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एकत्तरवां बोल-३६३ उन्हें सर्वप्रथम जीतना आवश्यक है । मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, यह चार कर्म घाती हैं । ज्योज्यों इन कर्मों को आत्मा जीतता जाता है, त्यो-त्यों उसके गुणो का विकास होता जाता है । कर्मों के विनाश के साथ आध्यात्मिक विकास होता रहता है । कर्मों का जब सम्पूर्ण क्षय हो आता है, तभी परमपद -मोक्ष की प्राप्ति होती है। जब तक थोड़ा सा भी योग अर्थात् मानसिक, वाचिक या कायिक व्यापार जारी रहता है, तब तक पूर्ण आध्यात्मिक विकास नही हो पाता । चौदहवें गुणस्थान मे अयोगीपन होता है । बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में योग मौजूद रहता है । घाती कर्मों के क्षय के साथ ही केवलज्ञान और केवलदर्शन का आविर्भाव होता है । इस अवस्था में भी योग की विद्यमानता के कारण ऐर्यापथिक ( ईरियावहिया) कर्म का अ स्रव होता है । मगर वह कर्म प्रथम समय में बंधता है, दूसरे समय में ही वेदन हो जाता है । तीसरे समय मे तो उसकी निर्जरा हो जाती है।
जो वीतराग और वीतद्वेष है, वह शोकरहित है । जैसे कमल की पाखुडी जल में रहती हुई भी जल से लिप्त . नहीं होती, उसी प्रकार वीतराग ससार मे रहते हुए भी सासारिक दुःखप्रवाह से लिप्त नही होते । शब्दादि विषय कैसे भी क्यो न हों, उनके मन को लेशमात्र भी न भेद सकते हैं और न विकृत ही कर सकते हैं ।
जिस प्रकार जले हुए बीज से अकुर उत्पन्न नही होते, उसी प्रकार नष्ट हुए कर्म-बीजों से भवरूपी अकुर उत्पन्न नहीं होता।
वीतराग और वीतद्वेष पुरुष किस प्रकार कर्मों का