Book Title: Samyaktva Parakram 04 05
Author(s): Jawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Jawahar Sahitya Samiti Bhinasar

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Page 396
________________ ३६६ - सम्यक्त्वपराक्रम ( 2 ) शब्दार्थ ( वीतराग पुरुष ) आयु पूर्ण करने में जब प्रन्तर्मुहूर्त जितना समय शेष रहता है तब योग का निरोध करते हैं और अप्रतिपाती शुक्लध्यान घर कर सबसे पहले मनोयोग का निरोध करते हैं, तदनन्तर क्रमश वचनयोग और काययोग को रोकते हैं और फिर श्वासोच्छ्वास का निरोध कर देते है । तत्पश्चात् जितने समय में पाच लघु अक्षर बोले जाते हैं, उतने समय की स्थिति भोग कर तथा शुक्लध्यान के समुच्छिन्नक्रिया नामक चौथे पाये का ध्यान करके वेदनीय कर्म, आयुकर्म, नामकर्म मौर गोत्रकर्म - इन शेष रहे हुए चार श्रघाती कर्मों का एक ही साथ क्षय कर डालते हैं ||७२ || उसके बाद श्रदारिक, तैजस और कार्मण शरीरो का त्याग करके, सरलश्रेणी प्राप्त करके, ऊर्ध्व अफुसमान ( सीधी ) गति करते हैं और साकारउपयोग से युक्त होकर सिद्ध तथा मुक्त होते हैं ॥ ७३ ॥ व्याख्यान एकहत्तर बोल के साथ बहत्तरवें और तेहत्तरखें बोल का घनिष्ठ सम्बन्ध है, अतः इन अन्तिम दोनो बोलों का एक ही साथ विचार किया जाता है । ७१ वें बोल से ७३ वे बोल में राग-द्वेष तथा मिथ्यादर्शन के त्याग से जीव को क्या लाभ होता है, इस विषय मे विशेष विचार किया गया है । संसार का मूल कारण कर्म है और कर्म का मूल कारण राग-द्वेष है, मतएव राग-द्वेष को निर्मूल कर देने से

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