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३४८-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
व्यर्थ नष्ट नहीं करेगा ।।
कल्पना कीजिये, किसी को खान खोदते समय एक कीमती हीरा मिला । अब दूसरा आदमी उससे कहता है'यह हीरा मुझे दे दो, मैं तुम्हे पाच सेर मिठाई देता है।' हीरा वाले पुरुष को भूख भी लगी है। फिर भी क्या वह मिठाई के बदले हीरा दे देगा? इस प्रश्न का उत्तर नकार मे ही मिलेगा । वह यही सोचेगा कि मेरा हीरा कीमती है । मैं मामूली कीमत की मिठाई के बदले अपना मूल्यवान् हीरा कैसे दे दू ? अगर वह हीरे को कीमती समझता हुआ भी मिठाई के बदले में दे देता है तो उसे मूर्ख ही कहना होगा । इसी प्रकार नाम सकीर्तनरूपी रत्न को तुच्छ वस्तु के बदले में दे देना मूर्खता ही है । जो लोग नाम-सकीर्तन को कीमती समझ कर ससार के किसी भी पदार्थ के साथ उसकी अदल-बदल नहीं करते, वही उसका महान् फल प्राप्त कर सकते है । पर यह महान् फल तभी प्राप्त हो सकता है जब लोभ पर विजय प्राप्त कर ली जाये । इस प्रकार लोभ को जीते बिना परमात्मा के नाम-कीर्तन का यथेष्ट लाभ प्राप्त नही हो सकता।
अगर कोई सौ रुपया देकर तुम्हे भगवान महावीर को गाली देने के लिए कहे तो क्या तुम भगवान को गाली दोगे ? नहीं; भले ही तुम्हे रुपयो की आवश्यकता है, फिर भी तुम भगवान् को गाली नही दोगे । ऐसा करने का कारण यही है कि तुमने भगवान् के f ए सौ रुपये का लोभ त्याग दिया है। जैसे तुमने सौ रुपये का लोभ छोड़ रखा है, उसी प्रकार कोई हजार का लोभ छोडने वाला भी मिल सकता है। इसी प्रकार जो महान् लोभ त्याग देता है, वहीं नाम