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३२-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
कई लोग विक्षिप्तावस्था में आनन्द मानते है और नाटक, सिनेमा देखकर अपने जीवन को धन्य मानते हैं । परन्तु ज्ञानीजन कहते हैं कि नाटक-सिनेमा आदि मे वास्तविक आनन्द नही है । यह तो विक्षिप्त अवस्था है। कितने ही पढे-लिखे लोग भी विक्षिप्तावस्था में लीन रहते हैं । धन आदि के उपार्जन मे धर्मकर्म को भी भूल जाते है। अगर शिक्षित लोग' भी आत्मधर्म को न समझें तो उनका शिक्षण किस काम का ? सच्ची विद्या तो वही है जिसके द्वारा मनुष्य बधन से मुक्त हो जाये । शिक्षा का सच्चा फल तो आत्मा को उन्नत बनाने में तथा एकाग्रता और निरुद्धावस्था प्राप्त करना ही है । चचल चित्त का निरोध करने मे शिक्षा का सदुपयोग किया जाये तो ठीक है, वर्ना शिक्षा से कोई प्रयोजन सिद्ध नही होता ।
मनुष्य और पशु का अन्तर तो स्पष्ट दिखाई देता है परन्तु कई बार मनुष्य, पशु से भी अधिक पतित बन जाता है । जो मनुष्य सिर्फ खान-पान मे ही रचा-पचा रहता है और जरा भी धर्मकर्म नहीं करता, वह मनुष्य पशु से भी अधिक पतित कहा जा सकता है ।
कुछ लोग कहते हैं कि हम मिष्ट तथा विशिष्ट भोजन करने के कारण मनुष्य हैं ! इस कथन के उत्तर मे यही कहा जा सकता है कि भोजन तो पशु भी करता है, पर उसमे सार-असार का विवेक नही होता। मनुष्यसमाज विवेकज्ञान के कारण ही पशुओ और पक्षियों से ऊ चा है । मनुष्य मिष्ट और विशिष्ट भोजन करके फूला नहीं समाता परन्तु वह जो भोजन करता है उस भोजन के निर्माण का