________________
( ४२ )
विजयदेव राजाने समस्त राजाओंका यथायोग्य सत्कार किया । सब राजागण देवताओंकी भांति ऊंचे २ सिंहासनों पर बैठे, इतने में साक्षात लक्ष्मी और सरस्वती के समान दोनों कुमारियां स्नान कर, तिलक लगाकर, शुद्ध वस्त्र तथा आभूषण पहर कर, पालकी में बैठ कर मंडपमें आई । जिस भांति बाजारमें ग्राहकों को कोई दुर्लभ वस्तु विक्रीसे लेना हो तब आगे बढ बढ कर शीघ्रता से एक दूसरे से अधिक मूल्य देने लगते हैं, उसी भांति मंडप में बैठे हुए सब राजाओं ने उन दोनों कन्याओं की प्राप्तिकी इच्छा से 'मैं पहिले दूंगा. मैं पहिले दूंगा' यह कल्पना कर अपनी २ दृष्टि व मन यही सर्वोत्कृष्ट मूल्य कन्याओं को दिया अर्थात् सबने अपनी दृष्टि व मन कन्याओंकी ओर लगाया तथा नानाप्रकारकी चेष्टाओं द्वारा कन्याओंके प्रति अपने २ मनकी अभिलाषा प्रकट करने लगे । तदुपरान्त सखी इस भांति राजाओं की प्रशंसा करने लगी:
-
"सर्व राजाओं मे राजराजेश्वरके समान यह राजगृह नगरका राजा है । शत्रुओंके सुखका नाश करनेमें कुशल यह कौशल देशका राजा है । स्वयम्बरकी शोभासे देदीप्यमान यह गुर्जराधिपतिका पुत्र है। जयंत नामक इन्द्रपुत्र से भी विशेष ऋद्धिस सुशोभित यह सिन्धुदेशाधिपतिका पुत्र है । शौर्यलक्ष्मी तथा औदार्यलक्ष्मी क्रीडास्थल तुल्य यह अंगदेशका राजा है । अत्यन्त रमणीय तथा सौम्य यह कलिंगदेशका राजा है ।