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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । मभूतार्थे । नयस्तु द्रव्यार्थिकश्च पर्यायार्थिकश्च । तत्र द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिकः, पर्यायमुख्यतयानुभावयतीति पर्यायार्थिकः, तदुभयमपि द्रव्यपर्याययोः पर्यायेणानुभूयमानतायां भूतार्थ । अथ च द्रव्यपर्यायानालीढशुद्धवस्तुमात्रजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । निक्षेपस्तु नाम स्थापना द्रव्यं भावश्च । तत्रातद्गुणे वस्तुनि संज्ञाकरणं नाम । सोयमित्यन्यत्र प्रतिनिधिव्यवस्थापनं स्थापना । वर्तमानतत्पर्यायादन्यद् द्रव्यं, वर्तमानतत्पर्यायो भावस्तच्चतुष्टयं स्वस्खलक्षणवैलक्षण्येनानुभूयमानतते प्रकाशयते प्रतीयते अनुभूयत इति । या चानुभूतिःप्रतीतिःशुद्धात्मोपलब्धिः सा चैव मिश्वयसम्यक्त्वमिति सा चैवानुभूतिर्गुणगुणिनोनिश्चयनयेनाभेदविवक्षायां शुद्धात्मस्वरूपमिति तात्पर्य । वर्तमानपर्यायसे कहना वह द्रव्य निक्षेप है और वर्तमानपर्यायरूप वस्तुको वर्तमानमें कहना वह भावनिक्षेप है । ये चारों ही निक्षेप अपने २ लक्षण भेदसे जुदे २ विलक्षणरूप अनुभव किये गये भूतार्थ हैं सत्यार्थ हैं और भिन्न लक्षणसे रहित एक अपने चैतन्य लक्षणरूप जीवके स्वभावका अनुभव करनेपर चारों ही अभूतार्थ हैं असत्यार्थ हैं । इस तरह इन प्रमाण नय निक्षेपोंमें भूतार्थपनेसे एक जीव ही प्रकाशमान है। इन प्रमाणनयनिक्षेपोंका विस्तारसे व्याख्यान इनके प्रकरण ग्रंथोंमेंसे जानना । इन्हींसे द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुकी सिद्धि है । ये साधकअवस्थामें सत्यार्थ ही हैं क्योंकि ये ज्ञानके ही विशेष हैं इनके विना वस्तुको यथाकथंचित् (मनमाना) साधा जाय तब विपर्यय हो जाता है । अवस्थाके व्यवहारके अभावकी तीन रीतियां हैं । एक तो यथार्थवस्तुको जान ज्ञान श्रद्धानकी सिद्धि करना । ज्ञान श्रद्धान सिद्ध होनेके वाद प्रमाणादिकसे श्रद्धान करनेका कुछ प्रयोजन नहीं है । दूसरी अवस्था विशेषज्ञान और राग द्वेष मोह कर्मका सर्वथा अभावरूप यथाख्यात चारित्रका होना है इसीसे केवलज्ञानकी प्राप्ति है, इसके होनेके बाद प्रमाणादिकका आलंबन नहीं रहता । उसके वाद तीसरी साक्षात् सिद्ध अवस्था है वहां पर भी कुछ आलंबन नहीं है इसलिये सिद्ध अवस्थामें भी प्रमाणनयनिक्षेपका अभाव ही है । इसी अर्थका कलशरूप "उदयति" इत्यादि श्लोक कहते हैं । अर्थ-आचार्य शुद्ध नयका अनुभव कर कहते हैं कि इन सब भेदोंको गौण करनेवाला जो शुद्ध नयका विषयभूत चैतन्यचमत्कारमात्र तेजःपुंज आत्मा उसको अनुभवमें आनेपर नयोंकी लक्ष्मी उदयको नहीं प्राप्त होती । प्रमाण अस्तको प्राप्त हो जाता है और निक्षेपोंका समूह भी कहां चला जाता है ये हम नहीं जानते । इससे अधिक क्या कहैं द्वैत ही नहीं प्रतिभासित होता ॥ भावार्थ-भेदको अत्यंत गौणकर कहा है । शुद्ध अनुभव होनेपर प्रमाण नयादिक भेदकी तो वात क्या है द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता । इस विषयमें विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदांती कहते हैं कि परमार्थमें (असलमें) तो अद्वैतका ही अनुभव हुआ यही हमारा मत है तुमने विशेष