस नगरमें गुणशिलक चैत्य था । उस नगरका राजा श्रेणिक था । उस नगर में महावीर स्वामी पधारे ! परिषद् उनके दर्शनके लिये निकली । उस काल उस समय में बहुपुत्रिका देवी सौधर्म कल्पके बहुपुत्रिक विमानमें सुधर्मा सभाके अन्दर बहुपुत्रिक सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवियों तथा चार महत्तरिकाओं-तुल्य विभववाली कुमारि - योसे, जिनका वचन उल्लङ्घित नहीं किया जा सकता ऐसी प्रधानतम चार दिशा , कुमारिकाओंसे परिवृत सूर्याभदेव के समान गीतवादित्रादि नानाविध दिव्य भोगों को भोगती हुई विचर रही है, और वह इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीपको विशाल अवधिज्ञानसे વર્ણન ક્યું " છે તેા પછી તેના પછી ચાથા અધ્યયનના ભાવને તેમણે કયા પ્રકારે નિરૂપણ કર્યો છે ? સુધર્મા સ્વામી કહે છે: હે જમ્મૂ ! તે કાલે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તે નગરમાં ગુણશિલક ચૈત્ય હતેા. તે નગરમાં મહાવીર સ્વામી પધાર્યા. પરિષદ તેમનાં દર્શન માટે નીકળી. તે કાલ તે સમયે ખડુપુત્રિકાદેવી સૌધ કલ્પના અહુપુત્રિક વિમાનમાં સુધર્માંસલાની અંદર બહુ પુત્રિક સિંહાસન પર ચાર હજાર સામાનિક દેવીએ તથા ચાર મહત્તરિકાએ=સમાન વૈભવવાળી કુમારિઓથી, જેનું વચન ઉલ્લંઘન ન કરી શકાય એવી પ્રધાનતમ, ચારે દિશા કુમારી સહિત સૂર્યોભદેવ સમાન ગીત વાત્રિ આદિ નાનાવિધ દિવ્ય ભાગાને ભાગવતી વિચરણ કરતી હતી અને તે આ સપૂર્ણ જમ્મૂઢીપને વિશાલ અવધિ જ્ઞાન વડે ઉપયેગપૂર્વક શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३१९ उपयोग पूर्वक देखती हुई राजगृहमें समवसृत भगवान महावीर स्वामीको देखती है । और उनको देखकर सूर्याभदेवके समान यावत् नमस्कार करके अपने श्रेष्ठ सिंहासनपर पूर्व दिशाकी और मुख करके बैठी। सूर्याभदेवके समान आभियोगिक ( भृत्य ) देवको बुलवाकर उसने सुस्वरा घंटा बजानेकी आज्ञा दी । अनन्तर सुस्वरा घण्टा बजवाकर भगवान महावोरके दर्शन करनेको जानेके लिए सभी देवताओंको सूचित किया । उसका यानविमान हजार योजन विस्तीर्ण था, साढे बासठ योजन ऊँचा था । उसमें लगा हुआ महेन्द्रध्वज पच्चीस योजन ऊँचा था । अन्तमें वह बहुपुत्रिका देवी यावत् उत्तर दिशा के मार्ग से सूर्याभ देवके समान हजार योजनका वैकयिक शरीर बनाकर उतरी। बाद में भगवान के समीप आई, और धर्मकथा सुनी । उसके बाद वह बहुपत्रिका देवी अपनी दाहिनी भुजाको फैलाती है । और उससे एक सौ आठ देवकुमारोंको निकालती है । फिर बायीं भुजाको फैलाती है, उससे एकसौ आठ देवकुमारियोंको निकालती है । उसके बाद बहुतसे दारक दारिका - बडी જોતી જોતીરાજગૃહમાં પધારેલ ભગવાન મહાવીર સ્વામીને જુએ છે, તેમને જોઈને સૂર્યાભદેવની પેઠે ચાવત્ નમસ્કાર કરીને પેાતાના શ્રેષ્ઠ સિંહાસન ઉપર પૂર્વ દિશાની તરફ્ માઢું રાખીને બેઠી. સૂર્યોભદેવની પેઠે જ આલિયાગિક ( ભૃત્ય ) દેવને ખેલાવીને તેણે સુસ્વરા ઘંટા વગાડવાની આજ્ઞા આપી. પછી સુસ્વરા ઘંટા વગડાવીને ભગવાન મહાવીરનાં દર્શન કરવાને જવા માટે સર્વે દેવતાઓને સૂચના આપી. તેનું યાન વિમાન હજાર ચેાજનના વિસ્તારરૂ વાળું હતું. સાડા ખાસઠ ચેાજન ઊંચું હતું તેમાં ચડાવેલા મહેન્દ્ર ધ્વજ પચીસ યેાજન ઊંચા હતા. છેવટે તે બહુપુત્રિકાદેવી યાવત્ ઉત્તર દિશાનાં માર્ગથી સૂર્યાભદેવની પેઠે હજાર યેાજનનું વૈયિક શરીર મનાવીને ઉતરી પછી ભગવાનની પાસે આવી અને ધર્મકથા સાંભળી, ત્યાર પછી તે બહુપુત્રિકાદેવી પાતાની જમણી ભુજા ( હાથ ) ને ફેલાવે છે અને તેમાંથી એકસેસ આઠ દેવકુમારને કાઢે છે પછી ડાખી ભુજાને ફેલાવે છે તેમાંથી એકસે આઠ દેવકુમારને કાઢે છે પછી ઘણા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ____३ पुष्पितासूत्र कालिकाः पुत्राः तेषाम् । दारकान्=बहुकालिकान् बालकान् , दारिकाः= बालिकाः, डिम्भान्=अल्पकालिकान् बालकान् , शेषं निगसिद्धम् ॥ ___एतया 'दिव्या देविड्डी पुच्छे' त्ति, 'किण्णा लद्धा' केन हेतुनोपार्जिता ? 'किण्णा पत्ता' केन हेतुना उपार्जिता सती स्वायत्तीकृता ? उमरबाले बच्चेबच्चियोंको तथा डिम्भक, डिम्भिका अल्प उमरबाले बच्चेबच्चियोंको अपनी वैक्रियिक शक्तिसे बनाती है। और सूर्याभदेवके समान नाट्यविधि दिखाकर चली जाती है। उसके जानेके बाद भगवान् गौतमने ' हे भदन्त ' इस प्रकार सम्बोधन कर भगवान् महावीरको वन्दन और नमस्कार किया और पूछा कि-हे भगवन् ! इस बहुपुत्रिका देवीकी दिव्य ऋद्धि दिव्य द्युति और दिव्य देवानुभाव कहाँ गया और किसमें समा गया ? भगवानने कहा हे गौतम ! वह देवऋद्धि उसीके शरीरसे निकली और उसीमें विलीन हो गयी। દારક અને દારિકાઓ (મેટી ઉમરવાળાં છોકરા છોકરીઓ) તથા ડિમ્ભક ડિલ્શિકા (નાના નાના બાળકે અને બાળિકાઓ)ને પિતાની ક્રિયિક શક્તિથી બનાવે છે અને સૂર્યાલદેવની પેઠે નાટયવિધિ બતાવીને ચાલી જાય છે તેના ગયા પછી ભગવાન ગૌતમે “ભદન” એવું સંબોધન કરી ભગવાન મહાવીરને વંદન તથા નમસ્કાર કર્યો અને પૂછ્યું કે હે ભગવન! આ બહુપુત્રિકાદેવીની દિવ્ય ઋદ્ધિ અને દિવ્ય શુતિ તથા દિવ્ય દેવાનુભાવ કયાં ગયા અને શેમાં સમાઈ ગયા? लगवाने ह्यु હે ગૌતમ! તે દેવકૃદ્ધિ તેના શરીરમાંથી નીકળી અને તેમાંજ વિલીન थ: गई. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३२१ 'किण्णा अभिसमन्त्रागया' स्वायत्तीकृताऽपि केन हेतुनाऽऽभिमुख्येन सांगत्येन च उपार्जनस्य पश्चाद् भोग्यतामुपगतेति ? ॥१॥ गौतम स्वामीने पूछाहे भगवन् ! वह विशाल देवऋद्धि उसमें कैसे विलीन हो गयी ? भगवानने कहा हे गौतम ! जिस प्रकार किसी उत्सव आदिके कारण फैला हुआ जन समूह वर्षा आदिके कारण पवत शिखरके समान ऊँचा और विशाल घरमें समा जाता है, उसी प्रकार ये देवकुमार और देवकुमारिया आदि देवऋद्धि बहुपुत्रिकाके शरीरमें अन्तर्हित हो गयीं। गौतमने फिर पूछा हे भदन्त ! इस बहुपुत्रिकादेवीको इस प्रकारकी दिव्य देवऋद्धि किस प्रकार मिली ? और किस प्रकार उसको प्राप्त हुई ? और किस पुण्यसे उपभोगमें आई है ? और उन ऋद्धियोंके भोगनेमें कैसे समर्थ हुई ? ॥ १ ॥ ગૌતમે પૂછયું – હે ભગવન્! તે વિશાલ દેવઋદ્ધિ તેમાં કેવી રીતે વિલીન થઈ ગઈ ? ત્યારે ભગવાન કહે છે – હે ગૌતમ ! જેવી રીતે ઉત્સવ પ્રસંગે એકઠા થયેલ જનસમૂહ વરસાદ વગેરેના કારણથી પર્વત શિખરની પેઠે ઊંચા અને વિશાલ ઘરમાં સમાઈ જાય છે તેજ પ્રકારે આ દેવકુમાર અને દેવકુમારીઓ, વગેરે દેવઋદ્ધિ બહુપુત્રિકાના શરીરમાં અંતહિત થઈ ગઈ. ગૌતમે વળી પૂછયું–હે ભદન્ત ! આ બહપુત્રિકા દેવીને આ પ્રકારની દિવ્ય દેવઋદ્ધિ કેવી રીતે મલી ? અને કેવી રીતે તેને પ્રાપ્ત થઈ અને કેવા પુણ્યથી તેના ઉપભેગમાં આવી છે? વળી તે ઋદ્ધિઓને ભેગવવામાં કેવી રીતે समर्थ थ? (१) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ३ पुष्पितासूत्र एवं पृष्टे सति भगवानाह-' एवं खलु' इत्यादि । मूलम् एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ वाणारसी नामं नयरी, अंवसालवणे चेइए । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए भद्दे नामं सत्थवाहे होत्या, अड्डे अपरिभूए तस्स णं भद्दस्स य सुभद्दा नाम भारिया सुकुमाल० वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाता यावि होत्था । तए णं तीसे सुभदाए सत्यवाहीए अन्नया कया पुव्वरत्तावरत्तकाले कुटुंबजागरियं जागरमाणीए इमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पजित्था एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई मुंजमाणी विहरामि, नो चेवणं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मगाओ जाव छाया __ एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाराणसो नाम नगरी, आम्रशालवनं चैत्यम् । तत्र खलु वाराणम्यां नगर्या भद्रो नाम सार्थवाहोऽभवत् , आन्योऽपरिभूतः । तस्य खलु भद्रस्य च सुभद्रा नाम भार्या सुकुमारपाणिपादा बन्ध्या अविजनयित्रो जानुकूर्परमाता चापि अभवत् । ततः खलु तस्याः सुभद्रायाः सार्थवाहिकायाः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाले कुटुम्बनागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्रूपो यावत् संकल्पः समुदपद्यत-एवं खलु अहं भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरामि, नो चैव खलु अहं दारकं वा दारिकां वा प्रजनयामि, तद् શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३२३ सुलद्धे णं तासिं अम्मगाणं मणुयजम्मजीवियफले, जासिं मने नियकुच्छि संभूयगाइं थणदुद्धलुद्धगाइं महुरसमुल्लावगाणि मंजुल (मम्मण) पजंपियाणि थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणगाणि पण्हयंति, पुणो य कोमलकमलो वमेहिं हत्थेहिं गिव्हिऊणं उच्छंगनिवेसियाणि दंति, समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मम्मण (मंजुल) प्पणिए अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा एत्तो एगमवि न पत्ता ओहय० जाच झियाइ । तेणं कालेणं २ सुचयाओ णं अजाओ इरियासमियाओ भासा. समियाओ एसणासमियाओ आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमियाओ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिहावणासमियाओ मणगुत्तीओ वयगुत्तीओ कायगुत्तीओ गुतिदियाओ गुत्तवंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुचि चरमाणीओ गामाणुगामं दूइजमाणीओ जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव धन्याः खलु ताः अम्बिकाः (मातरो) यावत् मुलब्धं खलु तासाम् अम्बिकानां (मातृणां) मनुजजन्मजीवितफलम् , यासां मन्ये निजकुक्षिसंभूतकाः स्तनदुग्धलुब्धकाः मधुरसमुल्लापकाः मञ्जुल (मम्मण) प्रजल्पिताः स्तनमूलकक्षदेशभागम् अभिसरन्तः प्रस्नुवन्ति । पुनश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीखा उत्सङ्गनिवेसिताः (सन्तः) ददति समुल्लापकान् सुमधुरानू पुनः पुनर्मम्मण (मञ्जुल) प्रभणितान् , अहं खलु अधन्या अपुण्या अकृतपुण्या (अस्मि यदहं) एततः (एतेषां मध्यात् ) एकमपि न प्राप्ता । (एवं) अपहतमनः-संकल्पा यावत् ध्यायति । तस्मिन् काले २ सुव्रताः खलु आर्याः ईर्यासमिताः, भाषासमिताः, एषणासमिताः, आदानभाण्डामत्रनिक्षेपणासमिताः, उच्चारमस्रवणश्लेष्ममल सिंघाणपरिष्ठापनासमिताः, मनोगुप्तिकाः, वचोगुप्तिकाः कायगुप्तिकाः, गुप्तेन्द्रियाः, गुप्तब्रह्मचारिण्यः, बहुश्रुताः, बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्वी चरन्त्यः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ३ पुष्पितासूत्र उवागया, उवागच्छिता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिहिताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणीओ विहरंति । तएणं तासिं सुव्बयाणं अजाणं एगे संघाडए वाणारसीनयरीए उच्चनीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे भहस्स सत्थवाहस्स गिहं अणुपविढे । तएणं सुभदा सत्थवाही ताओ अजाओ एजमाणीओ पासइ, पासित्ता हट्ट जाव खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुद्वित्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अज्जाओ ! भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई झुंजमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं दारियं वा पयामि, तं धनाओ णं ताओ अम्मगाओ जाव एत्तो एगमवि ग्रामानुग्रामं द्रवन्त्यः यत्रैव वाराणसी नगरी तत्रैवोपागताः, उपागत्य यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्त्यो विहरन्ति ।। ततः खलु तासां सुवतानामार्याणाम् एकः सङ्घाटको वाराणसीनगर्या उच्चनीचमध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यायै अटन् भद्रस्य सार्थवाहस्य गृहमनुपविष्टः । ततः खलु सुभद्रा सार्थवाहिका ता आर्याः एजमानाः पश्यति, दृष्ट्वा हृष्ट यावत् क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगत्य वन्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्यिखा विपुलेन अशनपानखाद्यस्वायेन प्रतिलम्भ्य एवमवादीत्-एवं खलु अहम् आर्याः ! भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरामि नो चेव खलु अहं दारकं दारिकां वा मजनयामि, तद् धन्याः खलु ताः अम्बिकाः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी રૂર न पत्ता, तं तुम्भे अजाओ ! बहुणायाओ बहुयढियाओ बहूणि गामागरनगर० जाव सण्णिवेसाई आहिंडह, बहूणं राईसरतलवर जाव सत्यवाहप्पभिईणं गिहाई अणुपविसह, अत्थि से केइ कहिं चि विजापओए वा मंतप्पओए वा वमणं वा विरेयणं वा वत्थिकम्म वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्धे, जेणं अहं दारगं वा दारिय वा पयाएज्जा ॥२॥ (मातरः) यावत्-एततः एकमपि न प्राप्ता, तद् यूयम् आर्याः ! वहुज्ञाव्यः बहुपठिताः वहून् ग्रामाऽऽकर नगर० यावत् सन्निवेशान् आहिण्डध्वे बहूनां राजेश्वर तलबर० यावत् सार्थवाहप्रभृतीनां गृहान् अनुमविशथ, अस्ति स कश्चित् क्वचित् विद्याप्रयोगो वा मन्त्रप्रयोगो वा वमन वा विरेचने वा वस्तिकर्म वा औपधं वा भैषज्यं वा उपलब्धं येनाहं दारकं वा दारिका वा प्रजनयामि ॥२॥ टीका‘एवं खलु गोयमा' इत्यादि-हे गौतम ! एवं खलु तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'वाराणसी' नाम नगरी 'आम्रशालवनं ' चैत्यां चासीत् ऐसे पूछनेपर भगवान् कहते हैं‘एवं खलु' इत्यादि हे गौतम ! उस काल उस समयमें वाराणसी नामकी नगरी थी। उस वाराणसी नगरीमें आम्रशालवन नामक उद्यान था। उस नगरीमें भद्र नामका सार्थ ગૌતમ સ્વામીએ આવા પ્રશ્નો પૂછવાથી ભગવાને કહ્યું – 'एव खलु' त्या હે ગૌતમ ! તે કાલ તે સમયે વારાણસી નામે નગરી હતી. તે વારાણસી નગરીમાં આમ્રશાલવન નામને ઉદ્યાન (બાગ) હતું. તે નગરીમાં ભદ્ર નામના શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ३ पुष्पितासूत्र तत्र वाराणस्यां नगर्यां खलु भद्रो नाम सार्थवाहोऽभूत् आढ्यः अपरिभूतः, एतद्वयाख्या मागेवोक्ता । तस्य खलु भद्रस्य च सुभद्रा नाम भार्या सुकुमारपाणिपादा० बन्ध्या अविजनयित्री-पुत्रादिकानामप्रसवशीला, अत एव 'जानुकूपरमाता'-जानुकूर्पराणामेव माता-जननी या सा तथा, यद्वाजानुकूपराण्येव नत्वपत्यं मिमते-स्पृशन्ति तस्याः स्तनौ इति, अथवा-जानुकूपरमात्रेतिच्छाया-जानुकूर्पराण्येव मात्रा परिकरः क्रोडनिवेशनीयः परकीयपुत्रादिसहायतासमर्थरूपो यस्याः न तु स्वपुत्रलक्षण उत्सङ्गनिवेशनीयः वाह रहता था जो धनधान्यादिसे समृद्ध और दूसरोंसे अपरिभूत था। उस भद्र सार्थवाहकी पत्नीका नाम सुभद्रा था, जो सुकुमार हाथ पैरवाली थी। परन्तु वह बन्ध्या थी। अतएव उसने एक भी सन्तानको जन्म नहीं दिया था। केवल जानु और कूपरकी माता थी। यहाँ “ जानुकूर्परमाता " का यह भी अर्थ होता है= जिसके स्तनोंको केवल घुटने और कोहनिया स्पर्श करती थीं, नकि सन्तान । अथवा यहाँ “ जानुकूर्परमात्रा” यह भी छाया होती है। इसका अर्थ होता है-जिसके जानु और कूर्पर अर्थात् गोदी और हाथ दूसरोंके पुत्रोंके लाड प्यारमें ही समर्थ थे, नकि अपने पुत्रोंके लाड प्यारमें । क्योंकि उसको अपनी कोई सन्तान नहीं थी। સાર્થવાહ રહેતો હતો કે જે ધનધાન્યાદિથી સમૃદ્ધ અને બીજાઓથી અપરિભૂત (અજીત) હતો. તે ભદ્ર સાર્થવાહની સ્ત્રીનું નામ સુભદ્રા હતું જે સુકુમાર હાથપગવાળી હતી. પરંતુ તે વાંઝણી હતી. એટલે તેને એક પણ સંતાનને જન્મ આગે નહોતો કેવળ જાનુ અને કૂર્પરની માતા હતી. અહીં “જાનુકૂપરમાતા” ને એ અર્થ થાય છે કે જેનાં સ્તનને કેવળ ગોઠણ અને કોણુઓ જ સ્પર્શ કરતી હતી નહિ કે સન્તાન. અથવા અહીં “ જાનુકૂર્પરમાત્રા” એવી પણ છાયા થાય છે–એને અર્થ એવો થાય છે કે જેના જાનુ અને કુરિ એટલે ખેળ અને હાથ બીજાના પુત્રને લાડ ગારમાં જ સમર્થ હતા, નહિ કે પિતાના પુત્રને લાડ પ્યારમાં. કારણ કે તેને પિતાનું કોઈ સંતાન નહોતું. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३२७ परिकरः, इति जानुकूपरमात्रा च अपि अभवत् । ततः तदनन्तरं तस्या:= पूर्वोक्तायाः खलु सुभद्रायाः सार्थवाहिकायाः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रिपूर्वपरभागसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्याः=कुटुम्वार्थ जागरणां कुर्वत्याः अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणलक्षणः ‘यावत्' शब्देन आध्यात्मिकः, चिन्तितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत-जातः, आध्यात्मिकादिसंकल्पान्तानां पदानां व्याख्या प्रागेव कृता । सुभद्रायाः संकल्पस्वरूपमाह-' एवं खल्वि' त्यादिना-अहं-सुभद्रा सार्थवाहिका भद्रेण-तनामकेन सार्थवाहेन स्वमतिना सार्द्ध-सह विपुलान्-बहून भोगभोगान्-शब्दा उसके बाद एक समय पिछली रातमें कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सुभद्रा सार्थवाहीके हृदयमें यह इस प्रकारका आध्यात्मिक, चिन्तत प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि-मैं भद्रसार्थवाहके साथ अनेक प्रकारके शब्दादि विपुल भोगोंको भोगती हुई विचरण कर रही हूँ। पर आजतक मेरे एक भो सन्तान नहीं हुई। वे माताएं धन्य हैं, पुण्यशील हैं, उन्होंने पुण्योंका अर्जन किया है, उनका स्त्रीत्व सफल है और उन माताओंने अपने मनुष्य जन्म और जीवनका फल अच्छीतरह पाया है, जिन माताओंकी अपने उदरसे उत्पन्न, स्तनके दूधकी लोभी, कानोंको लुभानेवाली वाणीको उच्चारण करनेवाली, मा ! मा !! इस हृदयस्पर्शी ત્યાર પછી એક વખત પાછલી રાત્રિમાં કુટુંબ જાગરણ કરતાં તે સુભદ્રા સાર્થવાહીના હૃદયમાં આ એક એવી પ્રકારને આધ્યાત્મિક, ચિંતિત, પ્રાર્થિત, અને મને ગત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે હું ભદ્ર સાર્થવાહની સાથે અનેક પ્રકારના શબ્દ આદિ વિપુલ ભેગેને ભગવતી વિચરું છું પણ આજ સુધી મને એક પણ સંતાન થયું નથી. તે માતાને ધન્ય છે તે પુણ્યશીલ છે–તેમણે પુણ્ય મેળવ્યું છે તેમનું સ્ત્રીપણું સફલ છે અને તે માતાઓના, પિતાને મનુષ્ય જન્મ અને જીવનનું ફળ સારી રીતે મેળવ્યું છે કે જે માતાઓએ, પોતાના ઉદરથી ઉત્પન્ન, સ્તનનાં દૂધના ભવાળાં, કાનને લલચાવનારી વાણી બેલ મા-મા એવા હૃદય સ્પર્શી શબ્દ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ ३ पुष्पितासूत्र दीन् विषयान् भुञ्जाना विहरामि, किन्तु नो चैव खलु अहं दारकं पुत्रं दारिकां-कन्यां वा प्रजनयामि-प्रसूये, तत्-तस्मात् हेतोः खलु ताः अम्बिकाः मातरो धन्याः धनं-प्रशंसारूपमर्हन्तीति धन्याः कृतार्थाः, यावच्छब्देन-पुण्याः, कृतपुण्याः, कृतलक्षणाः, इत्येषां सङ्ग्रहो विधेयः, तत्र पुण्याः पवित्राः कृतपुण्याः विहितसुकृताः, कृतलक्षणाः सफलीकृतलक्षणाः, पुनस्तासाम् अम्बिकानां मातृणां मनुजजन्म, जीवितफलम् जीवनफलम् च शब्दको बोलनेवाली, तथा स्तनमूल और कक्षके बीच भागमें अभिसरण करनेवाली सन्तान उन माताओके स्तनोंको दूधसे परिपूर्ण करती है अर्थात् सन्तानके वात्सल्यसे माताके स्तनोमें दूधभर आता है। फिर वे सन्तान कोमल कमल सदृश हाथोंके द्वारा गोदमें बैठायी जानेपर उच्च स्वरसे उच्चारित कानोंको अच्छे लगनेवाले मधुर शब्दोंको सुनाकर माताओंको प्रसन्न करती है। मैं भाग्यहीन हूँ, पुण्यहीन हूँ और मैंने पूर्व जन्ममें कभी पुण्योपार्जन नहीं किया इसी लिये इनमेंसे सन्तान सम्बन्धी एक भी सुखको न पासकी क्योंकी मुझे एक भी संतान नहीं हुई। इस प्रकार सोच-विचार करती हुई वह अत्यन्त दीन तथा मलीन हो नीचा मुख करके आर्तध्यान करने लगी। બેલતાં તથા સ્તનમૂલ અને કાંખના વચલા ભાગમાં અભિસરણ કરવાવાલાં સંતાન તે માતાઓનાં સ્તનને દૂધથી પરિપૂર્ણ કરે છે. અર્થાત સંતાનના સ્નેહથી માતાના સ્તનમાં દૂધ ભરાઈ જાય છે. પછી તે સંતાન કમળ કમળના જેવા હાથ વડે ખેાળામાં બેસાડવામાં આવે ત્યારે ઉંચા સ્વરથી બેલીને કાનેને સારું લાગે એવા મધુર શબ્દને સંભળાવીને માતાઓને પ્રસન્ન કરે છે. હું ભાગ્યહીન છું-પુણ્યહીન છું-અને મેં પૂર્વજન્મમાં કદી પુણ્યનું ઉપાજૈન નથી કર્યું તેથી સંતાન સંબંધી આ સુખમાંનું એક પણ સુખ મેળવી શકી નથી. કેમકે મને એક પણ સંતાન થયું નથી આ પ્રકારે સોચ વિચાર કરતી તે અત્યંત દીન તથા મલીન થઈ નીચે મુખ કરી આર્તધ્યાન કરવા લાગી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनो टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३२९ सुलब्धं सम्यक्माप्तम् सफलमिति यावत मन्येरवीकुव, यासां मातृणां निजकुक्षिसम्भूताः स्वकीयोदरजाताः शिशवः, अत्र सूत्रे नपुंसकत्वं प्राकृतत्वात् । स्तनदुग्धलुब्धका स्तनयोर्दुग्धं तस्मिन् लुब्धाः प्रसक्ताः त एव लुब्धकाः मधुरसमुल्लापकाः मधुराः= श्रवणरमणीयाः समुल्लापाः सम्यगुच्चैःशब्दाः येषां ते तथा, मञ्जुल ( मम्मण ) प्रजल्पिता:-मञ्जुलं-रुचिरं हृदयस्पृहणीयमिति यावत्, प्रजल्पितं (मा-मा प्रभृति ) शब्दोच्चारणं येषां ते तथा, स्तनमूलकक्षदेशभागम् स्तनयोर्मूलम् स्तनमूलम् तस्मात् कक्षावेव देशौ 'बाहुमूले उभे कक्षौ' इत्यमरात् , बाहुमूलपदेशौ तयोर्भागः= उस काल उस समयमें ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति तथा आदान, भाण्ड और अमत्रके निक्षेपणाकी समिति, और उच्चार-प्रस्रण-श्लेष्म-सिङ्घाण -परिष्ठापना समिति, इन समितियोंसे तथा मनोगुप्ति, वचोगुप्ति और कायगुप्ति, इन तीनो गुप्तियोसे युक्त, इन्द्रियोंको दमन करनेवाली, गुप्तब्रह्मचारिणी, बहुश्रुता=बहुत शास्त्रोंको जाननेवाली, और बहुत परिवारसे युक्त, सुव्रता नामकी आर्याएँ, तीर्थङ्कर परम्परासे विचरण करती हुई प्रामानुग्राम विहार करती हुई वाराणसी नगरीमें आयीं। वहाँ आकर कल्पानुसार अवग्रह आज्ञा लेकर उपाश्रयमें उतरीं और संयम तपके द्वारा अपनी आत्माको भावित करती हुई विचरने लगीं । તે કાલ તે સમયે ઈસમિતિ, ભાષાસમિતિ, એષણસમિતિ તથા આદાન ભાંડ અને અમત્રની નિક્ષેપણની સમિતિ તથા ઉચ્ચારણ, પ્રસવણ, શ્લેષ્મ સિંઘાણ પરિઝાપના સમિતિ આ બધી સમિતિઓથી તથા મને ગુપ્તિ, વગુપ્તિ અને કાયગુપ્તિ, આ ત્રણ ગુનિઓથી યુક્ત, ઈન્દ્રિયને દમન કરવાવાળી, ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી, બહુશ્રુતા=બહુશાસ્ત્રોને જાણવાવાળી અને બહુ પરિવારથી યુક્ત, સુવ્રતા નામની આર્યાએ, તીર્થંકર પરંપરાથી વિચરતી એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતી કરતી વારાણસી નગરીમાં આવી. અહીં આવીને કલ્યાનુસાર અવગ્રહ= આજ્ઞા લઈને ઉપાશ્રયમાં ઉતરી અને સંયમ તથા તપદ્વારા પિતાના આત્માને ભાવિત કરતી કરતી વિચારવા લાગી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ३ पुष्पितासूत्र पान्तस्तम् अभिसरन्तः सम्मुखाभिसरणं कुर्वाणाः प्रस्नुवन्ति-मातृस्तन्यं प्रक्षारयन्तीत्यन्त वितण्यर्थः । तथा पुनश्च कोमलकमलोपमाभ्यां-कोमलपङ्कजसदृशाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गनिवेशिताः उत्सङ्गः क्रोडः ( अङ्क) तत्र निवेशिताः स्थापिताः सन्तः समुल्लापकान्–सम्यगुच्चैः शब्दान् सुमधुरान् पुनः पुनः भूयो भूयः मम्मण (मञ्जुल) प्रभणितान्-मामा इति श्रवणरमणीयभाषितान् ददति-मातृप्रभृतिश्रवणाय वितरन्ति तादृशान् शब्दान् कुर्वन्तीति भावः ।। अहं-सुभद्रा खलु-निश्चयेन अधन्या, अपुण्या-अपवित्रा यद्वा एतस्मिन् जन्मनि पुण्यरहिता, अकृतपुण्या-असश्चितसुकृता पूर्वजन्मन्यपि असम्पादितदानादिसुकर्मकलापेति तात्पर्यम् , अस्मि, यद् एततः एतन्मध्यात् उसके बाद उन सुत्रता आर्याओंका एक संघाडा वाराणसी नगरीके उच्च नीच मध्यम कुलोमें गृहसमुदानी भिक्षा ( अनेक घरोंसे लीजानेवाली भिक्षा ) के लिये फिरता हुआ भद्रसार्थवाहके घरमें आया। उसके बाद सुभद्रा सार्थवाही आती हुई उन आर्याओंको देखा और उनको देखकर उसका हृदय हृष्ट और तुष्ट हो गया, और विनयके लिये शीघ्र ही आसनसे उठी। उठकर सात आठ पग सामने गई । सामने जाकर उनको वन्दन नमस्कार किया । बाद, विपुल अशन पान खाद्य स्वायका प्रतिलाभ कराकर इस प्रकार बोली. ત્યાર પછી તે સુત્રતા આર્થીઓને એક સંઘાડો વારાણસી નગરીના ઉચ નીચ અને મધ્યમ કુલમાં ગૃહસમુદાની ભિક્ષા (અનેક ઘરમાંથી લેવાની ભિક્ષા)ને માટે ફરતા ફરતા ભદ્રસાર્થવાહના ઘરમાં આવ્યું. ત્યાર પછી સુભદ્રા સાર્થવાહીએ તે આર્થીઓને આવતી જોઈ અને તેમને જોઈને તે સાર્થવાહીનું હૃદય હુણ અને તુષ્ટ થઈ ગયું અને તેમનું સ્વાગત વિનય કરવા માટે સુરત પિતાને આસનેથી ઊઠી. ઊઠીને સાત આઠ પગલાં સામે ગઈ. અને તેમને વંદન નમસકાર કર્યો. ત્યાર પછી વિપુલ અશન (ખાન) પાન ખાઘ સ્વાદ્યના પ્રતિલાભ કરાવી આ પ્રકારે બોલી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानां पुत्राणां मध्यात एकमपि सन्तानं न प्राप्ता= न लब्धवती, इत्येवं प्रकारेण अपहतमनःसंकल्पा-विनष्टमनोऽभिलषितकामना 'यावत् ' शब्देन अधोमुखीत्यादीनां मागुक्तानां संग्रहो बोध्यः, ध्यायति= आर्तध्यानं करोति । सुव्रताः तन्नामिका आर्यिकाः । 'सङ्घाटकः साध्वी हे देवानुप्रिये ! मैं भद्रसार्थवाहके साथ अनेक प्रकारके विपुल भोगोंको भोगती हुई विचरती हूँ। परन्तु आज तक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई। वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशीला हैं उन्होंने पूर्व जन्ममें पुण्य उपार्जन किया है और उन माताओंने ही अपने मनुष्य जन्म और जीवनका फल अच्छी तरह पाया है. जिन माताओंकी अपने उदरसे उत्पन्न, स्तनके दूधकी लोभी, कानोको लुभानेवाली वाणीको उच्चारण करनेवाली, मा ! माँ ! ! इस हृदयस्पर्शी शब्दको बोलनेवाली, तथा स्तन मूल और कक्षके बीच भागमें अभिसरण करनेवाली सन्तान, उन माताओंके स्तनोंको दूधसे परिपूर्ण करती है, फिर वे कोमल कमल सदृश हाथोंके द्वारा गोदीमें बैठाये जानेपर उच्च स्वरोसे उच्चारित, कानोंको अच्छे लगनेवाले, मधुर शब्दोंको बोलकर माताओंको प्रसन्न करती है। मै भाग्यहीन हूँ, पुण्यहीन हूँ, मैंने कभी पुण्याचरण नहीं किया છે દેવાનુપ્રિયે ! હું ભદ્ર સાર્થવાહની સાથે અનેક પ્રકારના વિપુલ લેગ ગવતી વિચરું છું. પરંતુ આજ પર્યત મને એક પણ સંતાન થયું નથી. તે માતાઓને ધન્ય છે તે પુણ્યશીલા છે–તેમણે પૂર્વજન્મમાં પુણ્ય ઉપાર્જન કર્યું છે અને તે માતાઓએ જ પિતાના મનુષ્યજન્મ અને જીવનનું ફળ સારી રીતે મેળવ્યું છે કે જે માતાઓનાં પિતાનાં ઉદરથી ઉત્પન્ન, સ્તનના દૂધ માટે લેલી, કાનને લલચાવનારી વાણી બેલતાં, માં-માં એવા હૃદયસ્પર્શી શબ્દને બેલવાવાળાં તથા સ્તનમૂલ અને કૂખની વચલા ભાગમાં અભિસરણ કરવાવાળાં સંતાન, તે માતાઓના સ્તનેને દૂધથી પરિપૂર્ણ કરે છે. વળી તે કેમલ કમલ જેવા હાથો વડે ખેળામાં બેસાડતાં ઉંચા સ્વરથી બેલી કાનેને સારું લાગે તેવા મધુર શબ્દ બેલીને માતાઓને પ્રસન્ન કરે છે. હું ભાગ્યહીન છું, પુણ્યહીન છું. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ३ पुष्पितासूत्र समूहः, गृहसमुदानस्य-गृहेषु अनेकेषु गेहेषु समुदान-भिक्षाटनं, गृहसमुदानम् अनेकगृहगृहीतं भैक्षं तस्य तथा, शेषं सुगमम् ॥ २ ॥ मूलम्तएणं ताओ अजाओ सुभदं सत्थवाहिं एव वयासी-अम्हे णं छाया ततः खलु ता आर्यिकाः सुभद्रां सार्थवाहीमेवमवादिषुः-वयां खलु इसी लिये इन सभी सुखों से मैं एक भी सुखको न पा सकी । क्यों कि मुझे एक भी संतान नहीं हुई। हे देवानुप्रियों ! आप लोग बहुत ज्ञानवाली हैं, बहुतसी बातोको जानती हैं ओर बहुतसे ग्राम, नगर यावत् सन्निवेशोंमें विचरती हैं बहुतसे राजा, ईश्वर, तलवर आदिसे लेकर सार्थवाहोंके घरोंमें भिक्षार्थ आपका जाना होता है। क्या कहीं कोई विया-प्रयोग वा मंत्र-प्रयोग, वमन अथवा विरेचन, वस्तिकर्म वा औषध अथवा भैषज्य आपको मिला है ? जिससे मेरे लडका या लडकी हो सके ॥२॥ મેં કદી પુણ્યનું આચરણ કર્યું નથી. તેથી આવા પ્રકારનાં સુખમાંથી હું એક પણ સુખને મેળવી શકી નહિ કેમકે મને એક પણ સંતાન થયું નથી. હે દેવાનુપ્રિયે ! આપ લેક બહુ જ્ઞાનવાળાં છે ઘણએ વાતને જાણ છે. અને ઘણાં ગામ નગર યાવત્ સન્નિવેશમાં વિચરે છે. ઘણા ઘણા રાજા, ઈશ્વર, તલવર આદિથી માંડીને સાર્થવાહોના ઘરમાં ભિક્ષાર્થ આપને જાવાનું પણ થાય છે. તે શું કયાંય કોઈ વિદ્યાગ અથવા મંત્રપ્રયાગ, વમન અથવા વિરેચન, બસ્તિકર્મ કે ઔષધ અથવા ભેષજ્ય તમને મળ્યું છે ? જેથી મને પુત્ર पुत्री 25 श ? (२). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३३३ देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तभयारीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयमढे कण्णेहिं वि णिसामित्चए, किमंग ! पुण उदिसित्तए वा समायरित्तए वा, अम्हे णं देवाणुप्पिये ! गवरं तव विचितं केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेमो । तए णं सुभद्दा सत्थवाही तासिं अजाणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्टा ताओ अजाओ तिखुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सदहामिणं अजाओ ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामिणं रोएमिणं अज्जाओ ! निग्गंथं पावयणं ! एवमेयं, तहमेयं, अवितहमेयं, जाव सावगधम्म पडिवज्जए । अहासुहे देवाणुप्पिए ! मा पडिबंध करेह । तएणं सा सुमद्दा सत्यवाही तासिं अजाणं अंतिए जाव पडिवज्जइ, पडिवजित्ता ताओ अजाओ वंदइ नमसइ पडिविसज्जइ । देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्य ई-समिता यावत् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, नो खलु कल्पते अस्माकम् एतमथै कर्णाभ्यामपि निशामयितुं किम ! पुनरुपदेष्टुं वा समाचरितुं वा, वयं खलु देवानुपिये ! नवरं तव विचित्रं केवलिप्रज्ञप्तं धर्म परिकथयामः । ___ ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्तिके धर्म श्रुत्ला निशम्य हृष्टतुष्टा ता आर्या स्त्रिकलो वन्दते नमस्यति वन्दिला नमस्थिता एवमवादी-श्रद्दधामि खलु आर्याः ! निर्गन्थं प्रवचनं, प्रत्येमि खलु, रोचयामि खलु आर्याः ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम् एवमेतत् , तथ्यमेतत् , अवितथमेतत् , यावत् श्रावकधर्म प्रतिपद्ये । यथासुखं देवानुपिये ! मा प्रतिबन्धं कुरु । ततः खलु सा सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्तिके यावत् प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य ता आर्याः वन्दते नमस्यति प्रतिविसर्जयति । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पुष्पितासूत्र तणं सुभद्दा सत्थवाही समणोवासिया जाया जाव विहरs | तणं तीसे सुभद्दाए समणोवासियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमए कुटुंबजागरियं जागरमाणीए समाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव संकप्पे समुपज्जित्था - एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहेण सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी जाव विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयामि, तं सेयं खलु ममं कलं पाउप्पभायाए जाव जलते भद्दस्स आपुच्छित्ता सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए अज्जा भवित्ता अगाराओ जाव पव्वत्तए, एवं संपेहेर, संपेहित्ता, कल्ले जेणेव भद्दे सत्थवाहे तेणेव उवागया, करतल - जाव एवं क्यासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तुन्भेहिं सद्धि बहूई वासाई बिउलाई भोग भोगाई भुंजमाणी जाव विहरामि, नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे । अन्भणुष्णाया समाणी सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्वइत्तए । तरणं से भद्दे ३३४ ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासका जाता यावद् विहरति । ततः खलु तस्याः सुभद्रायाः श्रमणोपासिकाया अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाले कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या सत्याः अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यत - एवं खलु अहं भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्धं विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना यावद् विहरामि, नोचैव खलु अहं दारकंवा दारिकां वा प्रजनयामि, तत्श्रेयः खलु मम कल्ये प्रादुर्यावत् ज्वलति भद्रमापृच्छय सुव्रतानामार्याणामन्तिके आर्या भूला अगाराद् यावत् प्रव्रजितुम् । एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यत्रैव भद्रः सार्थवाहस्तत्रैवोपागता, करतल - यावत् एवमवादीत् - एवं खलु अहं देवानुप्रियाः । युष्माभिः सार्द्ध बहूनि वर्षाणि विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना यावद् विहरामि, नो चैव खलु दारकं वा दारिकां वा प्रजनयामि, तद् इच्छामि खलु देवानुप्रियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती सुव्रतानामार्याणामन्तिके यावत् मत्रजितुम् । ततः खलु स भद्रः सार्थवाहः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी सत्यवाहे सुभदं सत्थवाही एवं वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया ! इदाणि मुंडा जाव पव्वयाहि, मुंजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं, ततो पच्छा भुत्तभोई सुव्बयाणं अज्जाणं जाव पव्वयाहि । तए णं सुभदा सत्यवाही भदस्स० एयमद्वं नो आढाइ नो परिजाणइ दोचं पि तचंपि भद्दा सत्थवाही एवं वयासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहिं अभणुनाया समाणी जाव पव्वइत्तए । तए णं से भद्दे सत्थवाहे जाहे नो संचाएइ बहूहि आधवणाहि य एवं पन्नवणाहिय सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा जाव विण्णवित्तए वा ताहे अकामए चेव सुभहाए निक्खमणं अणुमण्णित्था ॥३॥ सुभद्रां सार्थवाहीम् एवमवादीत-मा खलु त्वं देवानुपिये ! इदानों मुण्डा यावत् प्रव्रज । भुव तावद् देवानुपिये ! मया सार्दै विपुलान् भोगभोगान् , ततः पश्चात् भुक्तभोगिनी सुव्रतानामार्याणामन्तिके यावत् प्रव्रज । ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही भद्रस्य० एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति द्वितीयमपि तृतीयमपि भद्रा सार्थवाही एवमवादीत्-इच्छामि खलु देवानुप्रियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती यावत् प्रवजितुम् । ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो यदा नो शक्नोति-बहीभिराख्यापनाभिश्च एवं प्रज्ञापनाभिश्च संज्ञापनाभिश्व, विज्ञापनाभिश्च, आख्यापयितुम् वा, यावत् विज्ञापयितुं वा, तदा अकामतश्चैव सुभद्राया निष्क्रमणमन्वमन्यत ॥ ३॥ टीका'तएणं ताओ' इत्यादि-रोचयामि-रुचिविषयीकरोमि, प्रतिपद्ये= 'तएणं ताओ' इत्यादि-- उसके बाद वह साध्वी उस सुभद्रा सार्थवाहीसे इस प्रकार बोली'तएणं ताओ 'त्यादि ત્યાર બાદ તે સાધ્વી (આર્મી) તે સુભદ્રા સાર્થવાહીને આ પ્રકારે બોલી – શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ३ पुष्पितासूत्र हे देवानुप्रिये ! हम लोग ईर्यासमिति आदि समितियोंसे तथा तीन गुप्तियोंसे युक्त, इन्द्रियको वशमें रखनेवाली गुप्तब्रह्मचारिणी निम्रन्थ श्रमणी हैं। हमको इन बातोंका कानोंसे सुनना भी नही कलपता, तो फिर हम लोग इनका उपदेश या आचरण कैसे कर सकती हैं। हे देवानुप्रिये ! विशेष यह है कि हम लोग केवलि प्ररूपित दानशील आदि नाना प्रकारके धर्मका ही उपदेश करती हैं। उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही उन आर्याओंसे धर्म सुनकर उसे हृदयमें धारण कर हृष्ट-तुष्ट हृदयसे उनको तीनबार वन्दन और नमस्कार कर इस प्रकार बोली-हे देवानुप्रिये । मैं निग्रंथ प्रवचनपर श्रद्धा करती हूँ, विश्वास करती हूँ। निम्रन्थ प्रव. चनपर मेरी रुचि हुई है। आपने जो उपदेश दिया है वह सत्य है,-सर्वथा सत्य है, मैं यावत् श्रावक धर्मको स्वीकार करती हूँ। उन आर्याओंने कहा-हे देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा ही करो धर्माचरणमें प्रमाद मत करना । उसके बाद उस सुभद्रा सार्थवाहीने उन आर्याओंके समीप निम्रन्थ धर्मको स्वीकार किया। હે દેવાનુપ્રિયે ! અમે લોક ઇસ્ય સમિતિ આદિ સમિતિઓથી તથા ત્રણ ગુપ્તિઓથી યુક્ત, ઈન્દ્રિયને વશમાં રાખવાવાળી, ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી નિગ્રંથ શ્રમણી છીએ. અમે લેકે આવી બાબત કાનેથી પણ સાંભળવા કલ્પતી નથી તે પછી તેને ઉપદેશ અથવા આચરણ કેવી રીતે કરી શકીએ ? હે દેવાનુપ્રિયે ! વિશેષ એ છે કે અમે લેકે કેવલી પ્રરૂપિત દાન શીલ આદિ નાના પ્રકારના ધર્મને જ ઉપદેશ કરીએ છીએ. ત્યાર બાદ તે સુભદ્રાસાર્થવાહી તે આર્યાએ પાસેથી ધર્મ સાંભળીને તે હદયમાં ધારણ કરી હe-તુષ્ટ હદયથી તેમને ત્રણ વાર વંદન અને નમસ્કાર કરી આ પ્રમાણે બેલી:–હે દેવાનુપ્રિયે ! હું નિથ પ્રવચન પર શ્રદ્ધા કરું છું-વિશ્વાસ કરું છું. નિગ્રંથ પ્રવચન પર મારી રૂચી થઈ છે. આપે જે ઉપદેશ આપે છે તે સત્ય છે–સર્વથા સત્ય છે. હું યાવત્ શ્રાવક ધર્મને સ્વીકાર કરું છું. તે આર્થીઓએ કહ્યું હે દેવાનુપ્રિયે ! તને જે પ્રકારે સુખ થાય તેમજ કર. ધર્માચરણમાં પ્રમાદ ન કરે, ત્યાર પછી તે સુભદ્રાસાર્થવાહીએ તે આર્થીઓની પાસે નિગ્રંથ ધર્મને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी अङ्गीकरोमि, भोगभोगान्-भोगा:=शब्दादयस्तेषां भोगा: आसेवनानि तान् । आख्यापनाभिः= 'गृहवासः श्रेयान् ' इति तत्परीक्षार्थ समान्यतः कथनैः, प्रज्ञापनाभिः=' त्वं मा परिव्रज' 'संयमाऽऽचरणं दुष्करम् । अनन्तर उन आर्याओंका वन्दन और नमस्कारके साथ विसर्जन किया । उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका हो गयी, यावत् श्रावकधर्म पालती हुई विचरने लगी। उसके बाद एक समय पिछली रातमें कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सुभद्रा सार्थवाहीके हृदयमें इस प्रकारका आध्यात्मिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि मैं भद्र सार्थवाहके साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई यावत् विचर रही हूँ। पर आजतक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई। इसलिये मुझे उचित है कि सूर्योदय होनेपर भद्र सार्थवाहको पूछकर सुत्रता आर्याओके समीप आर्या हो घर छोडकर प्रवजित बनें। ऐसा विचारकर भद्रसार्थवाहके पास आयी और हाथ जोड कर इस प्रकार बोली-हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे साथ बहुत वर्षों तक विपुल भोगों को भोगती हुई विचर रही हूँ, पर आजतक मेरे एक भी सन्तान नहीं हुई। સ્વીકાર કર્યો. તે પછી તે આર્યાઓને વંદન અને નમસ્કાર કરીને વિસર્જન કર્યું (विधाय मापी.) ત્યાર પછી તે સુભદ્રા સાર્થવાહી શ્રમણ ઉપાસિકા થઈ ગઈ. તમામ શ્રાવકધર્મનું પાલન કરતી વિચરવા લાગી. ત્યાર પછી એક સમયે પાછલી રાત્રિએ કુટુંબ જાગરણ કરતી કરતી તે સુભદ્રાસાર્થવાહીના હૃદયમાં આ પ્રકારને આધ્યાત્મિક વિચાર આવ્યો કે હું ભદ્ર સાર્થવાહની સાથે વિપુલ ભોગેને ભગવતી વિચરણ કરું છું પણ આજ પર્યન્ત મને એક પણ સન્તાન થયું નથી. આથી મને એ યોગ્ય છે કે સૂર્યોદય થતાંજ ભદ્ર સાર્થવાહને પૂછીને સુવ્રતા આર્યાની પાસે આર્યા થઈ ઘર બધું છોડી દઈને પ્રવૃજિત બનું. એ વિચાર કરીને ભદ્રસાર્થવાહની પાસે આવી અને હાથ જોડી આ પ્રકારે બોલી –હે દેવાનુપ્રિય ! હું તમારી સાથે ઘણાં વર્ષો સુધી વિપુલ ભેગવિલાસ ભગવતી ફરું છું. પણ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ३ पुष्पितासूत्र इतिविशेषतः कथनैः, ' संज्ञापनाभिः=' संयमाऽऽराधनं भुक्तभोगावस्थायां मुकरम् ' इति संबोधनाभिः, विज्ञापनाभिः संयमग्रहणे तदन्तःकरणद्रढिमपरीक्षार्थ सप्रेमप्रतिपादनः, अकामतः= संयममार्गे तां सुभद्रां निरोधुमक्षमः इसलिये मैं चाहती हूँ कि तुमसे आज्ञा लेकर सुव्रता आर्याओंके समीप दीक्षा लेकर प्रव्रजित हो जाऊँ । उसके बाद वह भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाहीसे इस प्रकार कहने लगाः हे देवानुप्रिये ! तुम अभी दीक्षा मत लो। तुम अभी संसारमें ही रहो। विपुल भोग भोगनेके बाद सुव्रता आर्याओंके समोप दीक्षा लेकर प्रवजित होना । भद्र सार्थवाहके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी उस सुभद्रा सार्थवाहीने भद्रके वचनोंका आदर नहीं किया, और न उसके वचनों पर विचार ही किया । दूसरी बार तीसरी बार भी सुभद्रा सार्थवाहोने इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुमसे आज्ञा पाकर प्रव्रज्या लेनेकी इच्छा करती हूँ। उसके बाद वह भद्र सार्थवाह बहुत प्रकारकी — आख्यापना '='घरमें रहना આજસુધી મને એક પણ સંતાન નથી થયું માટે હું ચાહું છું કે તમારી આજ્ઞા લઈ સુવતા આર્યાએની પાસે દીક્ષા લઈને પ્રજિત થઈ જાઉં. ત્યાર પછી તે ભદ્રસાર્થવાહ સુભદ્રા સાર્થવાહીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગે – હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે હમણાં દીક્ષા ન લે. તમે હમણાં સંસારમાં જ રહો. વિપુલભેગ ભેળવી લીધા પછી સુવતા આર્યાઓની પાસે દીક્ષા લઈને પ્રજિત થજો. ભદ્ર સાર્થવાહે આ પ્રમાણે કહેવાથી તે સુભદ્રાસાર્થવાહીએ ભદ્રનાં વચને માન્યાં નહિ તેમ તેના વચનો ઉપર વિચાર પણ ન કર્યો. બીજીવાર ત્રીજીવાર પણ સુભદ્રાસાર્થવાહીએ આ પ્રમાણે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય ! તમારી આજ્ઞા લઈને પ્રત્રજ્યા લેવાની ઈચ્છા હું કરું છું. ત્યાર પછી તે ભદ્રસાર્થવાહ ઘણા પ્રકારે આખ્યાપના= ઘરમાં રહેવું એજ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३३९ सन्ननिच्छन्नपि सुभद्रायाः निष्क्रमणं= परिव्रजनम् अन्वमन्यत = स्वीचकार । शेषं सुबोधम् ॥ ३ ॥ मूलम्- तणं से भद्दे सत्थवाहे विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, मित्तनाइ जाव आमंतेइ, तओ पच्छा भोयणवेलाए जाब मित्तनाइ० सकारेइ सम्माणे, छाया- ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् उपस्कारयति मित्रज्ञाति यावदामन्त्रयति । ततः पश्चात् भोजनवेलायां ही श्रेयस्कर है ' इस प्रकार उसकी परीक्षाके लिये जो सामान्य कथन, तत्स्वरूप आख्यापनाओंसे, एवं ‘ प्रज्ञापना '' तुम प्रब्रजित मत होओ, संयमका आचरण दुष्कर है ' इस प्रकार विशेष रूपसे कथन स्वरूप प्रज्ञापनाओंसे, और ' संज्ञापना '= ' भोगों को भोग लेनेके बाद ही संयमका आराधन सुकर है " इस प्रकारका समझाना रूप संज्ञापनाओंसे, तथा ' विज्ञापना - संयम ग्रहण में उसके अन्तःकरणकी दृढताकी परीक्षा के लिये युक्ति प्रतिपादनरूप विज्ञापनाओंसे समझाने में समर्थ नहीं हो सका तब उसने अनिच्छापूर्वक सुभद्राको दीक्षा लेनेकी आज्ञा दी ॥ ३ ॥ શ્રેયસ્કર છે” એ પ્રકારે તેની પરીક્ષાને માટે જે સામાન્ય કથન કે તેના જેવી આખ્યાપનાઆથી, તથા પ્રજ્ઞાપના= તમે પ્રત્રજિત ન થાએ સચમનું આચરણ મુશ્કેલ છે આ પ્રકારનું વિશેષરૂપે કથન-તેવી કથનસ્વરૂપ પ્રજ્ઞાપનાથી, તથા સંજ્ઞાપના= ભાગા ભોગવી લીધા પછી જ સચમનું આરાધન સુકર (સહજ) છે ' એ પ્રકારે સમજાવવારૂપી સંજ્ઞાપનાથી, તથા વિજ્ઞાપના= સંયમગ્રહણ કરતાં તેના અંત:કરણની દૃઢતાની પરીક્ષાને માટે યુક્તિપ્રતિપાદનરૂપ વિજ્ઞાપનાઓથી આખ્યા સમજાવવામાં સમ ન થઈ શક્યા ત્યારે તેણે અનિચ્છાપૂર્વક સુભદ્રાને દીક્ષા લેવાની આજ્ઞા આપી. (૩) , શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० _३ पुष्पितासूत्र सुभदं सत्थवाहिं ण्हायं जाव पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहेइ । तओ सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तनाइ जाव संबंधिसंपरिखुडा सचिड्डीए जाव रवेणं वाणारसीनयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव मुव्वयाणं अजाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सोयं ठवेइ, सुभदं सत्थवाहि सीयाओ पञ्चोरुहेइ । तएणं भद्दे सत्थवाहे सुभदं सत्थवाहिं पुरओ काउं जेणेव सुव्वया अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अजाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुभद्दा सत्यवाही ममं भारिया इट्ठा कंता जाव मा णं वाइया पित्तिया सिंभिया सन्निवाइया विविहा रोगातंका फुसंतु, एसणं देवाणुप्पिया ! संसारभउचिग्गा, भीया जम्मणमरणाणं, देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पव्वयाइ, तं एवं अहं देवाणु यावत् मित्रज्ञाति० सत्करोति सम्मानयति, सुभद्रां सार्थवाही स्नातां यावत् कृतप्रायश्चित्तां सर्वालङ्कारविभूषितां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही मित्रज्ञाति० यावत् सम्बन्धिसंपरिवृता सर्वऋद्धया यावत् रवेण वाराणसीनगर्या मध्यमध्येन यत्रैव सुव्रतानामार्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां स्थापयति, सुभद्रा सार्थवाही शिविकातः प्रत्यवरोहति । ततः खल भद्रः सार्थवाहः सुभद्रा सार्थवाही पुरतः कृता यत्रैव सुव्रता आर्याः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मुव्रता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दिता नमस्थिता एवमवादी-एवं खलु देवानुपियाः ! सुभद्रा सार्थवाही मम भार्या इष्टा कान्ता यावत् मा खलु वातिकाः पैत्तिकाः श्लैष्मिकाः सान्निपातिका विविधा रोगातङ्काः स्पृशन्तु, एषा खलु देवानुपियाः ! संसारभयोद्विना, भीता जन्ममरणाभ्यां, देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा भूला यावत् प्रवजति ! तद् एतामहं देवानुपियभ्यो शिष्याभिक्षा શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ____ ३४१ प्पियाणं सीसिणीभिक्खं दलयामि, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सीसिणीभिक्खं । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । ___ तएणं सा सुभदा सत्थवाही तुट्टा सुव्वयाहिं अजाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ट० सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता, सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अजाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणेणं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्तेणं भंते ! जहा देवाणंदा तहा पव्वइया जाव अज्जा जाया जाव गुत्त बंभयारिणी ॥४॥ ददामि, प्रतीच्छन्तु खलु देवानुपियाः ! शिष्यामिक्षाम् । यथासुखं देवानुप्रियाः ! मा प्रतिबन्धम् । ततः खलु सा सुभद्रा सार्थवाही सुत्रताभिरार्या भिरेवमुक्ता सती स्वयमेव आभरणमाल्याङ्कारमवमुश्चति, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृषा यत्रैव सुव्रता आर्यास्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सुव्रता आर्यात्रिकृत आदक्षिणप्रदक्षिणेन वन्दते नमस्पति, वन्दिला नमस्थित्वा, एवमवादीआदीप्तः खलु भदन्ते ! यथा देवानन्दा तथा प्रव्रजिता यावत् आर्या जाता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी ॥ ४ ॥ टीका__ 'तएणं से भद्दे' इत्यादि-एतस्य व्याख्या निगदसिद्धेति बोध्यम् ॥४॥ 'तएणं से भद्दे' इत्यादिउसके बाद उस भद्र सार्थवाहने विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्यको तैयार 'तपणं से भद्दे ' त्या. ત્યાર પછી તે ભદ્રસાર્થવાહ વિપુલ અશનપાન ખાદ્ય સ્વાદ્ય તૈયાર કરાવ્યું શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ३ पुष्पितासूत्र करवाया और अपने सभी मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको बुलाया और आदर सत्कार के साथ सभी मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको भोजन कराया। बादमें स्नानकी हुई यावत् मसीतिलक आदिसे युक्त, सभी अलङ्कारोंसे विभूषित सुभद्रा हजार मनुष्योंके द्वारा वाहित शिबिका पर बैठायी गई। उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही मित्र ज्ञाति स्वजन-बन्धु और सम्बधियोंसे युक्त सभी प्रकारकी ऋद्धि यावत् भेरी आदि बाजोंके स्वरके साथ वाराणसी नगरीके बीचोबीचसे होती हुई सुव्रता आर्याओंके उपाश्रयमें आई, और हजार पुरुषोंसे वाहित उस शिबिकासे उतरी। बादमें वह भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाहीको आगे कर सुव्रता आर्याके पास आया, और वन्दन नमस्कार किया। बाद उसके उसने इस प्रकार कहाः हे देवानुप्रियों ! यह मेरी भार्या सुभद्रा सार्थवाही मेरी अत्यन्त इष्ट और कान्त है। इसको वात पित्त कफ आदि रोग तथा शीत-उष्ण आदिके दुःख અને પિતાના બધા મિત્રો જ્ઞાતિ-સ્વજન બધુઓને બોલાવ્યા અને આદર સત્કાર કરીને તે બધાને ભોજન કરાવ્યું. પછી સુભદ્રાને નવરાવી યાવત્ મસી તિલક (ચાંડલ) આદિ કરાવી તમામ અલંકાર (ઘરેણાં) થી શણગારી હજાર મનુષ્યએ ઉપાડેલી શિબિકા (પાલખી) ઉપર બેસાડવામાં આવી. ત્યાર પછી તે સુભદ્રાસાર્થવાહી મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન-બધુ તથા સબધિએની સાથે તમામ પ્રકારની કૃદ્ધિ, ભેરી આદિ વાજાંગાજાના સ્વર સાથે વારાણસી નગરીની વચ્ચે વચ્ચે થઈને સુત્રતા આર્યાઓના ઉપાશ્રયમાં આવી. અને હજાર પુરૂષોએ ઉપાડેલી તે શિબિકામાંથી ઉતરી. પછી તે ભદ્રસાર્થવાહ સુભદ્રા સાર્થવાહીને આગળ કરીને સુવ્રતા આની પાસે આવ્યું. અને વન્દન નમસ્કાર કર્યો પછી તેણે આ પ્રકારે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિયે ! આ મારી સ્ત્રી સુભદ્રા સાર્થવાહી મારી ઘણીજ ઈષ્ટ અને કાન્ત (પ્રિય) છે. તેને વાત પિત્ત કફ વગેરે રોગ ઠંડી ગરમી વગેરેનાં દુઃખ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी स्पर्श न कर सके इसके लिए सर्वदा यत्न करता आरहा हूँ, सो यह सार्थवाही संसारके भयसे उद्विग्न हो तथा जन्म मरणसे डरकर आप लोगोंके पास मुण्ड होकर प्रव्रजित हो रही है, इसलिये मैं आप लोगोंको यह शिष्यारूप भिक्षा दे रहा हूँ। हे देवानुप्रियों ! इसको आप लोग स्वीकार करें। भद्र सार्थवाहके इस प्रकार कहने पर उस महासतीने उस सार्थवाहीसे कहा-हे देवानुप्रिये ! जैसी तुम्हारो खुशी हो, शुभ काममें प्रमाद मत करो। सुव्रता महासती द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह सुभद्रा सार्थवाही अपने हाथोसे माला और आभूषणोंको उतार दिया, और उसने अपने हाथसे पञ्चमुष्टिक लुञ्चन किया। बादमें वह सुव्रता आर्याके समीप आकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन नमस्कार करके बोली हे महासती ! यह संसार जरा-मरण रूप आगसे जल रहा है,-अत्यन्त जल रहा है। जिस तरह कोई गृहस्थ धरमें आग लगनेपर जलती हुई वस्तुओंसे સ્પર્શ કરી ન શકે તે માટે હું હમેશાં ચત્ન કરતો આવું છું તે આ સાર્યવાહી સંસારના ભયથી ચિંતાતુર બનીને તથા જન્મમરણના ડરથી આપ લોકેની પાસે મુંડિત થઈ પ્રવ્રજિત થાય છે. માટે હું આપ લોકોને આ શિષ્યારૂપ ભિક્ષા આપું છું. હે દેવાનુપ્રિયે. આને આપ લેકે સ્વીકાર કરે. ભદ્ર સાર્થવાહના આ પ્રકારે કહેવાથી તે મહાસતીએ તે સાર્થવાહીને કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિયે ! જેવી તમારી ખુશી. કેઈ શુભ કામમાં પ્રમાદ ન કરો. સુત્રતા મહાસતીએ આ પ્રમાણે કહેવાથી તે સુભદ્રાસાર્થવાહીએ પિતાના હાથેથી માલા અને ઘરેણાં ઉતારી નાખ્યાં અને તેણે પિતાને હાથેથી પંચ મુષ્ટિક લુચન કર્યું. પછી તે સુત્રતા આર્યાની પાસે આવીને ત્રણ વાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા પૂર્વક વન્દન નમસ્કાર કરીને બોલી:– હે મહાસતી ! આ સંસાર જરા-મરણરૂપ અવિન વડે બની રહ્યો છે ખૂબ બળે છે. જેમ કોઈ ગૃહસ્થ ઘરમાં આગ લાગે ત્યારે બળી જતી વસ્તુઓમાંથી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ३ पुष्पितासूत्र बहुमूल्य और थोडे वजनबाली वस्तुको निकाल लेता है और उसे सुरक्षित रखता है उसी प्रकार मैं अपनी आत्माको जो मेरी इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, संमत =सम्मानित है अनुमत-बडे प्रेमसे सुरक्षित है, बहुमत है अनेक प्रकारसे लालित षालित है, उसको शीत, उष्ण, भूख, तृषा, चोर, सिंह, सर्प, डांस, मच्छर तथा बात पित कफ आदि रोग परीषह उपसर्ग कोई नुकसान न पहुँचा सकें तथा मेरी आत्मा परलोकमें हित रूप, सुखरूप कुशल रूप और परम्परासे कल्याण रूप रहे । इस लिये मैं आपके पास मुण्डित होकर प्रव्रजित होती हूँ। मैं प्रतिलेखना आदि क्रियाको सीखूगी। आपकी आज्ञासे संयमकी सब क्रियाको पालुंगी । इस प्रकार वह सार्थवाही देवानन्दाके समान प्रवजित हुई और आर्या हो गई तथा पाँचसमिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त हो सकल इन्द्रियोंका दमन कर वह गुप्तब्रह्मचारिणी हो गयी ॥४॥ બહુ કિંમતવાળી અને ઓછા વજનવાળી વસ્તુને કાઢી લે છે અને તેને સુરક્ષિત રાખે છે તેવી જ રીતે હું મારો આત્મા-કે જે મારે ઈષ્ટ છે–કાન્ત છે-પ્રિય છેસંમત=સમ્માનિત છે, અનુમત=બહુ પ્રેમથી સુરક્ષિત છે, બહુમત છેઃઅનેક ५२थी शासित पालित छ, तेने , २भी, भूप, तरस, या२, सिंड, सर्प, ડાંસ, મચ્છર, તથા વાત, પિત્ત, કફ વગેરે રોગ, પરીષહ, ઉપસર્ગ કોઈ નુકશાન પહોંચાડી ન શકે તથા મારે આત્મા પરલોકમાં હિતરૂપ, સુખરૂપ, કુશલરૂપ તથા પરમ્પરાથી કલ્યાણરૂપ રહે તે માટે હું તમારી પાસે મુંડિત થઈને પ્રત્રજિત બનું છું. હું પ્રતિલેખના આદિ ક્રિયાને શીખીશ. આપની આજ્ઞાથી સંયમની બધી ક્રિયાએનું પાલન કરીશ. આ પ્રકારે તે સાર્થવાહી દેવાનન્દાની પેઠે પ્રજિત બની અને આર્યા થઈ ગઈ તથા પાંચ સમિતિ અને ત્રણ મુસિએથી યુક્ત થઈને બધી ઇન્દ્રિઓનું દમન કરીને તે ગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી થઈ ગઈ. છે ૪ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३४५ तएणं सा सुभद्दा अजा अन्नया कयाइ बहुजणस्स चेडरूवे संमुच्छिया जाव अज्झोववण्णा अब्भंगणं च उबट्टणं फासुयपाणं च अलत्तगं च कंकणाणि य अंजणं च वण्णगं च चुण्णगं च खेलगाणि य खज्जल्लगाणि य खीरं च पुप्फाणि य गवेसइ, गवेसित्ता बहुजणस्स दारए वा दारियाए वा कुमारे य कुमारियाए य डिभए य डिभियाओ य अप्पेगइयाओ अभंगेइ, अप्पेगइयाओ उव्वट्टेइ, एवं अप्पेगइयाओ फासुयपाणएणं ण्हावेइ, अप्पेगइयाणं पाए रयइ, अप्पेगइयाणं उढे रयइ, अप्पेगइयाणं अच्छीणि अंजेइ, अप्पेगइयाणं उसुए करेइ, अप्पेगइयाणं तिलए करेइ, अप्पेगइयाओ दिगिंदलए करेइ, अप्पेगइयाणं पंतियाओ करेइ, अप्पेगगाइं छिज्जाइं करेइ, अप्पेगइया वन्नएणं समालभइ, अप्पेगइया चुन्नएणं समालभइ, अप्पेगइयाणं खेल्लणगाई दलयइ, अप्पेगइयाणं खजुल्ल छायाततः खलु सा सुभद्रा आर्या अन्यदा कदाचि बहुजनस्य चेटरूपे संमूञ्छिता यावद् अध्युपपन्ना अभ्यञ्जनं च उद्वर्त्तनं च प्रामुकपानं च अलक्तकं च कङ्कणानि च अञ्जनं च वर्णकं च चूर्णकं च खेलकानि च खज्जलकानि च क्षीरं च पुष्पाणि च गवेषयति, गवेषयित्वा बहुजनस्य दारकान् दारिका वा कुमारांश्च कुमारिकाश्च डिम्भांश्च डिम्भिकाश्च अप्येककान् अभ्यङ्गयति अप्येककान् उद्वर्त्तयति, एवम् अप्येककान् मासुकपानकेन स्नपयति, अप्येककानां पादौ रञ्जयति, अप्येककानाम् ओष्ठौ रञ्जयति, अप्येककानाम् अक्षिणी अञ्जयति, अप्येककानाम् इषुकान् करोति, अप्येककानां तिलकान् करोति, अप्येककान् दिलिन्दलके करोति, अप्येककानां पतीः करोति, अप्येककान् छेद्यान् (छिन्नान् ) करोति, अप्येककान वर्णकेन समालभते, अप्येककान चूर्णकेन समालमते, अप्येककेम्पः खेलकानि શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ३ पुष्पितासूत्र गाई दलयइ, अप्पेगइयाओ खीरभोयणं झुंजावेइ, अप्पेगइयाणं पुप्फाई ओमुयइ, अप्पेगइयाओ पाएमु ठवेइ, अप्पेगइयाओ जंघासु करेइ, एवं ऊरुसु, उच्छंगे, कडीए, पिटे, उरसि, खंधे, सीसे य करतलपुडेणं गहाय हलउलेमाणी २ आगायमाणी २ परिगायमाणी २ पुत्तपिवासं च धूयपिवासं च नत्तुयपिवासं च नचिपिवासं च पञ्चणुब्भवमाणी विहरइ ।। ___ तएणं ताओ मुन्वयाओ अज्जाओ सुभदं अजं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ नो खलु अम्हं कप्पइ जातककम्म करित्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया जाव अज्झोववन्ना अब्भंगणं जाव नत्तिपिवास वा पञ्चणुब्भवमाणी विहरसि, तं गं तुम देवाणुप्पिया एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि । तएणं सा सुभदा अज्जा ददाति, अप्येककेभ्यः खज्जुलकानि ददाति, अप्येककान् क्षीरभोजनं भोजयति, अप्येककानां पुष्पाणि अवमुञ्चति, अप्येककान् पादयोः स्थापयति, अप्येककान् जङ्घयोः करोति, एवं उर्वोः, उत्सङ्गे, कव्यां, पृष्ठे, उरसि, स्कन्धे, शीर्षे च करतलपुटेन गृहीखा हलउल्लयन्ती २ आगायन्ती २ परिगायन्ती २ पुत्रपिपासां च दुहितपिपासां च नतृकपिपासां च नपूत्रीपिपासां च प्रत्यनुभवन्ती विहरति । ततः खलु ताः सुत्रता आर्याः सुभद्रामार्यामेवमवादीत्-वयं खलु देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्य इर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यो नो खलु अस्माकं कल्पते जातकर्म कर्तुम् , त्वं च खलु देवानुपिये ! बहुजनस्य चेटरूपेषु मूर्छिता यावत् अध्युपपन्ना अभ्यञ्जनं च यावत् नप्त्रीपिपासां वा प्रत्यनुभवन्ती विहरसि, तत् खलु देवानुपिये ! एतस्य स्थानस्य आलोचय यावत् प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यख । ततः खलु सा सुभद्रा आर्या सुव्रताना શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य.४ बहुपुत्रिका देवी ३४७ सुव्वयाणं अज्जाणं एयमद्वं नो आढाइ नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ । तएणं ताओ समणीओ निग्गंथीओ सुभदं अजं हीलेंति निदंति खिसंति गरहंति अभिक्खणं २ एयमढे निवारेंति । तएणं तीसे सुभदाए अज्जाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिज्जमाणीएं जाव अभिक्खणं २ एयम8 निवारिज्जमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था-जयाणं अहं अगारवासं वसामि तयाणं अहं अप्पवसा, जप्पमिइं च णं अहं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्ता, तप्पभिई च णं अहं परवसा, पुचि च समणीओ निग्गंथीओ आतुति परिजाणेति, इयाणिं नो आढाइति नो परिजाणंति, तं सेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते मुव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडियकं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते सुव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ मार्याणामेतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमाणा अपरिजानन्ती विहरति । ___ ततः खलु ताः श्रमण्यो निम्रन्थ्यः सुभद्रामार्या हीलन्ति निन्दन्ति खिसन्ति गर्हन्ते अभीक्ष्णम् २ एतमर्थं निवारयन्ति । ततः खलु तस्याः सुभद्राया आर्यायाः श्रमणीमिनिर्ग्रन्थीभिहींल्यमानाया यावत् अभीक्ष्णम् २ एतमर्थ निवारयन्त्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत-यदा खलु अहम् अगारवासं वसामि तदा खलु अहम् आत्मवशा, यतः प्रभृति च खलु अहं मुण्डा भूखा अगारात् अनगारतां भवजिता ततः प्रभृति च खलु अहं परवशा, पूर्व च श्रमण्यो निग्रन्थ्य आद्रियन्ते, परिजानन्ति, इदानों नो आद्रियन्ते नो परिजानन्ति, तत् श्रेयः खलु मे कल्ये यावत् ज्वलति सुव्रतानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रम्य प्रत्येकम् उपाश्रयम् उपसंपद्य खलु विहर्तुम् ; एवं संभक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ३ पुष्पितासूत्र पडिनिक्खमेइ, पडिनिक्खमित्ता पाडियकं उक्स्सयं उपसंपज्जित्ता णं विहरइ । तए णं सा सुभद्दा अज्जा अज्नाहिं अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिता जाव अब्भंगणं च जाव नत्तिपिवासं च पञ्चणुभवमाणी विहरइ । तएणं सा सुभद्दा अज्जा पासत्था पासत्थविहारी एवं ओसण्णा० ओसण्णविहारी कुसीला कुसीलविहारी संसत्ता संसत्तविहारी अहाच्छंदा अहाच्छंदविहारी बहूई वासाइं सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयप्पडिकंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तियाविमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरियाए अंगुलस्स असंखेन्जभागमेत्ताए ओगाहणाए बहुपुत्तियदेवित्ताए उववण्णा । सुव्रतानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहरति । ततः खलु सा सुभद्रा आर्या आर्याभिः अनपघट्टिका अनिवारिता स्वच्छन्दमतिः बहुजनस्य चेटरूपेषु मूर्छिता यावत् अभ्यञ्जनं च यावत् नपूत्रीपिपासां च प्रत्यनुभवन्ती विहरति । ततः खलु सा सुभद्रा आर्या पार्श्वस्था पार्श्वस्थविहारिणी एवमवसन्ना अवसन्नविहारिणी कुशीला कुशीलविहारिणी संसक्ता संसक्तविहारिणी यथाच्छन्दा यथाच्छन्दविहारिणी बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयिखा अर्द्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयित्वा त्रिंशद् भक्तानि अनशनेन छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचिताऽप्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे बहुपुत्रिकाविमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवघ्यान्तरिता अलस्य असंख्येयभागमात्रया अवगाहनया बहुपुत्रिकादेवीतया उपपन्ना । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३४९ तए णं सा बहुपुत्तिया देवी अहुणोववन्नमित्ता समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जाव भासामणपज्जत्तीए । एवं खलु गोयमा ! बहुपुत्तियाए देवीए सा दिव्वा देविड जाव अमिसमण्णागया । से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ बहुपुत्तिया देवी २ ? गोयमा ! बहुपुत्तिया णं देवी जाहे जाहे सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो उवत्थाणियणं करेइ, ताहे २ बहवे दारए य दारियाए य डिंभए य डिभियाओ य विउव्वइ, विउव्वित्ता जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्यं देविड्डि दिव्वं देवज्जुइं दिव्वं देवाणुभागं उवदंसेइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ बहुपुत्तिया देवी ॥५॥ __ततः खलु सा बहुपुत्रिका देवी अधुनोपपन्नमात्रा सती पश्चविधया पर्याप्त्या यावद् भाषामनःपर्याप्त्या० । एवं खलु गौतम ! बहुपुत्रिकया देव्या दिव्या देवद्धिः यावत् अभिसमन्वागता । अथ सा केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते बहुपुत्रिका देवी २ ? गौतम ! बहुपुत्रिका खलु देवी यदा यदा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य उपस्थानं (मत्यासत्तिगमनं ) करोति । तदा तदा बहून् दारकांश्च दारिकाश्च डिम्भांश्च डिम्भिकाश्च विकुरुते, विकृत्य यत्रैव शक्रो देवेन्द्रो देवराजस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य दिव्यां देवर्द्वि दिव्यं देवज्योतिः दिव्यं देवानुभागमुपदर्शयति । तत्तेनाऽर्थेन गौतम ! एवमुच्यते बहुपुत्रिका देवी ॥५॥ टीका'तएणं सा' इत्यादि-ततः तदनन्तरं खलु इति वाक्यालङ्कारे सा= 'तएणं सा' इत्यादि-- उसके बाद वह सुभद्रा आर्या एक समय गृहस्थके बालबच्चोंपर प्रेम करने 'तएणं सा'त्यादि ત્યાર પછી તે સુભદ્રા આર્યા એક વખત ગૃહસ્થનાં બાળબચ્ચાં ઉપર પ્રેમ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ३ पुष्पितासूत्र पूर्वोक्ता प्रसिद्धा वा आर्या-साध्वी सुभद्रानाम्नी, अन्यदा=अन्यस्मिन् समये कदाचित् अनिश्चितकाले बहुजनस्य बहुलोकस्य चेटरूपे-कुमारस्वरूपे संमूञ्छिता-संमोहिता यावद् अध्युपपन्ना-बालप्रेमासक्ता संजाता अत एव अभ्यङ्गन-तैलादिमर्दनम् , चकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारार्थकः, उद्वर्तनं गात्रमलापनयनाय पिष्टादिसुगन्धिद्रव्यविशेषम् , पासुकपानं-प्रगता असवः उच्छासनिच्छ्वासात्मकाः प्राणा यतस्तत् प्रासुकं, पीयते यत् तत् पानं, मासुकं च तत्पानं प्रामुकपानं सकलजीवोपाधिरहितमचित्तजलम् अलक्तकम् हस्तचरणादिरञ्जकं मेहंद्यादिद्रव्यविशेषम् , कङ्कणानिवलयानि करभूषणविशेषान् , अञ्जनं-कञ्जलम् , वर्णकं चन्दनादिविशेषम् , चूर्णकंगन्धद्रव्यसम्बन्धिरजः, खेलकानि-शालभञ्जिकादीनि ('खिलौना' इति भाषायाम् ) खज्जलकानि खाद्यद्रव्य विशेषान् (खाजा इति भाषायाम् ) क्षीरं दुग्धं पुष्पाणि-कुसुमानि लगी और प्रेमके आवेशमें उन बच्चोंके लिये वह आर्या लगानेके लिये तेल, शरीरका मैल दूर करनेके लिये उबटन, पीनेके लिये प्रासुक जल, उन बच्चोंके हाथ पैर रंगनेके लिए मेंहदी आदि रञ्जक द्रव्य, कङ्कण हाथोमें पहननेका कडा, अञ्जन= काजल, वर्णक=चन्दन आदि, चूर्णक सुगन्धित द्रव्य, खेलक-खेलनेके लिये शालभञ्जिका ( पुतली ) आदि खिलौने, खानेके लिये खाजे, पीनेके लिये दूध और माला आदिके लिये अचित्त फूल, इन सभी वस्तुओंका अन्वेषण करती थी। बादमें उन કરવા લાગી અને પ્રેમના આવેશમાં તે બચ્ચાંને માટે તે આર્યા, ચેળવા માટે તેલ, શરીરનો મેલ દૂર કરવા માટે ઉબટન (પીઠી), પીવા માટે પ્રાસુક પાણી, તે બચ્ચાંના હાથ પગ રંગવા માટે મેંદી વગેરે રંજક દ્રવ્ય, કંકણ હાથમાં પહેરવા માટે કડાં, બંગડી, અંજન=કાજળ, વણકચન્દન આદિ, ચૂર્ણક=સુગન્ધિત દ્રવ્ય, ખેલક=રમવા માટે પૂતળીઓ આદિ રમકડાં, ખાવા માટે ખાજાં, પીવા માટે દૂધ તથા માલા (હાર)ને માટે અચિત્ત ફૂલ, આ બધી વસ્તુઓ મેળવવાની શોધ કરતી હતી પછી તે ગૃહસ્થના છોકરા, છોકરીઓમાંથી, કુમાર કુમારિકાઓ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३५१ च गवेषयति = अन्वेषयति, गवेषयित्वा = अभ्यङ्गनादिपुष्पान्तवस्तूनि अन्वेष्य बहुजनस्य = विपुललोकस्य दारकान् = बहुकालिकबालकान् दारिकाः = बहुकालिकबालिका वा अथवा कुमारान् = अधिकतरवर्षकान् बालकान्, कुमारिकाः बहुतरवार्षिका बालिकाः, डिम्भान् = अल्पकालिकशिशून् डिम्भिका :- अल्पकालिकबालिकाश्च, अप्येककान्- काश्चन अभ्यङ्गयति-तैलेन गात्रं मर्दयति, अपीति समुच्चयार्थकः; तेन एकमपि तदतिरिक्तञ्च अनेकमित्यर्थः । एककान् उद्वर्तयति= गात्रमापनयनाय पिष्टादि सुगन्धिद्रव्यं लेपयति, एवम् = अनेन प्रकारेण एककान् मासुकपानीयेन स्नपयति, एककानां पादौ चरणौ रञ्जयति - अलक्तकादिना रक्तवर्णों करोति, एककानाम् ओष्ठौ - अघरौ रञ्जयति रक्तवर्णौ विदधाति, एककानाम् अक्षिणी-नेत्रे अञ्जयति = अञ्जनेन भूषिते करोति, एककानाम् इषुकान = ललाट देशे बाणाकारान तिलकविशेषान करोति, एककानां तिलकान् = केशरकुङ्कुमादिना ललाटे विन्यासविशेषान् करोति, एककान् दिगिन्दलके देशीशब्दो गृहस्थोंके लड़के लडकियोँ में से कुमारकुमारियों में से, बच्चे बच्चियों में से, किसी एक को तेलकी मालिश करती थी, किसीकी देहमें उबटन लगाती थी, किसी एकको प्रासुक जलसे स्नान कराती थी, किसी एकके पैरोंको रंगती थी, एकके ओठोको रंगती थी, किसीकी आखोमें अंजन लगाती थी, किसीके ललाट पर बाण आदिके आकारका तिलक लगाती थी, किसीके ललाटपर केशर आदिके द्वारा तिलक विशे• का विन्यास करती थी, किसी एक बच्चेको हिण्डोले में रखकर झुलाती थी, और માંથી, બાળક અને માળાએમાંથી કાઇને તેલ માલીસ કરતી હતી, કેાઈને શરીરે उप्पटन ( थीडी ) लगाउती हुती, अधने आसुर पालीथी स्नान उशवती हुती, કાઇના પગ રંગી દેતી હતી, કાઇના હાર્ડ રંગતી હતી, કાઈને આંજણ આંજતી હતી તેા કેાઈના કપાળ ઉપર ખાણુ આદિના આકારના ચાંડલા ચાતી હતી, કાઇના કપાળે કેશર આદિથી જુદા જુદા પ્રકારના તિલક આદિના વિન્યાસ કરતી હતી, કાઈ એક બાળકને હીંચકા નાખતી હતી તથા કેટલાંક બાળકની એક શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३ पुष्पितासूत्र ऽयं तेन-'हिन्दोलके' इत्यर्थः करोति, एककानां पङ्क्तीश्रेणी: करोति, एककान् छिन्नान् छिन्नभिन्नान् एकत्रस्थितान् पृथक्पृथक् करोति, एककान् वर्णकेनचन्दनविशेषेण समालभते अनुलेपयति, एककान् चूर्णकेन-सुगन्धिद्रव्यविशेषेण समालभते=सुवासयति, एककेभ्यः खेलकानि=शालभञ्जिकादीनि ददाति, एककेभ्यः खज्जुलकानि-खाद्यद्रव्यविशेषान् ‘खाजा' इति भाषाप्रसिद्धान् ददाति, एककान क्षीरभोजनं दुग्धपानं भोजयति कारयति, एककानां पुष्पाणि-कुसुमानि अवमोचयति-कण्ठादितोऽधस्ताद्विसर्जयति, एककान् पादयोःचरणयोः स्थापयति, एककान् जङ्घयोः करोति, एवम् अनेन प्रकारेण ऊोंः, उत्सङ्गे-क्रोडे, कट्यां=श्रोण्यां, पृष्ठे=पृष्ठभागे, उरसि-वक्षसि, स्कन्धे कुछ बच्चोंको एक कतार ( पंक्ति ) में खडा करती थी, तथा पंक्तिमें खडे हुए बच्चोंको अलग २ खडा करती थी, एकके शरीरमें चन्दन लगाती थी, तो एकके शरीर को सुगन्धित चूर्णक ( पाउडर ) से सुवासित करती थी, एकको खेलनेके लिये खिलौना देती थी, तथा किसीको खानेके लिये खाजे देती थी, और किसीको दूध पीलाती थी, किसीके कण्ठमें पड़ी हुई अचित्त (कागदके ) फूलोंकी माला उतार लेती थी, किसीको अपने पैरोंपर बैठाती थी तो किसीको अपनी जङ्घापर रखती थी और इसी प्रकार किसीको ऊरुपर, किसीको अपनी गोदीमें किसीको अपनी कमरपर, किसीको पीठपर किसीको अपनी छातीपर किसीको कन्धेपर किसीको अपने હાર કરી ઊભાં રાખતી હતી અને તે હારમાં ઉભેલામાંથી કેટલાંક બાળકોને જુદાં જુદાં ઊભાં રાખતી હતી. એકના શરીરને ચંદન લગાવતી હતી તે એકને સુગન્ધિત પાઉડરથી સુવાસિત કરતી હતી. એકને રમવા માટે રમકડાં દેતી તે કેઈને ખાવા માટે ખાજાં દેતી હતી અને કોઈને દૂધ પાતી હતી. કેઈની ડોકમાંથી અચિત્ત (કાગળનાં) ફૂલની માળા ઉતારી લેતી. કેઈને પિતાના પગ ઉપર બેસાડતી તે કોઈને પિતાના ખેળામાં રાખતી કોઈને પેટ ઉપર તે કોઈને સાથળ ઉપર અને કોઈને કેડે તો કોઈને પીઠ ઉપર, કોઈને છાતી ઉપર તો કઈને કાંધ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३५३ =अंसे शीर्ष-शिरसि, करतलपुटेन पाणितलपुटेन गृहीला हलउल्लयन्तो बालरञ्जनाय मधुरालापं 'हुलरावा' इति भाषापसिद्धं कुर्वती, आगायन्तीबालरञ्जनाय मन्दं मन्दं गायन्ती, परिगायन्ती बालान रुदतो विलोक्य उच्चस्वरेण गायन्ती, पुत्रपिपासां-पुत्रलालसां दुहितृपिपासां-पुत्रीवाञ्छां नप्तृकपिपासां : पौत्रदौहित्रलालसा नपुत्रीपिपासां-पौत्री दौहित्री स्पृहां च प्रत्यनुभवन्ती-एतत्कार्यण सन्तोषं मन्यमाना विहरति आस्ते । ततः खलु ताः दीक्षादाव्यः सुव्रता आर्याः साध्व्यः सुभद्रामेवं वक्ष्यमाणम् अवादिषुः-हे देवानुपिये ! वयं श्रमण्यः-संसारविषयविरक्ताः साध्व्यः निर्ग्रन्थ्यः ग्रन्थिरहिताः इर्यासमिताः शिरपर रखती थी, किसीको हाथसे पकडकर हुलराती हुई और बालकोंके मनोरंजनके लिये मन्द स्वरसे गाती हुई, बालकोंको रोते हुए देखकर उच्च स्वरसे गाती हुई पुत्रकी लालसा, पुत्रीकी वाञ्छा, पोते और दौहित्रोकी वाञ्छा, पौत्री और दौहित्रीकी इच्छाका अनुभव करती हुई, अपने उक्त कार्योंसे सन्तुष्ट होती हुई विचरण कर रही थी। उसके ऐसे आचरणको देखकर सुव्रता आर्या सुभद्रा आर्यासे इस प्रकार बोली-हे देवानुप्रिये ! अपने लोग संसारिक विषयोंसे विरक्त, ईर्यासमिति आदिसे ઉપર કોઈને માથા ઉપર રાખતી તો કોઈને હાથેથી પકડીને હલરાવતી. બાળકને આનંદ માટે ધીમા ધીમા સ્વરથી ગાતી અને રાતાં બાળકને જોઈને તાણીને ગાતી, પુત્રની લાલસા, પુત્રીની વાંછા, પૌત્ર અને દૌહિત્રની વાંચ્છા, તથા પૌત્રી અને દૌહિત્રીની વાંચ્છાના અનુભવ કરીને પિતાનાં એ કાર્યોથી સંતોષ માની વિચરણ કરતી હતી. તેનાં આવાં આચરણે જોઈને સુત્રતા આર્યા સુભદ્રા આર્યાને આ પ્રકારે કહેવા લાગી-હે દેવાનુપ્રિયે ! આપણે લેકે સાંસારિક વિષયેથી વિરક્ત ઈર્યા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ____३ पुष्पितासूत्र यावत् शब्देन भाषासमिताः, इत्यादीनां संग्रहः, गुप्तब्रह्मचारिण्यः= सुरक्षितब्रह्मचर्याः, नो खलु अस्माकं श्रमणीनां निर्ग्रन्थीनाम् जातकर्म-शिशुक्रीडनादिक्रियां कर्तुम् अनुष्ठातुं कल्पते-युज्यते, हे देवानुप्रिये ! सुभद्रे ! त्वं बहुजनस्य चेटरूपेषु = कुमारस्वरूपेषु मूर्छिता = संमोहिता यावत् अध्युपपन्ना दत्तचित्ता अभ्यङ्गनं यावच्छब्देन वर्णकादीनां सङ्ग्रहः, नपूत्रीपिपासां-पौत्रीदौहित्रीस्पृहां प्रत्यनुभवन्ती विहरसि, तत्-तस्मात् कारणात् हे देवानुपिये ! एतस्य स्थानस्य एतत्कर्तव्यस्य आलोचय= आलोचनां कुरु यावत् प्रायश्चित्तं पापापनोदनरूपाम् क्रियां प्रतिपद्यस्व= युक्त यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी निम्रन्थ श्रमणी हैं, इसलिये हम लोगोंको बालक्रीडा करना कराना आदि नहीं कलपता है। हे देवानुप्रिये ! तुम गृहस्थोंके बच्चोंसे प्रेम करने लग गयी हो बच्चोंको तेल आदि लगानेकी क्रिया आदि अकल्पनीय कार्य कर रही हो। तथा पुत्र पुत्री, पौत्र पौत्री और दौहित्र दौहित्रीकी वाञ्छाका अनुभव करती हुई बिचर रही हो, सो हे देवानुप्रिये ! तुम अपने इस कार्यपर विचार करो और इस पापकी विशुद्धिके लिये आलोचना करो और प्रायश्चित लो। સમિતિ આદિથી યુક્ત યાવત ગુણ બ્રહ્મચારિણે નિર્ગસ્થ શ્રમણ છીએ માટે આપણે બાળકને રમાડવું આદિ કલ્પવાનું નથી. હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે ગૃહસ્થાના બચ્ચાંને પ્રેમ કરવા લાગી ગયાં છે. બચ્ચાંને તેલ આદિ લગાડવાની ક્રિયાથી માંડીને બધાં અકલ્પનીય કાર્યો કરી રહ્યાં છો. તથા પુત્ર-પુત્રી, પૌત્ર-પૌત્રી અને દૌહિત્ર-દૌહિત્રીની વાંછાના અનુભવ કરતાં વિચરે છે. માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે તમારાં આ કાર્યો માટે વિચાર કરે અને આ પાપની વિશુદ્ધિને માટે આલેચના કરે અને પ્રાયશ્ચિત્ત લે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी स्वीकुरु । ततः खलु सुभद्रा आर्या सुव्रतानामार्याणामेतम् = अव्यवहितोक्तम् अर्थम् - निर्दिष्टविषयम् नो आद्रियते = न सत्करोति नो परिजानाति = कर्तव्यत्वेन नो स्वीकरोति, अनाद्रियमाणा - उपेक्षमाणा, अपरिजानन्ती- कर्तव्यत्वेन तदुक्तमस्वीकुर्वाणा विहरति । ततः खलु ताः श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्यः सुभद्रामार्य हिलन्ति - जन्मकर्ममर्मोद्घाटनपूर्वकं निर्भत्सयन्ति, निन्दन्ति = कुत्सितशब्दपूर्वकं दोषोद्घाटनेन अनाद्रियन्ते, खिसन्ति = हस्तमुखा दिविकार पूर्वकमवमन्यन्ते, गर्हन्ते = गुर्वादि ३५५ उन आर्याओंके द्वारा इस प्रकार अकल्पनीय बातोंका निषेध करनेपर भी उस सुभद्रा आर्याने न उन बातोंका कुछ आदर किया और न उन बातोंपर कुछ ध्यान ही दिया अपितु उसी प्रकारका व्यवहार करती हुई विचरने लगी । उसके बाद वे आर्यायें सुभद्रा आर्याकी 'तुम उत्तम कुलमें जन्म लेकर और उत्तम संयम अवस्थामें आकर ऐसे तुच्छ कर्म करती हो ' इस प्रकारकी " हीना ' करती हैं, और वे कुत्सित शब्द बोलकर उसका दोष प्रकट करती हुई 4 निन्दना करती हैं। हाथ मुख आदिको विकृत करके अपमान करती हुई ' खििसना ' करती हैं । गुरू जनोंके समीप उसके दोषोंका उद्घाटन करती हुई " તે આર્યોએના આ પ્રકારે અકલ્પનીય વાતાના નિષેધ કરવા છતાં પણ સુભદ્રા આયોએ ન તા તે વાર્તાને માની કે ન તેના ઉપર કાંઈ ધ્યાન આપ્યું. પણ તેજ પ્રકારના વ્યવહાર કરતી વિચરવા લાગી. તે ત્યાર પછી તે આર્ચાઓ કહેતી કેઃ— તમે ઉત્તમ કૂળમાં જન્મીને ઉત્તમ સંયમ અવસ્થામાં આવી આવાં તુચ્છ કમ કરો છે ’ भावा प्रभारनी होलना पुरती, मुत्सित शब्डो ( भेगां) मोलीने तेना होष लहेर कुश्ती उरती निन्दन । કરવા લાગી. હાથ માં આદિથી ચાળા थाडी अथभान कुरती खिसना કરવા લાગી, ગુરૂજનાની પાસે તેના દાષા ખુલ્લા કરીને તિરસ્કારરૂપે મર્દા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ ३ पुष्पितासूत्र समक्षं दोषाऽऽविष्करणपूर्वकं तिरस्कुर्वन्ति, अभीक्ष्णं २ वारंवारम् एतमर्थपुत्रादिलालनादिविषयं निवारयन्ति-अवरुन्धन्ति । ततः खलु तस्याः सुभद्राया आर्यायाः श्रमणीमिनिग्रन्थीभिः हिल्यमानाया यावत् अभीक्ष्णम् २ एतमर्थ निवार्यमाणाया अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणलक्षणः आध्यात्मिक अन्तःकरणगतः संकल्पो यावत् समुदपद्यत । अनपघट्टिका अविद्यमानोऽपघट्टकोतिरस्कार रूप 'गर्हणा' करती हैं और वे बालक बालिकाओं आदिका लालन विषय का बार बार निवारण करती हैं। उसके बाद उन सुव्रता आदि आर्याओंके द्वारा पूर्वोक्त प्रकारसे हीलना निन्दना आदि करनेपर तथा वारम्वार निवारण करनेपर उस सुभद्रा आर्याके अन्तःकरणमें इस प्रकारका विचार उत्पन्न हुआ कि 'जब मैं अपने घरमें थी तो स्वतंत्र थी, जब मैं घर छोडकर मुण्डित हो प्रवजित हो गई तबसे मैं पराधीन हूँ। पहले ये श्रमण निम्रन्थिया मेरा आदर करती थीं और मेरे साथ प्रेमका बर्ताव करती थीं, पर आज ये न मेरा आदर ही करती हैं और न प्रेमका वर्ताव ही करती हैं, अपितु ये सर्वदा मेरी निन्दा करती रहती हैं। इसलिये मुझे उचित है कि प्रातःकाल होते ही इन सुव्रता आर्याओंको छोडकर अलग उपाश्रयमें जाकर उतरूँ। ऐसा કરતી વારંવાર પુત્ર આદિના લાલન વિષયનું નિવારણ કરે છે. ते सुनता मा सामान ५३४ अरे होलना-निन्दना मा ४२વાથી અને નિવારણ (મનાઈ) કરવામાં આવતાં તે સુભદ્રા આર્યાના અંત:કરણમાં એવો વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે “જ્યારે મારે ઘેર હતી ત્યારે સ્વતંત્ર હતી. હવે જ્યારે ઘર છોડી મુંડિત થઈ પ્રજિત થઈ, ત્યારથી હું પરાધીન છું. પહેલાં આ શ્રમણ નિર્ગન્ધિઓ મારો આદર કરતી હતી અને મારા સાથે પ્રેમને વર્તાવ કરતી હતી. પણ આજે તે નથી મારે આદર કરતી કે નથી મારી સાથે પ્રેમને વર્તાવ કરતી. ઉલટી તે હમેશાં મારી નિન્દા કર્યા કરે છે. માટે સવાર પડતાં જ આ સુત્રતા આર્થીઓને છોડી દઈ કઈ જુદા ઉપાશ્રયમાં ઉતરું એ મારા માટે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३५७ यदृच्छया प्रवर्त्तमानाया हस्तग्रहणादिना निवर्तको यस्याः सा तथा, स्वच्छन्दप्रवृत्ता, पार्श्वस्था पार्थे साधुगुणानामेकतः साधुगुणेभ्यः पृथगित्यर्थः; तिष्ठतीति तथा, अवसन्ना-सामाचारीपालने अवसीदति खेदमनुभवतीति तथा, कुशीला-कु-कुत्सितं उत्तरगुणप्रतिसेवनया संज्वलनकषायोदयेन वा दूषि तत्वात् शीलं यस्याः सा तथा, संसक्ता-गृहस्थादिप्रेमवन्धनेन सामाचारी विचार कर सूर्योदय होते ही सुव्रता आर्याओंको छोडकर वह सुभद्रा आर्या निकल गयी और अलग उपाश्रयमें जाकर अकेली ही रहने लगी। उसके बाद वह सुभद्रा आर्या गुरुणी आदिके द्वारा रुकावट न होनेके कारण स्वच्छन्द मति हो गृहस्थोंके बच्चोंसे पूर्ववत् व्यवहार करने लगी। उसके बाद वह सुभद्रा आर्या पार्श्वस्था साधुके गुणोंसे दूर हो, पार्श्वस्थविहारिणी हो गयी, इसी प्रकार अवसन्न सामाचारी पालनमें खिन्न हो अवसन्न विहारिणी हो गयी। और उत्तर गुणमें दोष लगानेसे तथा संज्वलन कषायके उदयसे कुशीला हो कुशील विहारिणी हो गई और संसक्ता=गृहस्थ आदिके साथ प्रेम बन्धन करनेके कारण सामाचारीमें शिथिलतासे प्रवृत्त हो संसक्तविहारिणी हो गयी, ઉચિત છે. એમ વિચાર કરી સૂર્યોદય થતાં જ સુવ્રતા આર્મીઓને છોડીને તે સુભદ્રા આર્યો નીકળી પડી અને જુદા ઉપાશ્રયમાં જઈ એકલી જ રહેવા લાગી. ત્યાર પછી તે સુભદ્રા આર્યા ગુરૂણી આદિને અંકુશ ન રહેવાથી સ્વચ્છત્ત્વચારિણું થઈ ગૃહસ્થોનાં બાળકો સાથે આગળના જેવો વ્યવહાર કરવા લાગી. ત્યાર પછી તે સુભદ્રા આર્યા પાર્વસ્થ થઈ=સાધુના ગુણોથી દૂર થઈ પાર્વસ્થ વિહારિણી થઇ. આ પ્રકારે અવસન્ન થઈ=સામાચારી પાલનમાં ખિન્ન થઈ અવસન્ન વિહારિણું બની. કુશીલ થઈ અને ઉત્તરગુણમાં દેષ લાગવાના કારણે તથા સંજ્વલન કષાયેના ઉદયથી કુશીલા થઈ કુશીલ વિહારિણી થઈ અને સંસક્તા =ગૃહસ્થ વગેરેની સાથે પ્રેમ અન્યન કરવાના કારણથી સામાચારીમાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ ३ पुष्पितासूत्र शिथिलीकरणपूर्वकं प्रवृत्ता, यथाच्छन्दा स्वाभिमायपूर्वकखमतिकल्पितमार्गे प्रवृत्ता । शेषं सुगमम् ॥ ५ ॥ यथाच्छंदा=अपने अभिप्रायसे कल्पित मार्गमें प्रवृत्त हो यथाच्छन्दविहारिणी हो गयी। इस प्रकार बहुत वर्षों तक उसने श्रामण्य पर्यायका पालन किया । अन्तमें अर्धमासिकी संलेखना द्वारा अपनी आत्माको सेवित कर तीस भक्तोंको अनशन द्वारा छेदन कर अपने उत्तरगुण प्रतिसेवनरूप पाप स्थानकी आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करके काल अवसरमें कालकर सौधर्म कल्पके बहुपुत्रिका विमानमें उपपात सभाके अन्दर देवशयनीय शय्यामें देवदूष्य वस्त्रोसे आच्छादित जघन्य अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनावाली बहुपुत्रिका देवी होकर उत्पन्न हुई। उसके बाद यह बहुपुत्रिकादेवी भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाच प्रकारकी पर्याप्तिसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त कर उत्कृष्ट सात हाथकी अवगाहनावाली देवी होकर देवअवस्थामें विचरने लगी। શિથિલ પ્રવૃત્તિવાળી થઈ સંસક્તવિહારિણી થઈ ગઈ. યથાછન્દા=પિતાની મરજીમાં આવે તે કલ્પિત માર્ગમાં પ્રવૃત્ત થઈ યથાછન્દ વિહારિણી થઈ. આ પ્રકારે ઘણાં વર્ષો સુધી તેણે દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. આખરે અર્ધમાસિકી સંલેખનાથી પિતાના આત્માને સેવિત કરીને ત્રીશ ભક્તોનું અનશન દ્વારા છેદન કરી પોતાના ઉત્તરગુણ પ્રતિસેવનરૂપ પામસ્થાનની આલોચના તથા પ્રતિક્રમણ ન કરતાં કાલઅવસરમાં કાલ કરી સૌધર્મ કલ્પના બહુપત્રિકા નામે વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીય શય્યામાં દેવદૂષ્ય વસ્ત્રોથી આચ્છાદિત જઘન્ય અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ માત્ર (અવગાહના) વાળી બહુપુત્રિકા દેવી થઈને ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાર પછી જન્મતી વખતે આ બહુપુત્રિકા દેવી ભાષાપર્યામિ મનપર્યાપ્તિ આદિ પાંચ પ્રકારની પર્યાસિથી પર્યાપ્તિ અવસ્થાને પામી ઉત્કૃષ્ટ-સાત હાથની અવગાહનાવાળી દેવી થઈ દેવ અવસ્થામાં વિચારવા લાગી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी मूलम् — बहुपुतिया णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । बहुपुत्तिया णं भंते ! देवी ताओ ३५९ छाया बहुपुत्रिकाया भदन्त ! देव्याः कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! चतुः पल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । बहुपुत्रिका खलु भदन्त ! हे गौतम ! बहुपुत्रिकादेवी इस प्रकार अपनी दिव्य देव ऋद्धि आदिसे यावत् समन्वित हुई है। हे भदन्त ! किस कारणसे इसका नाम बहुपुत्रिका हुआ ? हे गौतम ! बहुपुत्रिकादेवी जब- जब देवराज इन्द्रके पास जाती है तब-तब वह बहुतसे लडके लडकियोंकी और बच्चे बच्चियोंकी विकुर्वणा करती है । विकुर्वणा करनेके बाद जहाँ देवताओंके राजा इन्द्र है वहाँ आती है, और देवताओंके राजा इन्द्रको अपनी दिव्य ऋद्धि, दिव्य देव ज्योति और दिव्य तेजको दिखलाती है । हे गौतम ! इसलिये यह बहुपुत्रिका देवी कहलाती है ॥ ५ ॥ હે ગૌતમ ! અહુપુત્રિકા દૈવી આ પ્રકારે પોતાની દિવ્ય દેવ ઋદ્ધિથી समन्वित ( परिपूर्ण ) थर्ध छे. હે ભદ્દન્ત ! કયા કારણથી તેનું નામ બહુપુત્રિકા પડયું ? હે ગૌતમ ! બહુ પુત્રિકા દેવી જ્યારે જ્યારે દેવાના રાજા ઈન્દ્રની પાસે જાય છે ત્યારે ત્યારે તે ઘણાં છેકરા-છેકરી તથા ખાલકા અને બાળાઓની વિકુણા કર્યા પછી જ્યાં દેવતાઓના રાજા ઇન્દ્ર છે ત્યાં આવે છે અને તે દેવતાઓના રાજા ઇન્દ્રને પેાતાની દિવ્ય ઋદ્ધિ–દિવ્ય દેવન્ત્યાતિ તથા દિવ્ય તેજ દેખાડે છે. હે ગૌતમ ! આ માટે તે બહુપુત્રિકા દેવી કહેવાય છે. (૫). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ३ पुष्पितासूत्र देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? गोयमा ! इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विज्झगिरिपायमूले विभेलसंनिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पञ्चायाहिइ । तएणं तीसे दारियाए अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वितिकते जाव बारसेहिं दिवसेहिं वितिकंतेहिं अयमेयारूवं नामधिजं करेंति, होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधिजं सोमा । तएणं सोमा उम्मुक्कबालभाषा विणयपरिणयमेत्ता जोव्वणगमणुप्पत्ता रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उकिट्ठा उकिटसरीरा जाच भविस्सइ । तएणं तं सोमं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं विणयपरिणयमित्तं जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिकूविएणं सुकर्ण पडिरूवएणं नियगस्स भायणिजस्स रट्टकूडयस्स भारियत्ताए दलइस्सइ । सा णं तस्स भारिया भविस्सइ इट्ठा कंता जाव भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविआ चेलपेला (डा) इव सुसंपरिग्गहिया रयणकरंडगओ विव देवी तस्मादेवलोकादायुःक्षयेण स्थितिक्षयेण भवक्षयेण अनन्तरं चयं च्युखा क गमिष्यति क उत्पत्स्यते ? गौतम ! अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वष विन्ध्यगिरिपादमूले विभेलसन्निवेशे ब्राह्मणकुले दारिकातया प्रत्यायास्यति । ततः खलु तस्या दारिकाया अम्बापितरौ एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते यावद् द्वादशभिर्दिवसैर्व्यतिक्रान्तैरिदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतः, भवतु अस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं सोमा । ततः खलु सोमा उन्मुक्तबालभावा विज्ञकपरिणतमात्रा यौवनमनुमाप्ता रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्टा उत्कृष्टशरीरा यावद् भविष्यति । ततः खलु तां सोमां दारिकाम् अम्बापितरौ उन्मुक्तबालभावां विज्ञकपरिणतमात्रां यौवनमनुमाप्तां प्रतिकूजितेन शुल्केन प्रतिरूपेण निजकाय भागिनेयाय राष्ट्रकूटकाय भायतिया दास्यति । सा खलु तस्य भार्या भविष्यति इष्टा कान्ता यावद् भाण्डकरण्डकसमाना तैलकेला इव सुसंगोपिता चेलपेटा इव सुसंपरिगृहीता रत्नकरण्डक શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी सुसारक्खिया सुसंगोविया मा णं सीयं जाव मा णं विविहा रोगातका फुसंतु । तए णं सा सोमा माहिणी रहकूडेणं सद्धिं विउलाइं भोगभोगाई भुंजमाणी संवच्छरे २ जुयलगं पयायमाणी सोलसेहिं संवच्छरेहिं बत्तीसं दारगरूवे पयाइ । तए णं सा सोमा माहणी तेहिं बहूहिं दारगेहि य दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य डिभएहि य डिभियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य अप्पेगइएहि थणियाएहि य अप्पेगइएहि पीहगपाएहि अप्पेगइएहि परंगणएहि अप्पेगइऐहिं परक्कममाणेहिं, अप्पेगइएहिं पक्खोलणएहिं अप्पेगइएहिं थणं मग्गमाणेहिं अप्येगइएहिं खीरं मग्गमाणेहि अप्पेगइएहिं खिल्लणयं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खजगं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं कुरं मग्गमाणेहिं पाणियं मग्गमाणेहिं हसमाणेहिं रूसमाणेहि अक्कोस्समाणेहिं अक्कुस्समाणेहि हणमाणेहिं विष्पलायमाणेहिं अणुगम्ममाणेहिं रोवमाणेहिं कंदमाणेहिं विलवमाणाह कूवमाणेहिं उक्कूचमाणेहिं निद्धायमाणेहिं इव सुसंरक्षिता सुसंगोपिता मा खलु शीतं यावत् मा विविधाः रोगातङ्काः स्पृशन्तु । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रक्टेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना संवत्सरे संवत्सरे युगलं प्रजनयन्ती षोडशभिः संवत्सरैः द्वात्रिशद् दारकरूपाणि प्रजनयति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तैर्बहुभि रकश्च दारिकाभिश्च कुमारैश्च कुमारिकाभिश्च डिम्भैश्च डिम्भिकाभिश्च अप्येककः उत्तानशयकैश्च, अप्येककैः स्तनितैश्च अप्येककैः स्पृहकपादैः, अप्येककैः पराङ्गणकैः, अप्येककैः पराक्रममाणैः, अप्येककैः प्रस्खलनकैः, अप्येककैः स्तनं मृग्यमाणैः, अप्येककैः क्षीरं मृग्यमाणैः, अप्येककैः खेलनक मृग्यमाणैः, अप्येककैः खाद्यकं मृग्यमाणैः, अप्येककैः कूर (भक्त) मृग्यमाणैः, पानीयं मृग्यमाणैः, हसद्भिः, रुष्यद्भिः, आक्रोशद्भिः, आक्रुश्यद्भिः, प्रद्भिः, हन्यमानैः, विप्रलपद्भिः, अनुगम्यमानः, रुदद्भिः, क्रन्दद्भिः, विलपद्भिः, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ____३ पुष्पितास्त्र पलंबमाणेहिं दहमाणेहिं दंसमाणेहिं वममाणेहिं छेरमाणेहिं मुत्तमाणेहि मुत्तपुरीसवमियमुलित्तोवलित्ता मइलवसणपुच्चडा जाव असुइबीभच्छा परमदुग्गंधा नो संचाएइ रट्टकूडेणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई मुंजमाणी विहरित्तए ॥ ६॥ कूजभिः, उत्कूजद्भिः, निर्धावद्भिः, प्रलम्बमानैः, दहद्भिः, दशभिः, वमभिः , छेरभिः , मूत्रयभिः , मूत्रपुरीषवान्तसुलिप्तोपलिप्ता मलिनवसनपुच्चडा यावद् अशुचिवीभत्सा परमदुर्गन्धा नो शक्नोति राष्ट्रकूटेन साढे विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहर्तुम् ॥ ६ ॥ टीका 'बहुपुत्रियाएणं इत्यादि-हे भदन्त ! बहुपुत्रिकाया देव्याः कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? हे गौतम ! चतुःपल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । हे भदन्त ! बहुपुत्रिका देवी तस्माद् देवलोकाद् आयुःक्षयेण=आयुर्दलिकनिर्जरणेन देवलोकवासोचितावधिव्यतिगमेन स्थितिक्षयेण आयुःकर्मणः 'बहुपुत्रियाएणं' इत्यादिहे भदन्त ! बहुपुत्रिकादेवीकी स्थिति कितने कालकी है ? हे गौतम ! बहुपुत्रिकादेवीकी स्थिति चार पल्योपमकी है ! हे भदन्त ! वह बहुपुत्रिकादेवी आयुक्षय भवक्षय और स्थितिक्षयके बाद देवलोकसे च्यवकर कहाँ जायगी ? कहाँ उत्पन्न होगी ? 'बहुपुत्तियाएण' त्यात હે ભદન્ત ! બહુપુત્રિકા દેવીની સ્થિતિ કેટલા સમયની છે ? હે ગૌતમ ! બહુપુત્રિકા દેવીની સ્થિતિ ચાર પલ્યોપમ છે. હે ભદન્ત ! તે બહુપુત્રિકા દેવી આયુક્ષય, ભવક્ષય તથા સ્થિતિક્ષય પછી દેવલોકમાંથી અવીને કયાં જશે ? કયાં જન્મ લેશે ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३६३ स्थितिनिर्जरणेन भवक्षयेण=देवभवकारणभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन क-कुत्र उत्पत्स्यते ?=जनिष्यते ? गौतम ! अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे तन्नामके द्वीपे-मध्यजम्बूद्वीपे भारते तन्नामके वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले विन्ध्याचलाधस्तले विभेलसंनिवेशे विभेलनामकग्रामविशेषे ब्राह्मणकुले ब्राह्मणवंशे दारिकातया-पुत्रीत्वेन प्रजनिष्यते समुत्पत्स्यते । ततः जननानन्तरं खलु तस्या दारिकाया अम्बापितरौ-मातापितरौ एकादशे दिवसे दिने व्यतिक्रान्ते व्यतीते यावत् द्वादशभिर्दिवसः इदमेतद्रूपं वक्ष्यमाणलक्षणं नामधेयं कुरुतः, अस्माकमस्याः दारिकायाः पुत्र्याः ‘सोमा' इति नामधेयं नाम भवतु । ततः तदनन्तरम् खलु-निश्चयेन सोमा उन्मुक्तबालभावा-व्यतीतबाल्यावस्था, विज्ञकपरिणतमात्रा-विषयसुखाभिज्ञा यौवनम्-युवतिदशाम् अनुप्राप्ता= अनु-बाल्यात् पश्चात् प्राप्ता, रूपेण आकृत्या, च=पुनः, यौवनेन-तारुण्येन, च= पुनः लावण्येन-मुक्ताफलगतच्छायातरलतासदृशशरीरावयवान्तःप्रविष्टचाकचिक्येन; उक्तं च - हे गौतम ! यह बहुपुत्रिकादेवी जम्बूद्वीप नामक द्वीपके अन्दर भरत क्षेत्रमें विन्ध्यपर्वतके समीप विभेल संनिवेश ( गाम ) में ब्राह्मणकी कन्या होकर जन्म लेगी। उसके बाद उसके माता पिता ग्यारह दीन बीतनेपर बारहवे दिन अपनी लडकीका नाम सामा रखेंगे। वह सोमा बालभाव छोडती हुई विषय सुखके परिज्ञानके साथ यौवनावस्थामें प्रवेशकर रूप-यौवन-लावण्यसे उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीरवाली होगी। હે ગૌતમ ! આ બહુપુત્રિકા દેવી જમ્બુદ્વીપની અંદર ભરત ક્ષેત્રમાં વિધ્ય પર્વતની પાસે વિભેલ (સન્નિવેશ) ગામમાં બ્રાહ્મણની કન્યા થઈને જન્મ લેશે. ત્યાર પછી તેનાં માતાપિતા અગીયાર દિવસ વીતી ગયા પછી બારમે દિવસે પિતાની છોકરીનું નામ સમા રાખશે. તે તેમાં બાલભાવ છેડી વિષય સુખનાં પરિજ્ઞાનવાળી યૌવન અવસ્થામાં પ્રવેશ કરશે ત્યારે રૂપયૌવન-લાવણ્યથી ઉત્કૃષ્ટ અને ઉત્કૃષ્ટ શરીરવાળી થશે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ " मुक्ताफलेषुच्छायायास्तरलत्वमिवान्तरे । प्रतिभाति यदङ्गेषु तल्लावण्यमिहोच्यते ॥ १ ॥ " उत्कृष्टा = उत्कृष्टशरीरा=मनोहरकाया यावद् भविष्यति, ततः = परिणययोग्यतामाप्रत्यनन्तरं खलु तां सोमां दारिकाम् अम्बापितरौ = उन्मुक्तबालमावां विज्ञकपरिणतमात्रां यौवनमनुप्राप्ताम् एतेषां व्याख्याऽत्रैव सूत्रे प्रागुपपादिता, प्रतिकूजितेन = स्वीकृतितया प्रतिभाषितेन शुल्केन देयद्रव्येण प्रचुराभरणादिना विभूषितां कृत्वेति शेषः, प्रतिरूपेण = अनुकलेन मियवचनेन 'भवद्योग्येय मितिप्रभृतिना वचसा निजकाय = स्वकीयाय भागिनेयाय = भगिनीपुत्राय राष्ट्रकूटाय भार्यातया= स्त्रीत्वेन दास्यति । सा = सोमा खलु तस्य = राष्ट्रकूटस्य भार्या भविष्यति, इष्टा = वल्लभा कान्ता कमनीयत्वात्, यावच्छब्देन, प्रिया गौर आदि सुन्दर वर्णवाले आकारको ' रूप ' कहते हैं । मोतीके अन्दरकी चमक के समान जो शरीर की चमक हो उसे " कहते हैं । ३ पुष्पितासूत्र वनावस्था में प्रविष्ट उस देने योग्य द्रव्य और उसके बाद माता पिता, बाल्यावस्था पार सोमा बालिकाको विषय सुखसे अभिज्ञ जानकर निश्चित प्रियवचन के साथ अपने भानजे राष्ट्रकूटके साथ उसका विवाह कर देंगे । वह सोमा उसकी इष्टा कान्ता और वल्लभा होगी, और वह उस सोमाकी आभूषणके लावण्य ' શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર ગૌર આદિ સુંદરવર્ણ વાળા આકારને ‘રૂપ' કહે છે. માતીની અંદરની ચમકના જેવી શરીરની ચમક થાય તેને લાવણ્ય કહે છે. ત્યાર પછી માતાપિતા, ખાલ્યાવસ્થા વીતી ગયા પછી યોવન અવસ્થામાં આવેલી તે સામા ખાલિકાને વિષય સુખથી અભિજ્ઞ ( જાણીતી ) થયેલી જાણી નિશ્રિત દેવાયાગ્ય દ્રવ્ય તથા પ્રિય વચન સાથે પેાતાના ભાણેજ રાષ્ટ્રકૂટની સાથે તેના વિવાહ કરશે તે સામા તેની ઈષ્ટા માંતા અને વલ્લભા થશે અને તે, Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३६५ सदामेमविषयखात् , मनोज्ञा सुन्दरखात् एवं 'मणामा संमया अणुमया' इत्यादि दृश्यम् । एतद्व्याख्या पूर्व प्रतिपादिता । भाण्डकरण्डकसमाना भूषणादिकरण्डकवत् , तैलकेला तैलधानी सौराष्ट्रदेशप्रसिद्धो मृन्मयतैलपात्रविशेषः, तद्वत् सुसंरक्षिता=अतितरां परिपालिता, सुसंगोपिता-यत्नेन रक्षिता चेलपेटा इव-वस्त्रम पावत् सुसंपरिगृहीता=मुष्ठु परिग्रहत्वेन संरक्षिता। रत्नकरण्डकवत् इन्द्रनीलादिरत्नमञ्जूषावत् सुसंगोपिता च, शीत-शीतबाधाः यावत् विविधाः नानाप्रकाराः रोगातङ्काः रोगाः चिरघातिनः, आतङ्काः सद्योघातिनः, इमां मा खलु-नैव स्पृशन्तु-आश्रयन्तु । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटेन=साद्ध विपुलान् बहून् भोगभोगान्-विषयभोगान् भुञ्जाना संवत्सरे संवत्सरे-प्रतिवर्ष युगलं-सन्तानयुग्मं प्रजनयन्ती-प्रसूयमाना षोडशभिः संवत्स : वर्षेः द्वात्रिंशद्-द्वयधिकत्रिंशद् दारकरूपान् बालक करण्डकके समान, तेलके सुन्दर बर्तनके समान यत्नपूर्वक रक्षा करेगा, वस्त्रोंकी पेटी के समान उसको अच्छी तरह रखेगा और इन्द्रनील आदि रत्नकरण्डकके समान प्राणोंसे अधिक महत्व देकर रक्षा करेगा, और उसको बात पित्त आदि रोग और आतङ्क न स्पर्श कर सकें इस प्रकार सर्वदा रक्षाको चेष्टा करता रहेगा। उसके बाद वह सोमा दारिका राष्ट्रकूटके साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई प्रत्येक वर्षमें एक २ सन्तान-युगलको जन्म देगी । और वह सोलह वर्ष में बत्तीस बच्चोंकी मा સમાની આભૂષણના કરંડકની પેઠે, તેલનાં સુંદર વાસણની પેઠે યત્નપૂર્વક રક્ષા કરશે. વસ્ત્રોની પેટીની પેઠે તેને સારી રીતે રાખશે અને ઈન્દ્ર નીલ આદિ રત્ન કરંડકની પેઠે પ્રાણથી પણ વધારે મહત્વ દઈને તેની રક્ષા કરશે. તથા તેને વાત પિત્ત આદિ રેગ તથા આતંક પણ સ્પર્શ ન કરી શકે એવી રીતે હમેશાં રક્ષા કરવાની વ્યવસ્થા કરતા રહેશે, ત્યાર પછી તે સોમા દારિકા રાષ્ટ્રકૂટની સાથે વિપુલ ભેગેને ભગવતી દર વરસે એક એક સંતાનનાં જેડલાને જન્મ દેશે અને તે સેળ વર્ષમાં બત્રીસ બાળક બાળકીઓની મા થઈ જશે. પછી નાનાં મોટાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ __३ पुष्पितासूत्र लक्षणान् , अत्र दारिकाश्च दारकाश्चेत्यर्थे एकशेषेण दारिका शब्दस्य लोपे रूपशब्देन समासे पुत्रीपुत्ररूपान् इति तदर्थः, प्रजनयति-उत्पादयति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तैः बहुभिः अनेकैः दारकैः=पुत्रैः दारिकाभिः पुत्रोभिः बहुकालिकोभिः, कुमारैः बहुतरकालिकैः पुत्रः, कुमारिकाभिः बहुतरकालिकोभिः पुत्रीभिः, डिम्भैः अल्पकालिकपुत्रैः, डिम्भिकाभिः अल्पकालिकीभिः पुत्रीभिश्च, अप्येककैः उत्तानशयकैः ऊर्ध्वमुखशयनशीलैः, अप्येककैः स्तनितैः चीत्कारशब्दितैः, अप्येककैः स्पृहकपादैः-स्पृहन्ति= गमनं वाञ्छन्ति, इति स्पृहकाः पादाः=चरणा येषामिति ते तथा गमनेच्छुचरणाः, गमनोत्सुकपादा इत्यर्थः, अत्र गमनेच्छायाश्चेतनवृत्तित्वेऽपि पादेध्वारोपात् 'स्थाली पचति' स्थाल्या पच्यते, इत्यादिवत् साधुता बोध्या। उक्तञ्च " वस्तुतस्तदनिर्देश्यं नहि वस्तु व्यवस्थितम् । स्थाल्या पच्यत इत्येषा, विवक्षा दृश्यते यतः ॥” इति अप्येककैः पराङ्गणकैः परं स्वकीयादन्यत् अङ्गणं चत्वरं गम्यत्वेन येषां ते तथा, अन्याङ्गणगमनशीलैः, अथवा पराश्चनकैरितिच्छाया, परम्-उत्कृष्टम् अञ्चनं= होजायगी बाद उसके वह सोमा ब्राह्मणी अपने उन छोटे बडे बच्चे बचियोंसे तंग आजायगी। उसके उन बच्चोंमें कोई अल्पकालका जन्मा हुआ बच्चा उत्तान होकर सोता रहेगा, कोई चीत्कार मार कर रोता रहेगा, कोई चलनेकी इच्छा करेगा, कोई दूसरोंके आङ्गनमें चला जायेगा अथवा कोई बच्चा अच्छी तरह चलेगा, कोई बच्चा બાળકેથી તે તેમાં બ્રાહ્મણ તંગ થઈ જશે. તેનાં એ બચ્ચાંઓમાં કઈ થોડા જ કાળમાં જન્મેલાં બચ્ચાં ઉત્તાન થઈને સુઈ રહેશે, કઈ રાડો પાડીને રોવા લાગશે, કેઈ ચાલવાની ઈચ્છા કરશે, કેઈ બીજાનાં ફળીયામાં જતું રહેશે, અથવા કોઈ બચ્ચું સારી રીતે ચાલશે, કઈ બાળક ઉત્સાહ કરશે, કઈ પડશે, કઈ ખર્ચે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनो टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी गमनं येषां ते तथा, सम्यग्गमनवद्भिः , अप्येककैः पराक्रममाणैः उत्सहमानैः, अप्येककैः प्रस्खलनकैः प्रकृष्टनिपतनवद्भिः, अप्येककैः स्तनं पानाय मातुः कुचं मृग्यमाणैः अन्वेषयद्भिः , अप्येककैः क्षीरं-दुग्धं मृग्यमाणैः, अप्येककैः खेलनक-खेलत्यनेनेति खेलनं तदेव खेलनक-क्रीडासाधनं कन्दुक-लगुडादिकं मृग्यमाणैः, अप्येककैः खाद्यकं खाद्यमेव खाद्यकं खाद्यवस्तु — लपनश्रीमोदकप्रभृतिं मृग्यमाणैः, अप्पेककैः कूर-भक्तम् ( ओदनं ) मृग्यमाणैः, पानीयं जलं मृग्यमाणैः, हसद्भिः, रुष्यद्भिः,रोषं कुर्वद्भिः, आक्रोशभिः= क्रुध्यद्भिः आक्रुश्यद्भिः, स्वस्ववस्तु ग्रहीतुं कलहं कुर्वद्भिः, प्रद्भिः ताड्यद्भिः, हन्यमानः अन्येन ताड्यमानः, विमलपद्भिः विरुद्धं वदद्भिः, अनुगम्यमानैः पलायनादिकाले पश्चाद् गम्यमानः, रुदभिः शब्दायमानैः,क्रन्दभिः चीत्कुर्वद्भिः,विलपभिः आर्तस्वरं कुर्वाणैः, कूजद्भिः= स्फुददधरपूर्वकमप्रकटशब्दं कुर्वदिभः, उत्कूजभिः=उच्चैः शब्दं कुर्वाणैः पूत्कुर्वभिः, निद्राभिः= उत्साह करेगा, कोई गिरेगा, कोई बच्चा स्तनको ढूंढेगा, कोई दूध चाहेगा, कोई बच्चा खाना मांगेगा, कोई भातके लिये हठ करेगा, कोई पानीका हठ करेगा, कोई हंसता रहेगा कोई रूष्ट होता रहेगा, कोई क्रोध करता रहेगा और कुछ बच्चे अपनी २ वस्तुके लिए लडते रहेंगे कोई किसीको मारता रहेगा। कोई किसीकी मार खाता रहेगा, कोई बच्चा अण्डवण्ड बकेगा अर्थात् व्यर्थका बकवाद-शोर गुल करेगा। कोई किसीके पीछे २ दौडता रहेगा, कोई रोता रहेगा, कोई बच्चा સ્તનને શોધવા લાગશે, કઈ દૂધ માગશે, કેઈ બચું ખાવાનું માગશે, કોઈ ભાતને માટે હઠ કરશે, કઈ પાણી માટે હઠ કરશે, કોઈ હસતું રહેશે, કેઈ ગુસ્સે થતું રહેશે, કઈ રીસાઈ જાશે, કઈ બચ્ચાં તે પિતા પોતાની ચીજ માટે લડતાંજ રહેશે, અને કઈ કઈને મારતાં રહેશે, કે તે કોઈને માર ખાતાં રહેશે, તે કઈ બચ્ચાં જેમ તેમ મકશે અર્થાત્ વ્યર્થ બકવાદ– શેરબકેર કરી મૂકશે, કઈ કોઈની પાછળ પાછળ દોડયા કરશે, કઈ રેતાં રહેશે, કઈ પ્રતાપ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ___३ पुष्पितास्त्र निद्रां सेवमानैः, (स्वपद्भि) प्रलम्बमानैः वस्त्राञ्चलं समालम्बमानैः दहद्भिः ज्वलभिः, दशभिः दन्तैः कृन्तभिः वद्भिः उदिभिः ( मच्छर्दयभिः ) छेरभिः वारंवार हदमानः, मूत्रयभिः -मूत्रं कुर्वदिभः मूत्रपुरीषवान्तमुलिसोपलिता प्रस्ताव-विष्ठोद्गीणीतप्रोता, मलिनवसनपुच्चडा=मलयुक्तवस्त्रैः पुच्चडा= निश्शोभा कान्तिहीनेत्यर्थः, यावद् अशुचिवीभत्सा अशुचित्वेन नितरां दुनिरीक्षणीया (घृणिता) परमदुर्गन्धा अतिदुर्गन्धयुक्ता, राष्ट्रकूटेन स्वपतिना सार्द्ध विपुलान् बहून् भोगभोगान् भुज्यन्ते-भोगविषयीक्रियन्त इति भोगाः शब्दादयो विषयास्तेषां भोगाः सेवनानि तान, तथा भुञ्जाना=सेवमाना विहर्तुम् अवस्थातुं नो शक्नोति-न प्रभवति ॥ ६ ॥ प्रलाप करता रहेगा, कोई आर्तस्वरसे रोयेगा, कोई बच्चा कूजता-अव्यक्त शब्द करता रहेगा, कोई जोरसे अव्यक्त शब्द करता रहेगा, कोई सोता रहेगा, कोई कपडेका अंचल पकडकर लटकता रहेगा, कोई आगसे जल जायगा, कोई दातसे काटता रहेगा, कोई वमन करता रहेगा, कोई पाखाना करता रहेगा, कोई मूत्र करता रहेगा। इसलिये उन बच्चोंका पेशाब पाखाना वमनसे भरी हुई तथा मैले कपडोंसे कान्तिहीन, यावत् अशुचि, बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धित हो राष्ट्रकूटके साथ अपने विपुल भोगोंको भोगनेमें समर्थ न हो सकेगी ॥६॥ કરતાં રહેશે, કેઈ આર્તસ્વરથી રૂદન કરશે, કેઈ બચ્ચાં કૂજતા ( ટૌકા કરતાં) અવ્યક્ત ન સમજાય તેવા શબ્દ બોલ્યા કરશે. કોઈ જોરથી અવ્યક્ત શબ્દ કર્યા કરશે, કઈ સુતાં રહેશે, કઈ કપડાંના છેડા પકડીને લટકયા કરશે, કઈ અગ્નિમાં અળી જાશે, કઈ દાંત વડે કરડવા લાગશે, કેઈ ઉલટી કરશે, કેઈ ઝાડે ફરતાં રહેશે, કઈ સુતર્યા કરશે. આ માટે તે બચ્ચાંના પેશાબ-પાયખાના-ઉલ્ટીથી ભરેલી મેલા કપડાંથી કાન્તિહીન એટલે અશુચિ, બીભત્સ અત્યન્ત દુર્ગન્ધિત થઈ રાષ્ટ્રકૂટની સાથે પિતાના વિપુલ ભેગ ભેળવવામાં સમર્થ નહિ થઈ શકશે. (). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बदुपुत्रिका देवी ३६९ तएणं तीसे सोमाए माहणीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं इमेहिं बहहिं दारगेहि य जाव डिमियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेजएहि य जाव अप्पेगइहिं मुत्तमाणेहिं दुज्जाएहिं दुजम्मएहिं हयविप्पहयभग्गेहिं एगप्पहारपडिएहिं जाणं मुत्तपुरीसवमियमुलिचोवलित्ता जाव परमदुभिगंधा नो संचाएमि रहकूडेण सद्धि जाव भुंजमाणी विहरित्तए । तं धनाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जीवियफले जाओणं वंझाओ अवियाउरीओ जाणुकोप्परमायाओ सुरमिसुगंधगंधियाओ विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणीओ विहरंति, अहं णं अधन्ना अपुण्णा अकयपुण्णा नो संचाएमि रहकूडेणं सद्धिं विउलाइं जाव विहरित्तए । - छायाततः खलु तस्याः सोमाया ब्रामण्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्सा अयमेतद्रूपो यावत् समुदपद्यतएवं खल्लु अमेभिर्बहुभिर्दारकैन यावद् डिम्भिकाभिश्च अप्येककैः उत्तानशयकैश्च यावद् अप्येककैमूत्रयद्भिः दुर्जातैः दुर्जन्मभिः इतविमहतभाग्यैश्च एकमहारपतितैः या खलु मूत्रपुरीषवमितमुलिप्तोपलिता यावत् परमदुरमिगन्धा भो नोमि राष्ट्रकूटेन साई यावद् भुजाना विहर्तुम् । तद् धन्याः खलु ता अम्बिका याषद् जीवितफलं याः खलु वन्ध्या अनिमननशीला जानुकूपरमातरः मुरमिसुगन्धगन्धिका विपुलान् मानुष्यकार मोगभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति, अहं खलु अधन्या अपुण्या नो शनीकि राष्ट्रकूठेन साई विगुलान् यावद् विहर्तुम् । શ્રી નિયાવલિકા સૂત્ર Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० _३ पुष्पितासूत्र तेणं कालेणं २ मुन्वयाओ नाम अजाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुव्विं जेणेव विभेले संनिवेसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गरं जाव विहरति । तएणं तासिं सुव्वयाणं अजाणं एगे संघाडए विभेले सनिवेसे उच्चनीय जाव अडमाणे रटकूडस्स गिहं अणुपवितु । तएणं सा सोमा माहणी ताओ अजाओ एज्जमाणीओ पासइ, पासित्ता हतुट्ठा० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टित्ता सत्तकृपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वंदइ नमसइ, विउलेणं असण ४ पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अज्जाओ रट्टकूडेणं सद्धि विउलाइ जाव संवच्छरे २ जुगलं पयामि, सोलसहिं संवच्छरेहिं बत्तीस दारगरूवे पयाया। तएणं अहं तेहिं बहूहिं दारएहि य जाव डिभियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ताणसिज्जएहिं जाव मुत्तमाणेहिं दुजाएहिं जाव नो संचाएमि रटकूडेणं तस्मिन् काले तस्मिन् समये सुव्रता नाम आर्या इसिमिता यावद् बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्वी यत्रैव वेभेलः सनिवेशस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यथामतिरूपम् अवग्रहं यावद् विहरन्ति । ततः खलु तासां सुव्रतानामार्याणाम् एकः संघाटको वेभेले सन्निवेशे उच्चनीच० यावत् अटन् राष्ट्रकूटस्य गृहमनुमविष्टः । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी ता आर्या एजमानाः पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टा० शिममेव० आसनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगत्य वन्दते नमस्यति विपुलेन अशन० ४ प्रतिलम्भयति, प्रतिलम्भ्य एवमवादात्-एवं खलु अहमार्याः ? राष्ट्रकूटेन सार्द्ध विपुलान् यावत् संवत्सरे २ युगलं प्रजनयामि षोडशभिः संवत्सरैः द्वात्रिंशद् दारकरूपान् प्रजाता । ततः खलु अहं तैर्बहुभिदारकैश्च यावद् डिम्भिकाभिश्च अप्येककैः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३७१ सद्धि विउलाई भोगभोगाइं मुंजमाणी विहरित्तए, तं इच्छामि गं अजाओ! तुम्हं अंतिए धम्म निसामित्तए । तएणं ताओ अन्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं जाव केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेइ । तएणं सा सोमा माहणी तासिं अजाणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठा जाव हियया ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीसदहामि णं अज्जाओ ! निग्गंथं पावयणं जाव अब्भुढेमि णं अजाओ निग्गंथं पावयणं, एवमेयं अजाओ जाव से जहेयं तुम्भे वयह, जं नवरं अज्जाओ ! रहकूड आपुच्छामि । तएणं अहं देवाष्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं । तएणं सा सोमा माहणी ताओ अजाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ ॥ ७ ॥ उत्तानशयकैः यावत् मूत्रयद्भिः दुर्जातैः यावद् नो शक्नोमि राष्ट्रकूटेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहर्तुम् , तदिच्छामि खलु आर्याः! युष्माकमन्तिके धर्म निशामयितुम् । ततः खलु ता आर्याः सोमाय ब्राह्मण्यै विचित्रं यावत् केवलिप्रज्ञप्तं धर्म परिकथयन्ति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तासामार्याणामन्तिके धर्म श्रुखा निशम्य हृष्टतुष्टा० यावद् हृदया ता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दिला नमस्यिता एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु आर्याः ! निर्ग्रन्थं मवचनम् , इदमेतद् आर्याः ! यावत् यद् यथेदं यूयं वदथ, यद् नवरमार्याः ! राष्ट्रकूटमापृच्छामि । ततः खलु अहं देवानुप्रियाणामन्ति के मुण्डा यावत् प्रव्रजामि । यथासुखं देवानुमिये ! मा प्रतिबन्धम् । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी ता आर्या वन्दते नमस्पति, वन्दिता नमस्यिता प्रतिविसर्जयति ॥७॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ३ पुष्पितासूत्र टीका 'तणं तीसे' इत्यादि - दुर्जातै:- दुष्टं जातं प्रादुर्भावो येषां ते तथा तैः, अत एव - दुर्जन्मभिः = दुष्टं = कुत्सितं जन्म येषां मम दुःखदायित्वात् ते तथा तैः, " 'तएणं तीसे ' इत्यादि उसके बाद एक समय पिछली रातमें कुटुम्बजागरणा करती हुई उस सोमा ब्राह्मणीके आत्मामें इस प्रकारका विचार उत्पन्न होगा कि अहो ! मैं मलमूत्र करनेवाले इन बहुतसे अभागे दुखदायी थोडे २ दिनोमें उत्पन्न होनेवाले, दुर्जन्मा छोटे बडे और नवजात शिशुओंके द्वारा मलमूत्र और वमनसे लिपी - पुती अत्यन्त दुर्गन्धमयी होकर राष्ट्रकूट के साथ सुखका अनुभव नहीं कर पाती हूँ । वे माताएँ धन्य हैं और उनका जीवन बच्चा नहीं होता, जो जानुकूर्परमाता हैं जो सुगन्ध द्रव्योंसे सुवासित हो मनुष्य सम्बन्धी भोगोंको भोगती हुई विचर रही हैं, मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ, जो कि मैं राष्ट्रकूटके साथ विपुल भोगोंको नहीं भोग सकती हूँ । सफल है, जो बन्ध्या हैं, जिन्हें 'तपणं तोसे ' इत्याहि . ત્યાર પછી એક સમય પાછલી રાતે કુટુંબ જાગરણ કરતાં તે સેમા બ્રાહ્મણીના મનમાં એવા વિચાર ઉત્પન્ન થશે કેઃ—અહા ! હું મળમૂત્ર કરવાવાળાં આ ઘણાં કમનશીખ દુ:ખદાયી ચેાડા થાડા દિવસેામાં જન્મ લેવાવાળાં દુ મા નાનાં મેટાં અને નવાં જન્મેલાં ખાળાનાં મળમૂત્ર તથા નમનથી લીંપાયેલ, ખરડાયેલ અત્યંત દુન્ધિમયી બની હોવાથી રાષ્ટ્રકૂટની સાથે સુખને અનુભવ લઈ શક્તી નથી. તે માતાઓને ધન્ય છે અને તેમના જીવન સફળ છે કે જે વાંઝણી છેજેને છેકરૂ થતું નથી, જે જાનુકૂરમાતા છે, જે સુગંધી દ્રવ્યેાથી સુવાસિત થઇને મનુષ્ય સંબંધી ભાગા ભાગવતી વિચરે છે. હું અધન્ય છું, અપુણ્યા છું જેથી હું રાષ્ટ્રકૂટની સાથે વિપુલ લાગેાને ભોગવી શક્તી નથી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी ३७३ उस काल उस समयमें सुव्रता नामकी आर्याएँ ईर्यासमिति आदिसे युक्त बहुत सी साध्वियोंके साथ तीर्थंकर परम्परासे विचरती हुई बेभेल सन्निवेशमें आवेंगी और यथोचित अवग्रह लेकर वहाँ रहने लगेंगी। बाद उसके एक दिन उन सुव्रता आर्याओंका एक संघाटक वेभेल सनिवेशके उच्च नीच मध्यम कुलमें फिरता हुआ राष्ट्रकूटके घरमें आयेगा। उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी आती हुई उन आर्याओंको देखेगी देखकर हृष्ट तुष्ट हृदय हो शीघ्रातिशीघ्र अपने आसनसे उठ कर खडी होगी। और उन आर्याओंका आदर सत्कार करनेके लिए सात आठ पग आगे जायेगी। अनन्तर वन्दन और नमस्कार कर विपुल अशन पान आदिसे प्रतिलाभित करेगी। और उनसे इस प्रकार कहेगी-हे देवानुप्रिये । राष्ट्रकूटके साथ विपुल भोगोंको भोगती हुई हमने प्रत्येक वर्षमें युगल बच्चोंको जन्म देकर सोलह वर्षों में बत्तीस बचोंको जन्म दिया है। मैं दुर्जन्मा उन बच्चोंके मल-मूत्र और वमन आदिसे सनी–पुती दुर्गन्धित शरीर हो अपने पतिके તે કાળે તે સમયે સુવ્રતા નામની આર્યાએ ઈર્યાસમિતિ આદિ યુક્ત ઘણું સાધ્વીઓની સાથે તીર્થંકર પરંપરાથી વિચરતી બિભેલ સન્નિવેશમાં આવશે અને યથોચિત અવગ્રહ લઈને ત્યાં રહેવા લાગશે. પછી એક દિવસ તે સુત્રતા આર્યાએનું એક સંઘાડું બિભેલ સન્નિવેશના ઊંચા નીચા અને મધ્યમ કુલમાં ફરતાં ફરતાં રાષ્ટ્રકૂટના ઘરમાં આવશે. ત્યાર પછી તે મા બ્રાહ્મણ તે આયોઓને આવતી જશે અને તેમને જોઈને હુતુષ્ટ અંત:કરણથી જલદી જલદી પિતાને આસનેથી ઉઠીને ઉભી થશે અને તે આર્થીઓને આદર સત્કાર કરવા માટે સાત આઠ પગલાં સામે જાશે ત્યાર પછી વન્દન અને નમસ્કાર કરીને સારી રીતે અશનપાન આદિથી પ્રતિલાભિત કરશે (વહરાવશે) અને તેમને આ પ્રકારે शे: હે દેવાનુપ્રિયે ! રાષ્ટ્રકૂટની સાથે વિપુલ ભેગેને ભગવતી મેં પ્રત્યેક વર્ષે એક જોડકાં બાળકને જન્મ આપતાં સોળ વર્ષમાં બત્રીસ બચ્ચાંને જન્મ આપ્યો છે. હું દુર્જન્મા તે બચ્ચાંના મળમૂત્ર અને ઉલટી આદિથી લીપાયેલી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ३ पुष्पितासूत्र हतविपहतभाग्यैः सर्वथा भाग्यहीनैः । एकमहारपतितैः अल्पकालेनैव मम कुक्ष्यवतीर्णैः । शेषं सुगमम् ॥ ७॥ साथ कुछ भी आनन्द भोग नहीं कर पाती। हे आर्याएँ ! मैं आप लोगोंके समीप धर्म सुनना चाहती हूँ। उसके बाद वे साध्विया सोमा ब्राह्मणीको विचित्र यावत् केवलि प्ररूपित धर्मका उपदेश देंगी। ____ उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंसे धर्म सुनकर उसे हृदयमें अवधारित कर हृष्ट तुष्ट हो अत्यन्त हर्षयुक्त हृदयसे उन आर्याओंका वन्दन और नमस्कार करके इस प्रकार कहेगी हे आर्याओं ! मैं निम्रन्थ प्रवचनपर श्रद्धा रखती हूँ, और निम्रन्थ प्रवचन को सम्मानित करती हूँ। हे देवानुप्रिये ! जो आप कहती हैं वही सत्य है। मैं राष्ट्रकूटको पूछती है, बादमें आपके पास मुण्डित होकर प्रव्रजित होऊँगी। દુર્ગધવાળાં શરીરે મારા પતિની સાથે કઈ જાતને આનંદ ભાગ કરી શક્તી નથી. હે આર્યાઓ! હું આપ લેકેની પાસે ધર્મ સાંભળવા માગું છું ત્યાર પછી તે સાધ્વીઓ સેમા બ્રાહ્મણને વિચિત્ર એટલે કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મને ઉપદેશ આપશે. ત્યાર પછી તે મા બ્રાહ્મણ તે આર્થીઓ પાસેથી ધર્મ સાંભળીને તે હૃદયમાં ધારણ કરીને દુષ્ટ તુષ્ટ થઈને અત્યંત હર્ષયુક્ત હૃદયથી તે આર્થીઓને વંદન અને નમસ્કાર કરીને આ પ્રકારે કહેશે – હ આર્યાઓ ! હું નિન્ય પ્રવચન ઉપર શ્રદ્ધા રાખું છું અને નિગ્રન્થ પ્રવચનને સન્માનિત કરું છું. હે દેવાનુપ્રિયે ! જે આપ કહો છે તેજ સત્ય છે. હું રાષ્ટ્રકૂટને પૂછું છું. પછી આપની પાસે મુંડિત થઈને પ્રજિત થઈશ. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी मूलम्तएणं सा सोमा माहणी जेणेव रटकूडे तेणेव उवागया करतलक एवं वयासी-एवं खलु मए देवाणुप्पिया ! अजाणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिए जाव अभिरुचिए, तएणं अहं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अब्भणुनाया सुव्वयाणं अजाणं जाव पव्वइत्तए । तए णं से रहकूडे सोमं माहणि एव वयासी-मा ण तुमे देवाणुप्पिए ! इदाणिं मुंडा भवित्ता जाव पव्वयाहि । भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई, ततो पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अजाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयाहि । तएणं सा सोमा माहणी व्हाया जाव सरीरा चेडियाचकवाल छायाततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी यत्रैव राष्ट्रकूटस्तत्रैव उपागता करतल० एवमवादी-एवं खलु मया देवानुपियाः ! आर्याणामन्ति के धर्मो निशान्तः ( श्रुतः ) सोऽपि च खलु धर्म इष्टो यावद् अभिरुचितः, ततः खलु अहं देवानुप्रियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सुव्रतानामार्याणां यावत् प्रवजितुम् । ततः खलु स राष्ट्रकूटः सोमां ब्राह्मणीमेवमवादीत-मा खलु देवानुपिये ! इदानीं मुण्डा भूला यावत् प्रव्रज, मुव तावद् देवानुपिये ! मया सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् , ततः पश्चाद् भुक्तभोगा मुव्रतानामार्याणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रव्रज । ततः खलु सा सोमा उसके बाद आर्याने कहा-जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो। शुभ काममें प्रमाद मत करो। उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंको वन्दन और नमस्कार कर विसर्जन करेगी ॥ ७ ॥ ત્યાર પછી આર્થીઓ કહે છે –જેવી રીતે તને સુખ થાય તેમ કર. શુભ કામમાં પ્રમાદ ન કર. ત્યાર પછી તે મા બ્રાહ્મણ તે આર્યાઓને વંદન અને નમસ્કાર કરી વિસર્જન કરશે, (૭) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____३ पुष्पितासूत्र परिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता विभेल संनिवेसं मझमझेण जेणेव सुव्बयाणं अजाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवासच्छित्ता सुन्चयाओ अजाओ वंदइ नमसइ पन्जुवासइ । वएणं ताओ सुचयाओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म करिकहेइ, जहा जीवा वझंति । तएणं सा सोमा माहणी सुव्बयाणं अज्जाणं अंतिए जाच दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता सुब्वयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । तएणं सा सोमा माहणी समणोवासिया जाया अभिगत० जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरइ ।। तएणं ताओ सुव्वयाओ अज्जाओ अण्णया कयाइ विभेलाओ संनिवेसाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमंति, बहिया जणवयविहारं विहरंति ॥८॥ ब्राह्मणी राष्ट्रक्टस्य एतमर्थ प्रतिशृणोति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी स्नाता यावत् सर्वालङ्कारभूषितशरीरा चेटिकाचक्रवालपरिकीर्णा स्वस्माद् गृहात मतिनिष्क्रामतिः प्रतिनिष्क्रम्य वैभेलं संनिवेश मध्यमध्येन यत्रैव मुव्रतानामार्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति; उपागत्य सुव्रता आर्या वन्दते नमस्यति पर्युपास्ते । ततः खलु ताः सुव्रता आर्याः सोमाय ब्राह्मण्यै विचित्रं केवलिपज्ञप्तं धर्म परिकययन्ति, यथा जीवा बध्यन्ते । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी मुव्रतानामार्याणामन्तिके यावद् द्वादशविधं श्रावकधर्म प्रसिपद्यते, मतिपद्य सुव्रता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थिता यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेवदिशं मतिगता । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका जाता अभिगत० यावत् आत्मानं भावयन्ती विहरति । ___ ततः खलु ताः सुव्रता आर्या अन्यदा कदाचित् वेभेलात् संनिवेशात प्रतिनिष्कामन्ति, बहिर्जनपदविहारं विहरन्ति ॥ ८ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी टीका " तणं सा' इत्यादि - व्याख्या पठितसिद्धा ॥ ८ ॥ 4 तणं सा ' इत्यादि - उसके बाद वह सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटके पास आयेगी और हाथ जोडकर इस प्रकार कहेगी - हे देवानुप्रिय ! मैंने आर्याओंके समीप धर्म सुना । वह धर्म भी मुझे इष्ट प्रिय और हितकारक जान पडा और अच्छा लगा, इसलिये हे देवानु - प्रिय ! मेरी इच्छा है कि तुमसे आज्ञा लेकर मैं उन आर्याओंके पास जाऊँ और दीक्षा ग्रहण करूँ । सोमा ब्राह्मणीका ऐसा वचन सुनकर राष्ट्रकूट उससे कहेगा- 6 ३७७ हे देवानुप्रिये ! अभी तुम मुण्डित होकर प्रत्रजित मत होओ । हे देवानुप्रिये ! अभी तुम मेरे साथ विपुल भोगोंका भोग करो । उसके बाद भुक्तभोगा होकर सुव्रता आर्याके पास प्रव्रजित होना । सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटकी इस सलाहको मान जायगी। बाद में वह सोमा ब्राह्मणी स्नान करके सभी प्रकारों के अलङ्कारों से 1 , ago a' cuile. ત્યાર પછી તે સેમા બ્રાહ્મણી રાષ્ટ્રકૂટની પાસે આવશે અને હાથ જોડીને આ પ્રકારે કહેશે:—હૈ દેવાનુપ્રિય ! મેં આર્યએ પાસેથી ધર્મનું શ્રવણ ક્યું. તે ધર્મ પણ મને ઇષ્ટ પ્રિય અને હિતકારક લાગ્યા ને સારા પણ જણાયેા છે. માટે હે દેવાનુપ્રિય ! મારી ઈચ્છા છે કે તમારી આજ્ઞા લઈને હું તે આર્યા પાસે જાઉં અને દીક્ષા ગ્રહણ કરૂં. સામા બ્રાહ્મણીનાં એવાં વચન સાંભળી રાષ્ટ્રકૂટ તેને કહેશે:-~~ હૈ દેવાનુપ્રિયે ! હાલ તુ સુડિત થઈને પ્રત્રજિત ન થા. હૈ દેવાનુપ્રિય ! હાલ તા મારી સાથે વિપુલ ભાગાને ભાગવ. ત્યાર પછી ભુક્તભાગા થઇ સુત્રતા આર્યોની પાસે પ્રત્રજિત થજે. સામા બ્રાહ્મણી રાષ્ટ્રકૂટની આ સલાહને માની જશે. પછી તે સામા બ્રાહ્મણી સ્નાન કરીને તમામ જાતનાં ઘરેણાં-ગાંઠાંથી અલંકૃત શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ३ पुष्पितासूत्र अलङ्कृत हो दासियोके समूहसे घिरी हुई अपने घरसे निकल कर निमेल सन्निवेशके मध्य भागसे होती हुई सुव्रता आर्याओंके उपाश्रयमें आयेगी। आकर वह सुव्रता आर्याको वन्दन और नमस्कार कर सेवा करेगी । उसके बाद वे सुव्रता आर्या उस उस सोमा ब्राह्मणीको अनेक प्रकारसे विचित्र केवलि प्रज्ञात धर्मका उपदेश करेगी'जिस प्रकार जीव कर्मसे बद्ध होते हैं और मुक्त होते हैं ' । इस प्रकार केवलि प्ररूपित धर्म सुनकर वह सोमा ब्राह्मणी सुत्रता आर्याके पास यावत् बारह प्रकारका श्रावक धर्मको स्वीकार करेगी। बाद उन आर्याओंको वन्दन-नमस्कार कर जिस दिशासे आयेगी उसी दिशामें लौट जायगी । तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी श्रमणापासिका बनेगी। और सभी जीव अजीव आदि तत्त्वोंको जानकर श्रावकवतसे आत्माको भावित करती हुई विचरेगी । उसके बाद वह सुव्रता आर्या किसी समय विभेल सन्निवेशसे निकलकर बाहर देशमें विहार करती हुई विचरेगी ॥८॥ થઈ દાસીઓની મંડળીમાં ઘેરાઈને પોતાના ઘરમાંથી નીકળી બિભેલ સન્નિવેશના મધ્ય ભાગમાંથી થઈને સુત્રતા આર્યાઓના ઉપાશ્રયમાં આવશે આવીને તે સુવ્રતા આર્યાને વંદન નમસ્કાર કરી સેવા કરશે ત્યાર પછી તે સુત્રતા આર્યાએ તે સમા બ્રાહ્મણને વિચિત્ર કેવલી પ્રજ્ઞમ ધર્મને-અનેક પ્રકારે ઉપદેશ કરશે જે પ્રકારે જીવ કર્મથી બંધાય છે અને મુક્ત થાય છે. ઈત્યાદિ કેવલી પ્રરૂપિત ધર્મ સાંભળીને તે સામા બ્રાહ્મણ સુત્રતા આર્થીઓની પાસે બાર પ્રકારના શ્રાવકધર્મને સ્વીકાર કરશે. પછી તે આર્યાઓને વંદન-નમસ્કાર કરીને જે દિશાથી તેઓ આવી હશે તે દિશામાં પાછી જશે. ત્યાર પછી તે સામા બ્રાહ્મણી શ્રમણ ઉપાસિકા બનશે અને બધાં જીવ અજીવ આદિ તને જાણી શ્રાવક વ્રતથી આત્માને ભાવિત કરતી વિચરશે. ત્યાર પછી સુત્રતા આર્યાએ કેઈ સમયે ખિભેલ સન્નિવેશથી નીકળીને બીજા शिक्षा विहाR 5२ती वियरले. (८) શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी मूलम् — तणं ताओ सुव्वयाओ अज्जाओ अन्नया कयाइ पुव्वाणुपुवि जाव विहरइ । तरणं सा सोमा माहणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्टतुट्ठा व्हाया तहेव निग्गया जाव वंदइ नमसर, वंदित्ता नर्मसित्ता धम्मं सोच्चा जान नवरं रट्ठकूडं आपुच्छामि, तरणं पव्वयामि । अहासुहं० । तरणं सा सोमा माहणी सुव्वय अज्जं वंदइ नमसर, वंदित्ता नमंसित्ता सुव्वयाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव रट्ठकूडे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता करतल परिग्गहियं० तहेव आपुच्छइ जाव पव्वइत्तए । अहासुहं देवाप्पिए ! मा पडिबंधं । तरणं से रटुकडे विउलं असणं तहेव जाव पुव्वभवे सुभद्दा जाव अज्जा जाता, इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी । तरणं सा सोमा अज्जा सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई ३७९ छाया ततः खलु ताः सुव्रता आर्या अन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्वी यावद् विहरन्ति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी अस्याः कथाया लब्धार्था सती हृष्टतुष्टाः स्नाता तथैव निर्गता यावद् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्विा धर्म श्रुत्वा यावद् नवरं राष्ट्रकूटमापृच्छामि, यथासुखम् । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी सुत्रतामार्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा सुव्रतानामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव स्वकं गृहं यत्रैव राष्ट्रकूटस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीत० तथैव आपृच्छति यावत् प्रव्रजितुम् । यथासुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिबन्धम् । ततः खलु स राष्टकूटो विपुलमशनं तथैव यावत् पूर्वभवे सुभद्रा यावद् आर्या जाता, ईर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा सोमा आर्या सुब्रतानामार्याणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहुभिः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ पुष्पितासूत्र अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं छट्ठम दसम दुवालस० जाव भावेमाणी बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा सकस देविंदस्स देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उववना । तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं दोसागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सोमस्स वि देवस्स दोसागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ३८० से णं भंते ! सोमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खणं जाव चयं चत्ता कहिं गच्छिहिए ? कहिं उववज्जिहि ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाव अंतं काहि । एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते ॥ ९ ॥ || पुफियाए चउत्थं अज्झयणं समत्त ॥ ४ ॥ षष्ठाष्टमदशमद्वादश० यावद् भावयन्ती बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया षष्टिं भक्तानि अनशनेन छिवा आलोचितमतिक्रान्ता समाधिप्राप्ता कालमासे कालं कृत्वा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सामानिकदेवतया उदपद्यत । तत्र खलु अस्त्येकैकेषां देवानां द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र खलु सामस्यापि देवस्य द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । स खलु भदन्त ! सोमो देवः तस्माद् देवलोकाद् आयुः क्षयेण यावत् चयं च्युत्वा क्व गमिष्यति ? क्व उत्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे यावद् अन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बूः । श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन चतुर्थस्याध्ययस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः ॥ ९ ॥ ॥ पुष्पितायां चतुर्थयाध्ययनं समाप्तम् ॥ ४ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी टीका'तएणं ताओ' इत्यादि-व्याख्या निगदसिद्धा ॥ ९ ॥ 'तएणं ताओ' इत्यादि उसके बाद वह सुत्रता आर्या किसी समय पूर्वानुपूर्वी विचरती हुई फिर विभेल सन्निवेशमें आएगी और वसतिकी आज्ञा लेकर वहाँ तप संयमसे आत्माको भावित करती हुई रहेगी। बाद वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंके आनेका समाचार पाकर हृष्ट तुष्ट हृदय हो स्नान कर तथा सभी अलङ्कारोंसे विभूषित हो पूर्ववत् उन आर्याओंके पास जाकर यावत् वन्दन और नमस्कार करेगी। वन्दन नमस्कार करके धर्म सुनकर उस आर्यासे कहेगो-हे देवानुप्रिये ! मैं राष्ट्रकूटसे पूछकर आपके समीप मुण्डित होकर प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ। वह आर्या उससे कहेगी-हे देवानुप्रिये ! तुम्हें जिस प्रकार सुख हो वैसा करो। प्रमाद मत करो । उसके बाद सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओंको वन्दन और नमस्कार कर उनके पाससे अपने घरमें राष्ट्रकूटके पास आयेगी। आकर हाथ जोड राष्ट्रकूटसे पूर्ववत् पूछेगी 'तएणं ताओ' त्यादि. ત્યાર પછી તે સુત્રતા આર્યાએ કેઈ સમયે પૂર્વાનુમૂવી વિચરણ કરતાં કરતાં પાછી બિભેલ સન્નિવેશમાં આવશે અને વસ્તીની આજ્ઞા લઈ ત્યાં તપસંયમથી આત્માને ભાવિત કરતી રહેશે. ત્યાર પછી તે મા બ્રાહ્યણી તે આર્થીઓના આવવાના સમાચાર મળતાં હૃષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી સ્નાન કરી તથા ઘરેણાં આભૂષણથી વિભૂષિત થઈ અગાઉની જેમ તે આર્યોની પાસે જઈને વંદન નમસ્કાર કરશે અને વંદન નમસ્કાર કરી ધર્મ સાંભળીને તે આર્થીઓને કહેશે હે દેવાનુપ્રિયે ! હું રાષ્ટ્રકૂટને પૂછીને આપની પાસે મુંડિત થઈને પ્રવજ્યા લેવા ચાહું છું તે આર્યાં તેને કહેશે –હે દેવાનુપ્રિયે ! તને જે પ્રકારે સુખ થાય તેમ કર. માદ ન કર. ત્યાર પછી સેમા બ્રાહ્યણું તે આર્થીઓને વંદન નમસ્કાર કરી તેમની પાસેથી પિતાના ઘરમાં રાષ્ટ્રકૂટની પાસે આવશે. આવીને હાથ જોડી રાષ્ટ્રકૂટને શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ ३ पुष्पितासूत्र कि हे देवानुप्रिय ! मेरी इच्छा है कि मैं तुमसे आज्ञा लेकर सुव्रता आर्याओंके पास प्रव्रजित होऊँ । इस बातको सुनकर राष्ट्रकूट कहेगा। हे देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें सुख हो जैसा करो। इस कार्यको करने में प्रमाद मत करो । उसके बाद वह राष्ट्रकूट विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्य चार प्रकारके भोजन बनवाकर अपने मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको आमंत्रित करेगा । और आदर सत्कार के साथ उनको भोजन करायेगा । जिस प्रकार पूर्वभवमें सुभद्रा आर्या हुई थी उसी प्रकार यह भी आर्या होकर ईयासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी होवेगी । उसके बाद वह सोमा आर्या उन सुत्रता आर्याओंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गों का अध्ययन करेगी, और बहुतसे षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश आदि तपोंके द्वारा आत्माको भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्यायका पालन कर मासिकी संलेखना से साठ भक्तोंको अनशनसे छेदन कर अपने पाप स्थानोंका आलोचन और प्रतिक्रमण कर समाधिको प्राप्त हो काल मासमें काल कर देवेन्द्र शक्रके અગાઉની જેમ પૂછશે કેઃ—હે દેવાનુપ્રિય ! મારી ઇચ્છા છે કે હું તમારી આજ્ઞા લઈને સુત્રતા આર્યાએની પાસે પ્રજિત થાઉં. આ વાત સાંભળી રાષ્ટ્રકૂટ કહેશે:હૈ દેવાનુપ્રિયે ! જેમ તને સુખ થાય તેમ કર. આ કાર્ય કરવામાં પ્રમાદ ન કર. ત્યાર પછી તે રાષ્ટ્રકૂટ વિપુલ ( ઘણા ) અન્નપાન, ખાદ્યસ્વાદ્ય ચાર પ્રકારના લેાજન અનાવરાવી પેાતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન ખંધુઓને આમંત્રણ આપશે અને આદર સત્કાર સહિત તેમને ભાજન કરાવશે. જે પ્રકારે આગલા ભવમાં સુભદ્રા આર્યો થઈ હતી તેજ પ્રકારે આ પણ આર્યો થઈને ઇયસમિતિ આદિથી યુક્ત થઇ યાત્રગુપ્ત બ્રહ્મચારિણી થશે. ત્યાર પછી તે સામા આર્યો તે સુત્રતા આયની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગાનું અધ્યયન કરશે અને ઘણાંએ તપ–૧૪, અષ્ટમ, દશમ, દ્વાદશમ આદિ તપેાથી આત્માને ભાવિત કરતી ઘણાં વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરી પછી માસિકી સ`ખેલનાથી સાઠે ભક્તોને અનશન દ્વારા ( ઉપવાસથી ) છેદન કરી પેાતાનાં પાપસ્થાનાના આલેચન અને પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિને પ્રાપ્ત થઇ કાલ માસમાં કાલ કરી દેવેન્દ્ર શકની સામાનિક દેવ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टोका वर्ग ३ अध्य. ४ बहुपुत्रिका देवी त्रिका देवी ३८३ सामानिक देव होकर उत्पन्न होगी। वहीं एक २ देवकी स्थिति दो सागरोपम है। उस देवलोकमें सोमदेवकी भी स्थिति दो सागरोपम होगी। गौतम स्वामी पूछते हैं-हे भदन्त ! वह सोमदेव आयु भव स्थिति क्षयके बाद उस देवलोकसे च्यवकर कहाँ जायगा ? और कहाँ उत्पन्न होगा ? __ भगवान कहते हैं-हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर यावत् सिद्ध होगा, और सब दुखोंका अन्त करेगा । सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके चतुर्थ अव्ययनके भावोंका निरूपण किया है ॥९॥ ।पुष्पिताका चौथा अध्ययन समाप्त हुआ। થઈને ઉત્પન્ન થશે. ત્યાં એક એક દેવની સ્થિતિ બે સાગરેપમ છે. તે દેવલેકમાં સોમદેવની પણ સ્થિતિ બે સાગરેપમની થશે. ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે:–હે ભદન્ત ! તે સોમદેવ આયુભવ અને સ્થિતિક્ષય પછી તે દેવકમાંથી ચવીને કયાં જશે ? અને કયાં ઉત્પન્ન થશે? ભગવાન કહે છે –-હે ગૌતમ ! મહા વિદેહક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થઈને તે સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઃખને અંત કરશે, સુધર્મા સ્વામી કહે છે –હે જમ્મુ ! આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના ચતુર્થ અધ્યયનના ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે. (૯). પુપિતાનું ચોથું અધ્યયન સમાપ્ત. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ __ ३ पुष्पितासूत्र पञ्चमध्ययनम् मूलम्जइणं भंते ! समणेणं भगवया उक्खेवओ० । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नाम नयरे गुणसिलए चेइए, सेणियराया, सामी समोसरिए, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ पुण्णभदे देवे सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे सभाए मुहम्माए पुण्णभदंसि सोहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं जहा सूरियाभो जाव बत्तीसविहं नट्टविहिं उवदंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए । कूडागारसाला० पुव्वभवपुच्छा । एवं गोयमा ! तेणं कालेणं २ इहेव जम्बूदीवे दीवे भारहे वासे मणिवइया नाम नयरी होत्था रिद्ध०, चंदो राया, ताराइण्णे चेइए। तत्थणं मणिवइयाए नयरीए पुण्णभद्दे नाम गाहावई परिवसइ अड्डे । तेणं कालेणं २ थेरा भगवंतो जातिसंपण्णा जाव जीवियासमरणभयविप्पमुक्का बहुस्सुया वहुपरिवारा छायायदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं गुणशिलं नाम चैत्यम् , श्रेणिको राजा, खामी समवसृतः, परिषद् निर्गता । तस्मिन् काले २ पूर्णभद्रो देवः सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्रे विमाने सभायां सुधर्मायां पूर्णभद्रे सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहः यथा सूर्याभो यावद् द्वात्रिंशद्विधं नाव्यविधिमुपदर्य यस्या दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः, कूटागारशाला, पूर्वभवपृच्छा । एवं गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये अत्रैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे मणिपदिका नाम नगरी अभवत् , ऋद्धस्तिमितसमृद्धा०, चन्द्रो राजा, ताराकीर्ण चैत्यम् । तत्र खलु मणिपदिकायां नगयों पूर्णभद्रो नाम गाथापतिः परिवसति, आढ्यः । तस्मिन् काले શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ५ पूर्णभद्र देव ३८५ पुव्वाणुपुवि जाव समोसढा, परिसा निग्गया । तएणं से पुण्णभद्दे गाहावई इमी से कहाए लट्ठे समाणे हट्ट० जाव पण्णत्तीए गंगदत्ते तहेव निग्गच्छइ जाव निक्खंतो जाव गुत्तबंभयारी । तएणं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवंताणं अंतिए सामाइयमादियाई एकारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्ठट्ठम जाव भाविता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सद्वि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव भाषामणपज्जत्तीए । एवं खलु गोयमा ! पुण्णभद्देणं देवेणं सादिव्वा देवी जाव अभिसमण्णागया । पुण्णभहस्स णं भंते ! देवस केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! दोसागरावमा ठिई पण्णत्ता । पुण्णभद्दे णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ जाव कहिं गच्छिहिर ? कहि तस्मिन् समये स्थविरा भगवन्तो जातिसम्पन्नाः, यावत् जीविताशामरणभयविषमुक्ता बहुश्रुता बहुपरिवाराः पूर्वानुपूर्वी यावत् समवसृताः । परिषत् निर्गता । ततः खलु स पूर्णभद्रो गाथापतिः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टो यावत् प्रज्ञप्त्यां गङ्गदत्तस्तथैव निर्गच्छति यावद् निष्क्रान्तो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स पूर्णभद्रोऽनगारो भगवतामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते; अधीत्य चतुर्थ षष्ठाष्टम० यावद् भावयित्वा बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया षष्टि भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित - प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे काल कृत्वा सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्रे विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावद् भाषामनः पर्याप्त्या । एवं खलु गौतम ! पूर्णभद्रेण देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः यावद् अभिसमन्वागता । पूर्णभद्रस्य खलु भदन्त ! देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विसागरोपमा स्थितिः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ३ पुष्पितासूत्र उववज्जिeिs ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहि जाव अंतं काहि ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निक्खेवओ ॥ १ ॥ ॥ पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥ ५ ॥ प्रज्ञप्ता । पूर्णभद्रः खलु भदन्त ! देवस्तस्माद् देवलोकाद् यावत् क्व गमिष्यति ? व उत्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावदन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बू : ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन निक्षेपकः ॥ १ ॥ ॥ पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ॥ ५ ॥ टीका ' जइणं भंते ' इत्यादि व्याख्या स्पष्टा ॥ १ ॥ ॥ इति पञ्चमाध्ययनं समाप्तम् ॥ ५ ॥ पाँचवाँ अध्ययन. 4 जइणं भंते ' इत्यादि हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके चतुर्थ अध्ययनमें पूर्वोक्त भावका वर्णन किया है तो हे भगवन् ! पञ्चम अध्ययनमें भगवानने किस अभिप्राय का निरूपण किया है ? ' अध्ययन पांयभुं. ' " 'जइणं भंते त्याहि હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતાના ચાથા અધ્યયનમાં પૂર્વોક્ત ભાવાનું વર્ણન કર્યું છે તે હે ભગવન્ ! પાંચમા અધ્યયનમાં ભગવાને ક્યા અભિપ્રાયનું નિરૂપણ કર્યું છે ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ५ पूर्णभद्र देव ३८७ आर्य सुधर्माने कहा हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशिलक नामक चैत्य था। उस नगरका राजा श्रेणिक था । उस कालमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी उस नगरीमें पधारे। भगवानके दर्शनके लिये परिषद निकली। उस काल उस समयमें पूर्णभद्र देव सौधर्म कल्पके पूर्णभद्र विमानमें सुधर्मा सभाके अन्दर पूर्णभद्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोंके साथ बैठे हुए थे वह पूर्णभद्र देव सूर्याभ देवके समान भगवानको यावत् बत्तीस प्रकारकी नाट्यविधि दिखाकर जिस दिशासे आये उसी दिशामें चले गये । गौतमने भगवानसे पूर्णभद्र देवकी देव ऋद्धिके विषय में पूछा भगवानने पूर्ववत् कूटागार शालाके दृष्टान्तसे उन्हें प्रतिबोधित किया। फिर गौतमको उस देवके पूर्वभव जाननेकी जिज्ञासा होनेपर भगवानने कहा-उस काल उस समय इसी मध्य जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें मणिपदिका नामकी नगरी थी, जो बडी २ अट्टालिकाओंसे युक्त तथा बाहरी भीतरी आर्य सुधार :-- હે જમ્મુ ! તે કાળે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું ત્યાં ગુણશિલક નામનું ચૈત્ય હતું. તે નગરને રાજા શ્રેણિક હતો, તે કાળે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી તે નગરીમાં પધાર્યા. ભગવાનનાં દર્શન માટે પરિષદ નીકળી. તે કાળ તે સમયે પૂર્ણભદ્ર દેવ સૌધર્મકલ્પના પૂર્ણભદ્ર વિમાનમાં સુધર્મા સભાની અંદર પૂર્ણભદ્ર સિંહાસન ઉપર ચાર હજાર સામાનિક દેવની સાથે બેઠેલા હતા. તે પૂર્ણભદ્ર દેવ, સૂર્યાભદેવના જેવા ભગવાનને બત્રીસ પ્રકારની નાટયવિધિ બતાવી જે દિશામાંથી આવ્યા તે દિશામાં પાછા ગયા. ગૌતમે ભગવાનને પૂર્ણભદ્ર દેવની દેવત્રદ્ધિના વિષયમાં પૂછયું, ભગવાને પૂર્વવત્ કૂટાગારશાલાના દૃષ્ટાંતથી તેને પ્રતિબંધિત કર્યા પછી ગૌતમને તે દેવના પૂર્વભવ જાણવાની જિજ્ઞાસા થવાથી ભગવાને કહ્યું--તે કાળ તે સમયે આ મધ જમ્બુદ્વીપના ભારત ક્ષેત્રમાં મણિપદિકા નામે નગરી હતી. જેમાં મોટી મોટી અટારિઓવાળી હવેલીઓ હતી તથા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮૮ __३ पुष्पितासूत्र शत्रुओंसे रहित एवं धनधान्य आदिसे सम्पन्न थी। उस नगरीके राजाका नाम चन्द्र था । उसमें ताराकीर्ण नामक एक उद्यान था। उस नगरीमें पूर्णभद्र नामक धनधान्यसम्पन्न गाथापति रहता था। उस काल उस समयमें जातिसम्पन्न कुलसम्पन्न स्थविरपदभूषित मुनिराज यावत् जीवनकी आशा और मरणभयसे रहित, बहुश्रुत तथा बहुत मुनि परिवारसे युक्त तीर्थंकर परम्परासे विचरते हुए मणिपदिका नगरीमें पधारे। जनसमुदायरूप परिषद उनके दर्शनार्थ निकली। उसके बाद वह पूर्णभद्र गाथापति उन स्थविरोंके आनेका वृत्तान्त जानकर हृष्ट तुष्ट हृदयसे भगवती सूत्रमें उक्त गङ्गादत्तके समान उनके दर्शनके लिए गया और धर्मकथा सुनकर यावत् प्रव्रजित होगया। तथा ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी हो गया। उसके बाद उस पूर्णभद्र अनगारने उन स्थविरोंके पास सामायिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययन किया और बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्मा को भावित करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाला । बादमें मासिक संले બહાર તેમજ અંદર શત્રુઓથી રહિત અને ધનધાન્ય આદિથી સંપન્ન હતી. તે નગરીના રાજાનું નામ ચન્દ્ર હતું. તેમાં તારાકીર્ણ નામે એક ઉદ્યાન હતો. તે નગરીમાં પૂર્ણભદ્ર નામે ધનધાન્ય સંપન્ન ગાથાપતિ રહેતા હતા. તે કાળ તે સમયે જાતિસંપન્ન-કુળસંપન્ન સ્થવિર પદથી ભૂષિત એવા મુનિરાજ જે જીવનની આશા અને મરણના ભયથી રહિત તથા બહુશ્રત અને બહમુનિ પરિવારોથી યુક્ત તીર્થંકર પરંપરાથી વિચરણ કરતા મણિપત્રિકા નગરીમાં પધાર્યા જનસમુદાયરૂપ પરિષદુ તેમના દર્શન માટે નીકળી. ત્યાર પછી તે પૂર્ણભદ્ર ગાથાપતિ તે સ્થવિરેના આવવાના ખબર જાણું હૃષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી ભગવતીસૂત્રમાં કહેલ ગંગદત્તની પેઠે તેમના દર્શન માટે ગયા અને ધર્મકથા સાંભળીને યાવત્ પ્રવ્રજિત થઈ ગયા. તથા ઈસમિતિ આદિથી યુક્ત થઈને ગુસબ્રહ્મચારી થઈ ગયા. ત્યાર પછી તે પૂર્ણભદ્ર અનગારે તે સ્થવિરાની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું અને ઘણાં ચતુર્થષક અષ્ટમ આદિ તપથી આત્માને ભાવિત કરીને બહુ વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. પછી માસિકી સંલેખનાથી સાઠ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ५ पूर्णभद्र देव ३८९ खनासे साठ भक्तोंको अनशनसे छेदकर अपने पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधि प्राप्त की । तथा काल अवसरमें कालकर सौधर्म कल्पके पूर्णभद्र विमानमें उपपात सभा के अन्दर देवशयनीय शय्यामें यावत् पूर्णभद्र देवपनेमें उत्पन्न होकर भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पर्याप्तियोंसे पर्याप्तभावको प्राप्त શિયા। હૈ गौतम ! पूर्णभद्र देवने इस प्रकारसे इस दिव्य देव ऋद्धिको प्राप्त किया । गौतम स्वामी पूछते हैं— हे भदन्त ! पूर्णभद्र देवकी स्थिति कितने कालकी है ? भगवान कहते हैं हे गौतम ! पूर्णभद्र देवकी स्थिति दो सागरोपमकी है । गौतमने फिर पूछा हे भदन्त ! यह पूर्णभद्र देव देवलोकसे व्यवकर कहाँ जायगा तथा कहाँ उत्पन्न होगा ? ભક્તોનું અનશન વડે છેદન કરી પેાતાના પાપ સ્થાનાની આલાચના તથા પ્રતિક્રમ કરી સમાધિ પ્રાપ્ત કરી. તથા કાળ અવસર આવતાં કાળ કરી સૌધર્મ કલ્પના પૂર્ણભદ્ર વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીય શય્યામાં તે પૂર્ણભદ્ર દેવપણામાં ઉત્પન્ન થઈને ભાષાપર્યામિ મન પર્યાપ્તિ આદિ પર્યાપ્તિઓથી પર્યાપ્તિબાવાને પ્રાપ્ત કર્યો. હે ગૌતમ ! પૂર્ણ ભદ્રદેવે આ પ્રકારે આ દિવ્ય દેવની ઋદ્ધિને પ્રાપ્ત કરી ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે:-~ હે ભદન્ત ! પૂર્ણ ભદ્ર દેવની સ્થિતિ કેટલા કાળની છે ? ભગવાન કહે છે:— હે ગૌતમ ! પૂર્ણભદ્ર દેવની સ્થિતિ એ સાગરાપમની છે. ગૌતમે વળી પૂછ્યું:— હે ભદન્ત . આ પૂર્ણ ભદ્રદેવ દેવલાકથી શ્રુત થઈને કયાં જશે અને કાં ઉત્પન્ન થશે ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ३ पुष्पितास्त्र मूलम्जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उक्खेवओ०, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामो समोसरिए । तेणं कालेणं २ माणिभद्दे देवे सभाए मुहम्माए माणि छाया यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले २ राजगृहं नगरं, गुणशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा, स्वामी समवसृतः, तस्मिन् काले तस्मिन् समये माणिभद्रो भगवानने कहा हे गौतम ! यह पूर्णभद्र देव महाविदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर सिद्ध होगा और यावत् सब दुःखोंका अन्त करेगा। सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने इस प्रकार पुष्पिताके पांचवें अध्ययनका भाव कहा है सो मैंने तुम्हें कहा ॥१॥ । पुष्पिताका पाँचवा अध्ययन समाप्त हुआ। ભગવાને કહ્યું: હે ગૌતમ ! આ પૂર્ણભદ્રદેવ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થઈ સિદ્ધ થશે અને તમામ દુઃખને અંત આણશે સુધર્મા સ્વામી કહે છે: હે જમ્મુ ! મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આ પ્રકારે પુપિતાના પાંચમા અધ્યયનને ભાવ કહ્યો છે તે મેં તને કહ્યું છે. પુષિતાનું પાંચમું અધ્યયન સમાપ્ત. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ६ माणिभद्र देव ३९१ भद्दंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जहा पुष्णभद्दो, तहेव आगमणं, नट्टविही, पुव्वभवपुच्छा, मणिवया नयरी, माणिभद्दे गाहावई, थेराणं अंतिए पव्वज्जा, एकारस अंगाई अहिज्जर, बहूई वासाई परियाओ, मासिया संलेहणा, सहि भत्ताई०, माणिभद्दे विमाणे उबवाओ, दोसागरोवमा ठिई, महाविदेहे वासे सिज्झिहि । एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ || ॥ छटुं अज्झयणं समत्तं ॥ ६ ॥ देवः सभायां सुधर्मायां माणिभद्रे सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्त्रैर्यावत् पूर्णभद्रस्तथैवाऽऽगमनं, नाव्यविधिः, पूर्वभवपृच्छा, मणिपदा नगरी, माणिभद्रो गाथापतिः, स्थविराणामन्तिके प्रव्रज्या, एकादशाङ्गानि अधीते, बहूनि वर्षाणि पर्यायः, मासिकी संलेखना, षष्टिं भक्तानि०, माणिभद्रे विमाने उपपातः, द्विसागरोपमा स्थितिः, महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति । एवं खलु जम्बू : ! निक्षेपकः ॥ १ ॥ ॥ इति षष्ठाध्ययनं समाप्तम् ॥ ६ ॥ टीका 6 जइणं भंते ' इत्यादि - व्याख्या स्पष्टा ॥ १ ॥ छठा अध्ययन. 6 6 जइणं भंते ' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं भदन्त ! मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने पाँचवें अध्ययनका जइणं भंते त्याहि. જમ્મૂ સ્વામી પૂછે છે:-- હે ભદન્ત ! મેાક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પાંચમા અધ્યયનના " છઠ્ઠું અધ્યયન, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ___३ पुष्पितासूत्र पूर्वोक्त भाव बतलाया है, तो फिर छठे अध्ययनमें उन्होंने किस भावका निरूपण किया है ? भगवान कहते हैं हे जम्बू ! उस काल उस समयमें राजगृह नामका नगर था। उस नगरमें गुणशिलक चैत्य था। श्रेणिक नामके राजा उसमें राज्य करते थे। भगवान महावीर स्वामी उस नगरमें पधारे । परिषद भगवानके वन्दनके निमित्त गई। उस काल उस समयमें माणिभद्र देव सुधर्मा सभामें माणिभद्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवोंके साथ बैठे हुए थे। वे माणिभद्र देव पूर्णभद्रके समान भगवानके पास आये और नाट्यविधि दिखाकर चले गये। गौतमने माणिभद्रको दिव्य देवऋद्धिके बारेमें पूर्ववत् प्रश्न किया। भगवानने कूटागारशालाके दृष्टान्तसे उसका उत्तर दिया । गौतमने माणिभद्र देवके पूर्व जन्मके बारेमें प्रश्न किया । પૂર્વોક્ત ભાવ બતાવ્યું છે તો પછી છઠ્ઠા અધ્યયનમાં તેમણે કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું ભગવાન કહે છે-- હે જબ્બ ! તે કાળે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તે નગરમાં ગુણલિક નામે ચૈત્ય હતે. શ્રેણિક નામના રાજા તેમાં રાજ્ય કરતા હતા. ભગવાન મહાવીર સ્વામી તે નગરમાં પધાર્યા. પરિષદ્ ભગવાનને વંદન કરવા ગઈ. તે કાળ તે સમયે માણિભદ્ર દેવ સુધર્મ સભામાં માણિભદ્ર સિંહાસન ઉપર ચાર હજાર સામાનિક દેવની સાથે બેઠેલા હતા. માણિભદ્ર દેવ પૂર્ણભદ્રની પેઠે ભગવાનની પાસે આવ્યા અને નાટય વિધિ દેખાડી અન્તર્ધાન થઈ ગયા–પાછા જતા રહ્યા. ગૌતમે માણિભદ્રની દિવ્ય દેવ ઋદ્ધિના બાબત અગાઉની પેઠે પ્રશ્ન કર્યો. ભગવાને કૂટાગારશાલાના દષ્ટાંતથી તેને ઉત્તર આપ્યું. ગૌતમે માણિભદ્ર દેવના પૂર્વજન્મ વિષે પ્રશ્ન કર્યો. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ६ माणिभद्र देव ३९३ भगवानने कहा उस काल उस समयमें मणिपदिका नामकी नगरी थी, उसमें माणिभद्र नामका एक गाथापति था। जिसने स्थविरोके समीप प्रव्रज्या ग्रहणकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्यायका पालन किया और मासिक संलेखना की, अनशन द्वारा साठ भक्तोंको छेदनकर पापस्थानोंका आलोचन प्रतिक्रमण करके काल अवसरमें कालकर माणिभद्र विमानमें उत्पन्न हुआ। यहाँ उसकी स्थिति दो सागरोपम है। अन्तमें देवलोकसे च्यव कर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होगा और सब दुःखोंका अन्त करेगा । सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिताके छठे अध्ययनके भावका प्रतिपादन किया। ।पुष्पिताका छठा अध्ययन समाप्त हुआ। लगवाने ह्यु:-- તે કાળ તે સમયે મણિપદિકા નામની નગરી હતી. તેમાં માણિભદ્ર નામે એક ગાથાપતિ હતે. જેણે સ્થવિરેની પાસે પ્રજ્યા ગ્રહણ કરી અગીયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું. ઘણા વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાય, ચારિત્ર પયાયનું પાલન કર્યું. માસિકી સંલેખનાથી અનશન દ્વારા સાઠ ભકતોનું છેદન કરી પાપ સ્થાનની આલોચના પ્રતિકમણ કરી કાળ અવસરમાં કાળ કરીને માણિભદ્ર વિમાનમાં ઉત્પન્ન થયા. ત્યાં તેની સ્થિતિ બે સાગરેપમ છે. આખરે દેવલોકથી એવી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે. અને સર્વે ને અંત લાવશે. સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જબ્બઆ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષિતાના છઠ્ઠા અધ્યયનના ભાવનું પ્રતિપાદન કર્યું. પુષ્પિતાનું છઠું અધ્યયન સમાપ્ત શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ ____३ पुष्पितास्त्र मूलम्एवं दत्ते ७ सिवे ८ बले ९ अणाढिए १० सव्चे जहा पुण्णमद्दे देवे । सव्वेसिं दोसागरोवमाइं ठिई । विमाणा देवसरिसनामा । पुन्वभवे दत्ते चंदणाए, सिवे मिहिलाए, बलो हत्थिणपुरनयरे, अणाढिए काकंदीए, चेइयाई जहा संगहणीए ॥ ॥ तइओ वग्गो सम्मत्तो । छाया एवं दत्तः ७ शिवः ८ बलः ९ अनाहतः १० सर्वे यथा पूर्णभद्रो देवः । सर्वेषां द्विसागरोपमा स्थितिः, विमानानि देवसदृशनामानि, पूर्वभवे दत्तः चन्दनायाम् , शिवो मिथिलायां, बलो हस्तिनापुरे नगरे, अनादृतः काकन्यां, चैत्यानि यथा संग्रहण्याम् ॥ १॥ ॥ इति पुष्पितायां सप्तमाष्टमनवमदशमान्यध्ययनानि समाप्तानि ।। ॥ इति तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥ | टीका‘एवं' इत्यादि-व्याख्या स्पष्टा ॥२॥ पुष्पिताख्यस्तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥ ३ ।। इसी प्रकार ७ दत्त, ८ शिव, ९ बल, १० अनादृत, इन सभी देवोंका वर्णन पूर्णभद्र देव के समान जानना चाहिये । सभीकी स्थिति दो दो આ પ્રકારે ૭ દત્ત, ૮ શિવ, ૯ બલ, ૧૦ અનાદત આ બધા દેવેનું વર્ણન પૂર્ણભદ્ર દેવના જેવું જાણી લેવું જોઈએ. બધાની શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ३ अध्य. ७, ८, ९, १०, दत्त, शिव, बल, अनारत, ३९५ सागरोपम है । इन देवोंके नामके समान ही इनके विमानोका नाम है । ' दत्त , अपने पूर्व जन्ममें चन्दना नगरीमें, 'शिव' मिथिलामें, ' बल ' हस्तिनापुरमें, " अनाहत ' काकन्दीमें जन्मे थे । संग्रहणी गाथाके अनुसार उद्यान जानना चाहिये । ॥ ७ ॥ ८ ॥ ९ ॥ १० ॥ पुष्पिताका सातवाँ, आठवा, नवमा, और दसवा अध्ययन समाप्त हुआ । पुष्पिता नामका तृतीय वर्ग समाप्त हुआ ॥ ३ ॥ સ્થિતિ અમે સાગરોપમ છે. તે દેવાના નામના જેવાજ તેમનાં વિમાનનાં નામ છે. દત્ત પાતાના પૂર્વજન્મમાં ચન્દ્રના નગરીમાં, શિવ મિથિલામાં, અલ હસ્તિનાપુરમાં અનાધૃત કાકન્દીમાં જન્મ્યા હતાં. સંગ્રહણી ગાથા અનુસાર ઉદ્યાન જાણી લેવાં लेो. ॥ ७ ॥ ८ ॥ ७८ ॥ १० ॥ पुष्यितानुं सातभुं -माहभुं - नवभुं दृशभुं અધ્યયન સમાપ્ત. પુષિતા નામે તૃતીય વર્ગ સમાપ્ત. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पुष्पचूलिकासूत्र अथ पुष्पचूलिकाख्यश्चतुर्थों वर्गः ॥ ४ ॥ मूलम्जइण भंते ! समणेणं भगवया उक्खेवओ जाव दस अज्झयणा पण्णत्ता । तं जहा " सिरि-हिरि-पिइ-कित्तीओ, बुद्धी लच्छी य होइ बोधव्वा । इलादेवी सुरादेवी, रसदेवी गंधदेवी य ॥१॥" जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं चउत्थस्स वग्गस्स पुप्फचूलाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता । पढमस्स णं भंते ! उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ सिरि देवी सोहम्मे कप्पे - छाया यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता उत्क्षेपको यावद् दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । तद् यथा " श्री-ही-धृति-कीर्तयो बुद्धिलक्ष्मीश्च भवति बोद्धव्या । इलादेवी सुरादेवी, रसदेवी गन्धदेवी च ॥१॥" यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां चतुर्थस्य वर्गस्य पुष्पचूलानां दशाऽध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त । उत्क्षेपकः, एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा, स्वामी समवमृतः, परिषद् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रीदेवी सौधर्मे कल्पे श्यवतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी ३९७ सिरिवर्डिस विमाणे सभाए सुहम्माए सिरिसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सेहिं चउहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं जहा बहुपुत्तिया जाव नट्टविहि उवदंसित्ता पडिगया | नवरं [ दारय ] दारियाओ नत्थि । पुव्वभवपुच्छा । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए जियसत्तू राया । तत्थं णं रायगिहे नयरे सुदंसणे नामं गाहावई परिवस, अड्डे । तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स पिया नाम भारिया होत्था सोमाला । तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स धूया पियाए गाहावइणीए अत्तया भूया नामं दारिया होत्था बुड्ढा बुड्ढकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडिय - पुयत्थणी वरगपरिवज्जिया यावि होत्था । तेणं कालेणं २ पासे अरहा पुरिसादाणी जाव नवरयणिए, वण्णओ सो चेव, समोसरणं, परिसा निग्गया । तरणं सा भ्रूया दारिया इमी से कहाए लद्धट्ठा समाणी तुट्टा जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी - एवं खलु अम्मताओ ! श्रिय सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्त्रैः चतसृभिर्मह तरिकाभिः सपरिवाराभिः यथा बहुपुत्रिका यावद् नाट्यविधिमुपदश्ये प्रतिगता | नवरं [ दारक ] दारिका न सन्ति । पूर्वभवपृच्छा । एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं, गुणशिलं चैत्यं, जितशत्रू राजा । तत्र खल्लु राजगृहे नगरे सुदर्शनो नाम गाथापतिः परिवसति, आढ्यः सुदर्शनस्य गाथापतेः प्रिया नाम भार्या अभवत् सुकुमारा । तस्य खलु सुदर्शनस्य गाथापतेः दुहिता प्रियाया गाथापतिकाया आत्मजा भूता नाम दारिका - अभवत् वृद्धा वृद्धकुमारी जीर्णा जीर्णकुमारी पतितपुतस्तनी वरपरिवर्जिता चापि अभवत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्वोऽर्हन् पुरुषादानीयो यावद् नवरत्निको वर्णकः सएव, समवसरणं, परिषद् निर्गता । ततः खलु सा भूता दारिका अस्याः कथाया लब्धार्था सती हृष्टतुष्टा० यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य एवमवादीत्-एवं खलु तस्य खलु શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ३९८ ४ पुष्पचूलिकासूत्र पासे अरहा पुरिसादाणीए पुवाणुपुचि चरमाणे जाव देवगणपरिखुडे विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गामेत्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं । तए णं सा भूया दारिया हाया० जाव सरीरा चेडीचकवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा । तएणं सा भूया दारिया निययपरिवारपरिवुडा रायगिहं नयरं मझमझेण निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए० पासइ; धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता चेडीचकवालपरिकिण्णा जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासइ । तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए भूयाए दारियाए तीसे महइ० धम्मकहा, धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट० वंदइ, वंदित्ता एवं वयासीसदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव अब्भुअम्बतातौ ! पार्थोऽर्हन् पुरुषादानीयः पूर्वानुपूर्वी चरन् यावद् देवगणपरिवृतो विहरति, तद् इच्छामि खलु अम्बतातौ ! युवाभ्यामभ्यनुज्ञाता सती पार्श्वस्याऽर्हतः पुरुषादानीयस्य पादवन्दनाय गन्तुम् , यथासुखं देवानुपिये ! मा प्रतिबन्वम् । ततः खलु सा भूता दारिका स्माता यावत् सर्वालङ्कारविभूषितशरीरा चेटीचक्रवालपरिकीर्णा स्वस्माद् गृहात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानमवरं दूरूढा । ततः खलु सा भूता दारिका निजपरिवारपरिवृता राजगृहं नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव गुणशिलं चैत्यं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य छत्रादीन् तीर्थकरातिशयान् पश्यति । धार्मिकात् यानभवरात् प्रत्यवरुह्य चेटीचक्रवालपरिकोर्णा यत्रैव पार्थोऽहंन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य विकृत्वो यावत् पर्युपास्ते । ततः खलु पार्थोऽहंन् पुरुषादानीयो भूतायै दारिकायै तस्यां महातिमहत्यां० धर्मकथा । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी टेमिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं, से जहे तं तुब्भे वदेह, जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं जाव पव्वइत्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! । तएणं सा भूया दारिया तमेव धम्मियं जाणप्पवरं जाव दुरूहइ, दुरूहित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागया, रायगिह नयरं मझं मज्झेण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया, रहाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागया, करतल० जहा जमाली आपुच्छइ । अहासुहं देवाणुप्पिए ! तएणं से सुदंसणे गाहावई विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, मित्तनाइ० जाव जिमियभुत्तुत्तरकाले सुईभूए निक्खमणमाणित्ता कोडंवियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! भूयादारियाए पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं उवटवेह, उचढवित्ता जाव पञ्चप्पिणह । तएणं ते जाव पञ्चप्पिणति ॥ १ ॥ धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा० वन्दते, वन्दित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु भदन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनं यावद् अभ्युत्तिष्ठामि खलु भदन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम् , तद् यथैतद् यूयं वदथ; यद् नवरं देवानुप्रिय ! अम्बापितरौ आपृच्छामि । ततः खलु अहं यावत् प्रव्रजितुम् । यथासुखं देवानुपिये ! ततः खलु सा भूता दारिका तदेव धार्मिकं यानप्रवरं यावद् दूरोहति, दूरुह्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैवोपागता, राजगृहं नगरं मध्यमध्येन यत्रैव स्वं गृहं तत्रैवोपागता, स्थात् प्रत्यवरुह्य यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैवोपागता, करतल० यथा जमालिः आपृच्छति । यथासुखं देवानुपिये ! ततः स सुदर्शनो गाथापतिः विपुलमशनम् ४ उपस्कारयति, मित्रज्ञाति० आमन्त्रयति, आमन्त्र्य यावत् जिमितभुक्त्युत्तरकाले शुचिभूतो निष्क्रमणमाज्ञाप्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीव-क्षिप्रमेव भो देवानुमियाः ! भूतादारिकायै पुरुषसहस्रवाहिनी शिबिकामुस्थापयत, उपस्थाप्य० प्रत्यर्पयत । ततः खलु ते यावत् प्रत्यर्पयन्ति ॥ १ ॥ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० टीका ' जइणं भंते ' इत्यादि व्याख्या सुगमा ॥ १ ॥ चतुर्थ वर्ग ( ४ ) पुष्पचूलिका. 4 जइणं भंते ' इत्यादि जम्बूस्वामी पूछते हैं— हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पिता वर्गमें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है । उसके बाद उन्होंने क्या कहा है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! उसके बाद भगवानने पुष्पचूलिका वर्गका निरूपण किया है। उसमें उन्होंने दस अध्ययन बतलाये हैं। जोकि इस प्रकार हैं- (१) श्री, (२) हूी, (३) धी, ( ४ ) कीर्त्ति, (५) बुद्धि, (६) लक्ष्मी, ( ७ ) इलादेवी, (८) सुरादेवी, ( ९ ) रसदेवी, (१०) गन्धदेवी ॥ चतुर्थ वर्ग ( ४ ) પુચૂલિકા. ८ 'जइणं भंते' इत्याहि. ४ पुष्पचूलिकासूत्र જમ્મૂ સ્વામી પૂછે છે:-~~ હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પિતા વર્ગ માં દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. ત્યાર પછી તેમણે શું કહ્યું છે ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર હે જમ્મૂ ! ત્યાર પછી ભગવાને પુષ્પચૂલિકા વર્ગનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેમાં તેઓએ દશ અધ્યયન બતાવ્યાં છે. જેનાં નામ આવા પ્રકારના છે;—(૧) શ્રી, (ર) હી, (3) घी, (४) डीर्ति, (य) बुद्धि, (६) लक्ष्मी, (७) साहेवी, (८) सुराहेवी, (c) रसहेवी, (१०) गन्धदेवी. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी ४०१ हे जम्बू ! इस प्रकार भगवानने दस अध्ययनोंका निरूपण किया है। जम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पचूलिका नामक चतुर्थवर्ग रूप उपाङ्गमें दस अध्ययनोंका निरूपण किया है, तो प्रथम अध्ययनका उन्होंने क्या भाव फरमाया है। सुधर्मा स्वामी कहते है हे जम्बू ! प्रथम अध्ययनके भावको भगवानने इस प्रकार निरूपण किया है-उस काल उस समयमें राजगृह नामक नगर था। उस नगरमें गुणशिलक नामक चैत्य था । उस नगरीके राजा श्रेणिक थे, वहाँ श्रमण भगवान महावीर पधारे। परिषद उनके दर्शनके लिये निकली । उस काल उस समयमें श्री-देवो सौधर्म कल्पके श्री-अवतंसक विमानमें सुधर्मा सभाके अन्दर श्री-सिंहासनपर चार જખ્ખ ! આ પ્રમાણે ભગવાને દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે – જમ્મુ સ્વામી પૂછે છે = હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષ્પચૂલિકા નામે ચોથા વર્ગરૂપ ઉપાંગમાં દશ અધ્યયનેનું નિરૂપણ કર્યું છે. તે પ્રથમ અધ્યયનમાં તેમણે કર્યો ભાવ બનાવ્યું છે ? સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જબ્બ ! પ્રથમ અધ્યયનના ભાવને આવી રીતે નિરૂપણ કર્યો છે – તે કાળ તે સમયે રાજગહ નામે નગર હતું. તે નગરમાં ગુણશિલક નામે ચૈત્ય હતું. તે નગરીને રાજા શ્રેણિક હતો. ત્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પધાર્યા પરિષદુ તેમના દર્શન માટે નીકળી. તે કાળ તે સમયે શ્રી દેવી સૌધર્મક૯૫ના શ્રી અવતંસક વિમાનમાં સુધસભાની અંદર શ્રી સિંહાસન પર ચાર હજાર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ___४ पुष्पचूलिकासूत्र हजार सामानिक देवोंके साथ तथा सपरिवार चार महत्तरिकाओंके साथ बैठी हुई थी। वह श्री-देवी बहुपुत्रिका देवीके समान भगवानके दर्शनके लिये आई और नाट्यविधि दिखाकर वापस गयी। बहुपुत्रिकासे विशेष केवल इतना ही है कि इसने कुमार कुमारियोंको वैक्रियिक शक्तिसे उत्पन्न नहीं किया । गौतमने पूछा-~हे भदन्त ! यह श्री देवी पूर्व जन्ममें कौन थी। भगवानने कहा हे गौतम ! उस काल उस समयमें राजगृह नामका नगर था । उस नगरमें गुणशिलक नामक चैत्य था । उस नगरके राजाका नाम जितशत्रु था । उसमें सुदर्शन नामका गाथापति रहता था जो धन धान्यादिसे सम्पन्न था। उस गाथापतिकी पत्नीका नाम प्रिया था । जो अत्यन्त सुकुमार थी। उस सुदर्शन गाथापतिकी पुत्री तथा प्रिया गाथापत्नीकी आत्मजा-लडकोका नाम भूता था, जो कि वृद्धा और वृद्ध कुमारी ( अधिक वयवाली कन्या ) तथा जीर्णा और जीर्ण સામાનિક દેવોની સાથે તથા સપરિવાર ચાર મહત્તરિકાઓની સાથે બેઠી હતી. તે શ્રીદેવી બહુપુત્રિકા દેવીની પેઠે ભગવાનના દર્શન માટે આવી અને નાટયવિધિ દેખાડી પાછી ચાલી ગઈ. બહુપુત્રિકાથી વિશેષ માત્ર એ હતું કે આ કુમાર કુમારિઓને વૈક્રિયિક શક્તિથી ઉત્પન્ન કર્યા નહોતા. ગૌતમે પૂછયું--હે ભદન! આ શ્રીદેવી પૂર્વજન્મમાં કેણ હતી ? ભગવાને કહ્યું--હે ગૌતમ ! તે કાળ તે સમયે રાજગૃહ નામનું નગર હતું. તે નગરમાં ગુણશિલક નામનું ચૈત્ય હતું. તે નગરના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું. તે રાજગૃહ નગરમાં સુદર્શન નામનો ગાથાપતિ રહેતો હતો જે ધનધાન્ય આદિથી સંપન્ન હતું. તે ગાથા પતિની પત્નીનું નામ પ્રિય હતું, જે અત્યંત સુકુમાર હતી. તે સુદર્શન ગાથાપતિની પુત્રી તથા પ્રિયા ગાથાપત્નીની આત્મજા (દીકરી) નું નામ ભૂતા હતું કે જે વૃદ્ધા અને વૃદ્ધકુમારી (વધારે વયવાળી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी कुमारी थी, एक शिथिल नितम्ब और स्तनबाली थी, तथा अविवाहित थी। उस काल उस समयमें पुरुषादानीय ( पुरुषोंमें श्रेष्ठ ) नौ हाथके अवगाहनावाले अर्हत पार्श्व प्रभु उस नगरीमें पधारे । भगवानके दर्शनके लिये परिषद अपने २ घरसे निकली। उसके बाद वह भूता दारिका भगवान पार्श्व प्रभुके आनेका वृत्तान्त सुनकर हृष्ट तुष्ट हृदयसे माता पिताके समीप आयी और उनसे इस प्रकार कहाहे माता पिता ! पुरुषादानीय भगवान पार्श्व प्रभु तीर्थंकरपरम्परासे विचरते हुए देवगणोंसे परिवृत हो इस राजगृह नगरमें पधारे हैं, इस लिये मेरी इच्छा है कि पुरुषादानीय उन पार्श्व प्रभुकी चरण वन्दनाके लिये जाऊँ । पुत्रीकी ऐसी इच्छा जानकर उन्होंने कहा-जाओ बेटी ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो। प्रमाद मत करो। उसके बाद वह भूता दारिका स्नान कर सभी प्रकारोंके अलङ्कारोंसे अपने को अलङ्कृतकर दासियोंसे परिवेष्टित हो अपने घरसे निकलकर बाहर उपवेशन शालामें કન્યા) તથા જીર્ણ અને જીર્ણ કુમારી હતી, એટલે કે શિથિલ નિતંબ અને સ્તનવાળી તથા અવિવાહિત હતી. તે કાળ તે સમયે ત્યાં પુરૂષાદાનીય (પુરૂષમાં શ્રેષ્ઠ) નવહાથની અવગાહનાવાળા અહંતુ પાર્શ્વ પ્રભુ તે નગરીમાં પધાર્યા. ભગવાનનાં દર્શન કરવા માટે પરિષદુ પોતપોતાના ઘરમાંથી નીકળી. ત્યાર પછી તે ભૂતા દારિકા ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુના આવવાનું વૃત્તાન્ત સાંભળીને હર તુષ્ટ હૃદયથી માતાપિતાની પાસે આવી અને તેમને આ પ્રકારે કહ્યું -- હે માતાપિતા! પુરૂષાદાનીય ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુ તીર્થકર પરંપરાથી વિચરતા દેવગણેથી પરિવૃત આ રાજગૃહ નગરમાં પધાર્યા છે. આ માટે મારી ઈચ્છા છે કે પુરૂષાદાનીય તે પ્રભુની ચરણ વન્દનાને માટે જાઉં. પુત્રીની એવી ઈચ્છા જાણીને તેઓએ કહ્યું--જાઓ દીકરી ! જે પ્રકારે તમને સુખ થાય તેમ કરે. કઈ પ્રકારનું પ્રમાદ ન કરે. ત્યાર પછી તે ભૂતા દારિકા સ્નાન કરી બધા પ્રકારના અલંકાર (ઘરેણું)થી વિભૂષિત થઈ દાસીઓથી પરિણિત (ઘેરાયેલી) થઈને પિતાના ઘેરથી નીકળી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ____४ पुष्पचूलिकासूत्र आयी। वहाँ अपने धार्मिक रथपर चढी। उसके बाद वह भूता दारिका अपनी दासियोंसे परिवेष्टित हो राजगृह नगरके मध्यसे होती हुई गुणशिलक चैत्यमें पहुंची। वहाँ उसने तीर्थंकरोंके अतिशय, छत्र आदिको देखा और अपने धार्मिक रथसे उतरी। बादमें अपनी दासियोंसे परिवेष्टित हो पुरुषादानीय भगवान पार्श्व प्रभुके पास गयी और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन नमस्कार करके उपासना करने लगी। उसके बाद पुरुषादानीय अर्हत् भगवान पार्श्व प्रभुने उस महती सभामें भूता दारीकाको धर्मोपदेश किया। अनन्तर भूता दारिका धर्म सुनकर उसे हृदयमें अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हृदय हो भगवानको वन्दन और नमस्कार किया। पश्चात् उसने इस प्रकार कहा-हे भगवन् ! जिस प्रकार आपने निम्रन्थ प्रवचनका निरूपण किया है उस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं श्रद्धा रखती हूँ और उसके आराधनके लिये मैं उद्यत हूँ। हे भदन्त ! मैं अपने माता पिताको पूछकर आपके समीप प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ। બહાર બેસવાની શાળામાં આવી. ત્યાં પોતાના ધાર્મિક રથ ઉપર ચડી. ત્યાર પછી તે ભૂતા દારિકા પિતાની દાસીએથી પરિવેષ્ટિત થઈ રાજગૃહ નગરની વચ્ચે થઈને ગુણશિલક ચિત્યમાં પહોંચી. ત્યાં તેણે તીર્થંકરનાં અતિશયક છત્ર આદિ જયાં. ત્યાં પિતાના ધાર્મિક રથમાંથી નીચે ઉતરી. પછી પિતાની દાસીઓથી ઘેરાઈને પુરૂષાદાનીય ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુની પાસે ગઈ અને ત્રણવાર પ્રદક્ષિણા પૂર્વક વંદન નમસ્કાર કરી ઉપાસના કરવા લાગી. ત્યાર પછી પુરૂષાદાનીય અહંત ભગવાન પાર્શ્વ પ્રભુએ તે મોટી સભામાં ભૂતા દારિકાને ઘર્મોપદેશ કર્યો. પછી ભૂતા દારિકાએ ધર્મનું શ્રવણ કરી તેને હૃદયમાં અવધારણ કરી તુષ્ટ હદયથી ભગવાનને વંદન તથા નમસ્કાર કર્યો. પછી આ પ્રકારે કહ્યું –હે ભગવન્! જે પ્રકારે આપે નિન્ય પ્રવચનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે નિર્ચન્જ પ્રવચનમાં હું શ્રદ્ધા રાખું છું અને તેના આરાધના માટે હું યત્નશીલ છું. હે ભદન્ત ! હું મારાં માતાપિતાને પૂછીને આપની પાસે પ્રજ્યા લેવા શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी ૨૦૬ भगवानने कहाहे देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुझे सुख हो पैसा करो। उसके बाद वह भूता दारिका उसी धार्मिक रथपर चढी और वहाँसे राजगृहकी ओर आयी। राजगृह नगरमें जहाँ उसका घर था वहाँ गयी। अपने घर जाकर रथसे उतरी, अनन्तर अपने माता पिताके समीप पहुँची। जमालोके तरह हाथ जोडकर अपने माता पितासे प्रव्रज्याके लिये आज्ञा मांगी। उन लोगोंने आज्ञा दीहे पुत्री ! जैसो तुम्हारी इच्छा हो । उसके बाद उस सुदर्शन गाथापतिने विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य इन चारों प्रकारके आहारको तैयार करवाया तथा मित्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंको निमन्त्रित किया और आदर सत्कार पूर्वक भोजन कराया। खाने पीने के बाद पवित्र હો સૈશ્વિવ (આજ્ઞાકારી ) પુરુષો યુવાવર તીક્ષાઢી તૈયારી આજ્ઞા હેતે ભગવાને કહ્યું –– હે દેવાનુપ્રિયે ! જે પ્રકારે તને સુખ થાય તેમ કર. ત્યાર પછી તે ભૂતાદારિકા તેજ ધાર્મિક રથ ઉપર ચડી અને ત્યાંથી રાજગૃહ તરફ આવી. રાજગૃહ નગરમાં જ્યાં તેનું ઘર હતું ત્યાં ગઈ. પિતાને ઘેર જઈ રથમાંથી ઉતરી, પછી પિતાનાં માતાપિતાની પાસે પહોંચી. જમાલીની પેઠે હાથ જોડીને પિતાનાં માતાપિતા પાસે પ્રવજ્યા લેવા માટે આજ્ઞા માગી. તેઓએ આજ્ઞા આપી:-“હે પુત્રી ! જેવી તારી ઈચ્છા.” ત્યાર પછી તે સુદર્શન ગાથાપતિએ વિપુલ (ખૂબ) અશનપાન-ખાદ્યસ્વાદ્ય એવા ચારે પ્રકારના આહાર તૈયાર કરાવ્યા તથા મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન બંધુઓને નિમંત્રણ આપ્યું અને આદર સત્કારપૂર્વક જોજન કરાવ્યું ખાવાપીવાનું થઈ રહ્યા પછી પવિત્ર થઈ કૌટુંબિક (આજ્ઞાકારી) પુરૂષને બોલાવી દીક્ષાની તૈયારી કરવાની આજ્ઞા દેતાં તેઓને આ પ્રકારે કહ્યું –દેવાનુપ્રિયે! તમે લેકે હજાર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ___४ पुष्पचूलिकासूत्र तएणं से सुदंसणे गाहावई भूयं दारिय हायं जाव विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणि सोयं दुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तनाइ० जाव रवेणं रायगिहं नयरं मज्झं मझेण जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागए, छत्ताईए तित्थयराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठावेइ, ठावित्ता भूयं दारिय सीयाओ पच्चोरुहेइ । तएणं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीएतेणेव उवागया, तिखुत्तो वंदति नमसंति, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-एवं खल्लु देवाणुप्पिया ! भूया दारिया अम्हं एगा धूया इटा०, एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउविग्गा भीया जाव देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयइ । छायाततः खलु स सुदर्शनो गाथापतिः भतां दारिकां स्नातां यावद् विभूषितशरीरां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां द्रोहयति, दूरोह्य मित्रज्ञाति० यावद् रवेण राजगृह नगरं मध्यमध्येन यत्रैव गुणशिलं चैत्य तत्रैवोपागतः, छत्रादीन् तीर्थकरातिशयान् पश्यति, दृष्ट्वा शिविकां स्थापयति, स्थापयित्वा भूतां दारिकां शिबिकातः प्रत्यवरोहयति । ततः खलु तां भूतां दारिकामम्बापितरौ पुरतः कृखा यत्रैव पार्थोऽर्हन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागतो, त्रिः कृतो वन्देते नमस्यतः, वन्दिखा नमस्थिता एवमवादिष्टाम्-एवं खलु हुए इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग हजार पुरुषोंसे उठायी जानेवाली शिबिकाको भूता दारिकाके लिये तैयार करो और ले आओ। उसके बाद वे लोग शिविकाको सजाकर ले आये ॥१॥ પુરૂષથી ઉપાડાય એવી શિબિકા (પાલખી) ને ભૂતા દારિકા માટે તૈયાર કરે અને લઈ આવે. ત્યાર પછી તે લોકો તે પાલખીને સજાવીને લાવ્યા. (૧). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी ४०७ तं एयं णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणीभिक्खं । अहामुहं देवाणुप्पिए । तएणं सा भूया दारिया पासेणं अरहया० एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा० उत्तरपुरस्थिमं सयमेव आभरणमल्लालकारं ओमुयइ, जहा देवाणंदा पुष्फचूलाणं अंतिए जाव गुत्तबंभयारिणी । तएणं सा भूया अजा अण्णया कयाइ सरीखाओसिया जाया यावि होत्था, हत्थे धोवइ, पाये धोवइ, एवं सोसं धोवइ, मुहं धोवइ, थणगंतराइं धोवइ, कक्खंतराइं धोवइ, गुज्झंतराइं धोवइ, जत्थ जत्थ वि य णं ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ तत्थ वि य णं पुव्वामेव पाणएणं अब्भुक्खेइ । तओ पच्छा ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेएइ । तएणं ताओ पुप्फचूलाओ अजाओ भूयं अजं एवं वयासी अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अहं सरीरबाओसियाणं होत्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिए ! सरीरबाओदेवानुप्रियाः ! भूता दारिका अस्माकमेका दुहिता इष्टा०, एपा खलु देवानुपियाः ! संसारभयोद्विग्ना भीता यावद् देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रव्रजति, तद् एतां खलु देवानुप्रियाः ! शिष्याभिक्षां दद्मः, प्रतीच्छन्तु खलु देवानुप्रियाः ! शिष्याभिक्षाम् । यथासुखं देवानुपियाः ! । ततः खलु सा भूता दारिका पार्श्वनार्हता० एवमुक्ता सती हृष्टा उत्तरपौरस्त्यां स्वयमेव आभरणमाल्यालङ्कारमवमुञ्चति, यथा देवानन्दा पुष्पचूलानामन्तिके यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा भूता आर्या अन्यदा कदाचित् शरीरबाकुशिका जाता चापि अभवत् । अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हस्तौ धावति, पादौ धावति, एवं शीर्ष धावति, मुखं धावति, स्तनान्तराणि कक्षान्तराणि धावति, गुह्यान्तराणि धावति, यत्र यत्रापि च खलु स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिकीं (स्वाध्यायभूमि) चेतयते (करोति) तत्र तत्रापि च खलु पूर्वमेव पानीयेन अभ्युक्षति । ततः पश्चात् स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिकी वा चेतयते । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ४ पुष्पचूलिकास्त्र सिया अभिक्खणं २हत्थे धोवसि जाव निसीहियं चेएसि, तं णं तुम देवाणुप्पिए ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि ति, सेसं जहा सुभदाए जाव पडियकं उवस्सयं उवसंपजित्ता णं विहरइ । तएणं सा भूया अज्जा अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोवइ जाव चेएइ । तएणं सा भूया अज्जा बहूहिं चउत्थछट्ट० बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिरिवडिसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जावतोगाहणाए सिरिदेवित्ताए उववण्णा पंचविहाए पजत्तीए भासामणपञ्जत्तीए पज्जत्ता । एवं खलु गोयमा ! सिरीए देवीए एसा दिव्वा देविड्ढी लद्धा पत्ता । ठिई एगं पलिओवमं । सिरी णं भंते ! देवी जाव कहिं गच्छिहिइ ? महाविदेहे ततः खलु ताः पुष्पचूला आर्या भूतामार्यामेवमवादिषुः-वयं खलु देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निम्रन्थ्यः, ईर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, नो खलु कल्पते अस्माकं शरीरबाकुशिकाः खलु भवितुम्, त्व च खलु देवानुप्रिये ! शरीरबाकुशिका अभीक्ष्णमभोक्ष्णं हस्तौ धावसि यावद् नैषेधिकी चेतयसि, तत् खलु त्वं देवानुमिये ! एतस्य स्थानस्य आलोचयेति, शेषं यथा सुभद्रायाः यावत् प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहरति । ततः खलु सा भूता आर्या अनपघट्टिका अनिवारिता खच्छन्दमतिः अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हस्तौ धावति यावत् चेतयते । ततः खलु सा भूता आर्या बहुभिः चतुर्थ षष्ठाष्टम० बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयिला तस्य स्थानस्य अनालोचितमतिक्रान्ता कालमासे कालं कुता सौधर्म कल्पे श्यवतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावत् तदगाहनया श्रीदेवीतयोपपन्ना पञ्चविधया पर्याप्त्या भाषामनःपर्याप्त्या पर्याप्ता । एवं खलु गौतम ! श्रिया देव्या एषा दिव्या देवऋद्धिलब्धा प्राप्ता; स्थितिरेकं पल्योपमम् । श्रीः खलु भदन्त ! देवी यावत् क्व गमिष्यति ? महाविदेहे वर्षे શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी ४०९ वासे सज्झिहि । एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ । एवं सेसाणं वि नवहं भाणियव्वं, सरिसनामा विमाणा, सोहम्मे कप्पे, पुन्वभवे नयरचेइयपियमाईणं अप्पणो य नामादी जहा संगहणीए; सव्वा पासस्स अंतिए निक्खता । ताओ पुष्पचूलाणं सिस्सिणियाओ सरीरबाओसियाओ सव्वाओ अनंतरं च चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति || २ || ॥ पुप्फचूलिया णामं चतुत्थवग्गो सम्मत्तो ॥ ४ ॥ सेत्स्यति । एवं खलु जम्बूः ! निक्षेपकः । एवं शेषाणामपि नवानां भणितव्यं, सदृशनामानि विमानानि, सौधर्मे कल्पे, पूर्वभवे नगरचैत्यपित्रादीनाम् आत्मनश्च नामादिर्यथा संग्रहण्याम्, सर्वाः पार्श्वस्यान्तिके निष्क्रान्ताः । ताः पुष्पचूलानां शिष्याः शरीरबाकुशिकाः सर्वा अनन्तरं चयं च्युला महाविदेहे वर्षे सेत्स्यन्ति ॥ २ ॥ टीका " 6 तरणं से सुदंसणे ' इत्यादि । अभुक्खइ '=अभ्युक्षति-अभिषिञ्चति । चेएइ ' चेतयति = उपविशति । शेषं स्पष्टम् ॥ पुष्पचूलिकाख्यश्चतुर्थो वर्गः समाप्तः ॥ ४ ॥ " तणं से' इत्यादि—– उसके बाद उस सुदर्शन गाथापतिने स्नान की हुई तथा सभी अलङ्का अलङ्कृत उस भूता दारिकाको शिबिकामें बैठाया । अनन्तर वह अपने सभी मित्र " agoi à' Scule. ત્યાર પછી તે સુદર્શન ગાથાપતિએ ભૂતા દારિકા કે જે સ્નાન કરીને તથા તમામ અલકારાથી વિભૂષિત હતી તેને તે શિખિકામાં બેસાડી. પછી તે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ४ पुष्पचूलिकासूत्र ज्ञाति स्वजन बन्धुओंके साथ मेरी आदि बाजोंकी ध्वनिसे दिशाको मुखरित करता हुआ राजगृह नगरीके बीचोबीचसे होता हुआ गुणशिलक चैत्यके पास पहुँचा । वहाँ उसने तीर्थंकरोंके अतिशयको देखा और शिबिकाको ठहराया। तथा भूता दारिका शिबिकासे उतरी। उसके बाद माता पिता भूता दारिकाको आगे कर जहाँ पर पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु थे वहाँ आये, और तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिण करके वन्दन और नमस्कार किया अनन्तर उन्होंने कहा-हे देवानुप्रिय ! यह भूता दारिका हमारो एका-एक ( इकलौती) पुत्री है, यह हमलोगोंकी अत्यन्त प्यारी है। यह दारिका संसारके भयसे अत्यन्त उद्विग्न है, तथा इसको जन्म और मरणका भय लगा हुआ है, इसलिये यह आपके समीप मुण्डित होकर प्रवजित होना चाहती है। हे भदन्त ! इसलिये हम आपको यह शिष्यारूप भिक्षा देते हैं । हे देवानुप्रिय ! इस शिष्यारूप भिक्षाको आप स्वीकार करें। भगवानने कहा-हे देवानुप्रिये ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो। પિતાના સર્વે મિત્ર, જ્ઞાતિ, સ્વજન બંધુઓની સાથે ભેરી, શરણાઈ આદિ વાજાંઓના ધ્વનિથી દિશાઓને મુખરિત કરતા રાજગૃહ નગરીની વચ્ચોવચ થઈને આવતાં ગુણશિલક ચેત્યની પાસે પહોંચ્યા. ત્યાં તેમણે તીર્થકરોના અતિશયને જે અને ત્યાં તે પાલખીને થોભાવી. તથા ભૂતા દારિકા શિબિકામાંથી નીચે ઉતરી. ત્યાર પછી માતાપિતા ભૂતા દારિકાને આગળ કરીને ચાલતાં જ્યાં પુરૂષાદાનીય અર્હત્ પાશ્વ પ્રભુ હતા ત્યાં આવ્યા. અને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વંદન તથા નમસ્કાર કર્યા. પછી તેઓએ કહ્યુંહે દેવાનુપ્રિય ! આ ભૂતા દારિકા અમારી એકની એક પુત્રી છે. તે અમને બહુજ વહાલી છે. આ દારિકા સંસારના ભયથી ઘણીજ ઉદ્વિગ્ન છે અને તેને જન્મ તથા મરણને ભય લાગ્યા કરે છે. તે માટે તે આપની પાસે મુંડિત થઈને પ્રવ્રજિત થવા ચાહે છે. હે ભદન્ત ! તે માટે અમે આપને આ શિધ્યારૂપ ભિક્ષા દઈએ છીએ. હે દેવાનુપ્રિય! આ શિષ્યારૂપ શિક્ષાને આપ સ્વીકાર કરે. लवाने धु:- देवानुप्रिये ! थी तभारी ४२७१. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी ४११ ___ उसके पश्चात् अर्हत् पार्श्व प्रभुके इस प्रकार कहने पर वह भूता दारिका हृष्टतुष्टहृदयसे ईशान कोणमें जाकर अपने ही हाथोंसे आभूषण आदिको अपने शरीरसे उतारती है। बादमें वह देवानन्दाके समान पुष्पचूला आर्याके समीप प्रवजित हो यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी होती है। उसके बाद वह भूता आर्या किसी समय शरीर बाकुशिका हो गयी, निससे वह अपने हाथोंको, पैरोको, शिरको, मुँहको, तथा स्तनके अन्तर भागोंको, एवं काखके अन्तरको और गुह्यके अन्तरको बार बार धोने लगी। जहाँ कहीं भी सोनेके लिये, बैठनेके लिये, स्वाध्याय करनेके लिये उपयुक्त स्थान निश्चित करती थी उसे पहलेसे ही पानीसे छिडकती थी, बाद वहाँ बैठती थी, सोती थी, स्वाध्याय करती थी। अनन्तर उस भूता आर्याके इस प्रकारके व्यवहारको देखकर पुष्पचूला आर्याने उससे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिये ! हमलोग ईर्यासमिति आदि समितियोंसे युक्त यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी श्रमणी निर्ग्रन्थी हैं। हमें शरीर बाकुशिका होना उचित नहीं है। हे देवानुप्रिये ! तुम शरीर बाकुशिका हो ત્યાર પછી અહેતુ પાર્શ્વ પ્રભુના એ પ્રકારે કહેવાથી તે ભૂતા દારિકા હદ તુષ્ટ હદયથી ઈશાન કેણમાં જઈને પોતાના જ હાથેથી આભૂષણ આદિને પિતાના શરીર ઉપરથી ઉતારે છે. પછી તે દેવાનન્દાની પેઠે પુષ્પચૂલા આર્યાની પાસે પ્રજિત થઈ ગુસબ્રહ્મચારિણી બને છે. ત્યાર પછી તે ભૂતા આર્યા કેઈ એક વખતે શરીર બાકશિકા થઈ ગઈ જેથી તે પોતાના હાથ, પગ, માથું, મેં તથા સ્તનના અંદરના ભાગને અને કાંખના અંદરના ભાગે તથા ગુહ્યની અંદરના ભાગે વારં. વાર જોવા લાગી. જ્યાં ત્યાં પણ સુવા માટે, બેસવા માટે સ્વાધ્યાય કરવા માટે ઉપયુક્ત સ્થાનને નિશ્ચય કરતી હતી તે પહેલાં જ ત્યાં પાણી છાંટતી હતી, પછી ત્યાં બેસતી હતી, સુતી હતી, સ્વાધ્યાય કરતી હતી. પછી તે ભૂતા આર્યાને આ પ્રકારનો વ્યવહાર જેઈને પુષ્પચૂલા આર્યાએ તેને આ પ્રકારે કહ્યું –હે દેવાનુપ્રિયે! આપણે ઈસમિતિ આદિ સમિતિઓથી યુક્ત અને ગુસબ્રહ્મચારિણી શ્રમણ નિત્થી છીએ આપણને શરીર બાશિકા થવું ઉચિત નથી. હે દેવાનુપ્રિયે ! તે શરીરનાશિકા થઈ ગઈ છે. તેથી હમેશાં હાથ, પગ આદિ અંગેને વાર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ __४ पुष्पचूलिकासूत्र गयी हो, उससे सर्वदा-वार वार हाथ पैर आदि अंगोको धोती हो, बैठने सोने तथा स्वाध्याय करनेकी जगहको पानीसे छिडका करती हो। इसलिये हे देवानुप्रिये ! तुम इस पाप स्थानकी आलोचना करो। उसके बाद पुष्पचूलाकी बात न मानकर वह भूता आर्या सुभद्रा आर्याके समान अकेली ही अलग उपाश्रयमें उतरी और पूर्ववत् क्रिया करती हुई स्वतन्त्र होकर रहने लगी। उसके बाद वह भूता आर्या बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्माको भावित करती हुई तथा बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्यायको पालन करती हुई अपने पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमण किये विना काल अवसरमें कालकर सौधर्म कल्पके श्री-अवतंसक विमानमें उपपात सभाके अन्दर देव-शयनीय शय्यामें उस देव सम्बन्धी अवगाहनासे श्री देवी पने उत्पन्न हुई और भाषापर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाँच पर्याप्तियोंसे युक्त हो गयी। देवगतिमें भाषा और मनपर्याप्ति एक साथ बाँधनेके कारण पाच पर्याप्ति कही गयी है। વાર ધુએ છે. બેસવા, સુવા તથા સ્વાધ્યાય કરવાની જગા ઉપર પાણી છાંટે છે. માટે હે દેવાનુપ્રિયે ! તું આ પાપસ્થાનની આલોચના કરી. ત્યાર પછી તે પુષ્પચૂલાની વાત ન માનીને તે ભૂતા આર્યા સુભદ્રા આર્યાની પેઠે એકલી જ જુદા ઉપાશ્રયમાં ઉતરી અને પૂર્વવત્ વર્તની સ્વતંત્ર થઈને રહેવા લાગી. ત્યાર પછી તે ભૂતા આર્યા ઘણાં ચતુર્થ, પણ, અષ્ટમ આદિ તપથી આત્માને ભાવિત કરતી અને ઘણાં વર્ષો સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરતી તેણે પોતાનાં પાપસ્થાની આચના અને પ્રતિક્રમણ કર્યા વગર પછી કાળ અવસરમાં કાળ કરીને સૌધર્મ ક૯૫ના શ્રી અવતંક વિમાનમાં ઉપપાત સભાની અંદર દેવશયનીય શય્યામાં તે દેવ સબંધી અવગાહના દ્વારા શ્રી–દેવી પણામાં જન્મ લીધો અને ભાષા પર્યાપ્તિ, મન:પર્યાપ્તિ આદિ પાંચ પર્યાપ્તિઓથી યુકત થઈ ગઈ. દેવગતીમાં ભાષા અને મન પર્યાપ્તિ એક સાથે બાંધવાના કારણે પાંચ પર્યાપ્તિ કહી છે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ४ अध्य. १ श्री देवी ४१३ हे गौतम ! श्री-देवीने इस प्रकार इस दिव्य देवऋद्धिको पाया है। देव लोकमें इसकी स्थिति एक पल्योपमकी है। गौतम स्वामीने पूछाहे भदन्त । यह श्री–देवी यहाँसे च्यवकर कहाँ जायगा। भगवान कहते हैं हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होगी और सब दुःखोका अन्त करेगी। सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने पुष्पचूलिकाके प्रथम अध्ययनका भाव उक्त प्रकार निरूपित किया है। इसी प्रकार शेष नौ अध्ययनोंका भी भाव जानना चाहिये । इन नवोंके विमानोंका नाम इनके नामोंके समान है। सौधर्म कल्पमें ये सब देवीपनमें હે ગૌતમ ! શ્રીદેવીએ આ પ્રકારે આ દિવ્ય દેવદ્ધિને મેળવી છે. દેવલોકમાં તેની સ્થિતિ એક પલ્યોપમની છે. ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે – હે ભદન્ત ! આ શ્રીદેવી અહીંથી અવીને કયાં જશે ભગવાન કહે છે – હે ગૌતમ ! તે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને બધાં मना मत सावशे. સુધર્મા સ્વામી કહે છે – હે જમ્મુ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પુષચૂલિકાના પ્રથમ અધ્યયનનો ભાવ ઉપર પ્રમાણે નિરૂપિત કર્યો છે. આ પ્રકારે શેષ (બાકીના) નવ અધ્યયનેને પણ ભાવ જાણું લે જોઈએ. આ નવનાં વિમાનનાં નામ તેના નામના જેવાંજ છે. સૌધર્મ કલ્પમાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ४ पुष्पचूलिकासूत्र उत्पन्न हुई। इनके पूर्वभवमें नगर उद्यान पिता आदि तथा इनका अपना नाम आदि संग्रहणीगाथामें आये हुए नामके समान जानना चाहिये। ये सभी पार्श्व प्रभुके समीपमें प्रबजित होकर पुष्पचूलाकी शिष्या हुई तथा सभी शरीरबाकुशिका हो गयीं। और ये सभी देवलोकसे च्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगी। और सब दुखोंका अन्त करेंगी ॥ २ ॥ પુષ્પવૃષ્ટિા નામ વાર્થ વર્ગ સમાત દુગા. એ બધીને દેવીપણામાં જન્મ થયે. તેમના પૂર્વ ભવમાં નગર, ઉદ્યાન, પિતા આદિ તથા તેનાં પોતાનાં નામ આદિ સંગ્રહણી ગાથામાં આવેલાં નામનાં જેવાં જાણવાં. આ બધી પાર્શ્વ પ્રભુની પાસે પ્રજિત થઈ અને તે બધી પુષ્પચૂલાની શિષ્યાઓ થઈ હતી તથા બધી શરીરમાકુશિકા થઈ ગઈ હતી. પછી બધી દેવકમાંથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જન્મ લઈ સિદ્ધ થશે અને સર્વે દુઃખનો અંત લાવશે. (૨) પુષ્પચૂલિકા નામને ચે વર્ગ સમાપ્ત. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध ४१५ वृष्णिदशा ५ मूलम्जइणं भंते ! उक्खेवओ० उवंगाणं चउत्थस्स पुष्फचूलाणं अयमद्वे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं वह्निदसाणं भगवया जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा"निसढे १ मानि २ वह ३ वहे ४, पगता ५ जुत्ती ६ दसरहे ७ दढरहे ८ य। महाधणू ९ सत्तधणू १०, दसधणू ११ नामे सयधणू १२ य ॥१॥" ___ जइणं भंते ! समणेणं जाव दुवालस्स अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! उवक्खेवओ । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ बारवई नाम नयरी होत्था दुवालसनोयणायामा जाव पञ्चक्खं देवलोयभूया छायायदि खलु भदन्त ! उत्क्षेपकः, उपाङ्गानां चतुर्थस्य पुष्पचूलानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, पञ्चमस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां वृष्णिदशानां श्रमणेन भगवता यावत्संपतेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद् यथा निषधः १, मायनी २ वहः ३ वहः ४ पगता, ५ ज्योतिः ६ दशरथः ७ दृढरथश्च ८ महाधन्वा, ९ सप्तधन्वा, १० दशधन्वा, ११ नाम शतधन्वाच १२ ॥१॥ यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! श्रमणेन यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बूः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावती नाम नगरी अभवत् द्वादशयोजनायामा यावत् प्रत्यक्ष देव શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ५ वृष्णिदशासूत्र पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थि मे दिसीभाए; एत्थ णं रेवए नाम पव्वए होत्था, तुंगे गगणतलमणुलिहंत सिहरे नाणाविहरुक्खगुच्छ गुल्मलतावल्लीपरिगताभिरामे हंस-मिय- मयूर - कोंच- सारस - चक्कवाग - मयणसाला - कोइलकुलोववेए अणेगतडकडगवियरओज्झरपवाय पुन्भारसिहरपउरे अच्छरगण देवसंघचारणविज्जाहरमिहुणसंनिविभे निच्चच्छणए दसारवरवीरपुरिस ते लोकबलवगाणं सुभए पियदंसणे सुरूवे पासाईए जाव पडिरूवे । तत्थ णं रेवयगस्स पव्वयस्स अदूरसामंते एत्थ णं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था, सम्बोउयपुष्फ जाव दरिसणिज्जे । तत्थणं नंदणवणे उज्जाणे सुरपियस्स जक्खस्स जवखाययणे होत्था चिराईए जाव बहुजणो आगम्म अच्चे सुरप्पियं जक्खाययणं । से णं सुरप्पिए जक्खाययणे एगेणं महया वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते जहा पुण्णभद्दे जाव सिलावट्टए । तत्थ ण बारवईए लोकभूता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा । तस्याः खलु द्वारावत्याः नगर्यां वहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे; अत्र खलु रैवतो नाम पर्वतोऽभवत् तुङ्गो गगनतलमनुलिहच्छिखरः नानाविधवृक्षगुच्छगुल्मलता वल्लीपरिगताभिरामः हंसमृगमयूरक्रौञ्चसारसचक्रवाकमदनशालाकोकिलकुलोपपेतः, , अनेकतटकट कविवरावभरप्रपातप्राग्भारशिखरप्रचुरः अप्सरोगण देवसंघ - चारण विद्याधरमिथुनसन्निचीर्णः, नित्यक्षणकः, दशार्हवरवीर पुरुष त्रैलोक्यबलवतां सोमः शुभः प्रियदर्शनः सुरूपः प्रासादीयो यावत् प्रतिरूपः । तस्य खलु रैवतकस्य पर्वतस्य अदूरसामन्ते; अत्र खलु नन्दनवनं नाम उद्यानम् अभवत्, सर्वऋतु पुष्प० यावद् दर्शनीयम् । तत्र खलु नन्दनवने उद्याने सुरप्रियस्य यक्षस्य यक्षायतनमभवत्, चिरातीतं यावद् बहुजन आगम्य अर्चयति सुरप्रियं यक्षायतनम् । तत् खलु सुरप्रियं यक्षायतनम् एकेन महता वनषण्डेन सर्वतः तः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् यथा पूर्णभद्रो यावत् शिलापट्टकः । तत्र खलु 9 શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया होत्था जाव पसासेमाणे विहरइ । से गं तत्थ समुदविजयपामोक्खाणं दसहं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं रायसहस्साणं, पज्जुण्णपामोक्खाणं अधुटाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुइंतसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसाहस्सीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीणं रुप्पिणिपामोक्खाणं सोलसण्हं देवीसाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं राईसर जाव सत्यवाहप्पभिईणं वेयगिरिसागरमेरागस्स दाहिणड्डभरहस्स आहेवचं जाव विहरइ । तत्थणं बारवईए नयरीए बलदेवे नामं राया होत्था, महया जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ । तस्स णं बलदेवस्स रण्णो रेवई नामं देवी होत्था, सोमाला जाव विहरइ । तएणं सा रेवई देवी अण्णया कयाइ तंसि तारि द्वारावत्यां नगर्या कृष्णो नाम वासुदेवो राजाऽभवत् यावत् प्रशासद् विहरति । स खलु तत्र समुद्रविजयप्रमुखानां दशानां दशार्हाणां, बलदेवप्रमुखानां पञ्चानां महावीराणाम् , उग्रसेनप्रमुखानां षोडशानां राजसहस्राणां, प्रद्युम्नममुखानाम् अध्युष्टानां (सार्द्धत्तीयानां ) कुमारकोटीनां, शाम्बप्रमुखानां षष्टथाः दुर्दान्तसहस्राणं, वीरसेनप्रमुखानामेकविंशत्याः वीरसहस्राणां, महासेनप्रमुखानां षट्पञ्चाशतो बलवत्सहस्राणां, रुक्मिणीप्रमुखानां षोडशानां देवीसाहस्रोणाम् , अनङ्गसेनाप्रमुखानामनेकासां गणिकासाहस्रीणाम् , अन्येषां च बहूनां राजेश्वर० यावत् सार्थवाहप्रभृतीनां वैतादयगिरिसागरमर्यादस्य दक्षिणार्द्धभरतस्याधिपत्यं यावद् विहरति । तत्र खलु द्वारावत्यां नगर्या बलदेवो नाम राजाऽभवत् , महता यावद् राज्यं प्रशासद् विहरति । तस्य खलु बलदेवस्य राज्ञो रेवती नाम देव्यभवत् सुकुमारपाणिपादा यावद् विहरति । ततः खलु सा रेवती देवी अन्यदा कदाचित् तादृशे शयनीये શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ___५ वृष्णिदशासूत्र सगंसि सयणिजंसि जाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा०, एवं सुमिण दंसणपरिकहणं, निसढे नाम कुमारे जाए जाव कलाओ जहा महाबले, पंनासओ दाओ, पण्णासरायकण्णगाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हावेइ, नवरं निसढे नामं जाव उप्पिं पासाए विहरइ ॥ १ ॥ यावत् सिंहं खमे दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा एवं स्वमदर्शनपरिकथनं, निषधो नाम कुमारो जातः, यावत् कला यथा महाबलस्य, पञ्चाशद् दायाः, पञ्चाशद्राजकन्यकानामेकदिवसेन पाणिं ग्राहयति, नवरं निषधो नाम यावद् उपरि प्रासादे विहरति ॥ १॥ टीका'यदि खलु' इत्यादि-नानाविधगुच्छगुल्मलतावल्लीपरिगताभिरामः । वृष्णिदशा वर्ग ५। 'जइणं भंते' इत्यादिजम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! पुष्पचूला नामके चतुर्थ उपाङ्गमें भगवानने पूर्वोक्त प्रकारसे दस अध्ययनोका निरूपण किया है तो हे भदन्त ! उसके बाद वृष्णिदशा नामक पाँचवें उपाङ्गमें मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान महावीरने किन अर्थोका निरूपण किया है। कृषि वर्ग (५) पांयमी. ‘जइणं भंते' त्या જખ્ખ સ્વામી પૂછે છે – હે ભદન્ત ! પુષ્પચૂલા નામના ચેથા ઉપાંગમાં ભગવાને પૂર્વોક્ત પ્રકારથી દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે હે ભદન્ત ! ત્યાર પછી વૃષ્ણિદશા નામના પાંચમા ઉપાંગમાં મોક્ષપ્રા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે કયા અર્થોનું નિરૂપણ કર્યું છે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशा नामक पाँचवें वर्गमें बारह अध्ययनोंका निरूपण किया है। उनके नाम ( १ ) निषध, (२) मायनी, ( ३ ) वह, ( ४ ) वह, (५) पनता, (६ ) ज्योति, (७) दशरथ, (८) दृढरथ, (९) महाधन्वा, (१०) सप्तधन्वा, (११) दशघन्चा, और ( १२ ) शतधन्वा हैं। जम्बू स्वामी पूछते हैं हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशामें बारह अध्ययनोंका निरूपण किया है तो उन अध्ययनोमें प्रथम अध्ययनका क्या भाव कहा है? सुधर्मा स्वामी कहते हैंहे जम्बू ! उस काल उस समयमें द्वारावती नामकी नगरी थी। जो बारह सुधा स्वामी डे छ:-- જબૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃષ્ણિદશા નામના પાંચમા વર્ગમાં બાર અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. तमना नाम:--(१) निष५, (२) मायनी, (३) १६, (४) 43, (५) ५॥ (६) ज्योति, (७) ४२२५, (८) १८२५, (6) मायन्या, (१०) सप्तधा , (११) शधन्! मन (१२) शतधन्वा छे. જમ્મુ સ્વામી પૂછે છે – હે ભદન્ત ! જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃષ્ણિદશામાં બાર અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે તે અધ્યયનમાં પ્રથમ અધ્યયનને શું ભાવ કહ્યો છે? સુધર્મા સ્વામી કહે છે -. હે જખ્ખ ! તે કાળ તે સમયે દ્વારાવતી નામની નગરી હતી, જે બાર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ___५ वृष्णिदशास्त्र नानाविधाः=अनेकपकाराः वृक्षाश्च गुच्छा:-स्तबकाश्च गुल्मास्तम्बाश्च (स्कन्धरहितास्तरवः ) लता व्रततयश्च वल्यः लताविशेषाश्च, ताभिः परिगतः=सम्माप्तः अभिरामः शोभा यत्र स तथा अनेकमकारकतरुस्तवकस्तम्बलतावल्लीसम्माप्तच्छविः, हंस-मृग-मयूर-क्रौञ्च-सारस-चक्रवाकमदनशाला कोकिलकुलोपपेतः हंसाः असिद्धाः, मृगाः हरिणाः, मयूराः, क्रौश्चाः, सारसाः, चक्रवाकाः, मदनशाला: सारिकाविशेषाः, कोकिलाश्च,तेषां यत् कुलंसमूहस्तेन उपपेतः युक्तः । अनेकतटकटकविवरावझरमपातप्राग्भारयोजन लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक सदृश 'प्रसादीया =मनको प्रसन्न करने वाली तथा 'दर्शनीया '=देखने योग्य एवं ' अभिरूपा'=सुन्दर छटावाली और 'प्रतिरूपा 'अनुपम शिल्पकलासे सुशोभित थी। उस द्वारावती नगरीके बाहर ईशानकोणमें ऊँचा तथा आकाशको छूनेवाले शिखरोंसे युक्त रैवतक नामक पर्वत था। वह पर्वत अनेक प्रकारके वृक्ष गुच्छ गुल्म और लता बल्लियोंसे मनोहर था। वह हंस, मृग, मयूर, क्रौञ्च ( पक्षी विशेष ) सारस, चक्रवाक, मदनशाला ( मैना ) और कोकिल आदि पक्षिवृन्दसे सुशोभित था। तथा जिसमें अनेक तट-किनारे और कटक-पर्वतका रमणीय भाग, तथा विवर-सुन्दर गुफाएँ और अवझर सुन्दर झरने एवं प्रपात-जहाँ झरना गिरता है वह स्थान, तथा प्राग्भारपर्गतका झुका योजन यांनी यावत् प्रत्यक्ष देवता की, प्रसादीयामनने प्रसन्न ४२वाजी तथा दर्शनीया ६५वा याय, अभिरूपा-सु४२ छावाजी मने प्रतिरूपा=मनुपम શિલ્પકલાથી સુશોભિત હતી. તે દ્વારાવતી નગરીની બહાર ઇશાન કેણમાં ઊંચે તથા ગગનચુંબી શિખરવાળે રૈવતક નામ પર્વત હતો. તે પર્વત અનેક જાતનાં વૃક્ષ, ગુચ્છ, ગુલ્મ અને લતાવલ્લીઓથી મનહર હતે. વળી તે હંસ, भृग, मयूर, पोय ( पक्षी ), सारस, य१४ , भहनशा (मेन) भने आदि આદિ પક્ષીવૃન્દથી સુશોભિત હતો. તથા જેમાં અનેક તર=કિનારા અને રાત્ર पतिना २भएणीय MIN तथा विवर-सुंदर सुशामा अनेअवझर सुंE२ १२॥ी, બા=જ્યાં ઝરણું પડે છે તે સ્થાન, તથા રાજુમા = પર્વતના નમેલા રમણીય શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य- १ निषध शिखरमचुरः - अनेकानि तटानि तीराणि कटका: = गण्डशैलाः पर्वतात्संत्रुय्यपतिता महापाषाणाः, विवराणि छिद्राणि, अवझराः - निर्झरविशेषाः, प्रपाता:= भृगवः = गर्त्तरूपाणि निर्झरणजलपतनस्थानानि, प्राग्भारा : - ईषदवनताः पर्वतप्रदे ४२१ 1 हुआ रम्य प्रदेश और अनेक सुन्दर शिखर विद्यमान थे । वहाँ अप्सरागण देवगण और विद्याधरोंके युगल आकर क्रीडा करते थे । और जहाँ जङ्घाचरण विद्याचरण मुनि भी ध्यान मौनादिके लिये निवास करते थे । तथा वह पर्वत उत्सवका एक रमणीय स्थल था। और नेमिनाथ भगवान से युक्त होनेके कारण तीनों लोकमें श्रेष्ठ बलवीर दशाहका वह पर्वत सोम - आह्लाद उत्पन्न करनेवाला था, शुभ = मंगलकारी था प्रियदर्शन - नेत्रोंको सुख देनेवाला था, सुरूप = सुहावना था, प्रसादीय = मनको प्रसन्न करनेवाला था, दर्शनीय = देखने योग्य था, अभिरूप = अपनी सुन्दरताके कारण चमकता था, प्रतिरूप = दर्शक जनों के हृदयमें प्रतिबिम्बित हो जाता था । उस रैवतक पर्वतके समीपमें नन्दनवन नामक उद्यान था, जो सभी ऋतुओंके फूलोंसे सम्पन्न यावत् दर्शनीय था । उस नन्दनवन उद्यानमें सुरप्रिय यक्षका यक्षायतन बहुत ભાગ અને સુદર શિખર વિદ્યમાન હતા ત્યાં અપ્સરાગણ, દેવગણુ, અને વિદ્યાધરાનાં જોડલાં આવીને ક્રીડા કરતાં હતાં અને જ્યાં જ ઘાચરણ, વિદ્યાચરણ મુનિ પણ ધ્યાન, મૌન આદિ માટે નિવાસ કરતા હતા. તથા આ પર્વત હમેશાં ઉત્સવનું એક રમણીય સ્થાન હતું અને નેમીનાથ ભગવાનથી યુક્ત હાવાથી ત્રણે લેાકમાં શ્રેષ્ઠ ખલવીર દશાઈના તે પર્યંત સોમ-આહ્લાદ ઉત્પન્ન કરવાવાવાળા હતા, शुभ=भंगणारी हतो, प्रियदर्शन=नेत्रीने सुख आपवावाणी हतो, सुरूप = ३याणी शोलाहार हतो, प्रासादीय= भनने प्रसन्न खावाणी हतो, दर्शनीय = लेवा योग्य हतो, अभिरूप = पोतानी सुंदरताने सीधे यमस्तो हतो, प्रतिरूप =लेनारनां हृध्यमां છાપ પાડે તેવા હતા, ( પ્રતિબિંબિત થઇ જતા હતા. ) તે રૈવત પર્વતની પાસે નન્દનવન નામે એક ઉદ્યાન હતા. જે બધી ઋતુઓમાં ફૂલાથી સંપન્ન હાવાથી दर्शनीय हतो. ते नन्हनवन उद्यानभां सुरप्रिय=यक्षनुं यक्षायतन महु प्रथीन हेतु શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ ५ वृष्णिदशास्त्र शाः, शिखराणि श्रृङ्गाणि, एतानि मचुराणि यत्र स तथा अप्सरोगणदेवसंघचारणविद्याधरमिथुनसंनिचीर्णः - अप्सरसां गणः = समूहः, देवसङ्घः = देवसमूहः चारणाः = जङ्घाचारणादयः साधुविशेषाः, विद्याधरमिथुनानि, तैः संनिचीर्णः प्राचीन था और लोक उसे मानते थे । वह सुरप्रिय यक्षायतन चारों तरफसे एक बडा वनषण्डसे घिरा हुआ था । जैसा पूर्णभद्र उद्यान था । उसमें अशोक वृक्षके नीचे एक शिला पट्टक था । उस द्वारावती नगरीमें कृष्ण वासुदेव राजा थे, जो उस नगरीका यावत् शासन करते हुए विचरते थे । वह कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय प्रमुख दश दशारोंके, बलदेव प्रमुख पाँच महावीरोंके, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओंके, प्रद्युम्न प्रमुख साढे तीन करोड कुमारोंके, शाम्ब प्रमुख साठ हजार दुर्दान्त शूरोके, वीरसेन प्रमुख एक्कीस हजार वीरोंके, महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवानोंके, रूक्मिणी प्रमुख सोलह हजार देवियोंके तथा अनङ्गसेना प्रमुख अनेक हजार गणिकाओंके और बहुतसे राजा ईश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक श्रेष्ठी सेनापति અને લેાકેા તેને માનતા હતા. તે સુરપ્રિય,યક્ષાયતન ચારે તરફથી એક મોટા વનષણ્ડથી ઘેરાયેલું હતું કે જેવું પૂર્ણ ભદ્ર ઉદ્યાન હતું. તેમાં અશાકવૃક્ષની નીચે એક શિલાપટ્ટક હતું. તે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવ નામે રાજા હતા જે તે નગરીમાં રાજ્ય કરતા વિચરતા હતા. તે કૃષ્ણ વાસુદેવ સમુદ્રવિજય પ્રમુખ દશ દશારાના, બલદેવ પ્રમુખ પાંચ મહાવીરાના, ઉગ્રસેન પ્રમુખ સાળ હજાર રાજાએના, પ્રદ્યુમ્ન પ્રમુખ સાડા ત્રણ કરોડ કુમારાના, સામ્ભ પ્રમુખ સાઠ હજાર દુર્દન્ત શૂરવીરાના, વીરસેન પ્રમુખ એકવીશ હજાર વીરાના, મહાસેન પ્રમુખ છપ્પન હજાર ખલવાનાના, રૂકિમણી પ્રમુખ સેાળ હજાર દેવીઓનાં તથા અનંગ સેના પ્રમુખ અનેક હજાર ગણિકાઓનાં, વળી ઘણા રાજા ઇશ્વર તલવર મામ્બિક કૌટુમ્બિક શ્રેણી સેનાપતી શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध ___४२३ अधिष्ठितः, नित्यक्षणकः-नित्यम् अनवरतं क्षण एव क्षणका उत्सवो यत्र सः, केषामयं गिरिः ? इत्याह-दशाहवरवीरपुरुषत्रैलोक्यबलवतां दशार्हाः= समुद्रविजयादयो दश दशाहीः, तेषु वराः श्रेष्ठाः, वीरपुरुषाश्च ते, त्रैलोक्ये सार्थवाह प्रभृतिओंके तथा ताब्यगिरि और सागरसे मर्यादित दक्षिण अर्धभरतके, ऊपर आधिपत्य करते हुए विचर रहे थे। उस द्वारावती नगरीमें बलदेव नामक राजा थे, जो महाबली थे और यावत् अपने राज्यका शासन करते हुए विचर रहे थे। उस बलदेव राजाकी पत्नी का नाम रेवती देवी था, जो सुकुमार हाथ पैरवाली और सर्वाङ्ग सुन्दर थी। तथा पाँचो इन्द्रियोंके सुखोंका अनुभव करती हुई विचरती थी। अनन्तर किसी समय वह रेवती देवी पुण्यवानके सोने लायक अपनी सुकोमल शय्यामें सोयी हुई स्वप्नमें सिंहको देखा और जाग गयी। स्वप्नका वृत्तान्त उसने राजा बलदेवको सुनाया। अनन्तर समय बीतने पर रेवतीके गर्भसे एक कुमार पैदा हुआ, जिसका नाम निषध रखा गया। वह कुमार बडा होकर महाबलके समान बहत्तर कलाओंमें સાર્થવાહ આદિના તથા વૈતાઢયગિરિ અને સાગરથી મર્યાદિત દક્ષિણ અર્ધભરતના ઉપર આધિપત્ય કરતા થકા રહેતા હતા. તે દ્વારાવતી નગરીમાં બલદેવ નામે રાજા હતા જે મહાબલવાન હતા. અને પિતાના રાજ્યનું શાસન કરતા વિચરતા હતા. તે બલદેવ રાજાની પત્નીનું નામ રેવતી દેવી હતું, જે સુકુમાર હાથપગવાળી હતી અને સર્વાગ સુંદર હતી અને પાંચે ઈન્દ્રિનાં સુખ અનુભવ કરતી વિચરતી હતી. પછી કઈ સમયે તે રેવતી દેવી પુણ્યવાન લોકોને પિઢવા ગ્ય એવી પિતાની સુકેમલ શય્યામાં સુતી હતી ત્યાં સ્વપ્નમાં સિંહને જ અને જાગી ગઈ. સ્વપ્નનું વૃત્તાન્ત તેણે રાજા બલદેવને કહી સંભળાવ્યું. પછી સમય વીતતાં રેવતીના ગર્ભથી એક કુમારને જન્મ થયે, જેનું નામ નિજ રાખવામાં આવ્યું. તે કુમાર મોટે થતાં મહાબલના જે બઉતેર કળાઓમાં પ્રવીણ થઈ ગયે. પચાસ રાજકન્યાઓની સાથે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ५ वृष्णिदशास्त्र मूलम्तेणं कालेणं २ अरहा अरिद्वनेमी आदिकरे दसधणूई वण्णओ जाव समोसरिए, परिसा निग्गया। तएणं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हतुडे० कोडंबियपुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो खिप्पामेव देवाणुप्पिया! सभाए मुहम्माए सामुदाणियं भेरि तालेह । तएणं से कोडुबियपुरिसे जाव पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए जेणेव सामुदाणिया भेरी तेणेव उवागच्छइ छायातस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः आदिकरो दशधनुष्कः वर्णकः यावत् समवमृतः, परिषत् निर्गता । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवोऽस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टः० कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयिता एवमवादीत-क्षिप्रमेव देवानुपियाः ! सभायां सुधर्मायां सामुदानिकी भेरी ताडयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा यावत् प्रतिश्रुत्य लोकत्रये बलवन्तश्च अतुलबलशालिनेमिनाथयुक्तखात् , ये ते तथा तेषाम् । शेषं सुगमम् ॥१॥ प्रवीण हो गया। पचास राज कन्याओंके साथ एक दिनमें उसका विवाह हुआ तथा उसको पचास-पचास दहेज मिला । अनन्तर पूर्वजन्म उपार्जित पुण्यसे मिले हुए पाँचो इन्द्रियोंके सुखोंका अनुभव करता हुआ अपने महलमें उत्सव आदिके साथ रहने लगा ॥१॥ એક દિવસમાં તેનાં લગ્ન થયાં અને પચાસ પચાસ દહેજ મળ્યા. પછી પૂર્વજન્મ ઉપાર્જિત પુણ્યથી મળેલાં પાંચ ઈન્દ્રિનાં સુખને અનુભવ કરતો તે પોતાના મહેલમાં આનંદ ઉત્સવમાં રહેવા લાગ્યા. (૧). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध ___४२५ उवागच्छित्तातं सामुदाणियं भेरौं महया २ सद्देणं तालेइ, तएणं तीसे सामुदाणियाए भेरीए महया २ सद्देण तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा देवीओ उण भाणियवाओ जाव अणंगसेणापामोक्खा अणेगा गणियासहस्सा, अन्ने य बहवे राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईओ व्हाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया जहा विभवडिसक्कारसमुदएणं, अप्पेगइया हयगया जाव पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता० जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करतल० कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं वद्धाति । तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडंबियपुरिसे एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेकं हत्थिरयणं कप्पेह हयगयरहपवरजाव पञ्चप्पिणंति । तएणं से कण्हे वासुदेवे मजणघरे जाव दुरूढे, अट्ठमंगलगा, जहा कूणिए, सेयवरचामरेहि उद्भूयमाणेहि २ समुद्दविजयपामोक्खेहि दसारेहिं जाव सत्थवाहप्पभिईहिं सद्धिं संपरिखुडे सविडोए जाव रवेणं बारवईनयरीमज्झंयत्रैव सभायां सुधर्मायां सामुदानिकी भेरी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य तां सामुदानिकी भेरी महता २ शब्देन ताडयन्ति । ततः खल तस्यां सामुदानिक्यां भेो महता २ शब्देन ताडितायां सत्यां समुद्रविजयप्रमुखा दश दशार्हाः, देव्यः पुनर्भणितव्याः, यावद् अनङ्गसेनाप्रमुखानि अनेकानि गणिकासहस्राणि, अन्ये च बहवो राजेश्वर० यावत् सार्थवाहप्रभृतयः स्नाताः यावत् कृतप्रायश्चित्ताः सर्वालंकारविभूषिता यथाविभवऋद्धिसत्कारसमुदयेन अप्येकके हयगताः यावत् पुरुषवागुरापरिक्षिप्ता यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल० कृष्णं वासुदेवं जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषानेवमवादी-क्षिममेव भो देवानुपियाः ! आभिषेक्यं हस्तिरत्नं कल्पयध्वम् , हय-गज-रथ प्रवरान् यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो मज्जनगृहे यावद् दूरूढः अष्टाटमङ्गलकानि, यथा कूणिकः, श्वेतवरचामरैरुद्धयमानैः २ समुद्रविजयप्रमुखैः શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२६ ५ वृष्णिदशास्त्र मज्झेण सेसं जहा कूणिओ जाव पज्जुवासइ । तए णं तस्स निसढस्स कुमारस्स उप्पि पासायवरगयस्स तं महया जणसदं च जहा जमाली जाव धम्मं सोचा निसम्म वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जहा चित्तो जाव सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवजित्ता पडिगए । तेणं कालेणं २ अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतेवासी वरदत्ते नामं अणगारे उराले जाव विहरइ। तएणं से वरदत्ते अणगारे निसढं कुमारं पासइ, पासित्ता जायसड्डे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी अहो णं भंते ! निसढे कुमारे इडे इहरूवे कंते कंतरूवे एवं पिए० मणुनए० मणामे मणामरूवे सोमे सोमरूवे पियदसणे सुरूवे । निसढेणं भंते ! कुमारेणं अयमेयारूवे माणुयइट्टी किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता ? पुच्छा जहा सूरियाभस्स, एवं खलु वरदत्ता ! तेणं कालेणं २ इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे रोहीडए नामं नयरे होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्धे०, मेहबन्ने उजाणे, मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे । तत्थ णं दशभिर्दशाहर्यावत् सार्थवाहप्रभृतिभिः सार्द्ध संपरिवृतः सर्वऋद्धया यावत् रवेण यावत् द्वारावतीनगरीमध्यमध्येन शेषं यथा कूणिको यावत् पर्युपास्ते। ततः खलु तस्य निषधस्य कुमारस्योपरिमासादवरगतस्य तं महाजनशब्दं च यथा जमालियर्यावद् धर्म श्रुखा निशम्य वन्दते नमस्यति, वन्दिखा नमस्थिखा एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु भदन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनं यथा चित्तो० यावत् श्रावकधर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य प्रतिगतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समयेऽहंतोऽरिष्टनेमेरन्तेवासी वरदत्तो नाम अनगारः उदारो यावद् विहरति । ततः स वरदत्तोऽनगारो निषधं कुमार पश्यति, दृष्ट्वा जातश्रद्धो यावत् पर्युपासीन एवमवादी-अहो ! खलु भदन्त ! निषधः कुमार इष्ट इष्टरूपः कान्तः कान्तरूपः, एवं प्रियो मनोज्ञो० मनोऽमो मनोऽमरूपः सोमः सोमरूपः प्रियदर्शनः सुरूपः । निषधेन भदन्त ! कुमारेण अयमेतद्रूपा मानुष्यऋद्धिः कथं लब्धा ? कथं प्राप्ता ? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध ४२७ रोहीडए नयरे महब्बले नाम राया, पउमावई नामं देवी, अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि सीहं सुमिणे, एवं जम्मणं भाणियव्वं जहा महब्बलस्स, नवरं वीरंगओ नामं, बत्तीसओ दाओ, बत्तोसाए रायवरकन्नगाणं पाणि जाव उवगिजमाणे २ पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसन्तगिम्हपज्जंते छप्पि उऊ जहाविभवेणं झुंजमाणे २ कालं गालेमाणे इढे सदे जाव विहरइ । तेणं कालेणं २ सिद्धत्था नाम आयरिया जाइ. संपन्ना जहा केसी, नवरं बहुस्सुया बहुपरिवारा जेणेव रोहीडए नयरे जेणेव मेहबन्ने उज्जाणे जेणेव मणिदत्तस्य जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागया, अहापडिरूवं जाव विहरंति; परिसा निग्गया । तएणं तस्स वीरंगणस्य कुमारस्य उप्पि पासायवरगतस्स तं महया जणसदं च जहा जमाली निग्गओ धम्मं सोचा जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि जहा जमाली तहेव निक्खंतो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तबंभपृच्छा यथा सूर्याभस्य । एवं खलु वरदत्त ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे रोहीतकं नाम नगरमभवत्, मद्धस्तिमितसमृद्धम् मेघवर्णमुद्यानं, मणिदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनम् । तत्र खलु रोहीतके नगरे महाबलो नाम राजा, पद्मावती नाम देवी, अन्यदा कदाचित तस्मिन् तादृशे शयनीये सिंहं स्वप्ने०, एवं जन्म भणितव्यं यथा महाबलस्य, नवरं वीरंगतो नाम, द्वात्रिंशद् दायाः, द्वात्रिंशतो राजकन्यकानां पाणिं यावद् उपगीयमानः २ पावर्षा रात्रशरद्धेमन्तग्रीष्मवसन्तान् षडपि ऋतून् यथाविभवेन भुञ्जानः इष्टान् शब्दान् यावद् विहरति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये सिद्धार्था नाम आचार्या जातिसम्पन्ना यथा केशी, नवरं बहुश्रुता बहुपरिवारा यत्रैव रोहीतकं नगरं यत्रैव मेघवर्णमुद्यानं यत्रैव मणिदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैवोपागतः, यथाप्रतिरूपं यावद् विहरति, परिषद् निर्गता । ततः खलु तस्य वीरंगतस्य कुमारस्य उपरिमासादवरगतस्य तं महाजन શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ५ वृष्णिदशास्त्र यारी । तए णं से वीरंगए अणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूइं जाव चउत्थ जाव अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाइं पणयालीसवासाइं सामन्त्रपरियायं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा बंभलोए कप्पे मणोरमे विमाणे देवत्ताए उववन्ने । तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं दससागरोवमा ठिई पण्णत्ता । तत्थणं वीरंगयस्स देवस्सवि दस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता, से णं वीरंगए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव अणंतरं चयं चइत्ता इहेव बारवईए नयरीए बलदेवस्स रन्नो रेवईए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने । तएणं सा रेवई देवी तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सुमिणदंसणं जाव उप्पि पासायवरगए विहरइ । तं एवं खलु वरदत्ता ! शब्दं च, यथा जमालिनिर्गतो धर्मश्रुखा यद् नवरं देवानुमियाः ! अम्बापितरौ आपृच्छामि यथा जमालिस्तथैव निष्क्रान्तो यावद् अनगारो जातो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स वीरंगतोऽनगारः सिद्धार्थानामाचार्याणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहूनि यावत् चतुर्थ० यावत् आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि पञ्चचखारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयिखा द्वैमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषिता सविंशति भक्तशतमनशनेन छित्त्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृता ब्रह्मलोके कल्पे मनोरमे विमाने देवतया उपपन्नः । तत्र खलु अस्त्येकेषां देवानां दशसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र खलु वीरंगतस्य देवस्यापि दशसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । स खलु वीरंगतो देवस्तस्माद् देवलोकात् आयुःक्षयेण यावद् अनन्तरं चयं च्युला इहैव द्वारावत्यां नगर्यो बलदेवस्य राज्ञो रेवत्या देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः । ततः खलु सा रेवती देवी तस्मिन् तादृशे शयनीये स्वमदर्शनं यावद् उपरि मासादवरगतो विहरति । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध निसढेणं कुमारेणं अयमेयारुवा ओराला मणुयइड्ढी लद्धा ३ । पभू णं भंते ! निसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वइत्तए ? हंता पभू । से एवं भंते ! २ इय वरदत्ते अणगारे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥२॥ तदेवं खलु वरदत्त ! निसधेन कुमारेण इयमेतद्रूपा उदारा मनुष्यऋद्धिलब्धा ३ । प्रभुः खलु भदन्त ! निषधः कुमारो देवानुपियाणामन्तिके यावत् प्रव्रजितुम् ? हन्त प्रभुः । स एवं भदन्त ! २ इति वरदत्तोऽनगारो यावदात्मानं भावयन् विहरति ॥ २ ॥ टीका' तेणं कालेणं' इत्यादि । व्याख्या स्पष्टा ॥ २ ॥ ' तेणं कालेणं' इत्यादि उस काल उस समयमें दस धनुष प्रमाण शरीरवाले धर्मके आदिकर अर्हत् अरिष्टनेमि उस द्वारका नगरीमें पधारे। परिषद उनके दर्शन निमित्त अपने २ घरसे निकली। भगवानके आनेका समाचार सुनकर कृष्ण वासुदेवने हृष्टतुष्ट हृदयसे कौटुम्बिकपुरुषोंको बुलवाया और इस प्रकारकी आज्ञा दी ‘तंणं कालेणं ' Uत्या. તે કાળ તે સમયે દશ ધનુષના જેટલાં પ્રમાણ (માપ) ના શરીરવાળા ધર્મના આદિકર અહંતુ અરિષ્ટનેમી તે દ્વારકા નગરીમાં પધાર્યા. પરિષદુ તેમના દર્શન નિમિત્તે પિતા પોતાને ઘેરથી નીકળી. ભગવાનના આવ્યાના સમાચાર સાંભળી કૃષ્ણવાસુદેવે હૃષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી કૌટુંબિક પુરૂષોને બોલાવ્યા અને આ પ્રકારે આજ્ઞા આપી. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वृष्णिदशास्त्र हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही जाकर सुधर्मा सभाकी सामुदानिक भेरीको बजाओ। जिस भेरीके बजाये जानेपर जन समुदाय एकत्रित हो जाय, उसे सामुदानिक मेरी कहते हैं। वासुदेव कृष्णके द्वारा इस प्रकार आज्ञापित वे कौटुम्बिक पुरुष उनकी आज्ञाको स्वीकार कर जहाँ सामुदानिक भेरी थी उधर गये और वहाँ जाकर सामुदानिक भेरीको खूब जोरसे बजाया। उसको अत्यधिक जोरसे बजाये जानेपर समुद्रविजय प्रमुख दस दशार्हसे लेकर यावत् रुक्मिणी आदि देविया तथा अनङ्गसेना प्रभृति अनेक सहस्र गणिकायें और दूसरे बहुतसे राजा ईश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक यावत् सार्थवाह आदि स्नान ओर दुःस्वप्न आदिके निवारणके लिये मषी तिलक आदि करके सभी अलङ्कारोंसे अलङ्कृत हो अपने २ विभवके अनुसार सत्कार सामग्रियोंके साथ घोडे आदि सवारियों पर बैठकर अपने २ अनुचर पुरुषोंके साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव थे वहाँ आये । वहाँ आकर हाथ जोडकर कृष्ण वासुदेवको जय विजय शब्दसे बधाया। उसके बाद कृष्ण वासुदेवने अपने कौटुम्बिक पुरुषोंको बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! आभिषेक्य ( पट्ट ) हस्ति હે દેવાનુપ્રિય ! જલદી જઈને સુધર્મ સભાની સામુદાનિક ભેરી (વાજું) વગાડે. જે ભેરીને વગાડવાથી જનસમુદાય એકત્રિત થઈ જાય તેને સામુદાનિક ભેરી કહે છે. કૃષ્ણવાસુદેવ તરફથી આ પ્રકારે આજ્ઞા મળતાં તે કૌટુંબિક પુરૂષ તેમની આજ્ઞાને સ્વીકાર કરી જ્યાં સામુદાનિક ભેરી હતી ત્યાં ગયા અને ત્યાં જઈને સામુદાનિક ભેરી ખૂબ જોરથી વગાડી. તે બહુ જોરથી વગાડવાથી સમુદ્રવિજય પ્રમુખ દશ દશાથી માંડીને રૂકિમણી આદિ દેવિઓ તથા અનંગસેના આદિ અનેક સહસ્ત્ર ગણિકાઓ તથા બીજા રાજા ઈશ્વર, તલવર, માડમ્બિક કૌટુંબિક અને સાર્થવાહ આદિ સ્નાન તથા દુઃસ્વપનાં નિવારણને માટે મસી તિલક કરીને બધાં ઘરેણાંથી વિભૂષિત થઈને પોતપોતાના વૈભવ પ્રમાણે સત્કાર સામગ્રી લઈને ઘેડા વગેરે ઉપર સવારી કરીને પોતાના નેકર-ચાકર સાથે જ્યાં કૃષ્ણવાસુદેવ હતા ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને હાથ જોડી કૃષ્ણવાસુદેવને જયવિજય શબ્દથી વધાવ્યા. ત્યાર પછી કૃષ્ણવાસુદેવે પિતાના કૌટુંબિક પુરૂષને બોલાવી આ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य- १ निषेध ४३१ 1 1 रत्नको और अन्य हाथी घोडे रथ आदिको सजाकर ले आओ । कृष्ण वासुदेवकी ऐसी आज्ञा सुनकर वे कौटुम्बिक पुरुष शीघ्र ही हाथी घोडे रथ आदिको सजाकर आये । उसके बाद कृष्ण वासुदेव मज्जनगृहमें स्नान करनेके लिये गये, स्नान कर सभी अलङ्कारोंसे अलङ्कृत हो अपने आभिषेक्य हाथी पर चढे । और उन्हें शुभ शकुनके लिये आठ-आठ माङ्गलिक वस्तुएँ दिखायी गईं । इसके बाद वह कृष्ण वासुदेव कूणिकके समान डुलाए जाते हुए श्वेतचामरोंसे सुशोभित तथा समुद्रविजय प्रमुख दस दशाहोंसे लेकर यावत् सार्थवाह प्रभृतियोंसे घिरे हुए तथा सभी प्रकारके विभव के साथ मेरी आदि बाजोंके शब्दोंसे दिशाको मुखरित करते हुए द्वारावती नगरी के बीचोबीच चलते हुए भगवान अर्हत् अरिष्टनेमिके पास पहुँचे । और कूणिकके समान तीनबार आदक्षिण प्रदक्षिण करके वन्दन नमस्कार किया और सेवा करने लगे । उसके बाद वह निषध कुमारने अपने उपरी महलमें शब्दादिविषयोंका પ્રકારે કહ્યું:—હૈ દેવાનુપ્રિય ! આભિષેકય ( પટ્ટ ) હાથીરત્નને તથા ખીજા હાથી ઘેાડા રથ આદિ તૈયાર કરી લઇ આવેા. કૃષ્ણવાસુદેવની એવી આજ્ઞા સાંભળીને તે કૌટુબિક પુરૂષ જલદી હાથી ઘેાડા રથ આદિને તૈયાર કરી લઇ આવ્યા. ત્યાર પછી કૃષ્ણવાસુદેવ સ્નાનઘરમાં ન્હાવા ગયા. સ્નાન કરી બધાં ઘરેણાંથી વિભૂષિત પેાતાના આભિષેકચ પટ્ટ હાથી ઉપર ચડયા. અને તેમને શુભ શુકનને માટે આઠ આઠ માંગલિક વસ્તુઓ દેખાડવામાં આવી. ત્યાર પછી કૃષ્ણવાસુદેવ કાણિકની પેઠે ઢાળાઇ રહેતાં શ્વેત ચામાથી સુગેાભિત તથા સમુદ્રવિજય પ્રમુખ દશદશાથી માંડીને યાવત્ સાર્થવાહ આદિથી ઘેરાયેલ તથા સર્વ પ્રકારના વૈભવ સાથે, ભેરી વગેરે વાજાના શબ્દોથી દિશાઓને મુખરિત કરતા દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચેવચ્ચેથી ચાલતા ભગવાન અર્હત્ અરિષ્ટનેમીની પાસે પહોંચ્યા અને ત્રણવાર આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વંદન નમસ્કાર કર્યા અને સેવા કરવા લાગ્યા. ત્યાર પછી તે નિષધ મારે પણ પાતાના ઊંચા મહેલમાં શબ્દાદિ વિષયાના શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ५ वृष्णिदशास्त्र सुखानुभव करता हुआ मनुष्योके महान कोलाहलको सुना। उसे जिज्ञासा हुई कि क्या बात है ? पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि यहाँ पधारे हैं। जनता उनकी वन्दनाके लिये जा रही है इसीलिये यह कोलाहल हो रहा है। यह जानकर जमालिके समान वह भी भगवानके दर्शनके लिये आये, और आदक्षिण प्रदक्षिण करके वन्दन नमस्कार किया। अनन्तर धर्म सुनकर उसे हृदयसे अवधारण कर वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार कहने लगा-हे भदन्त ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। इसके बाद वह चित्त प्रधानके समान यावत् श्रावक धर्मको स्वीकार कर अपने घर लौट आया। उस काल उस समयमें अर्हत् अरिष्टनेमिके अन्तेवासी उदार प्रधान ओजस्वी वरदत्त नामके अनगार धर्मध्यान करते हुए एकान्तमें बैठे थे। भगवान्के समीप आये हुए निषध कुमारको देखकर उन्हें श्रद्धा जिज्ञासा और कौतुहल उत्पन्न हुआ और उन्होंने भगवानसे इस प्रकार पूछा સુખાનુભવ કરતા થકા મનુષ્યને માટે કોલાહલ સાંભળે. તેમને જીજ્ઞાસા થઈ કે શું વાત છે? પૂછવાથી ખબર પડી કે ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિ અહીં પધાર્યા છે અને જનતા તેમનાં વંદન-દર્શન માટે જાય છે. તેથી આ કોલાહલ થાય છે. આ જાણુને જમાલીની પેઠે તે પણ ભગવાનનાં દર્શન માટે આવ્યા અને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા કરીને વંદન નમસ્કાર કર્યો. પછી ધર્મનું શ્રવણ કરી તેને હૃદયમાં અવધારણ કરીને વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે કહ્યું – હે ભદન્ત! હું નિન્ય પ્રવચન ઉપર શ્રદ્ધા રાખું છું. ત્યાર પછી તે ચિત્ત પ્રધાનની પેઠે શ્રાવક ધર્મને સ્વીકાર કરીને પિતાને ઘેર પાછા આવ્યું. તે કાળ તે સમયે અહંતુ અરિષ્ટનેમિના અતેવાસી ઉદાર પ્રધાન ઓજસ્વી વરદત્ત નામે અનગાર ધર્મધ્યાન કરતા એકાન્તમાં બેઠા હતા. ભગવાનની પાસે આવેલા વિશ્વ કુમાર ને જોઈને તેને જીજ્ઞાસા અને કૌતુહલ ઉત્પન્ન થયું. અને लापान मा प्रभारी ५७यु:- लहन्त ! निषध कुमार | छ. ४३५ छ, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य- १ निषध ४३३ हे भदन्त ! वह निषध कुमार इष्ट है, इष्टरूप है, कान्त है, कान्तरूप है । इसी तरह प्रिय है मनोज्ञ है मनोम ( मनको अच्छा लगनेवाला ) है, सोम है, सोमरूप है, प्रियदर्शन है, सुरूप है । हे भदन्त ! इस निषध कुमारको इस प्रकारकी मनुष्य सम्बन्धी ऋद्धि कैसे मिली, कैसे प्राप्त हुई, और कैसे यह ऋद्धि इसके भोग में आई? इत्यादि - गौतमने सूर्याभकी देव ऋद्धिके बारेमें जिस प्रकार भगवानसे पूछा था उसी प्रकार - वरदत्तने पूछा । भगवान कहते हैं— " हे वरदत्त | उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीपके अन्दर भरत क्षेत्र में रोहितक नामक नगर था जो कि धन धान्यादि ऋद्धिसे समृद्ध था । उस नगर में मेघवर्ण नामक उद्यान था । उस उद्यानमें मणिदत्त नामक यक्षका एक यक्षायतन था । उस रोहितक नगरका राजा महाबल था । उसकी रानीका नाम पद्मावती था । अन्त छे, अन्त३थ छे. गोवीन रीते प्रिय छे, भनाइ छे, मनोरम छे. सोभ छे, सोम३य छे. प्रियदर्शन छे, सुइय छे. હે ભદન્ત ! આ નિધ ઠુમાર ને આ પ્રકારની મનુષ્ય સંબંધી ઋદ્ધિ કેવી રીતે મળી, કેમ પ્રાપ્ત થઇ, અને કેવી રીતે તે ઋદ્ધિ તેમના ભાગમાં આવી? ગૌતમે સૂર્યાલની દેવદ્ધિ વિષે જેવી રીતે ભગવાનને પૂછ્યું હતું તેવી રીતે વરદત્તે પૂછ્યું: ભગવાને કહ્યું:—હૈ વરદત્ત ! તે કાળ તે સમયે આ જમ્મુદ્દીપ નામે દ્વીપની અંદર ભરતક્ષેત્રમાં રોહીતક નામે નગર હતું કે જે ધનધાન્ય ઋદ્ધિથી સમૃદ્ધ હતું. તે નગરમાં મેઘવર્ણ નામે ઉદ્યાન હતું તે ઉદ્યાનમાં મદત્ત નામે યક્ષનું ચક્ષાયતન હતું. તે રાહિતકના રાજા મહાખલ હતા તેની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતું. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ५ वृष्णिदशासूत्र एक समय सुकोमल शय्यापर सोयी हुई उस पद्मावती रानीने स्वप्नमें सिंहको देखा । अनन्तर उसके गर्भसे एक बालक उत्पन्न हुआ। उसका जन्म आदिका वर्णन महाबलके समान जानना चाहिये । उस बालकका नाम वीरङ्गत रखा गया । जब वह कुमार बडा हुआ तो उसका विवाह बतीस राजकन्याओंके साथ किया गया। और उसे बत्तीस-बत्तीस प्रकारका दहेज मिला । उसके महलके उपरी भागमें सर्वदा मृदङ्ग आदि बाजे बजते रहते थे । तथा गायक उसके गुणोंको गाते रहते थे। वह वीरगत वर्षा आदि छ ऋतु सम्बन्धी इष्टशब्दादि विषयोंको अपने विभवानुसार भोगता हुआ विचरता था। उस काल उस समयमें केशी श्रमणके समान जातिमन्त तथा बहुश्रुत और बहुत शिष्यपरिवारसे युक्त सिद्धार्थ नामक आचार्य रोहितक नगरके मेघवर्ण उद्यानके अन्दर मणिभद्र यक्षायतनमें पधारे। और उद्यानपालसे आज्ञा लेकर वहाँ विचरने लगे। परिषद् उन आचार्यवरके दर्शनके लिये अपने-अपने घरसे निकलो, એક સમય સુકેમળ શમ્યા ઉપર સૂતેલી તે પાવતી રાણીએ સ્વપ્નમાં સિંહને જોયો. પછી તેના ગર્ભથી નહાવ8 ના જેવો એક બાળક ઉત્પન્ન થયે. તેના જન્મ આદિનું વર્ણન મહાબલના જેવું સમજવું તેનું નામ વગર રાખ્યું હતું. જ્યારે તે કુમાર માટે થયે ત્યારે તેનાં લગ્ન બત્રીસ રાજકન્યાઓની સાથે કરવામાં આવ્યાં અને તેને બત્રીસ-બત્રીસ દહેજ મળ્યા. તેના મહેલના ઉપલા માળમાં હમેશાં મૃદંગ આદિ વાજા વાગતાં રહેતાં હતાં તથા ગાયક તેને ગુણેનાં ગાન કર્યા કરતા હતા. તે વાત વષ આદિ છ ઋતુ સંબંધી ઈષ્ટ શબ્દાદિ વિષને પિતાના વૈભવ પ્રમાણે ભગવતો વિચરતે હતો. તે કાળ તે સમયે કેશી શ્રમણના જેવા જાતવાન તથા બહુશ્રુત અને બહુ શિષ્ય પરિવારવાળા સિદ્ધાર્થ નામે આચાર્ય હીતક નગરના મેઘવર્ણ ઉદ્યાનની અંદર મણિભદ્ર યક્ષાયતનમાં પધાર્યા. અને ઉદ્યાનપાલની આજ્ઞા લઈને ત્યાં વિચરવા લાગ્યા. પરિષદ તે આચાર્યવરનાં દર્શન માટે પિતા પોતાના ઘેરથી નીકળી. ત્યાર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध उसके बाद वह वीरङ्गत कुमारने सिद्धार्थ आचार्यके दर्शन करनेके लिये जाते हुए मनुष्योंके महान कोलाहलको सुना । अनन्तर उसने कोलाहलके कारणका अन्वेषण किया उसे ज्ञात हुआ कि सिद्धार्थ आचार्य यहाँ पधारे हुए हैं, जनता उनके दर्शनके लिये जा रही है, उसीका यह कोलाहल है। यह जानकर वीरङ्गत कुमार जमालिके समान उन आचार्यके दर्शन करनेके लिये गया। धर्म सुनकर उसने उन सिद्धार्थ आचार्यको वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार कहा __हे देवानुप्रिय ! मैं माता पितासे पूछकर आपके समीप प्रव्रज्या लेना चाहता हूँ। उसके बाद वह वीरगत कुमार जमालिके समान प्रबजित होकर अनगार हो गया, और ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी हो गया। उसके बाद वह वीरङ्गत अनगारने उन सिद्धार्थ आचार्यके समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययन किया अनन्तर बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तपसे आत्माको भावित करते हुए पूरे पैंतालीस वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन किया। बाद दो પછી તે ચોર કુમારે પણ સિદ્ધાર્થ આચાર્યનાં દર્શન કરવા માટે જતાં મનુખેને મહાન કોલાહલ સાંભળે. પછી તેણે તે કોલાહલનું કારણ સમજવા તપાસ કરાવી તે તેને માલુમ પડ્યું કે સિદ્ધાર્થ આચાર્ય અહીં પધાર્યા છે. જનતા તેનાં દર્શન માટે જઈ રહી છે. તેને આ કોલાહલ છે. આ જાણીને વર કુમાર જમાલીની પેઠે આચાર્યોનાં દર્શન કરવા માટે ગયા. ધર્મનું શ્રવણ કરીને તેણે તે સિદ્ધાર્થ આચાર્યને વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે કહ્યું – હે દેવાનુપ્રિય! હું મારાં માતાપિતાને પૂછીને આપની પાસે પ્રવજ્યા લેવા ચાહું છું. ત્યાર પછી તે વર કુમાર જમાલીની પેઠે પ્રવજિત થઈ અનગાર થઈ ગયા અને ઈસમિતિ આદિથી યુક્ત થઈ યાવત્ ગુમબ્રાચારી બની ગયા. ત્યાર પછી તે અનગારે તે સિદ્ધાર્થ આચાર્યની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું. પછી ઘણું ચતુર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ આદિ તપથી આત્માને ભાવિત કરતાં પૂરાં પીસતાલીસ વર્ષ સુધી દીક્ષા પયાયનું પાલન કર્યું. પછી બે શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ५ वृष्णिदशासूत्र मासको संलेखनासे आत्माको सेवित करते हुए एक सौ बीस भक्तोंकों अनशनसे छेदित कर अपने पाप स्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधि प्राप्त हो काल अवसरमें काल कर ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोकके मनोरम विमानमें देवता होकर उत्पन्न हुए। वहाँ कई एक देवोंकी स्थिति दस सागरोपम है, वहाँ इस वीरगत देवकी भी स्थिति दश सागरोपम थी। वह वीरङ्गत देव देवसम्बन्धी आयु भव और स्थितिके क्षय होनेपर उस ब्रह्मलोकसे च्यवकर इस द्वारावतो नगरीमें राजा बलदेवकी पत्नी रेवतीके उदरमें पुत्र होकर जन्मे। उस रेवती देवीने स्वप्नमें सिंह देखा । और उसके बाद यह निषध कुमार उत्पन्न हुए यावत् शब्दादि विषयोंका अनुभव करते हुए अपने ऊपरी महलमें बिचर रहे हैं। हे वरदत्त ! इस प्रकार इस निषध कुमारने इस प्रकारकी उदार मनुष्यऋद्धि पायी है । वरदत्त पूछते हैहे भदन्त ! क्या यह निषध कुमार आपके समीप प्रवजित होगा ? માસની સંખનાથી આત્માને સેવિત કરતાં એકસે વીસ ભક્તોનું અનશનથી છેદન કરી પિતાનાં પાપસ્થાનોની આલેચના તથા પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિ પ્રાસ થતાં કાળ અવસરમાં કાળ કરીને બ્રહનામક પાંચમા દેવલોકના મનરમ વિમાનમાં દેવતા થઈને ઉત્પન્ન થયા. ત્યાં કેટલાક દેવની સ્થિતિ દશ સાગરેપમની છે. ત્યાં वीरंगतदेव नी ५ स्थिति सागरामनी ता. वोरंगतदेव हेव समाधी आयुખ્ય ભવ અને સ્થિતિ ક્ષય થવાથી તે બ્રહ્મલોકમાંથી આવીને આ દ્વારાવતી નગરીમાં રાજા બલદેવની પત્ની રેવતીના ઉદરમાં પુત્ર થઈને જમ્યા. તે રેવતી દેવીએ સ્વપ્નમાં સિંહને દીઠે અને ત્યાર પછી આ નિવપકુમાર ઉત્પન્ન થયા. અને યાવત્ શબ્દાદિ વિષયને અનુભવ કરતા તે પોતાના મહેલના ઉપલે માળે રહેવા લાગ્યા. હે વરદત્ત ! આ પ્રકારે આ નિષધમાર ને આવા પ્રકારની ઉદાર મનુષ્ય *द्धि भणेसी.छ. १२४त्त पूछे छ:હે ભદન્ત ! આ નિષUાર આપની પાસે પ્રજિત થવામાં સમર્થ છે? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध ४३७ तएणं अरहा अरिहनेमी अण्णया कयाइ बारवईओ नयरीओ जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ । निसढे कुमारे समणोवासए जाए अमिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । तएणं से निसढे कुमारे अण्णया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव दमसंथारोवगए विहरइ । तएणं निसढस्स कुमारस्स पुव्वरत्तावरत० धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे छायाततः खलु अर्हन् अरिष्टनेमिरन्यदा कदाचित् द्वारावत्या नगर्या यावत् बहिर्जनपदविहारं विहरति । निषधः कुमारः श्रमणोपासको जातः अभिगतजीवाजीवो यावद् विहरति । ततः खलु स निषधः कुमारः अन्यदा कदाचित् यत्रैव पोषधशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यावद् दर्भसंस्तारोपगतो विरहति । ततः खलु तस्य निषधस्य कुमारस्य पूर्वरात्रापर भगवान कहते हैंहाँ; वरदत्त ! यह निषघ कुमार अनगार बन सकेगा। वरदत्त कहते हैं हे भदन्त ! आप जो कहते हैं वह सत्य ही है। ऐसा कहकर वरदत्त अनगार आत्माको तप संयमसे भावित करते हुए विचरने लगे ॥२॥ ભગવાન કહે છે – 3 १२४त्त ! 1, निषधकुमार मनार मनवामी समर्थ छ. વરદત્ત કહે છે – હે ભદન્ત ! આપ કહે છે તેમજ છે. એમ કહીને વરદત્ત અનગાર આત્માને તપ-સંયમ વડે ભાવિત કરતાં વિચરવા લાગ્યા. (૨). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वृष्णिदशास्त्र अज्झथिए० धन्ना णं ते गामागर जाव संनिवेसा जत्थणं अरहा अरिनेमी विहरइ । धन्ना णं ते राईसर जाव सत्यवाहपभईओ जेणं अरिनेमिं वंदति नर्मसंति जाव पज्जुवासंति, जइ णं अरहा अरिट्ठनेमी पुव्वाणुपुवि० नंदणवणे विहरेज्जा तोणं अहं अरहं अरिट्ठनेमिं वंदिज्जा जाव पज्जुवा सिज्जा । तणं अरहा अरिनेमी निसदस्स कुमारस्स अयमेयारूवं अज्झत्थियं जाव वयाणित्ता अट्ठारसहिं समणसहस्सेहिं जाव नंदणवणे उज्जाणे समोसढे । परिसा निग्गया । तएणं निसढे कुमारे इमीसे कहाए लट्ठे समाणे हट्ठ० चाउरघंटेणं आसरहेणं निग्गए, जहा जमाली, जाव अम्मापियरो आपुच्छित्ता पन्चइए, अणगारे जाते जाव गुत्तबंभयारी । तए णं से निसढे अणगारे अरहतो अरिनेमिस्स तहाख्वाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूई चउत्थछट्ट जाव विचित्ते हि तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुणाई नव वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, बायालीसं रात्रकाले धर्मजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिक : ० - धन्याः खलु ते ग्रामागर यावत् सन्निवेशा:, यत्र खलु अर्हन् अरिष्टनेमिर्विहरति धन्याः खलु ते राजेश्वर यावत् सार्थवाहमभृतिकाः, ये खलु अरिष्टनेमिं वन्दन्ते नमस्यन्ति यावत् पर्युपासते, यदि खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः पूर्वानुपूर्वी० नन्दनवने विहरेत् तर्हि खलु अहमर्हन्तमरिष्टनेमिं वन्देय नमस्येयं यावत् पर्युपासीय । ततः खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः निषधस्य कुमारस्य इममेतद्रूप - माध्यात्मिकं यावद् विज्ञाय अष्टादशभिः श्रमणसहस्रैः यावद् नन्दनवने उद्याने समवसृतः, परिषद् निर्गता । ततः खलु निषधः कुमारः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्ट० चातुर्घण्टेन अश्वरथेन यावद् निर्गतः, यथा जमालिः, यावद् अभ्वापितरौ आपृच्छथ मत्रजितः, अनगारो जातो याबद् गुप्तब्रह्मचारी । ततः खलु स निषधोऽनगारः अर्हतोऽरिष्टनेमेस्तथारूपाणां स्थविराणामन्ति के सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अघीते, अघोत्य बहूनि ४३८ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य- १ निषेध ४३९ भत्ता असणाए छेदेइ, आलोइयपडिकंते सामाहिपत्ते अणुपुव्वी कालगए । तर णं से वरदत्ते अणगारे निसढं अणगारं कालगतं जाणित्ता जेणेव अरहा अरिनेमी तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता जाव एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी निसढे नामं अणगारे पगइभहए जाव विणीए, से णं भंते ! निसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहि उववन्ने ? वरदत्ताइ ! अरहा अरिनेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी एवं खलु वरदत्ता । ममं अंतेवासी निसढे नामं अणगारे पगइभदे जाव विणीए ममं तहारुवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई नववासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिकंते सामाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ड चंदिमरियगहनक्खत्ततारारूवाणं सोहम्मीसाणं जाव अच्चुते तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेविज विमाणावाससए वीतिवतित्ता सव्वट्टसिद्धविमाणे देवत्ताए उववण्णे । चतुर्थ षष्ठ यावद् विचित्रैः तपः कर्मभिरात्मानं भावयन् बहुमतिपूर्णानि नव वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, चलारिंशद् भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या कालगतः । ततः खलु स वरदत्तोsनगारो निषधमनगारं कालगतं ज्ञात्वा यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यावद् एवमवादीद एवं खलु देवानुमियाणामन्तेवासी निषेधो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रको यावद् विनीतः । स खलु भदन्त ! निषधोsनगारः कालमासे कालं कृत्वा क्व गतः ? क्व उपपन्नः ? वरदत्त ! इति अर्हन् अरिष्टनेमिः वरदत्तमनगारमेवमादीत् एवं खलु वरदत्त ! ममान्तेवासी निषधो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रो यावद् विनीतो मम तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीत्य बहुप्रतिपूर्णानि नव वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा द्विचत्वारिंशद् मक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृला ऊर्ध्वं શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ५ वृष्णिदशासूत्र तत्थ देवाणं तेत्तीसं सागरोवमा ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं निसढस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । से गं भंते ! निसढे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववजिहिइ ? वरदत्ता ! इहेव जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उन्नाए नयरे विसुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पञ्चायाहिइ । तएणं से उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलबोहिं बुज्झिहिद, बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वन्जिहिइ । से गं तत्थ अणगारे भविस्सइ इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी । से ण तत्थ बहूई चउत्थछट्टमदसमदुवालसेहि मासद्धमासखमणेहि विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिस्सइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसिहिइ, भूसित्ता सर्टि भत्ताई अणसणाए छेदिहिइ । जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए जाव अदंतवणए अच्छत्तए अणोवाहणए फलहसेज्जा कट्ठसेज्जा चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र-तारारूपाणां सौधर्मेशान० यावद् अच्युतं त्रीणि च अष्टादशीत्तराणि ग्रैवेयकविमानावासशतानि व्यतिवर्त्य सर्वार्थसिद्धविमाने देवत्वेनोपपन्नः । तत्र खलु देवानां त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । तंत्र खलु निषधस्यापि देवस्य त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । स खलु भदन्त ! निषधो देवस्तस्माद् देवलोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं च्युता क्व गमिष्यति ? क्व उपपत्स्यते ? वरदत्त ! इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे उन्नाते नगरे विशुद्धपित्वंशे राजकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । ततः खलु स उन्मुक्तबालभावः विज्ञातपरिणतमात्रः यौवनकमनुमाप्तः तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके केवलबोधि बुद्ध्वा अगाराद् अनगारतां प्रबजिष्यति । स खलु तत्राऽनगारो भविष्यति, ईयासमिवो यावद् गुप्तब्रह्मचारी । स खलु तत्र बहूनि चतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशै र्यासाईमासलपपौः विचित्रैः तपःकर्मभिरात्मानं भावयन् बहूनि वर्माणि શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे पिंडवाओ लद्धावलद्धे उच्चावया य गामकंटया अहियासिज्जइ, तमढें आराहिइ, आराहित्ता, चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ जाव सब्वदुक्खाणं अंतं काहिइ । एवे खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं जाव निक्खेवओ ॥३॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥१॥ श्रामण्यपर्यायं पालयिष्यति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयिष्यति, जोषयित्वा पष्टिं भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति । यस्यार्थ क्रियते नग्नभावो, मुण्डभावः, अस्नानको, यावद् अदन्तवर्णकः, अच्छत्रकः, अनुपानत्का, फलकशय्या, काष्ठशय्या, केशलोचो, ब्रह्मचयर्यवासा, परगृहप्रवेशः, पिण्डपातः, लब्धापलब्धः, उच्चावचाश्च ग्रामकण्टका अध्यास्यन्ते, तमर्थमारा. धयिष्यति, आराध्य चरमैरुच्छ्वास-निःश्वासैः सेत्स्यति, भोत्स्यते, यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन यावत् निक्षेपकः ॥ ३ ॥ ॥ प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १ ॥ टीका'तएणं अरहा' इत्यादि । यस्यार्थ-यन्मोक्षमाप्त्यर्थं क्रियते नग्न 'तएणं अरहा' इत्यादि उसके बाद अर्हत् अरिष्टनेमि एक समय द्वारावती नगरीसे निकलकर जनपद देशमें विहार करने लगे। निषधकुमार श्रमणोपासक हो गये और वह जीव 'तएणं अरहा' त्या ત્યાર પછી અર્હત્ અરિષ્ટનેમિ એક સમય દ્વાવતી નગરીથી નીકળીને देशमा वियवा साया. निषकुमार श्रभपास थड गयो भने त શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ५ वृष्णिदशास्त्र अजीव आदि तत्त्वोंको जानकर विचरने लगे। उसके बाद वह निषधकुमार एक समय जहाँ पौषधशाला थी वहाँ गये और वहाँ दाभका आसनपर बैठकर धर्मध्यान करते हुए विचरने लगे। उसके बाद रात्रिके अन्तिम प्रहरमें धर्म जागरणा करते हुए उस निषधकुमार के हृदयमें इस प्रकारका विचार उत्पन्न हुआ कि वह ग्राम यावत् सन्निवेश धन्य है जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान विचरते हैं ! वे राजा ईश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक यावत् सार्थवाह प्रभृति धन्य हैं जो भगवानको वन्दन नमस्कार करते हैं और सेवा करते हैं। यदि अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान पूर्वानुर्वी विचरते हुए नन्दन वनमें पधारें तो मैं भी भगवानको वन्दन नमस्कार करूँ और उनकी सेवा करूँ । उसके बाद भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि उस निषधकुमार के इस प्रकारका आध्यात्मिक अन्तःकरणका विचार जानकर, अठारह हजार श्रमणोंके साथ उस नन्दनवन उद्यानमें पधारे । भगवानके दर्शनके लिए परिषद् अपने २ घरसे निकली। उसके बाद અજીવ આદિ તને જાણીને વિચરવા લાગ્યા. ત્યાર પછી તે નિષકુમાર એક વખત જ્યાં પિષધશાળા હતી ત્યાં ગયા અને ત્યાં દાભને સંસ્તારક (આસન) બિછાવી તેના પર બેસી ધર્મધ્યાન કરતા વિચારવા લાગ્યા. ત્યાર પછી પાછલી રાત્રિએ ધર્મ–જાગરણ કરતાં તે નિષકુમાર ના મનમાં એ વિચાર પેદા થયો કે તે ગ્રામ સન્નિવેશ આદિ ધન્ય છે કે જ્યાં અહંતુ અરિષ્ટનેમિ ભગવાન વિચરે છે. તે રાજા ઈશ્વર, તલવર, માડમ્બિક, કૌટુંબિક યાવત્ સાર્થવાહ આદિ ધન્ય છે જે ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરે છે. જો અહંતુ ગત્તેિમિ ભગવાન પૂર્વાનપૂર્વ વિચરતાં નન્દન વનમાં પધારે તે હું પણ ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરું અને તેમની સેવા કરું. ત્યાર પછી लन म अरिष्टनेमि ते निषधकुमार न२॥ २॥ माध्यामिs=Aत:કરણના વિચાર આદિ જાણીને અઢાર હજાર શ્રમણની સાથે તે નન્દનવન ઉદ્યાનમાં પધાર્યા. ભગવાનનાં દર્શન કરવા માટે પરિષદ્ પિતાપિતાને ઘેરથી નીકળી. ત્યાર શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध ४४३ निषधकुमार भी इस वृत्तान्तको जानकर हृष्ट तुष्ट हृदयसे चार घंटावाला अश्वरथपर चढकर भगवानका दर्शनके लिये निकले, और जमालिके समान यावत् माता पिताकी आज्ञासे प्रव्रजित होकर अनगार हो गये। तथा ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गये । उसके बाद वह निषध अनगार अर्हत् अरिष्टनेमि भगवानके तथारूप स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गोंका अध्ययन किया तथा बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि विचित्र तपसे आत्माको भावित करते हुए पूरे नौ वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन किया। बयालीस भक्तोंको अनशनसे छेदनकर पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधि प्राप्त हो, क्रमसे काल प्राप्त हुए। उसके बाद निषध अनगारको कालगत जानकर वरदत्त अनगार जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि थे वहाँ आये और वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार पूछे-हे भदन्त ! आपके अन्तेवासी निषध अनगार प्रकृतिभद्रक और यावत् विनीत थे, सो हे भदन्त ! वह निषध अनगार काल अवसरमें कालकर कहाँ गये और कहाँ પછી વિષયકુમાર પણ આ વૃત્તાન્તને જાણીને હૃષ્ટ તુષ્ટ હૃદયથી ચાર ઘંટાવાળા અશ્વરથ ઉપર ચડીને ભગવાનનાં દર્શન કરવા નીકળ્યા અને જમાલીની પેઠે • માતાપિતાની આજ્ઞાથી પ્રજિત થઈને અનગાર થઈ ગયા તથા ઈર્યાસમિતિ આદિથી યુક્ત થઈ ગુસબ્રહ્મચારી બની ગયા. ત્યાર પછી તે નિષધ અનગારે અહંતુ અગ્નેિમિ ભગવાનના તથારૂપ સ્થવિરેની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું તથા ઘણાં ચતુર્થ, ષષ્ઠ, અષ્ટમ આદિ વિચિત્ર તપ વડે આત્માને ભાવિત કરતાં પૂરાં નવ વર્ષ સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કર્યું. બેતાલીસા ભક્તોનું અનશનથી છેદન કરી પાપસ્થાનોની આલેચના તથા પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિ પ્રાપ્ત થતાં આનુપૂવથી કાલગત થયા. ત્યાર પછી નિષધ અનગારને કાલગત થયેલા જાણીને સત્તા અનગાર જ્યાં અહંત અરિષ્ટનેમિ હતા ત્યાં આવ્યા અને વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે પૂછ્યું:– હે ભદન! આપના અન્તવાસી વિવધ અનુગાર પ્રકૃતિભદ્રક અને બહુ વિનીત હતા. માટે છે ભદન્ત ! તે નિષષ અનગાર કાળ અવસરમાં કાળ કરીને કયાં ગયા અને ક્યાં શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ५ वृष्णिदशास्त्र उत्पन्न हुए ? वरदत्त अनगारका इस प्रकार वचन सुनकर भगवानने उनसे कहा हे वरदत्त ! मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक यावत् विनीत निषध अनगार मेरे तथारूप स्थविरोंके समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगोका अध्ययनकर पूरे नौ वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालनकर बयालीस भक्तोका अनशनसे छेदनकर पापस्थानोंकी आलोचना और प्रतिक्रमणकर समाधि प्राप्त हो काल अवसरमें कालकर चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा आदिसे ऊपर सौधर्म ईशान आदि यावत् अच्युत देवलोकको उल्लङ्घन कर तीनसौ अठारह अवेयक विमानावासको भी उल्लङ्घन करता हुआ सर्वार्थसिद्ध विमानमें देवता होकर उत्पन्न हुआ। वहाँ देवताओंकी स्थिति तेंतीस सागरोपम है। उसी प्रकार निषध देवकी भी तेंतीस सागरोपम स्थिति है। वरदत्त पूछते है हे भदन्त ! वह निषध देव उस देवलोकसे देव सम्बन्धी आयु भव और स्थिति क्षयके बाद च्यवकर कही जायेंगे और कहाँ उत्पन्न होंगे ? જન્મશે ? વત્ત અનગારનાં આ પ્રકારનાં વચન સાંભળીને ભગવાને તેને કહ્યું – હિ વરદત્ત ! મારા પ્રકૃતિભદ્રક અનેતેવાસી અને વિનીત એવા નિષ અનગાર મારા તથારૂપ સ્થવિરોની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કરી પૂરાં નવ વરસ સુધી દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરીને અનશન વડે બેતાલીસ ભક્તોનું છેદન કરી પિતાનાં પાપસ્થાનની આલોચના તથા પ્રતિક્રમણ કરીને સમાધિ પ્રાપ્ત થતાં કાળ અવસરમાં કાળ કરીને ચન્દ્ર, સૂર્ય, ગ્રહ, નક્ષત્ર, તારા, આદિથી ઉપર સૌધર્મ ઈશાન આદિ યાવત્ અચુત દેવલેકનું ઉલ્લંઘન કરી ત્રણસે અઢાર વેયક વિમાનાવાસનું પણ ઉલ્લંઘન કરતાં સર્વાર્થસિદ્ધ વિમાનમાં દેવતાપણામાં ઉત્પન્ન થયા. ત્યાં દેવતાઓની સ્થિતિ તેત્રીસ સાગરેપમ છે. એવી જ રીતે નિષધ દેવની પણ તેત્રીસ સાગરોપમ સ્થિતિ છે. १२४त्त पूछे छे: હે ભદન્ત ! તે નજર તે લેકમાંથી દેવ સબંધી આયુભવ અને સ્થિતિ ક્ષય પછી ચાવીને કયાં જશે અને કયાં ઉત્પન્ન થશે? શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. १ निषध भावः अचेलत्वं परिमितवस्त्रधारित्वमित्यर्थः, मुण्डभावः दीक्षितत्वम् । अस्नानक: देशसर्वस्त्रानवर्जितः खात्मेति शेषः, अदन्तवर्णका दन्तवर्णो-दन्ताना. भगवान कहते हैं हे वरदत्त ! यह निषध देव इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीपके अन्दर महाविदेह क्षेत्रके उन्नात नगरमें विशुद्ध पितृवंशवाले राजकुलमें पुत्ररूपसे उत्पन्न होगा। उसके बाद बाल्यकाल बीतनेपर, सुप्त दसो अंगोंके जागनेपर वह युवाऽवस्था को प्राप्त होगा, और तथारूप स्थविरोंके समीप शुद्ध सम्यक्त्वको प्राप्तकर अगारसे अनगार होगा। वह अनगार वहाँ ईर्यासमिति आदिसे युक्त हो यावत् गुप्तब्रह्मचारी होगा। वह वहाँ बहुतसे चतुर्थ षष्ठ अष्टम दशम द्वादश मासार्द्ध मास क्षपणरूप विचित्रतपसे आत्माको भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन करेगा । बादमें मासिकी संलेखनासे आत्माको सेवित कर साठ भक्तोंको अनशनसे छेदित करेगा। जिस मोक्ष प्राप्तिके लिये अनगार, नग्नत्व-परिमितवस्त्रधारित्व मुण्डभाव=द्रव्य भावसे मुण्डत्व, अस्नानक देशतः और सर्वतः स्नान वर्जन, ભગવાન કહે છે – હે વરદત્ત ! આ નિપર આજ જમ્બુદ્વીપ નામે દ્વીપની અંદર મહાવિદેહ ક્ષેત્રના ઉન્નત નગરમાં વિશુદ્ધ પિતૃવંશવાળા રાજકુળમાં પુત્રરૂપે જન્મશે. ત્યાર પછી બાલ્યકાળ વીતી ગયા પછી સુતેલા દશેય અંગોની જાગૃતિ થતાં તે યુવાવસ્થાને પ્રાપ્ત થશે. અને તથારૂપ સ્થવિરે પાસે શુદ્ધ સમ્યક્ત્વને પ્રાપ્ત કરી અગારમાંથી અનુગાર થશે. તે અનગાર ત્યાં ઈર્યાસમિતિ આદિથી યુક્ત થઈ યાવત્ शुतब्रह्मयारी थशे. ते त्यां घgi यतुर्थ, १४, मटम, शम, वाश, भासाधी, માસ, ક્ષપણરૂપ વિચિત્ર તપથી –આત્માને ભાવિત કરતાં ઘણું વર્ષ સુધી દીક્ષાપર્યાયનું પાલન કરશે. પછી માસિકી સંલેખનાથી આત્માને સેવીત કરી અનશનથી सा: सतोतुं छेदन ४२शे २ भाक्षप्राति भाटे मना२ नग्नत्व परिभित पसधारित्प; मुंडभाव=kel लायी भुत्व, अस्मानक-देशत: मने सर्वत: स्नान, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वृष्णिदशासूत्र मुज्ज्वलीकरणं स एव दन्तवर्णकः अङ्गुलिदन्तशाणकाष्ठादिभिर्दन्त घर्षणं, न दन्तवर्णकोऽदन्तवर्णकः = दन्तोज्ज्वलीकरणव्यापारराहित्यम् । अच्छत्रकः=छत्ररहितः | अनुपानत्कः = पादत्राणरहितः, उपलक्षणमेतत्-शकटशिविकातुरगादिवाहनानामपि, फलकशय्यां = फलकं - मतलमायतकाष्ठं तनुपा शय्या (पाटा) इति भाषायाम् । काष्ठशय्या=काष्ठं स्थूलमायतमेव तद्रूपा शय्या केशलोच: = स्वपरहस्तेन केशोत्पाटनम् । ब्रह्मचर्यवासः - ब्रह्मचर्ये - विषयसुखत्यागे वसनं ब्रह्मचर्यवासः । परगृह्म वेशः - भिक्षाद्यर्थमन्यगृहप्रवेशः । पिण्डपातः भिक्षा ४४६ " अदन्तवर्णक = अलि दातन आदिसे दांतोंको स्वच्छ न करना और मिसी आदिसे दांतको न रंगना, अच्छत्र = रजोहरण आदिका भी छत्र धारण नहीं करना, अनुपानत्क= पगरखी तथा मौजे आदिको नहीं पहिनना, एवं गाडी शिबिका और घोडा आदिकी सवारी नहीं करना, फलकशय्या = काष्ठ आदिके पाटपर सोना, काष्ठशय्या=काष्ठपर सोना, केशलोच = अपने या दूसरे साधुओंके हाथसे केशोंका लुंचन करना - कराना । ब्रह्मचर्यवास - विषय सुख परित्याग रूप ब्रह्मचर्यमें स्थिर होना, परगृहप्रवेश = भिक्षा के लिए गृहस्थोंके घर में जाना, पिण्डपात - भिक्षाग्रहण, लब्धापलब्ध वन ( न नहावु ), अदन्तवर्णक = अ ंगुलि दन्तशाण = |ष्ट ( साउडु ) आद्दिथी हांताने स्वच्छ न १२वा तथा भीशी माहिथी हांतने न रंगवा. अच्छत्र = रमेोगु આદિનું પણ ત્ર ધારણ न ४२, अनुपानत्क=यगरमां અને માજા આદિ પગમાં ન પહેરવાં, વળી ગાડી પાલખી અને ઘેાડા આદિની સવારી ન કરવી, फलकशय्या=साङडानी ( अष्ठनी मनावेली ) पाट उपर सुवुं, काष्ठशय्या=साईडी पर सुवुं, केशलोच= पोताना हे खील साधुमोना हाथथी ऐशानुं सुंथन २-४राव, ब्रह्मचर्यवास = विषयसुभ परित्याग३यी ब्रह्मयर्यभां स्थिर रहेवु, परगृहप्रवेश = लिक्षा भाटे गृहस्थाना धरभां युं, पिण्डपात = लिक्षाग्रहणु, लग्धापलब्ध = साल तेभन गैरसाल, શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य- १ निषध 1 = ग्रहणम् । लब्धापलब्धः = लाभालाभः । उच्चावचाः - उच्चाश्च अवचाश्च उच्चावचाः= अनुकूलप्रतिकूलाः । ग्रामकण्टकाः - ग्रामः - इन्द्रियसमूहस्तस्य कण्टका इव कण्टकाः इन्द्रिय वर्गानुकूल प्रतिकूलशब्दादिषु सुखदुःखोत्पादकत्वेन मुक्तिमार्ग प्रति विघ्नहेतुत्वादेषां कण्टकत्वं व्यक्तम् । उच्चावचा ग्रामकण्टका अध्यास्यन्ते तम् अर्थ - मोक्षप्राप्तिरूपम् आराधयिष्यति । सेत्स्यति - सकलकार्यकारितया सिद्धो भविष्यति । भोत्स्यते = विमलकेबलालोकेन सकललोकालोकं ज्ञास्यति । यावच्छब्देन - ' परिणिव्वाहि ' इत्यनयोः सङहः, तथाहि - मोक्ष्यते = सर्व कर्मभ्यो मुक्तो भविष्यति । परिनिर्वास्यति = समस्त कर्मकृत विकाररहितत्वेन स्वस्थो भविष्यति । सर्वदुःखानां = समस्त क्लेशानाम् अन्तं = नाशं करिष्यति अव्याबाधसुखभाग भविष्यतीत्यर्थः । हे जम्बू: मुच्चिहि ! ४४७ 1 = लाभ और अलाभ, और उच्चावचग्रामकण्टक = इन्द्रियोंके अनुकूल प्रतिकूल शब्द आदिको सहन करना, आदि मर्यादामें चलते हैं; उस मोक्षरूप अर्थ की आराधना करेगा । और सकल कार्योंको सिद्ध करके अन्तिम उच्छ्वास निःश्वासोंसे सिद्ध होगा । निर्मल केवलज्ञानसे सकल लोकालोकको जानेगा और सर्वकमसे मुक्त होगा, और सकलकर्मविकाररहित होकर शीतलीभूत होगा और अव्याबाध सुखको प्राप्त करेगा । सम्पूर्ण दुःखोंका अन्त करके અને उच्चावचग्रामकष्टक=न्द्रियाने मनुहून प्रतिहूण शब्दो यहि सहन કરવા આદિ મર્યાદામાં ચલે છે; તે સાક્ષરૂપે અર્થની આરાધના કરશે. અને સકલ કાર્ય સિદ્ધ કરી છેલ્લા ઉચ્છવાસ નિ:શ્વાસેા પછી સિદ્ધ થશે. નિર્મળ કેવળજ્ઞાનથી તમામ લેાક અલાકને જાણેશે અને સર્વ કર્માંથી મુક્ત થશે. અને સકળ કર્યું વિકારરહિત થઈને શીતલીભૂત ( શાન્ત ) થશે અને સંપૂર્ણ દુઃખાના અંત લાખીને અવ્યાબાધ સુખને પ્રાપ્ત કરશે. શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वृष्णिदशास्त्र एवं सेसा वि एकारस अज्झयणा नेयव्वा संग्रहणीअणुसारेण, अहीणमइरित एकारससु वि । तिबेमि ॥ ३ ॥ ४४८ || बारस अज्झयणा समन्ता ॥ १२ ॥ || वह्निदसा नामं पंचमो वग्गो समत्तो ॥ ५ ॥ || निरयावलिया सुयक्खंधो समत्तो ॥ ॥ समत्ताणि उवंगाणि ॥ एवं शेषाण्यपि एकादशाध्ययनानि ज्ञेयानि संग्रण्यनुसारेण, अहीनाsतिरिक्तम् एकादशस्वपि । इति ब्रवीमि ॥ ३ ॥ || द्वादशाध्ययनानि समाप्तानि ॥ १२ ॥ || वृष्णिदशानामा पञ्चमोवर्गः समाप्तः ॥ ५ ॥ || निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः समाप्तः || ॥ समाप्तानि उपाङ्गानि ॥ एवम् उक्तप्रकारेण श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन यावद् निक्षेपक :- समाप्तिसूचको वाक्यमबन्धः || ३ || इति प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १ ॥ श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरने वृष्णिदशाके प्रथम अध्ययनका भाव इस प्रकार कहा है ॥ ३ ॥ वृष्णिदशाका प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ. સુધર્મા સ્વામી કહે છેઃ— હૈ જમ્મૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે વૃદિશાના પ્રથમ અધ્યયનના ભાવ प्रारे ह्या छे. (3). વૃષ્ણુિદશાનું પ્રથમ અધ્યયન સમાપ્ત શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका वर्ग ५ अध्य. २-१२ मायनि आदि ४४२ टीकाएवं शेषाण्यपि अवशिष्टान्यपि एकादशाध्ययनानि संग्रहण्यनुसारेणअस्यैवाध्ययनस्यादौ " निसढे मायनी" इत्यादिसंग्रहणीगाथानुसारेण ज्ञातव्यानि । एकादशस्खपि सर्वेष्वप्यध्ययनेषु अहीनातिरिक्त न्यूनाधिकभावरहितं वर्णनं विज्ञेयमिति भावः । शेषं निगदसिद्धम् । इति यथा भगवत्समीपे मया श्रुतं तथैव ब्रवीमि-कथयामि ॥ ३ ॥ ॥ इति द्वादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ १२ ॥ इसी प्रकार शेष ग्यारह अध्ययनोंको भी संग्रहणी गाथाके अनुसार जानना चाहिये । ग्यारहों अध्ययनोंमें न्यूनाधिकभावसे रहित वर्णन जानना चाहिये । सुधर्मा स्वामी कहते हैंहे जम्बू ! भगवानके समीप मैंने जैसा सुना वैसा तुम्हें कहा ॥३॥ । बारहवाँ अध्ययन समाप्त हुआ । । वृष्णि दशा नामक पाँचवा वर्ग समाप्त हुआ। निरयावलिका नामक श्रुतस्कन्ध समाप्त. ( उपाङ्ग समाप्त हुए) આવી રીતે બાકીના અગીયાર અધ્યયનને પણ સંગ્રહણી ગાથાને અનુસરીને જાણવા જોઈએ. અગીયારે અધ્યયનમાં ન્યૂનાધિક (વધતા ઓછા) ભાવથી રહિત વર્ણન જાણવું જોઈએ. सुधा स्वामी हे छ...હે જબૂભગવાનની પાસે મેં જેવું સાંભળ્યું એવું તને કહું છું. (૩). બારમું અધ્યયન સમાપ્ત. વૃષ્ણિદશા નામને પાંચ વર્ગ સમાપ્ત. નિશ્યાવલિકા નામને શ્રતસ્કન્ધ સમાપ્ત, (Gin सभापत). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० मूलम् - निरयावलियाउवंगे णं एगो सुयक्खंधो, पंच वग्गा, पंचसु दिवसेसु उद्दिस्संति, तत्थ चउसु वग्गेसु दस दस उद्देसगा, पंचमवग्गे बारस उद्देसगा ॥ ॥ निरयावलियासुत्तं समत्तं ॥ ५ वृष्णिदशास्त्र छाया निरयावलिकोपाङ्गे खलु एकः श्रुतस्कन्धः, पञ्च वर्गाः, पञ्चसु दिवसे उद्दिश्यन्ते तत्र चतुर्षु वर्गेषु दश दश उद्देशकाः, पञ्चमवर्गे द्वादशोदेशकाः ॥ ॥ इति निरयावलिकासूत्रं समाप्तम् ॥ - निरयावलिका उपाङ्गमें एक श्रुतस्कन्ध है, पाँच वर्ग हैं, पाँच दिनों में इसका उपदेश दिया गया है। इसके चार वर्गोंमें दस-दस उद्देश हैं, पाँचवें वर्ग में बारह उद्देश हैं । શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર इति निश्यावलिका सूत्र समाप्त. નિરયાવલિકા ઉપાંગમાં એક શ્રુતસ્કન્ધ છે. પાંચ વર્ગ છે. પાંચ દિવસમાં આના ઉપદેશ અપાયો છે. આના ચાર વર્ગમાં દશ-દશ ઉદ્દેશ છે. પાંચમા વર્ગમાં આર ઉદ્દેશેા છે. ઇતિ નિરયાવલિકા સૂત્ર સમાપ્ત. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ सुन्दरबोधिनी टीका शास्त्र प्रशस्ति ॥ शास्त्रप्रशस्तिः ॥ काठियावाड देशेऽस्मिन्, वाकानेरपुरं महत् । अत्रेत्य मुनिभिः साई, प्रामानामान्तरं व्रजन् ॥ १ ॥ टीकामकार्षमेतर्हि, मृद्वी सुन्दरबोधिनीम् । त्रिपरद्विसहखाब्दे, विक्रमीये सुखावहे ॥२॥ आषाढे बहुले पक्षे, पञ्चम्यां बुधवासरे । सेयं सम्पूर्णतां याता, भव्यानामुपकारिणी ॥ ३ ॥ __ प्रशस्ति . काठियावाड प्रान्तमें वाकानेर नामका एक नगर है। तीर्थंकर परम्परासे ग्रामानुग्राम विहार करते हुए इस नगरमें आकर विक्रम सम्वत् २००३ को मैंने इस सुन्दरबोधिनी नामक टीकाकी रचना की ॥ १ ॥ २ ॥ भव्योंकी उपकारिणी यह टीका आषाढ कृष्ण पञ्चमी बुधवारको समाप्त हुई ॥ ३ ॥ પ્રશસ્તિ કાઠિયાવાડ પ્રાન્તમાં વાંકાનેર નામે એક નગર છે. તીર્થંકર પરંપરાથી ગામેગ્રામ વિહાર કરતા કરતા આ નગરમાં આવીને વિક્રમ સંવત ૨૦૦૩ માં મેં मा सुंदरबोधिनी नामनी 11 २थी. (१-२) ભવ્યની ઉપકાર કરવાવાળી આ ટીકા અષાઢ (ગુજેઠ) વદિ પાંચમ मुधवारे सभात थ७. (3). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ टीकासमाप्तिकाले च साधवः सत्य उत्तमाः । सन्त्यत्र तेषां नामानि, कथ्यन्ते गुणवृद्धये ॥ ४ ॥ सम्प्रदाया लसन्त्यत्र, निरपायाः सदार्हताः । लिम्बडी सम्प्रदायोऽत्र, दीप्यते दिवि चन्द्रवत् ॥ ५॥ ५ वृष्णिदशास्त्र तत्रास्ति शान्तो मनसाऽथ दान्तः, कृतो मुनि: केशवलालनामा । गुणैर्गुरोरुच्चपदाधिकारी, स्वतत्वधारी विलसत्प्रभावः ॥ ६ ॥ इस टीकाकी समाप्ति के समय जो महासतियां तथा मुनिराज विराजते थे उनके नाम गुणवृद्धिके लिये कहे जाते हैं ॥ ४ ॥ इस संसार में पवित्र और निर्मल बहुतसी आर्हत संप्रदायें हैं। इन संप्रदायो लिम्बडी सम्प्रदाय आकाशमें चन्द्रमाके समान देदीप्यमान है ॥ ५ ॥ इस लिम्बडी सम्प्रदाय में शान्त तथा मन और इन्द्रियोंको दमन करने वाले कृती अर्थात् पण्डितराज मुनिश्री केशवलालजी महाराज हैं, जो गुणासे गुरुके उच्च पदके उत्तराधिकारी हैं । तथा ये मुनिवर स्व = आत्मा अथवा जैनागमके तत्वोंके निरूपण करनेमें प्रवीण हैं, एवं अपने तेजसे देदीप्यमान हैं ॥ ६ ॥ આ ટીકાની સમાપ્તિ વખતે જે ઉત્તમ સાધુ અને ઉત્તમ સાધ્વીએ હતી. તેમનાં નામ ગુણવૃદ્ધિ માટે કહું છું (૪). આ સંસારમાં ઘણા નિર્મલ અને ઉત્તમ જૈન સંપ્રદાયા છે. તે સંપ્રદાયામાં लोंबडी संप्रदाय अशमां यन्द्र नी पेठे हेहोभ्यमान छे. (4). આ લીંખડી સંપ્રદાયમાં શાન્ત તથા મન અને ઇન્દ્રિયાને સંચમથી ક્રમન કરવાવાળા કૃતી અર્થાત પંડિત પ્રનર મુનિશ્રી રાવાળી મહારાજ છે. જે ગુણા વડે ગુરૂના ઉચ્ચપદના ઉત્તરાધિકારી છે; તથા આ મુનિવર સ્વ=ત્મા અથવા જૈન આગમનાં તત્વાને નિરૂપણ કરવામાં પ્રવીણ છે. એ પ્રમાણે તે પેાતાના તેજ વડે દેદીપ્યમાન છે. (૬). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरबोधिनी टीका शास्त्र प्रशस्ति ४५३ गुणाभिरामो गुणसम्प्रचारे, सदाऽविरामो निहतस्वकामः | सुत्यक्तरामोऽपि विभाति नाम्ना, रामो मुनिः केवल इत्ययं च ॥ ७ ॥ प्रवर्तिनी झाकलवाइनाम्नी, श्रीजीकुमारेति सतोतरा च । सन्तोकबाईति परा सती च, तिस्रोऽप्यजस्रं दधते वतित्वम् ॥ ८॥ और दूसरे मुनि जो कि गुणोंसे अभिराम (सुन्दर ) हैं तथा गुणों के प्रचारमें सर्वदा लगे रहते हैं और जिन्होंने सभी सांसारिक कामनाओंका त्याग कर दिया है इस प्रकारके यह मुनिराज सुत्यक्तराम=( रामा स्त्रोके त्यागी) होनेपर भी 'राम' इस नामसे प्रसिद्ध हैं। और तीसरे विद्यार्थी केवल मुनि हैं ॥ ७ ॥ अब महासतियोंके नाम कहते हैं यहाँ पर ये महासतिया सर्वदा पञ्चमहाव्रतको धारण करती हुई विचर रही हैं, इनमें प्रथम महासतीका नाम प्रवर्तिनी श्री झाकलबाई स्वामी है, दूसरी महासतीका नाम श्री श्रीजी कुँवरबाई स्वामी है, तथा तीसरी महासतीका नाम श्री सन्तोकबाई स्वामी है। ये तीन ठाणों से स्थिरवास विराजती हैं ॥ ८॥ વળી બીજા મુનિ કે જે ગુણે વડે અભિરામ (સુન્દર) છે તથા ગુણના પ્રચારમાં સર્વદા મંડયા રહે છે તથા જેમણે સાંસારિક બધી કામનાઓને ત્યાગ ध्य छ भुनि सुत्यक्तराम राम (स्त्री) २ छ। ५ राम' mai नामथी शीली २॥ छ. अर्थात् भीon राम मुनि छ. alon केवळमुनि छे. (७). હવે મહાસતીઓનાં નામ કહે છે – અહીં સાધ્વીઓ હમેશાં પાંચ મહાવ્રત ધારણ કરતી વિચરે છે. તેમાં પ્રથમ મહાસતીનું નામ પ્રવર્તિની સારવાર્ફ રવાની છે. બીજી સતીનું નામ श्रीजीकुंवरबाई स्वामो तथा श्री सतीनु नाम श्रीसंतोकबाई स्वामी छे. मात्र थाgi स्थिरवास मिराले छे. (८). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ साध्वी श्रीपार्वतीबाई, श्रीहेमकुमरा ऽभिधा । वैयावृत्त्यैकशीला श्री, सम्भूबाई महासती ॥ ९ ॥ ५ वृष्णिदशासूत्र वांकानेर पुरस्थ एष परमोदारो महाधार्मिकः, शुद्धस्थानकवासिधर्मनिरतः सम्यक्त्वभावान्वितः । तत्त्वातत्त्वयोविवेचनविधौ हंसायमानः सदा, सर्वेषामुपकारको विजयते श्री जैनसंघो महान् ॥ १० ॥ तथा महासती श्री पार्वतीबाई स्वामी और महासती श्री हेमकुंवरबाई स्वामी एवं सेवाभावी महासती श्री सम्भूबाई स्वामी यहाँ तीन ठाणों से विराजती हैं ॥ ९ ॥ वांकानेर का यह परम उदार महाधार्मिक श्री जैन संघ सदा विजयशाली है । यह जैनसंघ शुद्ध स्थानकवासी धर्ममें निरत है तथा सम्यक्त्वभावसे युक्त है, एवं तत्व और अतत्त्व रूपी दुग्ध और जलके विवेचन में हंसके समान है, और यह संघ सभी प्राणियोंका हितकारक है ॥ १० ॥ महासती श्री पार्वतीबाई स्वामी तथा श्री हेमकुवरबाई स्वामी भने सेवापरायशु श्री समजुबाई स्वामी अहीं जिराने छे. (८). વાંકાનેરને આ પરમ ઉદાર મહાધાર્મિક શ્રી જૈનસંઘ સદા વિજયશાળી છે. આ જૈનસંઘ શુદ્ધ સ્થાનકવાસી ધર્મમાં નિરત છે તથા સમ્યકૃત્વ ભાવથી યુક્ત છે. અર્થાત તત્ત્વ અને અતત્ત્વરૂપી દૂધ અને પાણીના વિવેચનમાં હંસ સમાન છે. અને આ સ ંઘ સ પ્રાણીઓના હિતકારક છે. (૧૦). શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 सुन्दरबोधिनी टीका शास्त्र प्रशस्ति देवे गुरौ धर्मपथे च भक्तिर्येषां सदाचाररुचिहिँ नित्यम् / ते श्रावका धर्मपरायणाश्च सुश्राविकाः सन्ति गृहे गृहेऽत्र // 11 // इति प्रशस्तिः इति श्री विश्वविख्यात-जगदबल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दक-श्री शाहूछत्रपति कोल्हापुर राजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य'-पद भूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-नतिविरचिता श्री निरयावलिकादिपञ्चसूत्राणां सुन्दरबोधिनी टीका समाप्ता। इस नगरके घर धरमें देव, गुरू और धर्ममें सर्वदा श्रद्धा रूचि रखनेवाले तथा सदाचारसे युक्त एवं धर्मपरायण श्रावक और श्राविकाएं विद्यमान हैं / // 11 // / इति श्री निरयावलिका आदि पाँच सूत्रोंकी सुन्दरबोधिनी टीकाका हिन्दी अनुवाद समाप्त / જેમની દેવ, ગુરૂ તથા ધર્મમાં હમેશાં ભક્તિ છે તથા સદાચારમાં રૂચી છે એવાં શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓ આ નગરમાં ઘેરઘેર વિદ્યમાન છે. (11). ઈતિ નિરયાવલિકા આદિ પાંચ સૂત્રોની સુન્દરબોધિની ટીકાને शुराती मनुवाइ समात. मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमः प्रभुः / सुधर्मा मङ्गलं जम्बूर्जनेधर्मश्च मङ्गलम् // // समाप्तमिदं शास्त्रम् // શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર