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एकत्तरवां बोल-३६१
आत्मा की शक्तियां तिरोहित हो रही हैं ।
प्रश्न किया जा सकता है कि अमूर्त आत्मा मूर्त कर्मों को किस प्रकार ग्रहण करता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जैसे दीपक वत्ती के द्वारा तेल को ग्रहण करके अपनी उष्णता से उसे ज्वाला के रूप में परिणत करता है, उसी प्रकार जीवात्मा कषाय सम्बन्धी विकारो द्वारा कर्मरूप परिणत होने योग्य परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके कर्मरूप परिणमन मे निमित्त बनता है । आत्मा के प्रदेशों के साथ इन कर्म परमाणुप्रो का सम्बन्ध होना ही कर्मबन्ध कहलाता है।
यद्यपि आत्मा स्वभावतः अमूर्त है तथापि अनादिकाल से कर्म से संबद्ध है। अतएव मूर्त सरीखा होकर वह कर्मवर्गणा के परमाणुमो को ग्रहण करता है । वह कर्मबन्ध आठ प्रकार का है । वह इस प्रकार हैं(१) ज्ञानावरणीय कर्म-विशेष बोधरूप ज्ञान को आच्छा
दित करने वाला कर्म । (२) दर्शनावरणीय कर्म-वस्तु के सामान्य बोधरूप दर्शन
को ढंकने वाला कर्म । (३) वेदनीय कर्म- सुख और दुख का अनुभव कराने
वाला कर्म । (४) मोहनीय कर्म- श्रद्धा और चारित्र का नाश करने
वाला कर्म । (५) आयुष्य कर्म- चार गतियो मे भ्रमण कराने वाला
कर्म ।