________________
३६०-सम्यक्त्वपराक्रम (५) (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग ।
मिथ्यात्व अर्थात् यथार्थ वस्तु मे श्रद्धा का अभाव या अयथार्थ वस्तु मे श्रद्धा होना । अविरति अर्थात् दोषो से विरत न होना । प्रमाद मर्थात् मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा आदि । कषाय अर्थात् राग-द्वेष । योग अर्थात् मन, वचन और काय द्वारा की जाने वाली प्रवृत्ति । इन पाच कारणो से जीवात्मा कर्म परमाणुओ को ग्रहण करते हैं । अतएव इन कर्मबन्धन के कारणो को दूर करना उचित है।
राग और द्वेष का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है। किसी भी वस्तु का स्वरूप समझ लेने के बाद ही उसे स्वीकार किया जाता है या त्यागा ज ता है ।
राग और द्वष कर्म के बीज हैं और कर्म-बीज दुखोत्पत्ति का कारण है । यह बात हम जान गये हैं तो अब यह विचारना चाहिए कि राग और द्वेष किस प्रकार दूर किये जा सकते हैं और उन्हे दूर करने से क्या लाभ होता है ?
राग द्वेष तथा मिथ्यादर्शन को जीतने से जीवात्मा को क्या लाभ होता है, यही प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से किया है ।
भगवान् ने इस प्रश्न का उत्तर देते हए कर्मग्रन्थि भेदने का तथा शाश्वत सुख पाने का मार्ग बतलाया है । राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय प्राप्त कर ले तो उसमे विद्यमान अनन्त शक्ति-सामर्थ्य प्रगट हो जाता है । जीवात्मा मे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त चारित्र अनन्तवीर्य आदि विद्यमान है किन्तु कर्म के आवरण के कारण