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१.५६-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
युधिष्ठिर राजपुत्र था और चाहता तो परीक्षक को उचित दड दिला सकता था; परन्तु उसने क्रोध का उत्तर क्रोध से नही वरन् शान्ति से दिया । अर्थात् युधिष्ठिर पूर्ववत् प्रसन्न. चित्त ही बना रहा । युधिष्ठिर को मार खाने के बाद भी प्रसन्नचित्त बैठे देखकर परीक्षक ने शिक्षक से कहा-'कैसा है यह कि मारने पर भी प्रसन्न दिखाई देता है !' शिक्षक ने कहा- 'युधिष्ठिर की ऐसी ही प्रकृति है । ऐसी प्रकृति वाले को पढाया भी कसे जाये !' परीक्षक ने युधिष्ठिर से पूछा--तुम्हे इतना पीटा गया, फिर भी तुमने काध नही किया । इससे तो यह जान पडता है कि तुम पाटी पर लिखे वाक्य को अमल में ला रहे हो ! इस कथन के उत्तर मे युधिष्ठिर ने बतलाया-~अभी मैं इस वाक्य को सिद्ध नही कर सका ह । मैं ऊपर से तो.,क्रोध नहीं कर रहा था मगर भीतर ही भीतर मुझे क्रोध आ रहा था । मैं मन में यह सोच रहा था कि मुझे मारने वाला यह होता कौन है ? अर्जुन और भीम सरीखे बलवान् मेरे भाई हैं और भविष्य में मैं राज्याधिकारी होने वाला हूँ; फिर मुझे पीटने वाला यह होता कौन है ? इस प्रकार मेरे हृदय मे क्रोध की अग्नि भडकी थी । अतएव अभी मैं 'कोप मा कुरु' इस वाक्य को सिद्ध नहीं कर सका है। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं इसे सिद्ध कर सकू ! .
युधिष्ठिर के यह नम्र वचन सुनकर परीक्षक गद्गद् हो गया और कहने लगा- युधिष्ठिर ! वास्तव में तुमने सच्ची शिक्षा ग्रहण की है.। तुमने सक्रिय ज्ञान प्राप्त किया है । लोग वाक्यो को कठस्थ तो कर लेते हैं मगर हृदय में नहीं उतारते । तुमने अपना ज्ञान हृदय तक पहुचाकर क्रिया