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३७४-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
सकडालपुत्र ने गोशालक से इन विशेषणों का अर्थ पूछा । गोशालक ने अर्थ समझाया । तब सकडालपुत्र ने कहा- तुमने मेरे गुरु की प्रशसा की है, इस कारण मेरी दुकान मे ठहरो और पाट आदि जो चाहिए सो ले लो । यह सब मैं तुम्हे गुरु मानकर नहीं देता हूं वरन् अपने गुरु भगवान् महावीर की प्रशसा करने के कारण दे रहा हूँ।
कहने का आशय यह है कि भगवान महावीर का सिद्धान्त उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार तथा पराक्रम का है। 'जो होनहार है सो होगा' यह नियतिवाद गोशालक का मत है । हम भगवान महावीर के उपासक हैं, अतएव सिद्धगति प्राप्त करने के लिए हमे पुरुपार्थ करना चाहिए ।
भगवान महावीर का सिद्धान्त भवितव्यता-नियतिवाद का एकान्त निषेध भी नहीं करता । भगवान् के सिद्धान्त का मन्तव्य यह है कि भाग्य के भरोसे बँठकर पुरुषार्थ मत छोडो । पुरुषार्थ करते रहो । पुरुषार्थ करने पर भी जो होना होगा सो होगा । मगर होनहार के भरोसे पुरुषार्थ त्याग देना उचित नही है। पुरुषार्थ के बिना कार्य की सिद्धि नही होती । पुरुषार्थ बिना ही सिद्धगति प्राप्त हो सकती तो शास्त्र की या धर्मोपदेश की क्या आवश्यकता थी ? जो कार्य आप ही हो जाये उसके लिए श्रम करने का उपदेश क्यो दिया जाये ? वास्तव में प्रत्येक कार्य पुरुषार्थ के अधीन है, भतएव पुरुषार्थ करते रहना चाहिए ।