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उपसंहार-३७७ प्रत्येक धर्मक्रिया का मूल सम्यक्त्व है । अन्य क्रियाएँ उसकी शाखाएँ हैं । मूल के अभाव में शाखाएँ नही हो सकती। साथ ही मूल सूख जाने पर शाखाएँ भी सूख जाती हैं । अतएव मूल का सुरक्षित होना आवश्यक है ।
सम्यक्त्व का सामान्य अर्थ है- श्रद्धा । धर्मक्रिया करने के लिए सर्वप्रथम श्रद्धा होना आवश्यक है । श्रद्धा होने पर ही धर्मक्रिया सफल होती है । इसलिए शास्त्र में कहा है :
सद्धा परमदुल्लहा । अर्थात्- श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है । संसार में अनेक वस्तुएँ दुर्लभ मानी जाती हैं परन्तु शास्त्रकारो ने मुख्यरूप से चार वस्तुएं दुर्लभ बतलाते हुए कहा है
चत्तारि परमगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो । माणुसत्त सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥
अर्थात-ससार में प्राणियो को इन चार वस्तुओ की प्राप्ति परम दुर्लभ है:-(१) मनुष्यत्ब (२) धर्मश्रवण (३) धर्मश्रद्धा और (४) सयम में पराक्रम ।
ससार में सम्पत्ति पाना, सत्ता पाना आदि दुर्लभ माना जाता है, परन्तु शास्त्रकार फर्माते हैं कि यह दुलभ मानी जाने वाली वस्तुए तो सुलभ हो सकती हैं परन्तु मनुष्यदेह मिल जाना और फिर उसमें मनुष्यत्व प्रकट होना, सत्यधर्म का श्रवण, सत्यधर्श के प्रति श्रद्धा और सयम मे पराक्रम, यह चार वस्तुए तो अत्यन्त ही दुर्लभ है।
सद्धर्म पर जब सच्ची श्रद्धा उत्न होती है तो धर्म के लिए आत्मसमर्पण करने की भावना का भी उद्भव होता है । जिस कार्य पर श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वह भले ही