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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ज्ञायको भावो जीवो जीवस्य विकारहेतुरजीवः । केवलजीवविकाराश्च पुण्यपापास्रवसंवरनिजेराबंधमोक्षलक्षणाः, केवलाजीवविकारहेतवः पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षा इति । नवतत्त्वान्यमून्यपि जीवद्रव्यस्वभावमपोह्य स्वपरप्रत्ययैकद्रव्यपर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ च सकलकालमेवास्खलंतमेकं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभू. तार्थानि । ततोऽमीष्वपि नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते । एवमसावेकत्वेन द्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव । यात्वनुभूतिः सात्मख्यातिरेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शमिति । नव पदार्थाः भूतार्थेन ज्ञाताः संतः सम्यक्त्वं भवंतीत्युक्तं भवद्भिस्तत्कीदृशं भूतार्थपरिज्ञानमिति पृष्टे प्रत्युत्तरमाह । यद्यपि नव पदार्थाः तीर्थवर्त्तनानिमित्तं प्राथमिकशिष्यापेक्षया भूविकारसे जीवके विकारको कारण हैं । ऐसे ये तव तत्त्व हैं वे जीवके स्वभावको छोडकर आप और पर कारणवाले एक द्रव्य पर्यायपनेसे अनुभव किये गये तो भूतार्थ हैं तथा सब कालमें नहीं चिगते एक जीव द्रव्यके स्वभावको अनुभव करनेपर ये अभूतार्थ हैं-असत्यार्थ हैं । इसलिये इन नौ तत्त्वोंमें भूतार्थ नयकर देखा जाय तब जीव तो एक रूप ही प्रकाशमान है । ऐसे यह जीवतत्त्व एकपनेसे प्रगट प्रकाशमान हुआ शुद्धनयपनेसे अनुभव किया जाता है । यह अनुभवन ही आत्मख्याति है, आत्माका ही प्रकाश है जो आत्मख्याति है वही सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार यह सव कथन निर्दोष है-बाधारहित है ॥ भावार्थ-इन नव तत्त्वोंमें शुद्धनयसे देखा जाय तब जीव ही एक चैतन्य चमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रकट हो रहा है । इसके विना जुदे २ नव तत्त्व देखे जायँ तो कुछभी नहीं । जबतक इसतरह जीवतत्त्वका जानना नहीं है तबतक व्यवहार दृष्टिमें होकर जुदे २ नव तत्त्वोंको मानता है । जीव पुद्गलकी बंधपर्यायरूप दृष्टिकर ये पदार्थ जुदे २ दीखते हैं और जब शुद्धनयकर जीव पुद्गलका निजस्वरूप जुदा २ देखाजायँ तब ये पुण्यपाप आदि सात तत्व कुछभी वस्तु नहीं दीखते निमित्त नैमित्तिक भावसे हुए थे सो निमित्तनैमित्तिक भाव जब मिट गया तब जीव पुद्गल जुदे २ होनेसे दूसरा कोई पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता । वस्तु तो द्रव्य है सो द्रव्यके निजमाव द्रव्यके ही साथ रहते हैं और नैमित्तिक भावका तो अभाव ही होता है इसलिये शुद्धनयकर जीवको जाननेसे ही सम्यग्दृष्टि प्राप्त होसकती है । सबको जुदा २ जानता है । जबतक आत्माको नहीं जाना तबतक पर्याय बुद्धि है ॥ यहांपर इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं । “चिरं" इत्यादि । अर्थ-इस प्रकार नौ तत्त्वोंमें बहुत कालसे छुपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धनयसे निकालकर प्रगट की है । जैसे वों (रंग)के समूहमें सुवर्णके छुपे हुए पकाकारको निकालते हैं उसीतरह यह आत्मज्योति समझना । सो अब हे भव्यजीवो! इसको हमेशा अन्य द्रव्योंसे तथा उनसे हुए नैमित्तिक भावोंसे भिन्न एकरूप देखो । यह हरएक पर्यायमें एकरूप चिच्चमत्कारमात्र उद्योतमान है ।