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२४८-सम्यक्त्वपराक्रम (५) सम्पूर्ण रूप से पालन हो सकेगा । श्री उत्तगध्ययन सूत्र में वचनगुप्ति के चार भेद बतलाए गए हैं । उसमे कहा है:--
सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य । । ।, चउत्थी असच्चमोसा य वयगुत्तो चउम्विहा ।।
अर्थात्--वचनगुप्ति चार प्रकार की है--(१) सत्यवचनगुप्त (२) असत्यवचनगुप्ति (३) सत्य-असत्य-वचनगुप्ति और (४) व्यवहारवचनगुप्ति । जो व्यक्ति यह चार प्रकार की वचनगुप्ति रखता है, उसके लिए भगवान् ने कहा है कि वचनगुप्ति रखने के कारण वह व्यक्ति निर्विकार दशा प्राप्त करता है।
आत्मा का निज स्वरूप मे रमण करना निर्विका ीपन है और परवस्तु मे रमण करना विकारीपन है। पर-वस्तु चाहे जैसी हो, उसमे रमण करना आत्मा का विकार ही है । पानी मे चाहे शक्कर डाली जाये, चाहे नमक डाला जाये, पर-वस्तु के सयोग से कारण पानी विकृत ही माना जाता है। पानी की प्रकृति तो तभी कहलाएगी जब वह अपने स्वरूप में स्थित होगा । इसी प्रकार आत्मा में निर्विकारपन तभी आ सकता है जब आत्मा वचनगुप्ति का पूरा-पूरा पालन करे । बोलने के कारण आत्मा को अपने प्रकृत स्वभाव से च्युत होना ही पड़ता है । लेकिन जब प्रात्मा मौन अवस्था में रह ही न सकता हो तो ऐसी स्थिति मे असत्य वचन न बोलकर सत्य वचन बोलना ही आत्मा के लिए श्रेयस्कर है । अर्थात् अशुभ वचन न बोलकर शुभ वचन वोलना ही लाभकारक है। यद्यपि सत्य वचन बोलना शुभ है, परन्तु आत्मा को निज दशा की दृष्टि से तो सत्य