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३१८ - सम्यक्त्वपराक्रम (५)
ही भव का ना करती है मगर क्रोध उह पर भव दोनों का विनायक है । अर्थात् दोनों भवो को बिगाड़ता है । कांध की यह आग श्रात्मा में ही उत्पन्न होती है । अपना श्रात्मा स्वतः क्रोध को पैदा करता है। कोच से क्रोध बढता हो जाता है, इस कारण अनेक भवो का वैरानुबन्ध क्रोध से ही होता है, जब प्रीति का नाश हो तो समझना चाहिए कि मुझमे क्रोध उत्पन्न हुग्रा है। इसी प्रकार उद्वेग होने पर भी यहां समझना चाहिए कि मुझमे क्रोध पैदा हुआ है, क्योकि अप्रीति या उद्वेग उत्पन्न होने का कारण कोच ही है । क्रोध ही दुर्गति मे ले जाता है । जैसे श्रग्ति थोडे ही समय में रुई के ढेर को भरम कर टालती है उमी कार का भी आत्मा के समस्त शुभ गुणो को भस्म कर देता है | श्री उत्पन्न होने पर मनुष्य आगे होते हुए भी धन्वा वन जाता है तब वह कौवा मनुष्य अपने पुत्र, मित्र, गुरु तथा स्त्री आदि स्वजनो को भी नष्ट कर देता
है । उस समय कोवाच मनुष्य में से दयाभाव निकल जाता है ।
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सुना है, मेवाट के एक गांव मे किसी मनुष्य ने क्रोध के आवेश में ग्राकर पसरी से अपनी स्त्री का सिर फोड दाना था । यह देखकर उसकी लड़की चिलाई 'मेरे पिता मेरी माँ को मार रहे हैं !' लटकी की चिल्लाहट सुनकर वह अपनी लडकी पर भी क्रुद्ध हो गया । उसने लडकी को पत्थर पर पहाट दिया और अन्त में श्राप भी अपघात करके मर गया ।
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क्रोध के आवेश में ऐसे-ऐसे न जाने कितने अनर्थ होते रहते हैं । अतएव क्षमा द्वारा क्रोध को जीतना चाहिए ।