Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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| पढना चाहिये और कौन पीछे ? यह संदेह किया ही नहीं जा सकता इसलिये जैसा सूत्र है वैसा ही |
भाषा ठीक है। यदि यह कहा जाय कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी एक साथ आत्मामें प्रगटता सिद्ध हो | जानेपर जो यह शंका की गई थी कि-'विना ज्ञानके श्रद्धान नहीं होता इसलिये दर्शनके पहिले ज्ञान का ही पाठ रखना ठीक है' उसका तो परिहार हो गया परन्तु 'जिसमें थोडे अक्षर होते हैं उसका अधिक अक्षरवाले शब्दसे पहिले पाठ रहता है दर्शनकी अपेक्षा ज्ञानमें अक्षर कम हैं इसलिये दर्शनसे |पहिले ज्ञानका ही पाठ रखना प्रमाणसिद्ध है' यह शंका तो ज्योंकी त्यों मौजूद है सो भी ठीक नहीं। क्योंकि
दर्शनस्यैवाभ्यर्हितत्वात् ॥ ३३॥ ___ थोडे अक्षरवाले शब्दसे अधिक अक्षरवाला भी शब्द यदि पूज्य-प्रधान होगा तो उसका ही 18 हूँ पहिले पाठ रहेगा। थोडे अक्षरवालेका नहीं। यह भी उसका बाधक व्याकरणका सिद्धान्त है। सम्य
ग्दर्शनके होते ही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञानरूप हो जाता है, विना सम्यग्दर्शनके प्रगट हए पदार्थको जान है कर भी उसका वास्तविक श्रद्धान नहीं होता इसलिये वह ज्ञान मिथ्याज्ञान ही समझा जाता है इस रीतिसे मिथ्याज्ञानको सम्यग्ज्ञान बनानेवाला जब सम्यग्दर्शन है तब वही प्रधान है। ज्ञान प्रधान नहीं। | इसलिये सम्यग्दर्शनका ही पहिले पाठ रखना ठीक है।
_ मध्ये ज्ञानवचनं ज्ञानपूर्वकत्वाच्चारित्रस्य ॥ ३४ ॥ मन वचन आदिकी जिन विशेष क्रियाओंसे कर्म आंवे उन क्रियाओंका रुक जाना सम्यक्चारित्र ४३ १अभ्यन्तर और बास कारण-फपाय परिणाम और मन वचन कायरूप तीन योगोंकी प्रवृत्ति कर्मोके बन्धनमें प्रावश्यक कारण है।
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