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________________ बैठे हुए थे। उनके मनमें यह भावना पैदा हुई-यदि भगवान यहाँ आवे तो मैं उनका दर्शन करूँ और उनकी उपासना करूँ। भगवान निषधकुमारके मनको बात जान ली और अठारह हजार श्रमणाके साथ नन्दन वन उद्यानमें पधारे । निषधकुमारने भगवानका दर्शन किया, और बादमें माता पितासे पूछकर अनगार हो गये और बयालीस भक्तोंको अनशनसे छेदित कर काल प्राप्त हुए। उनके काल प्राप्त होनेके बाद वरदत्त अनगारने भगवानसे पूछा-हे भदन्त ! आपका अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध अनगार इस शरीर को छोडकर कहाँ गये ? भगवानने कहा-हे वरदत्त ! मेरा अन्तेवासी प्रकृतिभद्रक निषध नामक अनगार सर्वार्थ सिद्ध विमानमें देव होकर उत्पन्न हुआ। वहाँ उसकी स्थिति तेंतीस सागरोपम है। वह वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्रके उन्नात नगरमें विशुद्ध मातृ पितृ वंशवाले राजकुलमें उत्पन्न होगा, बाल्यावस्था बीत जानेपर स्थविरोंके समीप प्रवजित होगा और सिद्ध होकर सभी दुखोंका अन्त करेगा। इसी प्रकार मायनी आदि ग्यारह राजकुमारोंकाभी वर्णन जानना चाहिये । ये सभी भगवान अरिष्टनेमिके समीप प्रवजित हुए और अपने नश्वर शरीरको छोड सर्वार्थ सिद्ध विमानमें देव होकर उत्पन्न हुए और ध्यवकर महाविदेह क्षेत्रमें जन्म लेकर सिद्ध होंगे और सभी दुखोंका अन्त करेंगे। यह पाचों उपाङ्गका संक्षिप्त वर्णन है। इस निरयावलिका आदि पाचों उपाङ्गों पर जैनाचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराजने सुन्दरबोधिनी नामकी टीका की है । इस टोकाको विशेषता संस्कृत प्राकृतज्ञ विद्वान मूल और संस्कृत टीकाको देखकर समझ लेंगे। और सकल साधारण भव्यजन हिन्दी और गुजराती भाषाके अनुवादरो इसकी विशेषता समझेंगे। इस पर हम अधिक लिखना उचित नहीं समझते, क्यों कि ' हाथ कङ्गनको आरसी क्या ? ' बस; इसी न्यायसे हम अपना वक्तव्य समाप्त करते हैं । इत्यलम् । राजकोट मुनि कन्हैयालाल, १५ मई १९४८ શ્રી નિરયાવલિકા સૂત્ર
SR No.006357
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1948
Total Pages482
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size19 MB
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