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अड़सठवां बोल-३३३
हा हूं।' इस प्रकार कहकर इन्द्र ने राजा के त्याग की प्रशसा की और मुनि से क्षमायाचना की ।
त्याग करने की शक्ति मनुष्य में ही होती है । देव में मनुष्य जितनी त्याग शक्ति नहीं होती । इसी कारण देवभव की अपेक्षा मनुष्य भव बहुमूल्य माना गया है। मनुष्य अभिमान न करे तो देवो को भी जीत सकता है । श्रीदशवैकलिकसूत्र में भी कहा :--
देवा वि त नमंसति जस्स धम्मे सया मणो ।
प्रर्थात्-जिसका मन सदा धर्म मे अनुरक्त रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं ।।
धर्म का आचरण करने के लिए मनुष्य को जैसी सामग्री प्राप्त है, वैसी देव को भी प्राप्त नहीं है। अगर देवो को भी जीतना है तो मान को जीतो । मान करके दशार्णभद्र राजा इन्द्र को नहीं जीत सका । त्याग करके उमने इन्द्र को पराजित कर दिया । मुनिवन्दन करते समय आजकल भी उनका नामस्मरण किया जाता है
दशर्नभद्र राजा, वीर बद्या घरी मान, पछि इन्द्र हगयो, दियो छः काया ने अभयदान ।
यह बात ध्यान में रखकर तुम भी अभिमान को तजो। धर्म के प्रताप से ही इन्द्र, एक राजा के चरणो में नत हुआ था । राजा ने अभिमान छोडा तो इन्द्र को भी उसके चरणो की वन्दना करनी पड़ी । अत. अभिमान त्यागो । इसी मे आत्मा का कल्याण है । जो अभिमान का त्याग करता है वह अपने मात्मा का उत्थान करता है और जो अभिमान करता है वह अपने आत्मा को पतित करता है।